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साभार: डॉ. राजेश पासवान जी 
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A आलोचना राजकमल प्रकाश न 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-110002. सम्पा. नामवर सिंह / अपूर्वानंद Yes 2231-6329 011 23274463 rajkamalprakashan.com
A आकार 15/269, सिविल लाइंस, कानपुर-208001. सं. गिरिराज किशोर Yes
A अभिनव भारती हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ Yes
A अभिनव कदम 223, पावर हाउस रोड, निजामुद्दीनपुरा , मऊनाथ भंजन, मऊ , उ.प्र. 275102 संपादक – जय प्रकाश धूमकेतु Yes No 2229-4767 Yes 9415246755 dhoomketu223@gmail.com
A अनुसंधान हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय , इलाहाबाद. Yes
A अन्यथा 2063, फेज-1, अरवन इन्टेट डुगरी, लुधियाना-141013. सं. कृष्णकिशोर Yes
A अनहद 3/1 बी. के. बनर्जी मार्ग, नया कटरा, इलाहाबाद-211002. सं. संतोश कुमार चतुर्वेदी Yes
A अनुवाद भारतीय अनुवाद परिषद, दिल्ली. Yes
A अनभै सांचा 148, कादम्बरी, सेक्टर-9, रोहिणी, दिल्ली-110085. सं. द्वारिका प्रसाद चारुमित्र Yes 2347-8454 011-27864302 anbhyasanch
A आजकल प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, रचना भवन, लोदी रोड, नई दिल्ली. राकेश रेणु Yes 0971-8478 Yes 011-24362915 ajkalhindi@gmail.com
A आदिवासी साहित्य मीनाक्षी , 1315, पूर्वांचल जे एन यू नई दिल्ली -67 डॉ गंगा सहाय मीणा yes 2394-689X Yes No No 9868489548 adivasipatrika@gmail.com
A अपनी माटी (ई पत्रिका) अपनी माटी संस्थान’ ए -10 कुम्भानगर ,चित्तौड़गढ़ राजस्थान 312001 स. जितेन्द्र यादव 2322-0724 9001092806 info@apnimaati.com
A अरावली उद्घोश 448, टीचर्स कालोनी, अम्बामाता स्कीम, उदयपुर, राजस्थान-313004. Yes
A आरोह हिंदी विभाग, असम विश्वविद्यालय , सिलचर-788001 (असम). सं. कृष्णमोहन झा Yes
A अक्षर पर्व देशबंधु प्रकाशन, देश बंधु परिषद, रायपुर, बिलासपुर. सं.ललित सुरजन Yes
A अम्बेडकर कल्चर नालंदा, 45, शिवम सिटी, निकट सेक्टर-6, जानकीपुरम विस्तार, लखनऊ-226021. सं. प्रो. कालीचरण ’स्नेही’ Yes
A अम्बेडकर इन इंडिया तमकुहीराज, कुषीनगर (उ. प्र.)-274407. सं. दयानाथ निगम Yes
A अनभै सांचा दिल्ली द्वारिका प्रसाद चारूमित्र 2347-8454 011-27864302 anbhya.sancha@yahoo.co.in
A अक्षरा 0755-2660909 hindibhavan.2009@rediffmail.com
A बहुवचन म.गां.अं.हि. विश्वविद्यालय पो.वा.नं. 16 पंचटीला वर्धा-442001. सं.- अशोक मिश्र Yes 2348-4586 Yes 9958226554 bahuvachan.wardha@gmail.com
A अनामा भगवती कॉलोनी हाजीपुर, बिहार आशुतोष पार्थेश्वर Yes 2348-8506 Yes Quarterly 9934260232 anamahindi@gmail.com
A अरुणप्रभा हिन्दी विभाग, राजीव गाँधी वि.वि., ईटानगर 2349-6444
A अन्तिम जन गाँधी स्मृति एवं दर्शन समिति, गाँधी-दर्शन, राजघाट, नयी दिल्ली -110002 2278-1633
A अनुवाद 24 स्‍कूल लेन (बेसमेण्‍ट), बंगाली मार्केट, नई दि‍ल्‍ली 110001 डॉ. हरीश कुमार सेठी Mar-18 9818398269 bhartiyaanuvadparishad@rediffmail.com
A अंतरंग चतुरंग प्रकाशन, मेनकायन, न्‍यू कॉलोनी, उलाव, बेगूसराय 851134 श्री प्रदीप बि‍हारी 2348-9200 9431211543 biharipradip63@gmail.com
A अम्बेडकर मिशन पत्रिका (मासिक पत्रिका) चितकोहरा, अनीसाबाद, पटना बुद्धशरण हंस
A अभिव्यंजना बुंदेली फाउंडेशन शोध कैंद्र, गौशाला, रमेड़ी, हमीरपुर (उत्तरप्रदेश) Dr. ASHOK KUMAR CHAUHAN YES, QUARTERLY JOURNAL, Bilingual 2277-9884 YES 9893886914 abhivyanjanashodh@gmail.com
A अवधारणा रामचंद्र प्रभुशंकर नगर, सीहोर रोड, नीलबड़, भोपाल (मध्यप्रदेश) DR. SUDHIR KUMAR TIWARI YES, QUARTERLY JOURNAL, Bilingual 2350-059X YES 9893637340 avadharana2014@gmail.com
A एसियन जर्नल ऑफ़ अडवांस स्टडी Social Development Welfare Society BHADOHI U.P. Yes No 2395-4965 Yes Multi-Subject and Multi-Disciplinary
A आगमित रूपकंवल प्रकाशन, लुधियाना (पंजाब) डॉ० राजेन्द्र सिंह साहिल yes ANNUALLY) ISSN 2277-520X YES NO 6122541856 editor@nayidhara.com
A अनुशीलन मानवी सेवा समिति , वाराणसी मुकुल राज मेहता yes 9738762 yes Bi Monthly 9415618968 anushilana@rediffmail.com
A अनामिका तकिया रोड, सासाराम (बिहार) विकास कुमार yes 2347-5838 Yearly 9470828492 patrikaanamika@gmail.com
B बहुवचन, गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र, संपादक- अशोक मिश्र yes 2348-4586 bahuvachan.wardha@gmail.com
B भाषिकी सिद्धि विनायक प्रशासन, मानोली, तहसील-मलारना डूंगर, जिला-सवाई माधोपुर-322028 राजस्थान प्रधान संपादक, प्रोफ़ेसर राम लखन मीना Yes 2454-4388 9413300222 bhashiki.research@outlook.com
B बनास जन 393, DDA, Block-C & D, Kanishak Apartment, Shalimar Bagh, Delhi सं. पल्लव Yes 2232-6558 Yes 081-30072004 pallavkidak@gmail.com, banaasjan@gmail.com
B बया Antika Prakashan, Ghaziabad, U.P. सं. गौरीनाथ Yes 2321-9858 Yes 9871856053 antika56@gmail.com
B भारतीय लेखक डी-180. सेक्टर 10, नोएडा-1. सं. मोहन गुप्ता, Yes
B भाषा केन्द्रीय हिन्दी निदेषालय, उच्चतर षिक्षा विभाग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार पश्चिमी खंड-7,रामकृष्णपुरम, नई दिल्ली-110066. डॉ शशि भारद्वाज Yes 0523-1418 011-23817823 www.hindinideshalaya.nic.in
B बयान बी.जी. 5ए/30 बी. पश्चिम विहार, नई दिल्ली-110063. सं. मोहनदास नैमिशराय Yes
B बैकवर्ड 205, अंबालिका कॉम्पलेक्स, एजी कॉलोनी, मेन रोड, पटना-800023 (बिहार). सं. अरूण कुमार Yes
B भारत-संधान जे-56 साकेत, नई दिल्ली-110017. सं. अनिल विद्यालंकार Yes
B बहुरि नहीं आवना J-5, Yamuna Apartment, Holi Chowk, Devali, New Delhi, Pin- 11008. Editor, Dr. Dinesh Ram yes 2320-7604 9868701556 bahurinahiawana14@gmail.com
B बोधि पथ Buddha Education Foundation (Trust), Maitrya Buddha Vihar, H-2/48, Sector-16,Rohini, Delhi-110089 Dr SanghMitra Baudh Yes 2347-8004 Yes Yet to receive Blind Review and Plaigrism check http://bodhi-path.com/ 9968262935 sanghmb@gmail.com
B बुंदेली बसंत बुंदेली विकास संस्थान, छतरपुर मप्र संपादक डॉ बहादुर सिंह परमार 0975-8011 9425474662 bsparmar1962@gmail.com
B बीज शब्द प्रकाशन संस्थान , दरियागंज नई दिल्ली केदारनाथ सिंह
C चिंतन सृजन आस्था भारती,27/201, ईस्ट ऐण्ड अपार्टमेंट, मयूर विहार फ़ेस–1 विस्तार, दिल्ली–110096 0973-1490 011-22712454 asthabharti1@gmail.com
C चेतांशी 103, नीलगिरि भवन, प.बोरिंग कैनाल रोड, पटना-1 इन्दु भारती
C चिंतन दिशा A-701 Aashirwad -1, Poonam Sagar Complex, Meera Road, Eastm Mumbai सं.शैलेश सिंह Yes 9819615352 chintandisha@gmail.com
D दलित साहित्य वार्षिकी बी-634, डी.डी.ए. फ्लैट्स, ईस्ट ऑफ़ लोदी रोड, दिल्ली – 110093. सं. डॉ.जयप्रकाश कर्दम Yes
D दी डिस्कोर्स द्वारा पीपुल फॉर एकेडमिक रिसर्च एंड एक्सटेंशन, डिजिटल डेस्टिनेशन, टी के टावर्स, घाट किडीह, जमशेदपुर (झारखण्ड). Yes
D दस्तावेज 101, बेतियाहाता, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश. सं. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी Yes 2348-7763 0551-2335067
D दृश्यान्तर दूरदर्शन महानिदेषालय, कमरा नं.-1026, बी. विंग कोपरनिकस मार्ग, नई दिल्ली-110001. सं. अजित राय Yes
D दलित दस्तक 32/3, पश्चिमपुरी, नई दिल्ली-110063. सं. अशोकदास Yes 2347-8357 01141427518/09013942162 dalitdastak@gmail.com
दलित अस्मिता सेन्टर फॉर दलित लिटरेचर एंड आर्ट, IIDS, डी-2/1, रोड नं. 4, एंड्रयूज गंज, नई दिल्ली-110049 सं. विमल थोरात Yes 2278-8077 9811807522 asmita@dalitstudies.org.in
F फ़िलहाल नेहरू नंदा भवन, दरोगा राय पथ, पटना-800001 (बिहार). सं. प्रीति सिन्हा Yes
G गवेषणा केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा. नन्दकिशोर पाण्डेय Yes 0435-1460 w.w.w hindisansthan.org
G गगनांचल भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद्, दिल्ली 0971-1430 011-233793 pohindi.iccr.nic.in
G गर्भनाल डीएक्सई-23, मीनाल रेसिडेंसी, जे.के.रोड, भोपाल-462023, म.प्र. भारत सुषमा शर्मा 2249-5967 yes 91-9303337325
G गुंजन इंदौर , मध्य प्रदेश जीतेन्द्र चौहान
G ज्ञान शिखा हिंदी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग , लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ
G ज्ञान स्पंदन डॉ.शारदा प्रसाद,पो०:रामगढ कैंट,जिला रामगढ(झारखण्ड),
पिन-829122
डॉ.शारदा प्रसाद Yes ISSN-2349-8609 Yes 9835900021 gyanspandan2015@gmail.com
H हंस 2/36, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-2 सं. संजय सहाय Yes 2454-4450 011-23270377 editor@hansmonthly.com
H हिन्दी महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा. Yes
H हाशिए की आवाज सोशल एक्शन ट्रस्ट, 10 इंस्टीट्यूश नल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली सं. डॉ.जोसेफ Yes 2277-5331 011-49534156/132 hka@isidelhi.org.in
H हिंदी अनुशीलन भारतीय हिन्दी परिषद, इलाहाबाद. सं. रामकमल राय Yes
H हिन्दीटेक Centre for Endangered Languages, Visva-Bharati Santiniketan, Bolpur अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी No 2231-4989 TDIL, MIT GOI 88005459243
H हस्ताक्षर हिन्दू कालेज , नई दिल्ली रचना सिंह
I इंद्रप्रस्थ भारती हिन्दी अकादमी, दिल्ली, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली सरकार, समुदाय भवन, पद्म नगर, किशनगंज, दिल्ली-07. मैत्रेयी पुष्पा Yes
I इतिहास भारतीय इतिहास अनुसंधान परिशद, नयी दिल्ली-110001. सं. इशरत आलम/एस.एम. मिश्रा Yes
I इंडिया एलाइव 4/447, विजयन्त खंड, गामतीनगर, लखनऊ. सं. डॉ. आशीश सिंह Yes
I उत्तर प्रदेश सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग, उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ 47282/88 011-236931118
I इन्डियन स्कॉलर ग्वालियर म.प्र डॉ जीतेन्द्र अरोलिया No 2350-109X No No No Quarterly 9926223649 researchscholar2013@gmail.com
I जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका जनकृति संस्था, मा.गां.अं.हि.वि. वर्धा, महाराष्ट्र कुमार गौरव मिश्रा NO 2454-2725 NO CITEFACTOR, IFSIJ, DRJI, MONTHLY 8805408656
I इतिहास बोध लाल बहादुर वर्मा -बी-२३९,चंद्र शेखर आजाद नागर,तेलियर गंज,इलाहबाद -211004 लाल बहादुर वर्मा yes
I इस्पात भाषा भारती स्टील अथोरिटी ऑफ़ इंडिया , नई दिल्ली बी आर सैनी
I इंडियन जर्नल ऑफ़ सोशल कंसर्न्स डॉ. राजनारायण शुक्ला,एस.एच,ऐ-5,कवि नगर,गाज़ियाबाद डॉ. राजनारायण शुक्ला yes ISSN-2231-5837 Yes 9910777969 harisharanverma1@gmail.com
J जर्नल ऑफ़ सोशियो एकोनिमिक रिभ्यु ma. kanshi ram sodh peeth, CCS University Meerut U.P. Dr. Dinesh kumar yes, Half Yearly journal 2321-8479 yes
J झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा तेलंगा खड़िया भाशा एवं संस्कृति केन्द्र द्वारा प्यारा केरकेट्टा फाउण्डेशन, चेषायर होम रोड, बरियातु, रांची-834009. सं. वंदना टेटे Yes
J जनपथ सेण्ट्रल को-ऑपरेटिव बैंक, मंगल पाण्डेय पथ, आरा (बिहार)–802301 सं. अनन्त सिंह Yes 2277-6583 Yes 9431847568 janpathpatrika@gmail.com
j जन मीडिया – जन मीडिया -संपादक -अनिल चमड़िआ -सी -२,पीपल वाला मोहल्ला,बादली एक्सटेंशन,दिल्ली -४२. अनिल चमड़िआ yes 2277-2847 janmedia.editor@gmail.com
J जन मीडिया सी -२,पीपल वाला मोहल्ला,बादली एक्सटेंशन,दिल्ली -४२. अनिल चमड़िआ
J जर्नल ऑफ़ ह्युमिनीटीज एंड कल्चर Anil Kumar, Varanasi Yes No 2393-8285 Yes Multi-Subject and Multi-Disciplinary
J जन मीडिया सी-2, पीपलवाला मोहल्ला, बादली एक्सटेंशन दिल्ली-110042 सं. अनिल चमड़िया Yes 2277-2847 Multi-Subject and Multi-Disciplinary
J ज्योतिर्मय Madhumay Educational And Research Foundation,Anand Vihar Colony, House no.- 40, in front of Dr. RMLA universit:y, Faizabad- 224001 (Uttar Pradesh) Editor-in-chief- Dr. Neeraj Tiwari,yes No 2454-6070 yes indexd by- ISI, IIJIF, ISRA, I2OR, SJIF Impact factor – 1.901 (IIJIF) Multi-Subject and Multi-Disciplinary, bilingual, biannual 9305746945 jrjoe24546070@gmail.com
K कथा ए.डी.-2, एकाकी कुंज, 24 म्योर रोड इलाहाबाद-01 सं. मार्कण्डेय Yes
K कथादेश सहयात्रा प्रकाशन प्रा.लि., सी-52/जेड-3 दिलशाद गार्डन, दिल्ली-1100095. सं. हरिनारायण Yes 1143522783 kathadeshnew@gmail.com
K कथाक्रम 3, ट्रांजिस्ट हॉस्टल, वायरलैस चौराहे के पास, महानगर, लखनऊ-226006 सं. शैलेन्द्र सागर Yes
K कृति संस्कृति संधान बी-2/51, रोहिणी सेक्टर-16, दिल्ली, 110085. सं. सुभाष गाताडे Yes
K कथन 107 साक्षर अपार्टमेंट्स ए-3, पश्चिम विहार, नई दिल्ली-110063. सं. रमेश उपाध्याय, संज्ञा उपाध्याय Yes
K कृति ओर सी-133, वैशाली नगर, जयपुर-302021, राजस्थान. सं. विजेन्द्र Yes
K कदम 12/224, एस.सी.डी. फ्लैट, सेक्टर-20, रोहिणी, नई दिल्ली-110086. स. कैलाश चंद चौहान Yes
K कृतिका उड़यी, जालौन, उत्तर प्रदेश . सं. डॉ.वीरेंद्र सिंह यादव Yes
K कल के लिए जयनारायण, बहराइच. Yes
K कोलाज कला चर्च रोड, जिंसी जहांगीराबाद, भोपाल-462008 (म. प्र.). Yes
K कौटिल्य शासकीय, टी.आर.एस. महाविद्यालय, रीवा, मध्य प्रदेश . Yes
K जनपथ मासिक, सं. अनंत कुमार सिंह, द्वारा सेंट्रल कॉपरेटिव बैंक, मंगल पांडे पथ, आरा, जिला भोजपुर, बिहार 802301. Yes
K कला पूर्णिया , बिहार कलाधर
K कादम्बिनी हिंदुस्तान टाईम्स ग्रुप , नई दिल्ली
K क्रियटिव्ह स्पेस एकलव्य प्रकाशन, 40, रामनगर, टिम्बवाडी बायपास, मधुरम, जुनागढ़ (गुजरात) सं. डॉ.हरेश परमार Yes 2347-1689 Yes 0.678 9408110030 creativespaceip@gmail.com
L लमही 3/343, विवेक खण्ड, गोमती नगर, लखनऊ (226010). सं. विजयराय Yes 2278554X Lemahi Yes 9454501011 vijairai.lamahi@gmail.com
L लोकचेतना विमर्श ई-1, किशोर एन्क्लेव, पटेल नगर, हरमु, राँची, झारखण्ड-834002 रविरंजन Yes (Biannually) 2277-5013 YES NO YES 9470311115 lokchetna.ranchi@gmail.com
L लोकबिंब ई-पत्रिका D-124, GALI NO-6, LAXMI NAGAR, NEW DELHI-110092 गोविन्द यादव Yes Yes प्रवेशांक लोककला एवं लोक साहित्य केन्द्रित त्रैमासिक 9910773493 lokbimbpatrika@gmail.com
M माध्यम हिंदी साहित्य सम्मेलन, सम्मेलन मार्ग, इलाहाबाद-211001. Yes
M मित्र महाराजा हाथा, कटिरा, आरा, बिहार राश्ट्रभाशा परिशद, पटना (बिहार). मिथिलेश्वर Yes
M मूक आवाज पांडिचेरी Yes
M मीडिया विमर्श 428, रोहित नगर, फेज प्रथम, भोपाल. सं. डॉ.श्रीकांतसिंह Yes
M मूल प्रश्न 3 न्यू अहिंसापुरी, ज्यांति स्कूल के पास फतेहपुरा, उदयपुर-313001 राजस्थान. Yes
M मुक्तांचल कोलकाता 2350-1065 9831497320 muktanchalquaterly214@gmail.com
M मोर्चा 9990448490 morchahindi@gmail.com
M मूक आवाज़ हिंदी विभाग, पांडिचेरी विश्वविद्यालय प्रमोद मीणा No 2320-835X Yes Quarterly 7320920958 mookaawazhindi@gmail.com
M मध्य भारती डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर अम्बिकादत्त शर्मा
M माध्यम हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद
M मुक्तिबोध साहित्य कुटीर, टिकरीपारा, जिला-राजनांदगाव (छ.ग.) सं. मांघीलाल यादव Yes 07743- 296853 raju.kashyap48@yahoo.com
N नटरंग वी-31, स्वास्थ्य विहार, विकास मार्ग, दिल्ली-1100092. सं. अशोक वाजपेयी, रश्मि वाजपेयी. Yes
N नया पथ जनवादी लेखक संघ, 8 विट्ठल भाई पटेल हाउस, नई दिल्ली-110003. सं. चंचल चौहान Yes 9818859545
N नया ज्ञानोदय भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्टीटयूटशनल एरिया, लोदी रोड, पो.वो. नं. 3113, नई दिल्ली-110003. लीलाधर मंडलोई Yes 2278-2184 9818291188 nayagyanoday@gmail.com
N नया मानदंड शोध संस्थान, दुर्गाकुंड वाराणसी. कुसुम चतुर्वेदी Yes
N नागफनी दून व्यू कॉलेज, स्प्रिंग रोड, मसूरी-248179 (उत्तराखण्ड). सं. सपना सोनकर Yes
N नारी उत्कर्ष राजीव कुमार, सी-165,पाण्डव नगर,दिल्ली-92 9599444761 nariutkarsh@gmail
N निरुप्रह लखनऊ, उत्तर प्रदेश अरविन्द कुमार Yes 2394-2223 NO Quarterly 9721200282 drdivyanshu.kumar6@gmail.com
N नवनीत भारतीय विद्याभवन, क.मा.मुंशी मार्ग, मुम्बई-400007
N निरंजना ए-2, त्रिभुवन शांति एन्क्लेव, रोड नं. 1, राजेन्द्र नगर, पटना-800016
N नई धारा सूर्यपुरा हाउस, बोरिंग रोड, पटना-800001 शिवनारायण
N नागरी पत्रिका नागरी प्रचारिणी सभा , वाराणसी पद्माकर पाण्डेय
p प्रगतिशील वसुधा मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ, भोपाल राजेन्द्र शर्मा yes 2231-0460 0755-2761253 vasudha.hindi@gmail.com
P पक्षधर बी-2, तीसरा फ्लोर, महेन्द्र एन्क्लेव, स्टेडियम रोड, नई दिल्ली-33. सं. विनोद तिवारी Yes 2231-1173
P पहल पहल, जबलपुर, 101, रामनगर, आधारताल, जबलपुर (मं.प्र.)-482 004 सं. ज्ञानरंजन Yes Yes 9893017853 editorpahal@gmail.com
P प्रतिमान विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सी एस डी एस), 29, राजपुर रोड, दिल्ली-110054. सं. अभय कुमार दुबे Yes
P प्रगतिशील वसुधा निराला नगर, दुष्यंत मार्ग, भदभदा मार्ग भोपाल. सं. राजेन्द्र शर्मा Yes
P पल-प्रतिपल आधार प्रकाशन, एससीएफ 207, सेक्टर-10, पंचकूला-134133, हरियाणा. सं. देश निर्मोही Yes
P पाती टैगोर नगर, सिविल नगर, सिविल लाइन्स, बलिया-277001 (उ. प्र.). सं. अशोक द्विवेदी Yes
P परिचय 909,काशीपुरम कालोनी,सीरगोवर्धन,डाफी, वाराणसी-221011 सं. श्रीप्रकाश शुक्ल Yes 2229-6212 9415890513 parichay909@gmail.com
P पुस्तक वार्ता महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा. सं. गिरीश्र्वर मिश्र, विमल झा Yes 2349-1809 Yes 9910186568 pustakvimal@gmail.com
P परिकथा 96, बेसमेंट, फेज-3, इरोज गार्डन, सूरजकुंड, रोड, नई दिल्ली-110044. सं. शंकर Yes 2320-1274 Yes 8826011824 parikatha.hindi@gmail.com
P प्रस्थान ए-317 सूरजपुर कॉलोनी, गोरखपुर (उ.प्र.) सं. दीपक प्रकाश त्यागी Yes 2229-3876 Yes 9415824589 dpt_ddu@yahoo.com
P पारसमाला 3 / 16, कबीर नगर दुर्गाकुंड वाराणसी-221005 सं. : हरिहर प्रसाद चतुर्वेदी Yes 9415269874 parasmalavns@gmail.com
P पाखी इंडिपेंडेंट मीडिया इनिशिऐटिव सोसायटी बी-107, सेक्टर-63, नोएडा-201301, उ.प्र. प्रेम भारद्वाज Yes 2393-8129 0120-4060300 pakhi@pakhi.in
P प्रगतिशील इरावती गाँव बल्ह, डाकघर-मौंहीं, तहसील व ज़िला-हमीरपुर-177030 (हिमाचल प्रदेश). प्रगतिशील इरावती Yes
P पूर्वापर लाहिड़ीपुरम, सिविल लाइंस, गोण्डा-271001 (उ. प्र.). सं. सूर्यपाल सिंह Yes
P पंचशील शोध समीक्षा फिल्म कॉलोनी, चौड़ा रास्ता, जयपुर, राजस्थान हेतु भारद्वाज Yes 0975-2587 Quarterly 0141-2315072,2314172 info@panchsheelprakashan.com
P परिषद् पत्रिका बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, प्रेमचंद मार्ग, पटना, बिहार सत्येन्द्र कुमार Yes 2320-5342 Yes Quarterly
P प्रज्ञा और हिमालयीय संस्कृति सेण्ट्रल इन्स्टीट्यूट ऑफ़ हिमालयन कल्चर स्टडीज़, दाहुंग (अरुणाचल प्रदेश) 2347-8535
P प्रगति‍वार्ता प्रगति‍भवन, साहि‍बगंज, झारखण्‍ड 816109 डॉ. रामजन्‍म मि‍श्र ISSN 2229-5062 9431551682 pragativarta@yahoo.co.in
P परिशोध PANJAB UNIVERSITY PRESS, CHANDIGARH AND DEPARTMENT OF HINDI, PANJAB UNIVERSITY CHANDIGARH DR. ASHOK KUMAR, DR. GURMEET SINGH YES (ANNUALLY) ISSN 2347-6648 YES No No 0172-2534616 hindidep@pu.ac.in
परिन्दे 79 ए, दिलशाद गार्डन, दिल्ली- 95 राघव चेतन राय Yes Bimonthly
p परमिता N1/61-R-1 शाशिनगर कॉलोनी नगवां लंका , वाराणसी-5 डॉ. अवधेश दीक्षित yes 0974-6129 9161122848 parmita.com@gmail.com
p प्रत्यय 134 गालिबपुर मऊनाथ भंजन, उ.प्र. 275101 डॉ. शर्वेश पाण्डेय yes 0975-7821 9415219227 spdck.mau@gmail.com
प्रगतिशील वसुधा मायाराम सुरजन स्मृति भवन शास्त्री नागर, पी एंड ती चौराहा
भोपाल- 462003 सम्पर्क-09425392954
स्वयं प्रकाश yes Trimonthly
p पर्सपेक्टिव ऑफ़ सोशल साइंस एंड ह्युमिनीटीज herambh welfare society Narottam pur,BHU, tikari Road Varanasi-5 Dr. Hemant Kumar Singh yes yes 2322–0325 yes mail@pssh.in
P पाण्डुलिपि विमर्श प्रमोद वर्मा संस्थान, रायपुर विश्वरंजन
P परिशीलन सुरुचि कला समिति, वाराणसी अंजनी कुमार मिश्र yes 0974-7222 yes Quarterly 9450016201 suruchikalas@yahoo.in
भाषा केंद्रीय हिन्दी निदेशालय, नई दिल्ली
R नटरंग राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली. प्रयाग शुक्ल Yes
नया पथ 42 अशोक रोड नयी दिल्ली-110001 मुरली मनोहर प्रसाद सिंह
युद्धरत आम आदमी 1516,1st Floor,Wazirnagar,Kotla Mubarakpur
New delhi-110003
Ramnika Gupta
R रंगकर्म आठले हाउस, सिविल लाइंस दरोगा, पारा, रायगढ़ (छत्तीसगढ़) सं. उषा आठले, युवराज सिंह Yes
R रचना कर्म आनंद, गुजरात. सं. डॉ.माया प्रसाद पाण्डेय Yes
R रसप्रसंग राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली 011-23389138 rangprasang@gmail.com
R रिसर्च एनालिसिस एंड इवैल्यूएशन ए-215,मोती नगर ,गली नंबर -7,क्वीन्स रोड ,जयपुर ,राजस्थान-302021 सं. डॉ कृष्ण बीर सिंह Yes 0975-3486 Yes
R रिसर्च स्ट्रेटेजी 196, GANGA NAGAR, HOUSING SOCIETY, (Patrakar Puram), Kanpur Dr. R.K. CHAURASIA yes 2250-3927 yes Yes Only Geographical and Environmental Research Paper Accepted Annual Journal, 9450274378 Chaurasiark890@gmail,com
R रिसर्च स्कॉलर Gwalior (M.P.) Dr. Jitendra Arolia No 2320-6101 Yes ROAD COSMOS No No Quarterly 9926223649 jitendraarolia@gmail.com
R रिदम C-97, Rama Park, Utta Nagar, New delhi 110059 बलराज सिंहमार No 2455-9113 Yes Quarterly 9408110030 ridamindia@gmail.com
R रेतपथ रेत पथ, कोथल कलां, महेंद्रगढ़-123028 (हरियाणा) अमित मनोज yes 2347-6702 Half Yearly 9992885959 retpath2013@gmail.com
R रिसर्च डिस्कोर्स South Asia Research And Development Institute,B. 28/70,Behind Manas Mandir,Durgakund,Varanasi(U.P.)221005,India Dr.Anish kumar verma Yes No 2277-2014 yes Multi-Subject and Multi-Disciplinary, bilingual, quarterly, 9453025847 researchdiscourse2012@gmail.com
R रिसर्च लाइन डॉ.उपेन्द्र विश्वास,208,पत्रकार कॉलोनी,विनय नगर सेक्टर ३,ग्वालियर,M.P डॉ.उपेन्द्र विश्वास Yes ISSN-2321-2993 Yes 94065-80200,089826-42665 researchlinejournal@gmail.com/upendra.viswas@gmail.com
वागर्थ भारतीय भाषा परिषद् 36-ए ,शेक्सपीयर सरणी,कोलकाता-17 प्रो. शंभुनाथ yes yes
S स्त्रीकाल थोरात कॉम्प्लेक्स, सेवाग्राम रोड, वर्धा, महाराष्ट्र-442001 सं. संजीव चंदन Yes
S समकालीन भारतीय साहित्य साहित्य अकादमी, रवीन्द्र भवन, 35ए फिरोजशाह रोड, दिल्ली. रणजीत साहा Yes 0970-8367
S समकालीन सृजन 20 बालमुकुंद मक्कर रोड, कोलकाता-700007 सं. डॉ.शंभुनाथ Yes
S संवेद बी-3/44, तीसरा तल, सेक्टर-16, रोहिणी, दिल्ली-110089. सं. किशन कालजयी Yes
S संवाद खरगपुर, झंझौर, वाराणसी, उत्तर प्रदेश सं. अमित कुमार पाण्डेय Yes 2231-4156 Half yearly 7376563499 samvaad.bhu@gmail.com
साहित्य वर्तिका वाराणसी सं. अमित कुमार पाण्डेय Yes
S सृजन संवाद ई-64, ए साउथ सिटी, गोमती नगर, लखनऊ. सं. ब्रजेश Yes
S शब्दयोग 280, डोभाल वाला, देहरादून (उत्तराखंड). रमण सिन्हा Yes
S शोध-धारा शैक्षिक एवं अनुसंधान संस्थान उरई, जालौन (उ.प्र.). . डॉ.राजेश चंद्र पाण्डेय Yes
S शोध-संचयन 409, शांतिवन अपार्टमेंट, 2 ए/244ए, आजाद नगर, कानपुर (उ.प्र.). डॉ. योगेन्द्रप्रताप सिंह Yes
S संचेतना एच.108, शिवाजी पार्क, पंजाबी बाग, नई दिल्ली. सं. महीप सिंह Yes
S समकालीन सृजन कोलकाता. डॉ.शंभुनाथ Yes
S साक्षात्कार मध्यप्रदेश पत्रिका, बाणगंगा चौक, भोपाल-3. सं. हरि भटनागर Yes
S साहित्य भारती उ.प्र. हिंदी संस्थान, 6-महात्मा गाँधी मार्ग, हजरतगंज, लखनऊ-226001. Yes
S साखी एच – 1/2 नरिया, बी.एच.यू. वाराणसी. सं. केदारनाथ सिंह/सदानंद साही Yes 2231-5187
S संबोधन रवीन्द्र भवन, 35, फिरेाजषाह रोड, नई दिल्ली, 110001. सं. कमर मेवाड़ी, चांदपोल, और प्रभाकर श्रेणिक Yes
S सेतु आश्रय, खलीनी शिमला-171002 (हि. प्र.). सं. डॉ.देवेन्द्र गुप्ता Yes
S समयांतर 79 ए, दिलशाद गार्डन, दिल्ली-95. सं. पंकज बिष्ट Yes 2249-0469 9868302298 samayantar.monthly@gmail.com
S समन्वय पूर्वोत्तर केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, ओल्ड डी.आई.ऐ.ऐ बिल्डिंग, दीमापुर, नागालैण्ड. Yes
S समालोचन Yes
S सृजन सन्दर्भ बी-2/304 लार्ड शिवा पैराडाइज, कल्याण ( पश्चिम ठाणे )ठाणे सं. सतीश पाण्डेय, संजीव दुबे Yes 0976-7290 Yes 8140241172 dubesanjeev@gmail.com
S समुच्चय अंग्रेजी एवं विदेषी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद. Yes
S संवेद (वाराणसी) 64-डी, गणेश धाम कालोनी, सुंदरपुर, वाराणसी (उ.प्र.). कमला प्रसाद मिश्र Yes
S शुक्रवार के-25, सेक्टर-18, अट्टा मार्केट, नोएडा, गौतमबुद्धनगर (उत्तर प्रदेश )-201301. सं. विष्णु नागर Yes
S शोध संविद राजनीति विज्ञान विभाग, मगध महिला कॉलेज, पटना- ८००००१ सं. डॉ. तेलानी मीना होरो / डॉ. रूपम Yes 2393-980X Yes N.A N.A Hindi / Eng. Half Yearly 9955950162 shodh.samvid@gmail.com
S शोध समीक्षा और मूल्यांकन ए-215, मोतीनगर, स्ट्रीट नं. 7, क्वीन्स रोड, जयपुर, राजस्थान-302021. सं. डॉ.कृष्णवीर सिंह Yes
S समय सरोकार नई दिल्ली सं. प्रेमचंद पातंजलि Yes
S समकालीन तीसरी दुनिया क्यू,-63, सेक्टर-12, नोएडा (गौतमबुद्ध नगर) पिन. 2013101 सं. आनन्द स्वरूप वर्मा Yes
S सम्यक भारत सी1/98, रोहिणी सेक्टर-5, नई दिल्ली-85. सं. के.पी. मौर्य Yes
S संघर्ष/स्ट्रगल # 191, सेक्टर-19 B, DDA मल्टी स्टोरी फ्लैट्स, संस्कृति अपार्टमेन्टस, द्वारका,नई दिल्ली-110075 सं. डॉ. प्रमोद कुमार Yes Yes 2278-3059/2278-3067 2278-3059/2278-3067 Yes 0.793 Multi-Subject and Multi-Disciplinary 9408110030/9868012202 editorsangharsh@gmail.com/hareshgujarati@gmail.com
S समकालीन अभिव्यक्ति फ्लैट नं. 05, तृतीय तल, 984, वार्ड नं. 7, महरौली, नई दिल्ली-30. सं. उपेन्द्र कुमार मिश्र Yes
S समय माजरा राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिन्दी, भवन, आगरा, रोड जयपुर, 302003. Yes
S संकल्य हिंदी अकादमी, हैदराबाद Yes
S संचारिका महाराष्ट्र हिंदी प्रचार सभा, एम.के. अग्रवाल, हिंदी भवन, शहागंज, औरंगाबाद (महाराष्ट्र)-431001 संपा. नारायण वाकळे/ डॉ. भारती गोरे Yes 0976-3775 240-2362350 / 9422347678 maharashtrahindi2gmail.com/drbharatigore@gmail.com
S समकालीन जनमत 171, कर्नलगंज (स्वराज भवन के सामने) इलाहाबाद (211002). सं. सुधीर सुमन Yes
S समसामयिक सृजन लॉक, मकान नं. 189, विकासपुरी, नई दिल्ली-110018. सं. महेन्द्र प्रजापति Yes
S सामयिक सरस्वती सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाडा, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-110002 सं. महेश भरद्वाज/शरद सिंह Yes 2454-2911 011-23282733 samayikprakashan@gmail.com
S शेष साइकिल मार्केट के पास, लोहारपुर, जोधपुर-342002, राजस्थान. सं. हसन जमाल, पन्ना निवास Yes
S शोध संचार बुलेटिन 448/119/76, कल्याणपुरी, ठाकुरगंज चैक, लखनऊ-226003 (यू.पी.). प्रधान सं. विनय कुमार शर्मा Yes
S साखी 2231-5187 7376647097 saakhee2000@gmail.com
S सदानीरा 2321-1474 7552424126 agneya@hotmail.com
S सत्राची डॉ. रूपम / आनन्‍द बिहारी, केशव कुंज, कदमकुआँ, पटना – ८००००३ सं. डॉ. रूपम / डॉ. आनन्‍द बिहारी Yes 2348-8425 Yes N.A No Hindi / Eng. Quaterly 9470738162 satraachee@gmail.com
S समास 011-46526269
S शीतलवाणी 9412131404 sheetalvani.com
S सार संसार 2320-3277 literature@saarsansar.com
S साहित्य कुंज Sahitya Kunj,3421 FENWICK CRESCENT, MISSISSAUGA, ON, L5L N 7 CANADA सुमन कुमार घई NO 22 92 -97 54 YES garbhanal@ymail.com
S साहित्य यात्रा ई – 112 , श्रीकृष्णपुरी , पटना – 800001 ( बिहार ) डा . कलानाथ मिश्र yes 2349 – 19 06 no
S शोध हस्तक्षेप सोसाइटी फॉर एजुकेशनल एम्पावरमेंट,वाराणसी, उ.प्र. डॉ सत्यपाल शर्मा yes 2231- 4644 yes बहुभाषी और बहुविषयक अर्धवार्षिक शोध जर्नल 9936180064 hastakshep.irj@gmail.com
S 1990, सिग्निफ़ायर ऑफ चेंज 4था क्रास, न्यू बसारगढ़ कॉलोनी, हटिया, रांची, झारखंड सं.धीरज कुमार मिश्रा / उप संपादक प्रकाश चन्द्र yes 2321-4465 in plan for upgarde Multi disciplinery 00821029750139/+917042616767 1990sfc@gmail.com
S शिखर सामयिक शिमला, हिमाचल प्रदेश इंद्र सिंह ठाकुर Yes 2249 – 9199 Yes Half yearly 9418464899 shikharjournals@gmail.com
s शोध सामयिक अलवर, राजस्थान डॉ.अनुपमा यादव, मनीष कुमार यादव yes 2321-6727
S समीक्षा एच-2, यमुना, इग्‍नू, नई दि‍ल्‍ली 110068 प्रो. सत्‍यकाम ISSN 2349-9354 Yes 989682626 satyakamji@gmail.com
S साखी एच-1/2,वीडीए फ्लैट्स,नरिया (बी.एच.यू),वाराणसी,उत्तर प्रदेश-221005 प्रो. सदानन्‍द साही ISSN 2231-5187 9450091420 sadanandshahi@gmail.com
S शोध दिशा हिंदी साहित्य निकेतन,16 कला विहार, बिजनौर(उ.प्र.) गिरिराजशरण अग्रवाल त्रैमासिक 0975-735X yes 01342-263232 shodhdisha@gmail. com
s संधान संधान -लाल बहादुर वर्मा,सुभाष गाताडे -बी-२/५१,सेक्-१६ ,रोहिणी दिल्ली , लाल बहादुर वर्मा,सुभाष गालाल बहादुताडे yes
S सौराष्ट्रीय Saurashtra University, Rajkot R. N. Kathad, Rajkot Yes NO 2249-4383 Yes Multi-Subject and Multi-Disciplinary 9687692951 surashtriya@yahoo.com
S साहित्य सेतु Dr. Naresh Shukl, Ahmedabad No Yes 2249-2372 Yes Multi-Subject and Multi-Disciplinary
S समाज दर्शी 1245 BANK COLONY CHAMARI ROAD HAPUR UP 245101 SAMPDAK DR. BABLU SINGH/DR. AJAY KUMAR YES 2395-0374 9412619392 samajdarshishodhpatrika@gmail.com
s श्री प्रभु प्रतिभा प्रतिभा प्रकाशन, त्रिवेणी सेवा समिति, इलाहाबाद प्रबुद्ध मिश्रा yes 0974-522x 9415646402 shriprabhu@gmail.com
S सामयिक मीमांसा नई दिल्ली विजय मिश्र
S संवदिया अररिया , बिहार
S शोध समवाय स्वपन पब्लिकेशन , नई दिल्ली महेश्वर yes 0976-2010 Quarterly 9968012866 shodhsamavay@gmail.com
S शोध History & History Writing Association,U.P. , Varanasi शैलेन्द्र कुमार yes 9701745 Quarterly 9415256496 shodhjournal@sify.com
S शोध मीमांसा Kusum jankalyan samiti,Deoria,U.P. Dr.Rakesh Kumar Maurya yes no 2348-4624 yes quarterly, bilingual 9415842611 shodhmimansa@gmail.com
S संघर्ष 34/15, प्रथम तल, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-8.
T तद्भव 18-201, इंदिरा नगर, लखनऊ-226016. सं. अखिलेश Yes 0522-2345301 akhilesh_tadbhav@yahoo.com
T तनाव 57- मंगलवारा, पिपरिया-461775. Yes
T तीसरा पक्ष सं. देवेश चैधरी देव मासिक, 3734/23 ए त्रिमूर्तिकार, दमाहेनावा, जवलपुर-482002, म.प्र.. Yes
T ट्रांसफ्रेम प्रवीण सिंह चौहान, 55A/103 एकता नगर कांदीवली वेस्ट मुंबई-400067 मेघा आचार्य, प्रवीण सिंह चौहान no Yes 2455-0310 yes yes DJRI under evaluation JIF BIMONTHLY 9763706428 contact@transframe.in/ transframemagazine@gmail.com
T द दिल्ली जर्नल ऑफ़ ह्युमिनितिज एंड सोशल साइंस Sangharsh, New Delhi Devendra Tanwar Yes No Yes Multi-Subject and Multi-Disciplinary 97167 54057
U उद्भावना (मासिक) ए-21, झिलमिल इंडस्ट्रियल एरिया जी. टी. रोड, शाहदरा, दिल्ली-110095 सं. अजेय कुमार Yes uphin369876 9415554128 editor.udbhav@gmail.com
U उत्तर प्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग, पार्क रोड, लखनऊ सं. कुमकुम शर्मा Yes 9453703921 upmasik@gmail.com/sharmak229@gmail.com
U उम्मीद ए-2/604, समरपाम सोसायटी, सेक्टर-86, फरीदाबाद सं. जितेन्द्र श्रीवास्तव Yes 2347-5803 Yes 9818913798 ummeed13@gmail.com/jitendra82003@gmail.com
U उत्‍तरवार्ता 204, डीए9, एनके हाउस, मेन विकास मार्ग, शकरपुर, लक्ष्मीनगर, दिल्ली-110092 अमलेश प्रसाद ISSN 2455-3859 9716314047, 9031943641 uttarvarta@gmail.com/amalesh.article@gmail.com
V वाक् वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली, 110002. सं. सुधीश पचैरी Yes 2320-818k 11232273167 vaniparkashan@gmail.com
V वागर्थ भारतीय भाषा परिषद, 26ए , शेक्सपियर सारणी, कोलकाता-700017. विजय बहादुर सिंह Yes 2394-1723 3322900977 vagarth.hindi@gmail.com
V वचन सं. प्रकाश त्रिपाठी, 52 तुलाराम बाग, इलाहाबाद. सं. प्रकाश त्रिपाठी, Yes
V वर्तमान साहित्य 28 एमआईजी, अवंतिका-1, रामघाट रोड, अलीगढ़ 202001. नमिता सिंह Yes 40342/83 9643890121 vartmansahitya.patrika@gmail.com
V विन्ध्य भारती हिन्दी विभाग, ए.पी.एस. विश्वविद्यालय , रीवा, मध्य प्रदेश . Yes
V परिप्रेक्ष्य न्यूपा, अरविन्द मार्ग, दिल्ली सुभाष शर्मा Yes
V वाद संवाद 103, मनोकामना भवन, गली न-2, कैलाशपुरी] पालम, नई दिल्ली-110045 प्रधान संपादक राम रतन प्रसाद Yes 2348 – 8662 Yes 9871423939 vaadsamvaad@gmail.com
v विमल विमर्श मीरजापुर, उत्तर प्रदेश विनय कुमार शुक्ल yes 2348-5884
v वाक् सुधा रुपेश कुमार चौहान दलवीरसिंह चौहान yes yes Quarterly 8287473549 vaaksudha@gmail.com
V वरिमा लखनऊ नलिन रंजन सिंह
W वाग्प्रवाह लखनऊ, उत्तर प्रदेश डॉ. अनिल कुमार विश्वकर्मा Yes 0975-5403 Yes Half yearly 9412881229 editoranil.hindi@gmail.com
w प्रज्ञा एवं हिमालयीय संस्कृति (विजडम एंड हिमालयन कल्चर) सेन्ट्रल इन्स्टीट्यूट ऑफ़ हिमालयन कल्चर स्टडीज़, दाहुंग, अरुणाचल प्रदेश Geshe Ngawang Tashi Bapu yes 2347-8535 YEARLY 8256903634 cihcspub@gmail.com
w वर्ल्ड ट्रांसलेशन C2 Satendra Kumar Gupta Nagar, Lanka, Varanasi Surendra Kumar Pandey yes 2278-0408 Half Yearly 9454820806 worldtranslation@gmail.com
Y युद्धरत आम आदमी ए-221, डिफेंस, कॉलोनी, भूतल, नई दिल्ली-110021. सं. रमणिका गुप्ता Yes 23200359 8860843164 yudhrataamaadmi@gmail.com
Y युग तेवर 1587/1 उदय प्रताप कालोनी, बढ़ैयावीर, सिविल लाईन्स-2, सुल्तानपुर, 228001. सं. कमल नयन पाण्डेय Yes 2349-7513
Y युवा संवाद सं. ए. के. अरूण Yes
Y युग परिबोध वसंत कुञ्ज , नई दिल्ली आनंद प्रकाश 9811262848 yugpribodhhindi@gmail.com
Y युगशिल्पी डॉ. राजनारायण शुक्ला,एस.एच,ऐ-5,कवि नगर,गाज़ियाबाद डॉ. राजनारायण शुक्ला yes No ISSN-0975-4644 YES 9 9910777969 yug_shilpi@yahoo.com
वीक्षा लोकायत प्रकाशन, वाराणसी सदानंद शाही yes no 0975-3788
संभाष्य अखिल भारतीय साहित्य समन्वय समिति, वाराणसी डॉ. ज्ञानप्रकाश चौबे, डॉ. रविकांत राय yes no 2229-4066
शोध दृष्टि सृजन समिति पब्लिकेशन, वाराणसी डॉ.वशिष्ठ अनूप yes no 0976-6650
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अनुकृति सृजन समिति पब्लिकेशन, वाराणसी डॉ. रामसुधार सिंह yes no 2250-1193
जनपक्ष जनवादी लेखक संघ, वाराणसी इकाई डॉ. रामसुधार सिंह yes no
भारतीय आधुनिक शिक्षा एन.सी.ई.आर.टी, दिल्ली
I माध्यम हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद ्सत्यप्रकाश मिश्र YES NO 2348-1757 YES Indexed 0.565 GIF AUSTRALIA YES YES
T THE OPINION SRIJAN SAMITI PUBLICATION VARANASI YES 2277-9124
J JOURNAL OF SOCIO-EDUCATIONAL & CULTURAL RESEARCH ANJANI JAN SEVA SAMITI VARANASI YES 2394-2878 YES
N NAV JYOTI SRIJAN SAMITI PUBLICATION VARANASI YES 2249-7331
R Research Journal of Indian Cultural Stream 0973-8762
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P Punj (Research Journal of Arts and Social Sciences) 2229-7871
अन्वेषिका एन.सी.टी.ई., दिल्ली
अनामा भगवती कॉलोनी हाजीपुर, बिहार आशुतोष पार्थेश्वर Yes 2348-8506 No Yes Quarterly 9934260232 anamahindi@gmail.com
पंचशील शोध समीक्षा फिल्म कॉलोनी, चौड़ा रास्ता, जयपुर, राजस्थान हेतु भारद्वाज Yes 0975-2587 No Quarterly 0141-2315072,2314172 info@panchsheelprakashan.com
परिषद् पत्रिका बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, प्रेमचंद मार्ग, पटना, बिहार सत्येन्द्र कुमार Yes 2320-5342 No Yes Quarterly
मूक आवाज़ हिंदी विभाग, पांडिचेरी विश्वविद्यालय प्रमोद मीणा No 2320-835X YES 2320-835X Yes Quarterly 7320920958 mookaawazhindi@gmail.com
सहचर नई दिल्ली आलोक रंजन पाण्डेय No Yes 2395-2873 No 9313809165 sahcharpatrika@gmail.com
मध्यभारती डॉ.हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,सागर
ग्लोबल रिसर्च कैनवास MANOJ KUMAR ,3 JUNIOR MIG, 2ND FLOOR, ANKUR COLONY, SHIVA JI NAGAR, BHOPAL-462016 MANOJ KUMAR Yes No 2394-5427 No 9425017322 k.manojnews@gmail.com
राजीव गाँधी यूनिवर्सिटी रेफ्रीड जर्नल (RGURJ) राजीव गाँधी वि.वि., रोनो हिल्स, ईटानगर (अरुणाचल प्रदेश)
समागम KRITI AGRAWAL,3 JUNIOR MIG, 2ND FLOOR ANKUR COLONY, SHIVA JI NAGAR, BHOPAL-462016 Manoj Kumar Yes Yes 2231-0479 No 9300469918 samagam2016@gmail.com
कदम पत्रिका 12/224, एम.सी.ड़ी.फ्लैट, सैक्टर-20, रोहिणी, दिल्ली-110086 कैलास चंद चौहान YES YES 2348-5671 YES 9212026999 kadamhindi@gmail.com
Contemparory Social Issues हरियाणा डॉ. राजेश कुमार yes no 2454-6992
AMAR हरियाणाा डॉ. हरिश कुमार रंगा yes no 2348-1323
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सबलोग 14 बी, सूर्या अपार्टमेंट, खसरा नम्बर- 476, शालीमार पैलेस के पास,स्वरूप नगर रोड़, बुराड़ी, दिल्ली- 110084 किशन कालजयी YES NO 2277-5897 YES MONTHLY 9990199514 sablogmonthly@gmail.com
अरुणप्रभा हिन्दी विभाग, राजीव गाँधी वि.वि., रोनो हिल्स, ईटानगर -791112
भाषा भारती राजभाषा प्रकोष्ठ,डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर
चिन्तन-सृजन आस्था भारती, ईस्ट ऐण्ड अपार्टमेंट, मयूर विहार,फ़ेस–1 विस्तार,दिल्ली
वरिमा नलिन रंजन सिंह, लखनऊ
संवाद वाराणसी अमित कुमार पाण्डेय,
अरुणागम जवाहरलाल नेहरु महाविद्यालय, पासीघाट,अरुणाचल प्रदेश –791103
आजकल प्रकाशन विभाग, सूचना भवन, सी. जी.ओ.कॉम्प्लेक्स, लोदी रोड, नई दिल्ली –110003
इतिहासबोध बी-239, चन्द्रशेखर आज़ाद नगर,तेलियरगंज,इलाहाबाद-4 लालबहादुर वर्मा,
समकालीन भारतीय साहित्य
मुक्तांचल आधुनिक अपार्टमेण्ट,6/2/1,आशुतोष मुखर्जी लेन,सलकिया, हावड़ा-711106
साहित्य वर्तिका
फ़ारवर्ड प्रेस साहित्य वार्षिकी नेहरु प्लेस, दिल्ली
शिक्षा-विमर्श दिगन्तर शिक्षा एवं खेलकूद समिति, जगतपुरा,जयपुर
शोधश्री दयालबाग एजुकेशनल इन्स्टीट्यूटआगरा
शीतल वाणी सहारनपुर वीरेन्द्र आज़म
समकालीन तीसरी दुनिया आनन्दस्वरूप वर्मा, क्यू-63,सेक्टर-12,नोएडा-1
अपेक्षा वैशाली, गाज़ियाबाद तेजसिंह
दस्तावेज 101, बेतियाहाता, गोरखपुर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,
कथन 107,साक्षर अपार्टमेण्ट्स, ए-3,पश्चिम विहार, दिल्ली रमेश उपाध्याय
समकालीन भारतीय साहित्य साहित्य अकादेमी, दिल्ली
वागर्थ भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता
शोध सृजन ए.पी. एन . पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज बस्ती 271001 डॉ. बलजीत कुमार श्रीवास्तव YES NO 9753362 YES N0 NO 9451087259 drbaljeetsrivastava@gmail.com
SHODH SAMIKSHA RESEARCH EDUCATIONAL SOCIATY LUCKNOW, PRASHRAY 610/191 A, KESHAWNAGAR, SITAPUR ROAD LUCKNOW DR. BALJEET KUMAR SRIVASTAVA YES NO 22491597 YES NO NO 9451087259 drbaljeetsrivastava@gmail.com
अभिनव इमरोज सभ्या प्रकाशन, वसन्तकुंज, नई दिल्ली-110064 देवेन्द्र कुमार बहल YES NO 23211105 YES NO NO
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हे पिता ! तुम्हारी बहुत याद आती है … (कविता)

