हिंदी साहित्येतिहास लेखन में जातिवाद, संस्कृति और डॉ अम्बेडकर का सामाजिक चिंतन

डॉ. कर्मानंद आर्य 

 

साहित्य के बिना समाज और समाज के बिना साहित्य की कल्पना असंभव है. समाज एक सामूहिक इकाई है और साहित्य भी बहुत सारी इकाइयों से मिलकर बनता है. यह तथ्य सृजन के हर क्षेत्र में लागू होता है. हिंदी साहित्य का अपना सात-आठ सौ वर्षों का इतिहास है. लेखन की एक बड़ी संख्या में इसमें आमद रही है. साहित्य की बहुत सी विधाओं का अब तक जन्म हो चुका है और कुछ काल के गाल में खुद को समाहित करने से नहीं रोक पायी हैं. प्रतिरोध के साहित्य ने वैसे अनेक मुकाम हासिल किये हैं पर साथ की एक जाति विशेष की कृपा के कारण इस का समुचित विकास नहीं हो पाया. पर इन सात-आठ सौ वर्षों का साहित्य क्या एकान्मुखी नहीं है? साहित्य उन अर्थों में प्रजातान्त्रिक नहीं हो पायी जहाँ उसे समाज के अन्य वर्गों का भी समुचित योगदान प्राप्त होता. होना तो यह चाहिए था कि उसमें सब वर्गों की भागीदारी होती. पर ऐसा हुआ नहीं. ऐसा क्यों नहीं हुआ, क्या साहित्य के बीज में ही कुछ ऐसा है जो उसके पेड़ में प्रकट होता रहता है? अपनी पुस्तक आलोचना और विचारधारामें डॉ. नामवर सिंह लिखते हैं कि आलोचना की दुनिया विचारों की दुनिया है. और विचार के लिए चाहे गुरु-शिष्य परंपरा हो या विदग्ध लोगों का समुदाय, उनके बीच बातचीत और शास्त्रार्थ जरुरी है. बहस के जरिये एक पीढ़ी में जो सवाल उठते हैं उनके जबाब अगली पीढ़ी को देने होते हैं. पर यह बात-चीत बहुत लंबा अंतराल गुजरा और हुई नहीं. यहाँ लगभग संवादहीनता की स्थिति है.

साहित्य समाज का दर्पण है पर वह किस समाज का दर्पण है यह विषय विचारणीय है. जैसे ही हम उस दर्पण रूपी समाज की पहचान करने लगते हैं साहित्य की पोल खुलती चली जाती है. आपको उसमें सीधे-सीधे फांक नजर आने लगता है. साहित्य में जो प्रतिबिंबित होता है, वो असल में एक छोटे समाज की सामाजिक वास्तविकता है. जिस समाज का अंतर्विरोध साहित्य में है वह समाज केवल शिक्षित समुदायों का है. उससे समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग अलग है. जिसकी चिंताएं आवश्यकतायें बिलकुल अलग हैं. समाज में अगर समरूपता नहीं है तो साहित्य में भी आप समरूपता खोजेंगे तो नजर नहीं आयेगी. आप सबजेक्टिव ढंग से उसे प्रोजेक्ट नहीं कर सकते. भारत में साहित्य भले ही मानवमात्र के कल्याण का दावा करता हो परन्तु उसका मूलचरित्र असमानता बोधक है. वह भी जाति, वर्ण, स्थान के प्रभाव से मुक्त नहीं है. यहाँ तक कला और संस्कृति भी जातियों समुदायों के द्वारा पोषित होती हैं. वहां भी कुछ जातियों का वर्चश्व है तो कुछ जातियां हासिये पर धकेल दी गई हैं. साहित्यिक अभिव्यक्तियों में जाति, वर्ण, समुदाय के नुकीले नखदन्त हमें चारो तरफ दिखाई देते हैं. इतिहास बताता है कि एक बड़े समुदाय के लिए पठन पाठन का अधिकार भारत में बहुत क्षीण रहा. कई हजार सालों तक यहाँ की लगभग अस्सी प्रतिशत जनता ने स्कूल का मुख तक नहीं देखा. इसलिए साहित्य समाज में उनकी भागीदारी न के बराबर रही. सैकड़ों वर्षों तक गरीबों और अमीरों की बोली भाषा में बहुत अंतर रहा. शारीरिक श्रम को यहाँ हेय दृष्टि से देखा गया और बुद्धिवाद पर कुछ ख़ास समुदायों का कब्ज़ा जमा रहा. 

अंग्रेजी कहावत है कि जब आपके कमरे में कोई हाथी घुस जाए तो हाथी पर बात करना ज्यादा ठीक होता है. डॉ. अम्बेकर जिन प्रश्नों से लगातार जूझते रहे वे आजादी के पचास साल बाद भी प्रासंगिक बने हुए हैं इसलिए आज इस बात की आवश्यकता अधिक है की हम उन मुद्दों पर खुलकर बात करें. आरक्षण का विरोध तो हर कोई आसानी से कर लेता है पर सामाजिक भागीदारी की बात कोई नहीं करता. समाज और साहित्य में भयानक सामाजिक असमनाता है. उसको आज के परिदृश्य में समझना बहुत जरुरी है. साथ ही यह भी समझना जरुरी है कि डॉ. आंबेडकर को किन परिस्थियों ने बनाया. वे किससे प्रेरणा प्राप्त करते रहे. उनके इतने विराट व्यक्तित्व में और किन लोगों क व्यक्तित्व शामिल है. एक अस्पृश्य परिवार में जन्म लेने के कारण उन्हें सारा जीवन नारकीय कष्टों में बिताना पड़ा. उस समय एक दलित के रूप में जन्म लेना पशु होने से भी नीच कर्म था. अस्पृश्यता के कारण एक पशु तो तालाब का पानी पी सकता था पर एक दलित नहीं. बाबासाहेब आंबेडकर ने अपना सारा जीवन हिंदू धर्म की चतुवर्ण प्रणाली और भारतीय समाज में सर्वव्यापित जाति व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष में बिता दिया. चाहे समाज हो चाहे साहित्य उनका समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का सपना नहीं पूरा हो पाया. मुक्तिबोध अपनी पुस्तक ‘मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन का एक पहलू’ में लिखते हैं कि ‘किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए. एक तो यह कि वह किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों से उत्पन्न है अर्थात वह किन शक्तियों के कार्यों का परिणाम है. किन सामाजिक, संस्कृत क्रियाओं का परिणाम है. दूसरा इसका अंतर्स्वरूप क्या है? किन प्रेरणाओं और भावनाओं ने उसके आंतरिक शब्द निरुपित किये हैं. तीसरे उसके प्रभाव क्या हैं? किन सामाजिक शक्तियों ने उसका सदुपयोग या दुरुपयोग किया है और क्यों? साधारण जन के किन मानसिक तत्वों को उसने विकसित या नष्ट किया है? आज के हिंदी साहित्य हमें इसी नजरिये से देखने की महती जरूरत है.

