भक्तिकालीन साहित्य

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    “वर्ण–व्यवस्था  लगातार चोट करने वाले इस आन्दोलन ने भक्ति के द्वार सभी जातियों के लिए खोल दिया और ‘जात–पात पूछे ना कोई, हरि को भजै सो हरि का होई’, जैसा नारा देकर सभी को एक धरातल पर प्रतिष्ठित करने की वकालत की । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार ‘प्रेमस्वरूप ईश्वर को सामने लाकर भक्त कवियों ने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को मनुष्य के सामान्य रूप में दिखाया और भेदभाव के दृश्यों को हटाकर पीछे कर दिया ।’ मुक्तिबोध का मत है कि ‘इस निर्गुण भक्ति में तत्कालीन सामंतवाद–विरोधी तत्त्व सर्वाधिक थे ।’––– यह न सिर्फ भक्तिमार्ग का निर्माण करता है, बल्कि ऊँच–नीच, पुरुष–नारी, ब्राह्मण–शूद्र आदि भेदों को समाप्त कर मनुष्य मात्र के समान होने की उद्घोषणा करता है ।”

    -भक्ति आन्दोलन के सामाजिक आधार सं– गोपेश्वर सिंह, पृ– 24

    साहित्य का अस्तित्व समाज से अलग नहीं होता, इसलिए साहित्य का विकास समाज के विकास से कटा हुआ नहीं हो सकता । साहित्य सामाजिक रचना है, साहित्यकार की रचनाशील चेतना उसके सामाजिक अस्तित्व से निर्मित होती है-‘प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिम्ब होता है–––जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक परिस्थिति के अनुसार होती है ।’1 शुक्ल जी के इस कथन को भक्तिकालीन साहित्य और पुख्ता करता है । ‘भक्ति–आन्दोलन भारतीय संस्कृति और साहित्य के इतिहास में जन संस्कृति के उत्थान और उसकी रचनात्मक अभिव्यक्ति का आन्दोलन है ।2 यह एक प्रकार से जनसंस्कृति के नवजागरण का आन्दोलन है, जिसमें जनभाषा में जनजीवन से जुड़े कवियों द्वारा जनभावना की अभिव्यक्ति हुई है जिसमें जितना फैलाव था उतनी गहराई भी और वह उतना ही जनोन्मुखी भी थी-

    “भक्तिकालीन साहित्य की सामाजिक विषयवस्तु का यह ऐतिहासिक महत्त्व है कि वह जीवन की स्वीकृति का साहित्य है, उसमें जनता का हास और उल्लास है, जनता का क्रोध और आवेश है, एक सुखी समाज की आकांक्षा है, उसमें अन्याय का सक्रिय विरोध करने वाले वीरों के चित्र हैं । इस विषय वस्तु ने दु:ख के दिनों में जनता का मनोबल कायम रखा, जीवन में उसकी आस्था बनी रहने दी ।”

    -परम्परा का मूल्यांकन ,रामविलास शर्मा, पृ– 543

    भक्तिकालीन साहित्य का सामाजिक सरोकार जितना व्यापक था उतना गहरा भी । इसने मानव मात्र की समानता की भावना की उद्घोषणा की, जीवन–जगत से खुद को गहराई से जोड़ा । भक्तिकालीन साहित्य शोषण से त्रस्त जनता की इस आकांक्षा को प्रकट करता है कि ऐसे समाज का निर्माण हो जिसमें ऊँच–नीच का भेद न हो, जिसमें सताने वाले राजा न हो, धर्म के ठेकेदार न हो, समाज व्यवस्था का आधार प्रेम हो, जहाँ लोग रोग अकाल से न मरे, जहाँ लिंगगत भेद न हो । उस समय साधारण जनता कर्मकाण्ड जाति व्यवस्था के भँवर–जाल में फँसी थी साथ ही राजसत्ता का शोषण भी जारी था ऐसे सर्वग्रासी चक्की में पीसी जाती हुई जनता को देखकर भक्तिकालीन साहित्यकार का हृदय रो उठा-

    “चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोय ।

    दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय॥”

