हिंदी कहानी का नाट्य रूपांतरण – कथानक के स्तर पर
चंदन कुमार
शोधार्थी
हिंदी विभाग
गोवा विश्वविद्यालय
संपर्क: 8390122193
ईमेल: chandankumar3491@gmail.com
सारांश
कहानियों में भाव बोध को अपनी भाव भंगिमा के साथ प्रस्तुत करना उसका नाट्य रूपांतरण है । विभिन्न प्रकार से घटना, कथा अथवा कहानी कहने की शैली रूपांतरण की जननी है । वर्तमान समय में रूपांतरण एक अनूठी कला की तरह है जो वर्तमान समय में खूब हो रहा है । कविताओं और कहानी का नाटक में, कहानी और नाटक का फिल्मों में रूपांतरण तेज़ी से हो रहा है । अभिव्यक्ति और कथानक को नए रूप में परिवर्तित कर के मंच पर लाया जा रहा है । ध्यातव्य हो कि एक विधा से दूसरी विधा में परिवर्तित होने पर भाषा, काल, दृश्य, संवाद भी बदल जाते हैं । यह बदलने के साथ मर्म को उसी अभिव्यक्ति से साथ प्रस्तुत करना ही नाट्य रूपांतरण को सही अर्थ देता है ।
बीज शब्द
कहानी, रूपांतरण, भाव, भंगिमा
आमुख
हिंदी कहानी का इतिहास साहित्य की दृष्टी से लगभग दो सौ पचास का है किन्तु कहानी कहने और सुनने की प्रथा अति प्राचीन है । किस्सागोई की परम्परा प्रायः बैठकों में होती ही रहती है । किसी घटना या बात को कहने की शैली से बात का महत्व और अधिक हो जाता है । जितना अधिक प्रभावशाली वक्तव्य होता है उसे उतनी अधिक रुचि से सुना जाता है । “कहानी सुनाने की एक सुदीर्घ परम्परा हमारे देश में रही है लेकिन आज जब एक प्रशिक्षित अभिनेता मंच पर कहानी करना चाहता है तो कई सवाल उठ खड़े होते हैं क्या रंगमंच पर लाने के कहानी के अपने अस्तित्व को बदलना होगा…”[1] कहानियों में भाव बोध को अपनी भाव भंगिमा के साथ प्रस्तुत करना उसका नाट्य रूपांतरण है । विभिन्न प्रकार से घटना, कथा अथवा कहानी कहने की शैली रूपांतरण की जननी है । विश्व साहित्य की अनेक विधाओं का अलग-अलग स्वरूप होता है, न केवल उनकी रचना प्रक्रिया अलग होती है बल्कि उनके तत्व भी एक दूसरे से बिल्कुल पृथक होते हैं । उनके भीतर संवेदना का स्तर भी अलग होता है । किसी विधा में रची गई रचना के मर्म को अभिव्यक्त करना रूपांतरण के लिए सबसे जरूरी अंग है । इसके साथ-साथ यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि साहित्यिक विधाओं का स्वरूप, समय और आवश्यकता के अनुसार बदलता रहता है । वर्तमान समय में रूपांतरण एक अनूठी कला की तरह है जो वर्तमान समय में खूब हो रहा है । कविताओं और कहानी का नाटक में, कहानी और नाटक का फिल्मों में रूपांतरण तेज़ी से हो रहा है । अभिव्यक्ति और कथानक को नए रूप में परिवर्तित कर के मंच पर लाया जा रहा है । ध्यातव्य हो कि एक विधा से दूसरी विधा में परिवर्तित होने पर भाषा, काल, दृश्य, संवाद भी बदल जाते हैं । यह बदलने के साथ मर्म को उसी अभिव्यक्ति से साथ प्रस्तुत करना ही नाट्य रूपांतरण को सही अर्थ देता है ।
कहानी का नाटक में रूपांतरण करने के लिए सबसे पहले कहानी और नाटक में वैविध्य तथा समानताओं को समझना आवश्यक है । जहाँ कहानी का संबंध लेखक और पाठक से जुड़ता है वहीं नाटक का नाटककार, निर्देशक, पात्र, दर्शक, श्रोता एवं अन्य लोगों को एक दूसरे से जोड़ता है । सुनने से अधिक दृश्य का स्मृतियों से गहरा संबंध होता है इसलिए नाटक एवं फिल्म को लोग देर तक याद रखते हैं । कथा साहित्य से जितना रंगमंच ने लिया है उससे कहीं ज्यादा सिनेमा से कथा साहित्य से रचनाएँ ली हैं और उसे नए आयाम दिए हैं । सिनेमा के पास मंच से अतिरिक्त अवकाश होता है यही कारण है कि गोदान, पंचलाइट, तीसरी कसम, देवदास, उसने कहा था, चीफ की दावत, दोपहर का भोजन, चंद्रकांता, सद्गति आदि के रूपांतरण कई बार और कई तरह से हुए हैं । ‘कथा’ अंतर्गत कार्यव्यापार की योजना को ‘कथानक’ (P।ot) कहते हैं । अंग्रेजी में ‘कथावस्तु’ को ‘प्लाट’ कहा जाता है । ‘प्लाट’ अरस्तु के ‘माइथास’ का अंग्रेजी रूपान्तरण है ।”[2] ‘कथानक’ और ‘कथा’ दोनों ही शब्द संस्कृत ‘कथ’ धातु से उत्पन्न हैं । संस्कृत साहित्यशास्त्र में ‘कथा’ शब्द का प्रयोग एक निश्चित काव्यरूप के अर्थ में किया जाता रहा है किंतु “कथा शब्द का सामान्य अर्थ है- वह जो कहा जाए ।”