शिक्षा की स्वायत्ता व सामाजिक सरोकार
नयी पीढ़ी की बैचनी और विश्वविद्यालयों की स्वायत्ता का प्रश्न (आचार्य विद्यानिवास मिश्र के निबंधों के विशेष संदर्भ में)
अखिलेश कुमार शर्मा
नयी पीढ़ी की बैचनी और विश्वविद्यालयों की वस्तुगत स्थिति के बारे में आचार्य विद्यानिवास मिश्रा जी ने जो निबंध लिखे हैं, वे निबंध ‘बसंत आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं’ निबंध संग्रह में संकलित हैं। यह निबंध संग्रह मंगलाप्रसाद पारितोषिक से सम्मानित निबंध संग्रह है। जो स्वर्गीय डॉ. राममनोहर लोहिया जी को समर्पित है। इस निबंध संग्रह में कुल 22 निबंध हैं – परंपरा : आधुनिक भारतीय संदर्भ, नयी पीढ़ी की बैचनी:भारतीय संदर्भ, विश्वविद्यालय और न्यायालय, तटस्थता की अब कोई गुंजाइश नहीं, युद्ध और व्यक्तित्व, राष्ट्रभाषा की समस्या, हिंदी बनाम राजनीति, हिंदी का विभाजन, अंग्रेजी के कारण सांस्कृतिक अवरोध क्यों ?, अंधी जनता और लंगड़ा जनतंत्र, हिमालय ने उन्हें बुला लिया, हिंदी के अपराजेय योद्धा : भैया साहब, निबंधकार द्विवेदीजी, भाई, बर्फ़ और धूप, हिप्पी पंथ, गुजर जाती है धार मुझ पर भी, अस्ति की पुकार-हिमालय, अभी-अभी हूँ,अभी नहीं, बसंत आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं, बंदऊँ तब, इन टूटे हुए दियों से काम चलाओ। इस निबंध संग्रह में उनका लालित्य बोध खूब गहरा छलक रहा है तो नयी पीढ़ी और विश्वविद्यालय के परिप्रेक्ष्य में चिंतन बोध भी। प्रस्तुत शोध लेख में विद्यानिवास मिश्र जी के नयी पीढ़ी की बैचनी और विश्वविद्यालय के परिप्रेक्ष्य में चिंतन को उभारा गया है ।
अध्ययन-अध्यापन और प्रशासन के अनुभव संसार ने जहाँ मिश्र जी एक ओर अध्यापक-प्रोफ़ेसर के रूप में स्थापित किया, वही दूसरी ओर उनके एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवास कार्य/सेवा कार्यकाल ने उन्हें एक लालित्य बोध प्रदान किया। इन दोनों संदर्भों में जहाँ उनका अकादमिक-प्रशासनिक चिंतन बोध गहन और व्यापक हुआ, वहीं दूसरी ओर उनके संवेदनशील मन से लेखकीय संसार का विस्तार भी। उनका लेखकीय मन लालित्य में अधिक रमा, डूबा। उन्होंने अपनी कलम से ललित निबंधों का एक भरा-पूरा संसार सिरजा है। साथ ही अपने युवाकाल और अकादमिक-प्रशासनिक कार्यकाल में मिश्र जी ने युवा पीढ़ी की बैचनी को महसूस भी किया, जाना-समझा भी। विश्वविद्यालय के अकादमिक-प्रशासनिक ढाँचे में कार्य करते हुए विश्वविद्यालय की कार्य पद्धति, स्वायत्ता को देखा,भोगा और जिआ है। इस नाते उनके चिंतन का एक नया पक्ष इस ओर भी विस्तार पाता है। उन्होंने अपने जीवन के लालित्य बोध के व्यावहारिक अनुभवों से गुजरते हुए अपने चिंतन-संसार को और अधिक व्यापक-समृद्ध किया-बनाया और जन्म दिया, सृजित किया अललित निबन्धों को भी, जिनमें नयी पीढ़ी और विश्वविद्यालयों के बारे में उनका ठोस-व्यावहारिक चिंतन धरातल विकसित होता है।
