कथाकार भगवानदास मोरवाल से डॉ. एम. फीरोज अहमद की बातचीत
1- आप अपने जन्म स्थान घर परिवार और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में विस्तार से बताइए…?
– मेरा जन्म हरियाणा के काला पानी कहे जाने वाले मेवात क्षेत्र के छोटे-से क़स्बा नगीना के एक अति पिछड़े मज़दूर और इस धरती के आदि कलाकार कुम्हार जाति के बेहद निम्न परिवार में हुआ। अपने मेरे घर-परिवार और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पूछा है। अभी हाल में मैं अपने क़स्बे में गया हुआ था, तो संयोग से कुम्हार जाति की वंशावली का लेखा-जोखा रखने वाले हमारे जागा अर्थात जग्गा आ पहुँचे। मैंने जब इनसे अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पूछा, तब इन्होंने कुछ ऐसी जानकारी दी जो मेरे लिए लगभग अविश्वसनीय थीं। जैसे इन्होंने बताया की हमारे मोरवाल गोत्र के पूर्वज उत्तर प्रदेश के काशी के मूल निवासी थे। काशी से वे पलायन कर बनारस आये। इसके बाद बनारस से पलायन कर सैंकड़ों मील दूर दक्षिण हरियाणा के बावल क़स्बे, जो रेवाड़ी के पास है, यहाँ आये। बावल से चलकर ये दक्षिण दिल्ली के महरोली, महरोली से पलायन कर सोहना (गुडगाँव) के समीप इंडरी गाँव और अंत में यहाँ से चलकर दक्षिण हरियाणा के ही मेवात के इस क़स्बे में जाकर पनाह ली। अपने आप को ऋषि भारद्वाज के वंशज कहलाने वाले इन जागाओं की बेताल नागरी में लिखी इन पोथियों में यह भी दर्ज़ है कि मेरे सड़ दादा गंगा राम के पाँच बेटे थे। इनमें से तीसरे नंबर के पल्टू राम के बेटे सुग्गन राम और सुग्गन राम के चार बेटों में से दूसरे नंबर के बेटे मंगतू राम के तीन बेटों में से दूसरे नंबर का बेटा भगवानदास। मुझ समेत हम तीन भाई और दो बहनें हैं। मैं यहाँ एक बात बता दूं कि हमारा पुश्तैनी काम मिटटी के बर्तन बनाना था, जो 1985 तक रहा।
मेव (मुसलमान) बाहुल्य क्षेत्र होने के कारण मेरे क़स्बे और मेरे क़स्बे का वह चौधरी मोहल्ला भी मेव बाहुल्य मोहल्ला है। यहाँ एक रोचक जानकारी दे दूँ कि मेरे इस चौधरी मोहल्ले का नामकरण हिन्दुओं के चौधरियों के नाम पर नहीं है बल्कि मेव चौधरियों के नाम पर है। मेरे घर के सामने अगर ऐसा ही मेव चौधरी का घर है, तो बाएं तरफ भी ऐसा ही घर है। जबकि हमारे घर का पिछवाड़ा मुसलमान लुहारों से आबाद है। अपने परिवार में उस समय के हिसाब से मैं एकमात्र शिक्षित व्यक्ति था। हालाँकि अपनी क्षमता के अनुसार मैंने अपने दोनों बच्चों अर्थात बेटा प्रवेश पुष्प जिसकी शिक्षा एमसीए है, तो बेटी नैया ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से हिंदी में पीएच.डी किया हुआ है। वैसे मैंने अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में अपनी स्मृति-कथा पकी जेठ का गुलमोहर में भी विस्तार से लिखा हुआ है।
2. आप की शिक्षा-दीक्षा कहां से हुई और कहां तक…?
– मेरी प्रारंभिक शिक्षा अपने कस्बे में हुई। हाँ, स्नातक मैंने मेवात के जिले और प्रमुख शहर नूहं से की है। बाकी की शिक्षा जिसे ‘शिक्षा’ कहना उचित नहीं होगा, ऐसे ही चलते-चलाते पूरी की। स्नातक के बाद पहले राजस्थान विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा किया। इसके बाद यहीं से हिंदी में एम.ए. किया। बस, मेरठ विश्वविद्यालय से ‘हिंदी पत्रकारिता में दिल्ली का योगदान’ विषय में पीएच.डी. होती-होती रह गयी।
3. आपकी प्रिय विधा कौन सी है और क्यों….
– जहां तक मेरी प्रिय विधा का प्रश्न है तो इस समय निसंदेह मेरी प्रिय विधा उपन्यास है। इसका एक कारण यह है कि एक लेखक द्वारा जिस तरह एक विधा साधनी चाहिए, शायद वह मुझसे साध गयी है। इसका प्रमाण पिछले कुछ सालों में एक के बाद तीन उपन्यासों के रूप में देखा जा सकता है। जबकि आगामी उपन्यास पर धीरे-धीरे काम हो रहा है। मुझे लगता है एक लेखक के रूप में मैं जितना सहज अपने आपको उपन्यास में पाता हूँ उतना शायद दूसरी विधा में नहीं। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि जीवन-जगत को प्रस्तुत करने के लिए जिस आख्यान की ज़रुरत होती है, उपन्यास उसे बखूबी अपना विस्तार प्रदान करता है। दूसरे शब्दों में कहूं तो मेरी जैसी सामाजिक पृष्ठभूमि है उसके दुखों, संतापों और आक्रोश को मैं उपन्यास के माध्यम से ही व्यक्त कर सकता हूँ। इसीलिए मैं जितना अपने व्यक्तिगत जीवन में निर्मम हूँ, उतना ही अपनी रचनाओं में हूँ। प्रपंच या नकलीपन न मेरे असली जीवन में है, न मेरी रचनाओं में आपको नज़र आएगा। सच कहूं अब मैं उपन्यास को नहीं जीता हूँ बल्कि उपन्यास मुझे जीता है। मेरी रचनाओं और उनके पात्रों में आपको वह दुविधा या दुचित्तापन दिखाई नहीं देगा जो एक लेखक को कमज़ोर बनाता है।
4. हलाला उपन्यास लिखने का उद्देश्य किया था…?