 

हिंदी-साहित्य और इतिहास दृष्टि : hindi-sahitya aur itihas drishti

राजेन्द्र यादव ने लिखा है कि सत्रहवी-अठारहवी उपनिवेश बनाने की शताब्दी थी, उन्नीसवीं उसके वैचारिक विस्तार की. बीसवीं इस मानसिक, भौगोलिक उपनिवेशों को तोड़ने की. इक्कीसवीं सदी सूचना साम्राज्यवाद की सदी है जिसमें विचार सूचना में बदल चुका है. ऐसी सूचना जिससे लड़ा नहीं जा सकता, केवल स्वीकार किया जा सकता है. जाति के आवरण में वाद ने हर तरफ घेरा डाला हुआ है. फिर चाहे आचार्य रामचंद्र शुक्ल हों, आचार्य द्विवेदी हो, रामविलास शर्मा हों, नामवर हों या चौथीराम यादव. सभी आलोचकों पर उनकी जाति हावी होती दिखाई देती है. वस्तुतः जाति को नकारने वाला सबसे अधिक जातिवाद फैलाता है. वह भ्रम का ऐसा संजाल फैलाता है कि जाति का कोई अस्तित्व नहीं है पर वह अपना सारा खेला उसी जाति को संज्ञान रखकर खेलता है. ‘मैनेजर पांडे लिखते हैं कि ‘साहित्य का अस्तित्व समाज से अलग नहीं होता है. इसलिए साहित्य का विकास समाज से काटकर नहीं हो सकता. साहित्य सामाजिक रचना है. साहित्यकार की की रचनाशील चेतना उसके सामाजिक अस्तित्व से निर्मित होती है. साहित्यिक कर्म की पूरी प्रक्रिया सामजिक व्यवहार का ही एक विशिष्ठ रूप है. इसलिए साहित्य का इतिहास समाज के इतिहास से अनेक रूपों में जुड़ा हुआ होता है. साहित्य का मूल्यांकन करने पर इसके विपरीत स्थितियां मिलती हैं. नामवर सिंह अपने एक निबंध में लिखते हैं कि ‘इतिहास लिखने की ओर कोई जाति तभी प्रवृत्त होती है जब उसका ध्‍यान अपने इतिहास के निर्माण की ओर जाता है. यह बात साहित्‍य के बारे में उतनी ही सच है जितनी जीवन के. हिंदी में आज इतिहास लिखने के लिए यदि विशेष उत्‍साह दिखाई पड़ रहा है तो यही समझा जाएगा कि स्‍वराज्‍य-प्राप्ति के बाद सारा भारत जिस प्रकार सभी क्षेत्रों में इतिहास-निर्माण के लिए आकुल है उसी प्रकार हिंदी के विद्वान एवं साहित्‍यकार भी अपना ऐतिहासिक दायित्‍व निभाने के लिए प्रयत्‍नशील हैं’ हिंदी साहित्य के इतिहास में हायरार्की आफ वैल्यूजको कायम करने की बात है. हिंदी साहित्य में शताधिक हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रन्थ लिखे गए हैं पर उनमें ब्राह्मणवाद का वर्चस्व होने के कारण अन्य समुदायों को ठीक से जगह नहीं मिल पायी है. द्रष्टव्य है कि रामचंद्र शुक्ल जिस कवि या रचनाकार का नाम उल्लेख करते हैं उसकी जातिगत पहचान सबसे पहले कराते हैं. वे अपने पसंद के रचनाकारों को अधिक तरजीह देते हैं और जो उनकी विचारधारा में फिट नहीं बैठता है उसकों ख़ारिज करते हुए चलते हैं. हिंदी का यहीं इतिहास ग्रन्थ जो जातिवाद, क्षेत्रवाद से भरा हुआ है अन्य साहित्येतिहास ग्रन्थ इसी को आधार बनाकर लिखे गए हैं. इस इतिहास ग्रन्थ में बहुत सारी कमियां और भी है.यह केवल पूर्वी उत्तरप्रदेश के कुछ जिलों और बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान के कुछ जिलों के साहित्यकारों को ही शामिल करता है. 

हिंदी जो राष्ट्रभाषा होने का दावा करती है उसका सम्पूर्ण चरित्र की पड़ताल इस इतिहास ग्रन्थ में की जा सकती है. समय के साथ इनकी पड़ताल होनी चाहिए. पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी का हिंदी-साहित्‍य : उसका उद्भव और विकासप्रकाशित हुआ तो अनेक लोगों का धीरज टूट गया और बहुतों की ओर से शिकायत आई कि इति‍हास द्विवेदीजी के गौरव के अनुकूल नहीं है, वैसे ज्‍यादातर लोगों को उनके सम्यक अद्यतन न हो पाने का कष्‍ट था. यह जानते हुए भी कि इतिहास घोषित रूप से छात्रों के उपयोगार्थ लिखा गया है, किसी का ध्‍यान उसके युग-सापेक्ष साहित्यिक बोध की नवीनता एवं सीमा की ओर नहीं गया. शुक्‍लजी के इतिहास के साथ उसे मिलाकर किसी ने यह देखने की कोशिश नहीं की कि दोनों इतिहासों में जो एक पीढ़ी का अंतर है उसके कारण परंपरा के निरूपण एवं मूल्‍यांकन में कहाँ-कहाँ अंतर आ गया है! हिंदी साहित्य के लगभग इतिहासों का जातिवादी अध्ययन किया जाए तो स्थितियां बहुत साफ़ नजर आती हैं. हिन्दी साहित्य के मुख्य इतिहासकार और ग्रन्थ इसी बात की पुष्टि करते हैं. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखते हुए कवि लेखकों की जाति का नाम जरुर दिया है और कहीं कहीं गोत्र का भी. 

आज भी हिंदी में पुराने और बड़े साहित्यकारों के नामों के साथ पण्डित, लाला और बाबू जैसे जातिसूचक संबोधन जोड़ने की प्रथा चलती है. यहाँ कवि की प्राथमिक पहचान उसकी जाति से जुड़ी हुई है. हालाँकि १९ वी सदी की इन जातिसभाओं का इतिहास सिलसिलेवार बहुत कम मिलता है क्योंकि इनमें से ज्यादातर सभायें बेअसर थीं. लड़कों की शिक्षा जैसे मुद्दों को छोड़कर ब्राह्मण और क्षत्रिय सभाओं ने तो अक्सर महत्वपूर्ण सुधारों का विरोध ही किया. जातीय द्वेष के एक मामले में आचार्य शुक्ल स्वयं लिखते हैं कि सिद्धों और योगियों का इतना वर्णन करके इस ओर हम ध्यान दिलाना आवश्यक समझते हैं कि उनकी रचनाएं तांत्रिक विधान, योगसाधना, आत्म निग्रह, श्वास निरोध, भीतरी चक्रों और नादियों की स्थिति, अंतर्मुखी साधना के महत्व इत्यादि की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से उनका कोई सम्बन्ध नहीं. अतः वे शुद्ध साहित्य के अंतर्गत नहीं आती हैं. क्या हम पूछ सकते हैं उनके प्रिय कवि तुलसी,जायसी में यही सब तत्व मौजूद हैं पर उनकी वाणी इसपर एक शब्द नहीं बोलती है. ब्राह्मणी व्यवस्था हर किसी को ब्राह्मण बनाए रखना चाहती है. यह खेल वह किसी महापुरुष के जन्म के साथ टैग कर देती है. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कबीर के बारे में लिखते हैं कि कबीर: ज्ञानाश्रयी शाखा, इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के प्रवाद प्रचलित है. कहते हैं काशी में स्वामी रामानंद का एक भक्त ब्राह्मण था जिसकी किसी विधवा कन्या को स्वामी जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दे दिया था. फल यहाँ हुआ कि उसे एक बालक उत्पन्न हुआ जिसे वह लहरतारा के ताल के पास फेक आयी. अली या नीरू नाम का जुलाहा उस बालक को अपने घर उठा लाया और पालने लगा. यही बालक आगे चलकर कबीरदास हुआ. यहाँ रामचंद्र शुक्ल दर्शाना चाहते हैंकि कबीर को चाहे आप कुछ भी कहिये पर वह हैं विशुद्ध ब्राह्मण का खून.