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जब जब यह दुनिया ,

पितृ दिवस मनाती है।

जब जब कोई संतान ,

अपने पिता का सानिध्य पाती है ।

वो खुशनसीब है संतान ,

जिनको माता -पिता दोनों की ,

सेवा -सत्कार नसीब होता है।

जब -जब कोई पुत्री /पुत्र

अपना मनचाहा पुरस्कार लेने ,

अपनी ज़िद पूरी करवाने का सौभाग्य पाता है।

जब- जब कोई पिता अपनी संतान को

कंधों पर बैठाकर /उंगली पकड़कर ,

सैर को जाता है।

पितृ दिवस पर अपने पिता को जब कोई तोहफा और

बधाई देता है।

और बदले में अपार स्नेह ,दुलार और आशीष पाता है।

मैं क्या करूँ मुझे हर पल ,हर क्षण तुम्हारी याद आती है।

तुम्हारे स्नेह ,तुम्हारा दुलार और तुम्हारे साथ बिताई ,

जीवन के हर घड़ी की याद आती है।

मैं जानती हूँ ,मुझे एहसास है ,तुम्हारा स्नेह ,दुलार और आशीष ,

अब भी हमारे साथ है ।

तुम न होते  हुए भी आज भी हमारे साथ हो ,

यह भी एहसास है।

मगर फिर भी !! हे पिता ! मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है।

 

 

 

लक्ष्मीकांत मुकुल की युद्ध पर तीन कविताएं

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लक्ष्मीकांत मुकुल की तीन कविताएं

युद्ध की भाषा

युद्ध की भाषा उन्मादी होती है
जिसमें शामिल होती हैं विध्वंसक तत्व
इमारतों को नष्ट करने
खड़ी फसलों को ख़ाक में मिलाने के लिए
दूधमुहें बच्चों को मां की आंचल से
दूर करने की साजिश
चरवाहों को उनके पशुओं, किसानों को उनके खेतों से बेदखल करने की सनक

तानाशाह का दर्प अट्टहास करता है
युद्ध की भाषा की शैली में
दूसरों को छीन लेने की आजादी
पड़ोसी की अर्जित भूमि पर जमा लेने को कब्जा लोगों को उसके दर – बदर भटकने देखने की चाहत में विस्तारित होती है उसकी भाषा- विन्यास

युद्ध की भाषा में बाग लगाना नहीं होता
न भूखे – प्यासों की सेवा
न ही शरणागतों की सुरक्षा

युद्ध थोपने वाला चाहता है
कि वह छीन ले मासूम बच्चों की हंसी
कामगारों के हाथों से कुदाल
नौजवानों की पास से सपने
बुड्ढों के सहारे की छड़ी

युद्ध की भाषा में मिलते हैं सिर्फ कांटे
जख्मी, लहूलुहान होती जिंदगी की चीखें
उसकी भाषा में कहीं नजर नहीं आते
बबूल के पीले – पीले फूल
न ही दरख़्तों की सब्ज़ पत्तियां !

