डॉ बाबा साहेब अंबेडकर की दृष्टि में स्त्री-मुक्ति।

डॉ संतोष राजपाल
पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च  फेल्लो
हिंदी अध्यन विभाग
मानसगंगोत्मैसूर विश्वविध्यालय
मैसूर ५७०००६

नारी भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण अंग रही है। नारी के विविध रूपों की व्याख्या हो चुकी है, युगों-युगों से पीड़ित, अत्याचार-अनाचार की शिकार एवं वासना तृप्ति का साधन बनकर जीवन व्यतीत करने वाली नारी बेवश, लाचार एवं अपमानित ज़िंदगी जी रही है। “किसानों और मजदूरों के बाद भारतीय समाज का एक बृहद शोषित समूह भारतीय नारी अर्थ और अधिकार से वंचित रहने के कारण उसका कोई चारा नहीं। आर्थिक और सामाजिक स्तर पर उसका बराबर शोषण हो रहा है।“१  यह कथन दलित नारी पर भी लागू होता है। भारत में दलितों की हीन अवस्था और उनके उद्धार का कार्य युग प्रवाह के साथ हुआ और आज भी हो रहा है। उसमें डॉ बाबा साहेब अंबेडकर का नाम अग्रीण और अमर है। डॉ बाबा साहेब का काल सन १८९१ से १९५६ तक रहा उनका जीवन काल दलितों की खातिर समर्पणशील और त्यागी व्यक्तित्व का प्रतिबिंब है। जिसके अनावश्यक, अन्याय, झूठी प्राचीन व्यवस्था के प्रति विद्रोह का स्वर उबरा हुआ है। इस महान विभूति के जन्म से न केवल दलितों को बल्कि मानवता को मान, प्रतिष्ठा और चेतना का स्वरूप प्राप्त हुआ। समता और स्वतन्त्रता के प्रतिपादक तथा दलितों के भाग्यविधता के रूप में बाबा साहेब का व्यक्तित्व सदा प्रकाशमान रहा है। बाबा साहेब का विचार था कि मनुवादी व्यवस्था ने जिस प्रकार प्राचीन काल से ही अस्पृश्य जाति के विकास में बाधा उत्पन्न की थी, उसी प्रकार महिलाओं के विकास और स्वतन्त्रता के अधिकारों को भी रोका था। मैं इस संधर्भ में डॉ बाबा साहेब द्वारा लिखी गई लेख जिसका शीर्षक है ‘हिन्दू नारियों का उत्थान और पतन’ जो ‘महाबोधि’ मासिक में प्रकाशित हुई थी उसे उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत करके बताना चाहूँगा कि स्त्रियों को खास करके दलित स्त्रियों को मनुवादियों ने समाज में दबाकर रखा। सन १९५० में बम्बई के एक लेखक ने ‘ईव्स वीकली’ नामक स्त्रियों के साप्ताहिक जनवरी १९५० के अंक में अपने लेख में लिखा था कि ‘हिन्दू नारियों के पतन के लिए गौतम बुध्द ही जिम्मेदार हैं’ उसका उत्तर देने के लिए बाबा साहेब ने उपर्युक्त उल्लेखित (हिन्दू नारियों का उत्थान और पतन) एक अध्यवसायपूर्ण लेख लिखा और उस लेखक द्वारा लिखी हुई लेख की अच्छी खबर ली और कहा कि “बुद्ध के विरुद्ध यह काफी गंभीर और दुष्ट आरोप हमेशा ही किया जाता है।“२  अंबेडकर के मतानुसार उस लेखक ने जिस लेखांश के आधार पर अपना निष्कर्ष निकाला था, वह लेखांश ही मूलतः आगे की बौद्ध बिक्षुओं ने घुसेड़ा था। गौतम बुद्ध नारियों को न टालते थे, न उनके प्रति तिरस्कार व्यक्त करते थे। बुद्ध के अवतीर्ण होने से पहले ज्ञान प्राप्त करने का जन्मसिद्ध अधिकार नारी को नकारा गया था। अपना आत्मिक उत्कर्ष करने का भी अधिकार उसे नहीं दिया गया था। यह नारी जाति पर सीधा-सीधा अन्याय था। नारी को परिव्राजक का जीवन-क्रय स्वीकारने के लिए स्वतंत्रता देकर बुद्ध ने एक फटकार से नारी पर हो रहे दोनों अन्याय दूर किए। पुरुषों की भाँति नारियाँ ज्ञान अर्जित करें और अपनी आत्मिक उन्नति करें- बुद्ध ने नारियों को प्रतिष्ठता व स्वतंत्रता देने वाली वह एक बड़ी क्रांति थी। मनु बुद्ध का प्रबल विरोधी था। उसने, घर में बौद्ध धर्म का प्रवेश न हो, इसलिए नारियों पर ये बंधन लगाए। उनके माथे पर असमानता के ढेर रचे थे। अपने लेख का निष्कर्ष बताते हुए बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा, “भारतीय नारियों के पतन और विनाश के लिए अगर कोई कारण हुआ होगा, तो वह मनु है, बुद्ध नहीं।“३

