दो बीघा ज़मीन फ़िल्म को देखना एक कड़वे अनुभव से दो चार होना है। निर्देशक बिमल रॉय ने रवीन्द्र नाथ टैगोर कहानी दुई बीघा जोमी को संगीतकार सलिल चौधरी, हृषिकेश मुखर्जी और पॉल महेन्द्र के पटकथा लेखन की सहायता से इतनी खूबसूरती से चित्रपट पर उकेरा है कि उनकी निर्देशकीय प्रतिभा को नमन करते हुए ऐसा लगता है कि काश आज के कुछ तथाकथित जौहर दिखाने वाले निर्देशक भी पश्चिम का मोह छोड़कर भारत की कहानियों में भारतीय सिनेमा को ढूंढ पाते।
फिल्म की कहानी एक जमींदार द्वारा अशिक्षित किसान शम्भू महतो की ज़मीन को धोखाधड़ी से 65 रुपए के कर्ज़ के बदले 235 रुपए पचास पैसे कर देने के बाद हड़प लेने की कोशिश की कहानी कहती है, जिसे बचाने के लिए शम्भू महतो और उसकी पत्नी पारो तथा बेटा कन्हैया जो भी जतन करते हैं, उसी की कथा सन 1953 की इस क्लासिक फिल्म में दर्शाई गई है। फिल्म में शम्भू महतो के रूप में हाथ रिक्शा चालक की भूमिका करने के लिए बलराज साहनी ने कोलकाता की सड़कों पर कई दिनों तक खुद हाथ रिक्शा चलाया था और उनके बीच रहे थे। पारो की भूमिका में निरूपा रॉय और कन्हैया की भूमिका में मास्टर रतन कुमार ने भी जान फूंक दी है। मीना कुमारी का अतिथि भूमिका में दिखना और एक लोरी गाना भी प्रभावशाली बन पड़ा है। शू पॉलिश करने वाले बच्चे की भूमिका में जगदीप, खलनायक जमींदार मुराद, बूढ़े हाथ रिक्शा चालक नासिर हुसैन, शम्भू का पिता नाना पालिस्कर आदि ने बेहतरीन अभिनय किया है। शैलेन्द्र के लिखे गीतों को सलिल चौधरी के संगीत ने बेहद प्रभावशाली बना दिया है। धरती कहे पुकार के, अजब तोरी दुनिया हो मोरे राजा जैसे गीत आज भी अपनी मधुरता के कारण सुने जाते हैं।
इस फिल्म को भारत ही नहीं बल्कि यूरोप, चीन एवं रूस के दर्शकों से भी प्यार मिला था। इसे मिले अनेक राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय पुरुस्कारों से इसकी लोकप्रियता का सहज अंदाज लगाया जा सकता है। बाद में बनी मदर इंडिया, उपकार, मंथन, लगान, पीपली लाइव, किसान जैसी फिल्में इस फिल्म से ही प्रेरित होकर बनाई गई थीं। इस फिल्म को देखना एक बेहद कारुणिक अनुभव है। मैं इस फिल्म को हिन्दी की दस बेहतरीन फिल्मों में गिनना पसन्द करुंगा।
© डॉ. पुनीत बिसारिया