प्रभा खेतान के ‘छिन्नमस्ता’ उपन्यास में ‘स्त्री विमर्श’

गढवी योगेशकुमार गणपतदान

स्वदूर विला सोसायटी मकान

नं-५ पदमनाथ चौकड़ी,

चाणस्मा हाईवे पाटन,

तहसिल / जिल्ला – पाटन

मो -९८७९३११९६३

शोध सारांश

नारी विमर्श को अंग्रेजी में ‘फेमिनिज्म ‘कहां गया है। पश्चिम के विद्वान इस्टेल फ्रडमैन ने निम्न शब्दों में परिभाषित किया है। “नारी विमर्श यानी पुरुष एवं स्त्री सम महत्व रखते हैं । अधिकांश समाजों में पुरुष को वरीयता देते हैं।स्त्री पुरुष समानता के लिए सामाजिक आंदोलन जरूरी है।क्योंकि लिंगा धारित अंतरअन्य अतः सामाजिक परंपराओं में प्रवेश करता है।जो हो यह निश्चित है कि यह चिंतन अन्याय के विरुद्ध है। भारत की संस्कृति मे जब भी कहीं नारी ने अपने विचार के लिए सिर उठाया तो उसे पश्चिमी सोच समझ कर टाल दिया गया। आज हम प्रभा खेतान जीके ‘छिन्नमस्ता ‘उपन्यास में नारीविमर्श या चिंतन किया है।प्रभा खेतान जीने अपने साहित्य के माध्यम से समाज में चेतना लाने की बात की है।उन्होंने स्त्री को पुरुष के समान दर्जा दिलवाने के लिए अनेक कहानी उपन्यास की रचना की है।

बीज शब्द: स्त्री विमर्श, फेमिनिज़्म, पश्चिम, साहित्य

शोध आलेख :

हिंदी साहित्य ने इस युग मे बहुत से दबे हुए स्वर को उदघोषित किया है। हिन्दी साहित्य ने अनेक विधाओं पर अपनी सशक्त लेखनी चलाई है। आजके आधुनीक युग में विमर्श की लेखनी ज्यादातर लीखी जा रही है। उसमें दलित विमर्श आदिवासी जाती के उत्थान में विमर्श पिछड़े हुए समाजके प्रति उदघोषकेश्वर ज्यादातर दिखाई देते हैं। आज नारी विमर्श की बात कर रहे हैं तो नारी विमर्श या यानी स्त्री विमर्श की बात यह विमर्श मैं स्त्री को केंद्र बिंदु रहकर आंदोलन जरिए स्त्री अस्मिता मुल्कसाहित्य की रचना की जाए उसे नारी विमर्श या स्त्री विमर्श कहा जाता है। नारी विमर्श को अंग्रेजी में ‘फेमिनिज्म ‘कहां गया है। पश्चिम के विद्वान इस्टेल फ्रडमैन ने निम्न शब्दों में परिभाषित किया है। “नारी विमर्श यानी पुरुष एवं स्त्री सम महत्व रखते हैं । अधिकांश समाजों में पुरुष को वरीयता देते हैं।स्त्री पुरुष समानता के लिए सामाजिक आंदोलन जरूरी है।क्योंकि लिंगा धारित अंतरअन्य अतः सामाजिक परंपराओं में प्रवेश करता है।जो हो यह निश्चित है कि यह चिंतन अन्याय के विरुद्ध है। ” -> इस्टेल फ्रेडमेन

भारत की संस्कृति मे जब भी कहीं नारी ने अपने विचार के लिए सिर उठाया तो उसे पश्चिमी सोच समझ कर टाल दिया गया। आज हम प्रभा खेतान जीके ‘छिन्नमस्ता ‘उपन्यास में नारीविमर्श या चिंतन किया है।प्रभा खेतान जीने अपने साहित्य के माध्यम से समाज में चेतना लाने की बात की है।उन्होंने स्त्री को पुरुष के समान दर्जा दिलवाने के लिए अनेक कहानी उपन्यास की रचना की है।

कवियत्री का नारी दर्शन :