युद्ध का रंग

युद्ध के रंग में शामिल होती हैं
रक्तरंजित नदियां
आबादी को मौत की गोद में सुला देने वाली
धूसर रेत, उड़ती आंधियां

युद्ध का काला रंग हिरोशिमा के दिलों में
अभी बसा होगा रात की गहरी नींद में
अंधकार में घुला हुआ
स्कूल जाते बच्चों के बस्ते, किताबें ,पेंसिले
उसकी देह के साथ गल कर मिट्टी धूल में बही होंगी

युद्ध के रंग में शामिल नहीं होता हरापन
लोगों के मुस्काते चेहरों के रंग
कहकहों – खनकती हंसी भरे उजास
गुफ्तगू में छाए आत्मिक आभास
नहीं मिलते युद्ध के रंगों में
युद्ध का रंग भरा होता है धूल व गुब्बारों में
मानवजनित रासायनिक बरूदों की धमक से
पसरता हुआ चहुँ ओर मरू प्रदेश की तरफ
जहां दूर तक बचने को नखलिस्तान की झलक नहीं मिलती।

युद्ध के मैदान

तीर तलवार नहीं अब नहीं चलाते योद्धा युद्ध मैदानों में न ही घोड़ों की टाप, हाथियों की
चीत्कार से गूंजता है कोई कुरुक्षेत्र
आधुनिक प्रक्षेपास्त्र ने बदल दी हैं युद्ध की परिभाषाएं अब युद्ध भूमि के टुकड़े या स्त्री हरण के लिए नहीं लड़े जाते, न तो स्वाभिमान की पहचान न संस्कृति रक्षा के नाम पर

सनकी तानाशाहों की दिमागी फितरतों में
अब तो लड़े जाते है युद्ध
तेल कुओं, खनिजों, मादक पदार्थों की
हड़प में लड़ी जाते हैं आज के युद्ध
जल- थल – नभ से हमला करते हुए सैनिक
दूसरों की खाल नोचने में तल्लीन
भेड़िए की तरह खुद ही अपनी देह की चमड़ियां नुचवाते हुए !

लक्ष्मीकांत मुकुल की बहन पर कविताएं

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बहन पर दो कविताएं
_ लक्ष्मीकांत मुकुल

विश्वास (कहानी)

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विश्वास
(कहानी)

‘प्लीज मम्मी ..’..
‘कोई प्लीज- ब्लीज नहीं ! आज तो तुम्हें सबक सिखा कर ही दम लूंगी |’
सारिका ने अपने इकलौते बेटे आयुष को पीटने के लिए उसके पीछे-पीछे छड़ी लेकर ड्राइंग रूम के सोफे के इर्द गिर्द चक्कर लगाते हुए पसीने से लथपथ होकर कहा |
आयुष ‘ प्लीज मम्मी मुझे मत मारो ‘ कहता सोफे के चक्कर लगा रहा था और सारिका हाथ में एक पतली छड़ी लेकर उसे पीटने का अनमना प्रयास करती हुई उसका पीछा कर रही थी |
वास्तव में कोई मां अपने कलेजे के टुकड़े को पीटना तो दूर डांटना भी नहीं चाहती | पर कभी-कभी उनकी शैतानियों पर खींझना और गुस्सा आने पर स्वाभाविक तौर पर पिटाई भी करती ही है | …और फिर दुलार-पुचकार कर उसे चुप करना भी तो उसी को है |
सारिका भी अपने आयुष को अपनी आंखों का तारा समझती है | उसे सिविल सेवा में भेजना चाहती है ; जो कि उसके लिए उसके माता-पिता का सपना था और वह उनके सपने को साकार नहीं कर सकी थी| आज वही आकांक्षा, वही चाह , वही स्वप्न सारिका की आंखों में आयुष को लेकर है |
आयुष है भी एक मेधावी छात्र | अभी आठवीं कक्षा में पढ़ता है और पिछले 4 वर्षों से 90% से ज्यादा अंक लाकर अपनी कक्षा का सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी बना हुआ है |
सारिका एक सरकारी उच्च विद्यालय में विज्ञान शिक्षिका के रूप में कार्यरत है | उसके पति का एक छोटा सा अपना कारोबार है जिसकी देखरेख में वह अपना ज्यादा समय घर के बाहर ही बिताते हैं | इस प्रकार स्कूल और घर के साथ-साथ आयुष की भी पूरी जिम्मेदारी सारिका के हाथों में ही है |
आयुष पढ़ाई में तो अव्वल है ही साथ ही खेलकूद में भी उसका कोई जोड़ नहीं | सौ मीटर दौड़ में फर्स्ट | साइकिलिंग में स्कूल चैंपियन और जब उसके हाथों में बैट होता है तो उसके दोस्त उसे सचिन और द्रविड़ का मिक्स फार्मेट कहते हैं | लेकिन उसकी इतनी सारी खूबियों से उसके कुछ दोस्त जलते भी हैं और उसके उन्हीं दोस्तों में से किसी ने आयुष की शिकायत सारिका से की थी कि वह अब पढ़ने से ज्यादा ध्यान खेल पर दे रहा है | हालाँकि इस शिकायत से सारिका पर कोई असर नहीं पड़ा ; पर जब उस दिन आयुष के किसी दूसरे दोस्त ने उसे यह खबर सुनाई कि आयुष आज दिनभर अपनी दोस्त नरगिस के साथ कहीं घूम रहा था तो उसके क्रोध की सीमा नहीं रही और ….. और फिर आयुष के घर लौटते ही उसने उससे सीधा सवाल किया -‘ तुम आज नरगिस के साथ थे ?’
आयुष – ‘ हां मॉम ! पर मैं तो….’
‘ बस.. ‘ सारिका गुस्से से चीख पड़ी | और फिर ना जाने कहां से किस काम के लिए लाई गई वह छड़ी अचानक सारिका के नजरों के सामने आ गई और फिर हाथों में और फिर चीखते- चिल्लाते हुए आयुष के शरीर पर | पहले तो आयुष कुछ समझ नहीं पाया | फिर अचानक अपनी मां को इतनी गुस्से में देखकर ‘प्लीज मम्मी ‘ .. कहता हुआ उससे बचने का प्रयास करता हुआ सोफे के चारों तरफ भागने लगा |
सारिका ने हाँफते हुए कुछ रुआंसी आवाज में कहा – ‘ मुझे तुमसे यह उम्मीद नहीं थी आयुष , ओह भगवान……!’ मां को भावुक होता देख आयुष भी भागते-भागते रुक गया और उसके पास आकर बोला- ‘ मां आप ऐसा क्यों सोचती हो …प्लीज फेथ मी मॉम ! मेरा विश्वास करो … मैंने ऐसा कुछ नहीं किया जो गलत हो , बस छुट्टी के बाद नरगिस के साथ उसके पापा को देखने हॉस्पिटल चला गया था ! ‘
लेकिन सारिका ने आयुष के द्वारा दिए गए उसकी सफाई को सुना भी नहीं क्योंकि आयुष के यह शब्द – ‘ फेथ मी मॉम, मेरा विश्वास करो ‘ …. उसके जेहन में नगाड़े की तरह बज रहे थे …. ‘ फेथ मी मॉम..फेथ मी मॉम …. फेथ …फेथ …. विश्वास.. !
और इसी शब्द के साथ वह अपने अतीत में खोती चली गई……..
लगभग 20 साल पहले जब वह B.Sc. में पढ़ती थी | अपने मां बाप की इकलौती सर्वगुण दुलारी संतान | उसकी मां चाहती थी कि वह ग्रेजुएशन के बाद आई.ए .एस. की तैयारी करे क्योंकि उसके पापा आई.ए.एस. के पी. ए. थे | और वे उस पद के पावर ,ग्लैमर तथा सोशल वैल्यू से काफी प्रभावित थे | सारिका भी अपने माता-पिता की इच्छा को साकार करना चाहती थी | इसलिए उसने भी अपनी स्टडी को उस अनुरूप ढालना शुरू कर दिया था | उसका ग्रेजुएशन का लास्ट ईयर चल रहा था कि पता नहीं कब और कैसे , क्या हुआ कि उसके सारे सपने धुंधले पड़ने लगे | उसकी किताबों पर धूल जमने लगीं |
उसकी सबसे प्रिय सहेली अनामिका ने उसे समझाने का प्रयास भी किया कि ‘ सारिका यू क्लास बंक करना ठीक नहीं |’ लेकिन सारिका ने उसकी बातों पर ध्यान भी नहीं दिया | पहले तो सप्ताह में एक -दो क्लास छोड़ना ; पर अब तो हफ्ते में एक दिन भी नजर आए तो यही बड़ी बात थी | हालाँकि अनामिका के बार-बार समझाने और कहने पर सारिका भी थोड़ी देर के लिए सोचने लगती थी कि वह जो कर रही है वह गलत है | पर यह उमर, कुछ नौजवान दोस्त , कुछ रोमानी सपने उसके सोच पर हावी हो जाते और वह सब कुछ भूल कर फिर अनामिका की बातों को अनदेखा कर देती |
लास्ट ईयर के फॉर्म फिलअप के अंतिम दिन सारिका कॉलेज में नजर आई | संयोग से अनामिका भी उसी दिन फॉर्म भरने वाली थी | दोनों की मुलाकात हुई पर अनामिका सारिका में आए बदलाव से काफी दुखी हुई | उसने मन ही मन कुछ निर्णय लिया |
शाम का वक्त ! अनामिका सारिका की मां के सामने सोफे पर बैठी थी | उसके चेहरे पर तनाव और ललाट पर पसीने की कुछ बूंदे चमक रही थीं |अनामिका ने कहा- ‘आंटी मैं काफी पहले आपसे आकर मिलने वाली थी पर…’
तभी अपने घर में सारिका ने दबे पांव कदम रखा | हालाँकि उसे यह पता नहीं था कि आज उसकी मां के सामने उसकी पोल खुल चुकी है इसलिए वह दबे पांव आ रही थी; बल्कि कुछ गलत करने का एहसास खुद हमें चोर बना देता है |
सारिका ने जैसे ही ड्राइंग रूम में कदम रखना चाहा तभी उसकी कानों में अनामिका की आवाज आई और उसके पैर ठिठक गए|
‘ आंटी सारिका कहां गई है ?’
‘ वह तो कॉलेज के बाद ट्यूशन करने जाती है |’
………….
‘ बस ! अनामिका, बहुत हो चुका | अब मैं अपनी सारिका के खिलाफ एक लफ्ज़ भी नहीं सुनना चाहती हूं |’
अपनी माँ को क्रोधित जानकर सारिका के तो होश फाख्ता हो गए |
उसकी माँ अनामिका से कह रही थी ….’ मुझे मेरी सारिका , मेरी बेटी पर पूरा भरोसा है | विश्वास है उस पर कि वह मेरे विश्वास को ठेस नहीं पहुंचा सकती | ‘
सारिका के कानों में उसकी माँ के यह शब्द गूंजने लगे | वह भाग कर अपने स्टडी रूम में गई और फूट-फूट कर रोने लगी | कुछ देर बाद जब उसका मन हल्का हुआ तो वह अपनी माँ के कहे गए शब्दों को सोचने लगी…… ‘ मुझे अपनी सारिका , अपनी बेटी पर भरोसा है | विश्वास है उस पर ‘ … और फिर सारिका ने अपनी माँ के विश्वास पर खरा उतरने को ठान लिया | हालाँकि उसने अपना कीमती एक साल बर्बाद कर दिया था फिर भी उसने हार नहीं मानी | ग्रेजुएशन के रिजल्ट आए | सारिका को पूरे 60% अंक मिले थे ; ना एक कम ना एक ज्यादा |
तभी उसके जीवन में एक बड़ा हादसा हुआ कि एक कार- एक्सीडेंट में उसके पिता की मृत्यु हो गई |उसकी माँ एक दम टूट सी गई | सारिका को भी उस दुख से उबरने में काफी वक्त लगा | उन्हीं दिनों अनामिका बी.एड. में नामांकन करवाने जा रही थी सो सारिका भी साथ हो ली
|
B.Ed के रिजल्ट के समय जब सारिका ने अनामिका को बतलाया कि अनामिका को उसकी माँ के द्वारा कहे गए शब्दों से ही हौसला पाकर आज वह फिर से संभल सकी है ; और उसी दिन उसकी आंखें खुल गई थी कि उसकी माँ उस पर कितना भरोसा करती है और वह क्या करने जा रही है |
आयुष ने अपनी माँ को सोचते देख कर उसे झिंझोड़कर कहा – ‘आप की कसम मॉम, मेरा फेथ करो ! मैंने कुछ गलत नहीं किया है| ‘
सारिका की तंद्रा टूटी | आयुष कहता जा रहा था – ‘आप ही बताओ मॉम , अपने दोस्त के दुख में हाथ बटाना क्या गलत है ? ‘
सारिका की आंखों से अचानक अश्रुधार फूटकर बह निकले | वह बोल पड़ी – ‘नहीं बेटे ! कुछ गलत नहीं है | तुम गलत कर ही नहीं सकते ! मुझे.. मुझे तुम पर विश्वास है .. पूरा भरोसा है ! ‘
सारिका रोती जा रही थी और आयुष को अपनी छाती से लगाकर बड़बड़ाती जा रही थी…” आई फेथ यू ..मुझे विश्वास है विश्वास है ..विश्वास ! ”

डॉ. भूपेन्द्र अलिप

हिंदी रिपोर्ताज साहित्य और कन्हैयालाल मिश्र का ‘क्षण बोले कण मुस्काए’

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हिंदी रिपोर्ताज साहित्य और कन्हैयालाल मिश्र का ‘क्षण बोले कण मुस्काए’

मनोज शर्मा

सारांश

रिपोर्ताज साहित्य की गणना हिंदी गद्य की नव्यतम विधाओं में की जाती है. द्वितीय विश्वयुद्ध के आसपास इस विधा का जन्म हुआ. रिपोर्ताज शब्द को अपने विदेशी (फ्रेंच) रूप में ही ज्यों का त्यों हिंदी में अपना लिया गया है. आरम्भ में इसे रिपोर्टाज लिखा जाता रहा है किन्तु धीरे-धीरे भारत में यह रिपोर्ताज के रूप में प्रयुक्त होने लगा. रिपोर्ताज पत्रकारिता की देन है. इसमें आँखों देखी या कानो सुनी सत्य घटनाओं को साहित्यिकता के साथ प्रस्तुत किया जाता है. वर्तमान में इसे साहित्य की महत्वपूर्ण विधा के रूप में देखा जाता है.कन्हैयालाल मिश्र’प्रभाकर’ हिंदी पत्रकारिता तथा हिंदी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार हैं. क्षण बोले कण मुस्काये कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ का प्रसिद्ध रिपोर्ताज संग्रह है.जिसका रिपोर्ताज साहित्य में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण हिंदी साहित्य में उल्लेखनीय स्थान है.

बीज शब्द: रिपोर्ताज, गद्य ,क्षण, द्वितीय, विश्वयुद्ध ,नवीन, विधा, आधुनिक

मूल आलेख

हिंदी साहित्य का आधुनिक युग गद्य क प्रसव काल है जिसमें अनेक नयी विधाओं का चलन हुआ. इन विधाओं में कुछ तो सायास थीं और कुछ के गुण अनायास ही कुछ गद्यकारों के लेखन में आ गए थे. वास्तविक रूप में तो रिपोर्ताज का जन्म हिंदी में बहुत बाद में हुआ लेकिन भारतेंदुयुगीन साहित्य में इसकी कुछ विशेषताओं को देखा जा सकता है. उदाहरणस्वरूप, भारतेंदु ने स्वयं जनवरी, 1877 की ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ में दिल्ली दरबार का वर्णन किया है, जिसमें रिपोर्ताज की झलक देखी जा सकती है. रिपोर्ताज लेखन का प्रथम सायास प्रयास शिवदान सिंह चौहान द्वारा लिखित ‘लक्ष्मीपुरा’ को मान जा सकता है. यह सन् 1938 में ‘रूपाभ’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ. इसके कुछ समय बाद ही ‘हंस’ पत्रिका में उनका दूसरा रिपोर्ताज ‘मौत के खिलाफ ज़िन्दगी की लड़ाई’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. हिंदी साहित्य में यह प्रगतिशील साहित्य के आरंभ का काल भी था. कई प्रगतिशील लेखकों ने इस विधा को समृद्ध किया. शिवदान सिंह चौहान के अतिरिक्त अमृतराय और प्रकाशचंद गुप्त ने बड़े जीवंत रिपोर्ताजों की रचना की.

रांगेय राघव रिपोर्ताज की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ लेखक कहे जा सकते हैं. सन् 1946 में प्रकाशित ‘तूफानों के बीच में’ नामक रिपोर्ताज में इन्होंने बंगाल के अकाल का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है. रांगेय राघव अपने रिपोर्ताजों में वास्तविक घटनाओं के बीच में से सजीव पात्रों की सृष्टि करते हैं. वे गरीबों और शोषितों के लिए प्रतिबद्ध लेखक हैं. इस पुस्तक के निर्धन और अकाल पीड़ित निरीह पात्रों में उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता को देखा जा सकता है. लेखक विपदाग्रस्त मानवीयता के बीच संबल की तरह खड़ा दिखाई देता है.

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के रिपोर्ताज लेखन का हिंदी में चलन बढ़ा. इस समय के लेखकों ने अभिव्यक्ति की विविध शैलियों को आधार बनाकर नए प्रयोग करने आरंभ कर दिए थे. रामनारायण उपाध्याय कृत ‘अमीर और गरीब’ रिपोर्ताज संग्रह में व्यंग्यात्मक शैली को आधार बनाकर समाज के शाश्वत विभाजन को चित्रित किया गया है. फणीश्वरनाथ रेणु के रिपोर्ताजों ने इस विधा को नई ताजगी दी. ‘ऋण जल-धन जल’ रिपोर्ताज संग्रह में बिहार के अकाल को अभिव्यक्ति मिली है और ‘नेपाली क्रांतिकथा’ में नेपाल के लोकतांत्रिक आंदोलन को कथ्य बनाया गया है.

अन्य महत्वपूर्ण रिपोर्ताजों में भंदत आनंद कौसल्यायन कृत ‘देश की मिट्टी बुलाती है’, धर्मवीर भारती कृत ‘युद्धयात्रा’ और शमशेर बहादुर सिंह कृत ‘प्लाट का मोर्चा’ का नाम लिया जा सकता है.

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अपने समय की समस्याओं से जूझती जनता को हमारे लेखकों ने अपने रिपोर्ताजों में हमारे सामने प्रस्तुत किया है. लेकिन हिंदी रिपोर्ताज के बारे में यह भी सच है कि इस विधा को वह ऊँचाई नहीं मिल सकी जो कि इसे मिलनी चाहिए थी.

(1) रिपोर्ताज हिन्दी की ही नहीं, पाश्चात्य साहित्य की भी नवीनतम विधा है. (2) इसका जन्म साहित्य और पत्रकारिता के संयोग से हुआ है. (3) रिपोर्ताज घटना का आँखों देखा हाल होता है. (4) इसमें कुछ घटनाओं के सूक्ष्म निरीक्षण के आधार पर मनोवैज्ञानिक विवेचन तथा विश्लेषण होता है.

रिपोतार्ज: अर्थ एवं परिभाषा 

रिपोर्ताज शब्द फ्रेंच शब्द है यह हिंदी में उतना ही प्रचलित हो गया है जितना यूरोपीय समाज में रिपोर्ताज रिपोर्ट का ही विस्तार है. रिपोर्ताज में रिपोर्ट की भांति ही क्यों हुआ,कब हुआ,कैसे हुआ,क्या हुआ जैसे ही प्रश्नों के उत्तर है साथ ही विस्तार और विश्लेषण भी है.रिपोर्ट आज पढ़कर कल नहीं पढ़ी जाती उसमे नयापन या रोचकता नहीं होती लेकिन रिपोर्ताज में विश्लेषण विस्तार और कल्पनाशीलता के कारण रोचकता बनी रहती है इसलिए उसे बार बार पढ़ा जा सकता है. हिंदी साहित्यकोश में इसे परिभाषित किया है कि ‘रिपोर्ट के कलात्मक और साहित्यिक रूप को ही रिपोर्ताज कहते हैं. वास्तविक घटनाओं का ज्यों का त्यों रख देना रिपोर्ट है जबकि उन्हीं वास्तविक घटनाओं में कलात्मकता का रंग भरकर रचनाकार उसे रिपोर्ताज बना देता है.रिपोर्ताज घर पर बैठकर किसी घटना का अनुमान लगाकर नहीं लिखा जा सकता.इसके लिए रचनाकार का घटना का प्रत्यक्षदर्शी होना आवश्यक है जब वह उस वास्तविक घटना में अपनी गहन संवेदना,सजीवता रोमांच विश्वसनीयता और प्रभाव से जोड़ता है. तात्पर्य यह है कि रिपोर्ताज ऐसी ‘रिपोर्ट’ है जिसमें साहित्यिकता एवं कलात्मकता का समावेश हो.’रिपोर्ताज का स्वरूप’घटनापरक होते हुए भी सृजनात्मक एवं साहित्यिक है.

यह गद्य में लेखन की एक विशिष्ट शैली है. रिपोर्ताज से आशय इस तरह की रचनाओं से है जो पाठकों को किसी स्थान, समारोह, प्रतियोगिता, आयोजन अथवा किसी विशेष अवसर का सजीव अनुभव कराती हैं. गद्य में पद्य की सी तरलता और प्रवाह रिपोर्ताज की विशेषता है. अच्छा रिपोर्ताज वह है जो पाठक को विषय की जानकारी भी दे और उसे पढ़ने का आनन्द भी प्रदान करे. रिपोर्ताज की एक बड़ी विशेषता इसकी जीवन्तता होती है. गतिमान रिपोर्ताज पाठक को बांध लेता है. पाठक उसके प्रवाह में बंध कर खुद ब खुद विषय से जुड़ जाता है. इसलिए रिपोर्ताज लेखन में इस बात का खास ध्यान रखा जाना चाहिए कि उसमें दोहराव न हो और जानकारियों का सिलसिला बना रहे. रिपोर्ताज लेखक को विषय-वस्तु की बारीक जानकारी होनी चाहिए. विषय से जुड़ी छोटी-छोटी जानकारियां ही रिपोर्ताज को रोचक बनाती है.

रिपोर्ताज reportage की भाषा शैली में कथा-कहानी जैसा प्रवाह और सरलता होनी चाहिए. रिपोर्ताज मूलतः फ्रांसीसी भाषा का शब्द है जो अंग्रेजी के रिपोर्ट शब्द से विकसित हुआ है. रिपोर्ट का अर्थ होता है किसी घटना का यथातथ्य वर्णन. रिपोर्ताज इसी वर्णन का कलात्मक तथा साहित्यिक रूप है. रिपोर्ताज घटना प्रधान होते हुए भी कथा तत्व से परिपूर्ण होता है. एक तरह से रिपोर्ताज लेखक को पत्रकार और साहित्यकार, दोनों की भूमिकाएं निभानी होती हैं.

‘रिपोर्ताज’ का अर्थ एवं उद्देश्य

जीवन की सूचनाओं की कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए रिपोर्ताज का जन्म हुआ. रिपोर्ताज पत्रकारिता के क्षेत्र की विधा है. इस शब्द का उद्भव प्रफांसीसी भाषा से माना जाता है. इस विधा को हम गद्य विधाओं में सबसे नया कह सकते हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय यूरोप के रचनाकारों ने युद्ध के मोर्चे से साहित्यिक रिपोर्ट तैयार की. इन रिपोर्टों को ही बाद में रिपोर्ताज कहा गया. वस्तुतः यथार्थ घटनाओं को संवेदनशील साहित्यिक शैली में प्रस्तुत कर देने को ही रिपोर्ताज कहा जाता है.

रिपोर्ताज गद्य-लेखन की एक विधा है. रिपोर्ताज फ्रांसीसी भाषा का शब्द है. रिपोर्ट अंग्रेजी भाषा का शब्द है. रिपोर्ट किसी घटना के यथातथ्य वर्णन को कहते हैं. रिपोर्ट सामान्य रूप से समाचारपत्र के लिये लिखी जाती है और उसमें साहित्यिकता नहीं होती है.रिपोर्ट के कलात्मक तथा साहित्यिक रूप को रिपोर्ताज कहते हैं.वास्तव में रेखाचित्र की शैली में प्रभावोत्पादक ढंग से लिखे जाने में ही रिपोर्ताज की सार्थकता है.आँखों देखी और कानों सुनी घटनाओं पर भी रिपोर्ताज लिखा जा सकता है.कल्पना के आधार पर रिपोर्ताज नहीं लिखा जा सकता है. घटना प्रधान होने के साथ ही रिपोर्ताज को कथातत्त्व से भी युक्त होना चाहिये. रिपोर्ताज लेखक को पत्रकार तथा कलाकार दोनों की भूमिका निभानी पडती है. रिपोर्ताज लेखक के लिये यह भी आवश्यक है कि वह जनसाधारण के जीवन की सच्ची और सही जानकारी रखे.तभी रिपोर्ताज लेखक प्रभावोत्पादक ढंग से जनजीवन का इतिहास लिख सकता है.

रिपोर्ताज की परिभाषा

महादेवी वर्मा का कहना है – “रिपोर्ट या विवरण से संबंध रिपोर्ताज समाचार युग की देन है और उसका जन्म सैनिक की खाईयों में हुआ है.” रिपोर्ताज का विकास रूस में हुआ. द्वितीय विश्व युद्ध के समय इलिया एहरेन वर्ग को रिपोर्ताज – लेखक के रूप में विशेष प्रसिद्धि मिली.

डॉ.भागीरथ मिश्र ने रिपोर्ताज को परिभाषित करते हुए लिखा है – “किसी घटना या दृश्य का अत्यंत विवरणपूर्ण सूक्ष्म, रोचक वर्णन इसमें इस प्रकार किया जाता है कि वह हमारी आंखों के सामने प्रत्यक्ष हो जाए और हम उससे प्रभावित हो उठें.”

कोई भी निबंध, कहानी, रेखाचित्र या संस्मरण पत्रकारिता से संपृक्त होकर रिपोर्ताज का स्वरूप ग्रहण कर लेता है. साहित्यिकता इसका अनिवार्य तत्व है. रेखांकित एवं रिपोर्ट का समन्वित रूप रिपोर्ताज को जन्म देता है क्योंकि रेखाचित्र साहित्यिक विधा है.

रिपोर्ताज का विवेचन करते हुए शिवदान सिंह चौहान ने लिखा है – “आधुनिक जीवन की द्रुतगामी वास्तविकता में हस्तक्षेप करने के लिए मनुष्य को नई साहित्यिक रूप विधा को जनम देना पड़ा. रिपोर्ताज उन सबसे प्रभावशाली एवं महत्वपूर्ण विधा है.”

