भाषा-क्षेत्र तथा हिन्दी भाषा के विविध रूप

प्रोफेसर महावीर सरन जैन

सारांश

स्वाधीनता के लिए जब जब आन्दोलन तेज़ हुआ तब तब हिन्दी की प्रगति का रथ भी तेज़ गति से आगे बढ़ा। हिन्दी राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक बन गई। स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व जिन नेताओं के हाथों में था, उन्होंने यह पहचान लिया था कि विगत 600 – 700 वर्षों से हिन्दी सम्पूर्ण भारत की एकता का कारक रही है; यह संतों, फकीरों, व्यापारियों, तीर्थ यात्रियों, सैनिकों आदि के द्वारा देश के एक भाग से दूसरे भाग तक प्रयुक्त होती रही है।

बीज शब्द: स्वाधीनता, भाषा, आंदोलन, हिन्दी, प्रगति

शोध आलेख

स्वाधीनता के लिए जब जब आन्दोलन तेज़ हुआ तब तब हिन्दी की प्रगति का रथ भी तेज़ गति से आगे बढ़ा। हिन्दी राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक बन गई। स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व जिन नेताओं के हाथों में था, उन्होंने यह पहचान लिया था कि विगत 600 – 700 वर्षों से हिन्दी सम्पूर्ण भारत की एकता का कारक रही है; यह संतों, फकीरों, व्यापारियों, तीर्थ यात्रियों, सैनिकों आदि के द्वारा देश के एक भाग से दूसरे भाग तक प्रयुक्त होती रही है।

मैं यह बात जोर देकर कहना चाहता हूँ कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा की मान्यता  उन नेताओं के कारण प्राप्त हुई जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी। बंगाल के केशवचन्द्र सेन, राजा राम मोहन राय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस; पंजाब के बिपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपत राय; गुजरात के स्वामी दयानन्द, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी; महाराष्ट के लोकमान्य तिलक तथा दक्षिण भारत के सुब्रह्मण्यम भारती, मोटूरि सत्यनारायण आदि नेताओं के राष्ट्रभाषा हिन्दी के सम्बंध में व्यक्त विचारों से मेरे मत की संपुष्टि होती है। हिन्दी भारतीय स्वाभिमान और स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई। हिन्दी राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक हो गई। इसके प्रचार प्रसार में सामाजिक, धार्मिक तथा राष्ट्रीय नेताओं ने सार्थक भूमिका का निर्वाह किया।

स्वाधीनता के बाद हमारे राजनेताओं ने हिन्दी की घोर उपेक्षा की। पहले यह  तर्क दिया गया कि हिन्दी में वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली का अभाव है। इसके लिए वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग बना दिया गया। काम सौंप दिया गया कि शब्द बनाओ। शब्द गढ़ो। शब्द बनाए नहीं जाते। गढ़े नहीं जाते। लोक के प्रचलन एवं व्यवहार से विकसित होते हैं। आयोग ने जिन शब्दों का निर्माण किया, उनमें से अधिकतर शब्द जटिल, क्लिष्ट एवं अप्रचलित थे। प्रशासन के क्षेत्र में शब्दावली बनाने के लिए अलिखित आदेश दिए गए कि प्रत्येक शब्द की स्वीकार्यता के लिए मंत्रालय के अधिकारियों की मंजूरी ली जाए। अधिकारियों की कोशिश रही कि जिन शब्दों का निर्माण हो, वे बाजारू न हो। सरकारी भाषा बाजारू भाषा से अलग दिखनी चाहिए। चूँकि शब्द गढ़ते समय यह ध्यान नहीं रखा गया कि वे सामान्य आदमी को समझ में आ सकें, इस कारण आयोग के द्वारा बनाए गए 80 प्रतिशत शब्द कोशों की शोभा बनकर रह गए हैं।

जब से विश्व के प्रामाणिक संदर्भ ग्रंथों ने यह स्वीकार किया है कि चीनी भाषा के बाद हिन्दी के मातृभाषियों की संख्या सर्वाधिक है, कुछ ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का कुचक्र एवं षड़यंत्र रच रही हैं। यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि हिन्दी का मतलब केवल खड़ी बोली है। सामान्य व्यक्ति ही नहीं, हिन्दी के तथाकथित विद्वान भी हिन्दी का अर्थ खड़ी बोली मानने की भूल कर रहे हैं। हिन्दी साहित्य को जिंदगी भर पढ़ाने वाले, हिन्दी की रोजी-रोटी खाने वाले, हिन्दी की कक्षाओं में हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों को विद्यापति, जायसी, तुलसीदास, सूरदास जैसे हिन्दी के महान साहित्यकारों की रचनाओं पढ़ाने वाले अध्यापक तथा इन पर शोध एवं अनुसंधान करने एवं कराने वाले आलोचक भी न जाने किस लालच में या आँखों पर पट्टी बाँधकर यह घोषणा कर रहे हैं कि हिन्दी का अर्थ तो केवल खड़ी बोली है। भाषा-विज्ञान के भाषा-भूगोल एवं बोली-विज्ञान के सिद्धांतों से अनभिज्ञ ये लोग ऐसे वक्तव्य देते हैं जैसे वे भाषा-विज्ञान के भी पंडित हों।

क्षेत्रीय भावनाओं को उभारकर एवं भड़काकर ये लोग हिन्दी की संश्लिष्ट परम्परा को छिन्न-भिन्न करने का पाप कर रहे हैं। ऐसे ही लोगों को उत्तर देने तथा हिन्दी के विद्वानों को वस्तुस्थिति से अवगत कराने के लिए यह लेख प्रस्तुत है। हिन्दी दिवस मनाने की सार्थकता इसमें है कि प्रत्येक हिन्दी प्रेमी इस बात का संकल्प करे कि जो ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने की साजिश रच रही हैं, उनका पूरी ताकत से प्रतिकार किया जाए।1

1 भाषा-क्षेत्र (Language-area)

प्रत्येक भाषा के अनेक भेद होते हैं। किसी भी भाषा-क्षेत्र में एक ओर भाषा-क्षेत्र की क्षेत्रगत भिन्नताओं के आधार पर अनेक भेद  होते हैं (यथा – बोली और भाषा) तो दूसरी ओर सामाजिक भिन्नताओं के आधार पर भाषा की वर्गगत बोलियाँ होती हैं।  भाषा-व्यवहार अथवा भाषा-प्रकार्य की दृष्टि से भी भाषा के अनेक भेद होते हैं। (यथा- मानक भाषा, उपमानक भाषा अथवा शिष्टेतर भाषा, अपभाषा, विशिष्ट वाग्व्यवहार की शैलियाँ, साहित्यिक भाषा आदि)। विशिष्ट प्रयोजनों की सिद्धि के लिए प्रयोजनमूलक भाषा के अनेक रूप होते हैं जिनकी चर्चा लेखक ने प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान के संदर्भ में की है।2

जब भिन्न भाषाओं के बोलने वाले एक ही क्षेत्र में निवास करने लगते हैं तो भाषाओं के संसर्ग से विशिष्ट भाषा प्रकार विकसित हो जाते हैं। (यथा -पिजिन, क्रिओल)। भाषा के  असामान्य रूपों के उदाहरण गुप्त भाषा एवं कृत्रिम भाषा आदि हैं।

इस आलेख का उद्देश्य भाषा-क्षेत्र की अवधारणा को स्पष्ट करना तथा हिन्दी भाषा-क्षेत्र के विविध क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के सम्बंध में विवेचना करना है। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि इस सम्बंध में न केवल सामान्य व्यक्ति के मन में अनेक भ्रामक धारणाएँ बनी हुई हैं प्रत्युत हिन्दी भाषा के कतिपय अध्येताओं,  विद्वानों तथा प्रतिष्ठित आलोचकों का मन भी तत्सम्बंधित भ्रांतियों से मुक्त नहीं है।

2. भाषा क्षेत्र में भाषा के विविध भेद एवं रूप

एक भाषा का जन-समुदाय अपनी भाषा के विविध भेदों एवं रूपों के माध्यम से एक भाषिक इकाई का निर्माण करता है। विविध भाषिक भेदों के मध्य सम्भाषण की सम्भाव्यता से भाषिक एकता का निर्माण होता है। एक भाषा के समस्त भाषिक-रूप जिस क्षेत्र में प्रयुक्त होते हैं उसे उस भाषा का ‘भाषा-क्षेत्र’ कहते हैं। प्रत्येक ‘भाषा क्षेत्र में भाषिक भिन्नताएँ प्राप्त होती हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भाषा की भिन्नताओं का आधार प्रायः वर्णगत एवं धर्मगत नहीं होता। एक वर्ण या एक धर्म के व्यक्ति यदि भिन्न भाषा क्षेत्रों में निवास करते हैं तो वे भिन्न भाषाओं का प्रयोग करते हैं। हिन्दू मुसलमान आदि सभी धर्मावलम्बी तमिलनाडु में तमिल बोलते हैं तथा केरल में मलयालम। इसके विपरीत यदि दो भिन्न वर्णों या दो धर्मां के व्यक्ति एक भाषा क्षेत्र मे रहते हैं तो उनके एक ही भाषा को बोलने की सम्भावनाएँ अधिक होती हैं। हिन्दी भाषा क्षेत्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्व आदि सभा वर्णों के व्यक्ति हिन्दी का प्रयोग करते हैं। यह बात अवश्य है कि विशिष्ट स्थितियों में वर्ण या धर्म के आधार पर भाषा में बोलीगत अथवा शैलगत प्रभेद हो जाते हैं। कभी-कभी ऐसी भी स्थितियाँ विकसित हो जाती हैं जिनके कारण एक भाषा के दो रूपों को दो भिन्न भाषाएँ समझा जाने लगता है।3