– आपने हलाला के लिखने के उद्धेश्य के बारे में पूछा है। मेरा माना है कि किसी भी लेखक से उसके लिखने के उद्धेश्य के बारे में नहीं पूछना चाहिए ल लेखक या रचनाकार किसी उद्धेश्य को ध्यान में रख कर नहीं लिखता है। क्या प्रेमचन्द ने गोदान, रेणु ने मैला आँचल, राही मासूम रज़ा ने आधा गाँव, अब्दुल बिस्मिल्लाह ने बीनी-बीनी झीनी चदरिया, भीष्म साहनी ने तमस, श्रीलाल शुक्ल ने राग दरबारी, अज्ञेय ने नदी के द्वीप किसी उद्धेश्य के तहत लिखे होंगे – नहीं। दरअसल, रचना किसी उद्धेश्य का प्रतिपाद नहीं बल्कि एक लेखक के अंदर अपने समाज में देखी गयी विसंगतियों से पनपे द्वन्द्वों का सत्य होता है। यह वह सत्य होता है जिसे एक व्यक्ति महसूस तो करता मगर उसे व्यक्त नहीं कर पाता। एक लेखक वास्तव में उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व या कहिए ऐसा प्रतिरूप होता है जो एक पाठक को अलग-अलग पात्रों के रूप में नज़र आता है। उसके लिए धर्म-संप्रदाय या स्त्री-पुरुष मायने नहीं रखते हैं बल्कि उसके लिए उनके दुःख-दर्द और सरोकार कहीं ज़्यादा मायने रखते हैं। एक बेहतर कल्पना उसके लिए कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है। इसलिए यह कहना की हलाला लिखने मेरा क्या उद्धेश्य रहा होगा, इसे आपने उसे पढ़ कर जान और समझ लिया होगा।
5. क्या यह सब लिखने के लिए आप किसी मुस्लिम महिला से मुलाकात की थी?
-आपने पूछा कि इसे लिखने के लिए मैंने किसी मुस्लिम महिला से मुलाक़ात की थी? ‘हलाला’ की पृष्ठभूमि मेवात की होने के कारण पाठक को ऐसा लगता है मानो हलाला की रस्म मेवात में प्रचलित है। सच तो यह है कि मेवात में यह रस्म बिलकुल भी चलन में नहीं है। मैंने आज तक हलाला से संबंधित एक भी मामला न देखा न हीं सुना। अब आप पूछेंगे कि फिर आपने इसे मेवात की कहानी क्यों बनाया? इस पर मैं पलट कर आपसे जानना चाहता हूँ कि क्या ऐसी समस्याएँ सिर्फ़ मेवात की हो सकती हैं। मेवात से बाहर का मुस्लिम समाज ऐसी समस्याओं से नहीं जूझ रहा होगा ? इस उपन्यास की पृष्ठभूमि मेवात देने का कारण मात्र इतना है ही कि मैं उस समाज को गहरे तक जानता हूँ। अपने लेखकीय कौशल का इस्तेमाल कर मैं पानी बात को अपने चिर-परिचित पात्रों के माध्यम से कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से कह सकता हूँ। सच तो यह कि तलाक़ या हलाला जैसी समस्याएँ सामाजिक समस्याएँ हैं जिन्हें हमने धार्मिकता का वारन ओढा कर और विकराल बना दिया। इस विकरालता को और भयानक हमारे उन मर्दों ने बना दिया जो औरत को महज एक उपभोग की वस्तु और अपनी जागीर मान बैठा है।
लेखक का पाने पात्रों में ढालना या कहिए परकाया में प्रवेश करना ही उसकी सबसे बड़ी सफलता है। अगर यह उपन्यास काल्पनिक होते हुए भी कुछ सवाल उठाता है तो लेखक के साथ-साथ यह इसकी भी सफलता है।
6. हलाला उपन्यास लिखने के लिए क्या आपने कुरान या हदीस को पढ़ा था?
-यह आप अच्छी तरह जानते हैं कि किसी भी रचना या उपन्यास पर काम करने से पहले एक शोधार्थी की तरह मैं अपनी क्षमता और समझ के मुताबिक़ पूरी मेहनत करता हूँ। विषय से संबंधित हर तरह की उपलब्ध साहित्य और सामग्री का अध्ययन करता हूँ। उपन्यास ‘हलाला’ पर काम शुरू करने से पहले इस रस्म से संबंधित कुरआन की आयतों को खोजा, तो कुरआन में इससे संबंधित सूरा अल-बक़रा की मुझे सिर्फ़ 230वीं एक आयत मिली। बाकी हलाला के बारे में मुझे कोई दूसरी आयत नहीं मिली। इस आयत को मैं हू-ब-हू यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ – ‘तो यदि उसे ‘तलाक़’ दे दे, तो फिर उस के लिए यह स्त्री जायज नहीं है जब तक कि किसी दूसरे पति से निकाह न कर ले। फिर यदि वह उसे तलाक़ दे दे, तो फिर इन दोनों के लिए एक-दूसरे की ओर पलट आने में कोई दोष न होगा।’
इसे और स्पष्ट करने के लिए कुरआन में लिखा गया है –‘यह दूसरा पति यदि उसे छोड़ दे या उसकी मृत्यु हो जाए, तो यह स्त्री अपने पहले पति के साथ फिर से विवाह कर सकती है। ‘ इस आयत का अलग-अलग कोणों से अध्ययन करने के बाद मेरे मन में एक प्रश्न यह उठा कि अगर कुरआन में ऐसा कहा गया है, तो फिर दूसरे पति से निकाह के बाद उससे सहवास की बात कहाँ से आयी। हालाँकि कुरआन से इतर दूसरे धार्मिक ग्रन्थ जैसे हदीस में इसे क्यों और कहाँ जोड़ा गया कि औरत दूसरे शौहर के लिए उस वक़्त तक हलाल नहीं हो सकती, जब तक कि दूसरा शौहर उसके साथ न कर ले। अगर मैं एक आम मुस्लिम के नज़रिए से सोचूँ तो मेरे भीतर इस सवाल का उठाना स्वाभाविक है कि जब कुरआन में ऐसा कहीं है ही नहीं तो दूसरे पति से सहवास का क्या मतलब है। जहाँ तक हदीस की बात है और जितना मुझे पता है हदीस का आधार भी कुरआन ही है। अब हम यदि कुरआन को एक मुक्कदस आधार ग्रन्थ मानते हैं तो जो बात उसमें है ही नहीं वह खां से आयी। जबकि इसके बरअक्स दूसरे ग्रन्थों में सहवास का न केवल उल्लेख किया गया है बल्कि एक आम मुसलमान को जिस तरह समझाने की कोशिश की गयी है, उसमें मर्दवादी सोच पूरी तरह निहित है। जैसे सैयद अबुल आला मौदूदी की एक पुस्तक में हलाला के बारे में कहा गया है – नबी सल्लाहेवलेअस्ल्लम ने साफ़ कहा है कि हलाला के लिए केवल दूसरा निकाह ही काफी नहीं है, बल्कि औरत उस वक़्त तक पहले शौहर के लिए हलाल नहीं हो सकती, जब तक कि दूसरा शौहर उससे सहवास का स्वाद न चख ले। इसी तरह मैंने एक पत्रिका इसलाहे समाज में पढ़ा था कि …दूसरा शौहर उससे सहवास का मज़ा न चख ले।
अब आप देखिए कि कुरआन की मूल आयात का अर्थ एक पुस्तक से होता हुआ एक रिसाले तक आते-आते कितने चटखारे और मसालेदार हो गया ? मेरी नज़र में इस रस्म को घृणित और एक तरह से पूररी तरह स्त्री विरोधी उसके बाद के इन अर्थों और व्याख्याओं ने बना दिया है। चूंकि हमारा आम असमाज और आम नागरिक अपने धार्मिक दानिशवरों पर बहुत भरोसा करता है इसलिए जब स्वाद और मज़ा उन तक संप्रेषित होते हैं , उनके मायने और सलीके भी बदल जाते हैं। एक लेखक होने के नाते मैंने अपनी बात बिना किसी उत्तेजना और उकसावे के स्त्री के हक़ में कही है।
7. अधिकांश लेखक दूसरे की प्रथा पर लिखने से बचते हैं आपको नहीं लगा की कुछ गलत लिख दिया तो….