 

साहित्य का इतिहास और भेदभाव sahitya ka itihas aur bhedbhav

हिंदी साहित्य के अधिकतम इतिहास ग्रन्थ सामान्य वितरण के खिलाफहै. हिंदी में वर्णवादी, जातिवादी आचार्य रामचंद्र शुक्ल का इतिहास प्रतिमान है तब सुमन राजे का इतिहास प्रतिमान कैसे हो सकता है? एक पंडित द्वारा हिन्दू मन से लिखा गया हिंदी का इतिहास धर्म और आस्था से कैसे अलग हो सकता है. दुनिया की जितनी महान कृतियाँ हैं वे दो सिरों की बात करती हैं. अभी एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय के हिंदी पाठ्यक्रम में अस्मितामूलकसाहित्य को स्थान देने के लिए एक लम्बी बहस छिड गई. प्रश्न था किस साहित्यकार को पाठ्यक्रम में जगह दी जाय और किसे छोड़ दिया जाय. पाठ्यक्रम में जगह बनाने के लिए किसी रचना अथवा रचनाकार में क्या योग्यता होनी चाहिए? क्यों कुछ लोगों को दिनकर, निराला, नामवर से बड़ा लेखक दूसरा नजर नहीं आता? वे आज भी ओमप्रकाश बाल्मीकि, प्रो. तुलसीराम, तेज सिंह, डॉ. धर्मवीर, डॉ. चौथीराम यादव, जयप्रकाश कर्दम, अनीता भारती, रमणिका गुप्ता, निर्मला पुतुल, विमल थोराट आदि से क्यों बचना चाहते हैं? क्या पाठ्यक्रम का कोई अपना चरित्र है या वह पाठ्यक्रम बनाने वाले के चरित्र पर ही निर्भर है. हिंदी की दलित धारा साहित्य में राधावाद, विष्णुवाद, कलावाद और भोंथरे मार्क्सवाद को एक सिरे से नकारती है क्योंकि साहित्य में इन ब्राह्मणी मूल्यों का केवल दुरुपयोग हुआ है. जनवादी आलोचक वीरेंद्र यादव अपने आलेख बहुजन समाज और साहित्य कि मुख्यधारामें याद दिलाते हैं की रामविलास शर्मा जैसे हिंदी के आलोचक रेणुकि कृतियों को नकारने का दुस्साहस क्यों करते हैं? क्या कारण है कि अपनी रचनात्मक मेधा से आमजन के सरोकारों पर लिखने वाला कोई दलित, ओबीसी रचनाकार उनके रडार पर नहीं आ पाता है. वे प्रेमचंद की कहानियों, उपन्यासों में आने वाले उन बहुजन नायकों की चर्चा उठाते हैं जो दलित और बहुजन हैं पर आये वे एक विशेष हिकारभाव से ही. निम्न वर्ग से आने वाले पात्रों कि रचना करते समय प्रेमचंद कि सावधानी का जिक्र भी इस आलेख में है. डॉ. मैनेजर पांडे अपनी किताब में लिखते हैं कि परंपरा और परिवर्तन में द्वंद्वात्मक सम्बन्ध होता है. परिवर्तन की व्याख्या का एक उद्देश्य नए परिवर्तनों को प्रेरित करना और दिशा देना भी होता है. साहित्य के परिवर्तन और विकास के मूल में समाज का परिवर्तन और मूल होता है. इतिहास निर्मित करने वालों को स्वयं इतिहास ने निर्मित किया होता है.

 

हिंदी लेखकों की जाति और उसका जातिवादी नामकरण : hindi lekhakon ki jati

 

इस ज्ञान- युग का “महाभारत” शस्त्र से नहीं, स्याही से लड़ा जाएगा. तुलसीदास ने अपनी किसी भी रचना में अपनी जाति का उल्लेख नहीं किया, लेकिन पेट भर कर जातिवादी रचनाएं लिखीं. शुद्रों को ताड़न का अधिकारी बताया. तुलसीदास नहीं बताते कि उनकी जाति क्या है और यह लिखते हैं- अधम जाति में विद्या पाए, भयहु यथा अहि दूध पिलाए. अर्थात जिस प्रकार से सांप को दूध पिलाने से वह और विषैला (जहरीला) हो जाता है, वैसे ही शूद्रों (नीच जाति वालों) को शिक्षा देने से वे और खतरनाक हो जाते हैं. जबकि जाति का विरोध करने वाले कबीर स्पष्ट लिखते हैं कि संत कबीर कहते हैं “जाति जुलाहा, नाम कबीरा” और फिर वे जातिवाद पर कसकर प्रहार करते हैं. गुरु रविदास लिखते हैं “कहि रविदास खलास चमारा” औऱ देखिए कि बे-गम-पुरा यानी भेदभाव से मुक्त शहर की कामना करते हैं औऱ जाति को बराबर निशाने पर लेते हैं. इसलिए कोई “कास्ट ब्लाइंड” बनने का नाटक कर रहा है और कह रहा है कि मेरी कोई जाति नहीं है, मैं तो हिंदुस्तानी मात्र हूं, तो उस पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं किया जा सकता. को न परयौ एहि जाल में ? जाति के जाल में सभी फँसे हैं .आप फँसे तो क्या ? आप देखिए न भारतेंदु हरिश्चंद्र को ? वे तो युग प्रवर्तक कवि हैं .हिंदी साहित्य में उनके नाम पर ” भारतेंदु युग ” है.भारतेंदु ने किसका इतिहास लिखा ? अपनी जाति का इतिहास लिखा.अग्रवालों का इतिहास लिखा – अग्रवालों की उत्पत्ति( 1871).भारतेंदु ने किसका संगठन बनाया ? अपनी जाति का संगठन बनाया.वैश्यों का संगठन बनाया – वैश्य हितैषिणी सभा (1874 ).अपनी जाति का इतिहास लिखना और अपनी जाति का संगठन कायम करना हिंदी साहित्य में कोई नई बात थोड़े न है ? अवध के लोगों में यथोचित जानकारी का अभाव है ’इसकी एक अहं वजह जातिभेद की प्रथा है’ जिनके साहित्य में मिलने वाले की चेतना को ‘हिंदी नवजागरण कहा जाता है’ वास्तव में वे इन्हीं सनातन संस्थाओं से जुड़े हुए व्यक्ति थे. लेकिन पश्चिमोत्तर प्रान्त में बनी सभाएं इन सबसे अलग ढंग की थी. यहाँ जाति सभायें खुद ब्राह्मणों ने और दूसरी द्विज जातियों ने ही बनाई. यहाँ जाति सभायें ब्राह्मण वर्चश्व के खिलाफ उत्पीड़ित जातियों ने नहीं बनाई. साहित्य में शुक्ल युग, द्विवेदी युग, शुक्लोत्तर युग आदि क्या इंगित करते हैं?

 

 

अछूत की शिकायत :

शम्बूक, एकलव्य और कर्ण अपनी योग्यता, दक्षता और क्षमता में किससे कम थे परन्तु सिर्फ इसलिए उनका शारीरिक मानसिक वध किया गया कि उनके उत्थान से ब्राह्मणपुत्रों और राजपुत्रों की रोजी-रोटी समाप्त होती थी. उनका सम्मान छिनता था. उनके ऊपर आने का मतलब था दुनिया का नरक में डूबना. जहाँ उत्थान और उन्नति के सारे अवसरों पर प्रवेश-निषेधकी तख्तियां लगी हैं (यहाँ कुत्तों और शूद्रों का प्रवेश वर्जित). बारहवीं सदी में करुणा को ही धर्म और श्रम को पूजा समझने वाले एक ब्राह्मण बसवराजेश्वर ने कन्नड़ क्षेत्र के दलितों और अपने स्वजातियों के बीच विवाह संबंधों की रेडिकल परंपरा शुरू करने का दुसाहस किया था लेकिन बदले में उन्हें हताश मृत्यु का वरण करना पड़ा. उसने निचली जातियों में से जो वीरशैव गढ़े थे द्विज परम्परा ने लिंगायत के रूप में अपना लिया जिनका दलितों के खिलाफ प्रथम आक्रामक पंक्ति की तरह दोहन किया जाता है.  हिंदी में एक अछूत को अपनी शिकायत दर्ज करनी पड़ी क्योंकि उसकी आवाज को अनसुना कर दिया गया. इतिहास में दाखिल होना तो और दूर की कौड़ी हो गई. इस पद के माध्यम से हम हासिये के एक बड़े समुदाय की पीड़ा को समझ सकते हैं. 