प्रश्न यह उपस्थित होता है कि हम यह किस प्रकार निर्धारित करें कि उच्चारण के कोई दो रूप एक ही भाषा के भिन्न रूप हैं अथवा अलग-अलग भाषाएँ हैं ? इसका एक प्रमुख कारण यह है कि भाषिक भिन्नताएँ सापेक्षिक होती हैं तथा दो भिन्न भाषा क्षेत्रों के मध्य कोई सीधी एवं सरल विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। यही कारण है कि भाषिक-भूगोल पर कार्य करते समय बहुधा कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। भारत का भाषा-सर्वेक्षण करते समय इसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव ग्रियर्सन को हुआ था। उन्होंने लिखा है कि ‘‘ सर्वेक्षण का कार्य करते समय यह निश्चित करने में कठिनाई पड़ी कि वास्तव में एक कथित भाषा स्वतंत्र भाषा है, अथवा अन्य किसी भाषा की बोली है। इस सम्बन्ध में इस प्रकार का निर्णय देना जिसे सब लोग स्वीकार कर लेंगे, कठिन है। भाषा और बोली मे प्रायः वही सम्बन्ध है जो पहाड़ तथा पहाड़ी में है। यह निःसंकोच रूप से कहा जा सकता है कि एवरेस्ट पहाड़ है और हालबर्न एक पहाड़ी, किन्तु इन दोनों के बीच की विभाजक रेखा को निश्चित रूप से बताना कठिन है।– – – सच तो यह है कि दो बोलियों अथवा भाषाओं में भेदीकरण केवल पारस्परिक वार्ता सम्बन्ध पर ही निर्भर नहीं करता। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस सम्बन्ध में विचार करने के लिए अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों को भी दृष्टि में रखना आवश्यक है।4

व्यावहारिक दृष्टि से जिस क्षेत्र में भाषा के विभिन्न भेदों में पारस्परिक बोधगम्यता होती है, वह क्षेत्र उस भाषा के विभिन्न भेदों का ‘भाषा-क्षेत्र’ कहलाता है। भिन्न भाषा-भाषी व्यक्ति परस्पर विचारों का आदान-प्रदान नहीं कर पाते। इस प्रकार जब एक व्यक्ति अपनी भाषा के माध्यम से दूसरे भाषा-भाषी को भाषा के स्तर पर अपने विचारों, भावनाओं, कल्पनाओं, संवेदनाओं का बोध नहीं करा पाता, तब ऐसी स्थिति में उन दो व्यक्तियों के भाषा रूपों को अलग-अलग भाषाओं के नाम से अभिहित किया जाता है। इस बात इस तथ्य से समझा जा सकता है कि जब कोई ऐसा तमिल-भाषी व्यक्ति जो पहले से हिन्दी नहीं जानता, हिन्दी-भाषी व्यक्ति से बात करता है, तो वह हिन्दी-भाषा व्यक्ति द्वारा कही गई बात को भाषा के माध्यम से नहीं समझ पाता, भले ही वह कही गई बात का आशय संकेतो, मुख मुद्राओं, भाव-भंगिमाओं के माध्यम से समझ जाए। इसके विपरीत यदि कन्नौजी बोलने वाला व्यक्ति अवधी बोलने वाले से बातें करता है, तो दोनों को विचारों के आदान-प्रदान करने में कठिनाइयाँ तो होती हैं, किन्तु फिर भी वे किसी न किसी मात्रा में विचारों का आदान-प्रदान कर लेते हैं। भाषा रूपों की भिन्नता अथवा एकता का यह व्यावहारिक आधार है।भिन्न भाषा रूपों को एक ही भाषा के रूप में अथवा अलग अलग भाषाओं के रूप में मान्यता दिलाने में ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक एवं उन भाषिक रूपों की संरचना एवं व्यवस्था आदि कारण एवं तथ्य अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं, तथा कभी-कभी ‘पारस्परिक बोधगम्यता’ अथवा ‘एक तरफा बोधगम्यता’ के व्यावहारिक सिद्धांत की अपेक्षा अधिक निर्णायक हो जाते हैं। इस दृष्टि से कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं।ऐतिहासिक कारणों से वैनिशन (Venetian) तथा सिसिली (Sicily) को इटाली भाषा की बोलियाँ माना जाता है, यद्यपि इनमें पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत बहुत कम है। इसी प्रकार लैपिश (Lappish) को एक ही भाषा माना जाता है। इसके अन्तर्गत परस्पर अबोधगम्य भाषिक रूप समाहित हैं। इसके विपरीत राजनैतिक कारणों से डेनिश, नार्वेजियन एवं स्वेडिश को अलग-अलग भाषाएँ माना जाता है। इनमें पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत वैनिशन (Venetian) तथा सिसिली (Sicily) के पारस्परिक बोधगम्यता के प्रतिशत से कम नहीं है।  भारतवर्ष के संदर्भ में हिन्दी भाषा के पश्चिमी वर्ग की उप-भाषाओं तथा बिहारी वर्ग की उप-भाषाओं के मध्य बोधगम्यता का प्रतिशत कम है। ‘बिहारी वर्ग’ की उप-भाषाओं पर कार्य करने वाले भाषा-वैज्ञानिकों ने उनमें संरचनात्मक भिन्नताएँ भी पर्याप्त मानी हैं। इतना होने पर भी सांस्कृतिक, राष्ट्रीय एवं ऐतिहासिक कारणों से भोजपुरी एवं मगही बोलने वाले अपने को हिन्दी भाषा-भाषी मानते हैं। ये भाषिक रूप हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्तर्गत समाहित हैं। इसके विपरीत यद्यपि असमिया एवं बांग्ला में पारस्परिक बोधगम्यता एवं संरचनात्मक साम्यता का प्रतिशत कम नहीं है तथापि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक कारणों से इनके बोलने वाले इन भाषा रूपों को भिन्न भाषाएँ मानते हैं। इसी कारण कुछ विद्वानों का मत है कि भाषा-क्षेत्र उस क्षेत्र के प्रयोक्ताओं की मानसिक अवधारणा है। भाषा-क्षेत्र में बोली जाने वाली विभिन्न बोलियों के प्रयोक्ता अपने अपने भाषिक-रूप की पहचान उस भाषा के रूप में करते हैं। विशेष रूप से जब वे किसी भिन्न भाषा-भाषी-क्षेत्र में रहते हैं तो वे अपनी अस्मिता की पहचान उस भाषा के प्रयोक्ता के रूप में करते हैं। 

यदि दो भाषा-क्षेत्रों के मध्य कोई पर्वत या सागर जैसी बड़ी प्राकृतिक सीमा नहीं होती अथवा उन क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्तियों के अलग अलग क्षेत्रों में उनके सामाजिक सम्पर्क को बाधित करने वाली राजनैतिक सीमा नहीं होती तो उन भाषा क्षेत्रों के मध्य कोई निश्चित एवं सरल रेखा नहीं खींची जा सकती। प्रत्येक दो भाषाओं के मध्य प्रायः ऐसा ‘क्षेत्र’ होता है जिसमें निवास करने वाले व्यक्ति उन दोनों भाषाओं को किसी न किसी रूप में समझ लेते हैं। ऐसे क्षेत्र को उन भाषाओं का ‘संक्रमण-क्षेत्र कहते हैं।

जिस प्रकार अपभ्रंश और हिन्दी के बीच किसी एक वर्ष की ‘काल रेखा’ निर्धारित नहीं की जा सकती, फिर भी एक युग ‘अपभ्रंश-युग’ कहलाता है और दूसरा हिन्दी, मराठी, गुजराती आदि ‘नव्यतर भारतीय आर्य भाषाओं का युग’ कहलाता है उसी प्रकार यद्यपि हिन्दी और मराठी के बीच (अथवा अन्य किन्हीं दो भाषाओं के बीच) हम किलोमीटर या मील की कोई रेखा नहीं खींच सकते फिर भी एक क्षेत्र हिन्दी का कहलाता है और दूसरा मराठी का। ऐतिहासिक दृष्टि से  अपभ्रंश और हिन्दी के बीच एव ‘सन्धि-युग’ है जो इन दो भाषाओं के काल-निर्धारण का काम करता है। संकालिक दृष्टि से दो भाषाओं के बीच ‘संक्रमण-क्षेत्र’ होता है जो उन भाषाओं के क्षेत्र को निर्धारित करता है।

प्रत्येक भाषा-क्षेत्र में भाषिक भेद होते हैं। हम किसी ऐसे भाषा क्षेत्र की कल्पना नहीं कर सकते जिसके समस्त भाषा-भाषी भाषा के एक ही रूप के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान करते हों। यदि हम वर्तमानकाल में किसी ऐसे भाषा-क्षेत्र का निर्माण कर भी लें जिसकी भाषा में एक ही बोली हो तब भी कालान्तर में उस क्षेत्र में विभिन्नताएँ विकसित हो जाती हैं। इसका कारण यह है कि किसी भाषा का विकास सम्पूर्ण क्षेत्र में समरूप नहीं होता। परिवर्तन की गति क्षेत्र के अलग-अलग भागों में भिन्न होती है। विश्व के भाषा-इतिहास में ऐसा कोई भी उदाहरण प्राप्त नहीं है जिसमें कोई भाषा अपने सम्पूर्ण क्षेत्र में समान रूप से परिवर्तित हुई हो।

भाषा और बोली के युग्म पर विचार करना सामान्य धारणा है। सामान्य व्यक्ति भाषा को विकसित और बोली को अविकसित मानता है। सामान्य व्यक्ति भाषा को शिक्षित,शिष्ट, विद्वान एवं सुजान प्रयोक्ताओं से जोड़ता है और बोली को अशिक्षित, अशिष्ट, मूर्ख एवं गँवार प्रयोक्ताओं से जोड़ता है। भाषाविज्ञान इस धारणा को अतार्किक और अवैज्ञानिक मानता है। भाषाविज्ञान भाषा को निम्न रूप से परिभाषित करता है –  “भाषा अपने भाषा-क्षेत्र में बोली जाने वाली समस्त बोलियों की समष्टि का नाम है”5।

हम आगे भाषा-क्षेत्र के समस्त सम्भावित भेद-प्रभेदों की विवेचना करेंगे।

व्यक्ति बोलियाँ

एक भाषा क्षेत्र में ‘एकत्व’ की दृष्टि से एक ही भाषा होती है, किन्तु ‘भिन्नत्व’ की दृष्टि से उस भाषा क्षेत्र में जितने बोलने वाले निवास करते हैं उसमें उतनी ही भिन्न व्यक्ति-बोलियाँ होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति भाषा के द्वारा समाज के व्यक्तियों से सम्प्रेषण-व्यवहार करता है। भाषा के द्वारा अपने निजी व्यक्त्वि का विकास एवं विचार की अभिव्यक्ति करता है। प्रत्येक व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व का प्रभाव उसके अभिव्यक्तिकरण व्यवहार पर भी पड़ता है।