    भक्तिकाव्य का मूल स्वर जनपक्षधर था ।4 मानुष सत्य ही सम्पूर्ण भक्तिकाल काव्य का केन्द्रिय सत्य है5-

    “शुनह मानुष भाई,

    शबार उपरे मानुष सत्य

    ताहार उपर नाई ।”

    उनके यहाँ जाति–वर्ण के भेदभाव के लिए जगह नहीं है-‘हम बासी उस देस के जहाँ जाति बरन कुल नाहिं’ । भक्ति–आन्दोलन के व्यापक जनाधार, दलितों, शोषितों, पीड़ितों के जीवन में आत्मसम्मानपूर्वक जी सकने की एक नई आशा का संचार करने एवं उनके व्यापक सहयोग व शिरकत के बल पर सम्पूर्ण भारत में फैलकर जनजागरण किया जिसे रामविलास शर्मा ‘लोकजागरण’ के रूप में देखते हैं । विभिन्न वर्गों तथा वर्ण–व्यवस्था से जर्जर, सामाजिक ऊँच–नीच की भावना से आक्रान्त, नाना प्रकार के भेदभाव, कर्मकाण्ड एवं विधि–निषेधों से परिचालित भारतीय जीवन में भक्ति–आन्दोलन का प्रादुर्भाव और मनुष्य सत्य की उद्घोषणा एक अभूतपूर्व घटना थी जिसकी तुलना पुरुषोत्तम अग्रवाल यूरोप में हुए 17वीं शताब्दी के ‘रेनेसाँ’ से करते हैं । इस मानववादी, जनपक्षधर आन्दोलन का व्यापक प्रभाव उस समय के साहित्य पर पड़ा । सूर, तुलसी, जायसी, कबीर, दादू, नानक आदि न जाने कितने कवि हुए जिन्होंने समाज को एक महान जीवन–बोध दिया, दुनिया को और बेहतर बनाने की कोशिश की, और सामाजिक विषमताओं, अन्याय, छुआछूत, कर्मकाण्ड और सत्ता व पुरोहितों के द्वारा किए जा रहे शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई-

    “उसमें सामाजिक जीवन की तरह–तरह की विसंगतियों की पहचान है । यही नहीं इसमें सामंती समाज व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह की भावना भी है । सामाजिक चेतना, सामंती समाज व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह की भावना और जन–संस्कृति की सृजनशीलता की जैसी अभिव्यक्ति भक्ति काव्य में हुई है वैसी भक्तिकाल के पहले की भारतीय कविता में कम ही मिलती है––– भक्तिकाव्य की अन्तर्वस्तु जन–संस्कृति और जन अनुभवों से निर्मित है ।”

    -भक्ति आन्दोलन के सामाजिक आधार , सं– गोपेश्वर सिंह, पृ– 134,

    रामविलास शर्मा भक्तिकालीन साहित्य को ‘भारतीय जनता के प्रेम, घृणा और वेदना’ का दर्पण मानते है उनके अनुसार यह साहित्य जनता के हृदय की सबसे कोमल, सबसे सबल भावनाओं का प्रतिबिम्ब है । वह उसकी मानवीय सहृदयता, लौकिक जीवन में आस्था और उज्ज्वल भविष्य की कामना का प्रतीक है । दरअसल, ईश्वर के सम्मुख सभी प्राणियों की समानता का सिद्धान्त उस नई सामाजिक चेतना का द्योतक था जो सामंती शोषण के विरुद्ध जूझने वाले किसानों और कारीगरों में फैल रही थी7 ये विचार धार्मिक अर्थों में भी नि%संदेह मध्ययुग की उन परिस्थितियों को देखते हुए, जिनमें जाति–पाँति की स्पर्धा और अंधविश्वास के फलस्वरूप समाज की प्रगति करना असम्भव हो गया था, प्रगतिशील थे-

    “भक्ति–आन्दोलन ने न केवल अंधविश्वास और जाति–पाँति के खिलाफ आवाज उठाने और ईश्वर की दृष्टि में सबकी समानता घोषित करने की बात तक ही अपने को सीमित रखा । इस आन्दोलन के कुछ नेताओं ने तो मुगल–आधिपत्य और पुरातन तथा सामंती शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध व्यापारियों, कारीगरों और गरीब किसानों के संघर्ष का नेतृत्व भी किया ।”