हमनी के इनरा के निगिचे न जाईला जा 

पांके में से भरि-भरि पियतानी पानी|

पनही से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैले 

हमनी के एतना काहे के हलकानी ||

यह बीसवीं सदी का दूसरा दशक था जब १९१४ में महावीर प्रसाद द्विवेदी की यशस्वी पत्रिका में दलित कवि हीरा डोम रचित अछूत की शिकायतप्रकाशित हुई थी.  इसके बाद क्रांति, लोकतंत्र, आधुनिकता और मानवाधिकारों को समर्पित पूरी शताब्दी में अछूत अपनी शिकायत के निराकरण की प्रतीक्षा करते रहे. उन्होंने शिकायत करने के हर जरिये का इस्तेमाल किया. उन्होंने परम्परा के दरबार में हाजिरी लगाईं और अन्त्यज से शूद्र बनने की कोशिश करके जाति के दायरे के भीतर ऊपर उठना चाहा. भक्ति आन्दोलन से बहले वे ईश्वर के दरबार से बहिष्कृत थे. संत कवियों ने उन्हें ईश्वर को उलाहना देना सिखाया था.

 

ब्राह्मणवाद ने कैसे एक दूसरे को पोषा :

 

नामवर सिंह ने भी एक उक्ति दे डाली कि घोड़े पर लिखने के लिए क्या घोड़ा होना होगा?’ यहां उत्तर हां में होगा. घोड़े पर कसी गई जीन का वजन और उसकी कसावट का बंधन, उसके मुंह में लगाई गई लगाम का स्वाद, उस पर पड़ते कोड़े की फटकार का दर्द, उसके खुर में ठोंकी गई नाल का दंश घोड़ा ही बता सकता है, कोई और नहीं. परंतु यह भी सत्य है कि मनुष्य घोड़े की सवारी करना, उसकी दुलत्ती खाना, उसके रंग, उसकी हिनहिनाट की आवाज, उसकी सरपट चाल के साथ उससे सहानुभूति करता हुआ उसकी तकलीफ पर जरूर लिख सकता है, अभी घोड़ा नहीं लिख सकता. जिस विचारधारा ने भारत में ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया है, जिनके पास सत्ता को संचालित करने का अधिकार था और सबसे बड़ी बात जिनके पास अध्ययन-अध्यापन का अधिकार था, वे ही लेखन कार्य में भी लगे हुए थे. वेदों को अपौरूषेय सिद्ध किया जाता है, लोक वांङ्मय को जाने किस श्रेणी में रखा जाएगा? पौराणिक कृतियों के अतिरिक्त लौकिक रचनाओं के रचनाकारों के जो ज्ञात नाम हैं, ये सब कौन थे? उपनिषद, स्मृतियां, काव्यशास्त्र संस्कृत के ग्रंथ आदि की रचनाएं किनके द्वारा की जा रही थीं? स्वाभाविक है कि यही रचनाकार आलोचना कर रहे थे और कर रहे हैं. अब अपनी मानसिकता के साथ वे जैसी आलोचना कर रहे हैं, उसी खाचें में सबको खचित करना चाहते हैं, और सबसे यही अपेक्षा करते हैं. 

यह वहीं नामवर हैं जो पिछले दिनों दिल्ली में दस पुस्तकों के विमोचन के अवसर पर लगभग चेतावनी देते हुए कहा था कि यदि साहित्य में आरक्षण दिया गया, तो जैसे राजनीति गन्दी हो गई, वैसे ही साहित्य का क्षेत्र भी गन्दा हो जायेगा. हिंदी साहित्य लेखन में जिस तरह की गुटबंदी और चाटुकारिता का आलम है वह काबिले गौर है. शिष्य बनाने की सनातन परम्परा हिंदी में आकर कैसे टूटती? हर मठाधीश अपने दो चार गुर्गे जरुर पालकर चलता है. वे गुर्गे श्वान की भाँती उनके चारो तरफ दुम हिलाते फिरते हैं और बदले में गुरु का बचा हुआ पाते हैं. मध्यकाल की तरह यहाँ सत्ता और भोक्ता के बीच गुरु नाम का एक मिडियोकर जरुर है. वह अपने चेलों को भोग की सारी सामग्री उपलब्ध कराता है. हिंदी में जो भी आलोचना और इतिहास लेखन विकसित हुआ वह इसी चेलावाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद के आधार पर हुआ. इन्हीं आलोचकों ने हिंदी का सबसे ज्यादा नुकसान किया है. इतिहास ग्रंथों में अपने रिश्तेदारों को प्रश्रय, अपनी जाति को प्रश्रय, अपने चेलों को बढ़ावा और देशज शब्दों में कहें तो तू मेरी खुजा हैं तेरी खुजाओं की रीति पर सब हुआ. इसी परंपरा के पोषक सच्चे मैनेजर ‘मैनेजर पांडे’ अपनी पुस्तक ‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’ में लिखते हैं कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा ने अपने अपने इतिहास और आलोचना सम्बन्धी लेखन में पुरान्पंथियों, रीतिवादियों आधुनिकतावादियों और रूपवादियों के तरह-तरह के जनविरोधी और इतिहास विरोधी दृष्टिकोण के विरुद्ध संघर्ष किया. आज जब हम जनविरोधी और इतिहास विरोधी दृष्टिकोणों से संघर्ष करना चाहते हैं और जनता के मुक्ति संघर्ष में सहायक हिंदी साहित्य तथा उनके इतिहास की पक्षधर भूमिका की पहचान विकसित करना चाहते हैं तो यह आवश्यक है कि हम आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा के ऐसे संघर्षों को याद करें. अब सोचने वाली बात है कि इनमें से सभी आलोचक पुराणपंथी और यथास्थितिवादी है तब ऐसी परम्परा को क्या नाम दिया जा सकता है. साहित्य में इससे बड़ा झूठ और क्या हो सकता है. 

 

डॉ. आंबेडकर का सामाजिक चिंतन :

आंबेडकर एक समाजशास्त्री और राजनीतिज्ञ, समाज-सुधारक, अर्थ शास्त्री और कानूनविद थे, लेकिन सामान्य अर्थों में साहित्यकार नहीं थे. कहने भर के लिए माना जा सकता है कि आम्बेडकर की आत्मकथा ‘मी कसा झालो’ (मैं कैसे बना) से प्रेरणा लेकर दलित साहित्यकारों ने आत्मकथा की विधा विकसित की. आंबेडकर में ही दलित साहित्य के स्रोत दिखाने के लिए उदाहरण दिया जाता है. लेकिन साहित्य के क्षेत्र में आंबेडकर का असली महत्व कुछ और था.एक पथ-प्रदर्शक और मनोवैज्ञानिक मुक्ति के द्वार पर दलितों को खड़ा कर देने का महत्व. किसी भी विचारक पर चिंतन करते हुए यह आवश्यक हो जाता है कि हम यह सोचें कि वृहत्तर समाज के विकास में उस विचारक का योगदान सकारात्मक है या नकारात्मक. नि:संदेह यहां हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि डॉ. आंबेडकर अपनी सामाजिक चिंतक की भूमिका किन मुद्दों को ध्यान में रखते हुए निर्वाह कर रहे थे? उनके लिए महत्त्वपूर्ण क्या था? वह किस दृष्टिकोण से समाज को देख रहे थे? चिंतन की दार्शनिक भूमिका तक चलकर वह क्यों आए थे? इन सारे प्रश्नों का एक ही उत्तर है जाति के दंशसे उपजी सामाजिक असमानता को निराधार करना. जाति भेद की जड़ें खोदना, जाति प्रथा की चूलें हिला देना. सामाजिक असमानता के जितने भी कारण उन्हें दिखाई दे रहे थे, उन्हें समूल नष्ट करने हेतु वह साक्ष्य जुटा रहे थे. दूसरी तरफ डॉ. आंबेडकर से असहमति व्यक्त करने वाले लोग चूंकि स्थापित व्यवस्था के पोषक थे अत: डॉ. आंबेडकर से स्वभावत: अपनी असहमति प्रदर्शित कर रहे थे. यह भी सच है कि चाहे कितने ही संतुलित और निष्पक्ष होने के प्रयास किए जाएं पर अनायास ही हमारे संस्कार हमें अपने पक्ष में खड़ा कर लेते हैं. इसका यह आशय नहीं कि ये प्रयास विफल हो गए, आशय यह है कि इतनी यात्रा तो हो गई और आगे भी संभावनाएं बनी रहेंगी. ‘गौरव का लोकगीत:समकालीन दलित विश्वास के तीन घटक’ में दलित आन्दोलन पर विस्तृत काम करने वाले इलिअनर जिलिअट ने अपने आलेख में बाबा साहेब द्वारा मराठी में लिखी गई तीन पंक्तियों के अंग्रेजी अनुवाद में लिखा है कि :

