यौनिकता की बहस में मिथक (इला और नर-नारी /उर्फ : थैंकू बाबा लोचनदास नाटक )
-भावना मसीवाल
यौनिकता का आशय मनुष्य की यौनिक पहचान से जुड़ा है और यह पहचान आज व्यक्ति की बजाय समाज सापेक्ष्य है। यौनिकता अपने स्वभाव में परिवर्तनशील है । कभी वह एक यौनिक पहचान, कभी दो और कभी किसी भी पहचान को नहीं मानती है, क्वीयर लोगों की तरह । “90 के दशक की शुरुआत में नरसिंहराव और मनमोहन सिंह एंड कंपनी ने एडम स्मिथ के ‘इनविजीबल हैंड’ को जैसे ही खुली छुट दी”[1]। पहली बार तब यौनिकता, सेक्स जैसे विषयों पर बातचीत होना आरंभ हुआ । इसमें पत्रिकाओं की मुख्य भूमिका रही । मुंबई से प्रकाशित होने वाली डेबोनायर पत्रिका और उसके बाद ‘सेवी’ नामक महिला पत्रिका इसमें प्रमुख थी । यौन व्यवहार को लेकर जिसने पहली बार सर्वे कराया था। इस सर्वे का एक कारण 1983 में एड्स बीमारी का उभरना था । दूसरा कारण 1986 में भारत में इसके पहले रोगी की पहचान होना था । इस रोग के फैलने के कारणों में दो कारण प्रमुख थे, असुरक्षित समलैंगिक और विषमलैंगिक यौन संबंध। एड्स के डर से विश्व संस्थाओं ने देह व्यापार के दायरों और समलैंगिक दायरों की जाँच आरंभ की । इन्हीं कारणों से तीसरी दुनिया में यौनिकता पर बहस की शुरुआत होती है ।
यौनिकता का विषय आज भले ही हमें नया लगता है । परंतु वास्तविकता यह है कि इस पर बहस का एक लंबा सिलसिला परंपरा, इतिहास और पुराणों में मौजूद है जिन्हें हम मिथक कहते है । अंग्रेजी के शब्द मिथ का हिन्दी रूप मिथक है और इस शब्द का प्रयोग आधुनिक काल में हुआ । आधुनिक काल में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के लेखन से यह शब्द उभरता है । डॉ श्यामा चरण दुबे का मानना है कि “परंपरा में मिथक भी है, ऐतिहासिक तथ्य भी । मिथक सामाजिक तथ्य है, ऐतिहासिक तथ्य नहीं”[2]।’दिविक रमेश लिखते हैं कि “मिथ और मिथक अपनी अर्थगत संकल्पनाओं में समान नहीं हैं । मिथ को प्रायः तर्क के विपरीत कोरा कल्पनाधर्मी अधिक माना जाता रहा है । जबकि मिथक अलौकिकता का पुट रखते हुए भी लोकानुभूति का वाहक होता है”[3]। पश्चिम में मिथ शब्द यूनानी ‘मुथॉस’ से आया जिसका अर्थ था मौखिक कथा । अरस्तु इसके लिए गल्पकथा और कथाबंध का प्रयोग करते है । मिथक को लेकर कई अवधारणाए मौजूद है, कुछ इसे कल्पना मानते है । ‘मिथक संसार का तर्क सामान्य संसार पर लागू नहीं होता’[4] कुछ सामाजिक यथार्थ के निकट, कुछ का मानना है कि यह लोक की अभिव्यक्ति का माध्यम रहा है । इस तरह मिथक कल्पना होने के बावजूद समाज के बहुत नजदीक देखा जा सकता है ।
आधुनिक संदर्भों में नाटककार जिससे जुड़ने का प्रयास भी करता रहा है । 70 के दशक में जब वैश्विक पटल पर नारीवादी आंदोलन के दौरान जेंडर, सेक्स और यौनिकता पर बहस चल रही थी और माना जा रहा था एक समय पूर्व तक समाज में केवल एक ही जेंडर पहचान उपलब्ध थी और मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप इन पहचानों को बनाया है । भारत में भी उस समय इसका प्रभाव सामने आ रहा था । प्रसाद के नाटकों में यह बहुत छोटे रूप में देखा जा सकता है परंतु 90 के बाद के लेखन में इसका विशेष प्रभाव रहा । प्रभाकर श्रोत्रिय का नाटक इला और नाग बोडस का नाटक नर-नारी (उर्फ : थैंकू बाबा लोचनदास) मिथकीय आधार पर यौनिकता की इस बहस