    -भारतीय चिन्तन परम्परा ,के.दामोदरन, पृ– 2378

    भारत के सांस्कृतिक इतिहास में यह पहला अवसर था जब शूद्रों, अंत्यज्यों और सताए हुए वर्गों ने अपने संत दिए और इन संतों ने पहली बार जाति, धर्म, वर्ण तथा सम्प्रदाय की चहरदीवारियों को तोड़ते हुए एक मानव धर्म तथा एक मानव संस्कृति का नारा बुलन्द कियाµ

    “भक्ति–आन्दोलन का जन साधारण पर जितना व्यापक प्रभाव हुआ उतना किसी अन्य आन्दोलन का नहीं । पहली बार शूद्रों ने अपने संत पैदा किए । अपना साहित्य और अपने गीत सृजित किए । कबीर, रैदास, नाभा, सिपी, सेना, नाई आदि ने ईश्वर के नाम पर जातिवाद के विरुद्ध आवाज बुलन्द की । समाज के न्यस्त स्वार्थवादी वर्ग के विरुद्ध नया विचारवाद अवश्यंभावी था ।”

    -नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध , गजानन माधव‘मुक्तिबोध’, पृ– 88

    भक्तिकालीन साहित्य ने सामान्य जन में आत्मविश्वास भरा, सम्मानपूर्ण जिंदगी जीने के लिए स्वाभिमान का संचार किया, दुनिया को बाह्यचारों से मुक्त कर प्रेम के महत्त्व को स्थापित करने की पुरजोर कोशिश की, चाहे पौराणिक अवतारवादी सगुण मार्ग हो या निर्गुण साधना का मार्ग-

    “सगुणमार्गी साधना ने हिन्दू जाति की बाह्यचार की शुष्कता को आन्तरिक प्रेम से सींचकर रसमय बनाया और दूसरी साधना ने बाह्याचार की शुष्कता को ही दूर करने का प्रयत्न किया । एक ने शास्त्र का सहारा लिया दूसरे (निर्गुणमार्गी) ने विद्रोह का ।”

    -कबीर ,हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ– 183, राजकमल प्र–10

    समझौते का रास्ता छोड़कर विद्रोह का रास्ता अपनाते हुए निर्गुण भक्ति की जो धारा भक्ति–आन्दोलन की स्रोतस्विनी से फूटी, कबीर उसकी सबसे ऊँची लहर के साथ सामने आयेµ

    “इसमें कोई सन्देह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बड़े भाग को सँभाला––– मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में उन्होंने आत्मगौरव का भाव जगाया ।”

    -जायसी ग्रन्थावली , सं– आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पृ– 111

    उस समय के समाज में मनुष्य की पहचान के दो आधार थे,एक था धर्म, जिसके अनुसार प्रत्येक मनुष्य हिन्दू या मुसलमान था । दूसरा आधार जाति–भेद का था, जिसके अनुसार मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र था । कबीर ने न तो किसी धर्म को अपनी पहचान का आधार माना और न जाति को । उन्होंने केवल मनुष्य के रूप में अपनी पहचान समाज के सामने रखा-

    “हिन्दू कहो तो मैं नहीं, मुसलमान भी नाहिं ।”

    कबीर लोकजीवन में प्रचलित ऐसे अन्धविश्वासों का भी खण्डन करते हैं-

    “लोकमति का भोरा रे!

