चक्रव्यूह कुँवर नारायण
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वस्तु और वस्तु के बीच भाषा है
जो हमें अलग करती है,
मेरे और तुम्हारे बीच एक मौन है
जो किसी अखंडता में हमको मिलाता है :
एक दृष्टि है जो संसार से अलग
असंख्य सपनों को झेलती है,
एक असन्तुष्ट चेतना है जो आवेश में पागलों की तरह
भाषा को वस्तु मान, तोड़-फोड़ कर
अपने एकांत में बिखरा लेती है
और फिर किसी सिसकते बालक की तरह कातर हो
भाषा के उन्हीं टुकड़ों को पुनः
अपने स्खलित मन में समेटती है, सँजोती है,
और जीवन को किसी नए अर्थ में प्रतिष्ठित करती है ।
जीवन से वही मेल रोज़ धीरे धीरे,
कर न दे मलिन
आत्मदर्पण अति परिचय से;
ऊब से, थकन से, बचा रहे…
रहने दो अविज्ञात बहुत कुछ….
चाँद और सूनी रातों का बूढ़ा कंकाल,
कुछ मुर्दा लकीरें
कुछ गिनी-चुनी तसवीरें,
जो मैं तुम्हें देता हूँ
पुरानी चौहद्दी की सीमा-रेखाएँ हैं,
पर मैं प्रकाश का वह अन्तःकेन्द्र हूँ
जिससे गिरने वाली वस्तुओं की छायाएँ बदल सकती हैं !
हाड़-सी बिजलियों की तरह अकस्मात
अपनी पंक्तियों में भभककर
मैं संसार को नंगा ही नहीं करता,
बल्कि अस्तित्व को दूसरे अर्थों में भी प्रकाशित करता हूँ
मेरे काव्य के इन मानस परोक्षों से
एक अपना आकाश रचो,
मेरे असन्तुष्ट शब्दों को लो
और कला के इस विदीर्ण पूर्वग्रह मात्र को
सौन्दर्य का कोई नया कलेवर दो,
(क्योंकि यही एक माध्यम है जो सदा अक्षुण्ण है)
शब्दों से घनिष्टता बढ़ने दो
कि उनकी एक अस्फुट लहक तुम्हारे सौम्य को छू ले
और तुम्हारी विशालता मेरे अदेय को समझे :
स्वयंसिद्ध आनन्द के प्रौढ़ आलिंगन में
समा जाय ऋचाओं की गूँज-सा आर्यलोक,
पूजा के दूभ-सी कोमल नीहार-धुली
दुधमुँही नई नई संसृति को
बाल-मानवता के स्वाभाविक सपनों तक आने दो …
एक सात्विक शान्ति
प्रभात के सहज वैभव में थम जाय,
असह्य सौन्दर्य विस्मय की परिधि में
अकुला दे प्राणों को मीठे मीठे …
ऐ अजान,
तुम तक यदि मेरा भावोद्वेल पहुँचे,
तो इस कोलाहल को अपने आकाशों में भरसक अपनाना;
तुम्हें आश्चर्य होगा यह जानकर
कि कवि तुम हो…
और मैं केवल कुछ निस्पृह तत्वों का एक नया समावेश,
तुम्हारी कल्पना के आसपास मँडलाता हुआ
जीवन की सम्भावनाओं का एक दृढ़ संकेत ….
प्रथम खंड : लिपटी परछाइयाँ
लिपटी परछाइयाँ
उन परछाइयों को,
जो अभी अभी चाँद की रसवंत गागर से गिर
चाँदनी में सनी
खिड़की पर लुढ़की पड़ी थीं,
किसने बटोरा?
चमकीले फूलों से भरा
तारों का लबालब कटोरा
किसने शिशु-पलकों पर उलट दिया
अभी-अभी?
किसने झकझोरा दूर उस तरु से
असंख्य परी हासों को?
कौन मुस्करा गई
वन-लोक के अरचित स्वर्ग में
वसन्त-विद्या के सुमन-अक्षर बिखरा गई?