डॉ बाबा साहेब अंबेडकर को जब भी कोई अवसर मिला, उनहोंने महिलाओं को विशेषकर दलित महिलाओं को हर प्रकार की स्वतंत्रता, शिक्षा, समानता व समाज की सभी गतिविधियों में पुरुषों के समक्ष ही अपनी भागीदारी निभाने का संदेश दिया। महात्मा फुले द्वारा महिलाओं के उत्थान के कार्य करने के उदाहरण से भी डॉ बाबा साहब ने प्रेरणा ली। महात्मा ज्योतिबा फुले के बाद सर्वप्रथम दलित महिलाओं के बारे में सोचने वाले अगर कोई थे तो वह बाबा साहेब अंबेडकर थे। बाबा साहेब का उदय होने पर दलित स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तनकारी दौर शुरू हुआ। बाबा साहेब स्त्री-शिक्षा और उनके स्वतंत्र विकास के प्रबल हिमायती थे। बाबा साहब ने मानुवादी व्यवस्थाओं के विरुद्ध जो सफल ऐतिहासिक विद्रोह किया और उससे नारी जाति को जो लाभ मिला, उसे देखते हुए वे भारतीय नारी के उद्धारक सिद्ध होते हैं। डॉ बाबा साहब अंबेडकर स्त्री जीवन के संबंध में अपने विचारों को व्यक्त करते हुए कहते हैं “भारतीय समाज व्यवस्था में स्त्री दलित से भी दलित है। इस व्यवस्था ने न केवल उसकी अस्मिता को नकारा है,बल्कि उसे हमेशा दूसरा दर्जा दिया है। उसका प्रवेश ज्ञान क्षेत्र से लेकर धर्म क्षेत्र तक वर्जित था। हजारों वर्षों से वह दासतापूर्ण जीवन जी रही थी।“४