[3] यहाँ कहने वाले के साथ-साथ सुनने वाले की उपस्थिति भी अंतर्भुक्त है कयोंकि ‘कहना’ शब्द तभी सार्थक होता है जब उसे सुनने वाला भी कोई हो । श्रोता के अभाव में केवल ‘बोलने’ या ‘बड़बड़ाने’ की कल्पना की जा सकती है, कहने की नहीं । इसके साथ ही, वह सभी कुछ जो कहा जाए कथा की सीमाओं में नहीं सिमट पाता है । साधारणतः कथा का तात्पर्य किसी ऐसी कथित घटना के कहने या वर्णन करने से होता है जिसका एक निश्चित क्रम एवं परिणाम सामने नजर आ रहे हों । “घटनाओं के कालानुक्रमिक वर्णन को कथा (स्टोरी) की संज्ञा दी है जैसे ‘नाश्ते के बाद मध्याह्न का भोजन’, ‘सोमवार के बाद मंगलवार’, यौवन के बाद वृद्धावस्था आदि ।”[4] कहानी कही जाती है या पढ़ी जाती है । वर्तमान दौर में कहानी और उपन्यास की गिनती नाटकों की अपेक्षा अधिक है कारण स्पष्ट है कि आज के लगातार जटिल होते यथार्थ को पूरी गहराई, सूक्ष्मता और तीव्रता से व्यक्त करने में अपने ख़ास फार्म के कारण नाटक समर्थ नहीं हो पा रहे हैं । उसके मर्म को दिखाने के लिए कहानी के रूपांतरण को छोटे-छोटे संवादों, संगीत, प्रकाश के सहयोग से दिखाया जाता है । कहानी को मंच पर प्रस्तुत करने के लिए दो प्रक्रियाओं का सहारा लिया जाता है, अव्वल कहानी को भावों के साथ संवादों के उतार-चढ़ाव के साथ पढ़ दी जाए जिससे वह बोरियत सी न लगे । दूसरा उसे नाटक में परिवर्तित कर के अनेक पात्रों की सहायता से विधिवत प्रस्तुत किया जाए । भारतीय रंगमंच ‘भरत’ के ‘नाट्यशास्त्र’ पर आधारित है लेकिन नाट्य रूपांतरण ने उस शास्त्रीयता को लाँघ कर अपनी अस्मिता बनाई है । मंचन के रूप में कहानी का रूप परिवर्तित होता है किन्तु संवेदना के साथ किसी तरह का कोई समझौता नहीं होता है, किसी कारण ऐसा होता है तो वह कहानी के मर्म की हत्या होती है । नाटक में किसी भी पात्र, पात्र के संवाद और दृश्य की कटौती करने से पूरे नाटक का संतुलन बिगड़ सकता है किन्तु कहानी के मंचन में यह सुविधा रहती है कि सूत्रधार की सहायता से पात्रों की संख्या घटाई जा सकती है, मंच पर कम से कम चीज़ों से काम चलाया जा सकता है और इस तरह करने से नाटक की प्रोडक्शन लागत बहुत कम हो जाती है । किसी नाटक के मंचन के लिए अभिनय, मंच सज्जा, संगीत, प्रकाश व्यवस्था होती है । नाटकीयता साहित्य की अधिकतर विधाओं में विधमान रहती है । कविता और कहानी में नाटकीयता अन्य विधाओं के मुकाबले अधिक होती है । कहानी और नाटक दोनों में एक कहानी होती है, पात्र होते हैं, परिवेश होता है, कहानी का क्रमिक विकास होता है, संवाद होते हैं, द्वंद्व होता है, चरम उत्कर्ष होता है । इस तरह हम देखते हैं कि नाटक और कहानी की आत्मा के कुछ मूल तत्व एक ही हैं । यह अवश्य है कि कुछ मूल तत्व जैसे ‘द्वंद्व’ नाटक में जितना और जिस मात्रा में आवश्यक है उतना संभवतः कहानी में नहीं है ।
कहानी को नाटक में रूपांतरित करने के लिए सबसे पहले कहानी की विस्तृत कथावस्तु को समय और स्थान के आधार पर विभाजित किया जाता है । कथावस्तु उन घटनाओं का लेखा-जोखा है जो कहानी में घटती है । प्रत्येक घटना किसी स्थान पर किसी समय में घटती है । ऐसा भी संभव है कि घटना स्थान तथा समय विहीन हो । “कहानी किसी घटना या स्थिति का किया गया वर्णन है । जिसमें वह वर्मान में अतीत की सूचना बनती है इसके विपरीत नाटक घटित हो रही या होते रहने की क्रिया की दृश्यात्मक प्रस्तुति है ।”[5] ऐसा हो सकता है कि कुछ ऐसे दृश्य बनते हों जिन में लेखक ने केवल विवरण दिया हो और उसमें कोई संवाद न हो । ऐसे दृश्यों का भी पूरा खाका तैयार किया जाता है । दृश्य निर्धारित करने के बाद दृश्यों और मूल कहानी को पढ़ने से यह अनुमान लग सकता है कि मूल कहानी में ऐसा क्या है जो दृश्यों में नहीं आया है । ऐसे समय में नाट्य रूपांतरणकर्ता पर बड़ी जिम्मेदारी होती है कि कथा अथवा कहानी को किसी प्रकार से हानि न हो । लेखक द्वारा परिवेश का विवरण या परिस्थितियों पर टिप्पणियाँ प्रायः दृश्यों में नहीं ढल पाती है । कई ऐसे कथाकार हैं जिनकी कहानियों में कई-कई पैराग्राफ दृश्य संयोजन और वस्तुस्थिति बताने में निकल जाते हैं जिन्हें मंचित करना संभव नहीं हो पाता है । यह देखना आवश्यक है कि परिस्थिति, परिवेश, पात्र, कथानक इत्यादि से संबंधित विवरणात्मक टिप्पणियाँ किस प्रकार की हैं । विभिन्न प्रकार के विवरणों को नाटक में स्थान देने के अलग-अलग तरीके होते हैं । कथा को सामान्य भाषा में लिख दी गई हैं किन्तु कथानक में उसके पूरे विवरणात्मक रूप को दिखाया जाता है ।