  1. रिपोर्ताज में तथ्यों के साथ भाव प्रवणता होती है.
  2. रिपोर्ताज का स्वरूप कलापूर्ण होता है. लेखक यथार्थ विषय को कल्पना के माध्यम से साहित्यिक परिवेश में प्रस्तुत करता है.
  3. रिपोर्ताज में मुख्य विषयवस्तु घटना होती है. घटना का काल्पनिक अथवा यथार्थपरक होना लेखक पर निर्भर करता है. घटना को कथात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाता है.
  4. इस विधा की कोई सीमा नहीं होती.
  5. रिपोर्ताज में बाह्य स्वरूप की अभिव्यक्ति अधिक और आंतरिक स्वरूप की अभिव्यक्ति कम होती है.
  6. जन-जीवन की प्रभावकारी परिस्थिति का चित्रण होने के साथ ऐतिहासिकता के लिए प्रमाण भी अपेक्षित है.
  7. रिपोर्ताज लेखक का उद्देश्य वस्तुगत तथ्यों को प्रभावपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त करना होता है.
  8. रिपोर्ताज लेखक साहित्यिक लेखनी को हाथ में लेकर जागरूक बौद्धिकता के साथ यथार्थ जगत् से संपर्क किये रहता है.
  9. रिपोर्ताज का प्रभाव सीमित होता है. सम-सामयिक विषय और घटनाओं पर आधारित होने के कारण इसका प्रभाव सार्वजनीन नहीं रहता है.
  10. लेखक का दृष्टिकोण मनोविश्लेषणात्मक होता है.
  11. भाषा में सरलता, सहजता, सुबोधता, सजीवता एवं सरसता होना आवश्यक होता है.

कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ के रिपोर्ताज

रिपोर्ताज लेखन में कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ को काफी सफलता मिली है.मिश्र जी कुशल पत्रकार के साथ-साथ साहित्यिक मर्मज्ञ भी थे. वो जैसा देखते हैं वैसा ही काग़ज़ पर उतारने की कला भी जानते हैं. हिंदी रिपोर्ताजकारो में डॉ रांगेय राघव के बाद यदि किसी रिपोर्ताजकार पर दृष्टि ठहरती है तो वे पं कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ही हैं. हिंदी रिपोर्ताज के जन्म से ही रिपोर्ताज लिखते चले जा रहें हैं और इतना ही क्यों, हिंदी रिपोर्ताज के एक तरह से वे जन्मदाता ही कहे जाएँ ,तो अत्युक्ति न होगी. रिपोर्ताज साहित्य में उनका प्रसिद्ध रिपोर्ताज संग्रह ‘क्षण बोले कण मुस्काए’ काफी उल्लेखनीय हैं जिसमें उनके 26 प्रसिद्ध रिपोर्ताज हैं. कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की चुटीली भाषा रिपोर्ताज में नयी जान फूंक देती है जिसके कारण रिपोर्ताज में आरंभ से अंत तक रोचकता बनी रहती है. क्षण बोले कण मुस्काए रिपोर्ताज संग्रह में ’वे सुनते ही नहीं’, ‘कुंभ महान’,‘रोबर्ट नर्सिंग होम’, ‘ऊपर की बर्थ पर’,’अपने भंगी भाइयों के साथ’,’लाल किले की ऊँची दीवार से’,’मस्जिद की मीनारे बोली’ और ‘पहाड़ी रिक्शा’ आदि उनके प्रमुख रिपोर्ताज हैं.

बहुत कम कथा-कृतियाँ ऐसी होती हैं जो अपने यथार्थवादी स्वरूप एवं समाज की अनेक परतों को बारीकी से चित्रित करते हुए इतना कलात्मक, शैली और शिल्प के स्तर पर बहुबिध प्रयोगधर्मा एवं सर्जनशीलता का अनूठा स्वरूप रखती हों. प्रायः रचनाओं में यथार्थवादी आग्रह के कारण उनका रचनात्मक या साहित्यिक पक्ष गौण हो जाता है और वे यथार्थ का विवरण मात्र बनकर रह जाती हैं.दूसरी तरफ कलात्मक सृजनशीलता में यथार्थवादी पक्ष कमजोर हो जाता है.

प्रभाकर जी के रिपोर्ताजों में भारत के राष्ट्रीय संग्राम में, गांधी युग के सत्याग्रह काल की,अद्मय जिजीविषा मिलती है. वे राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष में सन 1930,1932 और 1942 में तीन बार जेल गए. सन 1930 से ही रिपोर्ताज लिखने की इच्छा उनमें जागी- और उनके अनेक ऐसे रिपोर्ताज हैं जिनमें देश की चिंता प्रधान है.मिश्र जी के रिपोर्ताज अपने समय के सांस्कृतिक, सामाजिक परिवेश के दर्पण है. रिपोर्ताज के तत्वों और विशेषताओं में यथातथ्यता ,जीवंतता तथा कलात्मकता को कन्हैयालाल मिश्र’प्रभाकर’ ने विशेष रूप से अपनाया है. किसी घटना को नितांत सत्य एवं निष्पक्ष रूप से चित्रित करने में प्रभाकर जी ने विशेष कौशल का परिचय दिया है.

इनकी रचनाओं में कलागत आत्मपरकता, चित्रात्मकता और संस्मरणात्म्कता को ही प्रमुखता प्राप्त हुई है. पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रभाकर जी को अभूतपूर्व सफलता मिली.पत्रकारिता को उन्होंने स्वार्थसिद्धि का साधन नहीं बनाया है, वरन उसका उपयोग उच्च मानवीय मूल्यों की स्थापना में ही किया. प्रभाकर हिन्दी के श्रेष्ठ रेखाचित्रों, संस्मरण एवं ललित निबन्ध लेखकों में हैं. यह दृष्टव्य है कि उनकी इन रचनाओं में कलागत आत्मपरकता होते हुए भी एक ऐसी तटस्थता बनी रहती है कि उनमें चित्रणीय या संस्मरणीय ही प्रमुख हुआ है- स्वयं लेखक ने उन लोगों के माध्यम से अपने व्यक्ति को स्फीत नहीं करना चाहा है. उनकी शैली की आत्मीयता एवं सहजता पाठक के लिए प्रीतिकर एवं हृदयग्राहिणी होती है. कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की सृजनशीलता ने भी हिन्दी साहित्य को व्यापक आभा प्रदान की. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने उन्हें ‘शैलियों का शैलीकार’ कहा था. कन्हैयालाल जी ने हिन्दी साहित्य के साथ पत्रकारिता को भी व्यापक रूप से समृद्ध किया.

मिश्र जी की भाषा अद्भुत प्रवाह और स्वाभाविकता लिए हुए है. इनके वाक्य-विन्यास में भी विविधता है.इस कारण इनकी भाषा में कहीं-कहीं अंग्रेजी तथा उर्दू के बोलचाल के शब्द प्रयुक्त हुए है.शब्दों की चमत्कार प्रस्तुति,भावानुकूल वाक्य-विन्यास और सुंदर उक्तियाँ इनकी भाषा को अत्यंत आकर्षक बनाती है.जैसे

“घर पहंचते ही देखा. श्रीमतीजी प्रतीक्षा में खड़ी किवाड़ के पीछे झाँक रही है.मुझे यह बात कुछ अच्छी न लगी.रुपया लौंगा, तो दे ही दूंगा. इस तरह भूत बनकर पीछे पड़ने की क्या ज़रूरत? भीतर पैर रखते ही सवाल की टॉप मेरे सामने थी,” ले आये रुपये”मेरे सरे शारीर में आग लग गयी.न मेरे स्वास्थ की चिंता, न परेशानी की. मरता-मरता अभी आकर खड़ा भी नहीं हुआ कि वही रुपये का सवाल.सह्रदयता का तो इस दुनिया में जैसे दिवाला निकल गया है.”एक दिन की बात(पृष्ठ 37)

इन्होने शब्दों की लाक्षणिक शक्ति का प्रचुरता से प्रयोग किया है.साधारण शब्दों को भी इन्होने नया अर्थ, नई भंगिमा देकर भाषा पर अपना अधिकार जताया है.मिश्र जी की भाषा में मुहावरों तथा उक्तियों का सहज प्रयोग हुआ है. इनके छोटे-छोटे एवं सुसंगठित वाक्यों में सूक्ति की-सी संक्षिप्तता और अर्थ-गाम्भीर्य है.संक्षेप में मिश्र जी ने हिंदी की गद्य की नयी शैली प्रदान की है.

प्रभाकर हिन्दी के श्रेष्ठ रेखाचित्रों, संस्मरण एवं ललित निबन्ध लेखकों में हैं. यह दृष्टव्य है कि उनकी इन रचनाओं में कलागत आत्मपरकता होते हुए भी एक ऐसी तटस्थता बनी रहती है कि उनमें चित्रणीय या संस्मरणीय ही प्रमुख हुआ है- स्वयं लेखक ने उन लोगों के माध्यम से अपने व्यक्ति को स्फीत नहीं करना चाहा है. उनकी शैली की आत्मीयता एवं सहजता पाठक के लिए प्रीतिकर एवं हृदयग्राहिणी होती है. कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की सृजनशीलता ने भी हिन्दी साहित्य को व्यापक आभा प्रदान की. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने उन्हें ‘शैलियों का शैलीकार’ कहा था. कन्हैयालाल जी ने हिन्दी साहित्य के साथ पत्रकारिता को भी व्यापक रूप से समृद्ध किया.

‘क्षण बोले कण मुस्काए’मिश्र जी की प्रमुख कृति है जिसमें मूलत: रिपोर्ताज संग्रह हैं.मानव मन में निरंतर चलते चिन्तन का वर्णन जितना अच्छा इस रचना में देखने को मिलता है उतना हिंदी में अन्यत्र देखने को नहीं मिलता.अत: ‘क्षण बोले कण मुस्काए’ नामक कृति हिंदी रिपोर्ताजों के विविध आयामों को समाहित किये हुए है. संग्रह के कुछ रिपोर्ताजों ‘अब हम स्वतंत्र हैं’, ‘मस्जिद की मीनारे बोली’ ,‘लाल किले की ऊँची दीवार से’ आदि जैसे ऐतिहासिक –राजनैतिक रिपोर्ताजों में लेखक की तत्कालीन राजनैतिक जागरूकता और इन सम्यक दृष्टिकोण का परिचय मिलता है. इस प्रकार की राजनैतिक उथल-पुथल को लेखक देखता है और उसे देखे गए को चिंतन से मथकर उसके मक्खन को पाठकों के सम्मुख उपस्थित कर देता है. इसे एक उदाहरण के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सकता है.

“अंग्रेजो के साथ ही वहां सैकड़ों हिन्दुस्तानी स्त्री-पुरुष भी थे. इनमें खद्दरवाला तो अकेला मैं ही था- बाकी सब अंग्रेजों के गोद लिए बेटे थे. ये सभी सुखी समृद्ध थे.इसका सुख और उनकी समृद्धि, उनकी वेश-भूषा और यहाँ उपस्थिति ही स्पष्ट थी.फिर भी उनमें अंग्रेजों-सी प्रसन्नता न थी.

अचानक मेरा ध्यान इस बात पर गया की यहाँ दो जातियों के मनुष्य हैं. एक वह,जिसमें अभी-अभी भारत में अपना राज्य खोया और एक वह जिसने अभी-अभी भारत में अपना राज्य पाया. मैं दोनों को गौर से देख रहा हूँ और सोच रहा हूँ की न तो खाने वाले में दीनता ही है,न पाने वाले में गौरव?”

‘अब हम स्वतंत्र हैं (पृष्ठ-10)

मिश्र जी के रिपोर्ताजों में व्यंग्य है जिसे पाठक अनुभव करता है. ‘पहाड़ी रिक्शा’ के रिक्शाचालकों के प्रति वो सच्ची संवेदना रखते हैं. मिश्र जी की दृष्टि इतनी सूक्ष्म है कि मेले की छोटी से छोटी बात भी उनकी दृष्टि से छिपी नहीं रही है. वह भंगड़ साधुओं की टोली का गुरमन्त्र ‘चिलम चमेली’ फूँक दे ठेकेदार की हवेली’ को भी ठहर कर बहुत ध्यान देकर सुनता है और कथावाचक पंडित जी के इर्दगिर्द चुपचाप खड़ी उस भीड़ को भी देखता है जो पंडित जी का एक भी शब्द न सुनने के वावजूद वहां से हटती नहीं है.

पंo कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की एक और महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उन्होंने ऐतिहासिक, सामाजिक धार्मिक एवं सांकृतिक आदि विविध विषयों पर रिपोर्ताज लिखे हैं उसमें सामजिक जागरूकता भी है. एक और जहाँ इतिहास के प्रति लगाव है तो वहीँ दूसरी और उज्ज्वल भविष्य के प्रति दृढ आस्था परिलक्षित होती है. अपने रिपोर्ताजों में जहाँ उन्होंने बड़े-बड़े राजनैतिक नेताओं, महान धार्मिक संतों, प्रसिद्ध त्योहारों का वर्णन मिलता है वहीँ भंगियों, हरिजनों एवं अन्य पिछड़ी जाति के गुमनाम व्यक्तियों, छोटे से कस्बों के मेलों एवं अपने सहयात्रियों को भी अपना विषय बनाया है. लुच्चों, लफंगों,गवारों बंदरों तक पर उन्होंने रिपोर्ताज लिखे हैं. वस्तुत: जितनी विविधता उनकी विषयवस्तु में है, उतनी हिंदी के अन्य किसी रिपोर्ताजकार के साहित्य में नहीं.

निष्कर्ष कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’हिंदी रिपोर्ताज साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. ‘क्षण बोले कण मुस्काये’में हर किस्म में रिपोर्ताज हैं जिनमें जीवन के हर रंग को देखा जा सकता है. रिपोर्ताज संग्रह में रचनाओं का रचना-काल भी दिया गया है.इनमें कुछ आज़ादी से पूर्व के रिपोर्ताज हैं तथा कुछ रिपोर्ताज बाद के हैं. रिपोर्ताजों में सर्वसुलभ भाषा का प्रयोग है.सभी रिपोर्ताज रोचक होने के साथ-साथ सार्थक सन्देश देने में सक्षम हैं. साहित्यिक दृष्टि से क्षण बोले कण मुस्काये काफी उल्लेखनीय कृति है.

संदर्भ सूची

  1. ‘प्रभाकर’ कन्हैयालाल मिश्र, क्षण बोले कण मुस्काये, भारतीय ज्ञानपीठ ,1966 दिल्ली
  2. वर्मा वीरपाल ,हिंदी रिपोर्ताज. कुसुम प्रकाशन ,1987 मुजफ्फर नगर
  3. वर्मा ,धीरेन्द्र ,हिंदी साहित्यकोश भाग-2
  4. चौहान शिवदान सिंह, साहित्यानुशीलन,अत्माराम & सन्स,1955, दिल्ली
  5. खन्ना शांति, आधुनिक हिंदी का जीवनीपरक साहित्य,सन्मार्ग प्रकाशन, 1973 दिल्ली
  6. चौहान रामगोपाल सिंह, हिंदी के गद्यकार और उनकी शैलियाँ,साहित्य रत्न भंडार, 1955 आगरा
  7. सिंहल ओमप्रकाश, गद्य की नई विधाएं,पीताम्बर पब्लिशिंग कम्पनी,1981 दिल्ली
  8. असद माजदा, गद्य की नइ विधाओं का विकास. ग्रन्थ अकादमी,1986, दिल्ली
  9. https://sarkariguider.com/kanhiyalal-prabhakar-mishra/
  10. https://bharatdiscovery.org/india/ कन्हैयालाल_मिश्र_प्रभाकर
  11. https://mycoaching.in/kanhiyalal-prabhakar-mishra-prabhakar
  12. http://govtjobmargdarshan.blogspot.com/2017/05/blog-post_92.html

शोधार्थी पी एच डी हिंदी

हिंदी विभाग-दिल्ली विश्वविद्यालय

सम्पर्क : 9868310402

ईमेल: mannufeb22@gmail.com

सामाजिक उत्तरदायित्व के बदलते स्वरूप

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सामाजिक उत्तरदायित्व

सामाजिक उत्तरदायित्व के बदलते स्वरूप

आशुतोष पाण्डेय

सारांश

सामाजिक उत्तरदायित्व एक व्यापक शब्द है जिसका प्रयोग आदिकाल से किसी न किसी रूप में किया जाता रहा है। अतीत काल में मानव ख़ानाबदोश जीवन व्यतीत करके अपना जीवन-यापन करता था, लेकिन जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ सामाजिक उत्तरदायित्व के स्वरूप में भी बदलाव आने आरंभ हो गए। सामाजिक उत्तरदायित्व के जो स्वरूप आदिकाल, पशुचारण काल, कृषि काल और वैदिक काल में थे, वह वर्तमान समय में नहीं रहें, क्योंकि विगत काल में सामाजिक उत्तरदायित्व की ज़िम्मेदारी समाज के प्रत्येक व्यक्ति की थी और समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन समाज की आवश्यकता के अनुरूप करता था, लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद इसमें काफी बदलाव देखने को मिला। अतः इस काल में सामाजिक उत्तरदायित्व की ज़िम्मेदारी सिर्फ व्यक्ति तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि कार्पोरेट जगत के लोगों की भी यह ज़िम्मेदारी हो गयी कि वह अपने लाभांश का कुछ हिस्सा समाज के विकास में खर्च करें। इस प्रकार 19वीं और 20वीं शताब्दी के दशक में इस अवधारणा का व्यापक स्तर पर विकास हुआ और सरकार तथा कार्पोरेट जगत मिलकर समाज के विकास में अपनी सहभागिता को सुनिश्चित करने लगे। लेकिन इसके इतर 21वीं शताब्दी में सामाजिक उत्तरदायित्व के क्षेत्र में एक नई अवधारणा का विकास हुआ जिसे विश्वविद्यालय सामाजिक उत्तरदायित्व के नाम से जाना गया।

मुख्य बिंदु – सामाजिक उत्तरदायित्व, कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व

शोध आलेख

सामाजिक उत्तरदायित्व के संदर्भ में समय, काल और परिस्थिति के अनुरूप अलग-अलग मत प्रचलित हैं। दर्शनिकों के अनुसार सामाजिक उत्तरदायित्व एक नैतिक ज़िम्मेदारी है और इसका पालन समाज के प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी रूप में करनी होती है। सामाजिक उत्तरदायित्व दंड और जुर्माने से संबंधित है और यह ज़िम्मेदारी सचेतन मानव द्वारा किए गए कार्यों का हिस्सा है तथा जब कोई कार्य मानव द्वारा चेतन अवस्था में किया जाता है तब ऐसा कोई कार्य नहीं जिसके परिणाम के प्रति किसी अन्य को जिम्मेदार ठहराया जाए। सामाजिक उत्तरदायित्व व्यक्तिगत और सामाजिक विकास के साथ-साथ आध्यात्मिक और नैतिक गुणों के विकास पर भी बल देता है। सामाजिक उत्तरदायित्व, चेतना और व्यावहारिक मूल्यों की एक श्रेणी है जो मानव अस्तित्व की पहचान कर उसके आर्थिक जीवन का विश्लेषण करती है। इस प्रकार उपर्युक्त अवधारणाओं से यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक उत्तरदायित्व एक नैतिक ज़िम्मेदारी है जो प्रत्येक व्यक्ति को समाज में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देती है। चूंकि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है और इस नाते उसका यह उत्तरदायित्व होता है कि वह समाज द्वारा बनाए नियमों और मान्यताओं के अनुरूप ऐसा कार्य करें जिससे समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को विकास का समान अवसर प्राप्त हो। यहीं सामाजिक न्याय की भी अवधारणा है। इस प्रकार सामाजिक उत्तरदायित्व का सरोकार व्यक्ति एवं समाज के उत्तरदायित्वों से है, क्योंकि व्यक्ति और समाज एक दूसरे के पूरक हैं और एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती।

सामाजिक उत्तरदायित्व एक व्यापक शब्द है जो लोगों को बेहतर कार्य करने की प्रेरणा देता है। लेकिन इसके संदर्भ में जब प्राचीन और नवीन अवधारणाओं को देखा जाए तो इसमें व्यापक बदलाव देखने को मिल रहें हैं। आदिकालीन मानव जब यायावर जीवन व्यतीत करता था तब वह छोटे-छोटे कबीलों में रहता था, पशुओं का शिकार करता था और किए गए शिकार का समूहिक वितरण प्रणाली द्वारा पूरे समूह को वितरित करता था। इस प्रकार व्यक्ति के अंदर अपने लोगों के प्रति समूहिता की भावना का विकास होना आरंभ हो गया। इतिहासकारों का मानना है कि इस काल में लोगों के अलग-अलग कार्य भी निर्धारित किए गए थे। जिसमें पुरुष का कार्य पशुओं का शिकार करना और महिलाएँ जंगल से लकड़ियाँ एकत्रित कर भोजन संग्रह का कार्य करती थी। इस प्रकार आदिकालीन समाज में मानव का एक साथ समूह में रहना, समूह के साथ पशुओं का शिकार करना, शिकार का एक समान रूप से वितरण करना, कबीले द्वारा बनाए गए नियमों का पालन करना और अपने-अपने कार्यों का ज़िम्मेदारी पूर्वक निर्वहन करना यह स्पष्ट रूप से बया करता है कि आदिकालीन समाज में मानव अपने कार्यों के प्रति कितना जिम्मेदार था। इस प्रकार मानव अनेक दहलीजों को पार करते हुए उद्यानिकी तथा चारावाही, कृषक, औद्योगिक और उत्तर-औद्योगिक समाज में पहुँच गया।

सामाजिक उत्तरदायित्व की अवधारणा को प्राचीन काल से लेकर उत्तर-औद्योगिक काल तक देखा जाए तो उसमें कई तरह बदलाव सामने आए हैं। आदिकाल से लेकर कृषक काल तक सामाजिक उत्तरदायित्व के तरीके लगभग एक जैसे थे। क्योंकि इसमें व्यक्ति का महत्व अधिक था और लोग एक दूसरे की सहायता मानवीय भावना से प्रेरित होकर करते थे। लेकिन औद्योगिक और उत्तर-औद्योगिक समाज में सामाजिक उत्तरदायित्व के मायने अलग दिखाई पड़ते हैं। इसमें मानव की जगह पूँजी को अधिक महत्व दिया जाने लगा और सामाजिक उत्तरदायित्व से संबंधित जो कार्य व्यक्ति केंद्रित हुआ करते थे, वह अब संस्था और सरकार केंद्रित हो गए। चूँकि भारत एक विकासशील देश है और आजादी के इतने दशक बाद भी यहाँ गरीबी, कुपोषण, बेरोजगारी, भिक्षावृत्ति आदि तरह की अनेकों समस्याएँ व्याप्त हैं। इसे दूर करने के लिए सरकार और स्वयंसेवी संस्थाएं कई दशकों से प्रयासरत् है, लेकिन अभी भी इसका कोई समुचित समाधान नहीं मिल पाया है। सरकार अपने स्तर से इस प्रयास में है कि अधिक से अधिक लोगों को इस समस्या से मुक्त किया जाए। अतः बड़े पैमाने पर 1980 के दशक में सरकार ने बहुराष्ट्रीय कंपीनियों से यह अनुरोध किया कि वह अपने लाभांश का कुछ हिस्सा समाज के विकास पर खर्च करें। इस प्रकार यहीं से कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व की अवधारणा का उदय हुआ और सामाजिक उत्तरदायित्व से संबंधित जो कार्य व्यक्ति द्वारा किए जाते थे वह अब सरकार तथा कार्पोरेट घरानों द्वारा किए जाने लगे।

कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व एक नवीन अवधारणा है, जिस संदर्भ में विद्वानों का यह मानना है कि इसकी शुरुआत अमेरिकन उद्यमी एंड्रयूज कारनेगी के ‘द गस्पेल ऑफ वेल्थ’ (1989) पुस्तक से हुई मनी जाती है। इस पुस्तक में कारनेगी ने कहा कि किसी भी उद्यमी का उद्देश्य सिर्फ संपत्ति को एकत्रित करना नहीं है बल्कि उनकी यह नैतिक तथा सामाजिक ज़िम्मेदारी है कि वह अपनी संपत्ति का कुछ हिस्सा समाज के विकास हेतु खर्च करें। लेकिन कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि विश्व पटल पर CSR का उदय तब हुआ जब होवार्ड आर. बोवेन ने अपनी पुस्तक सोशल रिस्पोन्सिबिलिटी ऑफ बिजनेसमैन (1953) में व्यावसायिक नैतिकता के आधार पर अपनी बात को स्पष्ट करते हुए यह कहा कि ‘कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व एक व्यावहारिक नैतिकता है जो तकनीकों, सेवाओं और समस्याओं के क्षेत्र में प्रयुक्त होती है। इस प्रकार सामाजिक उत्तरदायित्व एक नवीन अवधारणा है और यह व्यवसायी को समाज में बेहतर कार्य करने की प्रेरणा देता है। यह व्यवसाय के क्षेत्र में जहाँ एक तरफ शेयरधारकों के लाभ की बात करता है, वहीं दूसरी तरफ मानवाधिकार, पर्यावरण सुरक्षा, मानव विकास समाज कल्याण आदि की भी बात करता है। इस तरह वैश्विक स्तर पर कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व का उदय हुआ।

कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के परिप्रेक्ष्य में यदि भारत की बात की जाए तो यहाँ इसकी शुरुआत 1990 के दशक में हुई मानी जाती है।इस दौरान उद्योग तथा व्यापार के क्षेत्र में जहाँ एक तरफ क्रांतिकारी परिवर्तन हुए वहीं दूसरी तरफ बड़े पैमाने पर बहुराष्ट्रीय कंपीनियों का भी उदय हुआ। इन कंपनियों के आगमन से न सिर्फ उद्योग जगत को बढ़ावा मिला बल्कि रोजगार के क्षेत्र में भी आशातीत परिवर्तन देखने को मिले। वहीं सामाजिक विकास की दृष्टि से इस काल को देखा जाए तो इस समय बड़े पैमाने पर भारत में अशिक्षा, कुपोषण, भूखमरी आदि चहुओर व्याप्त थी और देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानव विकास सूचकांक, लिंग विकास सूचकांक और जेंडर सशक्तिकरण सूचकांक आदि में अन्य देशों की तुलना में काफी पीछे था। अतः इन समस्याओं को दूर करने के सरकार निरंतर विफल होती जा रही थी तब सरकार ने 1983 के दशक में एशियाई उत्पादकता संगठन के तर्ज पर कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व को लागू कर इनके कार्य क्षेत्र को निर्धारित किया।

भारत में कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के अंतर्गत केवल वहीं कंपनियाँ आती हैं जिसका वार्षिक टर्नओवर एक हजार करोड़ भारतीय मुद्रा या इससे अधिक का है अथवा जीसका निवल मूल्य पाँच सौ करोड़ रुपये या उससे अधिक का है या शुद्ध लाभ पाँच करोड़ रुपये या उससे अधिक है। अतः जिस कंपनी का वार्षिक लाभांश उक्त दायरे में आता है उस कंपनी को CSR नियम के तहत एक CSR नियम के तहत एक CSR समिति स्थापित करनी होगी। जिसमें कंपनी बोर्ड के सदस्य होंगे और एक निदेशक होगा। यह नियम कंपनियों को बीते तीन वर्षों में हुए उसके औसत शुद्ध लाभ का कम से कम 2 प्रतिशत CSR गतिविधियों में खर्च करने का उल्लेख करता है। इस प्रकार भारत में कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व का उदय हुआ और आज कई कंपनियाँ इनके अंतर्गत कार्य कर रहीं है।

