एल. जी.बी.टी. पर आधारित मराठी नाटक
डॉ. सतीश पावड़े
एल.जी.बी.टी का अर्थ ‘लेसबियन’ (स्त्री-स्त्री संबंध)’ गे‘(पुरूष-पुरूष संबंध), ‘बायसेक्शुएल ‘(स्त्री-स्त्री, स्त्री-पुरूष और पुरूष-पुरूष संबंध) ‘ट्रान्ससेक्शुएल’(अर्थात स्त्री से पुरूष में अथवा पुरूष का स्त्री में लिंग परिवर्तन) आम तौर व्यापक स्तर पर इस प्रकार के व्यक्ति इन चार वर्गो में में विभाजीत किए जाते है।
इन चार वर्गो पर सर्वाधिक अर्थात 30 के करीब नाटक आज मराठी में लिखे गये है। लिंगभाव से संबंधित चरित्र ‘बृहन्नडा’ कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर ‘संगीत सौभद्र’ मे पहली बार चित्रित किया गया. आधुनिक मराठी रंगमंच मे 1980 के दशक में जानेमाने नाटककार तथा भारतीय रंगमंच के श्रेष्ठतम हस्ताक्षर विजय तेंदुलकर ने अपने ‘मित्राची गोष्ठ’ नाटक द्वारा समलैंगिकता का प्रश्न हाशिये पर लाया । यह नाटक स्त्री समलैंगिकता (लेसबियन)पर आधारित था। उनके पश्चात सतीश आळेकर ने अपने ‘बेगम वर्बे’ नाटक में ‘ट्रान्सजेंडर ’ (एंड्रोजिनी ) के विषय को रखा । हालांकी इस नाटक में ‘स्त्री पार्ट’ करनेवाला पुरूष कलाकार कैसे धीरे धीरे स्त्रीत्व धारण करता है यह बताया है।
इन दो प्रमुख नाटक के अलावा ‘गे’ रिलेशनशीप दुष्यंतप्रिय (सारंग भाकरे), ‘एक-माधवबाग’ (चेतनदातार), ‘पुरूषोत्तम’ तथा ‘पार्टनर’ (बिंदुमाधव खिरे), ‘ऑफबीट’ (जमीर कांबळे), आदी कुछ प्रमुख नाटकों का मंचन राष्ट्रीय स्तर पर किये जा रहे है। ‘ट्रान्सजेंडर’ के रूप में ‘पुन्हा-पुन्हा वस्त्रहरण’ (नाथा चितळे) ‘तो ——ती——ते——‘(सुषमा देशपांडे, जमीर कांबळे), हिजडा (सागर लोधी ),जैसे नाटकों ने हिजडो के प्रश्न पर नाटक लिखे है। इनके अलावा एल.जी.बी.टी. से संबंधित विषयों को लेकर ‘मी पण माझे’ (दैवेंद्र लुटे), ‘छोटयाशा सुटीत’ तथा ‘पुर्णविराम’ ( सचीन कुंडलकर) ‘सहा बोटांचा तळ हात’ (अनिल देशमुख), ‘षस्ठय’ (संजय पवार), ‘बुद्धिबळ आणि झब्बू’ (च.प्र.देशपांडे), ‘अलिबाबा चालिस चोर’ जैसे नाटक अत्यंत गंभीरता से लिखे गये है।
किंतु इसके अलावा पुरूष वेश्याओं के प्रश्नपर लिखा गया ‘ एक चावट संध्याकाळ’, लेस्बियन संबधोपर लिखा गया ‘नवरा हवाय कशाला’ जसे पुरूष लैगिंकता पर लिखा गया ‘ शिश्नाच्या गोष्ठी‘ जैसे स्तरहीन नाटक भी लिखे और खेले गये है । जिन नाटकों का उल्लेख यहा किया गया है यह सभी नाटक केवल एल .जी.बी.टी के विषय पर लिखे गये है ।
कुछ और ऐसे नाटकों का यहा उल्लेख करना मुझे आवश्यक प्रतीत होता है, जो अपनी कथावस्तु और कलात्मक अभिव्यक्ति के स्तर पर विशेष उल्लेखनीय है। यह सभी नाटक सिधे तौर पर एल.जी.बी.टी. के प्रतिनिधित्व नही करते. बर्टोल्ट ब्रेख्त्त कि ‘माता धिराई’ लिंग से तो स्त्री है पर व्यक्तित्व, कर्तृत्व से पुरूष है। और गौरतलब है की यी भूमिका भी भारतीय रंगमंच के जानेमाने एक्टर मनमोहन सिंग ने निभाई थी। दुसरा नाटक है ‘अर्थातरंण्यास’ (रविंद्र इंगळे) जो प्रसिद्ध दलित लेखक बाबुराव बागुल के ‘सुड’नामक लघु उपन्यास पर लिखा गया है । जिसकी नायिका स्त्री लैंगिकता को दफन कर उपरी तौर पुरूष बन कर जीती है। ‘बिन बायांचा तमाशा’ जैसा लावणी का सुपरहीट कार्यक्रम सारे पुरूष कलाकार बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करते है ।