साहित्य में विधाओं का आदान प्रदान होता रहता है किन्तु विधा बदलने से काव्य प्रभाव और आस्वाद में भी बदलाव आता है । कहानी के नाट्य रूपांतरण का एक दृश्य की कथावस्तु, कथानकद्ध को सामने रखकर एक-एक घटना को चुन-चुनकर निकाला जाता है और उसके आधार पर दृश्य बनता है तात्पर्य यह कि यदि एक घटना, एक स्थान और एक समय में घट रही है तो वह एक दृश्य होगा । स्थान और समय के आधार पर कहानी का विभाजन करके दृश्यों को लिखा जाता है । यह देखना आवश्यक है कि प्रत्येक दृश्य का कथानक के अनुसार औचित्य हो और प्रत्येक दृश्य का कथानुसार तार्किक विकास हो रहा है या नहीं । यह सुनिश्चित करने के लिए दृश्य विशेष के उद्देश्य और उसकी संरचना पर विचार आवश्यक है । प्रत्येक दृश्य एक बिंदु से प्रारंभ होता है कथानुसार अपनी आवश्यकताएँ पूरी करता है और उसका ऐसा अंत होता है जो उसे अगले दृश्य से जोड़ता है । इसलिए दृश्य का पूरा विवरण तैयार किया जाता है । कहीं ऐसा न हो कि दृश्य में कोई आवश्यक जानकारी छूट जाए या उसका क्रम बिगड़ जाए । नाटक ही में नहीं बल्कि नाटक के प्रत्येक दृश्य में प्रारंभ, मध्य और अंत होता है स्पष्ट है एक दृश्य कई काम एक साथ करता है ।
कथानक की गतिशीलता सीधी रेखा में नहीं चलती उसमें उतार चढ़ाव आते हैं । कथानक में जीवन की इसी गतिमान संघर्षशील रूप की अवतारणा की जाती है । एक ओर वह कथानक को आगे बढ़ाता है तो दूसरी ओर पात्रों और परिवेश को संवादों के माध्यम से स्थापित करता है । इसके साथ-साथ दृश्य अगले दृश्य के लिए भूमिका भी तैयार करता है । कहानी में छपे लंबे संवाद को पाठक पढ़ सकता है लेकिन मंच पर बोले गए लंबे संवाद से तारतम्य बनाए रख पाना कठिन होता है । एक कहानी को मंच पर लाना और साथ ही उसके भाव बोध का सही सम्प्रेषण कथाकार को रोमांचित कर देता है । “यह निर्णय दर्शकों और आलोचकों पर ही छोड़ना होगा । स्वयं मेरे लिए यह बात कि कहानियों को सुनने पढ़ने के अलावा देखा भी जा सकता है, एक विस्मयकारी अनुभव था । जिन कहानियों को अरसा पहले मैंने अपने अकेले कमरे में लिखा था उन्हें खुले मंच पर दर्शकों के बीच देखना कुछ वैसा ही था जैसे टेपरिकॉर्डर पर अपनी आवाज़ सुनना जो अपनी होने पर भी अपनी नहीं जान पड़ती ।”[6] कहानी में चरित्र-चित्रण अलग प्रकार से किया जाता है और नाटक में उसकी विधि कुछ बदल जाती है । रूपांतरण करते समय कहानी के पात्रों की दृश्यात्मकता और नाटक के पात्रों में उसका प्रयोग किया जाता है । संवाद को नाटक में प्रभावशाली बनाने का अगला तरीका अभिनय है जो प्रायः निर्देशक का काम है पर लेखक भी इस ओर संकेत करता है । पात्र की भाव भंगिमाओं, तौर तरीको और उसके मैनरिस्म से प्रभाव उत्पन्न किया जाता है । कहानी के लंबे संवादों को छोटा-छोटा कर के उन्हें अधिक नाटकीय बनाया जाता है । लम्बे संवाद मंच पर अधिक कारगर नहीं हो पाते कभी कभी वो बोझिल से लगने लगते हैं । दो पात्रों के संवाद को इस तरह लिखा जाता है जिससे वह कटे हुए न लगे अपितु कहानी के उस हिस्से को भरे जिनमें केवल दृश्य और वातावरण का जिक्र है ।
जब कभी कहानी के रंगमंच की चर्चा होती है तब देवेन्द्र राज अंकुर का नाम सर्वोपरि आता है । “इस दिशा में देवेन्द्र राज अंकुर ने बहुत पहले 1975 में ‘तीन एकांत’ के शीर्षक से निर्मल वर्मा की तीन कहानियों ‘डेढ़ इंच ऊपर’, ‘धूप का एक टुकड़ा’, ‘वीक एंड’ को मंचित करके जो नया मुहावरा अर्जित किया था, उसमें रंगमंच की एक नई ऊर्जा से साक्षात्कार हुआ था अभीनय और वाचन की नई चुनौतियों और आयामों की ओर संकेत करने वाला यह प्रयोग बाद में ‘कहानी का रंगमंच’ नाम से चर्चित हुआ ।”