भारत में कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के नियमों को लागू हुए आज लगभग तीन दशक हो गए, लेकिन यहाँ आज भी बड़े पैमाने पर समाज का एक बड़ा वर्ग गरीबी, अशिक्षा, भूखमरी आदि में अपना जीवन व्यतीत कर रहा है। आखिर क्या कारण है कि आजादी के इतने दशक बाद भी लोग इस तरह का जीवन जी रहें है ? यह सरकार और कार्पोरेट जगत के लिए चुनौती का विषय बना हुआ है। तत्पश्चात विद्वानों का एक बड़ा वर्ग जो अकादमिक क्षेत्र से आते हैं उन्होंने यह सुझाव दिया कि भारत में यदि इन समस्याओं से निजात पाना है तो स्थानीय स्तर पर जो भी संस्थाएं कार्य कर रहीं है उन्हें भी इस परिपाटी में शामिल करना होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत में यदि इस समस्याओं को दूर करना है तो उच्च शैक्षणिक संस्थानों को इस मुहिम में शामिल करना होगा। आगे विद्वानों ने इसके पीछे यह तर्क दिया कि यह ऐसी संस्थाएँ होती हैं जिसमें सुदूर और स्थानीय क्षेत्रों के बच्चे पढ़ने के लिए आते हैं और यदि हम इन छात्रों को इस मुहिम में शामिल करते हैं तो अधिक से अधिक लोगों को इन संस्थानों से जुडने का अवसर प्राप्त होगा। इस तरह से समाज का एक वंचित तबका जो समाज की मुख्य धारा से एकदम अलग है उसे आसानी से इस मुहिम का हिस्सा बनाया जा सकता है। अतः इसी के तर्ज पर एक नवीन अवधारणा के रूप में विश्वविद्यालय सामाजिक उत्तरदायित्व का आविर्भाव हुआ।

विश्वविद्यालय सामाजिक उत्तरदायित्व एक नवीन अवधारणा है, जिसकी शुरुआत चिली विश्वविद्यालय के शोधार्थियों द्वारा किया गया। यहाँ के शोधार्थियों ने वैश्विक स्तर पर यह सुझाव दिया कि विश्वविद्यालय समाज का एक अभिन्न अंग है और इसका उद्देश्य सिर्फ ज्ञान देना और जिम्मेदार छात्रों को पैदा करना ही नहीं है बल्कि उनकी यह नैतिक ज़िम्मेदारी है कि वह समाज के सतत विकास हेतु समाज के साथ मिलकर कार्य करें औए एक ऐसा मॉडल तैयार करें जिससे समाज के सभी लोगों को विकास का समान अवसर प्राप्त हो सके। भारत में विश्वविद्यालय सामाजिक उत्तरदायित्व का विकास 12वीं पंचवर्षीय योजना में किया गया। इस योजना में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने उच्च शैक्षणिक संस्थानों को यह सुझाव दिया कि संस्थान चाहे तो अपने स्तर से सामाजिक उत्तरदायित्व के क्षेत्र में कार्य कर सकते हैं। इसी क्रम में आगे चलकर कई संस्थानों ने इस क्षेत्र में कार्य करना आरंभ कर दिया। वर्तमान में यदि इन संस्थानों के उत्तरदायित्व को देखना है तो ‘उन्नत भारत अभियान’ एक महत्वपूर्ण योजना है। इस योजना के तहत भारत के तमाम उच्च शैक्षणिक संस्थानों को यह सुझाव दिया गया कि वह अपने आस-पास स्थित गांवों की समस्याओं को द्दोर करें। इसके लिए बड़े पैमाने पर IIT,NIT,IIIT आदि संस्थाओं को इस मुहिम में शामिल किया गया है। इस प्रकार सामाजिक उत्तरदायित्व के क्षेत्र में यह संस्थान निरंतर कार्य कर रहें हैं।

निष्कर्ष :

सामाजिक उत्तरदायित्व एक व्यापक अवधारणा है। इस अवधारणा का विकास आदिकाल से किसी न किसी रूप में देखने को मिलते रहें हैं। आदिकालीन समाज में मनुष्य की आवश्यकताएँ सीमित थी और लोग आपसी सहयोग के माध्यम से ही अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करते थे। लेकिन औद्योगिक और उत्तर-औद्योगिक समाज में सामाजिक उत्तरदायित्व की ज़िम्मेदारी सरकार, कार्पोरेट जगत और उच्च शैक्षणिक संस्थानों पर आ गयी है। इस दौरान सरकार ने कार्पोरेट और उच्च शैक्षणिक संस्थानों की यह ज़िम्मेदारी तय कर दी है वह अपने चहारदीवारी से बाहर निकल कर समाज के कल्याण हेतु कार्य करें।ऐसी स्थिति में कार्पोरेट जगत का एक बड़ा तबका लोगों के कल्याण हेतु स्कूल, अस्पताल, मनोरंजन केंद्र, पुनर्वास केंद्र आदि को स्वयं स्थापित कर रहा है या किसी अन्य संस्था को सहायता राशि देकर इस तरह के कार्यों को क्रियान्वित करा रहा है। इसी प्रकार जो उच्च शैक्षणिक संस्थान हैं वह अपने आस-पास के गाँवों के विकास हेतु आगे आ रहे हैं। इसमें कुछ संस्थान उन्नत भारत योजना के तहत लोगों का कल्याण कार्य कर रहें हैं तो कुछ संस्थान गाँव गोंद लेकर उनके उन्नति का मार्ग खोल रहें हैं। इस प्रकार समय दर समय सामाजिक उत्तरदायित्व का स्वरूप बदलता गया और एक परिपाटी के रूप में कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व और विश्वविद्यालय सामाजिक उत्तरदायित्व का उदय हुआ।

संदर्भ सूची :

  1. Angel, R & Mittal, R. (2016). A Review of University Social Responsibility and Its Role in University Brand Image in India. International Journal of Research in Management, Economics and Commerce. pp. 27-30. Retrieved from,

Click to access IJRMEC_909_23208.pdf

  1. Arora, B. (2006). The Political Economy of Corporate Responsibility in India. Geneva:UNRISD publications. Retrieved from,file:///C:/Users/Ashu/Downloads/PoliticalEconomyofCRinIndia.pdf
  2. Cadbury, G. A. H. (1987). Corporate Social Responsibility: A Literature Review. Retrieved from, file:///C:/Users/ Tesis%20Doctoral_Versión%20Defendida.pdf.
  3. Geryk, M. (2016). Social Responsibility of the University. Pelpiinska: Gadansk Management College Publishing House.
  4. आहूजा, र. आहूजा, मु. (2015). समाजशास्त्र विवेचना एवं परिप्रेक्ष्य. जयपुर : रावत प्रकाशन.

शोधार्थी, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा

ईमेल: ashukvp@gmail.com

मोबाईल: 7057300468

भारतीय समाज के बाज़ारों में फुटपाथ दुकानदार : अभिन्न अंग या समस्या

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फुटपाथ दुकानदार

भारतीय समाज के बाज़ारों में फुटपाथ दुकानदार : अभिन्न अंग या समस्या

साजन भारती

सारांश

वर्तमान परिदृश्य में स्ट्रीट वेंडरों की दशा भी बदल गयी है । आज बाज़ार अपने बदलते स्वरूप में समाज के हर पहलू को प्रभावित कर रहा है। जैसे बाज़ार वस्तु विनिमय से मुद्रा विनिमय से लेकर आज ई-कोमर्स तक पहुँच गया है, वैसे स्ट्रीट वेंडरों के व्यवसाय प्रक्रिया में परिवर्तन नहीं आया है। बाज़ार पहले खुले होते थे जिसमें नए विक्रेताओं का स्वागत होता था परंतु बढ़ती जनसंख्या और सीमित क्षेत्र के कारण आज नए विक्रेता, वह भी असंगठित, इसे बाज़ार में अपनी जगह बनाने में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। यदि स्ट्रीट वेंडर्स कई कठिनाइयों के बाद बाज़ार में अपना व्यवसाय स्थापित कर भी लेता है, तब भी आज की प्रशासन व्यवस्था इन्हें विकास के नाम पर स्वीकार नहीं कर रही है। आज सरकार भी कहीं न कहीं बाज़ारवाद और वैश्वीकरण से प्रभावित है जो असंगठित क्षेत्र को बाज़ार में उसकी पकड़ ढीली करने पर मजबूर कर रही है । जिससे मल्टीनेसनल(Multinational) कंपनियाँ और एफ़डीआई से आई विदेशी कंपनियाँ अपनी पकड़ यहाँ जमा सके। बाज़ार के इन सब कठिनाइयों के बावजूद आज स्ट्रीट वेंडरों के लिए 2014 का कानून एक आशा की किरण के समान है। जिसके लौ के सहारे स्ट्रीट वेंडर अपने जीवन में एक ऐसे आग की कल्पना कर रहे है जो उनके सारे परेशानियों के अंधेरे को खत्म कर खुशियों का प्रकाश लाएगा। बदलते बाज़ार मे स्ट्रीट वेंडरों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के विषय मे अध्ययन करने का प्रयास किया गया है। साथ ही स्ट्रीट वेंडरों की सामाजिक स्थिति के आधार पर भारतीय समाज में उनके स्थान को भी जानने का प्रयास इसके माध्यम से किया जा रहा है।

प्रमुख शब्द – स्ट्रीट वेंडर, बाज़ार, स्ट्रीट वेंडर अधिनियम, सामाजिक-आर्थिक स्थिति, वैश्वीकरण।

शोध आलेख

बाज़ार ऐसी जगह को कहते है जहां किसी भी चीज का व्यापार होता है। आम बाज़ार और खास चीजों के बाज़ार दोनों तरह के बाज़ार अस्तित्व में हैं। बाज़ार में कई बेचने वाले एक जगह पर होते है ताकि जो उन चीजों को खरीदना चाहें वे उन्हें आसानी से ढूंढ सकें।[1] आज बाज़ार के स्वरूप मे जो परिवर्तन हो रहा है उसका असर सिर्फ कुछ लोगों पर नहीं बल्कि पूरे समाज पर होता है। स्ट्रीट वेंडर भी इस बाज़ार और समाज का एक अभिन्न अंग है भले ही वह बाज़ार के असंगठित क्षेत्र का हिस्सा हो परंतु बदलते बाज़ार से स्ट्रीट वेंडर उतना ही प्रभावित होता है जितना की संगठित क्षेत्र के सदस्य। बाज़ार मे परिवर्तन वस्तु विनिमय से मुद्रा विनिमय और अब ई-कॉमर्स तक पहुँच गया है । परंतु इसमें सबसे बड़ा परिवर्तन वैश्वीकरण के कारण आया जिसने बाज़ार को अब स्थानीय से वैश्विक बना दिया जिसमे किसी एक स्थान पर मूल्य निर्धारित होता है और पूरा भारत उसी मूल्य पर वस्तुओं को बेचने पर मजबूर होता है । अतः आज इस बदलते बाज़ार के इस दौर मे असंगठित होने के कारण स्ट्रीट वेंडर कहीं न कहीं इस व्यवस्था पर आघात कर रहे है । फिर भी कहीं न कहीं स्ट्रीट वेंडर भी इस बदलते बाज़ार से प्रभावित होते है और वे भी इसी का एक अभिन्न अंग है।

समाज का एक अभिन्न अंग है- स्ट्रीट वेंडर

फ़ुटपाथ दुकानदार या स्ट्रीट वेंडर आज हमारे समाज का एक अभिन्न अंग है। ये हमारे शहर में गाँव में देश में बल्कि संसार के हर जगह आसानी से देखे जा सकते है। विश्व की लगभग 25% आबादी असंगठित व्यवसाय के रूप में जीविकोपार्जन कर रही है। फुटपाथ दुकानदार देश में असंगठित क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण भाग है। अनुमानतः अनेक शहरों में फुटपाथ दुकानदार आबादी का 2% है। लगभग प्रत्येक शहर में महिलाएं इन फुटपाथ दुकानदारों का एक बड़ा भाग है। फुटपाथ बिक्री शहरों और नगरों में गरीबों के लिए न केवल रोजगार का स्त्रोत है बल्कि इससे निचले तबके के लोगों को रोजगार भी मिलता है, अधिकांश शहरी आबादी और गरीबों को किफ़ायती और सुलभ सेवा प्रदान करने का जरिया है। ये फुटपाथ दुकानदार न सिर्फ सस्ता समान मुहैया कराते है बल्कि लोगों के दरवाजे तक भी वस्तुएँ और सेवाएँ प्रदान करते है। जिससे आज उन्हें वैश्वीकरण और बाजारीकरण के दौर में गरीब और निचले तबके के लोगों को हर सामान के लिए दूर और मॉल में नहीं जाना पड़ रहा।

एक फुटपाथ दुकानदार, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है जो अपने वस्तु की बिक्री सामान्य जन में करता है परंतु इसके लिए उसके पास कोई स्थायी स्थान नहीं होता जिस स्थान से वह अपने वस्तुओं की बिक्री कर सके । ऐसा नहीं है की ये दुकानदार हमेशा चलते रहते है अपितु कभी-कभी ये स्थायी रूप से एक जगह अपनी दुकान लगाते है लेकिन वह भी अस्थाई ही होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस स्थान पर वह रोज अपनी दुकान लगाता है वह उसकी नहीं होती। अधिकतर समय वह सड़कों के किनारे , दुकानों के आगे या किसी भीड़ भाड़ वाली जगहों पर अपनी दुकाने लगाते है । कई बार वे अस्थाई रूप से भी अपनी चीजों को घूम-घूम कर बेचते है। वे अपनी वस्तुओं को अपने शरीर पर, कंधों पर, धक्का गाड़ियों पर, साइकिलों पर यहाँ तक की अपने सरों के ऊपर टोकरियों में रखकर बेचते है।

A street vendor is broadly defined as a person who offers goods for sale to the public without having a permanent built up structure but with a temporary static structure or mobile stall (or hear load). Street vendors may be stationary by occupying space on the pavements or other public/private area, or may be mobile in the sense that they move from place to place carrying their wares on the push carts or in cycle or baskets on their heads, or may sell their wares in moving trains, bus , etc. in this policy document, the term urban vendor is inclusive of both traders and service providers, stationary as well as mobile vendors and incorporates all other local/region specific terms used to describe them such as hawker, Pheriwala, Rehri-wala, Footpath-dukandar, Sidewalk traders etc.(NCEUS 2006) Definition, as included in the National Policy on Urban Street Vendors, 2004, Department of Urban Employment & Poverty Alleviation, MUPA, GOI.[2]

स्ट्रीट वेंडिंग और वैश्वीकरण

भारत ही नहीं पूरे विश्व के बड़े शहरों और विकासशील देशों में फुटपाथ दुकानदारों की आबादी बढ़ती जा रही है। इसके दो मुख्य कारण, पहला वे लोग जो गरीबी और बेरोजगारी के कारण गावों से शहरों की ओर अपनी बेहतर जिंदगी की तलाश में आ रहे है और उन्हें अशिक्षित और अकुशल होने के कारण कोई संगठित क्षेत्र में काम नहीं मिल पाता। जिससे वे असंगठित क्षेत्र में ही काम तलाश करते है और कुछ फुटपाथ दुकानदार बन जाते है। दूसरा कारण है कि जो लोग बड़े देशों के संगठित क्षेत्रों में काम कर रहे है छटनी के कारण उन्हें भी असंगठित क्षेत्रो में आना पड़ रहा है । दोनों कारण वैश्वीकरण से जुड़े हुए है। आज वैश्वीकरण के कारण ही आज हर शहरों में बड़े बड़े मॉल खुल रहे है जिससे आज कई स्थायी-अस्थाई दुकानदारों के रोजगार छिन रही है।

According to the Bangladeshi delegates who the street vendors of Bangladesh were more vulnerable than these in the neighbouring countries due to poverty, lack of space for vending and lack of awareness about their rights (NASVI 2002)

स्ट्रीट वेंडिंग से उत्पन्न होने वाली सामाजिक समस्याएँ

माना जाता है कि फुटपाथ दुकानदार आज भारत में एक सामाजिक समस्या है। चूंकि अधिकतर फुटपाथ दुकानदार अशिक्षित और ग्रामीण होते है और नौकरी की तलाश में गाँव से शहरों की ओर आते है परंतु प्रयाप्त शिक्षा और कौशल न होने के कारण न तो उन्हें अच्छी नौकरी मिल पाती है और न तो वे कोई अच्छा रोजगार या व्यवसाय कर पाते है। जिससे वे या तो मजदूरी करते है या फिर फुटपाथ दुकानदार बन जाते है क्योंकि इसमें लागत और संसाधन कम लगता है और ये प्रचलन वैश्वीकरण के कारण दिन प्रतिदिन लगातार बढ़ती जा रही है जिससे शहरों में आज फुटपाथ दुकानदारों की संख्या में काफी इजाफा हुआ है और इनसे होने वाली समस्याओं में भी लगातार इजाफा हो रहा है। इनके कारण आज शहरों के सड़कों, चौराहों, फुटपाथों इत्यादि में हमेशा गंदगी दिखती है। इनकी दुकानें अव्यवस्थित रूप से सड़कों, चौराहों, फुटपाथों इत्यादि में लगे होने के कारण शहरों की यातायात तो बाधित होती ही है साथ में अव्यवस्था भी फैलती है और यहाँ तक की लोगों को पैदल चलने में भी समस्या पैदा होती है। गरीब होने के कारण ये दुकानदार रहने के लिए अक्सर शहरों में झुग्गी-झोपड़ियों का निर्माण करते है। जिस कारण बाल अपराध, वेश्यावृत्ति, गाली-गलोच, गंदगी से होने वाली बीमारियाँ इत्यादि मे भी इजाफ़ा होता है। यह भी शहरों मे बढ़ रही गंदगी का कारण है जबकि सरकार आज न जाने कितने करोड़ रूपये शहरों के सौंदर्यीकरण में खर्च कर रही है। प्रायः यह माना जाता है कि इन फुटपाथ दुकानदारों के कारण शहरों का विकास भी बाधित हो रहा है।

अपेक्षित उपाय

यहाँ एक बात महत्वपूर्ण है कि फुटपाथ दुकानदार सामाजिक समस्या के रूप में होने के साथ-साथ समाज का एक अभिन्न अंग भी है अतः इसके निपटान या विकास के लिए तीन उपाय हो सकते है :

  1. पूर्णतः उन्मूलन(Fully Abolishment)
  2. पूर्णतः वैधिकरण (Fully Legalized)
  3. मध्यस्थ मार्ग(Middle Way)

फुटपाथ दुकानदार यदि एक सामाजिक समस्या है तो सरकार को चाहिए कि इन्हे पूर्णतः उन्मूलन(Fully Abolishment) कर दिया जाए परंतु यह इससे न जाने और कितनी समस्याएँ सामने आएंगी। सबसे बड़ी समस्या यह है कि इससे स्ट्रीट वेंडरों के मानवाधिकार का हनन होगा साथ ही लघु उद्योगों का भी हनन होगा जिससे रोजगार की आवश्यकता बढ़ेगी और बाज़ार में अवसर में भी कमी आ जाएगी। परिणामस्वरूप निम्न और मध्य वर्गीय परिवार बाज़ार मूल्यों और मॉल के अधीन हो जाएंगे और उनका झुकाव ब्रांडिंग की और अधिक हो जाएगा। अतः यह उपाय असंभव प्रतीत होता है।

यदि फुटपाथ दुकानदार समाज के अभिन्न अंग है और समाज में इनका ख़ास स्थान है तो इन्हे हमारे समाज में पूर्णतः वैधिकरण(Fully Legalized) कर दिया जाए परंतु इससे भी कई प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न होंगी। इसमें सबसे बड़ी समस्या तो यह होगी कि फुटपाथ दुकानदारों के अलावे समाज के अन्य लोगों के मानवाधिकार का हनन होना तय है। वैधिकरण के पश्चात ये अपनी मर्जी से अपनी दुकानें कहीं भी लगा देंगे जो कि एक भयावह अतिक्रमण को जन्म देगा जिससे न सिर्फ यातायात में अव्यवस्था आएगी बल्कि लोगों को पैदल चलने में भी समस्या उत्पन्न होंगी, जिसके कारण लोगों को आवागमन में असुविधा होगी। इसका प्रभाव स्थायी दुकानदारों पर भी प्रतिकूल पड़ेगा। अक्सर इनकी दुकाने स्थायी दुकानदारों के आगे लगती है जिससे स्थायी दुकानदारों के बिक्री में कमी आती है और उनमें असंतोष तथा खीज़(फुटपाथ दुकानदारों के प्रति) की भावना भी पनपेगी। अतः यह उपाय भी पूर्णतः लागू करना असंभव प्रतीत होता है।

अंतिम उपाय के रूप में मध्यस्थ मार्ग(Middle Way) बचता है। चूंकि पूर्णतः उन्मूलन(Fully Abolishment) और पूर्णतः वैधिकरण (Fully Legalized) को लागू नहीं किया जा सकता। हमारे देश के किसी भी नागरिक के अधिकारों की रक्षा करना और उनके आजीविका का संसाधन तलाशना हमारे सरकार का कर्तव्य है। चूंकि अधिकतर फुटपाथ दुकानदार गरीब और अशिक्षित होते है तो सरकार को चाहिए की उन्हें भी विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए शिक्षित करे और कौशल बनाए। अतः मध्यस्थ मार्ग को अपनाते हुए सरकार को ऐसी नीति और नियम बनाने चाहिए जिसके द्वारा न तो फुटपाथ दुकानदारों को पूर्णतः समाप्त करना पड़े और न ही अन्य लोगों को फुटपाथ दुकानदारों से कोई परेशानी उठानी पड़े।

इसी के अंतर्गत एक स्वस्थ कानून की मांग करते हुए बहुत से असंगठित स्ट्रीट वेंडर संगठित होकर सामने आए जिसके परिणाम स्वरूप बहुत सालों से कठिनाइयों को झेलने के बाद स्ट्रीट वेंडरों के लिए कानून की मांग के आधार पर तथा एक लंबे संघर्ष के बाद 2004 में पहली राष्ट्रीय स्ट्रीट वेंडर पॉलिसी को पेश किया गया । जिसमें कुछ संसोधन के बाद 2009 में स्ट्रीट वेंडर पॉलिसी (जीविका का संरक्षण और स्ट्रीट वेंडिंग का विनियमन) लोकसभा में पेश किया गया और फिर संसोधन के बाद 6 सितम्बर 2012 में पुनः स्ट्रीट वेंडर पॉलिसी (जीविका का संरक्षण और स्ट्रीट वेंडिंग का विनियमन) लोकसभा में पेश किया गया। 19 फरवरी 2014 को राज्य सभा में यह पारित होकर 1 मई 2014 को एक कानून का रूप ले लिया। जिससे अब स्ट्रीट वेंडरों को कानूनी अधिकार मिल गए है जिससे वे अब निर्भीकता से अपना व्यवसाय चला पाएंगे। इस कानून को लागू करवाने में NASVI (National Association of Street Vendor in India) और सरित भौमिक (TISS) का बहुत बड़ा सहयोग है ।

निष्कर्ष

इस बदलते बाज़ार ने स्ट्रीट वेंडरों को एक ऐसे मोड पर ला कर खड़ा कर दिया है जिसमें स्ट्रीट वेंडर अपने आपको न तो सुरक्षित देख पा रहा है और न ही संकट में क्योंकि एक तरफ नगर पालिका उन्हे अतिक्रमण हटाओ अभियान के नाम पर सड़कों पर से कचरे के तरह हटा देता और दूसरी तरफ सरकार उनके लिए पॉलिसी और कानून का निर्माण कर उन्हे समाज का एक अभिन्न अंग साबित कर रहा है । जिससे आज स्ट्रीट वेंडरों की समाज में स्थिति दयनीय होती जा रही है । इसके लिए न सिर्फ सरकारी संगठनों का हाथ है बल्कि गैर सरकारी संगठन भी अपने उद्देश्यों में नाकाम रहे है। कानून के लागू होने के इतने वर्षों के पश्चात भी उन्हें समाज से अलग समझा जाता है। आज भी भारत के विभिन्न हिस्सों में इसे लागू नहीं किया गया है जिससे स्ट्रीट वेंडरों को स्थिति में सुधार कल्पना मात्र लगती है। आज स्ट्रीट वेंडरों की समाज में लोगों के मध्य एक ऐसी प्रतिबिंब बनी है जो ठीक प्रतीत नहीं होती। क्योंकि आज लोगों में एक ऐसे समाज की परिकल्पना है जो पश्चिमी देशों से प्रभावित है और फिल्मों के काल्पनिक जगत से प्रभावित है। अतः आम लोगों में स्ट्रीट वेंडरों के प्रति उदासीन भावना का जन्म हो गया है जो की पूंजीवादी समाज और सरकार की नीतियों व सोच से प्रभावित दृष्टि है।

भारतीय समाज में बाज़ारों में आज औपचारिक और अनौपचारिक दोनों प्रकार कामगारों का पर्याप्त स्थान है। स्ट्रीट वेंडरों भारतीय समाज के लिए महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ अभिन्न अंग भी है। कई स्तनों पर इनके द्वारा नगरीय समस्याएँ उत्पन्न जरूर हुई है परंतु भारतीय अर्थव्यवस्था में इनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। प्रशासन के द्वारा इनके लिए जो कानून और पालिसियों का निर्माण किया गया है, उसे ही यदि समान रूप से देश के विभिन्न हिस्सों में लागू कर दिया जाए तो इनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में तो सुधार होगा ही साथ ही इनसे उत्पन्न होने वाली समस्याओं में भी कमी आएगी परिणामस्वरूप यह विकास की मुख्यधारा में जुड़कर देश के विकास में अपना योगदान करेंगे।

संदर्भ सूची

  1. Alleviation, G. o.-M. (2014). Street Vendor(Protection of livelihood and regulation of street vending) Act.
  2. bandyopadhyay, R. (2011, September 26). A Critique of the National Policy on Urban Street Vendors in India, 2009.
  3. Bhawmik, S. (2007). Street vending in urban India: The struggle for recognition. londan: Routledge.
  4. bhawmik, s. k. (2015, 03 10). Social security for street vendors. pp. 1-16.
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  8. hi.wikipedia.org/wiki/बाज़ार
  9. Bhowmik, S. (2010). Street Vendors in the Global Urban Economy. New Delhi: Routledge Taylor & Francis Group. pg. xv

शोधार्थी समाज कार्य

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय

sajanbharti@gmail.com

Ph-7745840779

किन्नर का समाजः कुछ मुद्दंदे एक समाजशास्त्रीय अध्ययन

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किन्नर

किन्नर का समाजः कुछ मुद्दंदे एक समाजशास्त्रीय अध्ययन

सरिता गौतम

प्रस्तावना:

हमारे समाज में दो ही लिंग को पहचान मिली । स्त्री और पुरूष प्राचीन समय से ही स्त्री एवं पुरूष का काम आपसी सहयोग से संतान पैदा करना मानव जाति समाज को आगे बढ़ाना । और समाज में दो लिंग के अलावा एक अन्य प्रजाति की पहचान मौजूद है । जिसे हमारा समाज न तो स्त्री मानता है और न पुरूष । जो समाज का सृजन नहीं कर सकता । समाज में इन्हें हिंजड़ा, खोजा, किन्नर, छक्का,नपुंसक आदि उपनामों से सम्बोधित किया जाता है । समाज में इनका वास्तविक नाम किन्नर यौनिक पहचान के साथ ही समाज ने वास्तविक नाम किन्नर यौनिक पहचान के साथ ही समाज द्वारा मिटा दिया जाता है । किन्नर समुदाय में रीति रिवाजों के आधार पर नाम परिवर्तन यौनिक पहचान का एक हिस्सा है । भारतीय संविधान में इन्हें इटरसेक्स, ट्रांससक्सुअल और ट्रांसजेन्डर के रूप में पहचाना गया और इनकी पहचान का थर्ड जेंडर में ट्रांसजेन्डर की श्रेणी में रखा गया ।