भारतीय नाटककार नाग बोडस का मराठी में अनुदित नाटक ‘नर-नारी’में नारी भूमिका निभानेवाले नट के नपुंसक होने की मानसिक प्रक्रिया को यह नाटक ‘हशिए’पर लाता है। इवा इन्सलर का मराठी में वंदना खरे द्वारा अनुदित नाटक ‘योनीच्या मनीच्या गुजगोष्ठी’, एल.जी.बी.टी. पर आधारित नाटकों का परिप्रेक्ष्यअधिक चिंतनशील बनाता है । इसके अलावा लिंगभाव के परिप्रेक्ष्य में ‘अवध्य’ (चि.त्र्यं.खानोलकर) ‘घासिराम कोतवाल’, ‘सखाराम बाईंडर’ (विजय तेंडूलकर) ‘वासनाकांड’, ‘गार्बो’, ‘सोनाटा’ (महेश एलकुंचवार) ‘रगतपिति’ (श्याम पेठकर) ‘हयवदन’(गिरीश कर्नाड) ‘चार चौघी’ (प्रशांक दळवी) ‘मी रेवती देशपांडे ’, एग्रेसिव’, ‘आली पाळी गुप चिळी’ ‘आईचे पत्र’, जैसे नाटकों की भी चर्चा की जा सकती है।
‘लिंगभाव’ की जो परिकल्पनाएं, परिभाषाएं तथा सिद्धांत नारीवादी चिंतको द्वारा प्रस्तुत किये गये है, वह क्या’ एल.जी.बी.टी. इन चार वर्गोंपर लागू होते है ? नारीवाद के परिप्रेक्ष्य में कुछ हद तक ‘लेसबियन’वर्ग समाविष्ट करने का प्रयास हुआ है। उदाहरण के तौर पर 1995 में बिजिंग में जो चौथी अंतरराष्ट्रीय महिला परिषद आयोजित की गयी थी, जिसमें एक सत्र लेसबियन स्त्रियों हेतु आयोजित किया गया था। इसके पूर्वभारत में भी ‘तिरूपति’ में 1994 में संपन्न भारतीय स्त्री आंदोजन के अधिवेशन में कैनेंडियन लेसबियन कार्यकर्ता एलिसन ब्रेवर के मुख्य उपस्थिति में ‘लेसबियन’ से संबंधित विषय पर विशेष संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। तात्पर्य नारिवादी परिप्रेक्ष्य में एल. अर्थात लेसबियनीटी का अभ्यास, आलोचना, समीक्षा, लिंगभाव (जेंडर) आधार पर संभव है। किंतु ‘गे’ ‘बायसेक्सुएल’ और ट्रान्सजेंडर्स’ से संबंधित प्रश्नों को क्या हम इस ‘लिंगभाव’ अथवा ‘जेंडर’ की दृष्टिकोन से विश्लेषित कर सकते है? ‘गे’ अंत: पुरूष है । ट्रान्सजेंडर भी अपूर्ण स्त्री अथवा पूर्णत: पुरूष है। तो क्या हम इन पूर्व या वर्तमान पुरुषों को जो नारिवादी ‘लिंगभाव’की परिकल्पना एवं परिभाषा में विश्लेषित कर सकते है। क्योंकि यह सारी अवस्थाएं समाल संस्कृति निर्मित नही बल्की जैविक (बायोलॉजीकल)है। और हमारा नारीवादी सिद्धांत ‘लिंगभाव’को जैविक जैविक नही अपितु पुरूषप्रधानता से निर्मित सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था उपादानों,साधनों-संसाधना से मंडित मानता है।
