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यह समय और लेखक होने का मतलब

मनोज कुमार पांडेय
जब मैंने लिखना शुरू किया तो एक लड़की थी जिसे मैं प्रभावित करना चाहता था। शुरुआत में मैंने फिल्मी गीतों की तर्ज पर कुछ गीत लिखे थे या बदनाम शायरियों की तर्ज पर कुछ शायरी की थी जिन्हें मेरे पिता ने मेरे सामने ही जला दिया था और मेरी जी भर के लानत मलानत की थी। मेरे कान उमेठे थे। यह लिखने की वजह से सत्ता द्वारा हासिल पहला दंड था। और ईनाम था थोड़े दिन के लिए ही सही पर उस लड़की का प्यार जो मुझे मेरी इस रचनात्मकता की वजह से हासिल हुआ था। क्या तब भी मेरे मन में रचनात्मकता की कोई धारणा रही होगी? और क्या यह उस धारणा से बहुत ज्यादा भिन्न रही होगी जिसके तहत अलिफलैला की शहरजाद ने एक पूर्वाग्रही हत्यारे शासक को कहानियाँ सुनाना शुरू किया होगा और बिना रुके हजार रातों तक सुनाती ही चली गई होगी।
यह बातचीत की बेहद निजी शुरुआत है। पर मुझे लगता है कि इस तरह से मैं अपनी बात ज्यादा तरतीब से रख सकता हूँ। मैं डायरी लिखा करता था। जाहिर है कि वह डायरी पर नहीं किसी कॉपी पर लिखी जाती थी। तो मेरा गीत-गोविंद जब जला दिया गया तो मैं सतर्क हो गया। मैंने देवनागरी वर्णमाला के स्वरों और व्यंजनों की जगह को एक निश्चित क्रम में उलट पुलट दिया। और थोड़े ही दिनों में मैं अपनी इस गुप्त भाषा में सिद्धहस्त हो गया। इस हद तक कि एक बार फिर यह डायरी मेरे पिता को मिली और वह कई दिनों तक उससे जूझते रहे। उनके साथी अध्यापक भी जूझते रहे। जाहिर है कि मुझसे भी पूछताछ की गई। मुझे नहीं बताना था, नहीं बताया और वे कभी नहीं जान पाए कि मैंने उस डायरी में क्या लिखा था। क्या मेरे इस बेहद निजी संघर्ष का जो मैंने अपनी निजता के लिए रचा था आज कोई मतलब नहीं है? वर्णमाला में अपनी तरह से किए गए हेरफेर को मैं आज एक प्रभावी रचनात्मक डिवाइस क्यों न मानूँ।
मेरा साहित्य से रिश्ता बहुत देर से बना। यह वही समय था जब पहले तेरह महीने फिर पूरे पाँच साल के लिए भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई थी। इसके पहले जब वह तेरह दिन के लिए सत्ता में आई थी तब मेरा बीए का आखिरी साल था और मैं तब तक राजनीतिक या साहित्यिक चेतना से पूरी तरह शून्य था। इसके और पहले जब बानबे में ढाँचा गिरा था तब मैं अपनी ननिहाल में रहकर पढ़ता था। उस समय मेरे आसपास जो लोग थे उन्होंने मिठाई बाँटी थी। नाचे थे, पटाखे फोड़े गए थे। अबीर गुलाल उड़ाया गया था। मैंने भी यही सब किया था। मैं उस समय दसवीं का विद्यार्थी था। तब मुझे पता भी नहीं था कि मैं कभी किस्से कहानियाँ लिखूँगा और विद्वानों के बीच खड़ा होकर अपनी बात रखूँगा। 