पवन की गदोलियाँ कोमल थपकियों से
तन-मन दुलरा गईं?
इसी पुलक नींद दे
ऐ मायाविनी रात,
न जाने किस करवट ये स्वप्न बदल जाँय !
माँ के वक्षस्थल से लगकर शिशु सोए,
अनमोहे जाने कब
दूरी के आह्वान-द्वार खुल जाँय ।
धब्बे और तसवीर
वह चित्र भी झूठा नहीं :
तब प्रेम बचपन ही सही
संसार ही जब खेल था,
तब दर्द था सागर नहीं,
लहरों बसा उद्वेल था;
पर रंग वह छूटा नहीं :
उस प्यार में कुंठा न थी
तुम आग जिसमें भर गए,
तुम वह जहाँ कटुता न थी
उस खेल में छल कर गए;
मैं हँस दिया, रूठा नहीं :
उस चोट के अन्दाज़ में
जो मिल गया, अपवाद था,
उस तिलमिलाती जाग में,
जो मिट गया, उन्माद था,
जो रह गया, टूटा नहीं :
अभाव के प्रतिरूप ही
संसृति नया वैभव बनी,
हर दर्द के अनुरूफ ही
सागर बना, गागर बनी,
कच्ची तरह फूटा नहीं :
खोकर हृदय उससे अधिक
कुछ आत्मा ने पा लिया,
विक्षोभ को सौन्दर्य कर
संसार पर बिखरा दिया :
दे ही गया, लूटा नहीं ।
नीली सतह पर
सुख की अनंग पुनरावृत्तियों में,
जीवन की मोहक परिस्थितियों में,
कहाँ वे सन्तोष
जिन्हें आत्मा द्वारा चाहा जाता है ?
शीघ्र थक जाती देह की तृप्ति में,
शीघ्र जग पड़ती व्यथा की सुप्ति में,
कहाँ वे परितोष
जिन्हें सपनों में पाया जाता है ?
आत्मा व्योम की ओर उठती रही,
देह पंगु मिट्टी की ओर गिरती रही,
कहाँ वह सामर्थ्य
जिसे दैवी शरीरों में गाया जाता है ?
पर मैं जानता हूँ कि
किसी अन्देशे के भयानक किनारे पर बैठा जो मैं
आकाश की निस्सीम नीली सतह पर तैरती
इस असंख्य सीपियों को देख रहा हूँ
डूब जाने को तत्पर
ये सभी किसी जुए की फेंकी हुई कौड़ियाँ हैं
जो अभी-अभी बटोर ली जाएँगी :
फिर भी किसी अन्देशे से आशान्वित
ये एक असम्भव बूँद के लिए खुली हैं,
और हमारे पास उन अनन्त ज्योति-संकेतों को भेजती हैं
जिनसे आकाश नहीं
धरती की ग़रीब मिट्टी को सजाया जाता है ।
ओस-नहाई रात
ओस-नहाई रात
गीली सकुचती आशंक,
अपने अंग पर शशि-ज्योति की संदिग्ध चादर डाल,
देखो
आ रही है व्योमगंगा से निकल
इस ओर
झुरमुट में सँवरने को …. दबे पाँवों
कि उसको यों
अव्यवस्थित ही
कहीं आँखें न मग में घेर लें
लोलुप सितारों की ।
प्रथम बरसात का निथरा खुला आकाश,
पावस के पवन में डगमगाता
टहनियों का संयमित वीरान,
गूँजती सहसा किसी बेनींद पक्षी की कुहुक
इस सनसनी को बेधती निर्बाध,
दूर तिरते छिन्न बादल ….
स्वप्न के ज्यों मिट रहे आकार
सहसा चेतना में अधमिटे ही थम गए हों :
कामना,
कुछ व्यथा,
भावों की सुनहली उमस,
चंचल कल्पना,
यह रात और एकान्त….
छन्द की निश्चित गठन-से जब सभी सामान जुट आए
फिर भला उस याद ही ने क्या बिगाड़ा था
….कि वो न आती ?