[7] कहानी का रंगमंच और कहानी का नाट्य रूपांतरण दोनों में एक महीन रेखा खिंची हुई है । कथा और कथानक की दृष्टी से दोनों में परिवर्तन संभव हैं इन दोनों ही में भाव-बोध की समझ अतिआवश्यक है । हिंदी कहानी के नाट्य रूपांतरण की वास्तविक जड़ें ‘तीन एकांत’ के प्रदर्शन से लेकर वर्तमान तक हैं और निश्चित रूप से भविष्य में इसी तरह फूलेंगी । कहानी के मंचन में रचना और अभिव्यक्ति की जितनी शैलियाँ दिखाई पड़ती है, उन्हें पारम्परिक किस्सागोई की हल्की झलक के साथ आधुनिक रंगशैली के कलात्मक संयोजन द्वारा मंचित करते हुए दृश्यात्मक सम्प्रेषण की नई दिशाओं को उकेरा गया है । कहानियों के टेक्स्ट को सुरक्षित रखने के लिए निर्देशक ने अपनी ओर से कुछ भी कहने का प्रयास न करके उसे मूल रूप में ही स्वीकार किया है । “आज के लेखन में इस तरह की बुनावट को छोड़ा जा रहा है । झटके वाली कहानी आज कल कम लिखी जाती है इस तरह आलोचकों का कहना है कि कहानी लेखन पत्रकारिता के निकट आया है । जिस भांति पत्रकार किसी घटना का ब्यौरा सहज स्वाभाविक ढंग से, अपनी ओर से कुछ भी जोड़े या ओढ़ाए बिना पाठक के सामने रख देता है वैसे ही लेखक भी रखने लगा है ।”[8] कुछ वाक्यों को आगे पीछे करने या कहानी के दोहराव को छोड़ने के अतिरिक्त कुछ भी सम्पादित या बदलने की कोशिश नहीं की । ये भी उन स्थानों पर हुआ है, जहाँ कहानी के पात्रों का तनाव, गुस्सा, अकेलापन या संघर्ष आदि है और जिन्हें कार्य व्यापार से व्यंजित किया जाता था । इस रंग प्रयोग की अधिसंख्य प्रस्तुतियों को देखने के बाद कहानी-रंगमंच की दृष्टि से अभिनय शैली की नवीनता पर बातचीत करना दिलचस्प और सार्थक लगता है । कहानी पढ़ते समय पाठक जिस अनुभूति का साक्षत्कार करता है और सूक्ष्म रूप से छिपा हुआ, जो दृश्य संसार उसके सामने बनता संवरता है, उन दृश्यों को रचना के भीतर से तलाश करके मंच पर प्रदर्शित करने से ही ‘कहानी के रंगमंच’ का रूप बनता है । एक पाठक जब कहानी को पढ़ता या सुनता है, उसी समय, कहानी के पाठक के समांतर वह कहानी को दृश्यताम्क रूप से भी देखता चलता है ।
निर्मल वर्मा की तीन कहानियों ‘धूप का एक टुकड़ा’, ‘डेढ़ इंच ऊपर’ और ‘वीकएंड’ की मंच-प्रस्तुति ‘तीन एकांत’ शीर्षक से 1975 में देवेंद्र राज अंकुर के निर्देशन में की गई थी । तीनों कहानियों की भावभूमि और शैली लगभग एक-जैसी है । तीनों कहानियों में एक-एक पात्र है जो शुरू से लेकर अन्त तक एक लम्बा संवाद बोलता है, पूरा संवाद एक कथा के रूप में है । कहानी का मंचन इस प्रकार से किया गया है कि एक अहसास भी बना रहता है कि संवाद की शुरूआत किसी दूसरे पात्र के साथ होती है लेकिन यहाँ उसकी स्थिति का कोई अर्थ नहीं रहता है क्योंकि न जाने कब यह संवाद मात्र स्व-केन्द्रित होकर रह जाता है । उपस्थित पात्र इस प्रकार से संवादों को सुपुर्द करता है जैसे उसकी बात को सुनकर कोई उसे उत्तर देगा । कहानियों के रूप कई तरह के होते हैं ऐतिहासिक, पौराणिक, सामाजिक, मोनोलॉग इत्यादि । “मध्ययुगीन लोकनाट्य परम्परा में प्रचलित नाट्य रूपों के साथ-साथ किस्सागोई की परम्परा रही है…मुग़ल बादशाह जहाँगीर के समय क़िस्साख़्वाब का वर्णन मिलता है । आज भी आल्हा, पंडवानी या पाबूजी की पड़ आदि पारम्परिक वाचन शैली के नाटकीय तत्वों से इनकार नहीं किया जा सकता मगर समकलीन कहानी रंगमंच किस्सागोई के इन रूपों से अलग अपना स्वतंत्र रूप बना रहा है…उन्हें तोड़कर या बदलकर प्रस्तुत करने से वह मूल रचना की प्रस्तुति नहीं रहती ।”[9] मोनोलॉग से सम्बंधित प्रकार की कहानियां भारत में विदेशी प्रभाव के कारण आई हैं, मोनोलॉग एक प्रकार से एकालाप होता है जिसमें एक आदमी बोलता रहता है जैसे नाटकों में स्वगत कथन होता है । इस प्रकार ये कहानियाँ अकेलेपन के कुछ क्षणों में पात्रों के स्वयं अपने से साक्षात्कार की कहानियाँ हैं ।
निर्मल वर्मा की कहानियों में विदेशी प्रभाव अधिक है । कहानी का परिवेश, पात्रों की मानसिक स्थिति, उनके संवाद इत्यादि । ‘धूप का एक टुकड़ा’ कहानी का दृश्य एक पब्लिक पार्क से शुरू होता है जहाँ कई बेंचें हैं, पृष्ठभूमि में एक चर्च है और जहाँ-तहाँ फैले धूप के कुछ टुकड़े हैं । एक बूढ़ा है जो एक पैरेम्बुलेटर के सामने बैठा है और संयोग से उसी बेंच पर आकर बैठ जाता है जहाँ एक औरत (नायिका) रोज़ाना आकर बैठती है । इस प्रकार एक मौन, बूढ़े और अपने में ही व्यस्त पात्र की उपस्थिति ने इस औरत के अकेलेपन को भी ज़्यादा रेखांकित करती है । एक पार्क से शुरू होकर भी कहानी का दृश्य-जगत औरत के लम्बे संवाद में उसके अतीत के प्रसंगानुसार बदलता रहता है । उन दोनों बेंचों में किसी तरह का चेंज किए बिना ही मात्र प्रकाश द्वारा रेखांकित कुछ विशेष क्षेत्रों अथवा संगीत और अन्ततः एकल अभिनेत्री द्वारा ही कहानी की पूरी यात्रा को पकड़ने की कोशिश की गई है । नायिका के सम्वादानुसार दृश्य बदलते रहते हैं कभी प्रकाश द्वारा कभी संगीत द्वारा तो कभी नायिका के ‘मूव्स’ द्वारा दृश्यों के संकेत दिए गए हैं । कहानी के मूल फॉर्म को बिगड़ने नहीं दिया गया वहां मूलतः अंतर्द्वंद का चित्रण हैं । जैसा निर्मल वर्मा ने लिखा वैसा ही मंचित किया गया । इस संदर्भ में ‘तीन एकांत’ के निर्देशक देवेन्द्र राज अंकुर ने कहा “एक निर्देशक के नाते यह बात शुरू से ही मेरे सामने थी कि मुझे कहानियों के नाटकीय रुपान्तरण की ओर नहीं बढ़ना है वरन कहानी के अपने मूल फॉर्म में निहित कथ्य शब्द और दृश्य को ही मंच पर स्थापित करना है ।”