मैं गाँव से आया हूँ। गाँव के बारे में लिखने का सबसे आसान तरीका यह है कि आप अपनी भाषा में एक गँवई टोन ले आएँ और अपने पात्रों के नाम फुलवा गेंदवा फुलिया धुलिया टाइप के रखें और एक जमींदार या सवर्ण शोषक हो तथा कुछ दूसरे उसके सताए हुए पात्र हों जो पूरी कहानी में सताए जाएँ और आखिर में कोई उम्मीद या उजाले की एक नकली किरण दिखा दी जाय। या सूरज पूरब पश्चिम जहाँ कहीं भी हो वहीं उग आए। एक जमाने में ऐसी बहुत कहानियाँ लिखी गईं और पाठकों के नाम पर, खासतौर पर वामपंथी संगठनों से जुड़े मुर्दार आलोचकों ने उन्हें खूब खूब ऊपर चढ़ाया। बहुतेरे आज भी यही कर रहे हैं।
मुझे ऐसा कुछ पढ़ते हुए गुस्सा आता है। मुझे बार बार लगता है कि लेखक अपने चरित्रों को अपमानित कर रहा है। वह उसे जान-बूझकर हीनतर दिखा रहा है। जो लेखक अपने चरित्रों का कायदे से नाम तक नहीं रख सकता वह उनके प्रति कितनी जिम्मेदारी से पेश आएगा। जबकि बानबे के बाद… टेलीविजन के बाद और बाद में टाटा स्काई या डिश टीवी जैसों की कृपा से सुंदर और आधुनिक लगने वाले नामों की पहुँच एकदम कोनों अँतरों तक भी संभव हो चुकी हैं। वहाँ भी जहाँ भोजन नहीं पहुँचा, शिक्षा नहीं पहुँची, लेकिन नाम पहुँच गया है। एक हद तक ही सही एक खास तरह की चेतना भी पहुँच गई है। उदारीकरण ने शोषण का रूप बहुत हद तक बदल दिया है। उसने प्रतिरोध की चेतना को भी बदला है। और कई बार उसे खरीदा भी है। मैगसेसे से लेकर नोबेल तक चेतना को खरीदने के तमाम उदाहरण हैं। और यह भी यही समय है कि इस सबको समझने के लिए आपको बहुत पढ़ा-लिखा होने की भी जरूरत नहीं है। 
मैं बचपन से ही बहुत ही डरपोक व्यक्ति हूँ। एक समय वह भी था जब मैं अपनी दादी या पिता के सामने काँपता था। बाद में स्कूल गया तो बदमाश लड़कों से डर के रहा। सायास तरीके से कुछ दूसरे बदमाश लड़कों से दोस्ती की ताकि बदमाश लड़कों के दूसरे गिरोह से बचा रह सकूँ। बाद में थोड़ा बड़ा हुआ और इतिहास भूगोल पढ़ा तो जाना कि अरे यह दुनिया भी तो ऐसे ही दो गिरोहों में बँटी हुई थी। और तब मुझे वे लोग या देश बहुत ताकतवर लगे जो दोनों गिरोहों से इतर अपनी राह खुद बना रहे थे। कभी भारत भी उनमें से एक था जिसमें मैं जन्मा था। वही भारत आज डगर-मगर होते होते अंततः एक गिरोह के सरगना के चरणों में लहालोट हो गया है। इस स्थिति को एक कहानीकार के रूप में मैं कैसे देखूँ। और क्या यह कोई इकलौती स्थिति है? ऐसी बहुत सारी स्थितियाँ हैं जो हर एक सुबह के साथ मेरे डर को बढ़ा देती हैं।
आखिर किन चीजों से डरता हूँ मैं और क्यों डरता हूँ। क्या एक व्यक्ति के रूप में मेरा डर और एक लेखक के रूप में मेरा डर दोनों एक ही हो गए हैं या दोनों अलग अलग हैं। नहीं दोनों बहुत अलग हैं दोनों में बहुत झगड़ा है। और मैं चाहता हूँ कि यह झगड़ा निरंतर चलता रहे। साहित्य की बहुत सारी परिभाषाएँ हैं। उनमें से कुछ को पढ़ते हुए और थोड़ा बहुत साहित्य पढ़ते हुए और उससे बहुत ज्यादा जीवन को पढ़ते समझते हुए यह जाना कि साहित्य एक मनुष्य के दूसरे मनुष्य के साथ रिश्ते को, मनुष्य के विभिन्न संस्थाओं के साथ रिश्ते को, मनुष्य के प्रकृति के साथ रिश्ते को संवेदना, विचार और सौंदर्य के स्तर पर समझने की कोशिश का नाम है। पर यह कोशिश कोई आसान चीज नहीं है। 