२५ दिसम्बर १९२७ का दिन भारतीय इतिहास का एक अविस्मरणीय दिन बन गया, जब एक आधुनिक न्यानवादी मनु ने पुरातन अन्यायवादी मनु की व्यवस्थाओं को भस्मीभूत कर दिया। इसी मनु द्वारा भारतीय संविधान के रूप में नई व्यवस्था दी गई थी जो आज हमारे देश का सर्वोच्च विधान है। इस प्रकार डॉ बाबा साहेब अंबेडकर ने नारी व दलितों को समानता एवं स्वतंत्रता के मानवाधिकार दिलाकर भारतीय समाज के माथे पर लगी अन्याय और असमानताओं की कलंक कालिमा को धोने में अपना सारा जीवन खपा दिया। २७ दिसम्बर १९२७ को अस्पृश्य महिलाओं को अलग से भाषण देते हुए डॉ बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा “तुम खुद को अस्पृश्य मत मानों। घर में स्वच्छता रखो। स्पृश्य हिन्दू हामिलाएँ जिस तरह कपड़े पहनती हैं, उसी तरह तुम पहनों। धोती चाहे फटी ही क्यों न हो पर वह स्वच्छ होनी चाहिए। तुम इस बात पर सोचो कि तुम्हारे पेट में जन्म देना पुण्यप्रद क्यों है? तुम प्रतिज्ञा करो कि इस तरह की कलंकित स्थिति में हम आगे ज़िंदगी नहीं बिताएँगे। तुम सबको पुराने और बुरे रीति-रिवाजों को छोड़ देना चाहिए। संप्रति कौन कैसे बर्ताव करे इस पर पाबन्दी नहीं है। पूरे गले भर गलासारियाँ और हाथ में कुहनी तक चाँदी के कड़े तुम्हारी पहचान है। अगर जेवर पहनना है तो सोने का पहनों। घर में किसि भी प्रकार की अमंगल बात न होने दो। लड़कियों को शिक्षा दिलाओ। ज्ञान और विद्या दोनों बातें महिलाओं के लिए भी आवश्यक हैं, ऐसी महत्वाकांक्षा मन में रखकर ज़िंदगी बिताओ।“५  डॉ बाबा साहेब का उक्त भाषण यह साबित करता है कि अस्पृश्य वर्ग के लोगों में विशेषकर अस्पृश्य महिलाओं में सामाजिक परिवर्तन की चेतना जागा रहे थे।

१८ और १९ जुलाई,१९४२ को अखिल भारतीय दलित वर्ग की परिषद नागपुर में की जाने वाली थी। यहाँ एक भाषण अमरावती की सुलोचना बाई डोंगरे की आद्यक्षता में दलित वर्ग की महिलाओं की परिषद में हुआ। इसमें डॉ बाबा साहेब ने कहा “मेरा मत है कि महिलाओं का संगठन हो। महिलाओं को अपने कर्तव्यों का महत्व मालूम पड़ने पर वे समाज सुधार का कार्य कर सकेंगी। समाज में घातक रीति-रिवाजों का उच्चाटन कर आपने बड़ी सेवा कि है। आपकी उन्नति के बारे में मुझे समाधान और भरोसा लगता है। आप स्वच्छता को महत्व दें। दुर्गुणों से दूर रहें। बच्चों को शिक्षा दें। उनके मन में माहत्वाकांक्षा जागृत करें। उनके मन पर यह प्रतिबिम्बित करें कि विश्व में बड़प्पन प्राप्त कर सकेंगे। उनके मन से न्यूनतम कि भावना को हटा दें। विवाह करने में जल्दबाज़ी न करें। विवाह एक ज़िम्मेदारी होती है। आपकी संतानों कि उस ज़िम्मेदारी को आर्थिक दृष्टि से सहने में समर्थ हुए बिना वह ज़िम्मेदारी उन पर न लादें। विवाह करने वालों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि ज़्यादा बच्चे पैदा करना पाप है। सबसे महत्वपूर्ण बात यानि प्रत्येक लड़की को शादी के बाद अपने पति के साथ एकनिष्ठ रहना चाहिए। उसके साथ मित्रता और समानता के रिश्ते से बर्ताव करना चाहिए। उसकी दासी नहीं बनना चाहिए। अगर आप इस उपदेश के अनुसार बर्ताव करेंगी तो आपको सम्मान और वैभव प्राप्त हुए बिना नहीं रहेगा।“६  इस प्रकार बाबा साहेब ने अस्पृश्य जाति की महिलाओं को समाज परिवर्तन के लिए अपने सामाजिक दायित्व को स्वीकार करने का पाठ पढ़ाया। बाबा साहेब की उपर्युक्त विचारों से पता चलता हे कि नारी तभी मुक्त हो सकेगी जब वह अपने जीवन में अनुशशित और क्रमबद्ध जीवनशैली अपनाएगी।