    जो कासी तन तजै कबीरा, तो रामहिं कौन निहोरा रे ।”

    “मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपरा ।”

    असमानता के पैरोकारों के लिए कबीर के व्यंग्य की करारी चोट असहनीय हैµ

    “हमारे कैसे लोहू तुम्हारे कैसे दूध ।

    तुम कैसे बाभन पाण्डे हम कैसे सूद ।”

    कबीर ने तथा भक्तिकालीन अन्य कवियों ने भी वास्तव में ऐसे ‘मानवाधिकार’ का मुद्दा उठाया है-जो मनुष्य को मनुष्य की तरह जीने का अधिकार दे, जिसमें किसी धर्म समाज की रुढ़ियों, आडम्बरों का बन्धन नहीं है । इस दृष्टिकोण से भक्तिकालीन साहित्य मध्ययुग में ही नहीं वरन् आज के समसामयिक माहौल में भी सर्वाधिक प्रासंगिक बना हुआ है ।

    भक्तिकालीन कवि सर्वसाधारण एवं निम्नवर्ग की जनता के दारुण अवस्था से वे अत्यन्त दु:खी व कातर नजर आते हैं । ‘वे अपने दु%ख से नहीं जनता के दु:ख से दु:खी हैं’12µ

    “दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै ।”

    वे भौतिक जीवन व जगत से भागने की बात कभी नहीं करते-‘घर में जोग, भोग घर ही में/घर तज वन नहीं जावै ।’ वे राम–रहीम की एकता स्थापित करते हुए हिन्दू–मुसलमान दोनों को समझाते हुए कहते हैं-

    “दुई जगदीस कहाँ ते आया, कहु कौन भरमाया ।”

    ‘नानक’ ने भी ऊँच–नीच, भेद–भाव का विरोध किया ।13 साथ ही बाह्याचार के बदले मन की शुद्धता पर बल दियाµ

    “जाणहु जोति न पूछहुं जाती आगै जाति न है ।”

    ‘धोती ऊजल तिलकु गलि, माला, अंदरि क्रोधु पड़हि नाटसाला ।’

    भक्त के लिए प्रेम ही परम पुरुषार्थ है । निर्गुण और सगुण दोनों ही प्रकार के भक्ति काव्य में भक्ति की अनुभूति प्राय: प्रेम की ही अनुभूति है, जो सबके लिए है, जहाँ सब समान है जहाँ ईश्वर भी प्रेममय है और वही सबकी पहचान है-

    “इश्क’ अलह की जाति है, इश्क’ अलह का अंग ।

    इश्क’ अलह अवजूद है, इश्क’ अलह का रंग॥

    -दादू

    सन्तों ने धर्म पर से पुरोहितों का यह इजारा तोड़ा । खासतौर से जुलाहों, कारीगरों, गरीब किसानों और अछूतों को साँस लेने का मौका मिला । यह विश्वास मिला कि पुरोहितों और शास्त्र के बिना भी उनका काम चल सकता है । संत कवि वर्णवादी समाज को तोड़कर मानवतावादी समाज की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे ।

    भक्तिकालीन साहित्य में सामाजिक मूल्यों के प्रति गहरी चिन्ता मिलती है । एक मानव धर्म, एक मानव समाज तथा एक मानव संस्कृति का सपना इन क्रान्तिद्रष्टा संतों की विरासत है जो आगामी पीढ़ियों के लिए बड़ी मशक्“कत के बाद उन्होंने सुलभ की थी । डॉ– नगेन्द्र के अनुसार‘इस काव्य का प्रमुख प्रयोजन त्रस्त, संतृप्त, उपेक्षित, उत्पीड़ित मानव को परिज्ञान उपलब्ध कराना है ।’

    सूफी कवियों ने अपने उदार मानवीय दर्शन के माध्यम से सिद्ध किया कि ‘एक ही गुप्त तार मनुष्य मात्र के हृदयों से होता हुआ गया है जिसे छूते ही मनुष्य सारे बाहरी रूप–रंग के भेदों की ओर से ध्यान हटा एकात्म का अनुभव करने लगता है ।’ उन्होंने साम्प्रदायिक संकिर्णता से ऊपर उठकर मानवतावादी दृष्टि की स्थापना की । सूफी कवियों की कविताओं में पुराने ढाँचे के भीतर अपने समय की जनसंस्कृति की व्यंजना की । ‘नागमती वियोग वर्णन’ में ‘बारहमासा’ का प्रयोग करते हुए विरह वर्णन में जनजीवन और जनसंस्कृति की जो मार्मिक व्यंजना है वह कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । सामंती व्यवस्था की सर्वोच्च सत्ता को ‘शैतान’ के रूप में चित्रित करना बहुत साहस की बात थी, पर जायसी ने यह साहस दिखाया । वे ‘पद्मावती’ के रूप में नारी सशक्तीकरण का यूटोपिया गढ़ते हैं14 जहाँ स्त्री के जन्म पर माँ–बाप–प्रजा खुश है । उसके पैदा होने पर ‘अवतार’ शब्द का प्रयोग करते हैंµ