-आपने सही कहा है कि कोई भी लेखक दूसरे की प्रथा विशेष कर धार्मिक प्रथाओं पर लिखने से बचता है और बचाना भी चाहिए। मगर यह इस पर निर्भर करता है कि ऐसा विषय चुनते हुए उसकी मंशा और नीयत क्या और कैसी है। ऐसा ही सवाल कई पाठकों ने मेरे दूसरे उपन्यास ‘बाबल तेरा देस में’ को पढ़ने के बाद उठाया था। इस उपन्यास में भी ऐसे मुद्दों को उठाया गया था। इस बारे में मेरा कहना यह है कि मुझे बचना या डरना तब चाहिए जब मैं दूसरे मज़हब या धर्म को आहात कर रहा हूँ। आप ‘हलाला’ को पढ़ कर थोड़ी देर के लिए सहमत या असहमत तो हो सकते हैं लेकिन मेरी बदनीयती पर सवाल नहीं उठा सकते। हाँ, अगर मुझे सिर्फ़ विवादास्पद होना होता , या मुझे कुछ हासिल करना होता तो शायद यह बात लागू होती। ऐसी कोई मंशा मेरी न तो ‘बाबल तेरा देस में’ लिखने के दौरान थी, न ‘हलाला’ लिखने के दौरान। सनसनी पैदा करने की नीयत से लिखी गयी किसी भी कृति या रचना की उम्र बहुत छोटी होती है। अच्छी रचना वही है जो पाठक को भीतर से बेचैन करे,न कि मज़े लेने के लिए लिखी जाए। हाँ, कभी-कभी तब डर-सा लगता है जब कुछ लोग इसे अपनी निजता और धार्मिक मामलों में दखल समझ कर लेखक पर सवाल उठाते हैं कि लेखक को इस्लाम की क्या समझ है। मैं मानता हूँ कि समझ नहीं होगी मगर कोई धर्म या धार्मिकता मनुष्यता से तो ऊपर नहीं है। लेखक का एक दायित्व यह भी होता है कि वह निरपेक्ष हो कर अपने विवेकानुसार गलत और सही में फ़र्क करे। किसी एक का पक्षकार होना भी कभी-कभी उसके लिए घातक सिद्ध हो सकता है। गलत और सही का आकलन खुद लेखक से बेहतर और कौन कर सकता है।
8. क्या आप को पता है कि हज और जमात में बहुत अंतर है?
– आपने पूछा है कि क्या आपको पता है कि हज्ज और जमात में बहुत अंतर है। आपका सोचना एक हद तक बहुत सही है और ईमानदारी से कहूँ, तो सचमुच मुझे हज्ज और जमात में क्या अंतर है, नहीं पता। मुझे सिर्फ़ इतना पता है कि ‘हज्ज’ मुसलमानों का एक ज़ियारत अर्थात तीर्थ-स्थल है। मक्का मदीना स्थित अल्लाह का वह काबा (घर) है जिसके दर्शन का हर मुसलमान इरादा रखता है। वैसे ‘हज्ज’ का मतलब ही इरादा करना होता है। ‘हज्ज’ यानी इरादा करना, वास्तव में आदमी की ओर से इस बात का एलान करना है कि उसका प्रेम और श्रद्धा, उसकी इबादत और बंदगी सब कुछ अल्लाह के लिए ही है। ‘हज्ज’ का मूल उद्देश्य यह है कि इनसान अल्लाह की चाह में उन्मत्त हो कर अपना सब कुछ उसकी राह में लगा दे। वास्तव में यह मूल उद्देश्य केवल हज्ज का ही नहीं है बल्कि सभी धर्मों के तीर्थ-स्थलों का है। इस ‘मूल’ की अवधारणाएँ इतनी व्यापक हैं कि अगर मनुष्य इन्हें सच्चे मन से धारण कर ले, तो आज हमारे समाज में जिस तरह की धार्मिक अहिष्णुता घर कर गयी है, वह शायद हमें देखने को न मिले। दरअसल, यह धारण करना ही धर्म कहलाता है।
अब आता हूँ ‘तबलीग़ जमात’ पर। अरबी में तबलीग़ शब्द का अर्थ होता है ‘किसी के पास कुछ पहुँचाना’, ‘धर्म का प्रचार करना’ या ‘दूसरों को अपने धर्म में मिलाना’। यहाँ यह एक बड़ा प्रश्न है की तबलीग़ आन्दोलन मुस्लिम मिशनरी है या मुस्लिम धर्म का पुनर्जीवन आन्दोलन। इसी पर अपनी समझ और जानकारी के मुताबिक़ कुछ रोशनी डाल सकता हूँ। शायद आपको यक़ीन न हो, या आपको इसमें कुछ अतिश्योक्ति लगे, मगर आपको सुनकर हैरानी होगी कि तबलीग़ जमात की शुरुआत 1926 में मेरे मेवात से ही हुई और इसके प्रवर्तक और प्रेरक थे मौलाना मौहम्मद इलियास खंडालवी (1885-1944)। वही तबलीग़ जमात जो आज हर मुसलमान के लिए मानो उसकी धार्मिक अनिवार्यता और जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है। मौलाना इलियास ने एक नारा दिया दिया था -ऐ मुसलमानो मुसलमान बनो ! हालांकि तबलीग़ की स्थापना मौलाना इलियास द्वारा 1920 में की गयी थी। मगर इसकी जड़ें 19वीं शताब्दी के उत्तर्राद्ध में इनके वालिद मोहम्मद इस्माइल ने बंगले वाली मस्जिद, हज़रात निजामुद्दीन, नई दिल्ली में जमा दी थीं। मौलाना इलियास 1923 ने मेवात के नूहं में मदरसा मोइनुल इस्लाम की स्थापना की। 1926 में तबलीग़ जमात का पहला जत्था सहारनपुर के मौलाना खलील अहमद के नेतृत्व में आया। इस जत्थे ने स्थानीय लोगों की मदद से नूहं क़स्बे में एक सम्मेलान का आयोजन किया था। हज़ारों की तादाद वाले इस सम्मलेन में लोगों से हिन्दू-रीति-रिवाजों को त्यागने और मुस्लिम क्रियाकलापों को अपनाने तथा पूरे मेवात में तबलीग़ आन्दोलन को फैलाने की अपील की गयी थी। मेवात के मेव मुसलमानों से यह अपील इसलिए की गयी थी की यहाँ के मेव मुसलानों की धार्मिकता आधी हिन्दू रीति-रिवाजों पर आधारित थी, तो आधी मुस्लिम रीति-रिवाज़ों पर। यहाँ तक कि उस समय के पुरषों के नाम हिन्दू नामों से प्रेरित थे, जैसे हरिसिंह, धनसिंह, चांदसिंह, लालसिंह आदि। इस तरह तबलीग़ जमात के मेवात से शुरुआत का एक कारण यह भी हो सकता है।
9. आपने जिन जिन पात्रों का उपन्यास में उल्लेख किया है क्या वह काल्पनिक है या वास्तविक?