अपने निबंध ‘नयी पीढ़ी की बैचनी:भारतीय संदर्भ’ में मिश्र जी नयी पीढ़ी की बैचनी को भाँप लेते हैं, नब्ज पकड़ लेते हैं – भारतीय संदर्भ में। पुरानी और नयी पीढ़ी के बीच बढ़ती-चौड़ी होती हुई खाई को देखते हुए वे कहते हैं कि – “यों तो हर पीढ़ी अपनी पिछली पीढ़ी से भिन्न होती है और प्रत्येक संक्रमण युग की पीढ़ी विशेष रूप से, पर आज जो अंतर है, वह चौड़ा होने के साथ-साथ गहरा भी है। इसलिए पुरानी और नयी दोनों पीढ़ियों को यह अंतर असमाधेय समस्या के रूप में भयावह या दुरंत प्रतीत होता है।”1
वे युवा पीढ़ी की बैचनी को तत्कालीन व्यवस्था की प्रसव वेदना मानते हैं। जिसमें जीवन एक स्वतंत्र निरपेक्ष मूल्य के रूप में गृहण किया जा रहा है। और जब जीवन एक स्वतंत्र निरपेक्ष मूल्य के रूप में गृहण किया जाता है तो सामान्यता मूल्य बोध की स्वत: संभवी व्यवस्था जन्म ले लेती है। विद्यानिवास मिश्र युवा पीढ़ी की बैचनी का विश्लेषण करते हुए एक अलग ही चिंतन का पक्ष प्रस्तुत करते हैं और दो चीजों की ओर इशारा करते हैं –“पहली, तो ये कि इस बैचनी में एक बड़ा हिस्सा एक आरोपित संघर्ष का है, जो अपना नहीं है। दूसरी, यह कि वास्तविक संघर्ष नये और पुराने के बीच नहीं, नये और नये के बीच है।”2 बड़ी सटीक बात कह जाते हैं यहाँ मिश्र जी युवा पीढ़ी के संदर्भ में। असल में हम पर बैचनी खुद से ज्यादा आरोपित होती है। इसे दूसरे शब्दों में कहा जाये तो प्राय: व्यक्ति की बैचनी का कारण वह स्वयं ज्यादा नहीं होता है, बल्कि आरोपित या दूसरे लोग ज्यादा होते हैं। पर इसका दूसरा पक्ष भी मौजूद है। ऐसा भी नहीं कि बहुधा ऐसा ही होता हो। आज देखा जाये तो व्यक्ति खुद अपनेआप में ही ज्यादा बैचेन है – अपनी कुंठाओं, चिंताओं, महत्त्वाकांक्षाओं, तनावों को लेकर। आज का युवा एकाग्र नहीं, एकांतिक प्रवृति का होता चला जा रहा है । तत्कालीन व्यवस्था उसे कचोटती है तो उससे वह निरपेक्ष नहीं रह पाता। प्रतिस्पर्धा और स्वार्थों की अंधी दौड़ उसे एक ओर हिंसक बना देती है तो दूसरी ओर अंदर ही अंदर तोड़ देती है, बैचेन कर देती है। यह बैचेनी घातक है युवा के लिए और देश-समाज के लिए भी।
वास्तव में देखा जाये तो आज की युवा पीढ़ी का संघर्ष नये और पुराने के बीच कम, नये और नये के बीच ज्यादा है। यह बात गले से उतरती ही नहीं; बल्कि चिंतन का एक नया पक्ष भी हमारे सामने खोलती है। इस अर्थ में वे उदहारण देते हुए कहते हैं – “राजा राममोहन राय के द्वारा स्थापित अंग्रेजीपरस्त नये और आज के सब तरफ से त्रासित, भर्त्सित और आशंकित नये के बीच है। यह नया राष्ट्रीयता की गलत प्रतिमाओं से विरक्त हो चुका है। यह नया अंग्रेजी जबान से विच्छिन्न होने के कारण सभ्यता की सुविधाओं से वंचित हो चुका है।……….यह नया इसलिए बैचैन है कि वह विकृत दर्पणों के बीच में खड़ा है। वह अपने प्रतिबिंबों से घबराकर दर्पणों को तोड़ने के लिए ईंट-पत्थर फेंकता है और इन मजबूत दर्पणों की दरारों से वास्तविकता के आकाश की ओर बड़ी ललक के साथ देखता है। वह आकाश बड़ा अवास्तविक लगता है और इसलिए उसकी बैचनी घटने के बजाय बढ़ जाती है।”3
