जब मैं लिखता हूँ फूल
कागज पर
और हरी घास की पत्तियों पर
चमक रही
कोमल ओस लिखता हूँ
मेरे भीतर उग आया होता है
एक जलता रेगिस्तान।

जब मैं लिखता हूँ
छल छल बहती नदी और
पत्थरों के बीच
हीरे सी चमक वाले पानी के बारे में
एक सड़ी हुई लाश
उतरा आती है
नदी के पानी में और
मौत की बदबू से भर जाती है
पानी पर चमकती सारी धूप।

जब मैं कागज पर
बुराई पर अच्छाई की जीत
लिख रहा होता हूँ
तब किसी दुर्घर्ष खलनायक के
विनाश के उन्हीं पलों में
सारे नायक दम तोड़ रहे होते हैं
काले कारागारों की
अंधेरी कोठरियों में।

जब मेरी कलम
झक सफेद पन्नों पर
लिख रही होती है
क्रांति के गीत
लाल हर्फ़ों से,
अपने हक़ के लिए उठी
तमाम आवाज़े
बुझ रही होती हैं
बंदूको के कुंदों और
भारी फौजी बूटों तले
रौंदी जा कर।

मेरे सिरहाने की किताबों में
भरे सारे सिद्धांत
जिन्हें मैं मानता रहा हूँ
सुदृढ़ और ठोस
कई बार
जीवन में उतरते ही
बजने लगते हैं
खाली कनस्तर की तरह।

जब मैं अपने ड्राइंगरूम की
आरामदेह खामोशी में
जीवन के गीत रच रहा होता हूँ
तभी मौत के भयानक हाथों की
खुरदुरी गिरफ्त में
छटपटा कर
डूब जाती हैं
हजारों बेबस चीखें।

पर इन्ही रक्तरंजित पंजों के
नाखूनों से टपकते
रक्त की एक बूंद
एक दिन गिर कर
फैल जाएगी कागज पर और
सुलग उठेगी एक कविता।

और उसकी आग में निश्चय ही
एक दिन जल जाएगा
शोषण और मौत का
सारा सरंजाम
तब फूल फिर से खिलेंगे
और ओस फिर झिलमिलायेगी
घास की पत्तियों पर
नदी का पानी फिर चमकेगा
तुम्हारी झिलमिल आँखों सा,
मैं मुतमईन हूँ।

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