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पल प्रतिपल 86 : आलोचना का समकाल
विनोद शाही, रोहिणी अग्रवाल, विनोद तिवारी और वैभव सिंह पर एकाग्र
एक अरसे से साहित्य की दुनिया में एक शोर सा सुनाई देता रहा है कि हिंदी की अपनी आलोचना कहां है ? कुछ कहते हैं आलोचना साहित्य से पिछड़ गई है और प्रतिवाद में दलील आती है कि रचनात्मक साहित्य उथला हो गया है। आज हमें यह बताने वाला कोई नहीं बचा है कि साहित्य और यथार्थ का रिश्ता कैसा होता है और वह हमारे समय में अलग तरह का कैसे हो गया है। आलोचनाशास्त्र की स्थिति यह हो गयी है कि साहित्य के छात्र जिस शास्त्र को पढ़ कर आते हैं उसका व्यावहारिक रूप उन्हें कहीं दिखाई नहीं देता। रससिद्धांत से लेकर औचित्य तक की सारी धारणाएं एक तरफ पड़ी रह जाती हैं और वे हमें हमारे समय के साहित्य को समझने में कुछ खास मदद करती प्रतीत नहीं होती। यह स्थिति पश्चिम से आये आलोचनाशास्त्र की है। साहित्य को समझने के जो औज़ार पश्चिम ने दिए हैं वे या तो पराये लगते हैं या अपने साहित्य पर आरोपित। ऐसे में किसे चुने किसे छोड़ें यह असमंजस और गहरा होता जा रहा है। बात की जाती है कि पुराने सभी प्रतिमान टूट गए हैं। उम्मीद की जाती है कि नए प्रतिमान आएंगे। हमारा समय प्रतिमानों के टूटने और बनने के बीच का समय है। हमने पल प्रतिपल 86 को इसी संकट से मुख़ातिब होने की सोच के साथ तैयार करना आरम्भ कर दिया है। तीसरी दुनिया के साहित्य की बात वैसे भी हाशिये पर है। उसमें हिंदी साहित्य की स्थिति क्या है यह बताने की जरुरत नहीं। दावे चाहे कितने किये जाएँ पर हकीकत हमारी पीछा करती ही रहती है। साहित्य और आलोचना की आपसदारी के बिना किसी भाषा का साहित्य अपनी ऊंचाई को नहीं पा सकता। हम जानना चाहेंगे कि इस आपसदारी को निर्मित करने के क्या रुकावटें हैं। साहित्य को इतिहास ऊंचाई देता है। आलोचना को विचार और दर्शन तेजस्वी बनाते हैं। हम सब को अपने दायित्व के निर्वाह के लिए एक बड़े फ़लक पर काम करना होगा। हमने सोचा कि शुरआत क्यों न आलोचना से की जाये हालांकि पल प्रतिपल 80 आलोचना पर ही केंद्रित था जिससे हमें प्रेरणा मिली कि आलोचना के समकाल पर भी काम करने की जरुरत है। हमारे आलोचक मित्र अपने काम में जुटे हैं। वे पूरे परम्परा परिदृश्य को खंगाल रहे हैं और हम उनके इस रचनात्मक संघर्ष से उम्मीद लगाए बैठे हैं। अवश्य कुछ तो बचा कर रखने लायक हाथ लगेगा।
आवरण, साजसज्जा और पोस्टर : कुंवर रविंद्र