-किसी भी रचना के चरित्र या पात्र वास्तविक और काल्पनिक दोनों होते हैं। बल्कि कहना होगा कि कोई भी पात्र न तो अपने आप में पूरी तरह काल्पनिक होता है, न पूरी तरह वास्तविक जो पात्र वास्तविक जीवन से लिए गये होते हैं, उनमें लेखक अपनी कल्पना और लेखकीय कौशल इतना विश्वसनीय और प्रामाणिक बना देता है कि एक पाठक के लिए यह तय करना मुश्किल हो जाता है वह कितना काल्पनिक है और कितना वास्तविक। यही बात उन काल्पनिक पात्रों पर लागू होती है। एक लेखक निजी अनुभवों और पात्रों के मिश्रित अनुभवों से अपने इन काल्पनिक पात्रों को अपनी कल्पना शक्ति से इतना जीवंत और प्रामाणिक बना देता है कि पाठक को लगता है मानो ये पात्र यहीं कहीं उसके आसपास खड़े हैं। यह एक लेखक की कल्पनाशीलता और लेखकीय कौशल पर निर्भर करता है कि वह अपने इन पात्रों को कितना और किस तरह जीता है, या कहिए उनको किस हद तक आत्मसात करता है। यह आत्मसात करने की चुनौती तब और बढ़ जाती है, जब उसने अपने किसी पात्र से ज़िन्दगी में कभी मुलाक़ात ही न की हो। बल्कि दूसरे धर्म व स्त्री पात्र और पुरुष पात्रों के मनोविज्ञान को व्यक्त करना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। यह चुनौती स्त्री व पुरुष दोनों लेखकों के लिए सामान होती है। मैं यह बात सिर्फ़ ‘हलाला’ के सन्दर्भ में नहीं, बल्कि मेरी सभी रचनाओं के पात्रों पर लागू होती है। आप कल्पना कर सकते है कि एक लेखक अपने पूरे जीवन काल की अपनी कितनी रचनाओं के कितने काल्पनिक और वास्तविक पात्रों को एकसाथ जीता होगा। इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि एक लेखक के असंख्य पात्रों से गुज़रते हुए हम के पात्रों के नहीं बल्कि एक लेखक के अनेक रूपों और व्यक्तित्वों से भी गुज़रते हैं। यह आशा-निराशा ख़ुशी-गम, नैराश्य-कुंठा, चतुराई-चालाकियाँ, घात-प्रतिघात पात्रों की नहीं स्वयं लेखक की होती हैं। अब एक लेखक अपने पाठकों को अपने लेखकीय कौशल से उलझाता या भ्रमित करता है , तो यह उसकी सबसे बड़ी सफलता है।
10. क्या आपने सूर बकरा आयत नं. 228 को पढ़ा है उसमें भी शायद उसी तरह का कोई जिक्र हुआ है । आपकी टिप्पणी?
-सूरा अल-बक़रा की आयतें पारंपरिक तलाक़ यानी उन सूरतों की आयते हैं जिनमें कुरआन के मुताबिक़ तलाक़ के पूरे विधि-विधान की बात कही गयी है। जबकि भारतीय समाज के ज़्यादातर तलाक़ के मामले कुरआन के मुताबिक़ होते ही नहीं हैं। अधिकतर मामलों में पति की अराजक मनमर्ज़ी चलती है। उसका एक कारण है कि कुरआन में पुरुष को औरत का क़व्वाम यानी एक दर्ज़ा दिया गया है। तलाक़ के मामलों में प्राय: यह देखने में आया है कि विधि-विधान की शर्तें केवल औरत पर थोपी जाती हैं, जबकि पुरुष इनसे पूरी छूट ले लेता है। वैसे भी सूरा अल-बक़रा की यह आयत बीवी के गर्भवती होने कि स्थिति को लेकर है। जिन तीन महावारियों का इसमें ज़िक्र किया गया है, वह इसीलिए किया गया है ताकि यह पता चल सके कि वह गर्भवती है या नहीं। या कहना चाहिए कि इस बहाने तीन महीने तक औरत के चरित्र की परीक्षा ली जाति है।
11. बिना इद्दत की अवधि पूरे किए व निकाह किए बिना स्त्री बपने पूर्व पति के घर नहीं जा सकती है। लेकिन आपने गलत उल्लेख कर दिया। जिससे लोगों में भ्रामकता पैदा होती है।
-आपने अपने सवाल में इद्दत का मुद्दा उठाया है तो मैं इसके बारे में यह कहना चाहता हूँ कि उपन्यास ‘हलाला’ में यह कहाँ नहीं कहा गया है कि बिना इद्दत पूरी किये नज़राना का डमरू से निकाह हुआ है, या अपने पहले पति के पास लौट आयी होगी ? तलाक़ के मामले में इद्दत एक सामान्य प्रक्रिया है, और इसके बारे हम सब लगभग जानते हैं। चूँकि इस उपन्यास की विषय वस्तु हलाला को आधार बना कर तैयार की गयी है न कि तलाक़ को आधार बना कर, इसलिए पाठक को ऐसा लगता है मानो इद्दत को छोड़ दिया गया है। इद्दत का मामला शिक्षित परिवारों के उन तलाक़ के मामलों में बारीक़ी के साथ देखा जाता है, जहाँ पति-पत्नी के बीच अचानक नहीं बल्कि काफी सोच-विचार के बाद तलाक़ लिया जाता है। वैसे भी यह उपन्यास एक ग्रामीण और लगभग अशिक्षित समाज को केंद्र में रख कर लिखा गया है। एक ऐसे भारतीय आम परिवारों को केंद्र बना कर जिनमें धर्म की जगह उनके जीवन-जगत में सिर्फ़ उतनी रहती है, जिससे उनकी धार्मिक पहचान सुरक्षित रह सके। और यह बात सभी धर्मों के समाजों पर लागू होती है। अधिकतर धर्मों में बहुत-सी रस्मों का पता भी नहीं होता