[10] अर्थात कहानी के मूल रूप को बिना कोई ठेस पहुंचाएं उसे मंच पर प्रस्तुत किया गया । कहानी में घटित घटनाओं को नायिका अपने अतीत को बताती रहती है कहानी पढ़ने पर पाठक उसे समझ सकता है कि ये कहानी उसके अतीत की हैं । एक कहानी में कितने भी दृश्य हो सकते हैं और पाठक उन्हें अपनी दृष्टी से दृश्य की कल्पना कर सकता है किन्तु दर्शक के पास केवल एक दृश्य है और उसी पर कई तरह की क्रिया हो रही है । वैसे मूलतः इस कहानी में पब्लिक पार्क का एक ही दृश्य है किन्तु नायिका के संवादों में एक दर्जन दृश्य हैं जिनमे गिरजाघर से लेकर मोहल्ला, सड़क, पब, सारा शहर इत्यादि । कहानी इन्हीं दृश्यों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है फिर भी इसका केंद्र पब्लिक पार्क है जहाँ नायिका बेंच पर बैठी हुई है और अपने संवादों से सभी दृश्यों का वर्णन कर रही है ।
प्रत्येक घटना के वर्णन में संवादों की अहम भूमिका होती है । संवाद में भी एक क्रम है कहानी के पहले संवाद में सुबह का दृश्य है नायिका का एकालाप शाम तक चलता है । ऐसा मंच पर प्रकाश व्यवस्था से संभव है, ऐसे ही संवादों का क्रम जारी रहता है । एक संवाद के बाद दूसरे संवाद के बीच अधिक समय नहीं है जैसा अधिकतर फ़्लैशबैक की शैली में होता है । चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ में एक संवाद से दूसरे संवाद में जाने में पच्चीस वर्ष का समय बीत गया “…कल देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ…राम राम यह भी लड़ाई है…”[11] कहानी को पढ़ते समय एक पंक्ति में ये वर्ष निकल जाते हैं किन्तु मंच पर इसे दिखाने में अभिनेता और निर्देशक को अधिक परिश्रम करना पड़ता है । नाट्य रूपांतरण और कहानी के मंचन में संवादों का क्रम चलता रहता है । इस क्रम में कहानी की संवेदना को किसी प्रकार की ठेस नहीं पहुंचती । संवादों को थोडा परिवर्तित भी किया गया है “…यह पत्ता मेरा है और वह उसका…”[12] मंचन में यही संवाद “…यह पत्ता आपका है दूसरा किसी दूसरे का…”[13] है । ऐसा करने से संवाद को और अधिक बल मिलता है और ‘कहानी की थीम’ पर किसी प्रकार से कोई हानि नहीं पहुँचती है । अपवाद रूप में एक स्थान पर दो शब्दों को मात्र बदला गया है । दृश्यों को मंचित करने के लिए रंगमंच में कई संकेत दिए गए हैं । मंच पर अँधेरा, प्रकाश की योजना, मंच सज्जा इत्यादि का भी विस्तृत वर्णन है । “कहानी को तोड़कर, शब्दों को बदलकर, फॉर्म को चोट पहुंचाकर…नाट्य मंचन से वह कहानी के बहाने नए नाटक का मंचन होगा । इसकी अपेक्षा अभिनेता कहानी का हाव-भाव, स्वर के उतार चढ़ाव तथा संकेतों को नाटकीय ढंग से पढ़े तो वह ठीक होगा ।”[14] नई भाव भंगिमा और नए कलेवर के साथ कहानी का मंचन नए काव्य स्वाद को जन्म देता है । संस्कृत काव्यशास्त्रों में नाटक को ‘काव्य’ ही कहा जाता है । कहानी के मंचन के संदर्भ में निर्मल वर्मा भी कहते हैं कि “कहानी के मूल स्वभाव को विकृत किए बिना उसे मंच पर प्रस्तुत किया जाए, जहाँ एक ही समय में नाटक का ‘इल्यूजन’ दे सके और दूसरी ओर कहानी का आंतरिक फॉर्म और लय को अक्षुण्ण रख सके ।”[15] कहानी के मंचन द्वारा उसके नाटकीय तत्वों को उजागर करना है । वास्तव में कहानी रंगमंच की अभिनय प्रक्रिया एक पात्र से दूसरे पात्र को प्रतिबिंबित करने की यात्रा जैसी है । जिसमें अभिनेता कभी एक पात्र को मूर्त करता है और फिर उसे छोड़ कर दूसरे या तीसरे पात्रं की तलाश में चल पड़ता है । पात्रों की नाटकीय गतियों, कहानी-वाचन अभिनय, दृश्य परिकल्पना और प्रकाश संयोजन परस्पर घुलती मिलती हुई कहानी को नया रूप देती हैं । ऐसे मंचन में दूसरे उपकरण मौजूद नहीं होते इसीलिए अभिनेता अपनी वाणी और अपने शारीरिक हाव-भाव से दर्शकों को बांधे रखता है ।
