राष्ट्रभाषा हिन्दी और जनपदीय बोलियाँ

सुरेखा शर्मा

इस विषय पर अपनी बात मैं कवि ‘गोपाल सिंह नेपाली’ जी की पंक्तियों से शुरु करना चाहूंगी-‘ दो वर्तमान को सत्य सरल , सुंदर भविष्य के सपने दो,

हिन्दी है भारत की बोली,तो अपने आप पनपने दो।

बढ़ने दो इसे सदा आगे,हिन्दी जन -मन की गंगा है,

यह माध्यम उस स्वाधीन देश का,जिसकी ध्वजा गिरंगा है।

हिन्दी है भारत की बोली,इसे अपने आप पनपने दो।”

राष्ट्रभाषा हिन्दी व उनकी सभी बोलियों का मूल स्रोत संस्कृत भाषा है।वैदिक साहित्य की भाषा के विश्लेषण से ये संकेत तो स्पष्ट मिलते हैं कि उस काल में बोलचाल में तीन प्रकार की बोलियां थीं-पश्चिमोत्तरी, मध्यवर्ती तथा पूर्वी

बाद में बोलचाल की भाषा संस्कृत का विकास जब पाली भाषा के रूप में हुआ,जिसमें बौद्ध धर्म के बहुत से ग्रंथ लिखे गये। इसके बाद स्थानीय बोलियां बढ़ती गयी।पाली के बाद भाषा का जो जन प्रचलित रूप था उनके कुछ रूप इनमें अधिक विकसित हुए जैसे गुजरात,राजस्थान, हरियाणा,हिमाचल प्रदेश,दिल्ली,पश्चिमी तथा उत्तर प्रदेश,मध्य प्रदेश।

हिन्दी क्षेत्र की भाषा हिन्दी है तथा उस क्षेत्र में पांच उपभाषाएं अर्थात् बोली वर्ग हैं,,जैसे- राजस्थानी,पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, पहाड़ी,बिहारी।

हिन्दी भाषा की बोलियां तीन रूपों में विभक्त हैं—

क.हिन्दी प्रदेश की-ब्रजभाषा,अवधी,भोजपुरी,

ख.हिन्दीत्तर प्रदेशों की-दक्खिनी हिन्दी,बम्बइया हिन्दी,कलकत्तिया हिन्दी।

ग.विदेशों में बोले जाने वाली बोलियां-सूरीनाम हिन्दी,फिज़ी हिन्दी,मारीशस हिन्दी।

भारत के बाहर की प्राय:सभी बोलियां मूलत: भोजपुरी पर आधारित हैं।जिन पर उन स्थानों की अपनी भाषाओं तथा यूरोपीय भाषाओं का प्रभाव पड़ा है।

भारतीय हिन्दीत्तर की बोलियों में तत्व तो खड़ी बोली,भोजपुरी, राजस्थानी आदि के हैं।संभवत: उनका आधार खड़ी बोली को ही मान सकते हैं।

ब्रजभाषा,कनौजी,बुंदेली,अवधी, बघेली,छत्तीसगढ़ी,हिमाचली,कुमायुंनी,गढवाली,भोजपुरी,मगही,मैथिली।

देश,विदेश में प्रचलित उपर्युक्त हिन्दी बोलियां भी अपने क्षेत्रों में खूब प्रचलित हैं ।देखा जाए तो दक्खिनी हिन्दी की ही लगभग बारह उपबोलियां हैं-जो गोलकुंडा, औरंगाबाद,अहमदाबाद,अरकाट, बीजापुर,अन्नामलाई कोचीन आदि जगह पर बोली जाती हैं।इसी प्रकार भोजपुरी के कुछ रूप विदेशों में भी हैं।

इस प्रकार राष्ट्रभाषा हिन्दी की जनपदीय बोलियों का विस्तार काफी दूर तक फैला हुआ है।

अब यहां प्रश्न यह है कि हिन्दी भाषा और जनपदीय बोलियों का आदान-प्रदान का।

हिन्दी भाषा का जन्म तो एक हजार ई.में हो गया था,किंतु साहित्य में प्रयोग बाद में हुआ।जिसे हम अदिकालीन हिन्दी भी कहते हैं।

भाषा की तुलना में बोलियों का ही मुहावरों व लोकोक्तियों में प्रयोग अधिक हुआ है।आधुनिक काल में आकर हिन्दी भाषा के स्थान पर खड़ीबोली कहा जाने वाला रूप ही आसीन हो गया,और यही रूप साहित्य की भाषा,शिक्षा की,राज काज की भी भाषा है।

जहां तक आधुनिक काल में हिन्दी भाषा एवं जनपदीय बोलियों से आदान- प्रदान का संबन्ध है तो विश्व की सभी भाषाओं और उनकी बोलियों में भी आदान- प्रदान चलता रहता है।

भाषा और बोलियों में मुख्यत: दो प्रकार के सम्बंध होते हैं।एक ऐतिहासिक व दूसरा सांस्कृतिक।ये बोलियां हिन्दी भाषा या मानक हिन्दी से विकसित नहीं हैं,बल्कि विभिन्न प्रकार की अपभ्रशों से इनका विकास हुआ है। इसलिए ‘हिन्दी की बोली ‘कहे जाने का आधार यह है कि पूरा हिन्दी प्रदेश एक सांस्कृतिक सूत्र में बंधा हुआ है।हिन्दी क्षेत्र के हिन्दी भाषा बोलने वालों ने इस क्षेत्र के ब्रज,अवधी,भोजपुरी आदि भाषा रूपों को हिन्दी की बोलियां स्वीकार किया है।