धर्म, राज्यसत्ता और प्रकृति मेरे निकट यह तीन सत्ताएँ हैं जिनके साथ हमें एक संतुलन बना कर चलना है और भिड़ना भी है। इनमें से पहली दो सत्ताओं को मैं नकारात्मक मानता हूँ। मनुष्यता के इतिहास को सबसे दारुण दुख इन्हीं दोनों ने दिए हैं। खासकर दोनों के मेल ने। जिसका बेहतरीन उदाहरण हम अभी अपनी लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार में देख सकते हैं। इस समय की सबसे खतरनाक चिंताओं में से एक सांप्रदायिकता मेरे लिए धर्म का एक प्रोडक्ट भर है। जब तक धर्म रहेगा तब तक सांप्रदायिकता भी रहेगी। यह तब भी रहेगी जब कि मान लीजिए कि दुनिया में कोई एक ही धर्म बचे। यह इसलिए भी बेहद खतरनाक है कि सत्ता इसे एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल करती रही है। इस्तेमाल करने वाली सत्ता जितनी निरंकुश और खतरनाक होगी सांप्रदायिकता का तांडव उतना ही जबर्दस्त होगा।
दोनों ही सत्ताएँ हमारी आजादी पर बहुतेरे प्रतिबंध लगाती हैं। राज्यसत्ता जो काम लौकिक तकाजों का वास्ता देकर करती है धर्म वही काम अलौकिक बातों के आवरण में करता हैं। दोनों की अपनी रूढ़ियाँ और दायरे हैं। अपने दायरे से बाहर जाने वाले के लिए दोनों के पास लौकिक अलौकिक डर हैं, दंड देने की शक्ति है। दोनों के पास अपने अपने अंधविश्वास हैं। दोनों के पास यह दावा है कि आपकी जरूरतों और लौकिक अलौकिक व्यक्तित्व की समझ उन्हें आप से ज्यादा है। और उनके पास अपनी बात मनवाने के लिए अनेक संस्थाएँ हैं। जिसे हम समाज कहते हैं वह कई बार धर्म के एक खतरनाक एजेंट के रूप में भी काम करता दिखता है। राज्यसत्ता के एजेंट ज्यादा मूर्त हैं। 
विकास एक और डरावनी चीज है। जिसका नाम सुनकर कँपकँपी होती है। क्या यह अनायास ही हो गया है कि विकास शब्द आज अपने विलोम का अर्थ देने लगा है। किसका विकास और किस कीमत पर… क्या विकास का वही माडल और भी शातिर रूप में आज भी नहीं चल रहा है जो यूरोप ने कभी बेहद कामयाबी से उत्तर और दक्षिण अमेरिका में चलाया। या यूरोपीय देशों ने अपने उपनिवेशों में किया। क्या वही हमारी सरकारें हमारे अपने ही देश में हमारे अपने ही लोगों के साथ नहीं कर रही हैं! क्या यह एक भयानक अश्लील दृश्य नहीं है कि हमारा लोकतांत्रिक तरीके से चुना गया और अपने को चाकर कहने वाला प्रधानमंत्री किसी ऐसे पूँजी के दैत्य से अपनी पीठ सहलवाए जो खरबों रुपए अपने एक निजी मकान ‘एंटीलिया’ में खर्च कर दे। एक ऐसे देश में जिसकी बड़ी आबादी भुखमरी, कुपोषण, मलेरिया और अशिक्षा से ग्रस्त हो। पर यही हमारा विकास का मॉडल है। 
