चिलचिलाती धूप में भी छांव ढूंढ़ती हूँ ,
मेरी कलम जब भी चलती बस तेरा ज़िक्र ढूंढ़ती हूँ..
एक मंज़र ज़िन्दगी का ऐसा भी है दोस्त..
की रिश्तों की धूप-छांव में वो सारे सबक
ढूंढ़ती हूँ
आबादियों में होते है बर्बाद कितने लोग…
यूँ वक्त गुज़रता देख.. मैं आज एक ठहराव ढूंढ़ती हूँ
जिंदगी की इस धूप में छाँव ढूंढ़ती हूँ…
कहाँ से टूट गये ये रिश्ते वो घाव ढूंढ़ती हूँ…

किस पत्थर से लगी ठोकर
उसकी फ़िक्र नहीं हैं मुझे ..
दाएं के लगी या बाएं लगी ..
बस वो पांव तलाशती हूँ ..

मेरे बैठने के लिए तो
कई बरगद हैं इस शहर में..
मग़र कई काफ़िले बैठ सके
ऐसी छाँव तलाशती हूँ..

मेरे दरिया पार करने को
कई पतवारें हैं नज़र में..
मग़र ज़माने को बचा सकूँ
ऐसी नाव तलाशती हूँ..

बहुत सी शोर सुनती हूँ
दिन भर इस शहर में..
मग़र दिल को सुकून दे जाए
वो आवाज तलाशती हूँ..
जहां मिल सकें ऐसा सुकून
हर बार वो छाँव ढूंढ़ती हूँ
जिंदगी की धूप में वो छाँव ढूंढ़ती हूँ…
कहाँ से टूट गये ये रिश्ते
वो घाव तलाशती हूँ…
आख़िर थक कर फिऱ से
वो ही एक छाँव ढूंढ़ती हूँ..
जो खो चुका वो मंज़र
वो मुकाम ढूंढ़ती हूँ..
ज़िंदगी मे ऐसा ठहराव ढूंढ़ती हूँ
मुझे दे सके जो सुकून वो छांव ढूंढती हूँ