सागर के किनारे
इस रात सागर के किनारे
हम इसी विश्वास से चल रहे हैं
कि वहाँ
चाँदनी में विहार करती
जल-परियों को देखेंगे :
उस भुरभुरी बालू पर
जहाँ लहरों की तरलता नाच चुकी होगी
हम बैठेंगे
गुमसुम
चुपचाप
उसी सुकुमार दृश्य से घुले-मिले :
और तभी सागर की रहस्य-क्रोड़ से निकलेगी
नीली रूपहली परियों की झिलमिलाती माया,
विलासी रंगरलियाँ,
उनकी दिव्य कसनाओं का अशरीर सम्भोग,
जिन्हें हम आज देखेंगे,
और जिस सौंदर्य-समर्पण की एक निष्काम स्मृति-जगमगाहट
एक मीठा स्वप्न बोझ ही रह जाएगी…
कल
इनके मन पर
जब ये मिचमिचाती लहरें चकित-सी जागेंगी…
जब इनके गुलाबी चेहरों की चटखती ताज़गी में
मुस्कराएँगी छिपी प्रेम-लीलाएँ :
और जिसका राज़
केवल हम तुम जानेंगे।
सृजन के क्षण
रात मीठी चांदनी है,
मौन की चादर तनी है,
एक चेहरा ? या कटोरा सोम मेरे हाथ में
दो नयन ? या नखतवाले व्योम मेरे हाथ में?
प्रकृति कोई कामिनी है?
या चमकती नागिनी है?
रूप- सागर कब किसी की चाह में मैले हुए?
ये सुवासित केश मेरी बांह पर फैले हुए:
ज्योति में छाया बनी है,
देह से छाया घनी है,
वासना के ज्वार उठ-उठ चंद्रमा तक खिंच रहे,
ओंठ पाकर ओंठ मदिरा सागरों में सिंच रहे;
सृष्टि तुमसे मांगनी है
क्योंकि यह जीवन ऋणी है,
वह मचलती-सी नजर उन्माद से नहला रही,
वह लिपटती बांह नस-नस आग से सहला रही,
प्यार से छाया सनी है,
गर्भ से छाया धनी है,
दामिनी की कसमसाहट से जलद जैसे चिटकता…
रौंदता हर अंग प्रतिपल फूटकर आवेग बहता ।
एक मुझमें रागिनी है
जो कि तुमसे जागनी है।
द्वितीय खंड : चिटके स्वप्न
चिटके स्वप्न
एक ही अनुरक्ति तक संसार जीता है :
कह समर्पण है समझ का ज़िन्दगी को
जो किसी विश्वास तक
‘मैं स्वप्न’ को मरने नहीं देता,
किसी गन्तव्य तक
अस्तित्व को थकने नहीं देता…
वही है अन्त जब विश्वास मर जाता,
नहीं जब घोर माया
घाव मन के मूँद पाती है।
संगमरमर के गड़े स्तम्भ
जो देते किसी नभ को सहारा
ढह गए…
परछाइयाँ झरती रही जिद्दी पनपती घास पर
जो सदा बढ़कर छेंक लेती है
गिरे मीनार, क़ब्रिस्तान, खंडहर आदि…
जिसकी लहलहाती बाढ़ में
ऐश्वर्य कितने बह गए।
फिर भला कैसे न मानूँ वह वनस्पति ही अमर है
जो सदा बसती रही पिछली दरारों में समय की,
और जिसका दीर्घ आगत
पूर्ण रक्षित है हमारे गगन-चुम्बी महल सपनों में…
…और हम इनसान हैं वह
जिसे प्रतिपल एक दुनियाँ चाहिए।
मिट्टी के गर्भ में
कुछ पल मिट्टी के जीवन में
मुझको खो जाने दो,
एक बीज इस दीर्घ गर्भ में
मुझको रख जाने दो;
धरती के अनादि चिन्तन में
एक अंश अकुलाए…
इस उद्भव भी एक विकलता
मुझको बो जाने दो।
तृतीय खंड : शीशे का कवच
प्रश्न
तारों की अंध गलियों में
गूँजता हुआ उद्दंड उपहास…
वह मेरा प्रश्न है :
विशाल आडम्बर,
अपनी चुभती दृष्टि की गर्म खोज में मैंने
प्रश्नाहत जिस विराट हिमपुरुष को
गलते हुए देखा…
क्या वह तेरा उत्तर था?