है, बस परम्परा के नाम पर एक-दूसरे की देखादेख उन्हें लगभग निभाया भर जाता है। हिन्दुओं में भी धर्म का असली पालन कितना होता है, हम सब जानते हैं। इसका बड़ा उदाहरण है करवा चौथ। छलनी से चन्द्रमा देखने से यह व्रत पूरा थोड़े ही हो जाता है। मगर एक भेड़चाल जिसने शिक्षित-अशिक्षित सभी तरह की महिलाओं को अपनी चपेट में ले लिया है। दरअसल ऐसी शर्तों के पीछे स्त्री को बंधक बनाये रखने की हम मर्दों की एक चाल है। इसलिए तलाक़ ही नहीं बाकी के मामलों में भी मेरा यह मानना है कि एक ‘सच्चा’ मुसलमान अगर पूरी ईमानदारी से कुरआन का पालन करे, तो मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूँ कि मुस्लिम समाज में न एक तलाक़ हो, न एक हलाला। सच तो यह है कि अपने स्वार्थों के चलते हमने अपनी कुछ सामाजिक समस्याओं को धार्मिक बना कर रख दिया। धर्म या मज़हब को पूरी तरह आत्मसात करना हरेक के बूते की बात है ही नहीं। दरअसल, धर्म का मामला इतना आसान नहीं है जितना हम समझते हैं।
12. आपने अपने हलाला उपन्यास को पाँच अध्याय में विभक्त किया है जिसके नाम पाँच वक्त की नमाजों पर है उससे आपका क्या अभिप्राय है।
-उपन्यास को पाँच अध्यायों में न तो किसी सोचे-समझे अभिप्राय के तहत बाँटा गया है न किसी योजना के तहत। अगर इसमें से इन पाँचो नमाज़ों, कुरआन की आयतों और रेखांकनों को हटा भी दें, तो मूल कथा पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। अंतिम प्रूफ़ तक यह उपन्यास सिर्फ़ दस अध्यायों बांटा गया था। मेरे पास जब इसको सरसरी तौर पर अवलोकन के लिए भेजा गया, तो मुझे लगा यह एक पाठक के साथ अन्याय होगा कि वह दस अध्याय बिना अपनी आँखों को आराम दिए पढता जाए। इसलिए मैंने सोचा कि पाठक को पढ़ने के दौरान कुछ रीलिफ़ मिलनी चाहिए। इसके लिए एक ही तरीक़ा था कि इसके अध्याय बनाये जाएँ। कैसे बनाये जाएँ अंतिम समय में यह बड़ी चुनौती थी। एक बार सोचा कि इसे सुबह, दोपहर, शाम इन तीन शीर्षकों के अध्यायों में बांटा जाए। लेकिन तभी लगा कि इस तरह के शीर्षक पहले भी प्रयोग में लाये जा चुके हैं। वैसे भी यह जिस तरह का उपन्यास है उसके लिए ये उपयुक्त नहीं था। ऐसा लगना चाहिए कि सचमुच अध्याय उपन्यास के कथानक के ही हिस्से हैं। बहुत सोच-विचार के बाद मन में आया कि इसे नमाज़ों के शीर्षकों में विभाजित किया जाए, तथा इसे और प्रमाणिक व रोचक बनाने के लिए इसमें कुरआन की आयतें दी जाएँ। यह प्रयोग पाठकों को भाया भी। हालाँकि कई पाठकों ने इस पर यह कहते हुए आपत्ति जतायी कि कुरआन की आयतों का ऐसे इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। मेरा एक लेखक होने के नाते यह कहना है कि ऐसे प्रयोग उसी रचना प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसे जानने की एक पाठक में बड़ी जिज्ञासा होती है। मेरा मानना है कि ऐसे प्रयोगों से रचना की रेंज बढ़ती ही है, घटती नहीं हैं।
13. नजराना हलाला उपन्यास की मुख्य पात्र है जो हलाला से पीड़ित है उसको उपन्यास में कम महत्व दिया गया है बल्कि वही दूसरी पात्र आमना को ज्यादा स्पेस दिया है… ऐसा क्यों?
-आपने यह बड़ा रोचक सवाल पूछा है कि मुख्य पात्र नज़राना की अपेक्षा इसकी एक अन्य पात्र आमना को ज़्यादा स्पेस दिया गया है। दरअसल, कोई भी रचना विशेषकर उपन्यास लिखते समय लेखक कई तरह के प्रयोगों से झूझता रहता है, जिसमें एक यह भी है कि कोई पात्र दूसरे पात्र पर बेवजह ज़्यादा भारी न पड़ जाए। जिस स्पेस की आपने बात की है, वह स्पेस नहीं प्रवृत्तियाँ हैं। चाहे वह मनुष्य है अथवा पशु-पक्षी, यहाँ तक कि पेड़-पौधे सबकी कुछ न कुछ प्रवृत्तियाँ होती हैं। यही प्रवृत्तियाँ पात्रों की विशेषताएँ होती हैं जो एक-दूसरे को एक-दूसरे से अलग करती हैं। ये प्रवृत्तियाँ अगर साहित्यिक शब्दावली का इस्तेमाल करूँ तो पात्रों की विशेषताएँ होती हैं। मैं आपसे ही पूछना चाहता हूँ कि आमना के बिना यह उपन्यास आपको कुछ अधूरा नहीं लागत। क्या हमारे समाज में नसीबन जैसी भाभियाँ नहीं होती हैं ? डमरू जैसे युवा नहीं होते हैं ? नियाज़ जैसे लोग नहीं होते हैं ? लपरलैंडी जैसे किरदार नहीं होते हैं ? कहने का मेरा आशय यह है कि रचना में किसी पात्र को कोई स्पेस नहीं दिया जाता। यह तो रचना की मांग पर निर्भर करता है कि उसका कौन-सा पात्र कितना स्पेस लेता है।
14. स्त्री किस तरह के पुरुषवाद का शिकार है कि वह एक दूसरी स्त्री को खुद गालियां देती है?