मेरे लिए निजता और सामाजिकता दोनों बहुत जरूरी चीजें हैं। पर मैं जिस समाज से आता हूँ उसमें निजता के लिए अवकाश न के बराबर है। एक बेहद स्थूल उदाहरण का सहारा लूँ तो मान लीजिए कि आप डायरी लिखते हैं। तो इस डायरी में लिखी गई आपकी निजी बातें आपका भाई-बहन-माँ-पिता-दोस्त-पति-पत्नी-प्रेमी-प्रेमिका कोई भी अधिकारपूर्वक पढ़ सकता है और उसे इसमें कुछ भी गलत या अनैतिक नहीं लगता। आपको किसके साथ जीना या मरना है यह भी आपके माता-पिता-रिश्तेदार या सामाजिक दबाव तय करते हैं। कहने का मतलब यह कि मैं सामाजिकता/सामूहिकता का नकारात्मक रूप ज्यादा देखते हुए बड़ा हुआ हूँ। ऐसे में निजता की बात करता हुआ या निजता के लिए संघर्ष करता हुआ कोई व्यक्ति मेरे लिए प्रतिरोध की लड़ाई लड़ता हुआ व्यक्ति है। यह लड़ाई जितनी निजी है उतनी ही सामाजिक भी है।
पर बहुत कमाल का समय है यह। जो चीजें आजादी के नारे के साथ आईं उन्होंने हमें सबसे अधिक गुलाम बनाया। मोबाइल या आधार कार्ड जैसी चीजें इस बात के कुछ स्थूल उदाहरण भर हैं। इन चीजों ने हम तक सत्ता के शैतानी पंजे की पहुँच को बेहद आसान बना दिया। रफ्तार का कायदे से मूल्यांकन अभी होना बाकी है। पर यह अनायास नहीं है कि हमारे समय का एक बड़ा लेखक जब दीवार में रहने वाली खिड़की खोलता है तो वहाँ तेजरफ्तार कारें और मोटरसाइकिलें नहीं हाथी और साइकिल होते हैं। प्रकृति खिड़की से आकर फल दे जाती है। पानी इतना साफ होता है कि नदी की गहराई में गिरा सिक्का एकदम साफ दिखाई देता है। लोग एकदम सीधे और सरल हैं। कहा गया कि यह एक काल्पनिक दुनिया है। कौन नहीं जानता कि यह एक काल्पनिक दुनिया है। कथाकार नहीं कल्पना करेगा तो क्या आलोचक करेगा? पर सवाल यह है कि यह काल्पनिक दुनिया क्या कोई प्रतिरोध नहीं रचती? क्या प्रतिरोध का एकमात्र तरीका किसी प्रचलित वामपंथीय परिणति तक पहुँचना ही है? क्या वे ही रचनाएँ प्रतिरोधी चेतना की मानी जाएँगी जिनके चरित्र नक्सलवादियों की तरह हथियार उठाए घूमेंगे? 
झूठे किस्म का आशावाद बहुत लुभावनी चीज है। कभी इसने हिंदी रचनाकारों की एक पूरी पीढ़ी को नष्ट कर दिया था। उनकी रचनाओं में आशा ही आशा थी जबकि जीवन में उसकी संभावना बेहद नगण्य थी। उनकी मुश्किल यह भी थी कि जहाँ सचमुच की आशा थी उधर उनका आना जाना ही नहीं था। मुझे लगता है कि जब आप घटनाओं को एक वैश्विक संदर्भ में देखते हैं, दिख रहे यथार्थ के नीचे छुपे हुए यथार्थ की खोज में डुबकियाँ लगाते हैं और साथ में स्मृति और कल्पना से जरूरी रचनात्मक रिश्ता बनाए रखते हैं तो झूठा आशावाद आपके आसपास भी नहीं फटकता।