    ‘पद्मावति कन्या ओतरी’

    और

    ‘पाँच वरिस मँह सो बारी । दीन्ह पुरान पढ़ै बैसारी ।’

    कहकर स्त्री–शिक्षा पर बल देते हैं इस मायने में जायसी आज की सोच की बराबरी करते नजर आते हैं ।

    जायसी तथा अन्य सूफी कवियों ने ‘सांस्कृतिक एकता’ स्थापित करने का प्रयास किया, सामाजिक साम्प्रदायिक वैमनस्व की जगह उन्होंने प्रेम के उदार धरातल पर अपनी कविता को उताराµ

    “–––सूफियों ने भारत में भावनात्मक एकता के साथ–साथ मिश्रित सांस्कृतिक परम्पाओं का भी सूत्रपात किया ।”

    -हिन्दी भक्ति साहित्य में सामाजिक मूल्य एवं अवधारणाएँ,सावित्री चन्द्र, पृ– 8415

    सूफी कवियों ने समाज को बहुत करीब से देखा था इसलिए उनकी कविता में लोक है, समाज है, संस्कृति है, उनकी धरती है, पेड़–पौधे, जीव–जन्तु, ऋतुएँ सब कुछ है, नहीं है तो बस किसी प्रकार की संकिर्णता, कृत्रिमता-

    “जायसी ने सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहलू पर प्रकाश डाला है । क्या विवाह, क्या मुसलिम आक्रमण और क्या जौहर, क्या राजपूती शौर्य, क्या विलासिता, क्या प्रथाएँ और क्या लोक विश्वास, क्या सामाजिक कृत्य सभी का यथार्थ चित्रण उन्होंने किया है ।’’16

    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ‘हिन्दू हृदय और मुसलमान हृदय आमने–सामने करके अजनबीपन मिटाने’ का श्रेय देते हैं वहीं रामविलास शर्मा उन्हें ‘अवध की धरती, वहाँ की जन संस्कृति, वहाँ की बोली–बानी के सबसे निकट’17 पाते हैं । भक्तिकालीन साहित्य का यह रूप युग के महत्त्वपूर्ण ध्रुवों–राजाश्रय एवं धर्माश्रय को छोड़ लोकाश्रय में पनपा । लोकभूमि में पल्लवित पोषित होने के कारण ही इसमें लोक मन की साहित्यिक अभिव्यक्ति हुई । मनुष्यता के सामान्य भावों को अपने प्रेमाख्यानों द्वारा चरितार्थ कर इन्होंने एक संवाद–सेतु निर्मित किया, जहाँ व्यक्ति, सम्प्रदाय, मत, सिद्धान्त, वाद की खाइयाँ अपने–आप पट जाती हैं । इन्होंने मनुष्य के भीतर छिपे प्रेम की रचनात्मक शक्ति को पहचाना और युगीन आवश्यकता की जमीन पर उसका प्रतिपादन किया ।

    कृष्ण भक्तिकाव्य सामंती समाज की सीमाओं को ललकारता है । सामंती देहवाद के स्थान पर वह प्रेममय रागभाव को स्वीकृति देता है । कृष्ण भक्ति काव्य शास्त्र के स्थान पर लोक का वरण करता है और कर्मकाण्ड आदि की यहाँ कोई अनिवार्यता नहीं है । कृष्ण भक्ति काव्य में कृषि–चारागाही संस्कृति सक्रिय भूमिका का निर्वाह करती है । भक्तिकालीन साहित्य मानवीय सहृदयता, लौकिक जीवन में आस्था और उज्ज्वल भविष्य की कामना का प्रमाण हैµ