‘मित्राची गोष्ठ’ नाटक में पहली बार ‘लेसबियन प्रोटोगॉनिस्ट’ चरित्र की रचना तेंडूलकरने की है। यह नाटक उस समय का समय से आगे कहॉ जा सकता है एैसा नाटक था । इस नाटक में तेंडूलकरने नाट्यात्मकता, विषय का अलगपण, तथाकथित विद्रोह आदी के चलते लेसबियनीटी से संबंधित अपेक्षित कर्न्सर्न् को गवा दिया। इसलिए उस नाटक अंत सकारात्मक नही बल्की नकारात्मक पद्धती से किया गया। इसके बावजुद 1980 के दशक के सामाजिक व्यवस्था और अवस्था का दर्शन यह नाटक करवाता है। जिस समय लेसबियानीटी अथवा होमोसेक्सुएलिटी एक विकृति अथवा सामाजिक अपराधसे जादा कुछ नही था। ‘सुमित्रा-नमा’ की यह प्रेमकहाणी को एक अभिशाप के रूप में इस नाटक में प्रस्तुत किया गया ।
समाज में लिंग पर आधारित पहचान के कारण समलैंगीक समुह के अपनी पहचान से वंचित होना पडता है। लिंगपर आधारित पहचान की मांग जमीर कांबळे का नाटक ‘ऑफ बीट’ करता है। सामान्य वर्ग के कलाकार नही मिलने के कारण अतत: यह नाटक समलैंगिक समुह द्वारा खेला गया। माध्यमों द्वारा इस नाटक की काफी सराहना की गयी। नारीवाद में ‘एड्रोजिनी’ संज्ञा का उल्लेख मिलता है। इस संज्ञा के परिप्रक्ष्य में सतीश आळेकर का नाटक ‘बेगम बर्वे ‘ सटीक बैठता है। इस संज्ञा के अनुसार बर्बे नामक चरीत्रमें स्त्री-पुरूष दोनों के गुणविशेष पाये जाते है। इस तरह के चरित्र बायोसेक्शुएल वर्ग में पाए जाते है। आळेकर ने नाट्यात्मक और कलात्मकता के साथ अपने कर्न्सर्न को प्रभावी रूप से अभिव्यक्त किया है।हालही में ‘मी रेवती देशपांडे ‘ नामक प्रोफेशनल नाटक आय है , जिसमे एनड्रोजिनी अथवा बायो सेक्सूअल का तत्व उपरी तौर पर दर्शया गया है , पर यह मूल प्रश्न को स्पर्श तक नाही करता. केवल मनोरंजन के नाम पर एक स्तर्हीन और भोंडापण इस नाटक मे दिखाई देता है ,कारण है लेखक का इस प्रश्न के प्रति कन्सर्न नाही होना ।
‘तो-ती-ते’ तथा ‘पुन्हा पुन्हा वस्त्रहरण’ यह नाटक हिजडों (ट्रान्सजेंडर्स) की सत्यकथा एवं घटनाओं पर आधारित नाटक है । इस में हिजडों के शोषण तथा प्रताडनाओं को अभिव्यक्त किया गया है। दो जेंडर्सके बिच पिसता थर्डजेंडर ‘तृतीयपंथ’ (ट्रान्स जेंडर्स ,नो जेंडर ,अथवा ब्लॅक या ब्लॅक जेंडर.फोर्थ जेन्डर) पर आधारीत यह नाटक बहुतही मर्मस्पशी है। सम लैंगिकता के आंदोलन से जुडे बिंदू माधव खिरे ने पुरूषोत्तम और पार्टनर जैसे नाटक लिखे । यह नाटक निश्चित रुप से कन्सर्न के साथ लिखे गये है। पुरुषोत्तम नाटक मे उन्होने समलैंगिकता कि वकालत ही नही कि बल्की सह जीवन ,विवाह हेतू कानून और समाज के मान्यता का भी आग्रह किया है। ‘ऑफबिट’के लेखक जमीर कांबळे भी अपने आपको जाहिर रुप से इसी वर्ग से मानते है और गौरव के साथ उसके कर्न्सन की घोषणा भी करते है। चर्चित सभी नाटकों में ‘दुष्यंतप्रिय’ यह नाटक नाट्यात्मकता, कलात्म्कता, प्रतिबद्धता और कर्न्सन आदी सभी दृष्टिकोन से एक श्रेष्ठ नाटक माना जा सकता है। यह नाटक ‘ सारंग भाकरे ने लिखा और निर्देशित भी किया है।