शून्य और अशून्य
एक शून्य है
मेरे और तुम्हारे बीच
जो प्रेम से भर जाता है।
एक शून्य है
मेरे और संसार के बीच
जो कर्म से भर जाता है।
एक शून्य है
मेरे और अज्ञात के बीच
जो ईश्वर से भर जाता है।
एक शून्य है
मेरे ह्रदय के बीच
जो मुझे मुझ तक पहुँचाता है।
मैं जानता हूँ
मैं जानता हूँ तुम धनाढ्य हो,
और मैं एक भिखमंगे का सवाल हूँ :
हज़ारों आवाज़ें, हज़ारों चुप्पियाँ
बेदर्द यही कहती हैं,
“आगे बढ़ो…यहां क्या है।”
और मैं मानो
अज्ञात दिशा में नए दरवाज़ों की ओर
एक नाउम्मीद चाल हूँ :
मेरी बेअसर पुकारें
किसी हमदर्द को ढूँढ़ती ही रहीं,
बारबार यही लगा
कि जिसे कोई नहीं जानता
तुम वो पता हो,
और जिसे किसी ने न सुना
मैं वो हाल हूँ।
ईश्वर का मनोवैज्ञानिक रूप
तुम इस जीवन के आगे मेरा निदान निश्चय हो,
घबरा कर जिसे रचा है वह महाशक्ति संचय हो,
है वहाँ काल का भय भी
मेरे साहस के उद्गम! तुम मेरा अन्तिम भय हो!
गंगा-जल
फूट कर समृद्धि की स्रोत स्वर्णधारा से
छलकी
गंगा बही धर्मशील,
सूर्य स्थान था
जहाँ से मानव स्वरूप
कोई धर्मावतार
रत्न जटित आभूषित, स्वयं घटित,
हिम के धव श्रृंगों पर
आदिम आश्चर्य बना :
जनता का शक्ति धन
साधन धनवानों का…
उसी चकाचौंध में सज्जनता छली गई,
धर्म धाक,
भोला गजराज चतुर अंकुश से आतंकित
अहंहीन दास बना,
शक्ति के ज्ञान की क्षमता भी चली गई ऐ मुक्त वन विहारी!
गर्दन ऊँची करो,
गंगा का दानी जल
लोक हित बहता है,
वंशज भगीरथ के,
उसका कल कल निनाद
जन वाणी कहता है;
आओ, शक्ति बाँध
कमल वन के इसी क्रीड़ा जल में…
अछूती गहराइयों में उतरें…
अवगुंठित बल से इस धारा प्रवाह में
भय विहीन
विहरें,
देखें तो जीवन की दुर्दम दुख कारा में
सचमुच ही कौन दैत्य
सदियों से रहता है।
चतुर्थ खंड : चक्रव्यूह
वरासत
कौन कब तक बन सकेगा कवच मेरा?
युद्ध मेरा, मुझे लड़ना
इस महाजीवन समर में अन्त तक कटि-बद्ध :
मेरे ही लिए वह व्यूह घेरा,
मुझे हर आघात सहना,
गर्भ-निश्चित मैं नया अभिमन्यु पैतृक-युद्ध!