    “किस साहित्य में सूर के बालकृष्ण का–सा सौन्दर्य वर्णन मिलेगा ? यह हिन्दी–भाषी जनता की अपनी विरासत है––– भारत के अमर गायक सूर द्वारा कृष्ण की बाल–लीला वर्णन ध्वंस और विनाश के विरुद्ध एक चुनौती बनकर मानव को सजग करता है ।’’

    -परम्परा का मूल्यांकन, रामविलास शर्मा, पृ– 5018

    मनुष्यता के सौन्दर्यपूर्ण और माधुर्यपूर्ण पक्ष को दिखाकर कृष्णोपासक वैष्णव कवियों ने जीवन के प्रति अनुराग जगाया, या कम–से–कम जीने की चाह बनी रहने दी ।19 ‘सूर’ की महिचेतना विकृत मूल्यों को उच्चतर भूमिका पर प्रतिष्ठित करने की चेष्टा है । ‘कृष्ण काव्य वास्तव में पारिवारिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक रूप की सुन्दर अभिव्यक्ति हैं20-

    “सूर पूरी तरह गृहस्थ मानस के कवि हैं–––बालक और गाय गृहस्थ जीवन के दो अनिवार्य अंग हैं––– इन दोनों के सूर–सागर में कितने प्रस्तुत और अप्रस्तुत रूप हैं जिनकी गिनती कठिन है ।”

    -हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास , रामस्वरूप चतुर्वेदी, पृ– 45, 47

    सूरसागर में लोक–चिंता काव्यानुभूति के प्रवाह में अन्तर्धारा की तरह है, सतह पर तैरती लकड़ी जैसी नहीं । उसमें समाज का प्रत्यक्ष वर्णन कम है परन्तु मानवीय सम्बन्धों के चित्रण और काव्यभाषा की संरचना में उस काल की सामाजिक वास्तविकता के चित्र और प्रतिबिम्ब मौजूद हैं-

    “सूर की कविता अपने समय के समाज के पीछे चलने या उसकी आलोचना करने के स्थान पर उस समाज की सामंती व्यवस्थाओं, संस्थाओं, रूढ़ियों के दमनकारी प्रभावों का निषेध करती हुई एक ऐसे समाज की रचना करती है जिसमें लोक और शास्त्र के बंधनों से स्वतन्त्र मानवीय भावों और मानवीय सम्बन्धों का सहज स्वाभाविक विकास संभव हुआ है ।”22

    सूरदास के काव्य में ‘यत्र तत्र उस युग की रहन–सहन, पहनावा, बोल–चाल धर्म आदि पर प्रकाश पड़ता है ।23 वे जनता की इच्छा की राजनीति और जनाकांक्षित राजनीति की स्थापना चाहते थे-

    “राजधर्म तब भए सूर जहँ प्रजा न जाय सताए ।”

    यह राजतंत्र के काल में प्रजातंत्र की आकांक्षा है ।24 सूर ने अपने आराध्य के द्वारा सामाजिक दायित्वों का निर्वाह एक राजा का धर्म बताया, जो एक पैर पर प्रजा के रक्षार्थ खड़ा होµ

    “सात बरस को कुँवर कन्हैया गिरिवर धरि जीत्यौ खुरराई–––

    कहाँ कहाँ नहिं संकट मेटत, नर नारी सब करत बड़ाई ।”

    सूर की गोपियाँ उस सामन्ती मानसिकता के खिलाफ खुली बगावत हैं और ‘नारी मुक्ति’ की साक्षात् उद्घोषणा भी । मीरा का काव्य ही नहीं अपितु जीवन भी राजसत्ता, पुरुषसत्ता व सामन्ती बन्धन के विरुद्ध विद्रोह रहा जो आज भी सामंती मानसिकता के लोगों की आँखों में आँखें डालकर कहता है-

    “अपने घर का परदा कर लो

    मैं अबला बौराणी ।”