निर्मल वर्मा की तीनों कहानियों का मूल विषय अकेलापन है । इन कहानियों के पात्र वर्तमान में रहते हुए अतीत की घटनाओं को जीते हैं । ‘डेढ़ इंच ऊपर’, ‘धूप का एक टुकड़ा’ जैसे फ्रेम की कहानी होते हुए भी अपने अन्तिम स्वरूप में यह उससे बिल्कुल ही अलग होती गई । इसमें भी दो पात्र हैं- एक बोलने वाला और दूसरा सुनने वाला । शुरू में पहली कहानी की तरह यहाँ भी सुनने वाले पात्र की परिकल्पना की गई लेकिन ज्यों-ज्यों कहानी आगे बढ़ती गई, सुनने वाला पात्र बिलकुल ही अनुपस्थित हो जाता है । कहानी का बूढ़ा पात्र बियर पीते हुए खुद ब खुद ही खुलता चलता है । कहानी का स्थान ‘पब’ है किंतु संवादों से कई स्थानों का भ्रमण किया गया है । प्रस्तुतिकरण के बीच-बीच में उसे बीयर ‘सर्व’ करने के लिए एक बेयरा है जो मुख्य पात्र की आवाज़ पर जब-जब बीयर का मग रखने को आता तो अनायास ही कहानी के दृश्य को पुनः ‘पब’ से जोड़ देता है । कहानी में जो घटना है अर्थात ‘पब’ की उस घटना को वैसे ही प्रस्तुत किया है इस कहानी में भी ‘फ़्लैशबैक’ की सहायता नहीं ली गई । मंच पर नीचे ऊपर दो विभिन्न कोनों पर दो मेजें और चार कुर्सियां मात्र है । कहानी में दृश्यों का आरम्भ ‘पब’ से होता है, अन्य दृश्यों को दिखाने के लिए प्रकाश व्यवस्था है जो उसकी रौशनी में बनते मिटते रहते हैं, इनमें कुल मिलकर नौ दृश्य हैं । कहानी के मंचन के आरम्भ में इस प्रकार के दृश्य निर्मित किए गए हैं जिससे स्थिति का पता चलता है । कहानी में दो पात्र हैं मंचन में केवल एक पात्र लिया गया है उस पात्र की उपस्थिति दर्ज कराने के लिए कुछ बातें कही जा रही है । “अपुस्थित श्रोता मानो उसके सामने वाली कुर्सी पर आकर बैठ गया है ।”[16] यहाँ श्रोता से अर्थ कहानी के दूसरे पात्र से है जिसे यहाँ दर्शाया नहीं गया सिर्फ उसके होने का अहसास कराया जा रहा है । दृश्यों में नाटकीयता के लिए तरह-तरह की क्रियाएं कर रहे हैं, ओवरकोट उतार कर रखना, कुर्सी से उठाना फिर बैठ जाना, सिगार जलाना इत्यादि कहानी में इस तरह की कोई क्रिया नहीं है । कहानी को नाटक से जोड़ने की कोशिश की जा रही है । अतिरिक्त पात्र रखा गया है जो बीयर ‘सर्व’ कर रहा है इस पात्र का कहानी से कोई सरोकार नहीं है किन्तु उसके होने से मंच पर चहल-कदमी हो रही है और मंचन की दृष्टी से अतिआवश्यक क्रिया है । कहानी को मंचित करने के लिए निर्देशक ने अपनी ओर से पात्र रखा और अपनी ओर से हटा भी दिया । देवेन्द्र राज अंकुर ने दो पात्र रखें जबकि शिवलकर ने एक ही पात्र से प्रस्तुति दी । इससे प्रयोग से कहानी के मर्म की कोई हानि नहीं हुई । इसी कहानी को अभिनेता राजेश विवेक द्वारा अभिनीत बूढ़ा व्यक्ति एक पात्र भी है और वाचक की भूमिका में वह खुद है । कभी वह स्वयं से बात करता है और कभी सीधे दर्शकों से संबोधित होता है । इसी प्रक्रिया में कभी खाली कुर्सी से मुखातिब होकर अपने एकालाप को संवाद में बदल देता है । यह मंचन करने वाले की खूबी है की वह वर्णनों को व्यावधान न बनाते हुए स्थितियों और बिखड़ी हुई कड़ियों को जोड़ता है ।
निर्मल वर्मा की तीसरी कहानी वीकएंड भी पूरी की पूरी नायिका के ‘स्वचिन्तन’ से सम्बन्धित दिखाई गई है । नायिका का एकालाप होता है किन्तु उससे पहले शारीरिक क्रिया है जिससे दर्शक उसकी ओर आकर्षित हो जाएँ और उसके संवाद से जुड़े । कहानी की शुरूआत सुबह के भूरे आलोक में नायिका की ‘टेपरिकॉर्डर ’ पर आती आवाज़ से की गई ‘‘यह में याद रखूँगी, ये चिनार के पेड़, यह सुबह का भूरा आलोक और क्या याद रहेगा ? पेड़ों के बाद बदन में भागता यह हिरन, आइसक्रीम का कोन, घास पर धूप में चमकता हुआ एक साफ़ धुली पीड़ा की फाँक, जैसा मानो अकेला अपने को टोह रहा हो ।’’