आधुनिक काल में हिन्दी का केन्द्र बनारस रहा है।इस दृष्टि से प्रसाद, भारतेन्दु, प्रेमचंद ,शुक्ल,राहुल सांकृत्यायन,विद्यानिवास मिश्र,नामवर सिंह,हजारी प्रसाद. द्विवेदी,कुबेरनाथ राय आदि के नाम लिए जा सकते हैं।सभी मूलत: भोजपुरी क्षेत्र से ही रहे हैं।अवधी में भी बहुत से साहित्यकारों का साहित्य मिलता है।ब्रज भाषा की गंध जिनमें आती है वे हैं- रांघेय राघव, कमलेश्वर आदि।

मैथिली-दिनकर,नागार्जुन की भाषा रही ,पहाड़ी शिवानी,शैलेश मटियानी और बुंदेली मैथिलीशरण गुप्ता और वृन्दावन लाल वर्मा का नाम लिया जाता है।

यह तो थी हिन्दी क्षेत्र और वहां की जनपदीय बोलियों के विषय में,लेकिन हिन्दी प्रदेश से बाहर की जनपदीय बोलियों ने भी हिन्दी भाषा को समृद्ध बनाया है।उदाहरण के लिए यदि जगदम्बा प्रसाद दीक्षित के ‘मुरदाघर’ की हिन्दी ‘बंबइया हिन्दी’ के प्रयोंगों से युक्त है। “और नदी बहती रही ” तथा “खामोशी के चीत्कार ” आदि पुस्तकों की हिन्दी मारिशस की भोजपुरी के प्रयोगों से युक्त है।

रांगेयराघव का प्रसिद्ध उपन्यास ”कब तक पुकारूं” में भरतपुरी ब्रज के शब्द और मुहावरों का अधिकतर प्रयोग हुआ है।जैसे–गबरू,दारी,झाई मारना,मंत्र डोलना आदि।इसी प्रकार अमृतलाल नागर के प्रसिद्ध उपन्यास “मानस का हंस” में अवधी का प्रयोग बखूबी किया गया है।जैसे -औचक,बप्पा,सुतवां,बड़कऊ,चक्करघिन्नी,धरतिन ,व्याहुली आदि।

यदि हम मुहावरों व लोकोक्तियों की बात करें तो हम पाएंगे कि मूलत:फारसी से आए हैं जो अधिकांश बोलियों की ही देन हैं।

इसी प्रकार मानक हिन्दी,बोलियों में प्रयुक्त बूझना, पैठना,बिसरना पोसना,लुकना आदि क्रियाओं का प्रयोग नहीं करती।इनके सगथान पर समझना,घुसना,भूलना,पालना,छिपना आदि क्रियाओं का प्रयोग करती है।

जहां तक हिन्दी की बोलियों के हिन्दी से लेने का प्रश्न है,यह धयान देने की बात है कि प्रत्येक बोली अपने भाषाभाषियों की सभी प्रकार की अभिव्यक्तियों की दृष्टि से सम्पन्न और समर्थ होती है।जहां तक शब्द लेने का प्रश्न है,प्राय:कोई भी बोली अपनी उस भाषा से ही शब्द लेती है,जिसकी वह बोली होती है।

यब अपवाद भी है यदि बोली किसी ऐसे क्षेत्र में बोली जाती हो,जहां किसी और भाषा की भी सीमा लगती हो ,तो उससे भी शब्द ले लेती है।हिन्दी की कई बोलियों ने इस दृष्टि से पंजाबी, गुजराती,मराठी,उड़िया,बंगला से शब्द लिए हैं।

यहां कुछ शब्द हैं जो कुछ बोलियों में आम तौर पर बोले जाते हैं- हरियाणवी में एक खाद्य पदार्थ को राबड़ी कहते हैं,जबकि यह दूध की बनी रबड़ी से अलग होती है।कहने का अभिप्राय यह है कि ये बोली के शब्द हैं।

जो डाल जल्दी टूट जाए उसे भोजपुरी में ‘अरर’ कहते हैं। इस प्रकार बहुत शब्द ऐसे हैं जो हिन्दी की बोलियों में हैं ।हिन्दी भाषा इनको लिए बिना पूरे हिन्दी प्रदेश की भाषिक अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती।यदि मानकता की बात करें तो प्रत्येक क्षेत्र के लोग अपने-अपने क्षेत्र के शब्दों का प्रयोग मानक हिन्दी बोलने में भी करते हैं।उदाहरण के लिए एक प्रकार की सब्जी को हिन्दी में “तौरी ” तो कहीं ‘तरोई’, कहीं “नेनुआ” तो कही “घेवड़ा ” कहते हैं,लेकिन कोई भी शब्द ऐसा नहीं जो हिन्दी प्रदेश में समझा जा सके।इसी प्रकार इसको कहीं पेठा,कहीं काशीफल,कद्दू, सीताफल कहा जाता है।

आशय यह है कि बोलियों से इस प्रकार सारे शब्दों को एकत्र कर अपेक्षाकृत बड़े क्षेत्र में प्रयुक्त शब्दों को मानक हिन्दी को अपना लेना चाहिए ।जिससे शक्ति तो बढ़ेगी ही मानकता को भी बल मिलेगा।

सुरेखा शर्मा

हिन्दी सलाहकार सदस्या नीति आयोग

६३९/१०-ए,सेक्टर गुरुग्राम-१२२००१

०९८१०७१५८७६.

1 टिप्पणी

  1. लोकभाषाओं को बोली कहना अनुचित है |अवधी को जनपदीय समझना भूल है |तुलसीदास और जायसी क्या बोली के जनपदीय कवि हैं ? बोली तो खड़ीबोली थी|जो आज संपर्क भाषा है |ये भ्रामक लेख है |
    डॉ.भारतेंदु मिश्र