सचमुच देखा जाये तो एक अच्छा-खासा धीर-प्रशांत युवा भी दम-सा तोड़ देता है, इस अवास्तविक आकाश की ओर निहारते-निहारते। आखिर कब तक वह धैर्य और संबल का सहारा पकड़े, जब चारों तरफ से ही अवास्तविकता का संसार उसे घेरे हुए हो। आदर्शों की खोखली दुनिया में युवा कई बार असमंजस की सी स्थिति में आ जाता है ।
आचार्य विद्यानिवास मिश्र अपने अध्ययन काल के कुछ समय बाद से ही विश्वविद्यालयी अध्यापन सेवा में आ गये थे। उन्होंने एक लंबा सेवाकाल विश्वविद्यालयों में बिताया है। इस नाते उनका इस क्षेत्र का भी अनुभव संसार बड़ा व्यापक व संवेदनशील है। वे विश्वविद्यालय के प्रशासन से लेकर उपकुलपति की चयन पद्धति तक प्रश्न खड़े करते हैं। इस अर्थ में मिश्र जी के अगले प्रश्न के रूप में कॉलेज/विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक भर्ती की प्रणाली को भी देखा जा सकता है। जो आज के संदर्भ में तो बड़ी भयावह और त्रस्त करने वाली बनी हुई है – शिक्षित और योग्य युवाओं के लिए।
विश्वविद्यालयों की स्वायत्ता पर चिंतन करते हुए मिश्र जी अपने एक और निबंध ‘विश्वविद्यालय और न्यायालय’ में कहते हैं कि “ स्वाधीनता प्राप्ति के बाद से विश्वविद्यालयों में स्वायत्ता का राजनीतिक सत्ता द्वारा अपहरण हो गया। यह अपहरण दो प्रकार से किया गया, एक तो उपकुलपति की चयन पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन करके। दूसरे, वित्तीय प्रबंधन में नियंत्रण के नाम पर हर मामले से शासन का निषेधाधिकार सुरक्षित करके। पहले की चयन पद्धति में उपकुलपति विश्वविद्यालय की शिष्ट परिषद् (कोर्ट या सिनेट) द्वारा चुने जाते थे ………अब विश्वविद्यालय के ऊपर एक कुलपति थोप दिया जाता है।”4 यहाँ सीधे-सीधे मिश्र जी उपकुलपति को राजनीतिक नियुक्ति करार दे देते हैं। उपकुलपति का विश्वविद्यालय के अकादमिक-प्रशासनिक कार्यों से कोई भी संबंध नहीं रहा हो; पर राजनीतिक गलियारों में ऊँची एप्रोच ही उनकी नियुक्ति की सबसे बड़ी योग्यता बन जाती है। आजकल तो कॉलेज/विश्वविद्यालय प्राध्यापक भर्ती परीक्षा/साक्षात्कार में भी यही स्थिति देखने को मिल रही है। ऐसा लगता है कि मिश्र जी को अपने समय में ही इस स्थिति का भान/संकेत प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से देखने को मिल गया था। शायद इसलिए ही उन्होंने अपने लालित्य बोध के अन्दर चिंतन के इस पक्ष को शामिल कर अपनी बैचनी/चिंता प्रकट कर दी।