डॉ बाबा साहेब अंबेडकर ने २० वीं सदी के तीसरे दशक में ही, जब वे बम्बई विधान परिषद के सदस्य थे, महिला श्रमिकों के लिए प्रसूति-काल में सहूलियत देने के बारे में प्रस्तुत विधेयक के समर्थन में अपने भाषण में कहा, “मैं यह मानता हूँ कि प्रत्येक माता को प्रसूति-पूर्व और प्रसूति बाद कि अवधि में कुछ विशिष्ट समय तक विश्राम मिलना राष्ट्र-हित की दृष्टि से लाभदायक है। यह विधेयक को तो उसी तत्व पर आधारित है। इस पर होने वाला व्यय सरकार उठाए। तथापि तत्कालीन परिस्थिति में वह आर्थिक बोझ मालिक वर्ग ही सहन करे।“७  इससे यह भी स्पष्ट होता है कि बाबा साहेब ने महिलाओं की समस्या को राष्ट्र-हित में आवश्यक मानते हुए राज्य को भी उसके दायित्व का आभास कराया। डॉ बाबा साहेब का विधान परिषद में दिया गया, उस समय का यह वक्तव्य उनके राजनीतिक-सामाजिक सोच को भी दर्शाता हैं। जब १९४२ में वाइसराय की काउंसिल (मंत्रिमंडल) के वे सदस्य थे। उनहोंने श्रम मंत्री के रूप में महिला मजदूरों की मजदूरी बढ़ाने के विशेष उपलब्द किए। बाबा साहेब ने कोयला खान में काम करने वाली महिलाओं की प्रसूति अवकाश, स्वास्थ्य, मनोरंजन और काम के घंटे निश्चित किए। इसके अतिरिक्त, ‘फरवरी १९९४ में डॉ बाबा साहेब अंबेडकर की पहल के परिणामस्वरूप कोयला खान में काम करने वाली महिला श्रमिकों को पुरुष श्रमिकों के समान वेतन पाने का अधिकार मिला। श्रमिकों की कमी को देखते हुए महिला श्रमिकों की खान में काम करने पर लगाया प्रतिबंध भी हटा।‘ भारतीय संविधान सभा के सदस्यों और डॉ अंबेडकर ने महिलाओं को स्वतंत्रता व समानता दिलाने के लिए विशेष प्रयत्न किए। स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि मंत्री बन जाने के बाद डॉ बाबा साहेब अंबेडकर ने हिन्दू न्याय व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन करने तथा भारतीय नारी को मानवीय अधिकार दिलाने के लिए ‘हिन्दू कोड बिल’ को पास करवाना चाहा। इस बिल में “बलिक नारी यदि अपनी इच्छा के अनुसार किसि भी वर्ग एवं जाति के पुरुष के साथ विवाह कर लेती है तो उस विवाह को वैध माना जाएगा।“८  विवाह में वर का वरन-स्वातंत्र्य मनुवादी सामाजिक व्यवस्था में महिला पराधीनता को तोड़ने का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बना। इसका बहुत से सदस्यों ने विरोध किया। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा, “हिन्दू कोड बिल की वजह से हिन्दू संस्कृति की भव्य रचना का विनाश होगा।“९ हिन्दू कोड बिल में जिस तरह से परिवर्तन संसद में सुझाए गए उनसे प्रसन्न होकर डॉ अंबेडकर ने अंततः मंत्रिपरिषद से त्याग-पत्र देने का मन बना लिया। यद्यपि हिन्दू कोड बिल उस रूप में पारित नहीं हो सका, जिस रूप में डॉ अंबेडकर ने उसे प्रस्तुत किया था, पर डॉ अंबेडकर के मंत्रिपरिषद से त्याग-पत्र देने के बाद आगे आने वाले समय में, हिन्दू कोड बिल को अलग-अलग भागों में, अलग-अलग समय में, एक नये प्रकार से मंजूर कर लिया गया। बाद में पारित ‘विशेष विवाह अधिनियम’ (१९५४), ‘हिन्दू विवाह विधेयक’ (१९५५), ‘हिन्दू उत्तराधिकार विधेयक’ (१९५६), ‘हिन्दू दत्तक ग्रहण निर्वाह विधेयक’(१९५६), से महिलाओं को बहुत लाभ मिल गए। “पति के अमानुषिक अत्याचार से बचने के लिए वह पति से संबंध-विच्छेध की भी अधिकारी बन गयी। तलाक का अधिकार उसकी सामाजिक गरिमा को प्रतिष्ठित करने की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम था। इसके द्वारा एक पत्नीत्व की प्रथा को भी कानूनी मान्यता मिल गयी। संपत्ति संबंधी अधिकार बनाकर पहली बार स्त्री को अपने पिता एवं पति की संपत्ति में हिस्सा लेने का हक़ मिला। ‘स्त्री’ को ही संपत्ति मनाने वाले समाज में उसे एक नागरिक का दर्जा हेतु ‘संपत्ति का अधिकार’ दे देना, महिला के जीवन में बराबरी की दिशा में एक निर्णायक प्रगतिशील कदम था। अब कानूनन महिला भी दत्तक ली जाति है। ‘समान कार्य के लिए समान वेतन’ के नियम द्वारा लिंगा भिन्नता को खत्म किया गया।“१० इतना ही नहीं, मातृत्व अवकाश जैसी संवेदनशील व्यवस्था करके डॉ बाबा साहेब अंबेडकर ने सदियों से पीड़ित और वंचित स्त्री समाज के लिए मुक्ति का द्वार खोला। महिलाओं द्वारा इन अधिकारों व लाभों को प्राप्त करने में डॉ अंबेडकर के पुराने प्रयासों का भी प्रस्ताव देखा जा सकता है। डॉ बाबा साहेब अंबेडकर ने जीवन-पर्यन्त भारतीय महिलाओं और विशेषकर गरीब, श्रमिक व दलित वर्ग की महिलाओं के लिए जो कार्य किए और समाज में उनकी उन्नति के लिए जो विचार रखे, उनसे डॉ अंबेडकर के आधुनिक, प्रगतिशील, व्यावहारिक व मानववादी राजनीतिक-सामाजिक दृष्टि का आभास होता है।