तीसरे लिंग के अन्दर एक पहचान है यह पहचान उनकी पहचान है जो न ’स्त्री’ है और न ’पुरूष’ यह समाज के द्वारा निर्धारित जैविक सैक्स जिसे सामाजिक रुप से नहीं स्वीकारा जाता है और सैक्स के भीतर तीसरे सेक्स को नहीं मानता । समाज द्वारा निर्मित है , थर्ड जेन्डर थर्ड सैक्स का कोई सामान्य अर्थ नहीं है, जेंडर के सन्दर्भ में हमारे चेतना से है, यदि कोई बच्चा लड़का पैदा होता है और लड़की की तरह व्यवहार करती है तो यह उसका यौन उन्मुखता कहा जायेगा । थर्ड जेंडर एक तरफ से एकांकी न्यूट्रल है।जो अन्य जेंडर के भीतर नहीं है । इसमें सभी यौनिकताओं का समावेष सम्भव है । यौनिकता का आशय यौनिक्रिया और सम्बन्धों तक सीमित नहीं है । बल्कि यौनिकता से अभिप्रायः प्रवृत्तियों और व्यवहारों से है, जो विषम लिंग व समलिंग सम्बन्धों के अन्तर्गत गढ़ी जाती है और समाज के प्रत्येक व्यक्ति यौनिकता को एक ही तरह से महसूस और अभिव्यक्ति करे । जेंडर से यह पता चलता है कि हम अपनी यौनिकता को किस तरह से व्यक्त करते हैं । तीसरे लिंग के न्यूट्रल व्यवहार के कारण किन्नर समुदाय जो थर्ड सेक्स या उभयलिंग के रूप में जाना जाता है । किन्नर समुदाय स्वयं को थर्ड जेन्डर के भीतर ट्रांसजेंडर कहलवाना पसंद करते हैं । भारतीय समाज के रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं ने सदियों से किन्नर समुदाय का शोषण किया है । जो न तो स्त्री और न पुरूष है बल्कि किन्नर नपुंसक होने के कारण उन्हें दोहरे शोषण का सामना करना पड़ता है । किन्नरों को पितृसत्ता और शोषण को सहना पड़ता है भारतीय सामाजिक इतिहास के सभी काल खंडों की सामान्य विशेषता रही है । उनकी जैविक सरंचना से लेकर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक संरचना की स्थिति के पहलुओं को सामने लाने का प्रयास किया है । “करोलिने बी0 ब्रेरतेल्ल एवं करोलायन’’एक सृजेनट’’ प्रदीप सेल्ली हिनेस, महेन्द्र भीष्म, निर्मलाभुराड़िया जैसे विद्वानों ने किन्नर समुदाय की स्थिति एवं भूमिका को प्रस्तुत किया है । पौराणिक आख्याओं में किन्नर समुदाय का जिक्र मिलता है । रामायण, महाभारत और कौटिल्य के अर्थशास्त्र कामसूत्र उसके बाद मुगल इतिहास में बहुत सी धटनाएं शामिल हैं । यमदीप उपन्यास में नीरज माधव मानवी और आनन्द कुमार के माध्यम इनके इतिहास की गहराई में जाती है । अंग्रेजी में इनके लिए ’हरमोफ्रोडाइल्स’ की मूर्ति को स्त्री पुरूष प्रेम और सौन्दर्य का प्रतीक बताती है । मिस्त्र बेबीलोना और मोहनजोदड़ो की सभ्यता में इनका प्रमाण मिलता है । संस्कृतनाटकों में इनका उल्लेख है । कोटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया हैं, कि राजा को हिंजड़ों पर हाथ नहीं उठाना चाहिए ब्रिटिशसन काल में सुप्रीम कोर्ट ने 1987 से पहले किन्नरों को ट्रांसजेंडर को अधिकार दिया । 1987 में अंग्रेजों ने किन्नरों को क्रिमिनल कास्ट की संज्ञा दी । आधुनिक समय में उपजे विचार विमर्ष और अस्मिताओं के आन्दोलन का ज्यादा न सही कुछ प्रभाव किन्नरों की स्थिति पर पड़ा है । मुख्य चुनाव आयुक्त टी0एस0 शोषण द्वारा 1984 में ही किन्नरों को मताधिकार दे दिया गया था । 15 अप्रैल 2014 को सुप्रिम कोर्ट ने किन्नरों को तीसरे लिंग के रूप में कानूनी पहचान दी । कोर्ट ने कहा कि समाज में ’किन्नर’ आज भी अछूत बने हुए हैं । संविधान में दिये गये मौलिक अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए । कोर्ट ने शिक्षण , संस्थानों में प्रवेश तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिए जाने की भी वकालत की, ताकि किन्नर समाज का सामाजिक, आर्थिक,राजनैतिक, सांस्कतिक तथा धार्मिक रूप से उत्थान किया जा सके । और पास पोर्ट आदि के साथ अन्य आवेदन पत्रों में भी स्त्री-पुरूष के अतिरिक्त किन्नरों के लिए एक अन्य कालम की व्यवस्था की गयी है । राजनीति में भी एक दो प्रतिशत ही सही परन्तु हिंजड़ों का दखल होने लगा । शिक्षा , रोजगार, स्वास्थ्य सेवाओं में विशेष अवसर प्रदान कर उन्हें धारा (377) में लाया गया है ।

थर्ड जेंडर के अधिकार सम्मान की भावना का आधार बनाकर न्यायालय ने गोपनीयता के अधिकार व्यापकता प्रदान की । अपने जीवन जीने के निर्णय लेने का अधिकार भी शामिलहै । अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत सम्मान पूर्वक जीवन जीने के अधिकार एवं स्वास्थ्य के अधिकारों को उसी में शामिल किया गया है । सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक रूप से उत्थान करने के लिए अधिकार मिला । धारा (377) रद्द करने से एड्स तीव्रता से फैलेगी यह तर्क पूरी तरह निर्धारित है क्योंकि यह गलत और असंगत मान्यताओं पर आधारित है । धारा (377) के कारण स्वास्थ्य के अधिकार का उल्लंघन होता है । अनुच्छेद (14) के कानून के समक्ष समानता की बात कही गई है । समलौगिक समुदाय के साथ किया जाने वाला भेदभाव गलत और दोषपूर्ण है तो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होता है । अनुच्छेद 15 के अन्तर्गत सेक्स के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित या जैविक सेक्स को लेकर भेदभाव करना कानूनन दण्डनीय अपराध’’कोर्ट ने साल 1987 में अमेरिकी सर्वोच्च अदालत के फैसले का हवाला दिया, जिसमें आपसी सहमति से समलौंगिकों के यौन सम्बन्ध को अपराध करार दिया गया था । इस फैसले को फिर से समलौगिकता को लेकर प्राकृतिक अप्राकृतिक नैतिक-अनैतिक, वैध-अवैध की बहस तेज हो गई ।

किन्नर का अर्थ किन्नर हिन्दी के दो शब्दों ’कि’ और ’नर’ से मिलकर बना है जिनकी यौनि और लिंग की आकृति पूर्णतः मनुष्य की नहीं मानी जाती है । ट्रांसजेंडर, अंग्रेजी के दो शब्दों ’ट्रांस’ और ’जेंडर’ से मिलकर बना है । जिसका अर्थ जेंडर से परे वे सभी लोग जो समाज द्वारा बनाए गये । ’आदमी’ और ’औरत’ के दो ढांचों से ’परे’ है । उदाहरण के लिए कोई शारीरिक रूप से मर्द तो हो सकते हैं लेकिन लिंग परिवर्तन करा लेते हैं । जिनके जन्म के समय लिंग या यौनि होती है, उसे अंग्रेजी में ’इंटरसेक्स’ कहते हैं । वैंडीय, आफलहेंरटी, (1973),हिंजड़ा ऐसा समुदाय है जो न तो स्त्री है और न ही पुरूष जिनकी कोई पहचान नहीं थी । हिंजड़ा को महिलाओं की पहचान मिली जिन्हें थर्ड जेंडर की श्रेणी में रखा गया । बी0पी0सिंघल – सार्वजनिक नैतिकता को सुरक्षित रखने के लिए राज्य द्वारा लोगों को मौलिक अधिकारों को सीमित करना जायज है । ’’न्यायालय ने डा0अम्बेडकर के वक्तव्य का उल्लेख किया जिसे संविधान सभा में दिया था कि ’’संवैधानिक नैतिकता केवल एक प्राकृतिक विचार नहीं है, कि हमारे लोगों को अभी तक इसकी जानकारी नहीं है । भारत की व्यवस्था मोटे तौर पर अलोकतांत्रिक है ।“मेरी बर्नस्टीन’’, “गे और लैस्बियन’’ आंदोलन के सांस्कृतिक लक्ष्यों में पुरूषत्व, स्त्रित्व, समलौगिक से भय तथा विषमलांगिक के वर्चस्वषाली संरचना को चुनौती देना है । भारत में किन्नर समुदाय के कुछ अलग- अलग भूमिकाएं हैं, और इस समुदाय में अलग तरह से पूजा होती है, इनमें आजीविका कें साधन भी अलग होते हैं । उत्तर भारत में बधाई का रिवाज चलता है । अक्सर माना जाता है कि किन्नर सौभाग्य लाते हैं । इसलिए जब बच्चा पैदा होता है या शादी होती है तो किन्नर जाकर उस जोड़े को या उस बच्चे को बधाई देते हैं । फिर उस किन्नर की टोली को पैसा मिलता है । दक्षिण भारत के हिंजड़ों में यह रिवाज नहीं होता । वहां के किन्नर अपनी आजीविका के लिए ज्यादा यौन कर्म करते हैं और भीख मांगते हैं । मिश्रा,गीतांजलि,(2011) “डिस्किृमिनलाइजिंग होमोसेक्सुअली इन इण्डिया’’ सामाजिक रूप से उत्पीड़ित भारत में धारा (377)प्रावधान के तहत (ए0जी0बी0टी0) के साथ किया गया भेदभाव व्यवहार कानून दण्डनीय अपराध या अवनीत है । गायत्री, रेड्डी, एण्ड सेरेना, नन्दा, (2011) “हिंजडाः अन अल्टरनेटीव सेक्स एण्ड जेंडर इन इण्डिया’’ इसका उद्देष्य ऐतिहासिक समाज में तीसरे जेंडर का उदविकास था । हिंजड़ा समुदाय में जाति का संस्तरण होता है, या हाराइकिकस की व्यवस्था पायी जाती है । हिन्दू तथा मुस्लिम हिंजड़ा के धर्म में अन्तर है । ब्रिटिशसन में हिंजड़ों की संस्कृति में परिवर्तन, अंग्रेजों ने हिंजड़ा को क्रिमिनल कास्ट की श्रेणी में रखा । इनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक स्थिति जैसे कारक है । ऋतुपर्णा, बाराँ, (2011) “खुलती परतें यौनिकता और हम” का उदेश्यष्य ट्रांसजेंडर कौन है । का विष्लेषण प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । जिसका अध्ययन क्षेत्र “निरन्तर संस्था’’ समुदाय के बीच की शैक्षणिक संदर्भ सामग्र निर्माण,शोध पैरवी और प्रशिक्षण के द्वारा अपने उद्देष्य की ओर बढ़ता है । ट्रांसजेंडर कितने प्रकार के और किन्नर के प्रति समाज की धारणा हिंजड़ा समुदाय के भीतर एक तरह की दर्जाबंदी है । हिंजड़ों में सबसे ऊॅचा स्थान “मा पेट हिंजड़ा’’ दूसरा -’’अक्वा हिंजड़ा, तीसरा ’निवार्ण हिंजड़ा’’ट्रांसजेंडर के साथ मानवाधिकार का हनन जैसे-शिक्षा,आजीविका, स्वास्थ्य,जीवन के हर पहलू में भेदभाव, को देखते हुए तमिलनाडू ’हिन्दुस्तान’ का पहला राज्य है । जिसने हिंजड़ा समुदाय को सरकारी मान्यता 2008 में दी यह बदलाव हिंजड़ा समुदाय के आन्दोलन की वजह से हुआ । इसमें किन्नर की स्थिति और भूमिका को बताया गया है। पिनार, इकाराकान, और सूजी, जौली, (2004), “जेंडर और यौनिकता’’ को अनुभावनात्मक बताया है । जिसका उद्देष्य सेक्स जेंडर आधारित पहचान व भूमिकाएं यौन रूझान कामुकता, आनंद, अंतरंगता और प्रजन ये सभी यौनिकता के अन्तर्गत आते हैं । जैसे – शारिरिक मनोवैज्ञानिक, समाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक जो यौनिकता के कारकों को प्रभावित करती है । (विश्व स्वास्स्थ्य संगठन 2004)जोसप, सहराज, (1996), ने लेख “गे एण्ड लेस्बियन इन इण्डिया’’ इस लेख का उद्देष्य- गे और लंस्बिमन की भूमिका 15 दिसम्बर 1993 अमंरिका में गे और लेस्बियन की समीति बनी । अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस (2007) “भारतीय महिलाओं की स्वास्थ्य सनद’’ (एल0जी0बी0टी0महिलाओं) समाज में उपेक्षित जीवन जीने को मजबूर हैं । उदाहरण विविध जेंडर (लिंगभाव) पहचान, लौंगिक रूझान, और समान लिंग जाति, वर्ग, धर्म ,वंश , व्यवसाय की सीमाओं को लांघते हैं । भारतीय पौराणिक कथाओं में भी समलौंगिक अभिव्यक्तियों का पता चलता है । प्राचीन कलाकृतियों में भी समलौंगिक कामवासना का पता चलता है । ट्रांसजजेंडर को खासकर हिजड़ों को उपखण्ड के समाजों में सदियों से स्वीकृति प्राप्त है । गैर विषम लौंगिक को परिवार और समाज दोनों ने दबाया है । इनकी स्थिति हाशिए पर है । (एल0जी0बी0टी0) के लिए सुप्रीम कोर्ट ने धारा (377) प्रशिक्षण, रोजगार, स्वास्थ्य सेवा के लिए चिकित्सालय उपलब्ध कराए जांए । घर वालों, दलालों, गुंडों और ग्राहकों द्वारा हिंसा से ट्रांसजेंडर/ द्विलौंगिक वैश्यावृत्ति की रक्षा की जाये । भीष्म, महेन्द्र, (2014), “किन्नर कथा’’ के माध्यम से इस विषय उद्देश्य समाज में किन्नरों के साथ हो रहे भेदभाव का जिक्र किया है कि समाज एवं परिवार दोनों ने इनका अपमान, उपेक्षा और तनाव से ग्रसित करता है । किन्नरों को मुख्यधार से जोड़ने की प्रकारांतर से पैरवी की है । सौरव, प्रदीप, (2012), “तीसरी ताली” लेखक का उद्देष्य हैं कि किन्नर की सामाजिक संस्थाओं एवं जीवन संघर्ष की महत्वपूर्ण जानकारी दी । जैसे रोजमर्रा के जीवन उनकी संस्कृति, व्यवसाय तथा मुख्य धारा के समाज में उनके साथ बर्ताव, सामाजिक व्यवस्था को अवनति का मुख्य कारक बताया । इतिहास में इनकी स्थिति भिन्नता लिये हुये कुछ अच्छी दिखायी देती हैं । मुगल काल संगठन में ये राजाओं के महलों में रहते थे और रानी एवं राजाओं की सेवा करते थे । लेकिन वर्तमान समय में इनको समाज से बाहर कर दिया गया है ।

यह बड़े चिन्ता का विषय है । किन्नरों की बात की जाये तो उन्हें समाज में कोई नया स्थान नहीं दिया जाता है । चाहे वो शोषण का शिकार हो चाहें उनके ऊपर अत्याचार हो । उनका उल्लेख किसी भी शोध प्रबन्ध में यथा स्थान नहीं मिलता है । उन पर ईश्वर का ऐसा अभिशाप है कि भारतीय समाज की संरचना किन्नरों की जिन्दगी का सबसे बड़ा कारण है । समाज के लोग इनको देखना भी मुनासिब नहीं समझते हैं। समाज इनको अस्पृश्य एवं अपवित्र समझता है । भीष्म ने अपनी किन्नर कथा में कहा है, सामाजिक भेदभावके कारण किन्नर समुदाय मानसिक तनाव से ग्रस्त है । क्योंकि लैंगिक विकलांगता के कारण उन्हें उपेक्षित एवं एकान्तपूर्वक जीवन जीना पड़ता है । क्योंकि ये सेक्स नहीं कर सकते और बच्चे पैदा नहीं कर सकते हैं । इस कारण समाज ने उन्हे हशिये पर धकेल दिया है ।

संदर्भ ग्रन्थ सूची:

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पी0एच0डी0 शोध छात्रा,

समाज शास्त्र एवं समाज कार्य विभाग

एच0 एन0 बी0 गढ़वाल केन्द्रीय विश्व विद्यालय श्रीनगर गढ़वाल ।

मेल-saritagautam222@gmail.com

थर्ड जेंडर –सामाजिक अवधारणा एवं पुनरावलोकन

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थर्ड जेंडर

थर्ड जेंडर –सामाजिक अवधारणा एवं पुनरावलोकन

शोभा जैन

हमारा पूरा समाज दो स्तम्भों पर खड़ा है पुरुष और स्त्री ।  लेकिन हमारे समाज में इन दो लिंगों के अलावा भी एक अन्य प्रजाति का अस्तित्व मौजूद है । समाज में इन्हें ‘थर्ड जेंडर’ और आमतौर सामाजिक रूप से उपनाम ‘किन्नर’ शब्द से भी संबोधित किया जाता है । प्रकृत‌ि में मौजूद ये प्रजाति नर नारी के अलावा एक अन्य वर्ग में गिनी जाती है जो न तो पूरी तरह नर होता है और न नारी। जिसे लोग किन्नर या फिर ट्रांसजेंडर के नाम से संबोधित करते हैं। इसी कारण आम लोगों में उनके जीवन और रहन-सहन को जानने की जिज्ञासा भी बनी रहती है। स्त्री-पुरुष के साथ ही शास्त्रों में किन्नरों का वर्णन भी मिलता है। ‘थर्ड जेंडर’ के अंदर एक अलग गुण पाए जाते हैं। इनमे पुरुष और स्त्री दोनों के गुण एक साथ पाए जाते हैं। संविधान में इन्हें इंटरसेक्स, ट्रांससेक्सुअल और ट्रांसजेंडर के रूप में पहचाना गया और इनकी पहचान को थर्ड जेंडर में ट्रांसजेंडर श्रेणी में रखा गया । न्यायालय द्वारा किन्नर समाज को तीसरे दर्जे का नागरिक एवं आरक्षण दे कर समाज में उनके प्रति सद्भावना का संदेश दिया गया है। दरअसल ये सदैव  समाज में चर्चा का विषय रहें हैं | आज कल इनकी मानसिक स्थिति और सोच पर कई शोध हुए हैं | आखिर हैं तो ये भी ईश्वर के बनाये इंसान ही। दरअसल ‘थर्ड जेंडर’ का संदर्भ हमारे मस्तिष्क से है, यदि कोई बच्चा लड़की पैदा होती है और लड़को की तरह व्यवहार करती है तो यह उसका यौन अभिविन्यास (Sexual Orientation) कहा जाएगा । थर्ड जेंडर एक तरह से न्यूट्रल है जो अन्य जेंडर के भीतर नहीं है । इसमें सभी यौनिकताओं का समावेश संभव है । यौनिकता का आशय यहाँ यौन क्रिया और यौन संबन्धों तक सीमित नहीं है बल्कि यौनिकता से अभिप्राय प्रवृतियों और व्यवहारों से है ।  इनके पैदा होने पर ज्योतिष शास्त्र का मानना है कि चंद्रमा, मंगल, सूर्य और लग्न से गर्भधारण होता है। जिसमें वीर्य की अधिकता होने के कारण लड़का और रक्त की अधिकता होने के कारण लड़की का जन्म होता है। लेकिन जब गर्भधारण के दौरान रक्त और विर्य दोनों की मात्रा एक समान होती है तो बच्चा ‘किन्नर’ पैदा होता है । ‘थर्ड जेंडर’ से जुडी बहुत सी एसी मान्यतायें और बातें रही है जिनकी जानकारी का अभाव अक्सर एक आम इंसान को रहा शायद इसलिए ‘थर्ड जेंडर’ के जीवन के बेहद प्रेरणास्पद और जानने योग्य पहलुओं से आम समुदाय अक्सर अछूता ही रहा या यूँ कहे वे केवल चर्चा,परिचर्चा तक ही सिमित रहे उसके निष्कर्ष और समाज को मिलने वाली सकारात्मक उर्जा को प्रकाश में उस तरह से नहीं लाया गया जिस तरह से आमतौर पर स्त्री –पुरुषों और एक सामान्य इंसान के जीवन से जुड़े पहलुओं को लाया जाता है । जबकि पूरी दुनियाँ में स्त्री –पुरुष के प्रकार एक ही है उनके गुण और विशेषतायें एक ही हैं ये जरुर है की हर कोई अपने स्वभाव में अलग हो सकता है और उसी वजह से दुनियाँ को उन्हें देखने का द्रष्टिकोण भी अलग –अलग हो किन्तु मानव अधिकार तो सभी के लिए जो इंसान के रूप में जन्में है एक समान है। जीने के लिए जितनी चीजे जरुरी है वे हर इन्सान के प्राथमिक अधिकारों का अहम हिस्सा है किन्तु समाज का ये वर्ग आज भी अपने अधिकारों से वंचित यह समुदाय मानव विभेद का प्रतिक इंसानी अधिकारों से मरहूम आमतौर पर सामान्य जन के हर शुभ कार्य की रस्मों से जुड़ा है किन्तु इनका अपना जीवन शुभकामनाओं से दूर क्यों ? यह विषय बहुत अधिक गहन चिन्तन के साथ -साथ इस बात पर सोचने के लिए भी विवश करता है की समाज का ये वर्ग अपने लिए एक बेहतर जिन्दगी तो बहुत दूर अपने अधिकारों के लिए भी अपनी लड़ाई लड़ते है ।

जबकि समाज का ये वर्ग आज से नहीं आदिकाल से बल्कि महाभारत काल से एक प्रेरणा स्त्रोत के रूप में सामने आया है महाभारत में शिखंडी की कथा प्रसिद्ध है वह एक किन्नर थे  उन्हें अबध्य माना जाता था । पौराणिक आख्यानों में रामायण, महाभारत और कौटिल्य के अर्थशास्त्र, कामसूत्रम् उसके बाद मुग़ल इतिहास में बहुत सी घटनाएँ मौजूद हैं । पांडवों को अपने बनवास का आखिरी वर्ष अज्ञात वास से काटना था सब छुप सकते थे पर धनुर्धर अर्जुन ,पूरे आर्यावर्त  में प्रसिद्ध था उसने ब्रह्नल्ला के नाम को धारण कर किन्नर के रूप में राजा विराट की नृत्य शाला में राजा की पुत्री उत्तरा को नृत्य सिखा कर सुरक्षा से बिताये | इसके अतिरिक्त यह भी मान्यता रही हैं की इनकी दुआएं किसी भी व्यक्ति के बुरे समय को दूर कर सकती है । मुगल काल में किन्नरों की पूरी फौज मुगल हरम की रखवाली करते थी | कई किन्नर राजनीति में भी थे सुल्तान अलाउद्दीन का  सलाहकार  मलिक काफूर किन्नर था वह  सुल्तान का दाया हाथ था | अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद वह किंग मेकर भी बना | किन्तु आज ये जानते हुए भी की इंसानी अधिकारों से मरहूम यह समुदाय कई रस्मों और शुभ कार्यों से जुड़ा है इनके लिए जीना एक अभिशाप बन गया है और मरना भी सुकून से बहुत दूर हैं । एसी मान्यता रही है की किन्नर की म्रत्यु किसी भी समय हो किन्तु उनकी शव यात्रा हमेशा रात को ही निकाली जाती थी इतना ही नहीं शव निकालने से पहले शव को जूते- चप्पलों से पीटा जाता है और पूरा समुदाय एक सप्ताह तक भूखा रहता है वास्तविकता में अगर इस द्रश्य को देख लिया जाय तो कठोर से कठोर इन्सान भी रो पड़े किन्तु उनके लिए ये मरने की रस्म भी है और पूरे जीवन पर सवाल उठाता एक कदम भी आखिर किसी का जीना इतना अभिशप्त कैसे हो सकता है? उनके साथ सहानुभूति के अभाव में कहीं न कहीं आज वे आपराधिक मामलों में स्वयं को लिप्त कर रहें है । इसलिए सामाजिक भीड़ में वे अलग- थलग ही हैं जहाँ वे जाते है लोग उनसे कतराकर निकल जाते है किन्तु शादी ब्याह बच्चे के जन्मोत्सव पर दुआए देने भर के लिए वे जरुरी होते है । लोगो से जो वो शगुन मांगते है बस वही उनकी दुआओं की कीमत है। .वे दुआएं जो हर इंसान के लिए बेहद अनमोल होती है हालाँकि न्यायलय द्वारा बहुत बड़ा और अहम फैसला लिया गया है इस समुदाय के प्रति की यह पढ़ लिख कर सामान्य जीवन जी सकेंगे। बस आवश्यकता है समाज के संवेदनशील व्यवहार की और इन्हें भी अपने भीतर अपनी कार्य शैली और सोच में बदलाव को महसूस कर स्वयं को आमजन के जीवनानुरूप स्थापित करने की । जीवन के किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए इंसानी अधिकारों का उपयोग सही तरीके से होना आवश्यक है । समाज को इस समुदाय के प्रति अपना नजरियाँ सहानुभूतिपूर्ण होने के साथ- साथ सहयोगी और संवेदन शील भी बनाने की आवश्यकता है । साहित्य में भी ‘थर्ड जेंडर’ को विश्लेषित करते हुए बहुत कुछ लिखा गया जिनमें  उनकी जैविक संरचना से लेकर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक संरचना के भिन्न-भिन्न पहलुओं को सामने लाने का प्रयास किया गया उपन्यास साहित्य में ‘थर्ड जेंडर’ समुदाय को केन्द्रित करते हुए चार उपन्यास यमदीप, तीसरी ताली, किन्नर कथा और गुलाम मंडी थर्ड जेंडर पर केन्द्रित प्रचलित उपन्यास रहें है । और आगे भी अन्तर्द्रष्टि से शोध कर इन पर लिखने की आवश्यकता है जिससे समाज इनके बारे में अधिक से अधिक जान सके । हालाँकि थर्ड जेंडर समुदाय धीरे-धीरे समाज की मुख्यधारा में अपनी जगह बना रहा है किन्तु उन्हें उसके लिए काफी मशक्कत करनी पड़ रही है तरह तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है । क़ानूनी रूप से भले ही अधिकार मिल गए हो किन्तु समाज की मानसिकता से इस वर्ग का संघर्ष अभी जारी है ।

सुप्रीम कोर्ट ने थर्ड जेंडर को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा मानते हुए सरकारी भर्तियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण देने के निर्देश दिये है । संविधान की धारा १४,१६ और २१ का हवाला देते हुए थर्ड जेंडर को सामान्य नागरिक अधिकार शिक्षा रोजगार और सामाजिक स्वीकार्यता पर समान अधिकार देने के निर्देश जारी किये गए है इसी के साथ राज्य सरकार ने तृतीय लिंक समुदाय को शासन की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ दिलाने के लिए सभी जिलों में जिला स्तरीय समितियों के गठन के निर्देश जारी किये है । समय के परिवर्तन के साथ क़ानूनी रूप से विकास हो रहा है किन्तु सामाजिक रूप से इंसानियत से बेहद परे आज भी ये समुदाय अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है । समाज ने इंसानियत के जिस तकाजे पर इस समुदाय को मनुष्यता के सामाजिक पैमाने से बाहर किया । वही मनुष्यता मुख्य धारा से अधिक इनमें दिखती है । इतिहास और पौराणिक आख्यानों में कहीं भी इन्हें अनुपयोगी नहीं माना गया है, न ही पुनरउत्पादन की प्रक्रिया में इनकी निष्क्रियता को इनके मनुष्य होने पर ही चिंहित किया गया है,  जैसा कि समाज में होता है । समाज की सोच में शोध चिन्तन की महती आवश्यकता है क्योकि सामाजिक धारणाओं और पौराणिक कथाओं से भिन्न साहित्य में इनकी एक अलग छवि गढ़ी गई है । इस छवि की पड़ताल अनेक संदर्भों के साथ करने की जरुरत है । साथ ही साहित्य की अंतर्दृष्टि  ‘थर्ड जेंडर’ को कैसे देखती है यह समझना व देखना भी आवश्यक होगा । निः संदेह ‘थर्ड जेंडर’ समुदाय के प्रति सामाजिक द्रष्टिकोण जैसे विषयों पर पुनरावलोकन एवं गहन अध्ययन की आवश्यकता है । बहुत काम करना होगा इस विषय पर हर संदर्भ में जाकर खोजना समझना होगा । केवल अवलोकन द्रष्टि या उपरी सतह से सिर्फ उनके उपनामों को परिभाषा ही मिल पायेगी। वास्तविक सम्मान नहीं । किसी भी रूप में इंसान का होना अपने आप में एक जेंडर है उसे हीन भावना से देखना या फिर उसके प्रति अपनी संवेदनशीलता को छद्म कर देना मानवता और इंसानियत दोनों के लिए अभिशाप है । शायद ‘इंसान होने के नाते इन्सान का फर्ज इंसानियत का सम्मान और सुरक्षा होना चाहिए, न की लिंग भेद जैसी ओछेपन से ग्रसित मानसिकता से उनका आंकलन विश्लेष्ण कर समाज को प्रदूषित करना’। मनुष्य के रूप में इन्सान होने के नाते ‘थर्ड जेंडर’ से संबोधित इस समुदाय के प्रति ‘सामाजिक दुर्व्यवहार’ को पनपने से रोकना इंसानियत के लिए एक शुभ कार्य की पहल होगी ।