हिन्दुओं को चाहिए थे वेद, इसलिए उन्होंने व्यास को 

बुलाया जो सवर्ण नहीं थे|

हिन्दुओं को चाहिए था एक महाकाव्य, इसलिए उन्होंने 

वाल्मीकि को बुलाया जो खुद अछूत थे|

हिन्दुओं को चाहिए था एक संविधान, और उन्होंने 

मुझे बुला भेजा||

 

आंबेडकर की ऊर्जा का बड़ा हिस्सा धर्माधारित हिंसा को उद्घाटित और विश्लेषित करने में खर्च हुआ. दलित साहित्य में धर्मशास्त्रीय हिंसा पर प्रभूत सामग्री संचित है. सिर्फ शंबूक प्रसंग पर भारतीय भाषाओं में दलित रचनाकारों द्वारा लिखी कविताओं, कहानियों को इकट््ठा किया जाए, तो एक वृहद् ग्रंथ बन जाएगा! उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के समाजसुधारकों और फुले-आंबेडकर जैसे सामाजिक क्रांतिकारियों के सतत प्रयासों ने उम्मीद बंधाई थी कि आजाद भारत में हिंसा के दुश्चक्र पर विराम लगेगा. कहने की जरूरत नहीं कि यह उम्मीद धूल-धूसरित हुई.

डॉ आंबेडकर कबीर, रैदास, दादू, नानक, चोखामेला, सहजोबाई आदि से प्रेरित हुए. कबीर को डॉ. आंबेडकर अपना दूसरा गुरु बताया. आधुनिक युग में ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, रामास्वामी नायकर पेरियार, नारायण गुरु, शाहूजी महाराज, गोविन्द रानाडे आदि ने सामाजिक न्याय को मजबूती के साथ स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.  डॉ. आंबेडकर ने ज्योतिबा फुले को अपना तीसरा गुरु बताया और अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तकहू वर दी शुद्राजउनको समर्पित की. अपने समर्पण में 10 अक्तूबर १९४६ को आंबेडकर ने लिखा जिन्होंने हिन्दू समाज की छोटी जातियों से उच्च वर्णों के प्रति उनकी गुलामी की भावना के सम्बन्ध में जागृत किया और उन्होंने विदेशी शासन से मुक्ति पाने में भी सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना अधिक महत्वपूर्ण है, इस सिद्धांत की स्थापना की, उस आधुनिक भारत के महान राष्ट्रपिताज्योतिराव फुले की स्मृति को सादर समर्पित. डॉ आंबेडकर यह मानते थे कि फुले के जीवन दर्शन से प्रेरणा लेकर ही वंचित समाज की मुक्ति दे सकती है.

 

 

हिंदी साहित्य, साहित्येतिहास में आंबेडकर कहाँ ? 

डॉ.अम्बेडकर कहते हैं कि मनुष्यमात्र को एक तर्कशील जमात बनाना होगा. मनुष्य को मनुष्य बनना होगा जिसमें प्रेम, सहिष्णुता, करुणा और मेहनत करने का माद्दा हो. जिसमें आत्मसम्मान हो और दूसरों को सम्मान देने की आदत हो, जो छद्म से दूर एक खुली किताब हो . अठारवीं सदी से पहले भारत की शिक्षा व्यवस्था पर यदि नजर डालें तो स्थिति बिलकुल शून्य है. अनपढ़ों की एक बड़ी जमात दिखाई देती ही. देश के चार या पांच प्रतिशत पुरुषों को ही पढ़ने का अधिकार रहा है. वे भी शिक्षा गुरुकुल या घर पर अध्यापक रखकर की जाने वाली शिक्षा रही है. शिक्षा के नाम पर तो यदि कोई स्त्री या दलित शास्त्रवचनों को सुन ले तो उसके कान में शीशा घोलकर डाल देने की बात यहाँ के विधि ग्रंथों में रही है. यानि केवल उस समुदाय के पास शिक्षा है जो या तो लूटकर्म में संलिप्त है या उसमें सहायक हो रहा है. डॉ. वीरभारत तलवार लिखते हैं कि कुल मिलाकर उन्नीसवीं सदी का नवजागरण हर दृष्टि से बड़े शहरों के आधुनिक शिक्षाप्राप्त भद्रवर्ग का सांस्कृतिक आन्दोलन था जिसका सम्बन्ध व्यापक अशिक्षित जनता से और गैर द्विज जातियों से बहुत कम था. एक युद्ध जिसे १९३० के आसपास बिहार के कुछ जिलों में दलित, खेतिहर और शिल्पकार जातियों के लोग लड़ते हैं और उसका कोई प्रत्यक्ष प्रभाव हिंदी के पंडितों को दिखाई नहीं देता है तो इसका कारण क्या है? मधुकर सिंह के उपन्यास कथा कहो कुन्तो माईका प्रसंग इन्हीं सन्दर्भों में आता है. जाति-व्यवस्था को तोड़ने के लिए गौतम बुद्ध से लेकर ज्योतिबा फुले, कबीर, भीमराव आंबेडकर आदि ने आजीवन संघर्ष किया और वैज्ञानिक और ऐतिहासिक दृष्टि को अपनाने की सीख दी. हिंदी दलित लिटरेचर एंड द पॉलिटिक्स ऑफ रिप्रेजेंटेशन. के पहले दो अध्यायों में उत्तरप्रदेश में बीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में प्रकाशित दलित पर्चों की विवेचना की गई है. सार्वजनिक जीवन से अलग-थलग रहने को मजबूर दलितों में से कुछ ने अपने छापेखाना स्थापित किए. ऐसे ही एक उत्साही थे चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु. लखनऊ में सन 1899 में एक निम्न जाति (ओबीसी) परिवार में जन्मे जिज्ञासु ने 1930 के दशक में कल्याण प्रकाशनकी स्थापना की. शुरूआत में वे अपने लेखन द्वारा राष्ट्रवादी विचारों का प्रचार करते थे परंतु जल्दी ही उनका मुख्यधारा के राष्ट्रवादी आंदोलन से मोहभंग हो गया क्योंकि वह समाजसुधार के मुद्दे को पूरी तरह नजरअंदाज कर रहा था. बाद में वे आदि हिंदू आंदोलन के अछूतानंद और आंबेडकर के संपर्क में आए और उन्होंने अपनी प्रेस का नाम हिंदू समाज सुधार कार्यालय’. से बदलकर बहुजन कल्याण प्रकाशन’. रख दिया. जिज्ञासु की सोच में जिस तरह का परिवर्तन आया, कुछ वैसा ही परिवर्तन 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों के कई दलित-ओबीसी लेखकों के विचारों में भी हुआ. उन्होंने हिंदू धर्म को पूरी तरह नकारना शुरू कर दिया. बहुजन लेखकों ने पर्चों का इस्तेमाल सामाजिक कार्य के औजारबतौर करना शुरू कर दिया. सन 1920 के आसपास उनने दलितों के लिए अपने एक अलग सामाजिक क्षेत्र का निर्माण किया. उनके निशाने पर था हिंदू धर्म और उनका लेखन जाति, अछूत प्रथा, दलित इतिहास और भेदभाव से जुड़े मुद्दों पर केंद्रित था. हिंदी के किसी भी इतिहासकार ने हिंदी साहित्य पर आंबेडकर के प्रभाव को स्वीकार नहीं किया है जबकि वे गांधी के साथ एक केन्द्रीय व्यक्तित्व थे. 