आजकल नियुक्ति हो या पदोन्नति, अधिकतर सभी जगह योग्यता दरकिनार की जा रही है। ऐसा लगता है योग्यता अर्जित करने से ज्यादा राजनीतिक अप्रोच अर्जित करना ज्यादा जरूरी हो गया है। वे कहते हैं – “अब नियुक्ति या सेवा संपुष्टि (कन्फर्मेशन) या पदोन्नति में मूल्याङ्कन का आधार सत्ताधारियों का समर्थन है । नियुक्ति के प्रश्न पर कहने को तो विशेषाधिकार विशेषज्ञों के हाथ में है, पर विशेषज्ञ भी तो विश्वविद्यालय के भीतरी संगठन द्वारा नियुक्त नहीं होने के कारण उपकुलपति की तरह निर्लिप्त भाव से से प्राय: वही करते हैं, जो उपकुलपति चाहता है।”5 मिश्र जी का यह कथन आज का नहीं, वरन 1970 से पहले का है। अब देख लीजिये 40-45 वर्ष पूर्व भी यह हालत रहे होंगे, तो आज की स्थिति कितनी भयावह और त्रासद होगी – यह गौर करने की बात है। परंतु चारों तरफ चुप्पी है । मौन पसरा हुआ है और शिक्षित योग्य युवा अपनी बैचनी में छटपटा रहा है।
आचार्य विद्यानिवास मिश्र जी की इस चिंता का बढ़ने का कारण यों ही नहीं है। वे मानने लग गये थे कि- “विश्वविद्यालय का उपयोग हर राजनीतिक दल अपनी सत्ता में साधन के रूप में करना चाहता है और विद्यार्थियों की समस्त उर्जा का विनियोग राजनीतिक पूर्ति में किया जा रहा है।…….आजकल अध्यापक जितना कायर और पराधीन है और आज का छात्र जितना दिग्विहीन और निराश है, उतना आज के पहले कभी नहीं था।”6 उक्त कथन में निहित यह चिंता महज एक व्यक्ति की नहीं; बल्कि एक समूह विशेष की चिंता है। जिसपर आज पुनर्विचार करने की जरूरत महसूस हो रही है । आखिर क्यों एक शिक्षित व योग्य युवा उम्मीदवार के सामने यह स्थिति उत्पन्न हो रही है। क्या ऐसा ही होता रहेगा ? और अगर ऐसा ही होता रहा तो फिर हमारी शिक्षा व्यवस्था भविष्य के लिए एक मजबूत नींव का निर्माण कर पायेगी ?
कहना होगा कि विद्यानिवास मिश्र का चिंतन सिर्फ़ एक पक्ष तक सीमित ही नहीं, बहुपक्षीय चिंतन है। प्रतिष्ठित आलोचक भी ऐसा मानते हुए कहते हैं कि “सभी निबन्धों में मिश्र जी ‘पुरातन से अद्यतन’ और ‘अद्यतन से पुरातन’ तक की बौद्धिक यात्रा करते हैं। वे केवल ‘ललित निबन्धों’ में ‘ललित’ बात ही कहकर नहीं रह जाते; बल्कि चोट करने वाली, सोचने-समझने को विवश करने वाली, गहरी तीखी और चुनौती भरी बात भी डट कर कहते हैं। पश्चिमी साहित्यों-संस्कृतियों के गहरे परिचय ने मिश्र जी आतंकित नहीं किया है; बल्कि उनकी भारतीयता को पुष्ट करते हुए और प्रखर बनाया है। सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों की सामयिकता ‘आज तो हिंदी अपनों ही से हारी है’ या ‘मेरा देश वापस लाओ’ जैसे निबन्धों के पोर-पोर से फूटती है। मिश्र जी के निबन्धों का संसार इतना बहुआयामी है कि प्रकृति, लोकतत्त्व, बौद्धिकता, सर्जनात्मकता, कल्पनाशीलता, काव्यात्मकता, रम्यरचनात्मकता, भाषा की उर्वर सर्जनात्मकता, संप्रेषणीयता आदि सभी इन निबन्धों में एक साथ अंतर्ग्रंथित मिलती है।”7