को मिथक के आधुनिक पाठ के रूप में सामने लाता है। इला नाटक की मूल कथा श्रीमद भागवत के नवम स्कंध के पहले अध्याय सुधुम्न की कथा है । यह नाटक स्त्री-पुरुष की जैविक संरचना से लेकर स्त्री-पुरुष के भीतर दोनों ही गुणों के मौजूद होने, स्त्री-पुरुष संबंधों और उनके व्यवहार, समाजीकरण की प्रक्रिया का हावी होना जैसे मुद्दों को उठाता है । यौनिकता पर चली आ रही लंबी-लंबी बहसों से एक बहस यह नाटक पैदा करता है सुद्युम्न के रूप में । सुद्युम्न जिसकी अपनी एक निश्चित पहचान नहीं है। समाज, राज्य और सत्ता ने अपने अनुरूप उसे बनाया है । दूसरी ओर नाग बोडस का ‘नर-नारी’ नाटक बाबा लोचनदास की लोककथा को आधार बनाकर लिखा गया । यह स्त्री और पुरुष संबंधों के साथ ही एक निश्चित यौनिक पहचान होने की संभावना के प्रश्न को उठाता है। दोनों ही नाटक मिथक को आधार बनाते हुए आज के तत्कालीन जेंडर और यौनिकता के प्रश्नों को उठाते है।
शासक अपना दायित्व अपनी सत्ता को बनाए रखने में चाहता है । इसी निहितार्थ व अन्य परस्पर संबंधों को भी ताक पर रखने से पीछे नहीं हटता । ‘इला’ नाटक के अंतर्गत मनु का चरित्र सत्ता के चरित्र के रूप में सामने आता है । जिसकी अपनी महत्वकांक्षा और सत्ता लोलुपता उसे मानवीय गुणों से दूर कर देती है । मनु के व्यक्तितत्व का कुछ ऐसा ही रूप जयशंकर प्रसाद की कामायनी में भी देखने को मिलता है । वहां भी मनु अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर श्रद्धा को छोड़कर चले जाते है और यहाँ भी प्रभाकर श्रोत्रिय मनु के उसी चरित्र को उभारते है जो ‘पुत्र’ की जगह ‘पुत्री’ इला के जन्म का दोषी श्रद्धा को मानता है और अपने आत्मसम्मान के हनन का कारण भी । ‘…..सारी दुर्घटना की जड़ है-महारानी ! अब तक मैं जिसे अपना संपूर्ण प्रेम देता रहा, वह सर्पिणी निकली ! स्त्री के चरित्र को देव भी नहीं जान सकते। कृतध्न नीच !’[5] यहाँ नीचता का संबंध बेटी पैदा करने से है । क्योंकि मनु के लिए श्रद्धा का अस्तित्व राज्य का उत्तराधिकारी पैदा करना था । आज भी हमारे समाज में महिलाएं बेटा पैदा करने की मशीन मानी जाती है । जिसके लिए महिलाओं के सारे अधिकार छीन लिए जाते है कि उनकी अपनी इच्छा क्या है? आज भी सवाल ही बनकर रह जाता है। फिर चाहे वह कितना ही बुद्धिवादी क्यों न हो ? वह तर्क के आधार पर स्वयं को सही साबित करने का सदैव प्रयास करता है जैसा कि मनु करते हैं “मांगती तो राज्य का उत्तराधिकारी मांगती, लड़की नहीं ”[6] और बहस करने पर वह खुद को सही साबित करते है कि ‘उसका क्या कसूर है ? उसे भी सत्ता और समाज को देखना है और उसका संचालन करना है । इसके लिए वंश परंपरा के निहितार्थ यदि वंश कामना भी की तो क्या गलत किया’ । मनु और श्रद्धा के माध्यम से लेखक समाज में स्त्री–पुरुष संबंधों और उनमें वर्चस्ववादी मूल्यों की गहरी पेठ को उभारते है।