 

 

क्या कहते हैं हिंदी के गैर ब्राह्मण लेखक, आलोचक :

पिछले दो दशकों में सबाल्टर्न साहित्य के अध्ययन की तरफ लोगों का रुझान बढ़ा है. इसी का परिणाम है कि वर्तमान समाज में अस्मितावादी साहित्य ने व्यापक रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है. दलित समाज शोषण और उपेक्षा का शिकार रहा है जिसके अनेक कारणों में मुख्य कारण हैं उसका अशिक्षित होना. लेकिन इसके साथ ही दलित विमर्श की लिखित एवं वाचिक परंपराओं का भी तीव्र विकास हुआ है. भारत में मार्क्सवाद और जनवादी साहित्य पर वर्णवादी लोगों का कब्ज़ा यह दर्शाता है उसका भारतीय करण कर दिया गया है. हिन्दी रचनाजगत में दलित लेखकों की सक्रियता तीन क्षेत्रों में सामने आई. उन्होंने बड़े पैमाने पर रचनात्मक साहित्य लिखा. दलित लेखकों की कविताएँ और कथाकृतियाँ प्रकाशित हुईं. निचली गहराइयों से उछल-उछल कर आने वाली ये तस्वीरें इतनी खौफनाक हैं कि सारे समाज को दहलाकर रख देती हैं. डॉ. राजेन्द्र यादव अपने जातीय पहचान के बारे में लिखते हैं कि हुआ यूं कि मेरे अस्सी वर्ष पूरे होने पर अशोक वाजपेयी ने रजा फाउंडेशन की ओर से मेरा सम्मान किया. वहां उदय प्रकाश ने पिछड़ी जातियों के उत्थान की बात करते हुए कुछ ऐसी बातें कहीं जो मुझे सुरुचि पूर्ण नहीं लगीं. सन् 1952-54 तक मेरे तीन कहानी-संग्रह और एक उपन्यास आ चुके थे और मुझे शायद ही कभी याद आया हो कि मेरे नाम के पीछे लगा यादव समाजिक पिछड़ेपन का संकेत है हो सकता है पारिवारिक पस्थितियों के कारण या व्यक्तिगत उद्यम के चलते.  वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मïण शक्ति और सत्ता का प्रतीक है-(क्योंकि ज्ञान ही सत्ता है) वह अपने ज्ञान से सत्ताधारियों को नचाता रहा है, उधर बाकी सब सत्ता के याचक हैं. अगर औरों से छीनकर पूंजी पर एकाधिकार बनाये रखने और श्रम के सहारे जीविका अर्जित करने वालों के दो वर्ग हो सकते हैं तो ज्ञान के वर्चस्व और ऐंद्रिक अनुभवों के माध्यम से सृष्टि का साक्षात्कार करने वालों के दो वर्ग क्यों नहीं हो सकते? दोनों ही विभाजनों में एक वर्ग परोपजीवी है, इसलिए कला, आध्यात्म, जीव-ब्रह्मï के अमूर्तनों में आनंदानुभूति करता रह सकता है-वह काव्य, शास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम का कीर्तन नहीं करेगा तो क्या वह करेगा जो खून-पसीने से रोटी कमाता है या जमीन के नीचे और सागर के तूफानों में बीवी-बच्चों के लिए भोजन तलाशता है? उसे ही तो बलपूर्वक ज्ञान से दूर रखा गया है. अगर पूंजीपति को धन-पिशाच कहा जाता है तो इस ब्राह्मïण को ज्ञान-पिशाच क्यों नहीं कहा जाना चाहिए?  समाज की यह भी सचाई है कि जातियों के बजाय बात विचारधारा की होनी चाहिए-सामाजिक न्याय की विचारधारा. विभाजन सामाजिक न्याय की विचारधारा के समर्थन और विरोध के आधार पर होना चाहिए. क्योंकि कोई भी जाति एक समरूप समुदाय नहीं है. उसके अंदर विभिन्न वर्ग, गुट और विचारधारायें होती हैं और इन्हीं के मुताबिक उसके अंदर से कई तरह की राजनीति और नेतृत्व उभरता है. इससे एक जाति के अंदर और विभिन्न जातियों के बीच भी टकराहट पैदा होती है. इसलिए विभाजन और संगठन सामाजिक न्याय की विचारधारा के आधार पर होना चाहिए, न कि जातियों के आधार पर. समस्या यह है कि हम जातिवाद से ग्रस्त समाज से कैसे लड़ें ? जातिवाद से ग्रस्त समाज,ऐसे समाज से भी बुरा है जिसमें गुलामी का प्रचलन हो, यह रंगभेद से भी बदतर है. यह एक ऐसा समाज है, जो यह हिंदी साहित्य में एक ही धारा है ब्राह्मणवाद : जिसे आप मुख्यधारा कहते हैं, वह दरअसल साहित्य की ब्राह्मणवादी धारा है. इस धारा के सभी रचनाकार ब्राह्मण थे, जिन्होंने वर्णव्यवस्था और हिन्दू संस्कृति के पुनरुत्थान को साहित्य की मुख्यधारा के रूप में स्थापित किया था. इस धारा ने वर्णव्यवस्था का खण्डन करने वाली किसी भी प्रगतिशील धारा को स्वीकार नहीं किया. समतावादी और मौलिक समाजवाद की धारा भारतेन्दु से पहले भी और उनके बाद भी , लगभग हर दौर में मौजूद थी. 

 

 

भारतीय साहित्य-संस्कृति, सांस्कृतिक अवरोध :

भारतीय संस्कृति ने अपनी लम्बी विकास यात्रा तय की है, जिसमें वैचारिकता, जीवन-संघर्ष, विद्रोह, आक्रोशनकारप्रेमसांस्कृतिक छदमराजनीतिक प्रपंच, वर्ण- विद्वेषजाति के सवाल, साहित्यिक छल आदि विषय बारबार दस्तक देते हैं. वस्तुतः आजतक जिसे भारतीय संस्कृति कहा जाता रहा है वह एक ख़ास समुदाय और जाति विशेष की संस्कृति है. यानी कि लोक और शिष्ट का भेद पहले से ही होता आया है. शोषकों की एक लयबद्ध संस्कृति को अभी तक भारतीय संस्कृति कहकर प्रचार-प्रसार किया जाता रहा है. यदि संस्कृति का ठीक से अध्ययन किया जाए तो पता चलेगा कि उसमें से भारत की सत्तर प्रतिशत जनता का हिस्सा गायब है. वे लगातार हासिये पर धकेले गए हैं. उनकी संस्कृति को संस्कृति माना ही नहीं गया. उच्च वर्णस्थ जातिवादी मानसिकता ने ग्राम्य या देशज कहकर नकार दिया गया. मूलतः यह संस्कृति नहीं अपितु विकृति है. शोषण, दमन, छुआछूत, जातिवाद, क्षेत्रवाद पर आधारित इस संस्कृति को मूलतः ब्राह्मण संस्कृति तो कहा जा सकता है भारतीय संस्कृति नहीं. किसी देश की संस्कृति तो वहां के निवासियों का आइना होती है. समाज, साहित्य, कला, जीवन में जिसे भारतीय संस्कृति कहा जाता रहा है उनका अब पुनर्पाठ होना चाहिए. जिस विषमतामूलक समाज में एक दलित संघर्षरत हैं, वहां मनुष्य की मनुष्यता की बात करना अकल्पनीय लगता है. इसी लिए सामाजिकता में समताभाव को मानवीय पक्ष में परिवर्तित करना दलित की आंतरिक अनुभूति है, जिसे अभिव्यक्त करने में गहन वेदना से गुजरना पडता है. भारतीय जीवन का सांस्कृतिक पक्ष दलित को उसके भीतर हीनता बोध पैदा करते रहने में ही अपना श्रेष्ठत्व पाता है. लेकिन एक दलित के लिए यह श्रेष्ठत्व दासता और गुलामी का प्रतीक है. जिसके लिए हर पल दलित को अपने स्वकी ही नहीं समूचे दलित समाज की पीड़ादायक स्थितियों से गुजरना पड़ता है. दलित चेतना दलित कविता को एक अलग और विशिष्ट आयाम देती है. यह चेतना उसे डा. अम्बेडकर जीवनदर्शन और जीवन संघर्ष  से मिली है. 

