नागार्जुन की कविताओं में राजनीतिक बोध

एस.के .सुधांशु

सहायक प्रोफेसर

हिन्दी विभाग

रामजस कॉलेज

 

नागार्जुन की कविताएँ समाज की विकृतियों , विसंगतियों का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती हैं . व्यवस्था की दोहरी नीति , नेताओं के अभिनय और झाँसे , अत्याचारी शक्तियों के चेहरों को वे बखूबी पहचानते हैं . उन ताकतवर लोगों और शोषकों को चिह्नित करते हैं जो साधारण जन को उत्पीड़ित कर उनमें भय का माहौल पैदा करते हैं . ‘हरिजन गाथा ‘ कविता में वे लिखते हैं –“ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि /एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं –  /तेरह के तेरह अभागे – अकिंचन मनुपुत्र /जिन्दा झोंक दिए गये हों /प्रचंड अग्नि की विकराल लपटों में/ साधन सम्पन्न ऊँची जातियों वाले /सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा  : /ऐसा तो कभी नहीं हुआ था …”[1] यह चेतना उस समय की है जब इस देश में वामपंथी आन्दोलन और उससे जुड़े रचनाकार इन सवालों को गैर जरूरी मानते थे. यह कविता बिहार के बेलछी नामक गाँव के पैशाचिक नरमेध के चित्रण से उठती हुई उस जनांदोलन तक जाती है जो इस साम्राज्यवाद के नाश का अचूक अस्त्र है और जिसकी आशा-आकांक्षा आज तक बनी हुई है .

            नागार्जुन के यहाँ देश और राजनीति की समझ है . उनका साहित्य अपने समय और समाज के अनेक उलझाव और संघर्ष को सामने लाने  की कोशिश है . उन्हें इस बात की तगड़ी जानकारी है कि देश में छत्ते की तरह उग आये राजनीतिक दलों की आम जनता के बारे में क्या राय है और किस तरह ‘फटा सुथन्ना पहने हरचरना ‘ की बदहाली ‘भारत भाग्य विधाता’ के गीत के नीचे दबी –ढँकी रह जाती है . इसी दबे –ढँके को नागार्जुन ललकारते हैं –

“झूठ–मूठ सुजला–सुफला के गीत न अब हम गायेंगे

दाल –भात तरकारी जब तक नहीं भर पेट पायेंगे “[2]  

इस पूँजीवादी सत्ता के जन–शोषण विधान को नागार्जुन छिपने नहीं देते .  वे मास्टर , मजदूर, घरनी, बच्चे यानी गरीबों की बस्ती के राजदूत की तरह उनकी छाती के हाड़ गिन –गिन कर  बता देते हैं . लोगों के दुबले –पतले और धँसी आँखों वाले होने के पीछे यहाँ की व्यवस्था जिम्मेवार है . आज़ादी के बाद बनी कागज़ी योजनाओं से भूखों – शोषितों की हालत क्या सुधर सकी  है ..? लाभ भोगते गणमान्य लोगों पर इनकी सीधी ऊँगली का निशाना –

‘आजादी की कलियाँ फूटी

पाँच साल में होगे  फूल

पाँच साल में फल निकलेंगे

रहे पन्त जी झूला झूल .’

स्वाधीन भारत के बदलते हुए यथार्थ की विडम्बनाएँ और सत्ता के जनविरोधी हो जाने की स्थितियों के विद्रूप उनकी कविता में बहुत तीखे ढंग से सामने रखे गये हैं . कांग्रेसी राज, कैसे तानाशाही  पुलिस आतंक के राज में जनता पर निर्मम दमनचक्र चलाने वाले शासन तन्त्र में बदलता गया – इसकी कहानी सिलसिलेवार ढंग से नागार्जुन के अलावा किसी रचनाकार के यहाँ नहीं है . कांग्रेसी राज के पुलिस का एक चित्र –

“जिनके बूटों से कीलित है भारत माँ की छाती

जिनके दीपों में जलती है अरुण आँत की बाती

ताजा मुंडों से करते हैं जो पिशाच का पूजन

है असह्य है जिनके कानों में बच्चों का कूजन .”[3]

चाहे तेलंगाना का कृषक आन्दोलन हो या बिहार का हरिजन दहन–कांड , सब उन्हें समान रूप से उद्वेलित करते हैं . देश की आजादी के बाद १९४८ में उन्होंने तेलंगाना के कृषक – क्रांति से प्रेरित होकर एक तरफ लिखा कि  –

“जमींदार हैं बदहवास ,हमने उनको ललकारा है

जिसका जांगर उसकी धरती ,यही हमारा नारा है

होशियार , कुछ देर नहीं , लाल सबेरा आने में

लाल भवानी प्रगट हुई है सुना है कि तेलंगाने  में .”[4]

तो दूसरी तरफ सर्वहारा वर्ग की अंतिम विजय के प्रति अपनी पूर्ण निष्ठा व्यक्त करते हुए लिखा –

‘रुद्रता अनिवार्य होगी भद्रता के पूर्व …

सर्वहारा वर्ग के नील लोहित फूल , तुम बहुतेरा फलो

नाम गोत्र विहीन प्रिय ‘आजाद छापेमार टुकड़ी के

बहादुर बंधु !’