उज्जैन में आयोजित वर्ष २०१६ का महाकुम्भ इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है की ‘थर्ड जेंडर’ के प्रति तुलनात्मक द्रष्टि से समाज में बड़ा परिवर्तन आया है ये समुदाय धीरे-धीरे समाज की मुख्यधारा में अपनी जगह बना रहा है। महाकुम्भ में प्रथम बार ‘थर्ड जेंडर’ संप्रदाय का एक अलग स्थान निर्धारित कर लाखों श्रध्दालुओं ने उनसे आशीर्वाद एवं दुआएं लेकर समाज के इस वर्ग पर पुनरवलोकन कर अंतर्दृष्टि डालने की पहल कर दी है साथ ही उनसे जुड़े विषयों पर आधारित सामाजिक अवधारणा पर चिन्तन और शोध करने हेतु विवश भी किया है ।

नाम –शोभा जैन

स्थान –‘शुभाशीष’, सर्वसम्पन्न नगर,इंदौर

कार्य क्षेत्र –आलेख, कहानी, कविता,शोध पत्र लेखन में संक्रिय मुद्रित एवं अंतर्जाल पत्रिकाओं में प्रकाशन स्वतंत्र लेखन पी-एच.डी.रिसर्च स्कालर –‘हिंदी साहित्य’

संपर्क –mob .-9977744555

e-mail –idealshobha1@gmail.com

यौनिकता की बहस में मिथक

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kinner vimarsh sahitya

यौनिकता की बहस में मिथक (इला और नर-नारी /उर्फ : थैंकू बाबा लोचनदास नाटक )

-भावना मसीवाल

यौनिकता का आशय मनुष्य की यौनिक पहचान से जुड़ा है और यह पहचान आज व्यक्ति की बजाय समाज सापेक्ष्य है। यौनिकता अपने स्वभाव में परिवर्तनशील है । कभी वह एक यौनिक पहचान, कभी दो और कभी किसी भी पहचान को नहीं मानती है, क्वीयर लोगों की तरह । “90 के दशक की शुरुआत में नरसिंहराव और मनमोहन सिंह एंड कंपनी ने एडम स्मिथ के ‘इनविजीबल हैंड’ को जैसे ही खुली छुट दी”[1]। पहली बार तब यौनिकता, सेक्स जैसे विषयों पर बातचीत होना आरंभ हुआ । इसमें पत्रिकाओं की मुख्य भूमिका रही । मुंबई से प्रकाशित होने वाली डेबोनायर पत्रिका और उसके बाद ‘सेवी’ नामक महिला पत्रिका इसमें प्रमुख थी । यौन व्यवहार को लेकर जिसने पहली बार सर्वे कराया था। इस सर्वे का एक कारण 1983 में एड्स बीमारी का उभरना था । दूसरा कारण 1986 में भारत में इसके पहले रोगी की पहचान होना था । इस रोग के फैलने के कारणों में दो कारण प्रमुख थे, असुरक्षित समलैंगिक और विषमलैंगिक यौन संबंध। एड्स के डर से विश्व संस्थाओं ने देह व्यापार के दायरों और समलैंगिक दायरों की जाँच आरंभ की । इन्हीं कारणों से तीसरी दुनिया में यौनिकता पर बहस की शुरुआत होती है । 

यौनिकता का विषय आज भले ही हमें नया लगता है । परंतु वास्तविकता यह है कि इस पर बहस का एक लंबा सिलसिला परंपरा, इतिहास और पुराणों में मौजूद है जिन्हें हम मिथक कहते है । अंग्रेजी के शब्द मिथ का हिन्दी रूप मिथक है और इस शब्द का प्रयोग आधुनिक काल में हुआ । आधुनिक काल में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के लेखन से यह शब्द उभरता है । डॉ श्यामा चरण दुबे का मानना है कि “परंपरा में मिथक भी है, ऐतिहासिक तथ्य भी । मिथक सामाजिक तथ्य है, ऐतिहासिक तथ्य नहीं”[2]।’दिविक रमेश लिखते हैं कि “मिथ और मिथक अपनी अर्थगत संकल्पनाओं में समान नहीं हैं । मिथ को प्रायः तर्क के विपरीत कोरा कल्पनाधर्मी अधिक माना जाता रहा है । जबकि मिथक अलौकिकता का पुट रखते हुए भी लोकानुभूति का वाहक होता है”[3]। पश्चिम में मिथ शब्द यूनानी ‘मुथॉस’ से आया जिसका अर्थ था मौखिक कथा । अरस्तु इसके लिए गल्पकथा और कथाबंध का प्रयोग करते है । मिथक को लेकर कई अवधारणाए मौजूद है, कुछ इसे कल्पना मानते है । ‘मिथक संसार का तर्क सामान्य संसार पर लागू नहीं होता’[4] कुछ सामाजिक यथार्थ के निकट, कुछ का मानना है कि यह लोक की अभिव्यक्ति का माध्यम रहा है । इस तरह मिथक कल्पना होने के बावजूद समाज के बहुत नजदीक देखा जा सकता है ।

आधुनिक संदर्भों में नाटककार जिससे जुड़ने का प्रयास भी करता रहा है । 70 के दशक में जब वैश्विक पटल पर नारीवादी आंदोलन के दौरान जेंडर, सेक्स और यौनिकता पर बहस चल रही थी और माना जा रहा था एक समय पूर्व तक समाज में केवल एक ही जेंडर पहचान उपलब्ध थी और मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप इन पहचानों को बनाया है । भारत में भी उस समय इसका प्रभाव सामने आ रहा था । प्रसाद के नाटकों में यह बहुत छोटे रूप में देखा जा सकता है परंतु 90 के बाद के लेखन में इसका विशेष प्रभाव रहा । प्रभाकर श्रोत्रिय का नाटक इला और नाग बोडस का नाटक नर-नारी (उर्फ : थैंकू बाबा लोचनदास) मिथकीय आधार पर यौनिकता की इस बहस को मिथक के आधुनिक पाठ के रूप में सामने लाता है। इला नाटक की मूल कथा श्रीमद भागवत के नवम स्कंध के पहले अध्याय सुधुम्न की कथा है । यह नाटक स्त्री-पुरुष की जैविक संरचना से लेकर स्त्री-पुरुष के भीतर दोनों ही गुणों के मौजूद होने, स्त्री-पुरुष संबंधों और उनके व्यवहार, समाजीकरण की प्रक्रिया का हावी होना जैसे मुद्दों को उठाता है । यौनिकता पर चली आ रही लंबी-लंबी बहसों से एक बहस यह नाटक पैदा करता है सुद्युम्न के रूप में । सुद्युम्न जिसकी अपनी एक निश्चित पहचान नहीं है। समाज, राज्य और सत्ता ने अपने अनुरूप उसे बनाया है । दूसरी ओर नाग बोडस का ‘नर-नारी’ नाटक बाबा लोचनदास की लोककथा को आधार बनाकर लिखा गया । यह स्त्री और पुरुष संबंधों के साथ ही एक निश्चित यौनिक पहचान होने की संभावना के प्रश्न को उठाता है। दोनों ही नाटक मिथक को आधार बनाते हुए आज के तत्कालीन जेंडर और यौनिकता के प्रश्नों को उठाते है।

शासक अपना दायित्व अपनी सत्ता को बनाए रखने में चाहता है । इसी निहितार्थ व अन्य परस्पर संबंधों को भी ताक पर रखने से पीछे नहीं हटता । ‘इला’ नाटक के अंतर्गत मनु का चरित्र सत्ता के चरित्र के रूप में सामने आता है । जिसकी अपनी महत्वकांक्षा और सत्ता लोलुपता उसे मानवीय गुणों से दूर कर देती है । मनु के व्यक्तितत्व का कुछ ऐसा ही रूप जयशंकर प्रसाद की कामायनी में भी देखने को मिलता है । वहां भी मनु अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर श्रद्धा को छोड़कर चले जाते है और यहाँ भी प्रभाकर श्रोत्रिय मनु के उसी चरित्र को उभारते है जो ‘पुत्र’ की जगह ‘पुत्री’ इला के जन्म का दोषी श्रद्धा को मानता है और अपने आत्मसम्मान के हनन का कारण भी । ‘…..सारी दुर्घटना की जड़ है-महारानी ! अब तक मैं जिसे अपना संपूर्ण प्रेम देता रहा, वह सर्पिणी निकली ! स्त्री के चरित्र को देव भी नहीं जान सकते। कृतध्न नीच !’[5] यहाँ नीचता का संबंध बेटी पैदा करने से है । क्योंकि मनु के लिए श्रद्धा का अस्तित्व राज्य का उत्तराधिकारी पैदा करना था । आज भी हमारे समाज में महिलाएं बेटा पैदा करने की मशीन मानी जाती है । जिसके लिए महिलाओं के सारे अधिकार छीन लिए जाते है कि उनकी अपनी इच्छा क्या है? आज भी सवाल ही बनकर रह जाता है। फिर चाहे वह कितना ही बुद्धिवादी क्यों न हो ? वह तर्क के आधार पर स्वयं को सही साबित करने का सदैव प्रयास करता है जैसा कि मनु करते हैं “मांगती तो राज्य का उत्तराधिकारी मांगती, लड़की नहीं ”[6] और बहस करने पर वह खुद को सही साबित करते है कि ‘उसका क्या कसूर है ? उसे भी सत्ता और समाज को देखना है और उसका संचालन करना है । इसके लिए वंश परंपरा के निहितार्थ यदि वंश कामना भी की तो क्या गलत किया’ । मनु और श्रद्धा के माध्यम से लेखक समाज में स्त्री–पुरुष संबंधों और उनमें वर्चस्ववादी मूल्यों की गहरी पेठ को उभारते है।

मनु का अपनी पत्नी श्रद्धा द्वारा लिया गया केवल एक निर्णय उनके अस्तित्व को ही प्रश्नांकित कर देता है । इनके स्वतंत्र अस्तित्व को पुनः राजमाता, पत्नी धर्म में बांधने का प्रयास करता है । आज के संदर्भों में इसे देखे तो पाते है कि आज भी कन्याभूर्ण हत्या, पुत्र की चाहत की अपेक्षा महिलाओं से की जाती है । आज भी संतान को धारण करने से लेकर पैदा करने तक के सभी निर्णय पिता व परिवार द्वारा लिए जाते है । महिला की उपस्थिति केवल गर्भधारण करने और पैदा करने के दौरान उसके पालन पोषण तक सीमित रहती है । उससे जुड़े निर्णय लेने में वह आज भी अक्षम है । श्रद्धा के जिस मनोभाव को प्रभाकर श्रोत्रिय उठाते है यही कामायनी में प्रसाद उठाते है और यही स्थिति आज की आधुनिक महिला की भी है । मातृत्व के गुणों से तो जिसे भरा गया मगर अधिकार नहीं दिया गया । बल्कि समाज में आज दिखावा मौजूद है कि आप बेटियों के चाहते हैं उनके ही हितैषी है । मगर वास्तविकता समाज की आज मनु जैसी है जो कहतें हैं “दूसरों की कन्याओं से प्रेम करना और अपने लिए कन्या चाहना दो अलग बाते हैं, देवी ।”[7] यहाँ बौद्धिक वर्ग के व्यवहारिक और सैद्धांतिक मतों के अंतर को समझा जा सकता है इसके साथ ही महिलाओं की स्वतंत्रता की चाह रखने वालों की मानसिकता को भी ।

आज की तकनीकी क्रांति ने जहाँ टेस्ट ट्यूब बेबी, सेरोगेसी और शरीर में बदलाव से लेकर सेक्स बदलवाने तक की प्रक्रिया को सहज बना दिया गया । ऐसे में चुनाव का मसला आसान हो गया है । आप को किस सेक्स को अपनाना है और किसे छोड़ना है । अपना शरीर किस रंग, रूप और गुण के अनरूप चाहना है । इसे आप सेरोगेसी और टेस्ट ट्यूब के जरिए पा सकते है । यह तकनीक 21 वी सदी की है मगर नाटक में यह पहले से सुद्युम्न के रूप में मौजूद है । सुद्युम्न इला का ही दूसरा रूप है जिसे पितृसत्ता ने अपने हित के लिए इला से सुद्युम्न के रूप में उपचार के माध्यम से परिवर्तित किया । क्योंकि उसे उत्तराधिकारी की आवश्यकता थी और एक महिला राज्य की उतराधिकारी नहीं हो सकती इसके कारण इला को पुरुष बना कर मनु अपने अहम् और अपनी सत्ता को सुरक्षित रखते है । इला का अपना वजूद मनु के लिए कोई मायने नहीं रखता था कि वह किस यौनिक पहचान के साथ जीना चाहती है । समाज में जेंडर पहचान के अंतर्गत एक जेंडर को सक्षम और दूसरे को उससे कमतर माने जाने की सामाजिक प्रक्रिया का ही परिणाम, इला का सुद्युम्न में परिवर्तन था । इस तरह सुद्युम्न पितृसत्ता की मानसिकता से उभरा एक ऐसा पात्र है जो अपनी यौनिक पहचान की लड़ाई से जूझ रहा है । आखिर वह क्या है ? क्यों वह जैसा दिखता है उसके अनुरूप व्यवहार नहीं करता ? क्यों उसकी कल्पनाएँ इच्छाएं कही ओर ही उड़ान भरती है ? मगर हर तरह से वह दबाया जाता है । उसे क्रूर, कठोर, हत्यारा होने की परवरिश दी जाती है । परंतु भीतर से वह कोमल स्वभाव का है । उसकी कोमलता पिता, पत्नी और सत्ता द्वारा कुचली जाती है । उसका अस्तित्व समाजीकरण की प्रक्रिया में भीतर-भीतर ही घुटता रहता है । “ भीतर से खींचता था कोई मन / बाहर खींची जाती थी बांह ”[8]

यौनिकता का एक संदर्भ आज के आधुनिक युग में उन लोगों के लिए भी है जो किसी एक जेंडर पहचान को नहीं मानते। न स्त्री न पुरुष । उन्हें फिर समाज किस श्रेणी में शामिल करेगा । पुत्री नहीं चाहिए थी तो पुत्र में तब्दील कर दिया । मगर अब तो उसमें दोनों गुणों का समावेश है । ऐसे में समाज पुनः उसे स्वीकार करने से मना कर देता है । क्योंकि उसकी नजरों में पुरुषोचित और स्त्रियोचित गुणों का अपना एक खांका निर्मित है । उस खांके में जो भी फिट नहीं होता समाज उसे तुरंत बाहर कर देता है । यह स्थिति आज हमारे समाज में थर्ड जेंडर के सामने भी मौजूद है । जिनकी यौनिक पहचान समाज के तयशुदा खांचो में फिट नहीं होने के कारण समाज में अलग पहचान के रूप में उभरी। सुद्युम्न के समक्ष भी बार-बार खुद को एक खांचे में बनाए रखने का संघर्ष है । सुद्युम्न कहता है –‘क्या मैं बलिदान के लिए तैयार किया जाने वाला पशु हूँ ? यह राजसत्ता विकराल है ..यह पशुसत्ता कभी न थमनेवाली आंधी है महत्वकांक्षा..’[9]। इसी सत्ता ने उसकी पहचान को मिटा उसे दूसरे की पहचान के साथ जीने पर मजबूर किया । वह पहचान थी भावी सम्राट की। वह नहीं चाहता था इस पहचान को मगर उसपर जबरदस्ती इसे लादा जाता है । सुद्युम्न की पत्नी सुमति भी बार-बार सम्राट होने की इसी पहचान से उसे परिचित कराती है । जिस पर सुद्युम्न, सुमति से कहते है कि “कितना विरोधाभास है। जो बात तुम मुझसे कह रही हो, वह पिताजी माँ से कहते थे ! और जो मैं तुमसे कह रहा हूँ वह माँ पिताजी से कहती थी”[10]। सुद्युम्न का यह कथन समाज में निर्धारित स्त्री-पुरुष छवि और उनके निर्धारित कार्यों पर सवाल उठाते है । कि आवश्यक नहीं कि महिला होने से आप में स्त्रियोचित गुणों का भी समावेश स्वतः ही हो जाए और उसी तरह पुरुषों को भी कठोर होना आवश्यक नहीं । यह तो समाजीकरण की प्रक्रिया का एक हिस्सा है । क्यों हम मनुष्य को हमेशा ही ब्लेक और व्हाइट के चश्में से ही देखना पसंद करते है और भी रंग मौजूद है उन्हें देखने के । और रंगों की यही विविधता यौनिकता है ।

सुद्युम्न के प्रश्न मानवीयता के प्रश्न है कि आखिर शासक और सत्ता कठोरता को ही क्यों शासन का हथियार बनाती है ? जबकि वह केवल डर को जन्म देता है । क्यों क्रूरता उसका तत्व है ? क्यों प्रेम, कोमलता और स्नेह को अच्छे शासक की कमज़ोरी और शासक के योग्य गुण नहीं माना जाता । आधुनिक संदर्भो में जब भी महिलाएं सत्ता में आई उनके व्यवहार में वही कठोरता स्वतः ही मौजूद देखी गई । क्योंकि सामाजिक गढ़न में शासक के जिन गुणों को बताया गया वह धीरोदात्त होना था । यह अवधारणा नाट्यशास्त्र और रीतिकाव्यों में देखी जा सकती है । उसी धीरोदात्तता के गुणों से परिपूर्ण न होने पर सुद्युम्न पहले पिता, पत्नी और समाज में लांछित होता है और बाद में स्वयं को साबित करने के द्वंद्व से जूझता है । सुद्युम्न शखण वन पहुँचने पर खुद से सवाल करता है ‘मैं पूछता हूँ रानी कि क्या कठोरता और क्रूरता का नाम ही पुरुष है ?…क्या राजा की सत्ता स्नेह से नहीं चल सकती ?…अगर नहीं चलती तो ये जंगल के जीव ये लताएँ , ये निर्झर, ये पुष्प, ये पक्षी इतने मुक्त इतने स्नेहिल कैसे रहते ?[11]’। सुद्युम्न का प्रश्न केवल उसके अंतःकरण का नहीं है बल्कि आज भी समाज में ऐसे बहुत से लोग मौजूद है जो इसी मानसिक द्वंद्व से गुजर रहे है । या स्त्री और पुरुष गुणों के साथ आम मनुष्य की तरह जीना चाहते हैं । यदि राज्य अपनी निश्चित यौनिक पहचान से बाहर उन्हें स्वीकार कर भी लेता है मगर समाज उन्हें स्वीकार नहीं करता है ।

हम स्र्त्री–पुरुष और किसी विशेष जेंडर पहचान से बाहर आकर मनुष्यता की बात करते हैं तो मनुष्य वह होता है जिसमें संवेदना मौजूद हो । अर्थात उसमें स्त्री गुणों का होना आवश्यक है तभी वह सम्पूर्ण रूप से मनुष्य हो सकता है । क्योंकि समाज में संवेदना का संबंध महिलाओं से होता है । यह बात प्रभाकर श्रोत्रिय इला में गुरु वशिष्ठ और उनकी पत्नी अरुंधती के संवादों के माध्यम से सामने लाने का प्रयास करते है । वह कहते “स्त्री में पुरुष तत्व और पुरुष में स्त्री तत्व के विशेष समन्वय से ही सही अर्थ में स्त्री और पुरुष बनते हैं । पुरुष तत्व से रहित स्त्री मिट्टी की लोथ होती है; अनिर्णय, हीनता और पिलपिलेपन से ग्रस्त और अगर पुरुष स्त्री-तत्व से रहित हो, तो वह निरा राक्षस होता है –अंहकार, क्रूरता और संवेदनहीनता का पुतला”[12]। इला नाटक के माध्यम से प्रभाकर श्रोत्रिय स्त्री और पुरुष की सामाजिक परिकल्पना के आइने को तोड़ते है जहाँ स्त्रीत्व का संबंध केवल महिला और पुरुषत्व का संबंध पुरुष से होता है । वह स्त्री-पुरुष में दोनों ही गुणों के समावेश को उनकी संपूर्णता का मानक मानते है । प्रभाकर श्रोत्रिय की तरह ही नागबोडस अपने नाटक नर-नारी में में कांतीलाल उर्फ़ कांता के माध्यम से कहते हैं-“हर आदमी के अंदर अपने चाह की एक औरत होती है । अब ये अलग है कि वो चाह कभी पूरी नहीं होती”[13]…वैसे जो बारीकी से देखा जाय, तो आदमी औरत में अंदरूनी फरक बोहोत ज्यादा नहीं है । अब बदन की तो कुदरत की ज़रूरत है । उसे छोड़ो । वर्ना नजदीकी, बिछोह, डाह, पिरेम ये सब औरत आदमी में बराबर–बराबर ई होते हैं ”[14] । यह विचार उस दौर में आधुनिक रहा और आज भी यह किसी एक यौनिक पहचान की निश्चितता पर सवाल खड़ा करता है । क्योंकि यौनिकता अपने आप में बहुत बड़ा ‘टर्म’ है। जो मनुष्य के मानसिक व्यवहार से लेकर शारीरिक व्यवहार तक में देखी जा सकती है । ऐसे में कैसे उसे एक खांचे में देखा जा सकता है ? यह विचारणीय है ।

इला नाटक के माध्यम से नाटककार ने स्त्री और पुरुष मन के रहस्यों को उद्घाटित करने का प्रयास किया । क्योंकि स्त्री और पुरुष की निर्धारित छविओं में एक को कोमल दूसरे को कठोर बताया जाता रहा है । जबकि वास्तविकता में पुरुष में भी कोमल भावनाएं विद्यमान होती है । यहाँ इला और सुद्युम्न एक ही शरीर में दो आत्माएं है । जो एक दूसरे को जानते और समझते है । सुद्युम्न कहता भी है ‘स्त्री होकर मेरे पुरुष ने जहाँ कोमलता और सुंदरता का अमृत-कुंड पाया है, वही जाना है अग्नि धर्म और हिमानी जैसी शीतलता का रहस्य !”[15] इसी तरह सुद्युम्न आगे कहता है कि मेरी स्त्री ने पुरुष की देह में रहते हुए जाना है, कर्तव्य और प्रेम का ऐसा द्वंद्व जिसकी छाया भी नहीं है वह आत्मसंघर्ष जिसे अकेली स्त्री या अकेला पुरुष भोगता है । पुरुष देह में मेरी स्त्री ने पाया है कि स्त्री की रक्षा के अहंकार में पुरुष नारियल की खोल की तरह कठोर और सूखा होकर भी उसके रस, रूप और स्पर्श की रक्षा के लिए समर्पित है’[16]। दूसरी ओर वह अपने अकेलेपन, हीनता, विपन्नता और असहाय होने के आंतरिक द्वंद्व को स्त्री पर अधिकार के रूप में पूरा करने का प्रयास करता है । स्त्री न होकर पुरुष अपनी श्री हीनता और कठोरता में कितना, विपन्न, कितना अकेला और कितना असहाय है ! इन्हीं सब खाइयों को भरना चाहता है वह स्त्री को अर्जित करके उसका अतिक्रमण करके । इसीलिए वह कभी नहीं सह पाता स्त्री द्वारा अतिक्रमित होना, हावी होना”[17]। आज भी बलात्कार के जितनी घटनाएं हमारे सामने आती हैं । वह कुछ नहीं पुरुषसत्ता की इसी मानसिकता का परिचायक है । और बलात्कार उसके पौरुषत्व को साबित करने का एक हथियार ।

जेंडर स्त्री और पुरुष समानता की बात करता है । क्योंकि इस सिद्धांत का मानना है कि स्त्री और पुरुष दोनों ही संरचनाएं समाजीकरण का हिस्सा है । और दोनों की मानसिक बुनावटो को समझे बिना उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता है । इला नाटक के माध्यम से प्रभाकर श्रोत्रिय स्त्री और पुरुष की उसी मानसिक निर्मिती को सामने लाते है । जहाँ वह हिंसा के जरिए स्त्री पर अपना अधिकार स्थापित करता है और दार्शनिक बनकर उसके अस्तित्व से ही इनकार कर देता है । वास्तविकता में वह बौनेपन को छुपाने के लिए “स्त्री की सत्ता से ही इनकार कर देता है”। प्लेटो, अरस्तु से लेकर कबीर तुलसी तक सभी ने स्त्री की सत्ता को स्वीकार करने की अपेक्षा उसे इनकार किया है । जबकि स्त्री और पुरुष के बीच का यह अंतर प्रकृतिजन्य नहीं है बल्कि मनुष्य की लालसाओं की देन है । प्रभाकर श्रोत्रिय इसे महसूस करते है । वह सुद्युम्न के माध्यम से इस विचार को सामने भी लाते है । जहाँ वह कहता है कि “मैंने दोनों के अर्थ और संबंध को समर्पण और ग्रहण की संपूर्णता में पहचाना है । आज मैं कह सकता हूँ कि उनके बीच के तनाव प्रकृत नहीं है, वे मनुष्य के विकृत विधान से उपजे हैं”[18] । समाज में स्त्री-पुरुष असमानता और इनसे अलग थर्ड जेंडर समुदाय आज जिस पहचान के संकट से जूझ रहा है । उसका एक कारण पितृसत्तात्मक मानसिकता है जिसने समाज में दो सेक्स पहचान को सही ठहराया । और उससे अलग पहचान को समाज के दायरे से ही बाहर कर दिया । जबकि उनकी पहचान का संदर्भ इतिहास और पुराणों में मौजूद है । उस वक्त जो स्वीकृत था आज किस तरह उसे समाज में अस्वीकृत बना दिया गया । यह आज का उभरता प्रश्न है हमारे समक्ष ।