विद्यानिवास मिश्र जी का चिंतन क्षेत्र विशाल और व्यापक है जिसमें एक ओर लालित्य बोध है तो दूसरी ओर अनुभूत सत्य भी। मिश्र जी ने कई निबंधों को युवाओं की बैचनी और शिक्षा पद्धति की जकड़न को महसूस करते हुए लिखा है। विषय वस्तु चाहे कैसी ही हो पर उसमें भी लालित्य पैदा कर ही देते हैं विद्यानिवास मिश्र। यह उनकी लेखनी और अनुभूति का जादू है जिससे बरबस ही हर कोई खिंचा चला आता है। यह जादू उन्हें कुछ तो परिवेश-परंपरा से मिला तो कुछ अपने जीवन के अनुभवों से । उनके जीवन और लेखनी के दोनों पड़ावों पर नज़र डाले तो उनके चिंतन का नवीन, समसामयिक और मौलिक भाव बोध खुलता ही चला जाता है।
सवाल अब यहाँ यह उठता है कि क्या नयी पीढ़ी की इस बैचेनी का कोई निराकरण हो सकता है …? या फिर आज से 50 वर्ष पूर्व ही महसूस कर ली गई इस बैचेनी का समाधान है ही नहीं हमारे पास ….? वास्तविकता और अवास्तविकता के बीच झूलते युवा को कोई वास्तविकता का आकाश दिखा सकता है …? विश्वविद्यालयों में होने वाली प्राध्यापकों की भर्ती की जिस वस्तुगत स्थिति की ओर इशारा किया था मिश्र जी ने और जो आज हक़ीकत में देखी-अनुभव भी की जा सकती है, क्या इसका कोई निराकरण सुझा सकता है ….? क्या कोई अध्यापकों की पराधीनता स्वाधीनता में बदल सकता है …? क्या कोई छात्रों में गहरे स्तर पर पैठ-बैठ गई इस निराशा को कम कर सकता है…?
सवाल कितने ही हो सकते हैं, लेकिन क्या कोई जवाब भी होगा किसी के पास….हमारे पास…? अगर कोई उत्तर नही आता है तो इस निरुत्तर की स्थिति में स्वयं युवा को ही अपनी इस बैचनी, असमंजसता और अवास्तविकता की स्थिति से निपटने के लिए अपने भीतर के दीपक को जलाना पड़ेगा, अपना दीपक खुद बनना होगा – ‘अप्प दीपो भव:’ की तरह। अकेला चलना होगा – ‘एकला चलो’ की राह पर। संकल्प लेना होगा, कोशिश करनी होगी, चुनौती को स्वीकार करना होगा, तब जाकर यह बैचनी युवा के मन-मष्तिष्क से दूर हो पायेगी और इस तरह से धीर, प्रशांत, उर्जावान और विवेकशील युवा अपना भविष्य स्वयं लिख पायेगा।
संदर्भ –
- विद्यानिवास मिश्र, बसंत आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं (निबंध संग्रह ), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, चतुर्थ संस्करण – 2002 , पृ.सं.- 19
- वही, पृ.सं.- 20
- वही, पृ.सं.- 22
- वही, पृ.सं.- 24
- वही, पृ.सं.- 24
- वही, पृ.सं.- 27
- डॉ. नगेन्द्र, डॉ. हरदयाल (संपादक), हिंदी साहित्य का इतिहास, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पैंतालीसवाँ पुनर्मुद्रण संस्करण-2013, पृ.सं.- 764
शोधार्थी, हिंदी विभाग,
राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर
मोबाइल नम्बर – 941322422,7597525190
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