यह एक मानसिक प्रक्रिया है जो इर्द-गिर्द फैले सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, आर्थिक छदमों से सावधान करती है. यह चेतना संघर्षरत दलित जीवन के उस अंधेरे से बाहर आने की चेतना है जो हजारों साल से दलित को मनुष्य होने से दूर करते रहने में ही अपनी श्रेष्ठता मानता रहा है. इसी लिए एक दलित चेतना और एक तथाकथित उच्चवर्णीय चेतना में गहरा अंतर दिखाई देता है. भारत की सामासिक संस्कृति की बुनावट को रेखांकित करते हुए उच्च वर्णस्थ और नेहरु के पिछलग्गू रामधारी सिंह दिनकर अपनी पुस्तक संस्कृति के चार अध्यायमें भारतीय संस्कृति को रेखांकित करते हुए लिखते है कि भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रांतियाँ हुई हैं और हमारी संस्कृति का इतिहास उन्हीं चार क्रांतियों का इतिहास है. पहली क्रांति तो तब हुई जब आर्य भारतवर्ष में आये अथवा जब भारतवर्ष में उनका आर्येत्तर जातियों से संपर्क हुआ. दूसरी क्रांति तब हुई जब महावीर और गौतमबुद्ध ने इस स्थापित धर्म या संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह किया तथा उपनिषदों की चिन्ताधारा को खींचकर वे अपनी मनोवांछित दिशा की ओर ले गए. इस क्रांति ने भारतीय संस्कृति की अपूर्व सेवा की, किन्तु अंत में, इसी क्रांति के सरोवर में शैवाल भी उत्पन्न हुए और भारतीय धर्म और संस्कृति में जो गंदलापन आया, वह काफी दूर तक इन्हीं शैवालों का परिणाम था. तीसरी क्रांति उस समय हुई जब इस्लाम विजेताओं के धर्म के रूप में भारत पहुंचा और इस देश में हिंदुत्व के साथ उसका संपर्क हुआ. चौथी क्रांति हमारे समय में हुई जब भारत में यूरोप का आगमन हुआ.  इसे वे चार सोपान कहते हैं. अब मान्य दिनकर जी से पूछा जाना चाहिए कि क्या भारत सिर्फ युद्धों या बर्बरों की संस्कृति को मानता है?

 दिनकर जिस संस्कृति कह रहे हैं वह किन लोगों की संस्कृति है? क्या यह आदिवासियों, मूलनिवासियों, दलितों, पिछड़ों की संस्कृति है? क्या इसमें कुछ हिस्सा दक्षिण, उत्तर-पूर्व के लोगों का भी है? कुछ लोग भारतीय संस्कृति को विरुद्धों का सामंजस्य के तौर पर देखते हैं और उनमें तुलसी परंपरा के रामचंद्र शुक्ल सबसे आगे हैं. प्रभुत्वशाली संस्कृति अपनी सुरक्षा के लिए पुनरुत्थानका रास्ता अख्तियार करती है. प्रभुत्वशाली संस्कृति के दो काम होते हैं- एक स्वयं कि रक्षा और दूसरा प्रतिवाद’  प्रसिद्ध मानवशास्त्री राबर्ट रेडफील्ड संस्कृति के सम्बन्ध में जिसे ग्रेट ट्रेडिशनतथा लिटिल ट्रेडिशनकहते हैं नामवर सिंह अपनी पुस्तक दूसरी परंपरा कि खोजमें उन्हीं प्रवृत्तियों के प्रतिनिधित्व के लिए शास्त्र और लोक शब्द का प्रयोग कहते हैं.  लोक के मन में शास्त्र के लिए हमेशा हीन ग्रंथि इन्फ़िरियर कोम्प्लेक्सहोता है. माग्रेट मीड की कृति सेक्स एण्ड टेम्परामेंट इन थ्री प्रिमिटीव सोसाईटीज यह स्पष्ट करती है कि जैविक भिन्नता नहीं बल्कि समाज और संस्कृति, पुरुषों और स्त्रियों के लिए भिन्न-भिन्न मानदंड तय करती है. उस मानक के हिसाब से समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा उनका अनुकूलन करती है. यह जैविक भिन्नता नहीं समाज और संस्कृति तय करती है कि किसके जन्म लेने पर काँसे की थाली बजेगी और किसके जन्म लेने पर उदासी की भाँय-भाँय गूँजेगी. कहते हैं किसी को गुलाम बनाना हो तो उसे सांस्कृतिक रूप से गुलाम बना दीजियेउसके अतीत को इतना बिगाड़ दीजिये की वो कभी अपनी जड़े न खोज पाये. देर ही सही  इन पर से पर्दा उठने का कार्य प्रारम्भ हो गया जिसे संघ परिवार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहता है वह वस्तुतः पश्चिमी उपनिवेशवादियों द्वारा दिया ओरियंटलिज्म है. अपनी सामाजिक बनावट में वह शुद्ध सामंती है क्योंकि गैर बराबरी और शोषण दमन को धार्मिक आधार देता है. स्त्रियाँ दलित और पिछड़े ऊपर उठने की कोशिश न करें. इसके लिए धार्मिक आदेश और जन्मान्तर के कठोर नियम हैं. कुछ जातियां न ऊपर उठें न अपनी स्थिति बदलें क्योंकि यह व्यवस्था ईश्वरीय है. अपनी स्थिति के लिए वे नहीं उनके पूर्वजों, पूर्वजन्मों के कर्म जिम्मेदार हैं. यथास्थिति बनाये रखने के लिए प्रारब्ध एक ऐसी व्यवस्था है जिसके खिलाफ कोई विद्रोह नहीं किया जा सकता. कभी कर्म से बनीं होंगी हिन्दू धर्म कि जातियां मगर वे हजारो सालों से आज जन्म से ही निर्धारित होती हैं.

 

इतिहास की तीन महान सामाजिक क्रांतियाँ :

हिंदी के सुविचारित आलोचक चौथीराम यादव ने कहा था भारत में प्रमुख रूप से तीन सामाजिक क्रांतियाँ हुई है. एक भगवान बुद्ध की क्रांति, दूसरी भक्ति आन्दोलन या कबीर रैदास की क्रांति और तीसरी बाबा साहेब आंबेडकर की सामाजिक क्रांति. ये सब परिवर्तन कामी क्रांतियाँ थीं. कबीर और रैदास का सम्बन्ध बनारस से था. यह वही बनारस है जो सामंतों, पंडों, पुजारियों और वर्णपूजकों का गढ़ है. यहाँ न कबीर की सुनी गई न रैदास की. रैदास पंजाब में ज्यादा सुने गए. कबीर भी इधर उधर ज्यादा सुने गए उन्हें बनारस ने कम पूछा गया. बनारस या पूर्वांचल में कौन सुना गया यह जानना बहुत जरुरी है. ब्राह्मणों और तथाकथित आलोचकों के बीच तुलसीदास अधिक सुने गए. तुलसी दास के लिए आलोचकों में हुंवा, हुंवा का स्वर प्रबल है जबकि रैदास और कबीर के लिए ‘भों, भों, का स्वर सुनाई देता है. यह अकारण नहीं है. यह बताता है कि हुंवा-हुंवा का स्वर करने वाले लोग यथास्थितिवाद के समर्थक थे. वे स्टेटस बरकरार रखना चाहते थे. वे चाहते थे वर्णक्रम और जातिक्रम बना रहे. साम्रदायिकता बनी रहे. भों-भों का स्वर में वर्ण, जाति के विरुद्ध लिखने वाले लोग थे. मध्यकाल पर ध्यान दें तो एक बड़ी बात निकलती है मित्रों. गुरुग्रंथ साहिब में संत रैदास के पद मिलते हैं, कबीर के पद मिलते हैं, अन्य भाषाओँ समुदायों के स्वर मिलते हैं पर वर्णवादीयों के प्यारे, सबसे अधिक पूज्य तुलसीदास के पद हमें नहीं मिलते. वर्णवादी आलोचकों जैसे रामचंद्र शुक्ल, नामवर, रामविलास शर्मा जैसों का मानना है संत पढ़े लिखे नहीं थे इसलिए उनके पास समाज का कोई माडल नहीं था. वे तुलसी के रामराज्य में विश्वास करते हैं जिसमें दलितों, पिछड़ों, महिलाओं, आदिवासियों के लिए के लिए कोई जगह नहीं है. यदि कोई तुलसीदास के साथ खड़ा है तो वह दलितों, मुसलमानों, महिलाओं, आदिवासियों क ए साथ न्याय कैसे कर सकता है? 