-आपके इस प्रश्न से ऐसा लगता है जैसे एक स्त्री पुरुष के इशारों पर दूसरी स्त्री की जान की दुश्मन बनी हुई है। पता नहीं हमारा तथाकथित सभ्य समाज अपनी गालियों के प्रति इतना दुराग्रही क्यों हैं ? ऐसा लगता है जैसे वह अपने लोक को विस्मृत करता जा रहा है। पता नहीं हिंदी में ऐसा कोई शोध हुआ है या नहीं मगर बांग्ला में अपने समाज की गालियों और उनके मनोविज्ञान को लेकर कुछ शोध हो चुके हैं। गाली या कहिए अश्लीलता की आड़ में हम अपनी उस शुचिता को ढांपने का प्रयास करते हैं, जो हमारे लोक जीवन और उसके हास-परिहास का बड़ा हिस्सा रहा है। अगर आप ब्रज समेत उत्तर भारत में शादी की कुछ रस्मों को देखेंगे, तो आपको लगेगा जैसे बिना गालियों के शादी-विवाह का कोई अर्थ नहीं है। लड़की की शादी से ठीक एक दिन पहले महिलाएँ जो रतजगा करती हैं और उसमें जिस तरह अपने देवी-देवताओं के सामने गालियाँ, वह भी स्त्रियों द्वारा इस्तेमाल की जाती हैं उसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। ऐसी ही एक रस्म है खोड़िया । इस रस्म में लड़के की बारात जाने के बाद, घर-मोहल्ले में रह गयी महिलाओं द्वारा खेले जाने वाले खेलों को एक पुरुष देख-सुन नहीं सकता। इसलिए इसमें पुरुषों की उपस्थिति पूरी प्रतिबंधित होती है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। मुझे ऐसा लगता है कि पुरुषों द्वारा सदियों से स्त्री का दमन होता रहा है, ऐसी रस्मों में गाली उसकी परिणति है। इस रस्मों का किसी धर्म से कोई लेना-देना है, ये समाज में पनपी उन्हीं चलनों का अतिक्रमण है, जिन्हें स्त्रियों पर ज़बरन थोपा गया है। यहाँ एक बात कह दूँ कि अश्लीलता वास्तव में हमारी समझ और नज़र का फ़र्क है।
चूँकि यहाँ बात सिर्फ़ ‘हलाला’ उपन्यास को लेकर हो रही है और इस उपन्यास की पृष्ठभूमि मेवाती है इसलिए आपके मन में यह सवाल उठ रहा है। इसमें ही नहीं मेरे इससे पहले के दोनों उपन्यास ‘काला पहाड़’ और ‘बाबल तेरा देस में’ जिनकी पृष्ठभूमि भी मेवात है उनमें स्त्रियों द्वारा ‘रंडी’ शब्द का बहुत इस्तेमाल हुआ है। कहने और सुनने में यह शब्द किसी गाली से कम नहीं है। बल्कि गाली ही है। मगर इस शब्द के अर्थ इसके कहन के लहज़े के चलते बदल जाते हैं। सच कहूँ इस तरह के शब्द जिन्हें हम गाली मानते हैं मेवाती संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। उसकी अपनी एक पहचान हैं।
15. हलाला उपन्यास में गालियों का भी प्रयोग है क्या उसके बिना हलाला की समस्या को स्पष्ट नहीं किया जा सकता था?
-आपने ‘हलाला’ में गालियों के प्रयोग को हलाला की समस्या से जोड़ कर देखा है। जबकि इनका इस समस्या से कोई संबंध नहीं है। वैसे इस उपन्यास में कुल कितनी गालियों (जिन्हें मैं गालियाँ नहीं मानता) का इस्तेमाल हुआ होगा ? मुश्किल से तीन-चार। तो क्या लेखन या सृजन महज हमारी शुचिताओं को सुरक्षित रखने का औज़ार मात्र है ? हाँ, उपन्यास में मेवात की जगह अगर लखनऊ या किसी ऐसे ही सभ्य मुस्लिम परिवेश चित्रण होता, तो वहाँ इनका इस्तेमाल नहीं होता। पात्रों के संवाद इस पर निर्भर करते हैं कि रचना की पृष्ठभूमि और परिवेश क्या है। किसी भी रचना को पृष्ठभूमि और परिवेश मौलिक बनाता है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जितनी बात इस उपन्यास पर इसकी मेवाती पृष्ठभूमि के चलते हो रही है, उतनी शायद किसी दूसरी पृष्ठभूमि के चलते नहीं होती। मैं इस उपन्यास की एक बड़ी सफलता की वजह इसके विषय के साथ-साथ इसकी पृष्ठभूमि भी मानता हूँ।
16. डमरू को छेड़ने के पीछे स्त्रियों का कौन सा मनोविज्ञान काम कर रहा है? जबकि वह एक सीधा सा पुरुष है?
– हमारे समाज में आदमी के भोलेपन और उसके सीधेपन को अक्सर उसकी मूर्खता का पर्याय माना जाता है। डमरू वास्तव में हमारे समाज के इसी भोलेपन और उसके सीधेपन का प्रतीक है। आपने सही कहा कि डमरू सीधा-सा पुरुष है और वह लगता भी है। मगर सीधा होने का अर्थ ना-समझ या अज्ञानी होना नहीं होता। ठीक ऐसे ही जैसे शराफत को आजकल किसी की भीरुता से जोड़ दिया जाता है। देवर को छेड़ने-कोंचने या कहिए चुहल की परंपरा कोई नई नहीं है। सच तो यह है जीवन के सारे उल्लास हमारे संबंधों में छिपे हुए हैं। वैसे भी डमरू तीनों भाइयों में सबसे छोटा तो है ही साथ में कुँआरा भी है। कुरूपता और बढ़ती उम्र का यह कुँआरापन ही उसके लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। मगर समाज और परिवार की मर्यादाओं का इसने कभी अतिक्रमण नहीं किया। इसलिए डमरू के प्रति पाठक के मन में उसका सम्मान धीरे-धीरे बढ़ता चला जाता है। नज़राना की आसक्ति भी उसके प्रति उसके इसी व्यवहार और मन की निर्मलता के चलते मजबूत होती जाती है, जिसकी परिणति नज़राना के उस सार्वजनिक फैसले के रूप में होती है, कि वह इसी ईमान वाले आदमी के साथ रहेगी। वास्तव में डमरू किसी दुचित्तेपन या द्वंद्व का शिकार नहीं है।
17. क्या हलाला प्रथा मर्द के अधिकारों का गलत इस्तेमाल है?