मुलत: यह नाटक गे संबंधों के श्रेणी में आता है। इसे ‘लवस्टोरी ऑफ द मॅन’ भी कहा जाता है। दुष्यंत – शंकुतला प्रसिद्ध मिथक अथवा मिथककथा पर इस नाटक की रचना की गयी है। नाटक में भूमिका करनेवाले दो पुरुषों की यह कहाणी है। जिसमें से एक पुरुष प्रॉक्झी के रुप में शंकुतला का रोल कर रहा होता है। प्रेम-प्रणय के दृश्यों को अभिनित करते वे दोनों प्रगाढ प्रेमसूत्र में बंध जाते है। यह नाटक यही पर खत्म नही होता बल्की दृष्यंत शंकुतला की ‘लिजंडरी’ प्रेमकहाणी का परिप्रेक्ष्य समलैंगिकसंबंधों के परिप्रेक्ष्यमें उसके निर्वचन(इंटरप्रिटेशन) के साथ रखा गया है।
अभिज्ञान शांकुतल नाटक के परिप्रेक्ष्य में दृष्यंत- शंकुतला के मिथकीय प्रेमप्रसंग का अन्वयार्थ सर्जनशीलता के साथ नाटककार ने स्पष्ट किया है। वहां स्त्री–पुरूष संबंध है तो यहां पुरूष-पुरूष संबंध है। फिर भी लिंगभाव का एक नया अर्थ देने का प्रयास यह नाटक करता है। अभिज्ञान शांकुतम का नाट्यविधान, कथावस्तु, प्रसंगों को यहां इस नये परिदृश्य में रखा गया है। जैसे दुष्यत- शंकुतलाका प्रेम सार्वजनिक होते ही मुल दुष्यंत के जैसेही इस नाटकमें काम करनेवाला दुष्यंत पुरूष शंकुतला को पहचाननेसे इनकार करताहै। अंतत:अभिज्ञान शांकुतल में जिस तरह’ हैपी एन्डींग’ होता है, उसी प्रकार पुरूष शंकुतला और पुरूष दुष्यंत हमेशा के लिए एक हो जाते है। लिंगभाव से परे जाकर मिथक का यह आधुनिक निर्वचन सर्जनशीलता और गे संबंधों के प्रति कर्न्सन का अच्छा उदाहरण है। ‘सेम मिथिक फ्रेमवर्क’ इस नाटककी खासियत है। प्रेम विरह स्वयं को बचाने का प्रयास दबाब में अस्वीकार की कृति तथा अंत में स्वीकार आदी सूत्रों का यह योग्य तरिके से अनुपालन किया गया है । एक प्रकार से इसे ‘मिथिक प्रर्पोशन ऑफ द टेल’ भी कहा गया है। प्रेम की एक सर्वमान्य श्रेष्ठतम, सर्जनशील साहित्यिकृति के मानदंडो को लेखक द्वारा पुर्नरचना कर उसका गंभीरता के साथ निर्वचनही नही बल्की पूर्ननिर्वचन भी किया है। समलैंगिकता के विषयों को भी गंभीरता और प्रतिबद्धता के साथ वगैरे किती भ्रांति के अभिव्यक्त किया है।
अपने अपने तरिके से यह सभी नाटक एल.जी.बी.बी. सं संबंधित विषयों को कर्न्सन के साथ गंभीरता के साथ अपनी भूमिका के साथ अभिव्यक्त करते है । उनके एल.जी. बी.टी. यथार्थ को स्वीकार कर उसकी सार्वत्रिक रुप से घोषणा करते है। जो लेखक इस श्रेणी में नहीं होने के बाद भी मानवता के आधार पर एल.जी.बी.टी. समुहों के हक और अधिकार का समर्थन करते है। इस संदर्भ में चेतन दातार के ‘एक-माधवबाग’ नाटक का मैं विशेष रुप से उल्लेख करना चाहुंगा। यह एक ऐसे विधवा स्त्री की कहाणी है। जो वगैर पती के अपने बच्चों को बडे जद्योजहद के साथ लालनपालन कर रही है। फिर अचानक उसे पता चलता है कि उसका होनहार बेटा ‘गे ‘,है समलिंगी है। इसके पश्चात वह मॉ की जो भावनिक संघर्ष की यात्रा है वह बहुत प्रभावी है। अतत:अपने बेटे को वह उसके समलैंगिक व्यक्तित्व के साथ हिंमत के साथ स्वीकारती भी है और उसका जैविक, वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में समर्थन भी करती है। चेतन दातार न ‘गे’ थे ना किसी ऐसे आंदोलन के वे कार्यकर्ता थे । इसके बावजुद एक कर्न्सन के साथ मानवता के साथ, मानवीय मुल्यों के साथ,प्रतिबद्धता के साथ उन्होंने एक-माधवबाग यह एकल नाट्य प्रयोग के रुप में उसकी रचना की, जिसे मोना आंबेगावकर जैसी मशहुर अभिनेत्री अपने बेजोड अभिनय के साथ देश-विदेश में मंचित करती है।
