देशान्तर धर्मवीर भारती

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    Deshantar Dharamvir Bharati

    देशान्तर धर्मवीर भारती

    1. सृजन का शब्द-जाँ स्टार अण्टर मेयेर

    आरम्भ में केवल शब्द था
    किन्तु उसकी सार्थकता थी श्रुति बनने में
    कि वह किसी से कहा जाय
    मौन को टूटना अनिवार्य था
    शब्द का कहा जाना था
    ताकि प्रलय का अराजक तिमिर
    व्यवस्थित उजियाले में
    रूपान्तरित हो

    ताकि रेगिस्तान
    गुलाबों की क्यारी बन जाय
    शब्द का कहा जाना अनिवार्य था।
    आदम की पसलियों के घाव से
    इवा के मुक्त अस्तित्व की प्रतिष्ठा के लिए
    शब्द को कहा जाना था

    चूँकि सत्य सदा सत्य है
    आज भी अनिवार्य है
    अतः आज के लिए भी शब्द है
    और उसे कहा जाना अनिवार्य है।

    2. एक लड़की-एज़रा पाउण्ड

    एक वृक्ष मेरे हाथों में समाविष्ट हो गया है
    मेरी बाँहों में अन्दर-अन्दर वृक्ष रस चढ़ रहा है
    वृक्ष मेरे वक्ष में उग गया है
    अधोमुखी,
    डालें मुझमें से उग रही हैं-बाँहों की तरह
    वृक्ष वह तुम हो
    तुम हो हरी काई
    तुम हो वायलेट के फूल जिन पर हवा लहराती है
    एक शिशु-और इतने ऊँचे-तुम हो

    और देखो तो दुनिया के लिए यह मात्र नादानी है !

    3. अक्र चहार का मक़बरा-एज़रा पाउण्ड

    मैं तुम्हारी आत्मा हूँ, निकुपतिस्, मैंने निगरानी की है
    पिछले पचास लाख वर्षों से, और तुम्हारी मुर्दा आँखें
    हिलीं नहीं, न मेरे रति-संकेतों को समझ सकीं
    और तुम्हारे कृश अंग, जिसमें मैं धधकती हुई चलती थी,
    अब मेरे या अन्य किसी अग्निवर्णी वस्तु के स्पर्श से धधक नहीं उठते !
    देखो तुम्हारे सिरहाने तकिया लगाने को घास उग आयी है
    और चूमती है तुम्हें अपनी अगणित पल्लव-जिह्वाओं से
    पर मैं तुम्हारे चुम्बनों से वंचित हूँ
    मैं दीवार के स्वर्णाक्षर पढ़ चुकी हूँ
    और उनके प्रतीकों पर अपनी चिन्तना थका चुकी हूँ
    और इस मक़बरे में अब कोई भी नयापन शेष नहीं रहा
    मैंने तुम्हारा बहुत ख़याल रक्खा है।
    देखो मैंने मद्य-मंजूषाओं के
    मोम-चिह्न नहीं तोड़े कि
    तुम कहीं जागकर मदिरा की एक घूँट न पीना चाहो
    और तुम्हारे समस्त वस्त्रों की शिक़नें मैं ठीक करती रही हूँ
    मैं कैसे भूलूँ ओ निर्मोही !
    कुछ ही दिनों पहले मैं नदी थी…
    नहीं ?
    हाँ; तुम कितने किशोर थे
    और तुम पर तीन आत्माएँ मँडरा रही थीं,
    और मैं आयी
    और बहती हुई तुममें प्रविष्ट हो गयी,
    उनको अपदस्थ करती हुई
    मैं तुमसे एकमेक रही हूँ,
    तुमको रत्ती-रत्ती जानती हूँ
    क्या मैंने तुम्हारी हथेलियाँ और अँगुलियों के पोर नहीं छुए हैं ?
    मैं तुममे आयी,
    तुम्हारे आरपार गयी,
    एड़ियों के आसपास तक
    और आना जाना क्या ?
    क्या मैं ही तुम नहीं थी ?
    केवल तुम ?
    और इस स्थान में कण-भर धूप भी
    मुझे चैन देने नहीं आती
    गहन तिमिर मुझे चीर रहा है
    और मुझ पर ज्योति अवतरित नहीं होती,
    और तुम भी एक शब्द नहीं कहते,
    दिन-पर-दिन बीत जाते हैं।

    ओह मैं मुक्त हो सकती हूँ, सील मुहर
    और द्वार पर की गयी तमाम शिल्पकारी के बावजूद
    हरे काँच से बाहर जा सकती हूँ…
    किन्तु यहाँ शान्ति है
    अतः कौन जाय ?

    4. समापन वाक्य-एज़रा पाउण्ड

    ओ मेरे गीतो
    इतनी उत्कण्ठा और जिज्ञासा से क्यों देखते हो तुम लोगों के चेहरों में
    क्या उनमें तुम्हें अपने गुज़रे खोये मिल जाएँगे ?