जनता में उठती चेतना के खिलाफ सत्ता के बर्चस्व को जबर्दस्त पटखनी मिली है नागार्जुन से . इसके चहरे को बेपर्द कर कवि गोली दागता है –

राजघाट पर बापू की वेदी के आगे अश्रु बहाओ

तैरो घी के चहबच्चों में ,अमरित की हौंदी में

बाबू खूब नहाओ

व्यर्थ हुई साधना , कुछ काम न आया …

इसलिए क्या जेलों में जिन्दगी बिताई ?

इसलिए क्या खून बहाया ?”[5]

नागार्जुन की चेतना ने सबपर  अपनी व्यंग की ऊँगली उठाई है . उनके यहाँ सिर्फ राष्ट्रीय घटनाओं की समझ ही नहीं वरन इस देश में उपज रहे अवसरवाद की जड़ें कहाँ से उग रही हैं, इसकी भी जानकारी थी . विदेशी साम्राज्यवादियों की ठग – विद्या भी नागार्जुन को खूब मालूम है . किस प्रकार राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त देशों को आर्थिक गुलामी में जकड़  दिया जाता है , यह भी उनसे छिपा नही है . उन्होंने उसी समय प्रधानमन्त्री से कहा था – अमरीका-यूरोप के ‘गौरांग पिशाच ‘ भीख माँगने पर कुछ भी न देंगे . भारत में इमरजेंसी का मूर्त बिम्ब नागार्जुन ही खीच सके हैं –

“कर्तूसों की माला होगी, होगा दृश्य अनूप

हथगोला –पिस्तौल –स्टेनगन सज्जित चंडी का रूप

अबकी अष्टभुजा का होगा

खाकी वाला भेष /श्लोकों में

गूंजेगे फ़ौजी अध्यादेश .”[6]

जनमानस की आकांक्षाओं को उनकी कविताएँ अभिव्यक्त करती हैं . आजादी के बाद के यथार्थ पर तीव्र दृष्टि रही है . आज़ादी के ठीक बाद की उनकी एक कविता है –

‘मालाबार के खेतिहरों को अन्न चाहिए खाने को

दंडपािण को लट्ठ चाहिए बिगड़ी बात बनाने को

जन – गण – मन अधिनायक जय हो प्रजा विचित्र तुम्हारी है

भूख – भूख चिल्लाने वाली अशुभ,अमंगलकारी है …

ज़मीदार है साहूकार है बनिया है व्यापारी है

अंदर – अंदर विकट कसाई बाहर खद्दरधारी है …

मारपीट है लूटपाट है तहस – नहस बरबादी है

जोर – जुलुम है जेल – सेल है वाह खूब आजादी है .’

सत्ता के इशारे पर पुलिस का दमन आज भी ज़ारी है . निम्न मध्यवर्गी लोगों , सर्वहारा वर्ग के सामने आज भी मुसीबतों का पहाड़ खड़ा है . आज़ादी से इनकी उम्मीदें और आकांक्षाएँ पूरी नही हो सकी . राजनैतिक गतिविधियों पर नागार्जुन की पैनी नज़र थी . उनके लिए आज़ादी और लोकतंत्र का सीधा अर्थ देश के गरीबों , मजदूरों , किसानों और सामान्य जन की बेहतरी थी . वे लिखते है –

‘हिटलर के ये पुत्र – पौत्र जब तक निर्मूल न होंगे

हिन्दू – मुस्लिम – सिक्ख फासिस्टों से न हमारी

मातृभूमि यह जबतक खाली होगी –

सम्प्रदायवादी दैत्यों के विकट खोह

जबतक खंडहर न बनेंगे

तब तक मै इनके खिलाफ लिखता जाऊँगा

लौह लेखनी कभी विराम न लेगी .’