प्रत्येक व्यक्ति के अनुभवों, विचारों, आचरण पद्धतियों, जीवन व्यवहारों एवं कार्यकलापों की निजी विशेषताएँ होती हैं। समाज के सदस्यों के व्यक्तित्व की भेदक भिन्नताओं का प्रभाव उनके व्यक्ति-भाषा-रूपों पर पड़ता है और इस कारण प्रत्येक व्यक्ति बोली (idiolect) में निजी भिन्नताएँ अवश्य होती हैं। व्यक्ति बोली के धरातल पर एक व्यक्ति जिस प्रकार बोलता है, ठीक उसी प्रकार दूसरा कोई व्यक्ति नहीं बोलता। यही कारण है कि हम किसी व्यक्ति भले ही न देखें मगर मात्र उसकी आवाज़ को सुनकर उसको पहचान लेते हैं।

यदि भिन्नताओं को और सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो यह बात कही जा सकती है कि स्वनिक स्तर पर कोई भी व्यक्ति एक ध्वनि को उसी प्रकार दोबारा उच्चारित नहीं कर सकता। यदि एक व्यक्ति ‘प’, ध्वनि का सौ बार उच्चारण करता है तो वे ‘प्’ ध्वनि के सौ स्वन होते हैं। इन स्वनों की भिन्नताओं को हमारे कान नहीं पहचान पाते। जब भौतिक ध्वनि विज्ञान के अन्तर्गत ध्वनि-यन्त्रों की सहायता से इसका अध्ययन किया जाता है तो ध्वनि यन्त्र इनके सूक्ष्म अन्तरों को पकड़ पाने की क्षमता रखते हैं। ‘स्वनिक स्तर’ पर प्रत्येक ध्वनि का प्रत्येक उच्चारण एक अलग स्वन होता है।

जिस प्रकार दार्शनिक धरातल पर बौद्ध दर्शन के अनुसार इस संसार के प्रत्येक पदार्थ में प्रतिक्षण परिवर्तन होता है उसी प्रकार भाषा के प्रत्येक व्यक्ति की प्रत्येक ध्वनि का प्रत्येक उच्चार यत्किंचित भिन्नताएँ लिए होता है तथा जिस प्रकार अद्वैतवादी के अनुसार इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक ही परमात्म-तत्त्व की सत्ता है उसी प्रकार एक भाषा क्षेत्र में व्यवहृत होने वाले समस्त भाषिक रूपों को एक ही भाषा के नाम से पुकारा जाता है।

यदि उच्चारण की स्वनिक भिन्नताओं को छोड़ दें तो एक भाषा-क्षेत्र में उस भाषा-जन-समुदाय के जितने सदस्य होते हैं उतनी ही उसमें व्यक्ति-बोलियाँ होती हैं। उन समस्त व्यक्ति-बोलियों के समूह का नाम भाषा है।

बोली

भाषा-क्षेत्र की समस्त व्यक्ति-बोलियों एवं उस क्षेत्र की भाषा के मध्य प्रायः बोली का स्तर होता है। भाषा की क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्नताओं को क्रमशः क्षेत्रगत एवं वर्गगत बोलियों के नाम से पुकारा जाता है। इसको इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि भाषा की संरचक बोलियाँ होती हैं, तथा बोली की संरचक व्यक्ति बोलियाँ।

इस प्रकार तत्त्वतः बोलियों की समष्टि का नाम भाषा है। ‘भाषा क्षेत्र’ की क्षेत्रगत भिन्नताओं एवं वर्गगत भिन्नताओं पर आधारित भाषा के भिन्न रूप उसकी बोलियाँ हैं। बोलियाँ से ही भाषा का अस्तित्व है। इस प्रसंग में, यह सवाल उठाया जा सकता है कि सामान्य व्यक्ति अपने भाषा-क्षेत्र में प्रयुक्त बोलियों से इतर जिस भाषिक रूप को सामान्यतः ‘भाषा’ समझता है वह फिर क्या है। वह असल में उस भाषा क्षेत्र की किसी क्षेत्रीय बोली के आधार पर विकसित ‘उस भाषा का मानक भाषा रूप’ होता है।

इस दृष्टि के कारण ऐसे व्यक्ति ‘मानक भाषा’ या ‘परिनिष्ठित भाषा’ को मात्र ‘भाषा’ नाम से पुकारते हैं तथा अपने इस दृष्टिकोण के कारण ‘बोली’ को भाषा का भ्रष्ट रूप, अपभ्रंश रूप तथा ‘गँवारू भाषा’ जैसे नामों से पुकारते हैं। वस्तुतः बोलियाँ अनौपचारिक एवं सहज अवस्था में अलग-अलग क्षेत्रों में उच्चारित होने वाले रूप हैं जिन्हें संस्कृत में ‘देश भाषा’ तथा अपभ्रंश में ‘देसी भाषा’ कहा गया है।  भाषा का ‘मानक’ रूप समस्त बोलियों के मध्य सम्पर्क सूत्र का काम करता है। भाषा की क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्नताएँ उसे बोलियों के स्तरों में विभाजित कर देती हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बोलियों के स्तर पर विभाजित भाषा के रूप निश्चित क्षेत्र अथवा वर्ग में व्यवहृत होते हैं जबकि प्रकार्यात्मक धरातल पर विकसित भाषा के मानक रूप, उपमानक रूप, विशिष्ट रूप (अपभाषा, गुप्त भाषा आदि) पूरे भाषा क्षेत्र में प्रयुक्त होते हैं, भले ही इनके बोलने वालों की संख्या न्यूनाधिक हो।

प्रत्येक उच्चारित एवं व्यवहृत भाषा की बोलियाँ होती हैं। किसी भाषा में बोलियों की संख्या दो या तीन होती है तो किसी में बीस-तीस भी होती है। कुछ भाषाओं में बोलियों का अन्तर केवल कुछ विशिष्ट ध्वनियों के उच्चारण की भिन्नताओं तथा बोलने के लहजे मात्र का होता है जबकि कुछ भाषाओं में बोलियों की भिन्नताएँ भाषा के समस्त स्तरों पर प्राप्त हो सकती हैं। दूसरे शब्दों में, बोलियों में  ध्वन्यात्मक, ध्वनिग्रामिक, रूपग्रामिक, वाक्यविन्यासीय, शब्दकोषीय एवं अर्थ सभी स्तरों पर अन्तर हो सकते हैं। कहीं-कहीं ये भिन्नताएँ इतनी अधिक होती हैं कि एक सामान्य व्यक्ति यह बता देता है कि अमुक भाषिक रूप का बोलने वाला व्यक्ति अमुक बोली क्षेत्र का है।

किसी-किसी भाषा में क्षेत्रगत भिन्नताएँ इतनी व्यापक होती हैं तथा उन भिन्न भाषिक-रूपों के क्षेत्र इतने विस्तृत होते हैं कि उन्हें सामान्यतः भाषाएँ माना जा सकता है। इसका उदाहरण चीन देश की मंदारिन भाषा है, जिसकी बोलियों के क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत हैं तथा उनमें से बहुत-सी परस्पर अबोधगम्य भी हैं। जब तक यूगोस्लाविया एक देश था तब तक क्रोएशियाई और सर्बियाई को एक भाषा की दो बोलियाँ माना जाता था। यूगोस्लाव के विघटन के बाद से इन्हें भिन्न भाषाएँ माना जाने लगा है। ये उदाहरण इस तथ्य को प्रतिपादित करते हैं कि पारस्परिक बोधगम्यता के सिद्धांत की अपेक्षा कभी-कभी सांस्कृतिक एवं राजनैतिक कारण अधिक निर्णायक भूमिका अदा करते हैं।

हिन्दी भाषा क्षेत्र में भी ‘राजस्थानी’ एवं ‘भोजपुरी’ के क्षेत्र एवं उनके बोलने वालों की संख्या संसार की बहुत सी भाषाओं के क्षेत्र एवं बोलने वालों की संख्या से अधिक है। ´हिन्दी भाषा-क्षेत्र’ में, सामाजिक-सांस्कृतिक समन्वय के प्रतिमान के रूप में मानक अथवा व्यावहारिक हिन्दी सामाजिक जीवन में परस्पर आश्रित सहसम्बन्धों की स्थापना करती है। सम्पूर्ण हिन्दी भाषा क्षेत्र में मानक अथवा व्यावहारिक हिन्दी के उच्च प्रकार्यात्मक सामाजिक मूल्य के कारण ये भाषिक रूप ‘हिन्दी भाषा’ के अन्तर्गत माने जाते हैं। इस सम्बंध में आगे विस्तार से चर्चा की जाएगी।

3.भाषा-क्षेत्र की क्षेत्रगत भिन्नताओं के सम्भावित स्तर –

अभी तक हमने किसी भाषा-क्षेत्र में तीन भाषिक स्तरों की विवेचना की है:-

            (1.)       व्यक्ति-बोली

            (2.)       बोली

            (3.)       भाषा

व्यक्ति-बोलियों के समूह को ‘बोली’ तथा बोलियों के समूह को ‘भाषा’ कहा गया है। जिस प्रकार किसी भाषा के व्याकरण में शब्द एवं वाक्य के बीच अनेक व्याकरणिक स्तर हो सकते हैं उसी प्रकार भाषा एवं बोली एवं व्यक्ति-बोली के बीच अनेक भाषा स्तर हो सकते हैं। इन अनेक स्तरों के निम्न में से कोई एक अथवा अनेक  आधार हो सकते हैं –

I.          भाषा क्षेत्र का विस्तार एवं फैलाव

II.         उस भाषा क्षेत्र के विविध उपक्षेत्रों की भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक स्थितियाँ

III.       भाषा-क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों के पारस्परिक सामाजिक और भावात्मक सम्बन्ध

उपभाषा

यदि किसी भाषा में बोलियों की संख्या बहुत अधिक होती है तथा उस भाषा का क्षेत्र बहुत विशाल होता है तो पारस्परिक बोधगम्यता अथवा अन्य भाषेतर कारणों से बोलियों के वर्ग बन जाते हैं। इनको ‘उप भाषा’ के स्तर के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।