प्राचीन समय में भी नारी नें पुरुष समाज के समक्ष अपना वैचारिक द्रोह व्यक्त किया है।उस समय चल रही पुरुष समाज ने अपने बने बनाए नियमों उसके वर्चस्व को स्त्री की अपनी निरिहता के विवशता के कि वह अपने कोउसको जकड़ने से उनकी रुढीयो विपरीताओ के प्रती अपनी आवाज बुलन्द की है। प्रभा खेतान जी नें अपने ‘ छिन्नमस्ता ‘उपन्यास में स्त्री वेदना केा उभारा है । आप महाभारत से लेकर रामायण काल तक स्त्री केा लज्जा के दायरेसंस्कार की दुहाई देकर शोषण किया गया है । तब भी द्रौपदी ने अपनी पांच पति एवं सभा के सभी सदस्यों को फटकार लगाई है । स्त्री को समझना बहुत जरूरी है उसकी भी बहुत सी उम्मीदें भावना पर चोट लगती है तब विमर्श के स्वर बहते हैं । पुरुष प्रधान समाज की कठपुतली नहीं है स्त्रीउसके अनेक रूप है कहीं वह मां के रूप में है कहीं पत्नी के रूप में सदा वात्सल्य ही उसका प्रयोजन रहा है उसकी मासूमियत को जब चोट पहुंचाई जाती है तभी समाज में क्रांति के स्वर गूंजते हैं इस स्वर को पकड़कर लेखिका ने स्त्री पीड़ा कोसमाज तक पहुंचाने का सघन प्रयास किया है । प्रभा जी का जन्म 1 नवंबर 1942 में हुआ था उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एम.ए. की डिग्री हासिल की ज्या पार्ल सार्त्र के अस्तित्व पर पी.एच . डी की उपाधि हासिल की -उन्होंने अपनी 12वर्ष की उम्र से ही साहित्य साधना में लग गई उनकी पहली रचना सुप्रभात में छपी थी हिंदी साहित्य की विलक्षण बुद्धि जीव उपन्यासकार कवियत्री नारीवादी उद्घोषक तथा समाजसेवी रही है।कोलकाता चेंबर ऑफ कॉमर्स की वह पहली महिला अध्यक्ष रहे।स्त्री विमर्श को केंद्र में रखकर लिखने वाले नामांकित लेखकों में से एक डॉ .प्रभा खेतान थे।

डॉ प्रभा खेतान जी ने समाज में आंखें देखी एवं कानों सुनी सभी परिस्थितियों को अभिव्यक्त किया है । स्त्री विमर्श यानीपुरुष प्रधान समाज के द्वारा लैंगिक भेदभाव से स्त्री शोषण के खिलाफ किया गया आंदोलन जिसमें प्रभा खेतान जी ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति की है।

प्रभा खेतान जी के उपन्यास छिन्नमस्ता में स्त्री विमर्श :