डॉ बाबा साहेब चाहते थे कि प्रत्येक भारतीय अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को समझे और प्रत्येक भारतीय को इस योग्य बनाने के लिए उपर्युक्त स्थितियाँ व सामाजिक व्यवस्थाएँ बनाई जाएँ। दलित वर्ग व महिलाओं को जागृत करने की आवश्यकता उनको अधिक लगती थी। इसलिए डॉ बाबा साहेब ने सामाजिक विकास व परिवर्तन के लिए इनकी समस्याओं का विशेष अध्ययन कर इनको सामाजिक दृष्टि से संगठित करने का प्रयत्न किया, लेकिन धीरे-धीरे उनको यह भी महसूस हुआ कि जब तक दलित वर्ग को राजनीतिक-सामाजिक रूप से भी संगठित व सक्रिय नहीं किया जाएगा, इन का सामाजिक विकास गति प्राप्त नहीं कर सकेगा। अतएव उनहोंने सामाजिक न्याय की विचारधारा को भारतीय संदर्भ में दलितों की सामाजिक समानता और उन्नति का माध्यम बनाने का प्रयास आरम्भ कर दिया। दलितों व महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता व सामर्थ्य भी उनकी सामाजिक अस्मिता को पुष्ट करने का एक माध्यम हैं। डॉ बाबा साहेब अंबेडकर भारतीय सामाजिक व पारिवारिक व्यवस्थाओं व परम्पराओं में सुधार कर हर व्यक्ति, विशेषकर दलितों व महिलाओं को समाज में प्रतिष्ठा व समता का स्थान देकर एक ऐसी व्यवस्था कायम करना चाहते थे जो पश्चिमी देशों का मात्र अंधानुकरण या नकल न हो।