मनु का अपनी पत्नी श्रद्धा द्वारा लिया गया केवल एक निर्णय उनके अस्तित्व को ही प्रश्नांकित कर देता है । इनके स्वतंत्र अस्तित्व को पुनः राजमाता, पत्नी धर्म में बांधने का प्रयास करता है । आज के संदर्भों में इसे देखे तो पाते है कि आज भी कन्याभूर्ण हत्या, पुत्र की चाहत की अपेक्षा महिलाओं से की जाती है । आज भी संतान को धारण करने से लेकर पैदा करने तक के सभी निर्णय पिता व परिवार द्वारा लिए जाते है । महिला की उपस्थिति केवल गर्भधारण करने और पैदा करने के दौरान उसके पालन पोषण तक सीमित रहती है । उससे जुड़े निर्णय लेने में वह आज भी अक्षम है । श्रद्धा के जिस मनोभाव को प्रभाकर श्रोत्रिय उठाते है यही कामायनी में प्रसाद उठाते है और यही स्थिति आज की आधुनिक महिला की भी है । मातृत्व के गुणों से तो जिसे भरा गया मगर अधिकार नहीं दिया गया । बल्कि समाज में आज दिखावा मौजूद है कि आप बेटियों के चाहते हैं उनके ही हितैषी है । मगर वास्तविकता समाज की आज मनु जैसी है जो कहतें हैं “दूसरों की कन्याओं से प्रेम करना और अपने लिए कन्या चाहना दो अलग बाते हैं, देवी ।”[7] यहाँ बौद्धिक वर्ग के व्यवहारिक और सैद्धांतिक मतों के अंतर को समझा जा सकता है इसके साथ ही महिलाओं की स्वतंत्रता की चाह रखने वालों की मानसिकता को भी ।
आज की तकनीकी क्रांति ने जहाँ टेस्ट ट्यूब बेबी, सेरोगेसी और शरीर में बदलाव से लेकर सेक्स बदलवाने तक की प्रक्रिया को सहज बना दिया गया । ऐसे में चुनाव का मसला आसान हो गया है । आप को किस सेक्स को अपनाना है और किसे छोड़ना है । अपना शरीर किस रंग, रूप और गुण के अनरूप चाहना है । इसे आप सेरोगेसी और टेस्ट ट्यूब के जरिए पा सकते है । यह तकनीक 21 वी सदी की है मगर नाटक में यह पहले से सुद्युम्न के रूप में मौजूद है । सुद्युम्न इला का ही दूसरा रूप है जिसे पितृसत्ता ने अपने हित के लिए इला से सुद्युम्न के रूप में उपचार के माध्यम से परिवर्तित किया । क्योंकि उसे उत्तराधिकारी की आवश्यकता थी और एक महिला राज्य की उतराधिकारी नहीं हो सकती इसके कारण इला को पुरुष बना कर मनु अपने अहम् और अपनी सत्ता को सुरक्षित रखते है । इला का अपना वजूद मनु के लिए कोई मायने नहीं रखता था कि वह किस यौनिक पहचान के साथ जीना चाहती है । समाज में जेंडर पहचान के अंतर्गत एक जेंडर को सक्षम और दूसरे को उससे कमतर माने जाने की सामाजिक प्रक्रिया का ही परिणाम, इला का सुद्युम्न में परिवर्तन था । इस तरह सुद्युम्न पितृसत्ता की मानसिकता से उभरा एक ऐसा पात्र है जो अपनी यौनिक पहचान की लड़ाई से जूझ रहा है । आखिर वह क्या है ? क्यों वह जैसा दिखता है उसके अनुरूप व्यवहार नहीं करता ? क्यों उसकी कल्पनाएँ इच्छाएं कही ओर ही उड़ान भरती है ? मगर हर तरह से वह दबाया जाता है । उसे क्रूर, कठोर, हत्यारा होने की परवरिश दी जाती है । परंतु भीतर से वह कोमल स्वभाव का है । उसकी कोमलता पिता, पत्नी और सत्ता द्वारा कुचली जाती है । उसका अस्तित्व समाजीकरण की प्रक्रिया में भीतर-भीतर ही घुटता रहता है । “ भीतर से खींचता था कोई मन / बाहर खींची जाती थी बांह ”[8]।
यौनिकता का एक संदर्भ आज के आधुनिक युग में उन लोगों के लिए भी है जो किसी एक जेंडर पहचान को नहीं मानते। न स्त्री न पुरुष । उन्हें फिर समाज किस श्रेणी में शामिल करेगा । पुत्री नहीं चाहिए थी तो पुत्र में तब्दील कर दिया । मगर अब तो उसमें दोनों गुणों का समावेश है । ऐसे में समाज पुनः उसे स्वीकार करने से मना कर देता है । क्योंकि उसकी नजरों में पुरुषोचित और स्त्रियोचित गुणों का अपना एक खांका निर्मित है । उस खांके में जो भी फिट नहीं होता समाज उसे तुरंत बाहर कर देता है । यह स्थिति आज हमारे समाज में थर्ड जेंडर के सामने भी मौजूद है । जिनकी यौनिक पहचान समाज के तयशुदा खांचो में फिट नहीं होने के कारण समाज में अलग पहचान के रूप में उभरी। सुद्युम्न के समक्ष भी बार-बार खुद को एक खांचे में बनाए रखने का संघर्ष है । सुद्युम्न कहता है –‘क्या मैं बलिदान के लिए तैयार किया जाने वाला पशु हूँ ? यह राजसत्ता विकराल है ..