    भक्तिकालीन साहित्य का पूरा चरित्र सत्तावाद, सामन्तवाद का विरोधी रहा है । कृष्ण भक्त धरा के कवि ‘कुम्भनदास’ का पद ‘सन्तन को कहा सीकरी सो काम’ इस पूरी विचार परम्परा का प्रतीक है । तुलसीदास ने प्रकृति जन कीन्हे गुन गाना’ की प्रशस्ति परम्परा का विरोध किया । उनका यह स्वर न केवल विद्रोही स्वर है बल्कि गहरे अर्थों में चारण–भाट–सामन्त पूजा का तिरस्कार करता है । तुलसी ने रामकथा को सामन्त विरोधी मूल्यों से मण्डित किया । राम वनवास के समय ग्रामवासियों से मिलते हैं-केवट–निषाद को गले लगाते हैं, अहिल्या को तारते हैं, पतित पावन राम, दीनबन्धु–दीनानाथ के रूप में सामने आते हैंµवे राजाओं के पास मदद माँगने

    नहीं जाते, बानरों–भालुओं–भीलों निषादों की मदद से ‘जगत दु:खदाता’ रावण का वध करते हैं ।

    जिस काल में गोस्वामी तुलसीदास का जन्म हुआ था, वह बहुत ऊँचे आदर्शों पर नहीं चल रहा था । समाज में अराजकता छायी हुई थी, मानवीय रिश्ते अपना वजूद खो रहे थे, ऐसे समय में तुलसी ‘रामराज्य’ का यूटोपिया गढ़ते हंै जहाँ दशरथ के रूप में एक राजा जो ‘सत्य’ की रक्षा प्रिय पुत्र को वनवास देकर और ‘स्नेह’ की रक्षा प्राण देकर करता है-

    “राखेउ राउ सत्य मोहि त्यागी । तनु परिहरेउ प्रेमपनु लागी ।”

    एक ऐसी प्रजा जो राजा के प्रेम और दु:ख में डूबी हुई है, एक भाई जो सब कुछ अपने बड़े भाई के चरणों में सौंप दिया है, एक पत्नी जो राजसी सुख त्यागकर अपने पति के कर्म, सुख–दु%ख में सहभागी है और एक सेवक जिसे ‘राम काज कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम’ है और एक राम जिनसे ‘खरो है कौन ?’ दरअसल, वे रामराज्य के रूप में ऐसे समाज की कल्पना कर रहे थे जहाँµ

    ‘साम न दाम न भेद कलि, केवल दण्ड कराल’

    ‘कलि बारहिं बार दुकाल पड़ै । बिनु अन्न दु%खी सब लोग मरै ।’

    ‘खेती न किसान को, भिखारी को ने भीख भली

    बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी ।’

    जैसी स्थितियाँ न हो बल्किµ

    ‘दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज काहुहिं नहीं व्यापा’ ।

    जैसी स्थिति हो । ‘लोकवादी तुलसीदास’ के कृतिकार विश्वनाथ त्रिपाठी के शब्दों मेंµ

    “रामराज्य तुलसी का यह स्वप्न है जिसे वे अपनी रामकालीन दुर्व्यवस्था अर्थात् कलियुग को तोड़कर स्थापित होते देखना चाहते थे ।”

    -लोकवादी तुलसीदास , विश्वनाथ त्रिपाठी, पृ– 3025

    उन्होंने उस अराजक समाज में समन्वय की विराट चेष्टा की-‘शिवद्रोही मम दास कहावा, सो नर सपनेहु मोहि न भावा ।’ उन्होंने कपटी–कुटिल भूपों, कराल दण्ड–नीति की निन्दा की है और व्यवस्था दी है कि जिस राजा के राज्य में प्रजा दु:खी हो उसे नरक की प्राप्ति होती हैµ

    “जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी । सो नृप अवस नरक अधिकारी ।”

    उनका रिश्ता अपने जमीन से, अपने समाज से बहुत गहरा था । उनकी कविता में अन्न, फसल, बादल, ओले, वर्षा, धान, दूब आदि का उल्लेख बार–बार आता है । तुलसी की कविता साधारण जनों के हृदय में गहरी धँसी हुई कविता है । उन्होंने-‘बाहर से भीतर तक फैले अँधेरों को उजाले में बदला । उनकी कविता बेसहारों का सहारा बनी, देश, काल और विचारों की खाइयाँ पाटी, सुख में, दु:ख में, सच में, स्वप्न में लोगों के साथ रहती है ।’26