मैंने कहीं पढ़ा था कि ‘कल्पना’ स्मृति का स्वप्न है। मैं अनुभव की जगह पर स्मृति शब्द का प्रयोग करना पसंद करूँगा। स्मृति मेरे लिए वह सभी अनुभव हैं जिनकी कोई (मामूली सी ही सही) प्रतिक्रिया मेरे भीतर छुपकर बैठी हुई है। जिसे स्तानिस्लेवस्की ‘भावनात्मक स्मृति’ कहा करते थे। स्मृतियों से और स्मृतियों के स्वप्न यानी कल्पना से मैंने एक सचेत रचनात्मक संबंध बनाने की कोशिश की है। मेरा मानना है कि इन दोनों के अभाव में रचना संभव ही नहीं हो सकती। इन दोनों ही चीजों को थोड़ा और व्यापक कर के भी देखा जा सकता है कि स्मृतियाँ मतलब उत्पीड़न और संघर्ष की स्मृतियाँ, दुख और उल्लास की स्मृतियाँ। ऐसे ही कल्पना का मतलब उड़ान, उत्पीड़न के सारे बंधन तोड़कर बाहर आने की ललक, आजादी। और यही वह चीज है जो स्मृतियों के साथ आपके रिश्ते को संतुलित बनाती है। यानी कि आप अतीत के बोझ से दब जाने से बचे रहते हैं। मुझे लगता है कि स्मृति और कल्पना यानी अतीत और भविष्य के बीच वर्तमान की सही अवस्थिति ही रचना को मुकम्मल बनाने वाली चीज है।
रचनाशीलता के अपने हथियार हैं। और यह बुरा समय ही होता है जब आपको अपने हथियारों को आजमाने की जरूरत पड़ती है। पुराने हथियारों को दुरुस्त करना होता है। सड़े गले या अपनी उपयोगिता खो चुके हथियारों को त्यागना भी पड़ता है। यह कठिन है क्योंकि यह सिर्फ आदत का ही मामला नहीं है यह उससे इतर कई बार लक्ष्य का भी मामला बन जाता है। जैसे भारतीय किस्म का यथार्थवाद जो दुनिया भर के संदर्भ में बेहद अजूबे किस्म का है, हिंदी साहित्य में किसी चरवाहे का पैना बन चुका है जिसे वह अपने पशुओं को हाँकने के काम में लाता है। बहुतों के लिए यथार्थवाद साधन न होकर साध्य में बदल चुका है। 
भाषा और यथार्थ का रिश्ता बेहद संश्लिष्ट है। एक कथाकार के रूप में मेरी मुश्किल यह है कि मैं यथार्थवादी रचनाएँ पढ़ते हुए साहित्य में बड़ा हुआ हूँ। दूसरी तरफ बचपन में सुनी हुई कहानियाँ है, या वे लोककथाएँ या आधुनिकता (जिसने हम भारतीयों की चेतना को विकृत बनाने का काम ही ज्यादा किया है) के पहले का साहित्य पढ़ता हूँ तो वहाँ यथार्थवाद या इससे मिलती-जुलती कोई चीज कभी-कभार ही दिखाई पड़ती है। तो जो आज की यथार्थवादी रचनाएँ हैं उनका एक बड़ा हिस्सा (अपनी सारी क्रांतिकारिता के बावजूद) यथास्थितिवाद में ही जाकर गर्क हो जाता है। क्योंकि वह कल्पना के साथ कोई रचनात्मक रिश्ता कायम नहीं कर पाता।
यहाँ से शुरू करूँ तो मुझे लगता है कि आधुनिकता ने भाषा और यथार्थ के संबंध को गड़बड़ा दिया है। अभी का यथार्थ इतना फंतासी भरा और बहुरूपी है कि उसको व्यक्त करने का एक आसान रास्ता तो वही है, जो आज की इलेक्ट्रानिक मीडिया कर रही है, जहाँ सब कुछ एक उत्तेजक ‘स्टोरी’ है पर इसी के साथ बेहद क्षणिक भी है। दूसरा रास्ता संघर्ष भरा है। इसमें यथार्थ का पीछा करना पड़ता है चुपचाप, देर और दूर तक, उसकी मायावी ऐयारियों के जाल को तोड़ना पड़ता है। इस बीच भाषा की खोज भी चुपचाप चलती रहती है। क्योंकि भाषा एक आईने की तरह बर्ताव करती है जिसमें उस बहुरूपी यथार्थ की परछाईं पड़ती रहती है और उसे बदलती रहती है। दूसरे शब्दों में कहें तो यथार्थ की खोज और भाषा की खोज दोनों अलग अलग न होकर एक ही हैं मेरे लिए।
