स्त्रियों पर कविताएँ

1. माँ , अब मैं समझ गया

मेरी माँ

बचपन में मुझे

एक राजकुमारी का क़िस्सा

सुनाती थी

राजकुमारी पढ़ने-लिखने

घुड़सवारी , तीरंदाज़ी

सब में बेहद तेज़ थी

वह शास्त्रार्थ में

बड़े-बड़े पंडितों को

हरा देती थी

घुड़दौड़ के सभी मुक़ाबले

वही जीतती थी

तीरंदाज़ी में उसे

केवल ‘ चिड़िया की आँख की पुतली ‘ ही

दिखाई देती थी

फिर क्या हुआ —

मैं पूछता

एक दिन उसकी शादी हो गई —

माँ कहती

उसके बाद क्या हुआ —

मैं पूछता

फिर उसके बच्चे हुए —

माँ कहती

फिर क्या हुआ —

मैं पूछता

फिर वह बच्चों को

पालने-पोसने लगी —

माँ के चेहरे पर

लम्बी परछाइयाँ आ जातीं

नहीं माँ

मेरा मतलब है

फिर राजकुमारी के शास्त्रार्थ

घुड़सवारी और

तीरंदाज़ी का

क्या हुआ —

मैं पूछता

तू अभी नहीं

समझेगा रे

बड़ा हो जा

खुद ही समझ जाएगा —

यह कहते-कहते

माँ का पूरा चेहरा

स्याह हो जाता था …

माँ

अब मैं समझ गया

2. स्त्रियाँ और वृक्ष

श्श्श

कि स्त्रियाँ बाँध रही हैं धागे

इस वृक्ष के तने से

ये विश्वास के धागे हैं

जो जोड़ते हैं स्त्रियों को

ईश्वर से

केवल स्त्रियों में है वह ताक़त

जो वृक्ष को ईश्वर में बदल दे

श्श्श

कि गीत गा रही हैं स्त्रियाँ

पूजा करते हुए इस वृक्ष की

ये विश्वास के गीत हैं

जो जोड़ते हैं स्त्रियों को

ईश्वर से

केवल स्त्रियों में है वह भक्ति

जो गीत को प्रार्थना में बदल दे

आश्वस्त हैं स्त्रियाँ अपनी आस्था में

कि वृक्ष के तने से बँधे धागे

उनकी प्रार्थना को जोड़ रहे हैं

उनके आदिम ईश्वर से

3. बच्ची

हम एजेंसी से

एक बच्ची

घर ले कर आए हैं

वह सीधी-सादी सहमी-सी

आदिवासी बच्ची है

वह सुबह से रात तक

जो हम कहते हैं

चुपचाप करती है

वह हमारे बच्चे की

देखभाल करती है

जब उसका मन

खुद दूध पीने का होता है

वह हमारे बच्चे को

दूध पिला रही होती है

जब हम सब

खा चुके होते हैं

उसके बाद

वह सबसे अंत में

बासी बचा-खुचा

खा रही होती है

उसके गाँव में

फ़्रिज या टी.वी. नहीं है

वह पहले कभी

मोटर कार में नहीं बैठी

उसने पहले कभी

गैस का चूल्हा

नहीं जलाया

जब उसे

हमारी कोई बात

समझ में नहीं आती

तो हम उसे

‘ मोरोन ‘ और

‘ डम्बो ‘ कहते हैं

उसका ‘ आइ. क्यू. ‘

शून्य मानते हैं

हमारा बच्चा भी

अकसर उसे

डाँट देता है

हम उसकी बोली

उसके रहन-सहन

उसके तौर-तरीक़ों का

मज़ाक उड़ाते हैं

दूर कहीं

उसके गाँव में

उसके माँ-बाप

तपेदिक से मर गए थे

उसका मुँहबोला ‘ भाई ‘

उसे घुमाने के बहाने

दिल्ली लाया था

उसके महीने भर की कमाई

एजेंसी ले जाती है

आप यह जान कर

क्या कीजिएगा कि वह

झारखंड की है

बंगाल की

आसाम की

या छत्तीसगढ़ की

क्या इतना काफ़ी नहीं है कि

हम एजेंसी से

एक बच्ची

घर ले कर आए हैं

वह हमसे

टॉफ़ी या ग़ुब्बारे

नहीं माँगती है

वह हमारे बच्चे की तरह

स्कूल नहीं जाती है

वह सीधी-सादी सहमी-सी

आदिवासी बच्ची

सुबह से रात तक

चुपचाप हमारा सारा काम

करती है

और कभी-कभी

रात में सोते समय

न जाने किसे याद करके

रो लेती है

4. स्टिल-बार्न बेबी

वह जैसे

रात के आईने में

हल्का-सा चमक कर

हमेशा के लिए बुझ गया

एक जुगनू थी

वह जैसे

सूरज के चेहरे से

लिपटी हुई

धुँध थी

वह जैसे

उँगलियों के बीच में से

फिसल कर झरती हुई रेत थी

वह जैसे

सितारों को थामने वाली

आकाश-गंगा थी

वह जैसे

ख़ज़ाने से लदा हुआ

एक डूब गया