-सिर्फ़ हलाला ही नहीं बल्कि ज़्यादातर धर्मों की प्रथाओं का ग़लत इस्तेमाल हो रहा है। हलाला को मैं इसलिए ज़्यादा अमानवीय मानता हूँ कि जो शर्त कुरआन में ही नहीं है उसकी स्त्री के ख़िलाफ़ ग़लत व्याख्या क्यों की जा रही है। हालाँकि इसकी मूल भावना तलाक़ को रोकने की है। मगर उसके बजाय धर्म की आड़ में इस प्रथा को दुष्कर्म का रूप दे दिया। जहाँ इससे स्त्री और पुरुष को बराबर रूप से सबक सिखाना रहा है, पर वहाँ यह स्त्री-शोषण का एक हथियार बन गया। दरअसल यह एक मर्दवादी साज़िश है। एक और बात मुझे तो यही समझ में नहीं आता कि ऐसा कौन-सा मरद होगा, जो जानते हुए दूसरे शौहर के साथ सहवास के बाद अपनी पहली पत्नी को आसानी से स्वीकार कर लेगा। मर्दवादी मानसिकता इसे आसानी से स्वीकार ही नहीं करेगी और ऐसा कुछ मर्दों ने किया भी है, तो सच कहूँ वे कम-से-कम इनसान तो नहीं फ़रिश्ते ही होंगे। सोचिए कि ऐसे फ़रिश्तों और पति-पत्नियों को उसी का समाज किस नज़र से देखता होगा ?
18- वैसे आपने इस्लाम के भीतर की एक वैवाहिक प्रथा हलाला को केन्द्र में रखकर किया है लेकिन बीच-बीच में हिन्दू कथाओं के मिथकों और दोहों का भी उल्लेख किया है। क्या और भी किसी धर्म में ऐसा होता है?
-अगर आप समाजशास्त्रीय नज़रिए से अपनी प्रथाओं, रस्मों अर्थात रीति-रिवाज़ों का गहराई से अध्ययन करें, तो इनका अस्तित्व में आना मनुष्य की ज़रूरतों और उसके सामाजिक अनुशासन की मुख्य वजह रही हैं। चूँकि मनुष्य का स्वभाव थोड़ा बगावती रहा है इसलिए इन्हें लागू करने के लिए धर्म का सहारा लिया गया। धर्म का सहारा इसलिए ताकि मनुष्य को अधर्म के रास्ते से भटकने से रोका जा सके। इसके लिए हमारे संत-फ़कीरों ने जीवन-दर्शन को मनुष्य का आईना बना उसके कर्मों पर आधारित लोक साहित्य रचा। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है हमारा मध्य काल अर्थात भक्ति काल। इस काल को अगर सामाजिक नव जागरण काल कहा जाता है तो इसीलिए कि इसमें सामाजिक बुराइयों और कुप्रथाओं पर सबसे ज़्यादा चोट की गयी है। यह चोट मिथकों और मौखिक साहित्य के द्वारा की गयी है। आप देखेंगे कि लोकोक्तियों, मुहावरों और दोहों की मारक क्षमता इतनी गहरी और असरदार होती है कि जिस अनैतिकता का इलाज़ कानून कि किसी किताब में नहीं होता उसे ये बखूबी कर जाते हैं। लोक साहित्य व्यक्ति के निजी और उसके सामाजिक अनुभवों से सींचा हुआ होता है। इसीलिए कहा गया है कि अपने लोक से कटे लेखक का चिंतन कभी मौलिक नहीं हो सकता। रही बात लोकोक्तियों, मुहावरों और दोहों के किसी धर्म विशेष से जुड़े होने की, तो मैं आपसे पूछता हूँ कि मनुष्य का दुःख-दर्द, उसकी पीड़ा, पीड़ा, संताप और उनकी अभिव्यक्ति को क्या हम किसी धर्म के खानों में बाँट कर देख सकते हैं ? क्या हम इसे व्याख्यित कर सकते हैं कि हिन्दू का दुःख ऐसा होता है, और मुसलमान का दुःख वैसा है । चूँकि हमारा समाज आस्था, मिथकों और परंपराओं पर जीने वाला समाज है, इनका हस्तक्षेप हमारे निजी जीवन में ज़रुरत से ज़्यादा रहा है इसलिए हमारी बहुत-सी मुश्किलों का निदान भी इनमें छिपा हुआ है।
19. क्या धर्म और मर्दवादी व्यवस्था ने स्त्री को बागे नहीं बढ़ने दिया है? आपकी राय?