प्रभा खेतान जी के छिन्नमस्ता उपन्यास में पितृसत्तात्मक समाज मेजो स्त्री को चार दिवार ही उसकी दुनिया है उसमें से पिछड़ी हुई नारी को नई दुनिया नए विचार प्रदान किए हैं । चार दिवार के बाहर भी विशाल विश्व हैस्त्री को इस खोखले समाज ने चार दिवार में ही उसका जीवन है यह समझ देकर चुप करा दिया थावह नारी उसने आधुनिक एवं पाश्चात्य रूप में विद्या के कारणस्त्री ने अपना नारी अस्तित्वएवं स्त्री शक्ति का जयघोष किया । पितृसत्ता को सदा ही जय भय रहता था कि वह स्त्री सत्ता से पराजित हो न जाए स्त्री को उन्होंने लज्जा एवं संस्कार के दायरे देकर स्त्री के अपने विचार को कभी फर्स्ट एवं सहज समझा ही न है । स्त्री अपना जीवन भोजन पकाना एवं घर की जिम्मेदारी को उठाना ही उसका सर्वस्व बन गया है आज आधुनिक नारी शिक्षा एवं कानून से परिचित हुई है और उसने अपने प्रति होने वाले अत्याचार शोषण यौन शोषण मानसिक विडंबना के खिलाफ आवाज उठाई है । स्त्री विमर्श यानी स्त्रीशोषण अत्याचार जैसेसभी उत्पीड़न के सामने स्त्री की पैरवी कर उसे न्याय दिलाना उसके वास्तविक अधिकार को दिलवाना जब स्त्री विमर्श यानी स्त्री के साथ विमर्श जुड़ने से यह तात्पर्य है कि स्त्री वहां मध्यस्थान रखकरया केंद्र रूप रखकर उसकी समाज या परिवार में उपेक्षा एवं अवमानना के कारणों की सघन जांच करना या उसकी अवमानना करने का कारण क्या है यह प्रश्न समाज से पूछना स्त्री विमर्श यानी पुरुष समाज के द्वारा लाजित किए हुए मूल्य पर प्रश्न उठा कर सचोट और कटाक्ष कर स्त्री को पुनः जागरण के लिए जागृत करना । स्त्री विमर्श के माध्यम से पुरुष समाज के द्वारा स्त्री पर हो रहे दुराचारहिंसा प्रहार एवं शोषण करने वाली मानसिकता पर विचार करता है । आज आधुनिक युग में स्त्री पुरुष प्रधान समाज को चुनौती देकर उनके अस्तित्व को बरकरार रखने का प्रयत्न कर रही है । यही प्रधानता छिन्नमस्ता उपन्यास में स्त्री विमर्श की बात को सचोट प्रिया के माध्यम से समझाया गया है । स्त्री पर बहुत शोषण अत्याचार के प्रति प्रिया अपना सिर तानकर खड़ी है । रब्बा खेतान जी ने भी बहुत ही सघन रूप में समाज की अभिव्यक्ति स्पष्ट की है । समय ने करवट बदली है उसी प्रकार लेखन की परिस्थिति बदल रही है। कई सदियों से अपेक्षित वंचित शोषित नारी आज अपने अधिकार के लिए लड़ना सीख गई है । नारी ने अपनी सदियों की चुप्पी को तोड़ा है । पुरुष प्रधान समाज ने चाहा हुआ रूप बिल्कुल अपनाया था स्त्री ने उस चोले को निकालकर दहाड़ नई चेतना रूपी आज के युग अनुरूपनए मूल्यों के अनुसार नारी विमर्श था के स्वरूप कलम चली है । उसमें प्रभा खेतान जी नारी चेतना एवं विमर्श था पर अपनी सशक्त लेखनी चला रही है । स्त्री लेखन की प्रक्रिया सुधरी परंपरा रही है और वह लंबी यात्रा के बाद प्रभा जी के पास मुदित हुई है । श्री के स्वतंत्र अस्तित्व की और उंगली निर्देशन कर रही है उसे घोर निंद्रा के द्वारा उखेड़ रही है । प्रभा जी ने साहित्य जगत में स्त्री की आर्थिक स्थिति संघर्ष को समझ कर कड़वे अनुभवो को बडे संघर्ष को बडे ही सींदत से उठाया गया है । प्रभा जी ने अपने जीवन अनुभव का आईना उनके साहित्य में दिखाई देता है । उनके साहित्य में काल्पनिक का से ज्यादा वास्तविकता दिखाई पड़ती है । प्रभाजी स्त्री विमर्श एवं स्त्री मुक्ति की पैरवी करती हैं । जगत में पुरुष प्रधान समाज के रूबी चुस्त एवं घटिया किस्म के नियम निधान से नारी विमर्श का स्वर उन्होंने छिन्नमस्ता उपन्यास में वर्णित किया है उनके निजी जीवन में घटित घटनाओं एवं अनुभव के द्वारा घिसी पिटी परंपराओं का विरोध किया है और स्त्री जाति को विशिष्ट सम्मान प्रदान किया है ।

‘छिन्नमस्ता ‘ में स्त्री विमर्श के आलाप :