 

 

भाषा व्यवहार में भेदभाव :  

 

प्रसिद्ध विचारक राजेन्द्र प्रसाद लिखते हैं कि सिंह  गुरु घंटाल बौद्ध संत थे. इनकी याद में गुरु पद्म संभव ने 8 वीं सदी में गुरु घंटाल मंदिर की स्थापना की थी. यह मंदिर हिमाचल- प्रदेश के लाहौल-स्पीति जिले में है. ब्राह्मण और बौद्ध संस्कृति के आपसी टकराव के कारण ” गुरु घंटाल ” का अर्थापकर्ष हुआ है. आर्य और द्रविड़ संस्कृति के आपसी टकराव के कारण भी कई शब्दों का अर्थापकर्ष हुआ है जिसमें एक शब्द ” पिल्ला ” भी है. तमिल में ” पिल्ला ” मनुष्य के बच्चे को कहा जाता है ,जबकि आर्य भाषाओं में यह कुत्ते के बच्चे का बोधक शब्द है. जैन और ब्राह्मण संस्कृति के आपसी टकराव के कारण ” जिन” का अर्थ ” भूत- प्रेत” हो गया है.ऐसे तो भाषाविज्ञान कोश में कई ऐसी भाषाओं के नाम दर्ज हैं जो भूत- प्रेत से संबंधित हैं, मिसाल के तौर पर “भूत भाषा”, “प्रेत भाषा” , “पिशाच भाषा”, “चंडाल भाषा” आदि. ऐसी भाषाओं के नाम आस्ट्रिक और आर्य संस्कृति के आपसी टकराव के कारण है.बाहर से आई जातियों का भी अर्थापकर्ष हुआ है, मिसाल के तौर पर “हुड़हा” (लूटेरा), “उजबुक” (मूर्ख), ” कजाक” (डाकू) आदि.ये क्रमशः हूण (मंगोलियन), उजबेक (उजबेकिस्तान), कजाक (कजाकिस्तान) के बोधक शब्द हैं. आदिवासियों का एक तबका असुर है, जो झारखंड में निवास करता है और जिसका प्रमुख पेशा लोहा गलाने का है. असुर का अर्थ/प्रयोग तो हिन्दी शब्दकोष में जगजाहिर है, पर हिन्दी की आदिवासी विरोधी मानसिकता ने अन्य कई आदिवासी तबकों के नामों को घृणास्पद अर्थों से बढकर स्खलित किया है. जैसे असुरआदिवासियों का तबका है, वैसे चुहाड़, चाईं, चुतिया भी आदिवासियों के तबके हैं. इनका प्रयोग भी हिन्दी में किसी को अपमानित करने के लिए ही किया जाता है. लाख की चूड़ियां बनाने वाले कारीगर के लिए “लखेड़ाशब्द प्रचलित है, पर भोजपुरी में लखेड़ा का अर्थ आवाराहोता है. ऐसे ही न जाने कितने जातिसूचक शब्दों को शुद्धतावाची आचार्यों ने दूसरे अर्थों से भरकर गंदा और घृणास्पद बनाने का काम किया है. 

 

अस्सी के दशक के बाद हिंदी में नया जातिवाद :

हिंदी में पिछले दो दशकों के दौरान दलित साहित्य की अवधारणा को जगह मिली है, लेकिन इसके प्रारंभिक दो विरोधाभास हैं. पहला यह स्वीकृत ‘हासिये का साहित्य’ है यानी मुख्यधारा कोई और है. इसी कोई और साहित्य को प्रगतिशील ‘जनवादी’ साहित्य कहते हैं. राजेन्द्र यादव समेत बहुत सारे लेखकों का मत है कि जो दलित साहित्य नहीं है वह द्विज साहित्य है. दलित साहित्य प्रमुखतः अम्बेडकरवादी साहित्य है. यह अभिजन साहित्य के रूपवादी अभिजन, कला वादी सिद्धांतों को नकारता है. कुछ हद तक यह मार्क्स, एंगेल्स और फ्रायड से जुड़ता है. यह साहित्य जातिवाद, वर्णवाद को एक सिरे से ख़ारिज करता है. यह सामाजिक मुक्ति पर विश्वास करता है. यह प्रतिरोध का साहित्य है. यह साहित्य में आरक्षण के सवाल को उठाता है और इस बात की मुखालफत करता है कि साहित्य पर केवल सवर्णों का कब्ज़ा रहे. 

पुरस्कारों का जातिवादी इतिहास :

 

आधुनिक युग का समाज स्थूल से सूक्ष्म हुआ है , विज्ञान सूक्ष्म हुआ है , संस्कृति सूक्ष्म हुई है और जातिवाद भी पहले से अधिक सूक्ष्म हुआ है. स्थूल जातिवाद से सूक्ष्म जातिवाद कई गुना अधिक खतरनाक है. खबरों में , पुरस्कारों में , नामांकनों में , फाइलों में , सर्विस बुकों में , प्रोन्नतियों में , अधिसूचनाओं में , न्याय और प्रशासन – तंत्र में बड़ी सूक्ष्मता के साथ सूक्ष्म जातिवाद लिपटा हुआ है.इसे देखने के लिए स्थूल नहीं , सूक्ष्म आँख की जरूरत है.राज करने कई भेष बदलकर आएगा बहुरूपिया ! कभी साधु बनकर , कभी बालक बनकर , कभी सुधारक बनकर. हर बार ठगे जाइएगा .हर भेष नया होगा.भारत की जाति – प्रथा वह खजाना है , जिसे बाहरी आक्रमणकारियों ने लूटा नहीं , बल्कि और भर दिया कि खाओ जितना कम है एवं जियो जितना दम है.जाति तुम तो अजीब सम्पत्ति हो , भाई ! ऐसी सम्पत्ति जिसे राजा हरण नहीं कर सकता है , चोर चुरा नहीं सकता है और भाई बाँट नहीं सकता है. भारतीय ज्ञानपीठ  जो भारत सरकार का उपक्रम है और भारत में नोबल के बराबर है में भी भारतीय इतिहास की तरह जातिवाद चरम पर है. वहां भी सवर्णवाद हावी है. यहाँ केवल हिंदी विषय की सूची संलग्न है : सन १९६८ में सुमित्रानंदन पन्त, जाति ब्राह्मण, १९७२ में रामधारी सिंह दिनकर, जाति भूमिहार ब्राह्मण, १९७८ में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, जाति ब्राह्मण, १९८२ महादेवी वर्मा, जाति कायस्थ, १९९२ में नरेश मेहता, जाति ब्राह्मण, १९९९९ में निर्मल वर्मा जाति खत्री, २००५ में कुंवर नारायण, जाति बनिया, २००९ में अमरकांत कायस्थ, २००९ में श्रीलाल शुक्ल, जाति ब्राह्मण. साहित्य के वर्चस्व की तरह यहाँ भी घोर जातिवादी नामों को देखकर लगता है कि हिंदी जगत कितना घोर असमानतावादी और जातिपोषक है. 

 

 

डॉ. कर्मानंद आर्य 

सहायक प्राध्यापक 

भारतीय भाषा केंद्र 

दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया 

बिहार-८२३००१ 

 मो. ०८०९२३३०९२९