यह पशुसत्ता कभी न थमनेवाली आंधी है महत्वकांक्षा..’[9]। इसी सत्ता ने उसकी पहचान को मिटा उसे दूसरे की पहचान के साथ जीने पर मजबूर किया । वह पहचान थी भावी सम्राट की। वह नहीं चाहता था इस पहचान को मगर उसपर जबरदस्ती इसे लादा जाता है । सुद्युम्न की पत्नी सुमति भी बार-बार सम्राट होने की इसी पहचान से उसे परिचित कराती है । जिस पर सुद्युम्न, सुमति से कहते है कि “कितना विरोधाभास है। जो बात तुम मुझसे कह रही हो, वह पिताजी माँ से कहते थे ! और जो मैं तुमसे कह रहा हूँ वह माँ पिताजी से कहती थी”[10]। सुद्युम्न का यह कथन समाज में निर्धारित स्त्री-पुरुष छवि और उनके निर्धारित कार्यों पर सवाल उठाते है । कि आवश्यक नहीं कि महिला होने से आप में स्त्रियोचित गुणों का भी समावेश स्वतः ही हो जाए और उसी तरह पुरुषों को भी कठोर होना आवश्यक नहीं । यह तो समाजीकरण की प्रक्रिया का एक हिस्सा है । क्यों हम मनुष्य को हमेशा ही ब्लेक और व्हाइट के चश्में से ही देखना पसंद करते है और भी रंग मौजूद है उन्हें देखने के । और रंगों की यही विविधता यौनिकता है ।
सुद्युम्न के प्रश्न मानवीयता के प्रश्न है कि आखिर शासक और सत्ता कठोरता को ही क्यों शासन का हथियार बनाती है ? जबकि वह केवल डर को जन्म देता है । क्यों क्रूरता उसका तत्व है ? क्यों प्रेम, कोमलता और स्नेह को अच्छे शासक की कमज़ोरी और शासक के योग्य गुण नहीं माना जाता । आधुनिक संदर्भो में जब भी महिलाएं सत्ता में आई उनके व्यवहार में वही कठोरता स्वतः ही मौजूद देखी गई । क्योंकि सामाजिक गढ़न में शासक के जिन गुणों को बताया गया वह धीरोदात्त होना था । यह अवधारणा नाट्यशास्त्र और रीतिकाव्यों में देखी जा सकती है । उसी धीरोदात्तता के गुणों से परिपूर्ण न होने पर सुद्युम्न पहले पिता, पत्नी और समाज में लांछित होता है और बाद में स्वयं को साबित करने के द्वंद्व से जूझता है । सुद्युम्न शखण वन पहुँचने पर खुद से सवाल करता है ‘मैं पूछता हूँ रानी कि क्या कठोरता और क्रूरता का नाम ही पुरुष है ?…क्या राजा की सत्ता स्नेह से नहीं चल सकती ?…अगर नहीं चलती तो ये जंगल के जीव ये लताएँ , ये निर्झर, ये पुष्प, ये पक्षी इतने मुक्त इतने स्नेहिल कैसे रहते ?[11]’। सुद्युम्न का प्रश्न केवल उसके अंतःकरण का नहीं है बल्कि आज भी समाज में ऐसे बहुत से लोग मौजूद है जो इसी मानसिक द्वंद्व से गुजर रहे है । या स्त्री और पुरुष गुणों के साथ आम मनुष्य की तरह जीना चाहते हैं । यदि राज्य अपनी निश्चित यौनिक पहचान से बाहर उन्हें स्वीकार कर भी लेता है मगर समाज उन्हें स्वीकार नहीं करता है ।