नर-नारी उर्फ (उर्फ : थैंकू बाबा लोचनदास) नाटक के माध्यम से नाग बोडस ने लोक में बाबा लोचनदास के मिथक के माध्यम से स्त्री-पुरुष संबंधों और उनमें भी पुरुष के स्त्री भेष में रहने की सामाजिक प्रथा के माध्यम से इन संबंधों की यथास्थिति पर प्रकाश डाला है । यह आवश्यक नहीं की स्त्री-पुरुष अपनी निर्धारित छवियों में ही समाज में मौजूद रहे । उनसे इत्तर छवि भी मौजूद है । जैसा कि गाँव में सभी पुरुषों का सात दिनों तक महिला बनकर रहना और उनकी तरह व्यवहार करना दूसरा कांतीलाल का कांता बनकर नौटंकी में महिला पात्र की भूमिका अदा करना । लोक में बाबा लोचनदास के मिथक के माध्यम से नागबोडस ने पुरुष और महिला के संबंधों में सखी भाव को जगह देने की बात की । ऐसे में कांतीलाल उर्फ़ कांता और गुल्लो का संबंध इसी सखी भाव से उपजा संबंध था । “कांता (गुल्लो) तेरी काया दिमाग में आई और अपनी पोशाक पे नजर गई और दोनों बेमेल लगे और फिर शर्म पे शर्म कि कैसे जाऊ तेरे सामने । और तब जिंदगानी में पहली दफ़ा जो बात समझी कि औरत का भेस रखना बहुत मुश्किल काम है”[19]। कांता, गुल्लो का यह वार्तालाप पुरुष का स्त्री को समझने की प्रक्रिया का पहला चरण रहा । गुल्लो की भी मानसिक स्थिति कांतीलाल जैसी ही थी । क्योंकि सामाजीकरण में हमने कभी महिला-पुरुष की एक वेशभूषा के संदर्भ में सोचा ही नहीं । मगर गुल्लों स्वीकारती है और सखी रूप में अपनाती है और खुश होती है पति को इस रूप में पाकर । क्योंकि आज समाज में पति-पत्नी संबंधों में मित्रता से अधिक सत्ता संबंध देखे जाते हैं ।

नागबोडस ने अपने समय में पश्चिम और भारत में चल रहे नारीवादी आंदोलन के दौरान उठ रहे महिला- पुरुष संबंध, लिंगभेद, यौनिकता जैसे सवालों को इस नाटक के माध्यम से उठाने का प्रयास किया । पूरे गाँव के पुरुषों का लोचनबाबा की पूजा में एक सप्ताह तक महिला के रूप में रहना और उस प्रथा के दौरान स्वयं को उसी रूप में ढालना । दर्शाता है कि एक समाज ऐसा भी है जहाँ पुरुष का महिला के रूप में रहना अपमान नहीं है । भले ही कारण लोचन बाबा का इस गाँव को श्राप रहा है । परंतु एक कारण स्त्री को समझना भी रहा है । दिलावर का गाँव पहुंचना और मज़बूरी में दिलवरी बनाए जाने के बाद, एक मिथकीय कल्पना को गढ़ना और कहना उसने एक बार सपने में भगवान् से महिला और पुरुष के बीच के अंतर के कारणों को जानना चाहा था । और भगवान उसे कहते है सुनो, आदमी औरत का फरक समझना बहुत मुश्किल ।…हमने खुद तजुर्बे से समझा ..मोहिनी के रूप में..संजोग की बात देखों कि तजुर्बे का मौका मिल गया : जै बाबा लोचनदास”[20]। यह तजुर्बा जेंडर भेद को समझने की एक प्रक्रिया या तकनीक के रूप में अपनाया जा सकता है ।

मगर एक सवाल यह नाटक ओर उठाता है वह स्वानुभूति और सहानुभूति का । क्योंकि भले ही गाँव के सभी पुरुष बाबा लोचन दास के श्राप के कारण महिलाओं की वेशभूषा धारण करते है परंतु उनकी मानसिकता व स्वभाव में उसका प्रभाव नहीं मिलता । चमेली के साथ पुरुषों ने आक्रामक व्यवहार किया । उसके “गाल छूकर अपनी उगलियों का चुंबन लेकर ..” जैसा दुर्व्यहार किया जाना । कांतीलाल इसका विरोध करते हैं “एक अबला के साथ ऐसा सुलूक ?..लोचन बाबा की तुम्हारी पूजा झूठी । तुम्हारा नेम झूठा । आज पूजा करी और आज ही एक देवी के संग ऐसा व्यवहार ”[21]। अपने आप में शर्मनाक घटना रही । इला नाटक में भी मनु का व्यक्तित्व इसी तरह का रहा जहाँ वह कहते हैं “दूसरों की कन्याओं से प्रेम करना और अपने लिए कन्या चाहना दो अलग बाते हैं”[22]। यहाँ यह सवाल भी समाज के समक्ष उभरकर आता है कि आज भी सैद्धांतिक तौर पर स्वयं को महिलावादी या महिला हितैषी कहने वाले कितने ही पुरुष व्यवहारिकता में पितृसतात्मक मानसिकता से ग्रसित देखें जाते हैं । महिला उनके लिए वहां भी एक कमोडिटी से अधिक कुछ नहीं होती है ।

नर-नारी नाटक उत्तर भारत में विशेष रूप से नौटंकी में पुरुषों की महिलाओं के रूप में सक्रिय भागीदारी को उजागर करता है । जहाँ संगीत नृत्य में पारंगत होने व आर्थिक रूप से सबल न होने के कारण बहुत से युवा इस पेशे को अपनाते है और समाज में यौन शोषण का शिकार होते हैं । उनके शोषण का सबसे बड़ा कारण उनके पुरुष रूप में स्त्री गुणों का होना था । जैसा कि दिलावर कांतीलाल उर्फ़ कांता के नौटंकी में काम करने के दौरान उससे रिश्ता कायम करने का प्रयास करना “तू जमीदार की साली नहीं, दिलावर की कांता है ।(कांता के गले में बाहे डालता है और उसे चूमने की कोशिश करता है । कांता अलग होकर उसमें एक चिंटा जड़ देती है”[23]। )’ दिलावर का चमेली, कांता और कांतीलाल की पत्नी गुल्लो के साथ का व्यवहार उसकी पितृसत्तात्मक मानसिकता को उद्घाटित करता है । जहाँ उसके लिए स्त्री –पुरुष दोनों ही यौन आनंद का माध्यम है उससे अधिक कुछ नहीं । यहाँ यौनिक शोषण किसी एक खांचे में बंधा नहीं है । बल्कि आज लडकियों, लड़को के साथ ही थर्ड जेंडर समुदाय तक को मानवतस्करी के दौरान यौन शोषण का शिकार होना पड़ता है ।

कुल मिलाकर देखा जाए तो इला और नर-नारी उर्फ़ थैक्यू बाबा लोचनदास दोनों ही नाटक अपने समय में चल रहे महिला आंदोलन और ट्रांसजेंडर समुदाय के सवालों पर लेखन के जरिए बात करते हैं । और स्त्री-पुरुष संबंधो के अंतर के मूल कारणों को सामने लाने का प्रयास करते हैं । दोनों ही नाटककार लेखन के माध्यम से महिला और पुरुष के बीच खीची विभाजक रेखा को समाजीकरण का हिस्सा मानते हैं । क्योंकि स्त्री–पुरुष में शारीरिक संरचनात्मक भेद के अलावा जो सामाजिक भेद मौजूद है वह प्राकृतिक नहीं बल्कि मनुष्य द्वारा ही बनाया गया है । दोनों ही नाटक स्त्रीत्व और पुरुषत्व गुणों से पूर्ण व्यक्ति की कामना करते है । क्योंकि इन दोनों तत्वों में से एक की भी कमी उनकी मनुष्यता पर खतरा है । यहाँ मनुष्यता का आशय संवेदनाओं का होना है । यह दोनों ही नाटक पौराणिक और लोक में व्याप्त मिथकों के आधार पर यौनिकता के सवाल को भी उठाते है कि व्यक्ति की यौनिकता आवश्यक नहीं कि एक ही तरह की हो जैसे सुद्युम्न का चरित्र भले ही मनु की मानसिकता से उभरा परंतु उसका व्यक्तित्व स्त्री और पुरुष दोनों ही गुणों के साथ सामने आता है । नर-नारी नाटक में कांतीलाल का कांता के रूप में नौटंकी में काम करना उसे ख़ुशी देता है दूसरी ओर वह अपनी पत्नी गुल्लो से भी प्रेम करता है । यौनिकता अपने स्वभाव में परिवर्तनशील होती है । इस तरह श्रीमद भागवत के नवम स्कंध के पहले अध्याय से सुद्युम्न की कथा और लोक से बाबा लोचनदास की कथा को नाटकों में प्रयोग किया गया और इन मिथकों के जरिए आज के समय की ‘ट्रांसजेंडर’ बहस को उजागर करने का प्रयास किया गया। सुद्युम्न का चरित्र आज के ट्रांसजेंडर समुदाय की मानसिक स्थिति को उजागर करता है । यह वह समुदाय था जिसे समाज ने हाशिए पर रखा । क्योंकि वह उनसे अलग थे । किसी ने उनके मनोभावों को समझने का प्रयास नहीं किया । राज्य व सत्ता अपना हित देखती है और सुद्युम्न इन सबसे घिरा मगर फिर भी अकेला अपनी पहचान के प्रश्न से जूझता है । आज इनकी ‘पहचान’ बहस का केंद्र है । भले ही संविधान में इन्हें थर्ड जेंडर के अंतर्गत शामिल किया गया है । बावजूद समाज में इनकी क्या पहचान है ? यह भी एक सवाल है । क्योंकि आज भी उत्तरप्रदेश व अन्य बहुत से स्थानों पर नौटंकी में काम करने वाले पुरुषों को महिलाओं की भूमिका निभाने के कारण समाज में हाशियाकरण, शोषण और मज़ाक का पात्र बनने पर मजबूर होना पड़ता है । इसीलिए आज आवश्यकता है ‘डी-जेंडर’ होने की । अर्थात जेंडर की इस व्यवस्थित संरचना को तोड़ना, ताकि यह लोग भी समाज का हिस्सा बन सके । और खुद को एक जेंडर, सेक्स और यौनिक पहचान के रूप में साबित करने पर मजबूर न हो ।

विशेष संदर्भ

इला, प्रभाकर श्रोत्रिय, आकाशदीप पब्लिकेशन, संस्करण-1996, नई दिल्ली

  • नर-नारी, नाग बोडस,वाणी प्रकाशन, द्वितीय संस्करण-2005, नई दिल्ली
  • स्त्री मुक्ति का सपना, (अतिथि सं.) अरविंद जैन, लीलाधर मंडलोई, (सं.)कमला प्रसाद, राजेन्द्र शर्मा, वाणी प्रकाशन, आवृति संस्करण-2014, नई दिल्ली
  • परंपरा, इतिहास बोध और संस्कृति, डॉ श्यामाचरण दुबे, राधाकृष्ण प्रकाशन, संस्करण-2008, नई दिल्ली
  • भारतीय रंगकोश, संदर्भ हिंदी खण्ड-2 रंग व्यक्तित्व, (सं.) प्रतिभा अग्रवाल, अमिताभ श्रीवास्तव, नाट्य शोध संस्थान, कोलकाता
  • मोहन राकेश: रंग शिल्प और प्रदर्शन: डॉ. जयदेव तनेजा, राधाकृष्ण प्रकाशन,पहली आवृति-2002, नई दिल्ली
  • रंग प्रक्रिया के विविध आयाम, (सं.)प्रेम सिंह और सुषमा आर्य, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2007
  • हिंदी नाट्य परिदृश्य, (सं.)डॉ. धीरेन्द्र शुक्ल, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, संस्करण-2004
  • हिंदी नाटक, बच्चन सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, आवृति- 2008
  • http://www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/2001/myth.htm
  1. स्त्री मुक्ति का सपना,(सं.)कमला प्रसाद, पृ-79

  2. परंपरा, इतिहास बोध और संस्कृति, डॉ श्यामाचरण दुबे, पृ-30

  3. http://www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/2001/myth.htm

  4. परंपरा, इतिहास बोध और संस्कृति, डॉ श्यामाचरण दुबे,पृ-30

  5. इला, प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ- 34

  6. इला, प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ- 37

  7. इला, प्रभाकर श्रोत्रिय

  8. इला, प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ- 47

  9. इला, प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ- 57

  10. इला, प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ- 60

  11. इला, प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ- 66

  12. इला, प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ- 100

  13. नर-नारी, नाग बोडस, पृ-51

  14. नर-नारी, नाग बोडस, पृ-52

  15. इला, प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ- 114

  16. इला, प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ- 114

  17. इला, प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ- 114

  18. इला, प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ- 115

  19. नर-नारी, नाग बोडस, पृ-38

  20. नर-नारी, नाग बोडस, पृ-18

  21. नर-नारी, नाग बोडस, पृ-34

  22. इला, प्रभाकर श्रोत्रिय

  23. नर-नारी, नाग बोडस, पृ-28

कहानी-ज्यों चकमक में आग: शिवानी

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kahani9 shivani

कहानी

ज्यों चकमक में आग

शिवानी, जयपुर

मोबाइल- 9509105005

“तुमने पहले कभी कुछ काहे नहीं बताया जिज्जी? सब मिल बैठ के बात करते! कोई तो समाधान ढूँढते! ऐसे कैसे घर से निकाल दिए? हम सब ना हैं का? कानून भी तो साथ है ना जिज्जी! धीरज धरो! तुमाए भाईसा आएँगे तो बैठ के सब बतलाना। वो बात करेंगे जमाई बाबू से और उनके घरवालों से!” उमेसी धाड़-धाड़ रोती अपनी नणद को चुप करा रही थी, आँसू पौंछ रही थी और अपने हाथों से निरंतर उस के बालों और पीठ को सहलाए जा रही थी

“भाभी…” नणद गैंदी भौंचक्की सी उसकी छाती से चिपकी पड़ी थी…” मैं सोची अभी हाल ठीक हो जाएँगे, रैन दूँ… फालतू में सबको काए परसान करना! पर जे तो कछु समझबे को तैयार ई ना!” आगे कुछ कहना चाहती थी गैंदी, पर हिचकियाँ बंध गई थीं।

“ना जिज्जी! रोबे से कछु ना होएगा!” उमेसी जी भर के दिलासा दिए जा रही थी। “बियाह किए… कोई तज थोड़ी दिए बेटी कू! कोई बी ऊँच-नीच में खड़े हो जांगे सामने जा के, बासा और तुमाए भाई सा!” उमेसी गैंदी को दिलासा दे रही थी।

“भाई सा?” गैंदी ने चेहरा ऊपर उठाकर भाभी को आश्चर्य से देखा!

उन अचरच भरी आँखों का सामना करना उमेसी के लिए कठिन था। फिर भी उसने भीतर की सारी शक्ति बटोर कर गैंदी के सिर पर हाथ फेरते हुए मुस्कुराहट बिखेरी “हाँ जिज्जी! तुमाए भाईसा! और भाईसा ई ना, बासा और माँसा भी! तुम देखियो…सब खड़े होंगे तुमाए साथ!”

“भाभी…सच कहो हो?” गैंदी अभी भी आश्वस्त नहीं हो पा रही थी। ये भाभी वो लड़की थी जो शादी के छह-आठ महिने बाद ही ससुराल में दुखी हो कर एक बार पीहर चली गई थीं और उनका भाई उल्टे पैरों उसे वापस छोड़ गया था। फिर उसके बाद उस ने कभी पीहर का मुँह न देखा था! पर हाँ इतना ज़रूर था कि ससुराल में रहकर ही कठिन संघर्षों से अपने लिए प्रेम, आदर और स्नेह कमाए थे!

“घूरे के बी दिन फिरे हैं जिज्जी! अपन तो फिर बी बैरबानियाँ ठैरी!”

“तो का तुमाए दिन फिर गए भाभी?”

“तुमने मेरी भली कही! अबी अपणी सोचो!” उमेसी ने बात बदलने की कोशिश की। आगे न गैंदी कुछ पूछ सकी और न उमेसी कह पाई। दोनों ही अतीत की गलियों में भटकते हुए दुखी मन से अपनी-अपनी तक़दीर के बारे में सोच रही थीं।

गैंदी की पनीली आँखों में हृदय में संचित स्मृतियों की परछाइयाँ चहल-कदमी करने लगीं। बंद आँखों के आगे कुछ मंज़र घूम रहे थे।

सगुनी बुआ शादी के आठ महीने बाद ही उभरा हुआ पेट लेकर लौट आई थीं सदा सदा के लिए। बिना ये जाने-समझे कि क्यों तो वो लौट आईं और क्यों वापस नहीं जाना चाहती? ताऊजी ने उन्हें घसीटकर बाहर कर दिया था। दिन भर भूखी-प्यासी सुगनी बुआ भी वहीं चौंतरे पर बैठी रहीं पर लौटकर ससुराल नहीं गईं। दादी भी आँसू पौंछती ड्योढ़ी पर बैठी रहीं पर बिटिया को भीतर ले आने की हिम्मत नहीं कर पाईं। दो जीवा बेटी को भूखा-प्यासा देखकर उन्होंने भी उस दिन मुँह जूठा तक नहीं किया। लेकिन उधर बाहर चिलचिलाती गर्मी से पस्त सुगनी बुआ ने पड़ोस के कन्नु काका की पोती से लोटा माँगा और उन्हीं की बकरी को पकड़कर उसके दूध से स्वयं को पोस लिया था। स्वयं की नहीं, उन्हें अपने भीतर पल रही एक नन्हीं सी जान की चिंता थी, इसलिए भूखा-प्यासा न रहने का निश्चय किया था। क्या ही विडंबना है कि स्त्री गर्भस्थ शिशु का लिंग जाने बिना उसे जी जान से पालती है और जन्म के बाद समाज शिशु को लिंग-भेद से पालता है।

कन्नू काकी ने तो भीतर बुलाया भी पर सुगनी बुआ अपने घर में जाने के लिए ही कृत-संकल्प थीं। पर वास्तव में जिसे वह अपना घर कह रही थीं और यही समझ कर लौट आई थीं, वो क्या उनका अपना घर था? उनका अपना घर होता तो भाई ने इस तरह बाहर घसीट कर ना फेंका होता… अपना घर होता तो माँ भी ड्योढ़ी पर बैठ कर के आँसू न बहा रही होती…

अपना घर होना और अपना घर समझना, इन दो बातों में कितना अंतर था। जिस ससुराल को सुगनी बुआ अपना घर समझती थीं वो उनका अपना घर हुआ ही नहीं था। ससुराल वाले रात दिन इसी घर को उसका घर कहते थे। यही सुनती आई थी वे छह-आठ महीने से कि अपने घर से ये सीख कर आई है। अपने घर से वो सीख कर आई है। अपने घर से ये नहीं लाई। अपने घर से वो नहीं लाई। तो फिर ये घर उनका अपना घर नहीं है तो फिर कौन सा है उनका अपना घर? भाई ने कैसे कह दिया कि वही तेरा घर है वहीं चली जा वापस… जिस घर में जन्म लिया, बड़ी हुई, उम्र के उन्नीस बसंत देखे, वो घर अगर मेरा नहीं है तो फिर ब्याव के बाद बस छह-आठ महीने में ही वो घर मेरा कैसे हो सकता है? फिर जहाँ उसका कोई मान-सम्मान नहीं… कोई प्रेम-प्रीत नहीं… वहाँ उस घर को अपना घर कोई कैसे महसूस करे ?

बेरोजगार पति का तन-मन पर अत्याचार और दिन भर कोल्हू के बैल की तरह काम में जुते रहने को ही अगर जीवन कहते हैं तो नहीं जीना है मुझे ऐसा जीवन… यही सोच कर सुगना बुआ ससुराल के तालाब में डूबने के लिए निकली थीं फिर वहाँ पर मौजूद कुछ महिलाओं ने उन्हें समझा-बुझाकर घर पहुँचा दिया था। कुछ एक महीने ऐसे ही निकले। सुगना बुआ कुछ समझ पातीं उससे पहले ही उन्हें अपने भीतर एक नन्हे जीव की आहट महसूस हुई। उसके बाद जब पति ने नशे में धुत्त होकर हाथ में लट्ठ उठाया तो उन्होंने उसी लट्ठ से पति की टाँगें तोड़ दीं और सीधे अपने मायके की राह पकड़ी। बस में कंडक्टर ने पैसे माँगे तो उसे एक पायल खोलकर पकड़ा दी। नंगे पैर बदहवास सी दो जीवा महिला को इस हालत में देखकर कंडक्टर का भी दिल पसीज गया, उसने पायल लौटा दी और बस में बैठने की जगह भी दे दी। बस से उतरकर सुगनी बुआ ने जैसे ही घर का आँगन पार किया, उनकी दशा देखकर दादी घबरा गईं। बिठाकर पानी पिलाया, हाथ-मुँह धुलवाए। माँ ने सुगनी बुआ की थाली परोसी ही थी कि ताऊजी आ गए। आते ही उन्होंने बहन को घसीटकर बाहर कर दिया। बूढ़ी माँ कहती ही रह गई बेटी का दुख, पर उन्होंने कुछ सुना ही नहीं।

जब दादी और माँ बुआ के हालचाल ले रहे थे तब ही ताई जी ने किसी को भेजकर ताऊ जी को दुकान से बुलवा लिया। बुआ रोटी का एक गस्सा भी नहीं खा पाई थीं। टूटा हुआ गस्सा वहीं आँगन में गिर गया था। हम बच्चे दूर खड़े होकर सहमे हुए से ये सब घटित होता हुआ देख रहे थे।

दो दिन तक सुगनी बुआ चौंतरे पर ही डेरा डाले बकरी के दूध से खुद को पोसती रहीं। ताऊजी उन्हें वापस ससुराल भेजने के लिए बातचीत कर रहे थे कि तीसरे दिन ससुराल से टका सा जवाब आ गया “अपनी बिगड़ैल बहन को वापस भेजा तो हमारे बेटे पर जानलेवा हमले के आरोप में सीधे पुलिस के हाथों में दे देंगे।”

ताई जी के कहने पर बुआ को घर में भीतर तो ले लिया गया। पर उसी दिन से मंगलू काका ने आना बंद कर दिया, अचानक उनके गाँव में कोई काम आ पड़ा था। बरसों पहले, मंगलू काका ताऊजी की शादी में ताई जी के साथ उनके पीहर से आए थे। तभी से ताई जी के हिस्से का ही नहीं बल्कि उससे भी कहीं अधिक काम वही किया करते थे। सुबह-शाम घर आँगन बुहारते, ढोरों का चारा सानते, तालाब से पानी भी लाते थे। बाद में जब कस्बे में हैंडपंप लगे तो उससे पानी खींचकर पूरे घर के लिए पानी की व्यवस्था करते थे। दोपहर में बैठकर साग भाजी साफ करते हुए हम बच्चों को भी देखते थे। अब ये सारे काम सुगनी बुआ के जिम्मे थे।

एक दिन हैंडपंप से पानी खींचते हुए उनके पेट में बड़े ज़ोर का दर्द उठा। वो पेट पकड़ कर धरती पर बैठ गईं। बहते पानी का रंग लाल होता देख वो बेहोश हो गईं। जब होश में आईं तो उनकी कोख उजड़ चुकी थी। चार-पाँच दिन उनसे कोई काम नहीं हो सका। ताई जी का चिल्लाना और ताने-उलाहने बदस्तूर जारी रहे। फिर एक दिन सुगनी बुआ ने जो घर-भर का काम सम्हाला तो मरते दम तक नहीं छोड़ा। छोड़ा तो बस हँसना-मुस्कुराना सदा सदा के लिए छोड़ दिया था। दिन भर मशीन की तरह यंत्रवत घर के काम निपटाने के बाद देर रात अपनी कोठरी में जाती थी और तड़के सबसे पहले उठकर काम शुरू कर देती थी। उन्हें देखकर कभी-कभी लगता था कि सिर को छत और पेट को रोटी की आवश्यकता ही क्यों होती है? क्या इसी ‘अपने घर’ के लिए सुगनी बुआ ससुराल तज कर लौट आई थीं?

सुगनी बुआ के ससुराल से लौट आने पर दादी की रोनी सूरत का स्थाई रूप, दादाजी की खाँसी का बढ़ कर अस्थमा हो जाना, माँ-पिताजी के दबी आवाज़ में झगड़े, जिनके कारण ही माँ की रोटियाँ चूल्हे के आगे कुछ सोचते-सोचते जल जाया करतीं और पिता सारी रात बाहर टहल कर निकाल देते, बिना खाना खाए कि अपच हो रही है,भूखा ही रहूँगा। सब याद थे गैंदी को! जैसे कल की ही बात हो। और इन सबसे अलग, ताई जी का हर वक्त बुआ को कोसना और ताऊजी का पैर दबवाने या मालिश करवाने के लिए जब-तब बुआ को अपने कमरे में बुला भेजना, और लौटती हुई बुआ का पत्थर सा चेहरा कभी भुलाया नहीं जा सकता था। बुआ के पत्थर से चेहरे पर सूजी हुई दो आँखें जिनसे अविरल बहती धारा ने गालों पर स्थाई निशान से बना लिए थे, गैंदी की स्मृतियों में हमेशा ताज़ा रहीं। और सबसे बड़ी बात, उसे याद है कि भैया की शादी के बाद सबकी बची-खुची भड़ास भाभी पर निकलनी शुरु हो गई थी… जैसे कि बुआ के लौट आने के लिए भाभी ही ज़िम्मेदार थीं। बारहवीं पास भाभी आगे कानून की पढ़ाई पढ़ना चाहती थीं। दाखिला भी ले लिया था पर अचानक ही उनके दादा जी की तबियत बिगड़ी और उन्होंने अंतिम इच्छा के रूप में अपने जीते जी पोती का विवाह माँग लिया। पुत्र के फर्ज के आगे उनके पिता ने अपने पिता होने के फ़र्ज़ को भुला दिया। आनन-फानन में यही रिश्ता समझ पड़ा और वो शहर से इस कस्बे में ब्याह दी गईं। एक दो बार उन्होंने पढ़ाई जारी रखने की इच्छा जताई पर वो सिर्फ इच्छा बनकर ही रह गई किसी ने ध्यान ही नहीं दिया बल्कि दादी ने धमकी भी दी कि आइंदा से ये बात घर में उठी तो वो अन्न जल त्याग देंगी। इस तरह भाभी बारहवीं पास ही रह गईं थीं। पर उनकी तीक्ष्ण बुद्धि का लोहा सबको समय समय पर मानना ही पड़ा था!

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दिलासा देती हुई भाभी में गैंदी को माँ का सा स्नेह महसूस हो रहा था! उसने चेहरा उठाकर भाभी को देखा। भाभी ने अपने हाथों से उसके आँसू पोंछे और कहा “तुमाए भाई तुमाए लिए जरूर कुछ करेंगे जिज्जी!”

गैंदी की आँखों में रड़कती हुई तैर रही अविश्वास की डोर को पकड़ते हुए उमेसी ने कहा “बरसों पहले जब मैं पीहर चली गई थी और मेरे भाई सा मुझे लौटा लाए थे, तब तुमाए भाईसा भी घर से चले गए थे। इधर मैं लौटी, उधर वो मेरे पीहर मुझे लेने पहुँचे थे। जब पता चला कि मेरे भाईसा मुझे छोड़ने गए हैं तो वो फिर वहाँ रुके नहीं और उल्टे पैरों लौट आए। जब वो घर लौटे तो बोले ‘अच्छा हुआ तेरा भाई छोड़ गया…मैं लेने गया था तुझे।’

मैंने पूछा ‘क्यों लेने गए?’

तो बोले ‘सुगना बुआ याद आ गई थी। तू यहीं रहना। तुझे कोई कष्ट नहीं होगा, मैं सब देख लूँगा। पर तुझे सुगना बुआ नहीं बनने दूँगा।’ जिस सुगना बुआ को याद करके तुम पीहर न आई जिज्जी, वही सुगना बुआ की याद ने मुझे बचा लिया। अब वो बात नहीं रही है। तुम्हारे भाईसा तुम्हारे साथ खड़े होंगे।”

गैंदी की आँखों में आशा का सूरज जगह बना ही रहा था कि उमेसी ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाते हुए कहा- “तुमाए भाईसा ने मेरी वकालत की पढ़ाई भी पूरी करवा दी है जिज्जी। मैं लड़ूँगी तुमाए लिए।”

गैंदी की आँखों में आशा की किरणें चमकने लगीं। भावातिरेक से जिव्हा लड़खड़ा रही थी…”भाभी…साँची? थें वकालात पढ ली?”

हाँ जिज्जी! थारी सौं!” उसने गैंदी को सीने से लगा लिया “कोई कितना भी साथ दे, पर हमें अपने आप पर भरोसा करना सीखना होगा…अपने बल पर एक नई शुरुआत करनी होगी जिज्जी, औरतें बाप-भाईयों के भरोसे कब तक न्याय ढूँढेंगी?”