उपबोली

यदि एक बोली का क्षेत्र बहुत विशाल होता है तो उसमें क्षेत्रगत अथवा वर्गगत भिन्नताएँ स्पष्ट दिखाई देती हैं। इनको बोली एवं व्यक्ति-बोली के बीच ‘उपबोली’ का स्तर माना जाता है। उपबोली को कुछ भाषा वैज्ञानिकों ने पेटवा, जनपदीय बोली अथवा स्थान-विशेष की बोली के नाम से पुकारना अधिक संगत माना हैं।

इसको इस प्रकार भी व्यक्त किया जा सकता है कि किसी भाषा क्षेत्र में भाषा की संरचक उपभाषाएँ, उपभाषा के संरचक बोलियाँ, बोली के संरचक उपबोलियाँ तथा उपबोली के संरचक व्यक्ति बोलियाँ हो सकती हैं। व्यक्ति-बोली से लेकर भाषा तक अनेक वर्गीकृत स्तरों का अधिक्रम हो सकता है।

4. हिन्दी की समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा

 हिन्दी कभी अपने भाषा-क्षेत्र की सीमाओं में नहीं सिमटी। यह हिमालय से लेकर कन्याकुमारी और द्वारका से लेकर कटक तक भारतीय लोक चेतना की संवाहिका रही। सम्पर्क भाषा हिन्दी की एक अन्य विशिष्टता यह रही कि यह किसी बँधे बँधाए मानक रूप की सीमाओं में नहीं जकड़ी। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि केवल बोलचाल की भाषा में ही यह प्रवृत्ति नहीं है; साहित्य में प्रयुक्त हिन्दी में भी यह प्रवृत्ति मिलती है।

हिन्दी साहित्य की समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा रही है, हिन्दी साहित्य के इतिहास की समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा रही है और हिन्दी साहित्य के अध्ययन और अध्यापन की भी समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा रही है। जो पाठक इस परम्परा को विस्तार से जानना चाहते हैं, वे मेरे “हिन्दी काव्यभाषा का उद् गम कालीन स्वरूप” शीर्षक लेख का अध्ययन कर सकते हैं।6 हिन्दी की इस समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा को जानना बहुत जरूरी है तथा इसे आत्मसात करना भी बहुत जरूरी है तभी हिन्दी क्षेत्र की अवधारणा को जाना जा सकता है और जो ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का कुचक्र रच रही हैं तथा हिन्दी की ताकत को समाप्त करने के षड़यंत्र कर रही हैं उन ताकतों के षड़यंत्रों को बेनकाब किया जा सकता है तथा उनके कुचक्रों को ध्वस्त किया जा सकता है। 

वर्तमान में हम हिन्दी भाषा के इतिहास के बहुत महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़े हुए हैं। आज बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है। आज हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के जो प्रयत्न हो रहे हैं सबसे पहले उन्हे जानना और पहचानना जरूरी है और इसके बाद उनका प्रतिकार करने की जरूरत है। यदि आज हम इससे चूक गए तो इसके भयंकर परिणाम होंगे। मुझे सन् 1993 के एक प्रसंग का स्मरण आ रहा है। मध्य प्रदेश के तत्कालीन शिक्षा मंत्री ने भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्री को मध्य प्रदेश में ‘मालवी भाषा शोध संस्थान’ खोलने तथा उसके लिए अनुदान का प्रस्ताव भेजा था। उस समय भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्री श्री अर्जुन सिंह थे जिनके प्रस्तावक से निकट के सम्बंध थे। मंत्रालय ने उक्त प्रस्ताव केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक होने के नाते लेखक के पास टिप्पण देने के लिए भेजा। लेखक ने सोच समझकर टिप्पण लिखा: “भारत सरकार को पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मध्य प्रदेश हिन्दी भाषी राज्य है अथवा बुन्देली, बघेली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी आदि भाषाओं का राज्य है”। मुझे पता चला कि उक्त टिप्पण के बाद प्रस्ताव को ठंढे बस्ते में डाल दिया गया। 

एक ओर हिन्दीतर राज्यों के विश्वविद्यालयों और विदेशों के लगभग 176 विश्वविद्यालयों एवं संस्थाओं में हजारों की संख्या में शिक्षार्थी हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन और शोध कार्य में समर्पण-भावना तथा पूरी निष्ठा से प्रवृत्त तथा संलग्न हैं वहीं दूसरी ओर हिन्दी भाषा-क्षेत्र में ही अनेक लोग हिन्दी के विरुद्ध साजिश रच रहे हैं। सामान्य व्यक्ति ही नहीं, हिन्दी के तथाकथित विद्वान भी हिन्दी का अर्थ खड़ी बोली मानने की भूल कर रहे हैं।

जब लेखक जबलपुर के विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी एवं भाषाविज्ञान विभाग का प्रोफेसर था, उसके पास विभिन्न विश्वविद्यालयों से हिन्दी की उपभाषाओं / बोलियों पर पी-एच. डी. एवं डी. लिट्. उपाधियों के लिए प्रस्तुत शोध प्रबंध जाँचने के लिए आते थे। लेखक ने ऐसे अनेक शोध प्रबंध देखें जिनमें एक ही पृष्ठ पर एक पैरा में विवेच्य बोली को उपबोली का दर्जा दिया दिया गया, दूसरे पैरा में उसको हिन्दी की बोली निरुपित किया गया तथा तीसरे पैरा में उसे भारत की प्रमुख भाषा के अभिधान से महिमामंडित कर दिया गया।

इससे यह स्पष्ट है कि शोध छात्रों अथवा शोध छात्राओं को तो जाने ही दीजिए उन शोध छात्रों अथवा शोध छात्राओं के निर्देशक महोदय भी भाषा-भूगोल एवं बोली विज्ञान (Linguistic Geography and Dialectology) के सिद्धांतों से अनभिज्ञ थे।

सन् 2009 में, लेखक ने नामवर सिंह का यह वक्तव्य पढ़ाः

 “हिंदी समूचे देश की भाषा नहीं है वरन वह तो अब एक प्रदेश की भाषा भी नहीं है। उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों की भाषा भी हिंदी नहीं है। वहाँ की क्षेत्रीय भाषाएँ यथा अवधी, भोजपुरी, मैथिल आदि हैं”। इसको पढ़कर मैंने नामवर सिंह के इस वक्तव्य पर असहमति के तीव्र स्वर दर्ज कराने तथा हिन्दी के विद्वानों को वस्तुस्थिति से अवगत कराने के लिए लेख लिखा। हिन्दी के प्रेमियों से लेखक का यह अनुरोध है कि इस लेख का अध्ययन करने की अनुकंपा करें जिससे हिन्दी के कथित बड़े विद्वान एवं आलोचक डॉ. नामवर सिंह जैसे लोगों के हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ डालने के मंसूबे ध्वस्त हो सकें तथा ऐसी ताकतें बेनकाब हो सकें। जो व्यक्ति मेरे इस कथन को विस्तार से समझना चाहते हैं, वे मेरे ‘क्या उत्तर प्रदेश एवं बिहार हिन्दी भाषी राज्य नहीं हैं’ शीर्षक लेख का अध्ययन कर सकते हैं।7

5.हिन्दी भाषा-क्षेत्र के क्षेत्रीय भाषिक-रूप

हिन्दी भाषा के संदर्भ में विचारणीय है कि अवधी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, ब्रज, कन्नौजी, खड़ी बोली को बोलियाँ माने या उपभाषाएँ ?

यहाँ यह द्रष्टव्य है कि इनके क्षेत्र तथा इनके बोलने वालों की संख्या काफी विशाल है तथा इनमें बहुत अधिक भिन्नताएँ हैं जिनके कारण इनको बोली की अपेक्षा उपभाषा मानना अधिक संगत है। उदाहरण के रूप में यदि बुन्देली को उपभाषा के रूप में स्वीकार किया जाता है तो पंवारी , लोधान्ती, खटोला, भदावरी, सहेरिया तथा ‘छिन्दवाड़ा बुन्देली’ आदि रूपों को बुन्देली उपभाषा की बोलियाँ माना जा सकता है। इन बोलियों में एक या एक से अधिक बोलियों की अपनी उपबोलियाँ हैं। उदाहरण के रूप में बुन्देली उपभाषा की ‘छिन्दवाड़ा बुन्देली’ बोली की पोवारी, गाओंली, राघोबंसी, किरारी आदि उपबोलियाँ है। इस प्रकार बुन्देली के संदर्भ में व्यक्तिगत बोली, उपबोली, बोली, एवं उपभाषा रूप प्राप्त हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार बुन्देली में बोलियाँ एवं उनकी उपबोलियाँ मिलती हैं उसी प्रकार कन्नौजी की बोलियाँ एवं उनकी उपबोलियाँ अथवा हरियाणवी की बोलियाँ एवं उपबोलियाँ प्राप्त नहीं होती। किन्तु हरियाणवी एवं कन्नौजी को भी वही दर्जा देना पड़ेगा जो हम बुन्देली को देंगे। यदि हम बुन्देली को हिन्दी की एक उपभाषा के रूप में स्वीकार करते हैं तो कन्नौजी एवं हरियाणवी भी हिन्दी की उपभाषाएँ हैं। इस दृष्टि से हिन्दी के क्षेत्रगत रूपों के स्तर वर्गीकरण में कहीं उपभाषा एवं बोली के अलग-अलग स्तर हैं तथा कहीं उपभाषा एवं बोली का एक ही स्तर हैं। यह बहुत कुछ इसी प्रकार है जिस प्रकार मिश्र एवं संयुक्त वाक्यों में वाक्य एवं उपवाक्य के स्तर अलग-अलग होते हैं किन्तु सरल वाक्य में एक ही उपवाक्य होता है।

