“भाषा उद्योग और हिन्दी” विषय पर इस व्याख्यान में महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए हैं उस पर व्यापक चर्चा से किसी फलदायी नतीजे पर पहुंचा जा सकता है।मेरा मुख्य सवाल यह है कि हिन्दी से बी.ए. और एम.ए. करनेवाले विद्यार्थियों को हम किस क्षेत्र में रोजगार पाने के लिए प्रशिक्षित कर रहे हैं?यदि हम आज भी हिन्दी शिक्षक और राजभाषा के अनुवादक बनाने के लिए हिन्दी की युवा पीढ़ी तैयार कर रहे हैं तो पुनर्विचार की आवश्यकता है।मेरा बुनियादी प्रश्न है कि हिन्दी भाषा के शिक्षण की आधार सामग्री (पाठ्यक्रम) केवल साहित्य से ही क्यों चुनी जानी चाहिए?क्या हम हिन्दी से बी.ए., एम.ए. करनेवालों को हिन्दी का साहित्यकार बनाना चाहते हैं? आज हिन्दी साहित्य की आकाशगंगा के चमकते सितारों में कितने हैं जिन्होंने हिन्दी से बी.ए., एम.ए. किया है?क्या बदलती दुनिया और उभरते नये सेवा क्षेत्रों की जरूरतों के अनुरूप हिन्दी के स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों का पुनर्गठन नहीं करना चाहिए?क्यों न हिन्दी बी.ए. और एम.ए. को कम से कम दो भागों में विभाजित किया जाय? एक बी.ए. और एम.ए. हिन्दी (साहित्य) में किया जा सकता है और दूसरे को हिन्दी (वोकेशनल) नाम दिया जा सकता है। ध्यान रहे, यदि हिन्दी में बी.ए. और एम.ए. का प्रमाणपत्र होने की अनिवार्यता न हो तो हमारे विद्यार्थी हिन्दी शिक्षक और राजभाषा संबंधी पदों की प्रतिस्पर्धा में भी पिछड़ सकते हैं।पाठ्यक्रम में बदलाव के साथ शिक्षकों के तदनुरूप प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था भी की जानी चाहिए।आशा है सुधी जन इस मुद्दे पर अपने विचार साझा करेंगे।

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प्रो. संजीव कुमार दुबे, गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय के भाषा साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान में बतौर अधिष्ठाता एवं कार्यकारी परीक्षा नियंत्रक के रूप में कार्यरत हैं।