हिंदी साहित्य जगत में प्रभा खेतान जी का कथा साहित्य में उनकी ईमानदारी अनेक स्तरों पर दिखाई पड़ती है । ‘छिन्नमस्ता में विश्व की नारी का जीवनविडंबना का चित्रण है । छिन्नमस्ता में उच्च वर्ग एवं सामंतवादी व्यवस्था की खोखले पन को बहुत ही फिटकारा है । इस उपन्यास का क्षेत्र मारवाड़ी संपन्न परिवार है उसके इत्र गिद्र रचा गया है यह व समाज है जो सब्जी मंडी की तरह अपने बेटे या लड़के को बेचते या खरीदते हैं इस कूरीवाज की शिकार खुद प्रभा जी भी हुई है । छिन्नमस्ता उपन्यास साधारण स्त्री प्रिया के जीवन संघर्ष एवम् असाधारण संघर्षों की गाथा भी कहा जा सकता है । स्त्री विमर्श की प्रमुख पक्षधर रही लेखिका ने नायिका प्रिया के माध्यम से स्त्री जीवन की पीड़ा को दर्द को महसूस क२आलेखा है । हमारे देश एवं समाज की सामंती अर्थ-व्यवस्थाधर्म एवं इज्जत की आड़ में रखकर स्त्री की शोषण प्रक्रिया की गई है । साधारण स्त्री लगने वाली प्रिया अपनों के बीच ही पराया पन महसूस करती हैं । किंतु कहीं भी हिम्मत न हारकर स्त्री विमर्श का जयघोष कर अपने न्याय के लिए लड़ती हैं प्रिया जो स्त्रीपात्र में छिन्नमस्ता मेंप्रमुख नायिका के रूप में अपनी महत्वाकांक्षा का दामन छोड़ती नहीं है । और अंत तक पूर्ण जिजीविषाके साथ वह एक सफल व्यवसायिक बनकरअपना जीवन व्यतीत करती है । जब अपने से ज्यादा व्यवसायिक दौर में ऊपर उठी प्रिया को देखकर बिजनेस में आगे बढ़ने के कारण जब समाज के खोखले आडंबर को छोड़ प्रिया स्त्री अधिकार की बात करती है तब उसकी आजादीसहन ना हो पाने के कारण नरेंद्र प्रिया से गुस्से से कहता है कि -“यह मत भूलो प्रिया कि मैं पुरुष हूं इस घर का कर्ता । यहां मेरी मर्जी चलेगी :हां सिर्फ मेरी ! ” ( छिन्नमस्ता – प्रभा खेतान पृ – 13 ) इस उपन्यास के माध्यम रूप प्रिया ने संघर्षों की और पीड़ा की कहानी नहीं किंतु समाज में स्त्रियों के उत्पीड़न एवं अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की बात करता है । उच्च वर्ग एवं सामंत शाही परिवार जो मर्यादा एवं इज्जत को खोखला पन बेनकाब किया है । स्त्री यदि दहलीज के उस पार जाए तो पुरुष प्रधान उसे लज्जा समझता है । किंतु एक पत्नी होने के बावजूद वह किसी भीस्त्री से संबंध जो अवैधीक है वह रखे तो जायज है । वह लैंगिक भेदभाव को इस उपन्यास में प्रभा जी ने प्रिया नामक नायिका के माध्यम से कोचा एवं सशक्त लेखनी के द्वारा विरोध किया है । “पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री और पुरुष दोनों ही उत्पादन में लगे हुए हैं लेकिन पुरुष सता ने एक खास उत्पादन पद्धति को अपनाया हुआ है पुरुष जो कुछ करता है उसकी कीमत आंकी जाती है । इसलिए उसकी पहचान और अस्मिता विशिष्ट मानी जाती है । दूसरी और स्त्री श्रम का मूल्यांकन नहीं हुआ । यह मूल्यांकन पुरुष ने मनमाने ढंग से किया है । ” ( प्रभा खेतान – स्त्री धर्म और परंपरा – पृ – 52 ) इस उपन्यास का पुरुष पात्र नरेंद्र हो या नरेंद्र का पिता विजय हो जो तिलोत्तमा की मांग में सिंदूर तो भरता है मंगलसूत्र पहनाता है । किंतु समाज एवं जिंदगी में उसे पत्नी के रूप में हाथ थामना नहीं चाहता उसमें उसे झिझक एवं शर्म महसूस होती है उसे आजीवन उसके रखैल का जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर किया जाता है इसी प्रकार उपन्यास स्त्री प्रधान नायिका प्रिया की नानी दूसरी मामी छोटी मां एवं एस आराम की जिंदगी प्रसार करने वाला नरेंद्र कि हर महीने बदलने वाली सेक्रेटरी यह सब स्त्री या शोषित रूप में दिखाई देती है । सबसे को खुलापन यह है कि स्त्रीकों अपनों ने ही प्रताड़ित किया है । स्त्री – स्त्री जाति की दुश्मन बनी हुई है । साडे 9 वर्ष की उम्र में ही प्रिया जब अपने ही बड़े भाई के द्वारा हवस का शिकार बनती हैं तब उसके मानसिक तनाव का अंदाजा भी पुरुष समाज नहीं लगा सकता । जब प्रिया सदियों से चल रही घिसी पिटी प्रथा एवं रिवाज का खंडन करती है तब आग उगला होते हुए नरेंद्र अपनी पत्नी से कहता है कि – “दरअसल तुम्हें इतनी खुली छूट देने की गलती मेरी ही थी । मुझे पहले ही चिड़िया के पंख काट डालने चाहिए थे । ” ( छिन्नमस्ता – प्रभा खेतान पृ – 11 )