हिन्दी भाषा के संदर्भ में विचारणीय है कि क्या उपभाषा एवं भाषा के बीच भी कोई स्तर स्थापित किया जाना चाहिए अथवा नहीं।इसका कारण यह है कि जिन भाषा रूपों को हमने उपभाषाएँ कहा है उन उपभाषाओं को ग्रियर्सन ने भाषा-सर्वेक्षण में ऐतिहासिक सम्बंधों के आधार पर 05 वर्गों में बाँटा है तथा प्रत्येक वर्ग में एकाधिक उपभाषाओं को समाहित किया है। ये पाँच वर्ग निम्नलिखित है:-

            (1.)       पश्चिमी हिन्दी

            (2.)       पूर्वी हिन्दी

            (3.)       राजस्थानी

            (4.)       बिहारी

            (5.)       पहाड़ी

इस सम्बंध में लेखक का मत है कि संकालिक भाषावैज्ञानिक दृष्टि से इस प्रकार के वर्गीकरण की आवश्यकता नहीं है। जो विद्वान ग्रियर्सन के ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से इन वर्गों को कोई नाम देना ही चाहते हैं तो वे हिन्दी के सन्दर्भ में उपभाषा एवं भाषा के बीच उपभाषा की समूह गत इकाइयों को अन्य किसी नाम के अभाव में ‘उपभाषावर्ग’ के नाम से पुकार सकते हैं।

इस प्रकार जिस भाषा का क्षेत्र अपेक्षाकृत छोटा होता है वहाँ भाषा के केवल 3 क्षेत्रगत स्तर होते हैं:-

1.व्यक्ति बोली

2.बोली

3.भाषा

हिन्दी जैसे विस्तृत भाषा-क्षेत्र में निम्नलिखित क्षेत्रगत स्तर हो सकते हैं:-

व्यक्ति बोली

उपबोली

बोली

उपभाषा

उपभाषावर्ग

भाषा

जो विद्वान हिन्दी भाषा की कुछ उपभाषाओं को हिन्दी भाषा से भिन्न भाषाएँ मानने के मत एवं विचार प्रस्तुत कर रहे हैं उनके निराकरण के लिए तथा जिज्ञासु पाठकों के अवलोकनार्थ एवं विचारार्थ निम्न टिप्पण प्रस्तुत हैं –

‘हिन्दी भाषा क्षेत्र’ के अन्‍तर्गत भारत के निम्‍नलिखित राज्‍य एवं केन्‍द्र शासित प्रदेश समाहित हैं –

उत्‍तर प्रदेश

उत्‍तराखंड

बिहार

 झारखंड

मध्‍यप्रदेश

छत्‍तीसगढ़

राजस्‍थान

हिमाचल प्रदेश

हरियाणा

दिल्ली

चण्डीगढ़।

भारत के संविधान की दृष्‍टि से यही स्‍थिति है।भाषाविज्ञान का प्रत्‍येक विद्‌यार्थी जानता है कि प्रत्‍येक भाषा क्षेत्र में भाषिक भिन्‍नताएँ होती हैं। हम यह प्रतिपादित कर चुके हैं कि प्रत्येक ‘भाषा क्षेत्र’ में क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्‍नताएँ होती हैं तथा बोलियों की समष्‍टि का नाम ही भाषा है। किसी भाषा की बोलियों से इतर व्‍यवहार में सामान्‍य व्‍यक्‍ति भाषा के जिस रूप को ‘भाषा’ के नाम से अभिहित करते हैं वह तत्‍वतः भाषा नहीं होती। भाषा का यह रूप उस भाषा क्षेत्र के किसी बोली अथवा बोलियों के आधार पर विकसित उस भाषा का ‘मानक भाषा रूप’/’व्‍यावहारिक भाषा रूप’ होता है। भाषा विज्ञान से अनभिज्ञ व्‍यक्‍ति इसी को ‘भाषा’ कहने लगते हैं तथा ‘भाषा क्षेत्र’ की बोलियों को अविकसित, हीन एवं गँवारू कहने, मानने एवं समझने लगते हैं।

हम इस संदर्भ में, इस तथ्य को रेखांकित करना चाहते हैं कि भारतीय भाषिक परम्‍परा इस दृष्‍टि से अधिक वैज्ञानिक रही है। भारतीय परम्‍परा ने भाषा के अलग अलग क्षेत्रों में बोले जाने वाले भाषिक रूपों को ‘देस भाखा’ अथवा ‘देसी भाषा’ के नाम से पुकारा तथा घोषणा की कि देसी वचन सबको मीठे लगते हैं – ‘ देसिल बअना सब जन मिट्‌ठा।’8

हिन्‍दी भाषा क्षेत्र में हिन्‍दी की मुख्‍यतः 20 बोलियाँ अथवा उपभाषाएँ बोली जाती हैं। इन 20 बोलियों अथवा उपभाषाओं को ऐतिहासिक परम्‍परा से पाँच वर्गों में विभक्‍त किया जाता है – पश्‍चिमी हिन्‍दी, पूर्वी हिन्‍दी, राजस्‍थानी हिन्‍दी, बिहारी हिन्‍दी और पहाड़ी हिन्‍दी।

पश्चिमी हिन्‍दी – 1. खड़ी बोली 2. ब्रजभाषा 3. हरियाणवी 4. बुन्‍देली 5. कन्‍नौजी

पूर्वी हिन्‍दी – 1. अवधी 2. बघेली 3. छत्‍तीसगढ़ी

राजस्‍थानी – 1. मारवाड़ी 2. मेवाती 3. जयपुरी 4.मालवी

बिहारी – 1. भोजपुरी 2. मैथिली 3. मगही 4. अंगिका 5. बज्जिका

पहाड़ी –  1. कूमाऊँनी 2. गढ़वाली 3. हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली हिन्‍दी की अनेक बोलियाँ जिन्‍हें आम बोलचाल में ‘ पहाड़ी ‘ नाम से पुकारा जाता है।

टिप्पण –

मैथिली –

मैथिली  को अलग भाषा का दर्जा दे दिया गया है हॉलाकि हिन्‍दी साहित्‍य के पाठ्‌यक्रम में अभी भी मैथिली कवि विद्‌यापति पढ़ाए जाते हैं तथा जब नेपाल में मैथिली आदि भाषिक रूपों के बोलने वाले मधेसी लोगों पर दमनात्‍मक कार्रवाई होती है तो वे अपनी पहचान ‘हिन्‍दी भाषी’ के रूप में उसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार मुम्‍बई में रहने वाले भोजपुरी, मगही, मैथिली एवं अवधी आदि बोलने वाले अपनी पहचान ‘हिन्‍दी भाषी’ के रूप में करते हैं।

छत्तीसगढ़ी एवं भोजपुरी –

जबसे मैथिली एवं छत्तीसगढ़ी को अलग भाषाओं का दर्जा मिला है तब से भोजपुरी को भी अलग भाषा का दर्जा दिए जाने की माँग प्रबल हो गई है। हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का सिलसिला मैथिली एवं छत्तीसगढ़ी से आरम्भ हो गया है। मैथिली पर टिप्पण लिखा जा चुका है। छत्तीसगढ़ी एवं भोजपुरी के सम्बंध में कुछ विचार प्रस्तुत हैं। जब तक छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश का हिस्सा था तब तक छत्तीसगढ़ी को हिन्दी की बोली माना जाता था। रायपुर विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा का सन् 1976 में एक आलेख रायपुर से भाषिकी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ जिसमें हिन्दी की 22 बोलियों के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी समाहित है।9

लेखक भोजपुरी के सम्बंध में भी कुछ निवेदन करना चाहता है। लेखक को जबलपुर के विश्वविद्यालय में डॉ. उदय नारायण तिवारी जी के साथ काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भोजपुरी की भाषिक स्थिति को लेकर अकसर हमारे बीच विचार विमर्श होता था। उनके जामाता डॉ. शिव गोपाल मिश्र उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष व्याख्यानमाला आयोजित करते हैं। दिनांक 26 जून, 2013 को मुझे हिन्दुस्तानी एकाडमी, इलाहाबाद के श्री बृजेशचन्द्र का ‘डॉ. उदय नारायण तिवारी व्याख्यानमाला’ निमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ। व्याख्यान का विषय था – ‘भोजपुरी भाषा’। लेखक ने उसी दिन व्याख्यान के सम्बंध में डॉ. शिव गोपाल मिश्र को जो पत्र लिखा उसका व्याख्यान के विषय से सम्बंधित अंश पाठको के अवलोकनार्थ अविकल प्रस्तुत हैं –

डॉ. उदय नारायण तिवारी जी ने भोजपुरी का भाषावैज्ञानिक अध्ययन किया। उनके अध्ययन का वही महत्व है जो सुनीति कुमार चटर्जी के बांग्ला पर सम्पन्न कार्य का है। इस विषय पर हमारे बीच अनेक बार संवाद हुए। कई बार मत भिन्नता भी हुई। जब लेखक भाषा-भूगोल एवं बोली-विज्ञान के सिद्धांतों के आलोक में हिन्दी भाषा-क्षेत्र की विवेचना करता था तो डॉ. तिवारी जी इस मत से सहमत हो जाते थे कि हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अंतर्गत भारत के जितने राज्य एवं केन्द्र शासित प्रदेश समाहित हैं, उन समस्त क्षेत्रों में जो भाषिक रूप बोले जाते हैं, उनकी समष्टि का नाम हिन्दी है। खड़ी बोली ही हिन्दी नहीं है अपितु यह भी हिन्दी भाषा-क्षेत्र का उसी प्रकार एक क्षेत्रीय भेद है जिस प्रकार हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्य अनेक क्षेत्रीय भेद हैं। मगर कभी-कभी उनका तर्क होता था कि खड़ी बोली बोलने वाले और भोजपुरी बोलने वालों के बीच बोधगम्यता बहुत कम होती है। इस कारण भोजपुरी को यदि अलग भाषा माना जाता है तो इसमें क्या हानि है। जब लेखक कहता था कि भाषाविज्ञान का सिद्धांत है कि संसार की प्रत्येक भाषा के ‘भाषा-क्षेत्र’ में भाषिक भिन्नताएँ होती हैं। हम ऐसी किसी भाषा की कल्पना नहीं कर सकते जिसके भाषा-क्षेत्र में क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्नताएँ न हों। इस पर डॉ. तिवारी जी असमंजस में पड़ जाते थे। अनेक वर्षों के संवाद के अनन्तर एक दिन डॉ. तिवारी जी ने मुझे अपने मन के रहस्य से अवगत कराया। उनके शब्द थेः