[17] मंचन में प्रकाश की व्यवस्था से अँधेरे से शुरू होकर उजाले की तरफ जाना । फिर मुँह अँधेरे में अलार्म की आवाज़ सुनकर ही उसके मुँह से पहले संवाद निकलते हैं । कहानी में संवाद हैं किन्तु उनका कोई उतार-चढ़ाव नहीं है लेकिन मंचन के समय नायिका की चीख, उसका विषाद, उसका अकेलापन सब उसके अभिनय से उसके चरित्र में नज़र आने लगते हैं । नायिका एक ‘वीकएंड’ की समाप्ति पर सुबह-सुबह अपने कमरे पर जाने के लिए तैयार हो रही है, उसका प्रेमी अभी तक पलंग पर सोया हुआ है । इसी बीच पिछले दिन की घटनाओं पर पुनर्विचार करने लगती है और कहानी कमरे से निकलकर एक पार्क में पहुँच जाती है । उस कमरे में कोई नहीं है लेकिन उसकी भाव भंगिमा से यह आभास होता है कि उसके साथ कोई है जिससे वह मिलती है । यह कहानी भी अकेलेपन का एक रूप है नायिका का एकालाप अतीत के पन्नो को फिर से जिन्दा कर देता है । संगीत नायिका के जागने से लेकर उसके प्रस्थान तक धीमी आवाज़ में चलता रहता है । उसके चीखने पर संगीत तेज़ और शांत होने पर मद्धम गति में चलता है । यह संगीत कर्णप्रिय रहता है ताकि दर्शक उससे खुद को जोड़ पाए । इस प्रकार देवेन्द्र राज अंकुर ने निर्मल वर्मा की कहानियों के साथ ऐसा सृजनात्मक परिवेश रचते हैं जिससे अभिनेता मुक्त होकर क्रियाशील हो सकें ।
तीन एकांत की कहानियों को बहुत से रंगकर्म के विद्वानों ने कहानी का रंगमंच कहा है क्योंकि इन कहानियों में सूत्रधार या संवादों का आदान प्रदान नहीं है वह इसीलिए मोनोलॉग है । महत्वपूर्ण बात यह है कि “इस रंग प्रयोग में देखी सुनी जा रही कहानी अपने उप-पाठ की आंतरिक ले की पुनर्रचना बनती है । दरअसल इस प्रयोग में कहानी के उस अदृश्य मर्म को पकड़ने की कोशिश है जो कहीं एक दो शब्दों या वाक्यों के बीच उपस्थित रहता है । इस प्रक्रिया में कहानी की दुनिया छोटी होती हुई भी उन कई अर्थ छायाओं को उजागर करनी है जिनको केवल पढ़ने से अनुभव नहीं किया जा सकता ।”[18] कह सकते हैं की कहानी की प्रस्तुति सम्पूर्ण कहानी को संवाद बनाते हुए उसके कथ्य, निजी रूप, शब्द और उनसे उभरते संगीत एवं ध्वनियों के माध्यम से उसके श्रव्य की अभिव्यंजना होती है । कहानी के मंचन की अभियक्ति इस प्रकार से होती है जिससे दर्शक उन हिस्सों को भी जीता है जो कहानी में लिखी हुई नहीं होती है । कहानी की कई अमूर्त घटनाओं को भी मंचन से नाटक में शामिल कर लिया जाता है जिससे कहानी और भी प्रभावशाली हो जाती है ।
कहानी के रंगमंच से जब हम कहानी के नाट्य रूपांतरण की तरफ बढ़ते हैं तब मंच और भी सक्रीय हो जाता है । जहाँ एकालाप था वह अब पूर्ण रूप से संवाद स्थापित होने लगा है । कथानक, पात्र योजना, संवाद, दृश्यों का संयोजन, प्रकाश व्यवस्था, वेशभूषा में तब्दीली, मुख सज्जा, मंच सज्जा, प्रवेश-प्रस्थान इत्यादि सब बदल जाता है । कहानी के दृश्यकाव्य में संवाद होते हैं लेकिन ठीक उसी तरह नहीं होते जैसे नाटकों में होते हैं । संवाद कहानी से ही प्राप्त होते हैं लेकिन क्रमानुसार नहीं होते है उन्हें अन्वेषित करना पड़ता है । हिंदी साहित्य की प्रारंभिक कहानियों में संवाद काफी संख्या में हुआ करते थे बल्कि बहुत सी कहानियां नाटक की तरह संवादों में ही आगे बढ़ती थी । प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, भीष्म साहनी, फणीश्वरनाथ रेणु, भगवतीचरण वर्मा इत्यादि कथाकारों की कहानियों में अच्छे संवाद की कोई कमी नहीं होती है । नाट्य क्रियाओं की दृष्टी से कुछ कहानियां सम्पन्न होती हैं । ज्यादातर कहानियों में नाट्य क्रिया सीधे साफ़ दिखाई नहीं देती पर उनमें जरुर रहती हैं । प्रेमचंद की सौ कहानियों से अधिक का नाट्य रूपांतरण और मंचन हुआ है । उनकी प्रसिद्द कहानी ‘ईदगाह’ को बहुत सी संस्थाओं ने मंच पर उतारा है । इस कहानी में संवाद, दृश्य, समय, भाव, परिवेश सब मौजूद है फिर भी प्रेमचंद ने ईदगाह में मेला जाते समय हामिद के कपड़ों का जिक्र नहीं किया है और न ही अन्य लड़को के बारे में कुछ लिखा है परंतु मंचन करने वाले को यह स्वयं अनुमान लगाना होगा कि हामिद नंगे पैर होगा, उस के कुरते में पैबंद लगे होंगे जबकि अन्य लड़कों के अच्छे कपड़े उनकी अच्छी आर्थिक स्थिति के सूचक होंगे । ईदगाह का वह हिस्सा जहाँ हामिद इस द्वंद्व में है कि क्या-क्या खरीदे या जहाँ वह यह सोचता है कि अम्मा का हाथ जल जाता है उसका रूपांतरण कठिन है । रूपांतरण में इस तरह के विवरण प्रस्तुत करने के लिए ‘स्वगत’ कथन का प्रयोग किया जाता है जिसमें अभिनेता मंच के कोने में जाकर अपने आप से यह संवाद बोलता है लेकिन आजकल ‘वायस ओवर’ अर्थात ऐसी ध्वनि जो दर्शकों को सुनाई देती है पर पात्र नहीं बोलता के माध्यम से संभव है । अम्मा वाले अंश के लिए फ़्लैशबैक शैली का उपयोग किया गया है । इसी प्रकार हामिद की ललचाई आँखो, होठों पर जीभ फेरते और बाद में भारी कदमों से दुकान से दूर जाने का दृश्य बनाया जाता है । यही दूसरी ओर रामायण कथा का ‘नाट्य रूपांतरण (रामलीला)’ स्थानीय रंग में संवादों को रंग कर चरित्र-चित्रण को परिमार्जित किया जाता है । जहाँ भाषा का रूप परिवर्तित हो जाता है । ध्वनि और प्रकाश भी चरित्र-चित्रण करने तथा संवेदनात्मक प्रभाव उत्पन्न करने में कारगर सिद्ध होते हैं । रूपांतरण में एक समस्या पात्रों के मनोभावों को कहानीकार द्वारा विवरण के रूप में व्यक्त किए प्रसंगों या मानसिक द्वंद्व के दृश्यों की नाटकीय प्रस्तुति में आती है ।
