आत्मजयी कुँवर नारायण
पूर्वाभास
ओ मस्तक विराट,
अभी नहीं मुकुट और अलंकार।
अभी नहीं तिलक और राज्यभार।
तेजस्वी चिन्तित ललाट। दो मुझको
सदियों तपस्याओं में जी सकने की क्षमता।
पाऊँ कदाचित् वह इष्ट कभी
कोई अमरत्व जिसे
सम्मानित करते मानवता सम्मानित हो।
सागर-प्रक्षालित पग,
स्फुर घन उत्तरीय,
वन प्रान्तर जटाजूट,
माथे सूरज उदीय,
…इतना पर्याप्त अभी।
स्मरण में
अमिट स्पर्श निष्कलंक मर्यादाओं के।
बात एक बनने का साहस-सा करती ।
तुम्हारे शब्दों में यदि न कह सकूँ अपनी बात,
विधि-विहीन प्रार्थना
यदि तुम तक न पहुँचे तो
क्षमा कर देना,
मेरे उपकार-मेरे नैवेद्य-
समृद्धियों को छूते हुए
अर्पित होते रहे जिस ईश्वर को
वह यदि अस्पष्ट भी हो
तो ये प्रार्थनाएँ सच्ची हैं…इन्हें
अपनी पवित्रताओं से ठुकराना मत,
चुपचाप विसर्जित हो जाने देना
समय पर….सूर्य पर…
भूख के अनुपयुक्त इस किंचित् प्रसाद को
फिर जूठा मत करना अपनी श्रद्धाओं से,
इनके विधर्म को बचाना अपने शाप से,
इनकी भिक्षुक विनय को छोटा मत करना
अपनी भिक्षा की नाप से
उपेक्षित छोड़ देना
हवाओं पर, सागर पर….
कीर्ति-स्तम्भ वह अस्पष्ट आभा,
सूर्य से सूर्य तक,
प्राण से प्राण तक।
नक्षत्रों,
असंवेद्य विचरण को शीर्षक दो
भीड़-रहित पूजा को फूल दो
तोरण-मण्डप-विहीन मन्दिर को दीपक दो
जबतक मैं न लौटूँ
उपासित रहे वह सब
जिस ओर मेरे शब्दों के संकेत।
जब-जब समर्थ जिज्ञासा से
काल की विदेह अतिशयता को
कोई ललकारे-
सीमा-सन्दर्भहीन साहस को इंगित दो।
पिछली पूजाओं के ये फूटे मंगल-घट।
किसी धर्म-ग्रन्थ के
पृष्ठ-प्रकरण-शीर्षक-
सब अलग-अलग।
वक्ता चढ़ावे के लालच में
बाँच रहे शास्त्र-वचन,
ऊँघ रहे श्रोतागण !…
ओ मस्तक विराट,
इतना अभिमान रहे-
भ्रष्ट अभिषेकों को न दूँ मस्तक
न दूँ मान..
इससे अच्छा
चुपचाप अर्पित हो जा सकूँ
दिगन्त प्रतीक्षाओं को….
वाजश्रवा
अत्र उसन्ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ।
तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस।
पिता, तुम भविष्य के अधिकारी नहीं,
क्योंकि तुम ‘अपने’ हित के आगे नहीं सोच पा रहे,
न अपने ‘हित’ को ही अपने सुख के आगे।
तुम वर्तमान को संज्ञा देते हो, पर महत्त्व नहीं।
तुम्हारे पास जो है, उसे ही बार-बार पाते हो
और सिद्ध नहीं कर पाते कि उसने
तुम्हें सन्तुष्ट किया।
इसीलिए तुम्हारी देन से तुम्हारी ही तरह
फिर पानेवाला तृप्त नहीं होता,
तुम्हारे पास जो है, उससे और अधिक चाहता है,
विश्वास नहीं करता कि तुम इतना ही दे सकते हो।
पिता, तुम भविष्य के अधिकारी नहीं, क्योंकि
तुम्हारा वर्तमान जिस दिशा में मुड़ता है
वहां कहीं एक भयानक शत्रु है जो तुम्हें मार कर
तुम्हारे संचयों को मार्ग में ही लूट लेता है,
और तुम खाली हाथ लौट आते हो।
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नचिकेता
असहमति को अवसर दो
सहिष्णुता को आचरण दो
कि बुद्धि सिर ऊंचा रख सके….