“जब मैं ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के अपने अध्ययन के आधार पर विचार करता हूँ तो मुझे भोजपुरी की स्थिति हिन्दी से अलग भिन्न भाषा की लगती है मगर जब मैं संकालिक भाषाविज्ञान के सिद्धांतों की दृष्टि से सोचता हूँ तो पाता हूँ कि भोजपुरी भी हिन्दी भाषा-क्षेत्र का एक क्षेत्रीय रूप है”।10

बहुत से विद्वान यह तर्क देते हैं कि डॉ. उदय नारायण तिवारी ने “भोजपुरी भाषा और साहित्य” शीर्षक ग्रंथ में “भोजपुरी” को भाषा माना है। इस सम्बंध में, लेखक विद्वानों को इस तथ्य से अवगत करना चाहता है कि हिन्दी में प्रकाशित उक्त ग्रंथ उनके डी. लिट्. उपाधि के लिए स्वीकृत अंग्रेजी भाषा में लिखे गए शोध-प्रबंध का हिन्दी रूपांतर है। डॉ. उदय नारायण तिवारी ने कलकत्ता में सन् 1941 ईस्वी में पहले ‘तुलनात्मक भाषाविज्ञान’ में एम. ए. की परीक्षा पास की तथा सन् 1942 ईस्वी में डी. लिट्. उपाधि के लिए शोध-प्रबंध पूरा करके इलाहाबाद लौट आए तथा उसे परीक्षण के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जमा कर दिया। आपने अपना शोध-प्रबंध अंग्रेजी भाषा में डॉ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या के निर्देशन में सम्पन्न किया तथा डी. लिट्. की उपाधि प्राप्त होने के बाद इसका प्रकाशन ‘एशियाटिक सोसाइटी’ से हुआ। इस शोध-प्रबंध का शीर्षक है – ‘ए डाइलेक्ट ऑफ भोजपुरी’। डॉ. उदय नारायण तिवारी ने इस तथ्य को स्वयं अपने एक लेख अभिव्यक्त किया है।11

राजस्थानी –

“श्रीमद्जवाहराचार्य स्मृति व्याख्यानमाला” के अन्तर्गत “विश्व शान्ति एवं अहिंसा” विषय पर व्याख्यान देने सन् 1987 ईस्वी में लेखक का कलकत्ता (कोलकोता) जाना हुआ था। वहाँ श्री सरदारमल जी कांकरिया के निवास पर लेखक का संवाद राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए आन्दोलन चलाने वाले तथा राजस्थानी में “धरती धौरां री” एवं “पातल और पीथल” जैसी कृतियों की रचना करने वाले कन्हैया लाल सेठिया जी से हुआ। उनका आग्रह था कि राजस्थानी को स्वतंत्र भाषा का दर्जा मिलना चाहिए। लेखक ने उनसे अपने आग्रह पर पुनर्विचार करने की कामना व्यक्त की और मुख्यतः निम्न मुद्दों पर विचार करने का अनुरोध किया –

(1) ग्रियर्सन ने ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया है। स्वाधीनता आन्दोलन में हमारे राष्ट्रीय नेताओं के कारण हिन्दी का जितना प्रचार प्रसार हुआ उसके कारण हमें ग्रियर्सन की दृष्टि से नहीं अपितु डॉ. धीरेन्द्र वर्मा आदि भाषाविदों की दृष्टि से विचार करना चाहिए।

(2) राजस्थानी भाषा जैसी कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है। राजस्थान में निम्न क्षेत्रीय भाषिक-रूप बोले जाते हैं –

1. मारवाड़ी

2.मेवाती

3.जयपुरी

4. मालवी (राजस्थान के साथ-साथ मध्य-प्रदेश में भी)

राजस्थानी जैसी स्वतंत्र भाषा नहीं है। इन विविध भाषिक रूपों को हिन्दी के रूप मानने में क्या आपत्ति हो सकती है।

(3) यदि आप राजस्थानी का मतलब केवल मारवाड़ी से लेंगे तो क्या मेवाती, जयपुरी, मालवी, हाड़ौती, शेखावाटी आदि अन्य भाषिक रूपों के बोलने वाले अपने अपने भाषिक रूपों के लिए आवाज़ नहीं उठायेंगे।

(4) भारत की भाषिक परम्परा रही है कि एक भाषा के हजारों भूरि भेद माने गए हैं मगर अंतरक्षेत्रीय सम्पर्क के लिए एक भाषा की मान्यता रही है।

(5) हिन्दी साहित्य की संश्लिष्ट परम्परा रही है। इसी कारण हिन्दी साहित्य के अंतर्गत रास एवं रासो साहित्य की रचनाओं का भी अध्ययन किया जाता है।

(6) राजस्थान की पृष्ठभूमि  पर आधारित हिन्दी कथा साहित्य एवं हिन्दी फिल्मों में जिस राजस्थानी मिश्रित हिन्दी का प्रयोग होता है उसे हिन्दी भाषा क्षेत्र के प्रत्येक भाग का रहने वाला समझ लेता है।

(7) मारवाड़ी लोग व्यापार के कारण भारत के प्रत्येक राज्य में निवास करते हैं तथा अपनी पहचान हिन्दी भाषी के रूप में करते हैं। यदि आप राजस्थानी को हिन्दी से अलग मान्यता दिलाने का प्रयास करेंगे तो राजस्थान के बाहर रहने वाले मारवाड़ी व्यापारियों के हित प्रभावित हो सकते हैं।

(8) भारतीय भाषाओं के अस्तित्व एवं महत्व को अंग्रेजी से खतरा है। संसार में अंग्रेजी भाषियों की जितनी संख्या है उससे अधिक संख्या केवल हिन्दी भाषियों की है। यदि हिन्दी के उपभाषिक रूपों को हिन्दी से अलग मान लिया जाएगा तो भारत की कोई भाषा अंग्रेजी से टक्कर नहीं ले सकेगी और धीरे धीरे भारतीय भाषाओं के अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा।12

पहाड़ी –

डॉ. सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने ‘पहाड़ी’ समुदाय के अन्‍तर्गत बोले जाने वाले भाषिक रूपों को तीन शाखाओं में बाँटा –

(अ) पूर्वी पहाड़ी अथवा नेपाली

(आ)  मध्‍य या केन्‍द्रीय पहाड़ी

(इ)पश्‍चिमी पहाड़ी।

हिन्‍दी भाषा के संदर्भ में वर्तमान स्‍थिति यह है कि हिन्‍दी भाषा के अन्‍तर्गत मध्‍य या केन्‍द्रीय पहाड़ी की उत्‍तराखंड में बोली जाने वाली 1.  कूमाऊँनी 2. गढ़वाली तथा पश्‍चिमी पहाड़ी की हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली हिन्‍दी की अनेक बोलियाँ हैं जिन्‍हें आम बोलचाल में ‘ पहाड़ी ‘ नाम से पुकारा जाता है।

हिन्‍दी भाषा के संदर्भ में विचारणीय है कि अवधी, बुन्‍देली, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली आदि को हिन्‍दी भाषा की बोलियाँ माना जाए अथवा उपभाषाएँ माना जाए। सामान्‍य रूप से इन्‍हें बोलियों के नाम से अभिहित किया जाता है किन्‍तु लेखक ने अपने ग्रन्‍थ ‘ भाषा एवं भाषाविज्ञान’ में इन्‍हें उपभाषा मानने का प्रस्‍ताव किया है। ‘ – – क्षेत्र, बोलने वालों की संख्‍या तथा परस्‍पर भिन्‍नताओं के कारण इनको बोली की अपेक्षा उपभाषा मानना अधिक संगत है। इसी ग्रन्‍थ में लेखक ने पाठकों का ध्‍यान इस ओर भी आकर्षित किया कि हिन्‍दी की कुछ उपभाषाओं के भी क्षेत्रगत भेद हैं जिन्‍हें उन उपभाषाओं की बोलियों अथवा उपबोलियों के नाम से पुकारा जा सकता है। 13

यहाँ यह भी उल्‍लेखनीय है कि इन उपभाषाओं के बीच कोई स्‍पष्‍ट विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है। प्रत्‍येक दो उपभाषाओं के मध्‍य संक्रमण क्षेत्र विद्‌यमान है।