    सूर और तुलसी के कृष्ण और राम अन्यायी, अत्याचारी सामंती राजसत्ता के स्थान पर लोकहितकारी राज्य की स्थापना करते हैं । तुलसी की रामराज्य की कल्पना में अत्याचारी सामंती राजसत्ता के स्थान पर न्यायप्रिय और जनप्रिय राजव्यवस्था की जन–आकांक्षा व्यक्त हुई है । सूर और तुलसी ने प्रेममार्गी सूफियों ने लाखों मनुष्यों को उनके ग्रामीण और जनपदीय अंधविश्वासों से अलग नए सूत्र में बाँधा । वास्तव में भक्तिकालीन साहित्य लोगों के जीवन और सांस्कृतिक परम्पराओं को व्यक्त करने वाली कविता है । वर्ग तथा वर्ण–व्यवस्था से जर्जर, सामाजिक ऊँच और नीच की भावना से आक्रान्त, नाना प्रकार के धार्मिक भेदभाव, कर्मकाण्ड तथा विधिनिषेधों से परिचालित समाज में भक्तिकालीन साहित्य एक संजीवनी का काम किया । इन कवियों ने पहली बार जाति, धर्म, वर्ण तथा सम्प्रदाय की चहरदीवारियों को तोड़कर मानवीयता की जमीन तैयार की जहाँ सब बराबर थे, सब को जीने का हक था । आज भी भक्तिकाव्य की महानता, उसके आदर्शों, मूल्यों व विचारधाराओं की महानता व लोकप्रियता सब स्वीकार करते हैं जिसे उसने अपने समाज, अपने युग व उस समय के लोगों के हृदयों में गहरे धँसकर पाया, उनके सुख–दु%ख में सहभागी होकर पाया ।

    “भक्तिकाव्य एक सांस्कृतिक–लोकजागरण आन्दोलन की उपज थी । भक्तिकाल के कवियों का रिश्ता समाज से बहुत मजबूत था । उनका सरोकार अपनी जमीन को, अपने समाज को बेहतर बनाने की थी । साधारण मानव जीवन कभी भी उनकी आँखों से ओझल नहीं हुआ । उन्होंने गृहस्थाश्रम को त्यागने की राय कभी नहीं दी । उनका काव्य सामन्तवादी ताकतों, रूढ़िवादी शक्तियों व शास्त्र के खिलाफ आम जनता के पक्ष में लड़ा गया एक महान संघर्ष है । उन्होंने घोषणा की-‘मानुष प्रेम–भयउ बैकुण्ठी । नाहिं ते काह छार एक मूँठी ।’ उन्होंने मानवीय पीड़ा से खुद को एकाकार किया और ‘रामराज्य’ जैसे समाज का यूटोपिया गढ़ा । उनका काव्य मानवीय सरोकारों से अनुप्राणित है ।”

    कहना न होगा कि भक्तिकालीन साहित्य में देश की कोटि–कोटि जनता की व्यथा, प्रतिरोध भावना और उनकी जीवन–आकांक्षाओं–समस्याओं की अभिव्यक्ति हुई है । यह साहित्य ‘लोकजागरण’ का साहित्य है जो मानवीय आदर्शों से परिचालित है तथा मानव विरोधी सामंतवादी मूल्यों के विरुद्ध खुला घोषणा–पत्र है । भक्तिकालीन साहित्य का रिश्ता अपने समाज से बहुत गहरा है । उसका सरोकार अपने समाज से है, उसमें जी रहे लोगों से है, उनके सुख–दु:ख, आशा–निराशा, संस्कृति व विश्वासों से है । भक्तिकालीन साहित्य में उसका समाज धड़क रहा है और उसकी आँखों में ‘रामराज्य’ का आदर्श पल रहा है । साहित्य का समाज से रिश्ता कैसा हो ? यह हम भक्तिकाल के साहित्य में देख सकते हैं ।

    -दीपक