उसे हताश मत करो काइयां तर्कों से हरा-हराकर।
अविनय को स्थापित मत करो,
उपेक्षा से खिन्न न हो जाए कहीं
मनुष्य की साहसिकता।
अमूल्य थाती है यह सबकी
इसे स्वर्ग के लालच में छीन लेने का
किसी को अधिकार नहीं…
आह, तुम नहीं समझते पिता, नहीं समझना चाह रहे,
कि एक-एक शील पाने के लिए
कितनी महान आत्माओं ने कितना कष्ट सहा है….
तुम्हारी दृष्टि में मैं विद्रोही हूं
सत्य, जिसे हम सब इतनी आसानी से
अपनी-अपनी तरफ़ मान लेते हैं, सदैव
विद्रोही सा रहा है ।
तुम्हारी दृष्टि में मैं विद्रोही हूं
क्योंकि मेरे सवाल तुम्हारी मान्यताओं का उल्लंघन करते हैं
नया जीवन-बोध संतुष्ट नहीं होता
ऐसे जवाबों से जिसका संबंध
आज से नहीं अतीत से है।
तर्क से नहीं रीति से है ।
यह सब धर्म नहीं- धर्म सामग्री का प्रदर्शन है
अन्न, घृत, पशु, पुरोहित, मैं….
शायद इस निष्ठा में हर सवाल बाधा है
जिसमें मनुष्य नहीं अदृश्य का साझा है
तुम सब चतुर और चमत्कारी
बहुमत यही है- ऐसा ही सब करते
(कितनी शक्ति है इस स्थिति में ।)
जिससे भिन्न सोचते ही
मैं विधर्मी हो जाता हूं
किसी बहुत बड़ी संख्या से घटा दिया जाता हूं
इस तरह
कि शेष समर्थ बना रहता ग़लत भी
एक सही भी, अनर्थ हो जाता है।
सामूहिक अनुष्ठानों के समवेत मंत्र-घोष
शंख-स्वरों पर यंत्रवत हिलते नर-मुंड आंखें मूंद…
इनमें व्यक्तिगत अनिष्ठा
एक अनहोनी बात
जिसके अविश्वास से
मंत्र झेंपते हैं, देवता मुकर जाते, वरदान भ्रष्ट होते।
तुम जिनसे मांगते हो
मुझे उनकी मांगों से डर लगता है ।
इस समझौते और लेनदेन में कहीं
व्यक्ति के अधिकार नष्ट होते…
अंधेरे में “जागते रहो” अभ्यस्त आवाजों से
सचेत करते रहते पहरेदार, नैतिक आदेशों के
पालतू मुहावरे सोते-जागते कानों में : साथ ही
एक अलग व्यापार ईमान के चोर-दरवाजों से ।
मनुष्य स्वर्ग के लालच में
अक्सर उस विवेक तक की बलि दे देता
जिस पर निर्भर करता
जीवन का वरदान लगना ।
मैं जिन परिस्थितियों में जिंदा हूं
उन्हें समझना चाहता हूं- वे उतनी ही नहीं
जितनी संसार और स्वर्ग की कल्पना से बनती हैं
क्योंकि व्यक्ति मरता है
और अपनी मृत्यु में वह बिलकुल अकेला है
विवश
असान्त्वनीय।
एक नग्नता है नि:संकोच
खुले आकाश की
शरीर की अपेक्षा ।
शरीर हवा में उड़ते वस्त्र आसपास
मैं किसी आदिम निर्जनता का असभ्य एकांत
जितना ढंका उससे कहीं अधिक अनावृत्त
घातक, अश्लील सच्चाइयां
जिन्हें सब छिपाते
पर जिनसे छिप नहीं पाते ।
इन्द्रासन का लोभ
प्रत्येक जीवन,
मानो किसी असफल षड्यंत्र के के बाद
पूरे संसार की निर्मम हत्या है ।
एक आत्मीय सम्बोधन-तुम्हारा नाम,
स्मृति-खंडों के बीच झलकता चितकबरा प्रकाश
एक हंसी बंद दरवाज़ों को खटकटाती है
सुबह किसी बच्चे की किलकारी से तुम जागे हो, पर
आंखें नहीं खोलते उसके उत्पात ने तुम्हें विभोर
कर दिया है : पर, नया दिन, आलस्य की करवटों से
टटोलते – तुम नहीं देखते कि यह दूसरा दिन है
और वह बालक जिसने तुम्हें जगाया, अब बालक नहीं
प्यार अब पर्याप्त नहीं
न जाने कितनी वृत्तियों में उग आया, वह
तुम्हारा विश्वबोध और अपना।
भिन्न, प्रतिवादी, अपूर्व….
अब उसे स्वीकारते तुम झिझकते हो,
उसे स्थान देते पराजित
उसे उत्तर देते लज्जित