उत्सर्ग
हैं मुझे स्वीकार
मेरे वन, अकेलेपन, परिस्थिति के सभी कांटे :
ये दधीची हड्डियां
हर दाह में तप लें,
न जाने कौन दैवी आसुरी संघर्ष बाक़ी हों अभी,
जिसमें तपाई हड्डियां मेरी
यशस्वी हों,
न जाने किस घड़ी के देन से मेरी
करोड़ों त्याग के आदर्श
विजयी हों :
जिसे मैं आज सह लूँ
कल वही देवत्व हो जाए,
न जाने कौन-सा उत्सर्ग
बढ़ अमरत्व हो जाए।
सवेरा
करोड़ों आँख वाली रात पर,
दानव सरीखी रात पर,
ताज़ा सवेरा :
पूर्व में आलोक…
पहला पाँव…
थोड़ा कांप कर :
रात चौंकी इस तरह
ज्यों छिप रही हो
कहीं कोई पुण्य-नाशक पाप कर :
ज्योति के पंजे ठहरते रात पर पैने,
घेरे कर तम को उतरते आग के डैने,
चमकता सोनपंखी गरुड़ काले साँप पर :
वन्दना के स्वर उभरते,
हर्ष से पक्षी चहकते,
एक बावन किरन बढ़ कर छा गई आक्षितिज,
तीनों लोक पग से नाप कर :
कई यादों सताई बात पर,
अब तक अखरती बात पर,
ताज़ा सवेरा।
कुछ ऐसे भी यह दुनियां जानी जाती है
पागल-से, लुटे लुटे,
जीवन से छुटे छुटे,
ऊपर से सटे सटे,
अन्दर से हटे हटे,
कुछ ऐसे भी यह दुनियाँ जानी जाती है :
अपनी ही रची सृष्टि,
अपनी ही ब्रह्म-दृष्टि,
ऊपर से रचे रचे,
अन्दर से बचे बचे,
कुछ ऐसे भी दुनियाँ पहिचानी जाती है :
स्वयं बिना नपे तुले,
कण कण से मिले जुले,
ऊपर से ठगे ठगे,
अन्दर से जगे जगे,
कुछ ऐसे भी दुनियाँ अनुमानी जाती है।
मूल्य
संचय कर लेने दो वस्तु सार,
कहीं परिचय है मूल्यों से, परख कहीं;
भाव की परिवर्तिनी भाषा
मुझे अपने असल से आंक लेने दो यहीं :
ओ विक्रेता, वस्तुएँ सब बिकती हैं,
कभी अनमोल, कभी बिना मोल,
मूल्य चढ़ते हैं गिरते हैं, चीज़ मिट्टी है,
अवसर हर भार को देता है स्वयं तोल :
मैं द्रव्य हूँ : मौत की मुहर मुझ पर,
जीवन में चलता हूँ,
घिस जाने तक, खो जाने तक,
एक आन रखता हूँ
एक कसौटी है मुझमें
और एक पदार्थ है मेरे पास,
मैं वह संघर्ष हूँ जिसमें अभिनीत
दो मौलिक विकास।
जीवन में यथार्थ नहीं
दृष्टि भर मिलती है,
खरीदार सच्चा हो :
सृष्टि बेचारी तो सभी दाम बिकती है
बीज, मिट्टी और खुली जलवायु
ज़िन्दगी की कुछ जड़ें हैं
जो सहज ही जकड़ लेतीं भूमि,.
कुछ फैलाव भी है
माँगते जो प्रतिक्षण आकाश।
ज्योति की चंचल उँगलियां
खोल सकतीं कहीं तम में बन्द
आदिम प्रस्फुटन के द्वार…
दास, जब तुम किसी को आराध्य करते हो,
तुम मुझे कुछ सोचने पर बाध्य करते हो…
पूज्य मिट्टी है मगर पत्थर नहीं,
कर्मभोगी आदमी बंजर नहीं,
मत इनसान को शिशु भयों से घेरो,
उसे पूरी तरह तम से निकलने दो;
कुछ चमकता है स्वर भगवान-सा, पाकर प्रकाश!
चेतना का न्यून अंकुर,
मनुजता की सहज मर्यादा,
उपजने दो खुली सन्तुष्ट, रस जलवायु में,
क्योंकि विकसित व्यक्ति ही वह देवता है
इतर मानव जिसे केवल पूजता है;
आँक लेगा वह पनप कर
विश्व का विस्तार अपनी अस्मिता में,…
सिर्फ उसकी बुद्धि को हर दासता से मुक्त रहने दो।
अटूट क्रम
क्या ज़रूरी है कि यह मालूम ही हो लक्ष्य क्या है?