स्त्री मुक्तिदाता डॉ बाबा साहेब अंबेडकर भारतीय संविधान के माध्यम से अपने समतमूलक विचारों को कानून का हिस्सा बनाने में सफल हुए। वे स्त्री और दलित ही नहीं मानव की अस्मिता, गरिमा और उसकी स्वतंत्रा के लिए आजीवन संघर्षत रहे। संविधान के अनुच्छेद १४,१५ व १६ में उन्होने अथक परिश्रम द्वारा महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार दिलाया। एक लोकतांत्रिक संविधान का निर्माण उनकी विश्वदृष्टि का परिचायक है, जो स्त्रियों के लिए वरदान सिद्ध हुआ। आज भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के कारण स्त्रियाँ स्वावलंबी बन रही हैं, उनकी सोच में विस्तार हो रहा है। तभी तो आज का नारी विमर्श दहेज, बलात्कार, महंगाई, सांप्रदायिकता, सरकारी जन विरोधी नीति, सबको शिक्षा, भूखों को भोजन, पर्यावरण संरक्षा आदि मानवीय मूल्यों को अपने संघर्ष का मुद्दा बना रही हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय संविधान में प्रदत अधिकारों के प्रति स्त्रियाँ और अधिक सचेत हों, धर्म कि रूढ़िवादी स्वरूप को उखाड़ फेंकने के लिए साहस का परिचय दें, तभी भारतीय समाज स्त्री-पुरुष के समंजस्य से निर्मित एक आदर्श राष्ट्र बन पाएगा, और पुरुष वर्ग को भी परंपरागत मानसिकता का त्यागकर समतमूलक समाज की स्थापना में सहयोग करना होगा। इसी में पूरे मानवता का कल्याण निहित है।

निष्कर्ष: डॉ बाबा साहेब अंबेडकर यह मानते थे कि वर्ण व्यवस्था ने केवल दलितों को ही नहीं महिलाओं के सामाजिक व शैक्षणिक विकास को भी अवरुद्ध किया है। बाबा साहेब का विचार था कि महात्मा बुद्ध ने महिलाओं को शिक्षा के क्षेत्र में पुरुषों के समान ही बराबरी का अधिकार देने का प्रयास किया था। बाबा साहेब स्वयं दलित महिलाओं से कहा था कि  वे सवर्ण महिलाओं कि तरह स्वच्छता पर विशेष ध्यान दें। अपनी हीन भावना को छोड़ें, शराब पीने वालों पुरुषों का विरोध करें तथा अपनी संतान को शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित करें। डॉ बाबा साहेब अंबेडकर ने मजदूर महिलाओं को पुरुष मजदूरों के समान वेतन देने तथा उनको सवेतन प्रसूति अवकाश देने के सफल प्रयास किए। भारत का नया संविधान बनाते समय भी डॉ बाबा साहेब अंबेडकर तथा कुछ अन्य प्रगतिशील राजनेताओं ने पुरुषों और स्त्रियों को समान अधिकार देने की व्यवस्था का समर्थन किया। स्वतंत्र भारत के कानून मंत्री के रूप में डॉ बाबा साहेब अंबेडकर हिन्दू कोड बिल को संसद में पारित कराकर महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करना चाहते थे। वे समझते थे कि मनु का प्राचीन विधान महिलाओं के प्रति न्याय नहीं करता है। इस प्रकार डॉ बाबा साहेब अंबेडकर का महिलाओं की स्थिति को सुधारने का और महिलाओं को मुक्त करने का दृष्टिकोण मानवीय, समतवादी तथा प्रगतिशील था।

संदर्भ

१)         हिन्दी उपन्यासों में दलित-जीवन। डॉ शम्भूनाथ द्विवेदी पृष्ट २०३
२)         डॉ अंबेडकर और पं दीनदयाल। प्रीति पांडे पृष्ट २६३
३)         वही, पृष्ट २६४
४)         अंतरजाल से प्राप्त सूचना।
५)         डॉ अंबेडकर और पं दीनदयाल। प्रीति पांडे पृष्ट २६४
६)         वही, २६५
७)         वही, २६५
८)         स्त्री विमर्श: विविध पहलू। संपादक कल्पना वर्मा पृष्ट २३७
९)         डॉ अंबेडकर और पं दीनदयाल। प्रीति पांडे पृष्ट २६६
१०)      स्त्री विमर्श: विविध पहलू। संपादक कल्पना वर्मा पृष्ट २३८

चित्र: द लोजिकल