इस उपन्यास में सभी स्त्री पात्र अपनी उत्पीड़न को कहे तो भी किसी जहां पुरुष समाज उनके शोषण एवं लूट के लिए तैयार बैठा है एवं स्त्री जाति की चपलता के कारण ही एक स्त्री दूसरी स्त्री सेद्रोणा या इच्छा रखती है पर उनका उनके प्रति सहानुभूति का कोई रूप न देखकर दूसरी स्त्री के शोषण एवं अत्याचार में अपनी हां भर्ती हैं । यदि प्रिया के अत्याचार को उसकी मां बचपन में सुन लेती उसे बचपन में सहानुभूति एवं लाड़ दुलार देती तो मुझे लगता है कि शायद छिन्नमस्ता जैसा उपन्यास लिखा ही न जाता । क्या हुआ समाज है जहां एक पुरुष को तानाशाह में तब्दील कर दिया जाता है और यही तानाशाही वैचारिक ता पत्नी बहन और बेटी को तिरस्कृत करती है । नैतिकता मर्यादा जैसे दिल मिले सब दो की दुहाई देता हुआ पुरुष प्रधान समाज स्त्री को एक बोज वस्तु के अतिरिक्त कुछ नहीं समझा जाता । एवं पुरखो से मिली परंपरागत रूबी का संस्कार है उसके कारण स्त्री की भावना को कहीं कोई चेत ही नहीं दी जाती । केवल स्त्री को पुरुष के पैर की जूतीसमझा जाता है समाज की कोई भी स्त्री या बहन मां हो किंतु इस उपन्यास में नारी की पीड़ा को प्रमुख स्थान दिया गया है । पितृसतावादी समाजमें स्त्री की वंचनायातना को भुगतती है । उसका कच्चा पीठा यहां प्रभा जी ने खोला है । इस उपन्यास में नीना और तिलोत्तमा के माध्यम से हम देख सकते हैं कि पुरुष दोषी होते हुए भी साफ सुथरा दिखाई पड़ता है और स्त्री निर्दोष होने के बावजूद भी सजा भुगत ती है पुरुष प्रधान समाज तिलमिला उठता है उसे लगता है कि अर्थो पाजन उसका जिम्मा है । या अधिकार है इस चित्र में स्त्री कैसे आ सकती है और आप भी जाए तो स्थापित किस प्रकार हो सकती हैंयदि स्त्री अपनी काबिलियत पर स्थापित हो जाए या परिश्रम रंग ला देता हे तो पुरुष समाज को यह जरा भी नहीं भाता इसी बात पर नरेंद्र प्रिया का पति प्रिया को कहता है कि – ‘तू में रुपया ! चाहे ना बोलो कितने रुपए लाख , दो लाख ,करोड़ जब देखो रुपया के पीछे भागती रहती है । लो यह लो !जब अपने से ज्यादा व्यवसायिक क्षेत्र में आगे बढ़े हुए प्रिया को देखकर नरेंद्र उसे कहता है कि तुझे परिवार चाहिए या व्यवसाय इस दोनों में से किसी एक को चुन लें इस प्रकार उसकी प्रगतिके पथ पर कांटे बिछाता है । नरेंद्र प्रिया से कहता है कि “मैं सीरियस हूं । फिर कहता हूं यदि आज तुम लन्दन गई तो मेरे घर में तुम्हारी जगह नहीं । यह भी साली को जिंदगी है ,जब देखो तब बिजनेस । फिर सुन लो ,यहां मत आना आओगी तो मैं धक्के देकर बाहर निकलवा दूंगा । ” ( छिन्नमस्ता – प्रभा खेतान – पृ . 13 )