6. हिन्दी भाषा-क्षेत्र की मानक भाषा

विश्‍व की प्रत्‍येक भाषा के विविध बोली अथवा उपभाषा क्षेत्रों में से विभिन्न सांस्‍कृतिक कारणों से जब कोई एक क्षेत्र अपेक्षाकृत अधिक महत्‍वपूर्ण हो जाता है तो उस क्षेत्र के भाषा रूप का सम्‍पूर्ण भाषा क्षेत्र में प्रसारण होने लगता है। इस क्षेत्र के भाषारूप के आधार पर पूरे भाषाक्षेत्र की ‘मानक भाषा’ का विकास होना आरम्‍भ हो जाता है। भाषा के प्रत्‍येक क्षेत्र के निवासी इस भाषारूप को ‘मानक भाषा’ मानने लगते हैं। इसको मानक मानने के कारण यह मानक भाषा रूप ‘भाषा क्षेत्र’ के लिए सांस्‍कृतिक मूल्‍यों का प्रतीक बन जाता है। मानक भाषा रूप की शब्‍दावली, व्‍याकरण एवं उच्‍चारण का स्‍वरूप अधिक निश्चित एवं स्‍थिर होता है एवं इसका प्रचार, प्रसार एवं विस्‍तार पूरे भाषा क्षेत्र में होने लगता है। कलात्‍मक एवं सांस्‍कृतिक अभिव्‍यक्‍ति का माध्‍यम एवं शिक्षा का माध्‍यम यही मानक भाषा रूप हो जाता है। इस प्रकार भाषा के ‘मानक भाषा रूप’ का आधार उस भाषाक्षेत्र की क्षेत्रीय बोली अथवा उपभाषा ही होती है, किन्‍तु मानक भाषा होने के कारण चूँकि इसका प्रसार अन्‍य बोली क्षेत्रों अथवा उपभाषा क्षेत्रों में होता है इस कारण इस भाषारूप पर ‘भाषा क्षेत्र’ की सभी बोलियों का प्रभाव पड़ता है तथा यह भी सभी बोलियों अथवा उपभाषाओं को प्रभावित करता है। उस भाषा क्षेत्र के शिक्षित व्‍यक्‍ति औपचारिक अवसरों पर इसका प्रयोग करते हैं। भाषा के मानक भाषा रूप को सामान्‍य व्‍यक्‍ति अपने भाषा क्षेत्र की ‘मूल भाषा’, केन्‍द्रक भाषा’, ‘मानक भाषा’ के नाम से पुकारते हैं। यदि किसी भाषा का क्षेत्र हिन्‍दी भाषा की तरह विस्‍तृत होता है तथा यदि उसमें ‘हिन्‍दी भाषा क्षेत्र’ की भाँति उपभाषाओं एवं बोलियों की अनेक परतें एवं स्‍तर होते हैं तो ‘मानक भाषा’ के द्वारा समस्‍त भाषा क्षेत्र में विचारों का आदान प्रदान सम्‍भव हो पाता है। भाषा क्षेत्र के यदि आंशिक अबोधगम्‍य उपभाषी अथवा बोली बोलने वाले परस्‍पर अपनी उपभाषा अथवा बोली के माध्‍यम से विचारों का समुचित आदान प्रदान नहीं कर पाते तो इसी मानक भाषा के द्वारा संप्रेषण करते हैं। भाषा विज्ञान में इस प्रकार की बोधगम्‍यता को ‘पारस्‍परिक बोधगम्‍यता’ न कहकर ‘एकतरफ़ा बोधगम्‍यता’ कहते हैं। ऐसी स्‍थिति में अपने क्षेत्र के व्‍यक्‍ति से क्षेत्रीय बोली में बातें होती हैं किन्‍तु दूसरे उपभाषा क्षेत्र अथवा बोली क्षेत्र के व्‍यक्‍ति से अथवा औपचारिक अवसरों पर मानक भाषा के द्वारा बातचीत होती हैं। इस प्रकार की भाषिक स्‍थिति को फर्गुसन ने बोलियों की परत पर मानक भाषा का अध्‍यारोपण कहा है।14 गम्‍पर्ज़ ने इसे ‘बाइलेक्‍टल’ के नाम से पुकारा है।15

7. हिन्दी भाषा-क्षेत्र एवं सामाजिक संप्रेषण 

हिन्‍दी भाषा क्षेत्र में अनेक क्षेत्रगत भेद एवं उपभेद तो है हीं; प्रत्‍येक क्षेत्र के प्रायः प्रत्‍येक गाँव में सामाजिक भाषिक रूपों के विविध स्‍तरीकृत तथा जटिल स्‍तर विद्‌यमान हैं और यह हिन्दी भाषा-क्षेत्र के सामाजिक संप्रेषण का यथार्थ है जिसको जाने बिना कोई व्यक्ति हिन्दी भाषा के क्षेत्र की विवेचना के साथ न्याय नहीं कर सकता। ये हिन्‍दी पट्‌टी के अन्दर सामाजिक संप्रेषण के विभिन्‍न नेटवर्कों के बीच संवाद के कारक हैं। इस हिन्‍दी भाषा क्षेत्र अथवा पट्‌टी के गावों के रहनेवालों के वाग्‍व्‍यवहारों का गहराई से अध्‍ययन करने पर पता चलता है कि ये भाषिक स्‍थितियाँ इतनी विविध, विभिन्‍न एवं मिश्र हैं कि भाषा व्‍यवहार के स्‍केल के एक छोर पर हमें ऐसा व्‍यक्‍ति मिलता है जो केवल स्‍थानीय बोली बोलना जानता है तथा जिसकी बातचीत में स्‍थानीयेतर कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता वहीं दूसरे छोर पर हमें ऐसा व्‍यक्‍ति मिलता है जो ठेठ मानक हिन्‍दी का प्रयोग करता है तथा जिसकी बातचीत में कोई स्‍थानीय भाषिक प्रभाव परिलक्षित नहीं होता। स्‍केल के इन दो दूरतम छोरों के बीच बोलचाल के इतने विविध रूप मिल जाते हैं कि उन सबका लेखा जोखा प्रस्‍तुत करना असाध्‍य हो जाता है। हमें ऐसे भी व्‍यक्‍ति मिल जाते हैं जो एकाधिक भाषिक रूपों में दक्ष होते हैं जिसका व्‍यवहार तथा चयन वे संदर्भ, व्‍यक्‍ति, परिस्‍थियों को ध्‍यान में रखकर करते हैं। सामान्‍य रूप से हम पाते हैं कि अपने घर के लोगों से तथा स्‍थानीय रोजाना मिलने जुलने वाले घनिष्‍ठ मित्रों से व्‍यक्‍ति जिस भाषा रूप में बातचीत करता है उससे भिन्‍न भाषा रूप का प्रयोग वह उनसे भिन्‍न व्‍यक्‍तियों एवं परिस्‍थितियों में करता है। सामाजिक संप्रेषण के अपने प्रतिमान हैं। व्‍यक्‍ति प्रायः वाग्‍व्‍यवहारों के अवसरानुकूल प्रतिमानों को ध्‍यान में रखकर बातचीत करता है।

हम यह कह चुके हैं कि किसी भाषा क्षेत्र की मानक भाषा का आधार कोई बोली अथवा उपभाषा ही होती है किन्‍तु कालान्‍तर में उक्‍त बोली एवं मानक भाषा के स्‍वरूप में पर्याप्‍त अन्‍तर आ जाता है। सम्‍पूर्ण भाषा क्षेत्र के शिष्‍ट एवं शिक्षित व्‍यक्‍तियों द्वारा औपचारिक अवसरों पर मानक भाषा का प्रयोग किए जाने के कारण तथा साहित्‍य का माध्‍यम बन जाने के कारण स्‍वरूपगत परिवर्तन स्‍वाभाविक है। प्रत्‍येक भाषा क्षेत्र में किसी क्षेत्र विशेष के भाषिक रूप के आधार पर उस भाषा का मानक रूप विकसित होता है, जिसका उस भाषा-क्षेत्र के सभी क्षेत्रों के पढ़े-लिखे व्‍यक्‍ति औपचारिक अवसरों पर प्रयोग करते हैं। हम पाते हैं कि इस मानक हिन्‍दी अथवा व्‍यावहारिक हिन्‍दी का प्रयोग सम्‍पूर्ण हिन्‍दी भाषा क्षेत्र में बढ़ रहा है तथा प्रत्‍येक हिन्‍दी भाषी व्‍यक्‍ति शिक्षित, सामाजिक दृष्‍टि से प्रतिष्‍ठित तथा स्‍थानीय क्षेत्र से इतर अन्‍य क्षेत्रों के व्‍यक्‍तियों से वार्तालाप करने के लिए इसी को आदर्श, श्रेष्‍ठ एवं मानक मानता है। गाँव में रहने वाला एक सामान्‍य एवं बिना पढ़ा लिखा व्‍यक्‍ति भले ही इसका प्रयोग करने में समर्थ तथा सक्षम न हो फिर भी वह इसके प्रकार्यात्‍मक मूल्‍य को पहचानता है तथा वह भी अपने भाषिक रूप को इसके अनुरूप ढालने की जुगाड़ करता रहता है। जो मजदूर शहर में काम करने आते हैं वे किस प्रकार अपने भाषा रूप को बदलने का प्रयास करते हैं – इसको देखा परखा जा सकता है।

सन् 1960 में लेखक ने बुलन्द शहर एवं खुर्जा तहसीलों (ब्रज एवं खड़ी बोली का संक्रमण क्षेत्र) के भाषिक रूपों का संकालिक अथवा एककालिक भाषावैज्ञानिक अध्ययन करना आरम्भ किया।16  सामग्री संकलन के लिए जब लेखक गाँवों में जाता था तथा वहाँ रहने वालों से बातचीत करता था तबके उनके भाषिक रूपों एवं आज लगभग 55 वर्षों के बाद के भाषिक रूपों में बहुत अन्तर आ गया है। अब इनके भाषिक-रूपों पर मानक हिन्दी अथवा व्यावहारिक हिन्दी का प्रभाव आसानी से पहचाना जा सकता है। इनके भाषिक-रूपों में अंग्रेजी शब्दों का चलन भी बढ़ा है। यह कहना अप्रासंगिक होगा कि उनकी जिन्दगी में और व्यवहार में भी बहुत बदलाव आया है।

मानक हिन्दी अथवा व्यावहारिक हिन्दी का सम्पूर्ण हिन्दी भाषा क्षेत्र में व्‍यवहार होने तथा इसके प्रकार्यात्‍मक प्रचार-प्रसार के कारण, यह हिन्दी भाषा-क्षेत्र में प्रयुक्त समस्‍त भाषिक रूपों के बीच सम्पर्क सेतु की भूमिका का निर्वाह कर रहा है। 

हिन्‍दी भाषा का क्षेत्र बहुत विस्‍तृत है। इस कारण इसकी क्षेत्रगत भिन्‍नताएँ भी बहुत अधिक हैं।‘खड़ी बोली’ हिन्दी भाषा क्षेत्र का उसी प्रकार एक भेद है ; जिस प्रकार हिन्‍दी भाषा के अन्‍य बहुत से क्षेत्रगत भेद हैं। हिन्‍दी भाषा क्षेत्र में ऐसी बहुत सी उपभाषाएँ हैं जिनमें पारस्‍परिक बोधगम्‍यता का प्रतिशत बहुत कम है किन्‍तु ऐतिहासिक एवं सांस्‍कृतिक दृष्‍टि से सम्‍पूर्ण भाषा क्षेत्र एक भाषिक इकाई है तथा इस भाषा-भाषी क्षेत्र के बहुमत भाषा-भाषी अपने-अपने क्षेत्रगत भेदों को हिन्‍दी भाषा के रूप में मानते एवं स्‍वीकारते आए हैं। कुछ विद्वानों ने इस भाषा क्षेत्र को ‘हिन्‍दी पट्‌टी’ के नाम से पुकारा है तथा कुछ ने इस हिन्‍दी भाषी क्षेत्र के निवासियों के लिए ‘हिन्‍दी जाति’ का अभिधान दिया है।