मैं यथार्थवाद से भागता हूँ पर आधुनिकताजनित तमाम दूसरी विकृतियों की तरह वह मेरे भीतर इस हद तक धँसा हुआ है कि कई बार थोड़ा बहुत कामयाब हो पाता हूँ तो ज्यादातर बार फिर-फिर से बिछलकर उसी में गिर पड़ता हूँ। यह भाषा से मेरी निजी लड़ाई है। 
समय बहुत भयानक है। पर यह सभी परिवर्तनकारी शक्तियों के इम्तहान का भी समय है। यह उन्हें भी कुछ रचने के लिए प्रेरित करने वाला समय है जो अपनी कलम किसी संग्रहालय को दान कर चुके हैं और उन्हें भी जिन्होंने अभी तक कलम पकड़ने की तमीज भी नहीं सीखी। क्योंकि इतना जानने समझने के लिए न बहुत कलाकारी की जरूरत है न बौद्धिकता की, कि यह समय उनके पक्ष में खड़े होने का है जो विकास के प्रोजेक्ट के शिकार हैं, जो सांप्रदायिकता के प्रोजेक्ट के शिकार हैं, जो राज्यसत्ता की अबाधित हृदयहीन निरंकुशता के शिकार हैं। जाहिर है कि ऐसा कहते हुए मेरे मन में कलाकार बौद्धिकों के प्रति कोई असम्मान का भाव नहीं हैं न ही मैं उन्हें खाया अघाया बुद्धिजीवी कहने का दुस्साहस कर सकता हूँ पर यह समय जरूर उन्हें जाँचने वाला है।
किताबों को प्रतिबंधित करने के लिए तोड़फोड़ शुरू हो गई है। वे किसी एक किताब के बहाने पूरा का पूरा पुस्तकालय जला देंगे। जल्दी ही यह तोड़फोड़ आपके साथ भी शुरू हो सकती है। आपके हाथ पैर तोड़े जा सकते हैं। आपके घर के सामने प्रदर्शन किया जा सकता है जैसा अभी अनंतमूर्ति के घर के सामने किया गया। आपको देशनिकाला मिल सकता है। न्गुगी वा थ्योंगो की तरह आपको जेल भेजा जा सकता है। पाश, मानबहादुर सिंह, लोर्का या केन सारो वीवा की तरह आपकी हत्या हो सकती है। आपको अपने लिखे के एक एक शब्द की कीमत चुकानी पड़ सकती है। सवाल यह है कि क्या हम इसके लिए तैयार हैं? 
सवाल यह भी है कि अभी बातचीत में जो भी चीजें आई हैं उनका सामना किस तरह से किया जाय। एक लेखक या कलाकार के रूप में जो कि अपनी जनता का सांस्कृतिक प्रतिनिधि दावा होने करता है। ऐसे समय में हिंदी के एक अदने से लेखक के रूप में मैं किसका प्रतिनिधि हूँ? जिस भाषा में मैं लिखता हूँ उस पर भी तमाम आरोप हैं। कोई उसे अपनी सहभाषाओं की हत्यारी कहता है तो कोई उसका एक सवर्ण और पितृसत्तात्मक चरित्र होने की बात करता है। हम जिस समाज में रहते आए हैं उसका असर तो हमारी भाषा पर होगा ही… और कोई भी बन रहा समाज ऐसी चीजों से भिड़ता भी है पर यह सब सवाल परम माता अंग्रेजी की बात करते हुए नहीं उठाए जाते। अंग्रेजी अपनी आतंककारी उपस्थिति मात्र से करोड़ों के सपनों को दुःस्वप्न में बदल देती है फिर भी वह माडर्न है, उदार है समन्वयकारी है लोकमंगलकारी है और हिंदी जो कभी भी सत्ता की भाषा नहीं रही वह दक्षिणपंथी बता दी जाती है और यह देखकर भयानक आश्चर्य होता है कि इस खेल में कई ऐसे हिंदी लेखक भी शामिल हैं जो अंतरराष्ट्रीय होने के लिए मरे जा रहे हैं और इसी अनुपात में स्थानीय हो पाना उनके लिए असंभव होता गया है। 