सरकारें उद्योगपतियों के विकास के रास्ते पर बढ़ती जा रही हैं और देश की आम आबादी भूख और आत्महत्या के कागार पर खड़ी है . सत्ता लगातार और अधिक क्रूर , आतातायी होती जा रही है .अपनी ही जनता पर शस्त्रों से प्रहार किया जाता है . लोगों के अन्न मागने पर उनको मौत के घाट उतार दिया जाता है. नागार्जुन इस विडम्बना को अपनी कविताओं में उकेरते हैं . धुआंधार भ्रष्टाचार आम मजदूर, किसान का भयानक शोषण आज नया रस्म  बन गया है . देश के लिए कुर्बान होने वाले तमाम सेनानियों को अपने कुकर्मों की ढाल बनाकर सत्तावर्ग उनका इस्तेमाल कर  रहा है . इन्हीं सरकारों की महिमा के चलते आमआदमी की जिंदगी बद से बदतर होती जा रही है . आज़ादी के बाद पूंजीपति वर्ग मालामाल होता चला गया और आमजन के भरपेट रोटी तक का स्वप्न भी पूरा न हो सका . फिर भी सरकारें भुखमरी से होने वाली मौतों को कभी स्वीकार नहीं करती . नागार्जुन लिखते हैं –

‘मरो भूख से ,फौरन आ धमकेगा थानेदार

लिखवा लेगा घरवालों से –‘वह तो था बीमार ‘

अगर भूख की बातों से तुम कर न सके इनकार

फिर तो खायेंगे घर वाले हकीम की फटकार

ले भागेगी जीप लाश को सात समुन्दर पार

अंग –अंग की चीरफाड़ होगी फिर बारम्बार

मरी भूख को मारेंगे फिर सर्जन के औजार

जो चाहेगी लिखवा लेगी डाक्टर से सरकार .’

आज न्यायपूर्ण समाज का स्वप्न देखना ही सबसे बड़ा जुर्म बन गया है . बड़े चालाकी के साथ मनचाहे तरीके से किसी भी घटना को मोड़ दिया जाता है . सामन्ती और पूँजीवादी समाज को तिरस्कृत कर  नागार्जुन ‘जन‘ को व्यवस्था-विमर्श के केंद्र में प्रतिष्ठित करते हैं . उनकी कविताओं में जनचेतना है , जनता का संघर्ष है , भारतीय समाज की विडम्बनाओं को उजागर करने , उस पर चोट करने की ताकत है . राजनीतिक घटनाओं की गहरी पड़ताल के बाद ही वे उसे अपनी कविता में मुद्दा बनाते हैं .शासकों की निरंकुशता , उनका जनद्रोही ,भ्रष्ट, मक्कार चरित्र और मेहनतकश जनता के संघर्षों , प्रतिरोधों को दर्ज करते हैं . सिर्फ देश ही नही बल्कि देश के बाहर भी हर छोटी- बड़ी घटना  पर  बाबा की दृष्टि लगी रहती थी . दमन – उत्पीड़न की घटनाओं से उनका मन बेचैन हो उठता था .

            आपातकाल के दौरान होने वाले दमन पर भी उन्होंने लिखा , जनांदोलनों पर लिखा , बेलछी की नृशंस हत्या पर लेखनी चलाई ,भोजपुर-विद्रोह को उतार दिया; माओ की प्रशंसा में लिखे , 62 के चीनी आक्रमण के समय उसके खिलाफ लिखा . उनके साहित्य के बारे में मैनेजर पाण्डेय की राय ठीक ही है कि ‘उनकी कविता के आधार पर १९४० के बाद के भारतीय समाज की राजनीतिक चेतना का इतिहास लिखा जा सकता है . वे केवल जनांदोलनों के दृष्टा नहीं वरन  उसे भोगने , ऊँचा उठाने और अभिव्यक्त करने वाले कवि हैं .’  यह शोषित – पीड़ित जनता ही उनके केंद्र में है जिनके लिए वे प्रतिबद्ध हैं .

            उनकी विशेषता शोषित – उत्पीड़ित जनता की श्रमशीलता और क्रांतिकारी क्षमता के चित्रण में ही नहीं वरन उस जनता की विरोधी शक्तियों पर लगातार आक्रमणों में भी प्रकट हुई है . शोषणमूलक  व्यवस्था , राजनीतिक नेतृत्व का छलकपट, साम्राज्यवाद , पूँजीवाद , सामंतवाद और शासनतन्त्र , अर्थनीति , किसी भी प्रकार के अन्याय ,अत्याचार , पाखंड पर नागार्जुन ने करार प्रहार किया है .

[1] डॉ लल्लन राय – हिंदी की प्रगतिशील कविता , हरियाणा साहित्य अकादमी ,पृष्ठ -117

[2] नागार्जुन: प्रतिनिधि कविताएँ , पृष्ठ -101 , राजकमल पेपरबैक्स

[3] गुंजन रामनिहाल , नागार्जुन : रचना प्रसंग और दृष्टि , नीलाभ प्रकासन ,पृष्ठ -58

[4] डॉ लल्लन राय – हिंदी की प्रगतिशील कविता , हरियाणा साहित्य अकादमी ,पृष्ठ -117

 

[5] गुंजन रामनिहाल , नागार्जुन : रचना प्रसंग और दृष्टि , नीलाभ प्रकासन ,पृष्ठ -118

[6] गुंजन रामनिहाल , नागार्जुन : रचना प्रसंग और दृष्टि , नीलाभ प्रकासन ,पृष्ठ -67