यह कैसी विडंबना है कि एक स्त्री कितनी यातना एवं विडंबना को सहते हुएअपने अस्तित्व को बरकरार करती हैं तो पुरुष समाज इसको देख तिलमिला उठता है उसके अहंकार को ठेस पहुंचती है । जिसको कभी अपनी बराबरी का नहीं समझा वह नारी शक्ति उसके बराबर कैसे होगी इस संदर्भ में छिन्नमस्ता उपन्यास नारी विमर्श हो प्रबलता से उभारता है । इस उपन्यास के द्वारा वस्तुतः रूप में स्त्री को कंटे बिखरे मार्ग वाह स्वतंत्र अस्तित्व की खोज के लिए लोही लुहान होता दृष्टिकोण प्रदान करता है । स्त्री एवं पुरुष दो सिक्के की एक पहलू है या दोनों पुरुष स्त्री समानता का जयघोष करता है । जब तक स्त्री अपने अन्याय के लिए खुद लड़ना सीखेगी नहीं तब तक उसे न्याय न मिलेगा । जबकि उपन्यास इस बात को बार-बार दोहराता है स्त्री को अपने अस्तित्व का वजूद खुद होना पड़ेगा । इसी संदर्भ में उपन्यास की प्रमुख नायिका यह कथन करती है प्रिया की – ” नीना हम सबको अपनी अपनी लड़ाई अकेले ही लडनी होगी । ” यहां नारी के मान में फिलिप कहता है कि – “प्रिया सम्मान कोई देगा नहीं सम्मान अर्जित करना पड़ता है सम्मान अर्जन के लिए स्त्री पहले आत्मा रूप से आत्मनिर्भर बने । “