अनवरत संघर्षरत इस ज़िन्दगी का पक्ष क्या है?
क्या बुरा है मान लूँ यदि
चाल का सम्पूर्ण आकर्षण अनिश्चित मार्ग
जिसका अन्त है शायद
कहीं भी,
या कहीं भी नहीं।
दृष्टि में आलोक इंगित, एक तारा,
ग़ैर राहों में भटकता एक बंजारा,
समझू लूँ शान से
हर क्षण हमारा घर
कहीं भी,
जा कहीं भी नहीं।
क्या बुरा है यदि किसी क्षण से अचानक
प्रस्फुटित हो एक प्रगल्भ बहार-सा मूर्छित वनों में
पुनः अपने बीज के भक्तिव्य ही तक लौट आऊँ…
और अगला क़दम हो मेरा उठाया क्रम
कहीं भी,
या कहीं भी नहीं।
स्वयं की अभिव्यक्तियाँ
क्या यही हूँ मैं!
अँधेरे में किसी संकेत को पहिचानता-सा?
चेतना के पूर्व सम्बन्धित किसी उद्देश्य को
भावी किसी सम्भावना से बाँधता-सा?
स्याह अम्बर में छिपी आलोक की गंगा कहीं
हर रात तारों से टपकती अनवरत,
नींद के परिवेश में भी सजग रहती
चेतना की, स्वप्न बन, कोई परत;
कौन तमग्राही कठिन बेहोशियों में
भोर का सन्देश भर जाता?
कौन मिट्टी का अंधेरा गुदगुदा कर
फूल के दीपक जलाता?
क्या यही हूँ मैं!
उजागर इस क्षितिज से उस क्षितिज तक जागता-सा?
एक क्षण की सिद्ध प्रामाणिक, परिष्कृत चेतना से
युग युगों को मांजता-सा?
चक्रव्यूह
युद्ध की प्रतिध्वनि जगाकर
जो हज़ारों बार दुहराई गई,
रक्त की विरुदावली कुछ और रंगकर
लोरियों के संग जो गाई गई,-
उसी इतिहास की स्मृति,
उसी संसार में लौटे हुए,
ओ योद्धा, तुम कौन हो?
+++
मैं नवागत वह अजित अभिमन्यु हूँ
प्रारब्ध जिसका गर्भ ही से हो चुका निश्चित,
परिचित ज़िन्दगी के व्यूह में फेंका हुआ उन्माद,
बाँधी पंक्तियों को तोड़
क्रमशः लक्ष्य तक बढ़ता हुआ जयनाद :
मेरे हाथ में टूटा हुआ पहिया,
पिघलती आग-सी सन्ध्या,
बदन पर एक फूटा कवच,
सारी देह क्षत-विक्षत,
धरती-खून में ज्यों सनी लथपथ लाश,
सिर पर गिद्ध-सा मंडला रहा आकाश…
मैं बलिदान इस संघर्ष में
कटु व्यंग्य हूँ उस तर्क पर
जो ज़िन्दगी के नाम पर हारा गया,
आहूत हर युद्धाग्नि में
वह जीव हूँ निष्पाप
जिसको पूज कर मारा गया,
वह शीश जिसका रक्त सदियों तक बहा,
वह दर्द जिसको बेगुनाहों ने सहा।
यह महासंग्राम,
युग युग से चला आता महाभारत,
हज़ारों युद्ध, उपदेशों, उपाख्यानों, कथायों में
छिपा वह पृष्ठ मेरा है
जहाँ सदियों पुराना व्यूह, जो दुर्भेद्य था, टूटा,
जहाँ अभिमन्यु कोई भयों के आतंक से छूटा :
जहाँ उसने विजय के चन्द घातक पलों में जाना
कि छल के लिए उद्यत व्यूह-रक्षक वीर-कायर हैं,
-जिन्होंने पक्ष अपना सत्य से ज्यादा बड़ा माना-
जहाँ तक पहुँच उसने मृत्यु के निष्पक्ष, समयातीत घेरे में
घिरे अस्तित्व का हर पक्ष पहिचाना।