निष्कर्ष
स्पष्ट है कि कहानी के मंचन में कथानक की अभिव्यक्ति अभिनेता और निर्देशक के ऊपर निर्भर है । वह उसकी मार्मिकता को किस स्तर पर ले जाना चाहता है । लिखित कथा को मंच पर प्रस्तुत करने पर कथा की भावभूमि और उसका प्रभाव दोनों ही में सामंजस्य बैठाना ही नाट्य रूपांतरण का मूल आधार है ।
सहायक ग्रन्थ सूची
- मेरी प्रिय कहानियां – निर्मल वर्मा, राजकमल प्रकाशन
- तीन एकांत (धूप का एक टुकड़ा, डेढ़ इंच ऊपर और वीक एन्ड कहानियों का नाट्य रूपांतरण) – निर्मल वर्मा, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 1990
- नाटक और रंगमंच – सम्पादक – ललित कुमार शर्मा ‘ललित’, डॉ भानु शंकर मेहता प्रभा प्रकाशन, संस्करण 1985
- कथा कोलाज़ (भाग 1-2) – दिनेश खन्ना, राष्टीय नाट्य विद्यालय, संस्करण 1994
- रंग दर्शन – नेमिचंद्र जैन, राधाकृष्ण प्रकाशन, संस्करण 1983
- समकालीन हिंदी नाटक और रंगमंच – संपादक डॉ. विनय, भारतीय भाषा प्रकाशन, संस्करण 1981
- अभिव्यक्ति और माध्यम – एन. सी. ई. आर. टी. दिल्ली (कक्षा 11-12) संस्करण 2006
- कहानी का रंगमंच – संपादन – महेश आनंद, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2001
- कहानी का रंगमंच और नाट्य रूपांतरण – डॉ. करन सिंह उत्वाल, गोविन्द पचौरी जवाहर पुस्तकालय मथुरा, संस्करण 2008
- रंग प्रक्रिया के विविध आयाम – संपादक – प्रेम सिंह, सुषमा आर्य, राधाकृष्ण प्रकाशन, संस्करण 2007
पत्रिकाएं
- वागर्थ – मई 2013, संपादक – एकान्त श्रीवास्तव, कुसुम खेमानी
- समकलीन भारतीय साहित्य – वर्ष 40अंक 204 जुलाई अगस्त 2019 संपादक मंडल – चंद्रशेखर कंबार, माधव कौशिक, के श्रीनिवासराव, अतिथि संपादक ब्रजेन्द्र त्रिपाठी
- इन्द्रप्रथ भारती – संपादक – जीतराम भट्ट, नवम्बर दिसम्बर 2018
- समीक्षा – संपादक – सत्यकाम, अंक जनवरी मार्च 2018, वर्ष 50 अंक 4
- बहुवचन – प्रधान संपादक गिरीश्वर मिश्र, संपादक अशोक मिश्र महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
- अनभै सांचा – जनवरी जून 2018, सम्पादक – द्वारका प्रसाद चारुमित्र
[1] कहानी का रंगमंच : संपादन – महेश आनंद, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 45
[2] हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली – डॉ अमरनाथ, पृष्ठ संख्या 110
[3] हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली – डॉ अमरनाथ, पृष्ठ संख्या 109
[4] ई.एम. फ़ार्स्टर – एस्पेक्ट्स ऑव द नावेल, पृष्ठ संख्या 29
[5] कहानी का रंगमंच : संपादन – महेश आनंद, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 15
[6] तीन एकान्त की भूमिका – निर्मल वर्मा, पृष्ठ संख्या 03
[7] कहानी का रंगमंच – महेश आनंद, पृष्ठ संख्या 14
[8] कहानी-रंगमंच का अनुभव – भीष्म साहनी, कहानी का रंगमंच – महेश आनंद, पृष्ठ संख्या 31
[9] नया मुहावरा – कहानी का रंगमंच – महेश आनंद, पृष्ठ संख्या 124
[10] तीन एकांत – निमल वर्मा, पृष्ठ संख्या 11
[11] उसने कहा था – चंद्रधर शर्मा गुलेरी, पृष्ठ संख्या 65
[12] धूप का एक टुकड़ा – निर्मल वर्मा, पृष्ठ संख्या 31
[13] धूप का एक टुकड़ा – तीन एकांत, निमल वर्मा, पृष्ठ संख्या 12
[14] कहानी का रंगमंच और नाट्य रुपान्तरण – करण सिंह उत्वल, पृष्ठ संख्या 67
[15] तीन एकांत – निर्मल वर्मा, पृष्ठ संख्या 08
[16] डेढ़ इंच ऊपर- तीन एकांत, निर्मल वर्मा, पृष्ठ संख्या 39
[17] वीक एंड- तीन एकांत, निर्मल वर्मा, पृष्ठ संख्या 55
[18] रंग प्रक्रिया के विविध आयाम – संपादक प्रेम सिंह, सुषमा आर्य, पृष्ठ संख्या 134
सादर धन्यवाद।।
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