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स्त्री विमर्श

हिंदी में स्त्री विमर्श और अनूदित उपन्यास-आकांक्षा मोहन

विमर्श व स्त्री-विमर्श की अवधारणा को समझते हुए प्रस्तुत शोध आलेख हिंदी में स्त्री-विमर्श के स्वरूप को उद्घाटित करता है तथा हिंदी में स्त्री विमर्श के विकास में अनुवाद की भूमिका को विश्लेषित करता है। हिंदी के मूल रचनाकार जैसे नासिरा शर्मा, कृष्‍णा सोबती, चित्रा मुद्गल, मैत्रेयी पुष्‍पा, मृदुला गर्ग, अनामिका, सूर्यबाला आदि की रचनाओं से हिंदी में स्त्री-विमर्श का स्वरूप स्पष्ट होता है। ये रचनाकार स्त्री को पाठ रूप में स्वीकार कर स्त्री जाति का मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, आर्थिक, एतिहासिक रूप में विश्लेषण कर स्त्री-विमर्श की विभिन्न समस्याओं पर बात कर रही है, परंतु साथ ही साथ हिंदी में इस विमर्श तथा विचारधारा को स्वरूप प्रदान करने में हिंदीतर भाषाओं से हिंदी में स्त्री पाठ विषयक अनुवादों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। भारतीय भाषाओं से हिंदी में अनूदित उपन्यासों की चर्चा प्रस्तुत शोध आलेख में की गई है, जो हिंदी साहित्य में मूलतः नहीं है, परंतु अनुवाद के माध्यम से इन उपन्यासों में उठाई गयी समस्या हिंदी के स्त्री-विमर्श को न केवल विकसित करती है, अपितु सुदृढ़ भी करती है।

डॉ बाबा साहेब अंबेडकर की दृष्टि में स्त्री-मुक्ति-डॉ संतोष राजपाल

२५ दिसम्बर १९२७ का दिन भारतीय इतिहास का एक अविस्मरणीय दिन बन गया, जब एक आधुनिक न्यानवादी मनु ने पुरातन अन्यायवादी मनु की व्यवस्थाओं को भस्मीभूत कर दिया। इसी मनु द्वारा भारतीय संविधान के रूप में नई व्यवस्था दी गई थी जो आज हमारे देश का सर्वोच्च विधान है। इस प्रकार डॉ बाबा साहेब अंबेडकर ने नारी व दलितों को समानता एवं स्वतंत्रता के मानवाधिकार दिलाकर भारतीय समाज के माथे पर लगी अन्याय और असमानताओं की कलंक कालिमा को धोने में अपना सारा जीवन खपा दिया।

स्त्री विमर्श: हिन्दी साहित्य के संदर्भ में- नेहा गोस्वामी

आज से लगभग सवा सौ साल पहले का श्रद्धाराम फिल्लौरी का उपन्यास ‘भाग्यवती’ से लेकर आज तक स्त्री विमर्श ने आगे कदम बढ़ाया ही है, छलांग भले ही न लगायी हो।

आधुनिक महिला उपन्यासों में नारी चेतना के विविध आयाम:-उर्मिला कुमारी

प्रमुख महिला उपन्यासकार मन्नू भंडारी, उषा प्रियंबदा, मैत्रेई पुष्पा, मंजुल भगत, कृष्णा सोबती, प्रभा खेतान आदि के स्त्री पात्र कहीं परंपरावादी दिखाई पड़ती हैं तो कहीं ये परम्परा का विरोध करते हुए पुरुष द्रोह पर उतर आती दिखाई पड़ती हैं। मंजुल भगत की 'अनारो ' की नायिका अनारो, ' इदन्नमम ' की बऊ, पचपन खंभे लाल दीवारें की 'सुषमा ' आदि सभी पात्र परंपरावादी हैं।

भारतीय समाज और स्त्री मुक्ति आंदोलन: डॉ सूर्या ई .वी

भारत में स्त्री आंदोलन का पहला लहर १९ वीं शताब्दी में सुधारवादी आन्दोलनों के रूप में हमारे सामने आया है| इसमें महिलाओं की मुक्ति हेतु अनेक प्रयास किए गए हैं- सती प्रथा व बाल विवाह का विरोध,विधवा पुनर्विवाह,स्त्री शिक्षा आदि प्रमुख मुद्दे थे| स्त्री आंदोलन का दूसरा लहर तब निकल आया जब स्त्रियों ने स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु घर के चार दीवारी के बाहर निकलीं थीं| तीसरा लहर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से शुरू हुआ है| नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन के प्रभाव ने स्वातंत्रोत्तर स्त्री की स्थिति में अनेक परिवर्तन लाये|

कामकाजी महिला: दोहरा शोषण

वर्तमान में नारी जागरण के कारण स्त्री जीवन और जगत में कई परिवर्तन आए हैं । प्रकृति प्रदत्त स्त्री-पुरुष में जो विषमता है उसे...

स्त्री विमर्श: हिन्दी साहित्य के संदर्भ में- नेहा गोस्वामी

प्राचीन भारतीय वाङमय से लेकर आज तक स्त्री विमर्श किसी न किसी रूप में विचारणीय विषय रहा है। “आज से लगभग सवा सौ साल पहले का श्रद्धाराम फिल्लौरी का उपन्यास ‘भाग्यवती’ से लेकर आज तक स्त्री विमर्श ने आगे कदम बढ़ाया ही है, छलांग भले ही न लगायी हो। 

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