वस्‍तु स्‍थिति यह है कि हिन्‍दी, चीनी एवं रूसी जैसी भाषाओं के क्षेत्रगत प्रभेदों की विवेचना यूरोप की भाषाओं के आधार पर विकसित पाश्‍चात्‍य भाषाविज्ञान के प्रतिमानों के आधार पर नहीं की जा सकती।

जिस प्रकार अपने 29 राज्‍यों एवं 07 केन्‍द्र शासित प्रदेशों को मिलाकर भारतदेश है, उसी प्रकार भारत के जिन राज्‍यों एवं शासित प्रदेशों को मिलाकर हिन्‍दी भाषा क्षेत्र है, उस हिन्‍दी भाषा-क्षेत्र के अन्‍तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उनकी समाष्‍टि का नाम हिन्‍दी भाषा है। हिन्‍दी भाषा क्षेत्र के प्रत्‍येक भाग में व्‍यक्‍ति स्‍थानीय स्‍तर पर क्षेत्रीय भाषा रूप में बात करता है। औपचारिक अवसरों पर तथा अन्‍तर-क्षेत्रीय, राष्‍ट्रीय एवं सार्वदेशिक स्‍तरों पर भाषा के मानक रूप अथवा व्‍यावहारिक हिन्‍दी का प्रयोग होता है। आप विचार करें कि उत्तर प्रदेश हिन्‍दी भाषी राज्‍य है अथवा खड़ी बोली, ब्रजभाषा, कन्‍नौजी, अवधी, बुन्‍देली आदि भाषाओं का राज्‍य है। इसी प्रकार मध्‍य प्रदेश हिन्‍दी भाषी राज्‍य है अथवा बुन्‍देली, बघेली, मालवी, निमाड़ी आदि भाषाओं का राज्‍य है। जब संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका की बात करते हैं तब संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका के अन्‍तर्गत जितने राज्‍य हैं उन सबकी समष्‍टि का नाम ही तो संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका है। विदेश सेवा में कार्यरत अधिकारी जानते हैं कि कभी देश के नाम से तथा कभी उस देश की राजधानी के नाम से देश की चर्चा होती है। वे ये भी जानते हैं कि देश की राजधानी के नाम से देश की चर्चा भले ही होती है, मगर राजधानी ही देश नहीं होता। इसी प्रकार किसी भाषा के मानक रूप के आधार पर उस भाषा की पहचान की जाती है मगर मानक भाषा, भाषा का एक रूप होता है ः मानक भाषा ही भाषा नहीं होती। इसी प्रकार खड़ी बोली के आधार पर मानक हिन्‍दी का विकास अवश्‍य हुआ है किन्‍तु खड़ी बोली ही हिन्‍दी नहीं है। तत्‍वतः हिन्‍दी भाषा क्षेत्र के अन्‍तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उन सबकी समष्‍टि का नाम हिन्दी है। हिन्‍दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के षडयंत्र को विफल करने की आवश्‍कता है तथा इस तथ्‍य को बलपूर्वक रेखांकित, प्रचारित एवं प्रसारित करने की आवश्‍यकता है कि सन् 1991 की भारतीय जनगणना के अन्तर्गत भारतीय भाषाओं के विश्‍लेषण का जो ग्रन्‍थ प्रकाशित हुआ है उसमें मातृभाषा के रूप में हिन्‍दी को स्‍वीकार करने वालों की संख्‍या का प्रतिशत उत्‍तर प्रदेश (उत्‍तराखंड राज्‍य सहित) में 90.11, बिहार (झारखण्‍ड राज्‍य सहित) में 80.86, मध्‍य प्रदेश (छत्‍तीसगढ़ राज्‍य सहित) में 85.55, राजस्‍थान में 89.56, हिमाचल प्रदेश में 88.88, हरियाणा में 91.00, दिल्‍ली में 81.64, तथा चण्‍डीगढ़ में 61.06 है।17

8.हिन्दी भाषा-क्षेत्र एवं मंदारिन भाषा-क्षेत्र –

जिस प्रकार चीन में मंदारिन भाषा की स्थिति है उसी प्रकार भारत में हिन्दी भाषा की स्थिति है। जिस प्रकार हिन्दी भाषा-क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं, वैसे ही मंदारिन भाषा-क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक-रूप बोले जाते हैं। हिन्दी भाषा-क्षेत्र के दो चरम छोर पर बोले जाने वाले क्षेत्रीय भाषिक रूपों के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत बहुत कम है। मगर मंदारिन भाषा के दो चरम छोर पर बोले जाने वाले क्षेत्रीय भाषिक रूपों के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता बिल्कुल नहीं है। उदाहरण के लिए मंदारिन के एक छोर पर बोली जाने वाली हार्बिन और मंदारिन के दूसरे छोर पर बोली जाने वाली शिआनीज़ के वक्ता एक दूसरे से संवाद करने में सक्षम नहीं हो पाते। उनमें पारस्परिक बोधगम्यता का अभाव है। वे आपस में मंदारिन के मानक भाषा रूप के माध्यम से बातचीत कर पाते हैं। मंदारिन के इस क्षेत्रीय भाषिक रूपों को लेकर वहाँ कोई विवाद नहीं है। पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक मंदारिन को लेकर कभी विवाद पैदा करने का साहस नहीं कर पाते। मंदारिन की अपेक्षा हिन्दी के भाषा-क्षेत्र में बोले जाने वाले भाषिक-रूपों में पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत अधिक है। यही नहीं सम्पूर्ण हिन्दी भाषा-क्षेत्र में पारस्परिक बोधगम्यता का सातत्य मिलता है। इसका अभिप्राय यह है कि यदि हम हिन्दी भाषा-क्षेत्र में एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा करे तो निकटवर्ती क्षेत्रीय भाषिक-रूपों में बोधगम्यता का सातत्य मिलता है। हिन्दी भाषा-क्षेत्र के दो चरम छोर के क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के वक्ताओं को अपने अपने क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के माध्यम से संवाद करने में कठिनाई होती है। कठिनाई तो होती है मगर इसके बावजूद वे परस्पर संवाद कर पाते हैं। यह स्थिति मंदारिन से अलग है जिसके चरम छोर के क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के वक्ता अपने अपने क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के माध्यम से कोई संवाद नहीं कर पाते। मंदारिन के एक छोर पर बोली जाने वाली हार्बिन और मंदारिन के दूसरे छोर पर बोली जाने वाली शिआनीज़ के वक्ता एक दूसरे से संवाद करने में सक्षम नहीं हैं मगर हिन्दी के एक छोर पर बोली जाने वाली भोजपुरी और मैथिली तथा दूसरे छोर पर बोली जाने वाली मारवाड़ी के वक्ता एक दूसरे के अभिप्राय को किसी न किसी मात्रा में समझ लेते हैं।

यदि चीन में मंदारिन भाषा-क्षेत्र के समस्त क्षेत्रीय भाषिक-रूप मंदारिन भाषा के ही अंतर्गत स्वीकृत है तो उपर्युक्त विवेचन के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्तर्गत समाविष्ट क्षेत्रीय भाषिक-रूपों को भिन्न-भिन्न भाषाएँ मानने का विचार नितान्त अतार्किक और अवैज्ञानिक है। लेखक का स्पष्ट एवं निर्भ्रांत मत है कि हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के षड़यंत्रों को बेनकाब करने और उनको निर्मूल करने की आवश्यकता असंदिग्ध है। हिन्दी देश को जोड़ने वाली भाषा है। उसे उसके ही घर में तोड़ने का अपराध किसी को नहीं करना चाहिए।

संदर्भ सूची

  1. ; इसे उसके अपने ही घर में मत तोड़ो http://www.pravakta.com/hindi-is-the-language-of-hindustan
  2. Functional Linguistics) (हैलिडे के व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) के विशेष संदर्भ में) http://www.rachanakar.org/2015/03/functional-linguistics-sfl.html#ixzz3U41DdhAX
  3. , अनुवादक – डॉ. उदयनारायण तिवारी, पृष्ठ 42-44 (1959)
    1. , क्षितिज, (भाषा-संस्कृति विशेषांक), अंक -8, पृष्ठ 15-19, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बम्बई (मुम्बई) (1996)
    1. , अक्षर पर्व, अंक -6, (पूर्णांक –23), वर्ष -2, पृष्ठ 15-16, देशबंधु प्रकाशन, रायपुर (दिसम्बर, 1999)
  4. , वर्ष 4, अंक 1, पृष्ठ 56-60, नई दिल्ली (जनवरी, 2015)
  5. ? (नामवर सिंह ने हाल ही में यह वक्तव्य दिया – “हिंदी समूचे देश की भाषा नहीं है वरन वह तो अब एक प्रदेश की भाषा भी नहीं है। उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों की भाषा भी हिंदी नहीं है। वहाँ की क्षेत्रीय भाषाएँ यथा अवधी, भोजपुरी, मैथिल आदि हैं।“ क्या सचमुच? नामवर के इस वक्तव्य पर असहमति के तीव्र स्वर दर्ज कर रहे हैं केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के पूर्व निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन)
  6. ? http://www.rachanakar.org/2009/09/blog-post_08.html#ixzz3WJTL8oNS
  7. , अध्याय 4 – भाषा के विविधरूप एवं प्रकार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद (1985)
  8. Distance among Twenty-Two Dialects of Hindi depending on the parallel forms of the most frequent sixty-two words of Hindi” भाषिकी प्रकाशन, रायपुर (1976)
  9. 26 जून, 2013 को विज्ञान परिषद्, प्रयाग (इलाहाबाद) के प्रधान मंत्री  डॉ. शिव गोपाल मिश्र को लिखा पत्र
  10. , सरस्वती, पृष्ठ 169-171 (अप्रैल, 1977)
  11. http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/M/MahavirSaranJain/bharat_mein_Bhartiya_bhashaon_ka_samman_vikaas_Alekh.htm)
  12. , पृष्‍ठ 60, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद (1985)
  13. , 15, पृष्ठ 325 – 340.
  14. , अमेरिकन एनथ्रोपोलोजिस्ट, खण्ड 63,पृष्ठ 976- 988.
  15. , हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद (1967)