प्रिया पुरुष शून्य होकर निरंतर अपनी जिंदगी में आत्मा और समाज से संघर्ष करती हुई परिस्थिति से जूझते हुए अपने मुकाम पर पहुंचती है प्रिया कहती है कि पुरुष पैसा कमाता है वह दो चार लोगों को पाल लेता है जब स्त्री सीमा लग जाती है तो वही परंपरा समाज उसके लिए खत्म हो जाता है । “लेकिन असल रूप में मानव समाज बहुत बड़ा है प्रिया जो स्त्री होकर इस समाज को दे सकती है वह पुरुष होकर भी नरेंद्र नहीं दे सकता । प्रभा जी ने इस उपन्यास में पुरुष समाज का स्वार्थ बेनकाब किया है । प्रिया के माध्यम से प्रभा जी ने सशक्त स्त्री चेतना का चिंतन करवाया है प्रिया कहती है – “मैंने अभी-अभी जीना सीखा है धरती पर मेरी जरूरत के मुताबिक धूप है हवा है पानी है और मैं अपनी इस गति से दौड़ रही हूं । ” दोस्तों इसी गति से पुरुष प्रधान समाज डरा हुआ है स्त्री की यही गति को अटकाने के लिए हीस्त्री के पथ पर रोड़े अटकाता है । स्त्री को समाज के सम्मानित ठेकेदार दरअसल ऐसी घरतोड़ स्त्री कोसजा देने के हक में हैं वे चाहते हैं कि स्त्री को आगे ना बढ़ने दिया जाए । क्योंकि यदि एक स्त्री अपने अधिकार को अपने अधिकार को प्राप्त कर लेगी तो दूसरी औरतें भी न्याय के लिए लड़ने लगेगी और उनके पितृसत्ता की सिहासन खुर्ची एवं सत्ता का क्या होगा इसलिए स्त्री को संवेदना एवं चेतना शून्य बनाए रखना उचित है । समाज की खोखली मर्यादा संस्कार जैसी रूढीता में स्त्री को ही क्यों आहूत किया जाता है । ” सच कहूं नरेंद्र , ये शब्द भ्रम है । औरत को यह सब इसलिए सिखाया जाता है कि वह इन शब्दों के चक्रव्यू से कभी बाहर नहीं निकल पाए ताकि युगो सें चली आती आहुती की परंपरा को कायम रखे । ” ( छिन्नमस्ता – प्रभा खेतान – पृ -12 ) इस उपन्यास में इस और दृष्टिकोण किया हैप्रिया के माध्यम से समाज में नारी जाति को आगे बढ़ने का साहस दिलवाया है । स्त्री स्वतंत्रता के माध्यम से पथरीला मार्ग पर चलना एवं अपने खुद के निर्णय सोचने के लिए प्रोत्साहित किया है । इस दुनिया में अपना अस्तित्व स्थापित कर जयघोष कराना चाहा है उपन्यास में कहा है कि उठो अपनी बाहों को फैलाओ अपने अधिकार की लड़ाई खुद को लड़ने पड़ेगी । आज के युग में स्त्री की सुरक्षा के अनेक प्रश्न दिखाई पड़ते हैं । सूरत में स्त्री की हत्या का केस अभी ही दर्ज हुआ है । क्या यह घर में या घर के बाहर सुरक्षित है कि नहीं इसे दर्शाते प्रिया उपन्यास में कहती है कि “मुझे नफरत है इस पुरुष जाति से नफरत है उनसे जो मासूम छोटी नादान लड़कियों को भी नहीं छोड़ते जन्म से औरऔरत असहाय औरत उसे न पीता छोड़ता है । न भाई अपनी नारी देह मे स्वयं क्षत-विक्षत कर रह जाती हैं। इस दलदल से जिंदगी में क्या कहीं नया पनया बदलाव दिखाई नहीं देता । छिन्नमस्ता उपन्यास तरीके कमजोरी को न तो कहीं छुपाता है न कि उसकी ताकत को दबाता है । वरन बेबाक होकर स्त्री अपने आप को अपने जीवन को समाज के सन्मुख खोलकर सत्यता बताने की हिम्मत करती हैं । इस उपन्यास में स्त्री विमर्श को आवाज दी गई है ।

निष्कर्ष :

निष्कर्षत: छिन्नमस्ता उपन्यास की स्त्री अंधेरे से अधिकार हीन स्त्री को उजाले की और किरण भी दिखाता है । उपन्यास स्त्री जीवन के जख्म एवं दर्द को समाज में मुखिया कराती हैं । वाह चाहती नहीं कि उसके दर्द में कोई भागी हो या कोई जख्म पर मलम लगाए । अपने बाहुबल के द्वारा ही स्वयं अपने जख्म खोलकर अधिकार न्याय की मांग करती है । नैना और प्रिया के माध्यम से प्रिया संकल्प कर कहती है कि “नहीं मैं हार नहीं मानूंगीबड़ी कीमत दूंगी और बड़ी आहुति देखती हूं कोई मेरी उपेक्षा कैसे करता है । मैं जरूरी हूं इस समाज का अपने परिवार का बहुत ही जरूरी खंभा हूँ । ” स्त्री निव का पत्थर है उसके बिना जीवन शक्य नहीं है यही बात धर्म भी बताता है -यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता यानी स्त्री का जहां आदर होता है वही प्रभु का वास होता हैइसी बात को दोहराते हुए स्त्री अधिकार की मोहर प्रभा जी समाज में इस उपन्यास के माध्यम से लगाना चाहती है । इस उपन्यास के माध्यम से पिछड़ी हुई स्त्री को समाज में मान एवं आदर का जीवन जी ने के लिए स्त्री विमर्श को प्रभा जी ने उभारा है । इस प्रकार यह उपन्यास स्त्री चेतना का सघन प्रयास है ।

संदर्भ सूची

1. छिन्नमस्ता – प्रभा खेतान – पृ – 13

2. स्त्री धर्म और परंपरा – पृ 52

3. छिन्नमस्ता – प्रभा खेतान – पृ – 11

4. छिन्नमस्ता -प्रभा खेतान – पृ – 13

5. छिन्नमस्ता -प्रभा खेतान – पृ – 12