हम स्र्त्री–पुरुष और किसी विशेष जेंडर पहचान से बाहर आकर मनुष्यता की बात करते हैं तो मनुष्य वह होता है जिसमें संवेदना मौजूद हो । अर्थात उसमें स्त्री गुणों का होना आवश्यक है तभी वह सम्पूर्ण रूप से मनुष्य हो सकता है । क्योंकि समाज में संवेदना का संबंध महिलाओं से होता है । यह बात प्रभाकर श्रोत्रिय इला में गुरु वशिष्ठ और उनकी पत्नी अरुंधती के संवादों के माध्यम से सामने लाने का प्रयास करते है । वह कहते “स्त्री में पुरुष तत्व और पुरुष में स्त्री तत्व के विशेष समन्वय से ही सही अर्थ में स्त्री और पुरुष बनते हैं । पुरुष तत्व से रहित स्त्री मिट्टी की लोथ होती है; अनिर्णय, हीनता और पिलपिलेपन से ग्रस्त और अगर पुरुष स्त्री-तत्व से रहित हो, तो वह निरा राक्षस होता है –अंहकार, क्रूरता और संवेदनहीनता का पुतला”[12]। इला नाटक के माध्यम से प्रभाकर श्रोत्रिय स्त्री और पुरुष की सामाजिक परिकल्पना के आइने को तोड़ते है जहाँ स्त्रीत्व का संबंध केवल महिला और पुरुषत्व का संबंध पुरुष से होता है । वह स्त्री-पुरुष में दोनों ही गुणों के समावेश को उनकी संपूर्णता का मानक मानते है । प्रभाकर श्रोत्रिय की तरह ही नागबोडस अपने नाटक नर-नारी में में कांतीलाल उर्फ़ कांता के माध्यम से कहते हैं-“हर आदमी के अंदर अपने चाह की एक औरत होती है । अब ये अलग है कि वो चाह कभी पूरी नहीं होती”[13]…वैसे जो बारीकी से देखा जाय, तो आदमी औरत में अंदरूनी फरक बोहोत ज्यादा नहीं है । अब बदन की तो कुदरत की ज़रूरत है । उसे छोड़ो । वर्ना नजदीकी, बिछोह, डाह, पिरेम ये सब औरत आदमी में बराबर–बराबर ई होते हैं ”[14] । यह विचार उस दौर में आधुनिक रहा और आज भी यह किसी एक यौनिक पहचान की निश्चितता पर सवाल खड़ा करता है । क्योंकि यौनिकता अपने आप में बहुत बड़ा ‘टर्म’ है। जो मनुष्य के मानसिक व्यवहार से लेकर शारीरिक व्यवहार तक में देखी जा सकती है । ऐसे में कैसे उसे एक खांचे में देखा जा सकता है ? यह विचारणीय है ।
इला नाटक के माध्यम से नाटककार ने स्त्री और पुरुष मन के रहस्यों को उद्घाटित करने का प्रयास किया । क्योंकि स्त्री और पुरुष की निर्धारित छविओं में एक को कोमल दूसरे को कठोर बताया जाता रहा है । जबकि वास्तविकता में पुरुष में भी कोमल भावनाएं विद्यमान होती है । यहाँ इला और सुद्युम्न एक ही शरीर में दो आत्माएं है । जो एक दूसरे को जानते और समझते है । सुद्युम्न कहता भी है ‘स्त्री होकर मेरे पुरुष ने जहाँ कोमलता और सुंदरता का अमृत-कुंड पाया है, वही जाना है अग्नि धर्म और हिमानी जैसी शीतलता का रहस्य !”[15] इसी तरह सुद्युम्न आगे कहता है कि मेरी स्त्री ने पुरुष की देह में रहते हुए जाना है, कर्तव्य और प्रेम का ऐसा द्वंद्व जिसकी छाया भी नहीं है वह आत्मसंघर्ष जिसे अकेली स्त्री या अकेला पुरुष भोगता है । पुरुष देह में मेरी स्त्री ने पाया है कि स्त्री की रक्षा के अहंकार में पुरुष नारियल की खोल की तरह कठोर और सूखा होकर भी उसके रस, रूप और स्पर्श की रक्षा के लिए समर्पित है’[16]। दूसरी ओर वह अपने अकेलेपन, हीनता, विपन्नता और असहाय होने के आंतरिक द्वंद्व को स्त्री पर अधिकार के रूप में पूरा करने का प्रयास करता है । स्त्री न होकर पुरुष अपनी श्री हीनता और कठोरता में कितना, विपन्न, कितना अकेला और कितना असहाय है ! इन्हीं सब खाइयों को भरना चाहता है वह स्त्री को अर्जित करके उसका अतिक्रमण करके । इसीलिए वह कभी नहीं सह पाता स्त्री द्वारा अतिक्रमित होना, हावी होना”[17]। आज भी बलात्कार के जितनी घटनाएं हमारे सामने आती हैं । वह कुछ नहीं पुरुषसत्ता की इसी मानसिकता का परिचायक है । और बलात्कार उसके पौरुषत्व को साबित करने का एक हथियार ।