-धर्म और मर्दवादी व्यवस्था का गठजोड़ इतना मजबूत है कि उसे बींधना बहुत मुश्किल है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सभी धर्मों के धर्मग्रंथों के रचयिता हम मर्द ही रहे हैं। इसलिए हमने अपने बचने के तो सारे रास्ते खोज लिए मगर अपने से निरीह और कमज़ोर तबकों के रास्ते या तो बेहद संकरे छोड़ दिए, या उन्हें बंद ही कर दिया। पूरी दुनिया में धर्मों का जितना इस्तेमाल स्त्री सत्ता के खिलाफ हुआ है उसके बारे में हम सब जानते है। कई बार तो ऐसा लगता है मानो सब धर्मों के धार्मिक ग्रंथों के रचयिताओं ने आपस में मिलकर स्त्री-संबंधी संहिताओं को बुना है। इसका मैं एक उदाहरन देता हूँ। अथर्ववेद (2:36:4) का एक श्लोक है जिसका अर्थ है- ‘जिस तरह वन्य-जीवों तक को शांत वातावरण प्रिय होता है, उसी तरह परिवार को सुखमय बनाने के लिए स्त्री को चाहिए कि वह पति से विरोध या कलह न करे, अपितु उसके अनुकूल रहकर प्रियता प्राप्त कर अपने ऐश्वर्य की वृद्धि करे।’
अब आप कुरआन की चौथी सूरा अन-निसा की इस 34वीं आयत को देखिए,जिसका अर्हत है-
‘मर्द औरतों के सवामी हैं। जो नेक औरतें होती हैं, वे आज्ञाकारी और अपने रहस्यों की रक्षा करने वाली होती हैं। जिन स्त्रियों से विद्रोही होने का भय हो – उन्हें समझाओ, उन्हें अपने बिस्तरों से दूर रखो और उन्हें कुछ सज़ा दो।’
इन दोनों यानी अथर्ववेद के श्लोक और कुरआन की इस आयत में समानता देखिए कि सारी हिदायतें, सारी सलाह औरत को ही दी गयी हैं। इतना ही ही नहीं अगर वह आज्ञाकारी नहीं है तो उसे सज़ा भी दी जाए। इतना ही नहीं हमारे संविधान के स्त्री संबंधी कानून भी इन्हीं धर्म-ग्रंथों को ध्यान में रख कर बनाये गये हैं। मेरे अपने हरियाणा के पुराने गुड़गाँव के मेवात में ऐसा ही रिवाज़-ए-आम को ध्यान में रख कर कानून बना हुआ है। इस कानून के मुताबिक़ अगर किसी बहन के सगे भाई नहीं हैं, तो पिता की संपत्ति पर उसका नहीं, उसके चचेरे या ताऊ के लड़कों का हक़ होगा।
मुझे इस्लाम के धर्म गर्न्थों का तो पता नहीं लेकिन मैं हिन्दू धर्म की कह सकता हूँ कि जितना धर्म और मर्दवादी मानसिकता के चलते धर्म का इस्तेमाल स्त्रियों के विरुद्ध किया गया है, उतना शायद ही दूसरे धर्मों में किया गया है। मनुस्मृति ही नहीं दूसरे ब्राह्मणों द्वारा रचित धर्म ग्रंथों में स्त्री और दलितों के विरुद्ध ज़हर उगला गया है, आप उसकी अक्ल्पने नहीं कर सकते। अम्बेडकर ने तो इस मनुस्मृति का सार्वजनिक दहन ही इसलिए किया था कि इसमें दलितों और स्त्रियों को आगे बढ़ने न देने के स्पष्ट निर्देश दिए गये हैं। कहने का मेरा आशय यह है कि आदि काल से ही धर्म का इस्तेमाल हमारी मर्दवादी व्यवस्था करती आ रही है।
20. आपको लगता है कि शरीयत और हदीस का भय दिखाकर औरतों का शोषण होता है?
आपका कहना सही है कि शरीयत या हदीस का भय दिखा कर पुरुषों द्वारा स्त्रियों का शोषण होता रहा है। मैं आपकी बात को थोड़ा विस्तार देना चाहता हों और यह कि अगर स्त्रियों का सबसे ज्यादा शोषण हुआ है तो वह धर्म की आड़ में हुआ है। ‘स्त्री-धर्म’ के नाम पर पुरुषों द्वारा उसके चारों तरफ़ जिस तरह वर्जनाओं की कंटीले तारों की बाड़ खड़ी कर दी गयी है, उसे वह चाह कर भी नहीं लांघ पाती है। कहीं वह इस मर्दवादी व्यवस्था के खिलाफ बग़ावत न कर बैठे, इसलिए धर्म का हवाला दे उसके आगे बढ़ने के रास्तों को रोकने की कोशिश होती रही है। यह रास्ता स्त्रियों में भी दलित स्त्री, विधवा, अशिक्षित के लिये और भी मुश्किल है। मैं कई बार कहता हूँ स्त्री का सबसे पहले आर्थिक और शैक्षणिक रूप से सशक्त होना बहुत ज़रूरी है। जैसे-जैसे स्त्री आर्थिक और शैक्षणिक रूप से सशक्त होती जा रही है, वह वैसे-वैसे एक पुरुष और सामाजिक रूढ़ियों के लिए चुनौती बनती जा रही। वह अपनी आवाज़ उठाने लगी है। इसका जीता-जागता उदाहरण है इसी हलाला और तीन तलाक़ के मामले में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय। मगर मेरा सवाल यहाँ दूसरा है और यह कुरआन के ही संदर्भ में है कि जब कुरआन के मुताबिक़ एकसाथ तीन तलाक़ मान्य है ही नहीं तब यह प्रचलन में क्यों है ? क्या ऐसा करना कुरआन की तौहीन नहीं है। कहने का आशय यह है कि धर्म में दिए गए निर्देशों की व्याख्याओं को पुरुष अपनी सुविधा और मर्ज़ी से तय करना लगा है। सच तो यह है कि स्त्रियाँ अपनी मर्ज़ी से नहीं पुरुषों के तय किये गए निर्देशों के अनुसार जी रही हैं। धर्म की आड़ में स्त्रियों की नकेल पुरुष अपने हाथ में रखना चाहता है।
21. आपने हलाला उपन्यास में महिलाओं की नकारात्मक छवि दिखाई है ऐसा क्यों?
-आपने एक बड़ा ही असहज करने वाला सवाल किया है कि उपन्यास ‘हलाला’ में मैंने महिलाओं की नकारात्मक छवि दिखाई है। जहां तक मैं आपके इस प्रश्न की गहराई को समझ पाए हैं उसके अनुसार आपका कहना यह है कि कहीं न कहीं मैं इस अवधारणा को और पुख्ता करना चाहता हूँ कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है ? या फिर आपके कहने का मतलब यह है कि एक स्त्री को अपने विवेक सम्मत कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए , या मर्दों द्वारा स्त्री-धर्म के नाम पर उसके चारों तरफ खींच दी गयी लक्ष्मण-रेखा को उसे नहीं लाँघना चाहिए ? अगर नज़राना चुपचाप शरई क़ानून के मुताबिक़ ज़िनाह के नाम पर हलाला जैसी क्रूर रस्म का पालन कर एक ‘नेक’ और ‘भली’ स्त्री की तरह अपने पहले पति के पास आ जाती ? आमना को अपने देवर डमरू की शादी नहीं होने देनी चाहिए थी ? कैसे महिलाओं की नकारात्मक छवि दिखाई है, और कौन सी वह नकारात्मकता है जो आपको नज़र आती है ? जहां तक इस उपन्यास में आपके मुताबिक़ कुछ गालियों का सवाल है, मैं इसे नकारात्मकता के रूप में नहीं देखता। यह तो लोक से उपजी एक क्षेत्र विशेष की सांस्कृतिक पहचान है। असल बात यह है कि स्त्री के मनोभावों को एक पुरुष जानने का दम तो भरता है मगर सच्चाई यह है कि यह पुरुष का कोरा भ्रम है। आपसे मैं एकदम सहमत नहीं हूँ कि उपन्यास ‘हलाला’ में मैंने महिलाओं की किसी तरह की नकारात्मक छवि पेश की है।