समुद्री-जहाज़ थी

जिसकी चाहत में

समुद्री-डाकू

पागल हो जाते थे

वह जैसे

कीचड़ में मुरझा गया

अधखिला नीला कमल थी…

5. एक सजल संवेदना-सी

उसे आँखों से

कम सूझता है अब

घुटने जवाब देने लगे हैं

बोलती है तो कभी-कभी

काँपने लगती है उसकी ज़बान

घर के लोगों के राडार पर

उसकी उपस्थिति अब

दर्ज़ नहीं होती

लेकिन वह है कि

बहे जा रही है अब भी

एक सजल संवेदना-सी

समूचे घर में —

अरे बच्चों ने खाना खाया कि नहीं

कोई पौधों को पानी दे देना ज़रा

बारिश भी तो ठीक से

नहीं हुई है इस साल

6. स्त्रियाँ

हरी-भरी फ़सलों-सी

प्रसन्न है उनकी देह

मैदानों में बहते जल-सा

अनुभवी है उनका जीवन

पुरखों के गीतों-सी

खनकती है उनकी हँसी

रहस्यमयी नीहारिकाओं-सी

आकर्षक हैं उनकी आँखें

प्रकृति में ईश्वर-सा मौजूद है

उनका मेहनती वजूद

दुनिया से थोड़ा और

जुड़ जाते हैं हम

उनके ही कारण

7. वह अनपढ़ मजदूरनी

उस अनपढ़ मजदूरनी के पास थे

जीवन के अनुभव

मेरे पास थी

काग़ज़-क़लम की बैसाखी

मैं उस पर कविता लिखना

चाह रहा था

जिसने रच डाला था

पूरा महा-काव्य जीवन का

सृष्टि के पवित्र ग्रंथ-सी थी वह

जिसका पहला पन्ना खोल कर

पढ़ रहा था मैं

गेंहूँ की बालियों में भरा

जीवन का रस थी वह

और मैं जैसे

आँगन में गिरा हुआ

सूखा पत्ता

उस कंदील की रोशनी से

उधार लिया मैंने जीवन में उजाला

उस दीये की लौ के सहारे

पार की मैंने कविता की सड़क

8. कामगार औरतें

कामगार औरतों के

स्तनों में

पर्याप्त दूध नहीं उतरता

मुरझाए फूल-से

मिट्टी में लोटते रहते हैं

उनके नंगे बच्चे

उनके पूनम का चाँद

झुलसी रोटी-सा होता है

उनकी दिशाओं में

भरा होता है

एक मूक हाहाकार

उनके सभी भगवान

पत्थर हो गए होते हैं

ख़ामोश दीये-सा जलता है

उनका प्रवासी तन-मन

फ़्लाइ-ओवरों से लेकर

गगनचुम्बी इमारतों तक के

बनने में लगा होता है

उनकी मेहनत का

हरा अंकुर

उपले-सा दमकती हैं वे

स्वयं विस्थापित हो कर

हालाँकि टी. वी. चैनलों पर

सीधा प्रसारण होता है

केवल विश्व-सुंदरियों की

कैट-वाक का

पर उस से भी

कहीं ज़्यादा सुंदर होती है

कामगार औरतों की

थकी चाल

9. कामकाजी पत्नी

( पत्नी लीना को

समर्पित )

— सुशांत सुप्रिय

दफ़्तर से लौटकर

थकी-हारी आती है वह तो

महक उठती है

घर की बगिया

बच्चे चिपक जाते हैं

उसकी टाँगों से जैसे

शावक हिरणी से

उन्हें पुचकारती हुई

रसोई में चली जाती है वह

अपनी थकान को स्थगित करती

दूध-चाय-नाश्ता

ले आती है वह

उसे देखता हूँ

बेटी को पढ़ाते हुए तो

लगता है जैसे

कोई थकी हुई तैराक

बहादुरी से लड़ रही है

लहरों से

‘ आज खाना बाहर से

मँगवा लेते हैं ‘ —

मेरी बात सुनकर

उलाहना देती आँखों से

कहती है वह —

‘ मैं बना दूँगी थोड़ी देर में

ज़रा पीठ सीधी कर लूँ ‘

दफ़्तर के काम से जब

शहर से बाहर

चली जाती है वह तब

अजनबी शहर में

खो गए बच्चे-से

अपने ही घर में

खो जाते हैं

मैं और मेरे बच्चे

सूख जाता है

हमारे दरिया का पानी

कुम्हला जाते हैं

हमारे तन-मन के पौधे

इस घर की

धुरी है वह

वह है तो

थाली में भोजन है

जीवन में प्रयोजन है

दफ़्तर और घर के बीच

तनी रस्सी पर

किसी कुशल नटी-सी

चलती चली जा रही है वह

प्रेषक : सुशांत सुप्रिय

A-5001 ,

गौड़ ग्रीन सिटी ,

वैभव खंड ,

इंदिरापुरम् ,

ग़ाज़ियाबाद – 201014

( उ.प्र. )

मो : 8512070086

ई-मेल : sushant1968@gmail.com