जेंडर स्त्री और पुरुष समानता की बात करता है । क्योंकि इस सिद्धांत का मानना है कि स्त्री और पुरुष दोनों ही संरचनाएं समाजीकरण का हिस्सा है । और दोनों की मानसिक बुनावटो को समझे बिना उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता है । इला नाटक के माध्यम से प्रभाकर श्रोत्रिय स्त्री और पुरुष की उसी मानसिक निर्मिती को सामने लाते है । जहाँ वह हिंसा के जरिए स्त्री पर अपना अधिकार स्थापित करता है और दार्शनिक बनकर उसके अस्तित्व से ही इनकार कर देता है । वास्तविकता में वह बौनेपन को छुपाने के लिए “स्त्री की सत्ता से ही इनकार कर देता है”। प्लेटो, अरस्तु से लेकर कबीर तुलसी तक सभी ने स्त्री की सत्ता को स्वीकार करने की अपेक्षा उसे इनकार किया है । जबकि स्त्री और पुरुष के बीच का यह अंतर प्रकृतिजन्य नहीं है बल्कि मनुष्य की लालसाओं की देन है । प्रभाकर श्रोत्रिय इसे महसूस करते है । वह सुद्युम्न के माध्यम से इस विचार को सामने भी लाते है । जहाँ वह कहता है कि “मैंने दोनों के अर्थ और संबंध को समर्पण और ग्रहण की संपूर्णता में पहचाना है । आज मैं कह सकता हूँ कि उनके बीच के तनाव प्रकृत नहीं है, वे मनुष्य के विकृत विधान से उपजे हैं”[18] । समाज में स्त्री-पुरुष असमानता और इनसे अलग थर्ड जेंडर समुदाय आज जिस पहचान के संकट से जूझ रहा है । उसका एक कारण पितृसत्तात्मक मानसिकता है जिसने समाज में दो सेक्स पहचान को सही ठहराया । और उससे अलग पहचान को समाज के दायरे से ही बाहर कर दिया । जबकि उनकी पहचान का संदर्भ इतिहास और पुराणों में मौजूद है । उस वक्त जो स्वीकृत था आज किस तरह उसे समाज में अस्वीकृत बना दिया गया । यह आज का उभरता प्रश्न है हमारे समक्ष ।
नर-नारी उर्फ (उर्फ : थैंकू बाबा लोचनदास) नाटक के माध्यम से नाग बोडस ने लोक में बाबा लोचनदास के मिथक के माध्यम से स्त्री-पुरुष संबंधों और उनमें भी पुरुष के स्त्री भेष में रहने की सामाजिक प्रथा के माध्यम से इन संबंधों की यथास्थिति पर प्रकाश डाला है । यह आवश्यक नहीं की स्त्री-पुरुष अपनी निर्धारित छवियों में ही समाज में मौजूद रहे । उनसे इत्तर छवि भी मौजूद है । जैसा कि गाँव में सभी पुरुषों का सात दिनों तक महिला बनकर रहना और उनकी तरह व्यवहार करना दूसरा कांतीलाल का कांता बनकर नौटंकी में महिला पात्र की भूमिका अदा करना । लोक में बाबा लोचनदास के मिथक के माध्यम से नागबोडस ने पुरुष और महिला के संबंधों में सखी भाव को जगह देने की बात की । ऐसे में कांतीलाल उर्फ़ कांता और गुल्लो का संबंध इसी सखी भाव से उपजा संबंध था । “कांता (गुल्लो) तेरी काया दिमाग में आई और अपनी पोशाक पे नजर गई और दोनों बेमेल लगे और फिर शर्म पे शर्म कि कैसे जाऊ तेरे सामने । और तब जिंदगानी में पहली दफ़ा जो बात समझी कि औरत का भेस रखना बहुत मुश्किल काम है”[19]। कांता, गुल्लो का यह वार्तालाप पुरुष का स्त्री को समझने की प्रक्रिया का पहला चरण रहा । गुल्लो की भी मानसिक स्थिति कांतीलाल जैसी ही थी । क्योंकि सामाजीकरण में हमने कभी महिला-पुरुष की एक वेशभूषा के संदर्भ में सोचा ही नहीं । मगर गुल्लों स्वीकारती है और सखी रूप में अपनाती है और खुश होती है पति को इस रूप में पाकर । क्योंकि आज समाज में पति-पत्नी संबंधों में मित्रता से अधिक सत्ता संबंध देखे जाते हैं ।