आधुनिकता ने हमें बहुत सी अच्छी चीजें दी होंगी पर उसने हमें बहुत सारा कचरा भी दिया। अपने को हीन स्वीकार करना भी सिखाया। बिना किसी मूल्यांकन के आधुनिकता से इतर हर बात को कमी के रूप में भी स्वीकार करना सिखाया। शर्म करना सिखाया। हमारी भाषाएँ छीनी। नकल सिखाई। हमारी परंपरा और चिंतन में जो बहुत कुछ हमारी ताकत हो सकता था। आधुनिकता से भिन्न होने की वजह से वह हमारे लिए शर्म बना। तो एक लेखक के रूप में लड़ने के लिए बहुत सारी बातें हैं। यह अलग अलग भी हैं और सामूहिक भी। 
मेरी मुश्किल यह है कि एक ऐसा समाज मिला है मुझे जिसमें अभी भी अनपढ़ों की बड़ी तादाद है। यह भी विडंबना ही है कि यह बात अभिधा लक्षणा व्यंजना तीनों में कही जा सकती है। इस समाज में बहुत ही थोड़े से लोग हैं जो आपको पढ़ते हैं और वैसे तो न के बराबर लोग हैं जो आपके लिखे को लेकर आपसे लड़ते हैं, शिकायत करते हैं, आपसे संवाद करते हैं। दो तीन साल पहले मैं एक अखबार के लिए साप्ताहिक कालम लिखा करता था। एक हफ्ते मैंने रामदेव पर अपनी बात को केंद्रित किया। हर हफ्ते जहाँ मुश्किल से पंद्रह बीस फोन आते थे उस हफ्ते पचासों फोन आए जिनमें ज्यादातर में माँ-बहन की गालियाँ बकी गईं। मैं यहाँ उस तरह की लड़ाइयों की बात नहीं कर रहा हूँ। हालाँकि वैसी गालियाँ भी किसी लेखक के लिए पुरस्कार की तरह हैं। वे आपकी सफलता या असफलता का भी सही आकलन करती हैं। 
तो इतने कम पाठकों के साथ आपका संवाद धीरे धीरे आपको अपने पाठकों से निरपेक्ष बनाता जाता है। एक लेखक के लिए यह गायब हो जाने वाली बात है। अदृश्य हो जाने वाली बात है। मैं भी अदृश्य हो जाना चाहता हूँ पर किसी और तरीके से। मेरी सबसे बड़ी लेखकीय महत्वाकांक्षा इस समय की लोककथाएँ लिखना है। जिसकी पहुँच उन तक भी संभव हो जिन तक अक्षरज्ञान ही नहीं पहुँचा है अभी तक। मैं चाहता हूँ कि मेरी कहानियाँ उनकी इतनी अपनी हों की मैं गायब हो जाऊँ और वे उसमें अपनी मनचाही तोड़फोड़ कर सकें। इस तरह कि उनका मनोरंजन भी हो… रात कटे, दुख कटे, कुछ इस तरह भी कि वह अपना सुख दुख भी जोड़ सकें उसमें अपना। कि उन्हें जीने और लड़ने की ताकत मिले। यह एक असंभव सा लगने वाला सपना है पर मैं रोज देखता हूँ इसे। 
संगमन २० (मंडी) 
मनोज कुमार पांडेय
जन्म : 7 अक्टूबर, 1977, सिसवाँ, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
सभी प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रमुखता से प्रकाशित। कहानियों की दो किताबें शहतूत तथा पानी भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से प्रकाशित।
सम्मान : प्रबोध मजुमदार स्मृति सम्मान, विजय वर्मा स्मृति सम्मान, मीरा स्मृति पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद का युवा पुरस्कार 
फोन : 08275409685
ई-मेल : chanduksaath@gmail.com