यह सभी नाटकएक नाटक विधा के रुप में भी परिपूर्ण है। प्रयोग धर्मिता के साथ नाट्यरचना की सभी इकाईयों के साथ नाट्यात्मक मूल्य के साथ नाट्शिल्प और शैली के साथ अपनी पूर्णता के साथ अभिव्यक्त होते है। इसलिए मंचीय क्षमता भी उनमें भरपूर है । लेकीन क्या कभी यह नाटक अपने ‘ब्लाईंड’ अथवा ‘ब्लँक जेंडर’ जैसी स्थिति में मुख्यधारा’के नाटक के रुप में स्वीकारे जाएंगे? या उन्हें भी दर्शक द्वारा प्रचलित सामाजिक मान्यताओं का शिकार होना पडेगा यह भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।
फिर भी कुछ प्रश्न शेष है। नारिवादी विमर्श में सिमॉन बुवा नारी के दोयम दर्जे की श्रेणी कि आलोचना करती है। इस दोयम दर्जे के खिलाफ लढ़ती है, लढने की प्रेरणा देती है। इस परिप्रेक्ष्य में एल जी बीटी को कौन से श्रेणी रखा जाए और क्यो। क्या नारी को एक मनुष्य/मानव समझा जाने की मांगइस समुह के लिए लागू हो सकतीहै। दूसरा प्रश्न है, लिंग पर आधारित श्रम विभाजन के तीन महत्वपूर्ण अंग है, उत्पादन ,पुनरउत्पादन तथा समुदाय सहतत्व, इस वर्ग के साथ एल.जी .बी.टी. को कैसे जोडा जा सकता है।
अत: यह वर्ग भी परंपरागत पितृसत्ता प्रधान, पुरुषसत्ता प्रधान व्यवस्था का शिकार है। सामाजिक मान्यता देने में सबसे बड़ा रोडा यही व्यवस्था है। ऐसे स्थिति में नारिवाद इस अवस्था को कैसे देखता है। इस एल.जी.बी.टी. समाज की और कैसे लिंगभाव से देखा जाना चाहिए। क्या जेंडर ब्लाईड की संज्ञा हंशिए पर आएगी। अथवा सिमांतीकरण का यह एक उपेक्षित प्रश्न रह जाएगा ?उत्पादकता के मुल्यों के आधार पर इस वर्ग की श्रेणी स्थान क्या होगा। गृहिणी, पारिवारिक सदस्य, स्वयत्त उत्पादन के रुप में हम इस वर्ग को कैसे देख सकते है ? यह मुल प्रश्न है ,जिस पर चर्चा होना आवश्यक है ।
संदर्भ – संदर्भ ग्रंथ सूची
- लिंगभाव का मनोवैज्ञानिक अन्वेषण प्रतिच्छेदी क्षेत्र – लिला क्षेत्र वाणीप्रकाशन, नई दिल्ली प्रथम संस्करण -2004
- मी हिजडा—मी लक्ष्मी- लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी मनोविकास प्रकाशन, पुणे प्र.आ. 2012
- भरारी (चवथी जागतिक महिला परिषद, बिजिंग -1995) – डॉ. सीमा साखरे सीमा प्रकाशन, नागपुर प्र.आ. 1995
- लिंगभाव – समजून घेताना –कमला भसीन (भाषांतर श्रृती तांबे) लोकवाड़ प्रकाशन गृह ,मुबंई प्र.आ. 2010
अप्रकाशित नाट्यालेख
- दुष्यतप्रिय – सारंग भाकरे
- एक, माधवबाग – चेतन दातार
- पुरूषोत्तम – बिंदु माधव खिरे
- ऑफ बीट – जमीन कांबळे
- पुन्हा पुन्हा वस्त्रहरण – नाथा चितळे
(इसके अलावा ‘गुगल’से प्राप्त विविध नाटकों की आलोचनाएं व अन्य सुचनाएं )
डॉ. सतीश पावड़े
असिस्टेंट प्रोफेसर
नाट्यकला एवं फिल्म अध्ययन विभाग
म.गां.अं.हि.वि.,वर्धा
भ्रमणध्वनि – 09372150158
ई मेल –satish_pawade@yahoo.co.in