नागबोडस ने अपने समय में पश्चिम और भारत में चल रहे नारीवादी आंदोलन के दौरान उठ रहे महिला- पुरुष संबंध, लिंगभेद, यौनिकता जैसे सवालों को इस नाटक के माध्यम से उठाने का प्रयास किया । पूरे गाँव के पुरुषों का लोचनबाबा की पूजा में एक सप्ताह तक महिला के रूप में रहना और उस प्रथा के दौरान स्वयं को उसी रूप में ढालना । दर्शाता है कि एक समाज ऐसा भी है जहाँ पुरुष का महिला के रूप में रहना अपमान नहीं है । भले ही कारण लोचन बाबा का इस गाँव को श्राप रहा है । परंतु एक कारण स्त्री को समझना भी रहा है । दिलावर का गाँव पहुंचना और मज़बूरी में दिलवरी बनाए जाने के बाद, एक मिथकीय कल्पना को गढ़ना और कहना उसने एक बार सपने में भगवान् से महिला और पुरुष के बीच के अंतर के कारणों को जानना चाहा था । और भगवान उसे कहते है सुनो, आदमी औरत का फरक समझना बहुत मुश्किल ।…हमने खुद तजुर्बे से समझा ..मोहिनी के रूप में..संजोग की बात देखों कि तजुर्बे का मौका मिल गया : जै बाबा लोचनदास”[20]। यह तजुर्बा जेंडर भेद को समझने की एक प्रक्रिया या तकनीक के रूप में अपनाया जा सकता है ।
मगर एक सवाल यह नाटक ओर उठाता है वह स्वानुभूति और सहानुभूति का । क्योंकि भले ही गाँव के सभी पुरुष बाबा लोचन दास के श्राप के कारण महिलाओं की वेशभूषा धारण करते है परंतु उनकी मानसिकता व स्वभाव में उसका प्रभाव नहीं मिलता । चमेली के साथ पुरुषों ने आक्रामक व्यवहार किया । उसके “गाल छूकर अपनी उगलियों का चुंबन लेकर ..” जैसा दुर्व्यहार किया जाना । कांतीलाल इसका विरोध करते हैं “एक अबला के साथ ऐसा सुलूक ?..लोचन बाबा की तुम्हारी पूजा झूठी । तुम्हारा नेम झूठा । आज पूजा करी और आज ही एक देवी के संग ऐसा व्यवहार ”[21]। अपने आप में शर्मनाक घटना रही । इला नाटक में भी मनु का व्यक्तित्व इसी तरह का रहा जहाँ वह कहते हैं “दूसरों की कन्याओं से प्रेम करना और अपने लिए कन्या चाहना दो अलग बाते हैं”[22]। यहाँ यह सवाल भी समाज के समक्ष उभरकर आता है कि आज भी सैद्धांतिक तौर पर स्वयं को महिलावादी या महिला हितैषी कहने वाले कितने ही पुरुष व्यवहारिकता में पितृसतात्मक मानसिकता से ग्रसित देखें जाते हैं । महिला उनके लिए वहां भी एक कमोडिटी से अधिक कुछ नहीं होती है ।
नर-नारी नाटक उत्तर भारत में विशेष रूप से नौटंकी में पुरुषों की महिलाओं के रूप में सक्रिय भागीदारी को उजागर करता है । जहाँ संगीत नृत्य में पारंगत होने व आर्थिक रूप से सबल न होने के कारण बहुत से युवा इस पेशे को अपनाते है और समाज में यौन शोषण का शिकार होते हैं । उनके शोषण का सबसे बड़ा कारण उनके पुरुष रूप में स्त्री गुणों का होना था । जैसा कि दिलावर कांतीलाल उर्फ़ कांता के नौटंकी में काम करने के दौरान उससे रिश्ता कायम करने का प्रयास करना “तू जमीदार की साली नहीं, दिलावर की कांता है ।(कांता के गले में बाहे डालता है और उसे चूमने की कोशिश करता है । कांता अलग होकर उसमें एक चिंटा जड़ देती है”[23]। )’ दिलावर का चमेली, कांता और कांतीलाल की पत्नी गुल्लो के साथ का व्यवहार उसकी पितृसत्तात्मक मानसिकता को उद्घाटित करता है । जहाँ उसके लिए स्त्री –पुरुष दोनों ही यौन आनंद का माध्यम है उससे अधिक कुछ नहीं । यहाँ यौनिक शोषण किसी एक खांचे में बंधा नहीं है । बल्कि आज लडकियों, लड़को के साथ ही थर्ड जेंडर समुदाय तक को मानवतस्करी के दौरान यौन शोषण का शिकार होना पड़ता है ।
कुल मिलाकर देखा जाए तो इला और नर-नारी उर्फ़ थैक्यू बाबा लोचनदास दोनों ही नाटक अपने समय में चल रहे महिला आंदोलन और ट्रांसजेंडर समुदाय के सवालों पर लेखन के जरिए बात करते हैं । और स्त्री-पुरुष संबंधो के अंतर के मूल कारणों को सामने लाने का प्रयास करते हैं । दोनों ही नाटककार लेखन के माध्यम से महिला और पुरुष के बीच खीची विभाजक रेखा को समाजीकरण का हिस्सा मानते हैं । क्योंकि स्त्री–पुरुष में शारीरिक संरचनात्मक भेद के अलावा जो सामाजिक भेद मौजूद है वह प्राकृतिक नहीं बल्कि मनुष्य द्वारा ही बनाया गया है । दोनों ही नाटक स्त्रीत्व और पुरुषत्व गुणों से पूर्ण व्यक्ति की कामना करते है । क्योंकि इन दोनों तत्वों में से एक की भी कमी उनकी मनुष्यता पर खतरा है । यहाँ मनुष्यता का आशय संवेदनाओं का होना है । यह दोनों ही नाटक पौराणिक और लोक में व्याप्त मिथकों के आधार पर यौनिकता के सवाल को भी उठाते है कि व्यक्ति की यौनिकता आवश्यक नहीं कि एक ही तरह की हो जैसे सुद्युम्न का चरित्र भले ही मनु की मानसिकता से उभरा परंतु उसका व्यक्तित्व स्त्री और पुरुष दोनों ही गुणों के साथ सामने आता है । नर-नारी नाटक में कांतीलाल का कांता के रूप में नौटंकी में काम करना उसे ख़ुशी देता है दूसरी ओर वह अपनी पत्नी गुल्लो से भी प्रेम करता है । यौनिकता अपने स्वभाव में परिवर्तनशील होती है । इस तरह श्रीमद भागवत के नवम स्कंध के पहले अध्याय से सुद्युम्न की कथा और लोक से बाबा लोचनदास की कथा को नाटकों में प्रयोग किया गया और इन मिथकों के जरिए आज के समय की ‘ट्रांसजेंडर’ बहस को उजागर करने का प्रयास किया गया। सुद्युम्न का चरित्र आज के ट्रांसजेंडर समुदाय की मानसिक स्थिति को उजागर करता है । यह वह समुदाय था जिसे समाज ने हाशिए पर रखा । क्योंकि वह उनसे अलग थे । किसी ने उनके मनोभावों को समझने का प्रयास नहीं किया । राज्य व सत्ता अपना हित देखती है और सुद्युम्न इन सबसे घिरा मगर फिर भी अकेला अपनी पहचान के प्रश्न से जूझता है । आज इनकी ‘पहचान’ बहस का केंद्र है । भले ही संविधान में इन्हें थर्ड जेंडर के अंतर्गत शामिल किया गया है । बावजूद समाज में इनकी क्या पहचान है ? यह भी एक सवाल है । क्योंकि आज भी उत्तरप्रदेश व अन्य बहुत से स्थानों पर नौटंकी में काम करने वाले पुरुषों को महिलाओं की भूमिका निभाने के कारण समाज में हाशियाकरण, शोषण और मज़ाक का पात्र बनने पर मजबूर होना पड़ता है । इसीलिए आज आवश्यकता है ‘डी-जेंडर’ होने की । अर्थात जेंडर की इस व्यवस्थित संरचना को तोड़ना, ताकि यह लोग भी समाज का हिस्सा बन सके । और खुद को एक जेंडर, सेक्स और यौनिक पहचान के रूप में साबित करने पर मजबूर न हो ।
विशेष संदर्भ
इला, प्रभाकर श्रोत्रिय, आकाशदीप पब्लिकेशन, संस्करण-1996, नई दिल्ली
- नर-नारी, नाग बोडस,वाणी प्रकाशन, द्वितीय संस्करण-2005, नई दिल्ली
- स्त्री मुक्ति का सपना, (अतिथि सं.) अरविंद जैन, लीलाधर मंडलोई, (सं.)कमला प्रसाद, राजेन्द्र शर्मा, वाणी प्रकाशन, आवृति संस्करण-2014, नई दिल्ली
- परंपरा, इतिहास बोध और संस्कृति, डॉ श्यामाचरण दुबे, राधाकृष्ण प्रकाशन, संस्करण-2008, नई दिल्ली
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