    5. गोदना-वालेस स्टीवेन्स

    रोशनी मकड़ी है
    जल पर रेंगती है
    बर्फ़ के किनारों पर
    तुम्हारी पलकों के तले
    और वहाँ अपना जाला बुनती है
    अपने दो जाले

    तुम्हारे नेत्रों के जाले
    हिलगे हैं, तुम्हारे
    माँस और अस्थियों से
    जैसे छत की कड़ियों या घासों से
    तुम्हारे नेत्रों के डोरे हैं
    जल की सतह पर
    बर्फ़ के छोरों पर।

    6. प्रातःकाल-बोरिस पास्तरनाक

    तुम मेरी नियति थीं, सब कुछ
    और फिर आया युद्ध, विध्वंस
    और कितने-कितने दिनों तक
    न तुम्हारा अता-पता, न कोई खबर
    इतने दिनों बाद
    फिर तुम्हारी आवाज़ ने मुझे झकझोर दिया है
    रात भर मैं तुम्हारा अभिलेख पढता रहा हूँ
    महसूस हुआ जैसे कोई मूर्छा टूट रही हो
    मैं चाहता हूँ लोगों से मिलना, भीड़ में,
    भीड़ की प्रातःकालीन हलचल में-
    मैं चाहता हूँ हर चीज़ की धज्जियाँ उड़ा देना
    ताकि वे घुटने टेक दें
    और मैं सीढ़ियों से नीचे दौड जाता हूँ
    गोया उतर रहा हूँ पहली बार
    उन बर्फानी सड़कों में
    उनके सुनसान फुटपाथों पर
    चारों ओर बत्तियों की रौशनी है,
    घरेलूपन है, लोग जाग रहे हैं
    चाय पी रहे हैं, ट्राम पकड़ने दौड़ रहे हैं
    बस महज चंद मिनट और
    कि शहर की शक्ल बदल जायेगी
    बर्फीला अंधड एक जाल बुन रहा है
    घनघोर गिरते बर्फ का जाल, फाटक के पार
    लोग वक्त पर पहुँचने की हड़बड़ी में
    अधूरी थाल, अधूरी चाय छोड़ते हुए
    मेरा मन उनमें से एक-एक की ओर से महसूस करता है
    गोया मैं उनकी काया में जी रहा होऊं
    पिघलते बर्फ के साथ पिघलता हूँ मैं
    सुबह के साथ मैं तेज पड़ने लगता हूँ
    मुझमें हैं लोग- अज्ञातनाम लोग-
    बच्चे, अपने घर में तमाम उम्र गुज़ार देने वाले लोग, वृक्ष
    मैं उन सबके द्वारा जीत लिया गया हूँ
    यही मेरी एकमात्र जीत है

    7. बसंत-बोरिस पास्तरनाक

    मैं बाहर सड़क पर से आ रहा हूँ बसंत जहाँ
    चिनार का वृक्ष अचरज में खड़ा है, जहाँ विस्तार हिम्मत हार बैठा है
    और इमारत भयभीत खड़ी है कि कहीं गिर न पड़े
    जहाँ हवा नीली है, मैले कपड़ों के बण्डल जैसी
    अस्पताल छोड़ते हुए रोगी के हाथों में-
    जहाँ शाम खाली सी है: एक तारा कोई कहानी कहना शुरू करता है
    और बीच में कोई बोल देता है, उत्कंठित नेत्रों की पांतों पर पाँतें
    घबरा जाती है, इंतज़ार करती हुई उस सत्य का जिसे
    वे कभी न जान पाएंगी, उनकी अथाह दृष्टि खाली है

    8. नीले मकान-होर्खे लुई बोर्खेस

    जहाँ सेन जुआन और चाकावुकों का संगम होता है
    मैंने वहाँ नीले मकान देखे हैं
    मकान: जिन पर खानाबदोशी का रंग है
    वे झंडों की तरह लहरा रहे हैं
    पूर्व- जो अपने आधीनों को स्वतंत्र कर देता है- की तरह गंभीर हैं

    कुछ पर उषा के आकाश का रंग है
    कुछ पर तड़के के आकाश का रंग
    घर के किसी भी उदास अँधेरे कोने के सामने
    उनका तीव्र भावनात्मक आलोक जगमगा उठता है
    मैं उन लड़कियों के बारे में सोच रहा हूँ जो
    तपते हुए आँगन में से आकाश की ओर देख रही होंगी
    उनकी चम्पई बाहें और
    काली झालरें
    शरबत के गिलासों-सी उनकी लाल आँखों में अपनी
    छाया देखने का उल्लास
    मकान के नीले कोने पर
    एक अभिमान भरे दर्द की छाप है
    मैं लोहे का दरवाजा खोलकर
    भीतरी सहन को पार कर
    घर के अंदर पहुंचूंगा
    कक्ष में एक लड़की- जिसका हृदय मेरा हृदय है-
    मेरी प्रतीक्षा में होगी
    और हम दोनों को एक प्रगाढ़ आलिंगन घेर लेगा
    हम आग की लपटों की तरह काँप उठेंगे
    और फिर उल्लास की बेताबी
    धीरे-धीरे
    घर की मृदुल शान्ति में खो जायेगी

    9. आँगन-होर्खे लुई बोर्खेस

    शाम होते-होते
    आँगन के आलोक रंग मुरझा जाते हैं
    पूनम के चाँद की विराट स्वच्छता, थिर, परिचित
    आसमानों पर जादू नहीं बिखेरती
    आसमान में बादल घिर आए हैं
    दुश्चिंताएं कहती हैं कि किसी देवदूत का अवसान हो गया है!

    आँगन आकाश का, स्वर्ग का संदेशवाही है-
    आँगन एक खिडकी है, जिसमें से
    ईश्वर आत्माओं की खोज-खबर रखता है-
    आँगन एक ढालुआं रास्ता है
    जिसमें से आकाश, घर के अंदर ढुलक आता है
    चुपचाप-
    शाश्वतता सितारों के चौराहों पर इन्तजार करती है!
    चिर-परिचित दरवाजों, नीची गर्म छतों और
    शीतल हौजों के बीच
    एक संगिनी के प्रगाढ़ स्नेह की छाया में
    ज़िंदगी कितनी प्यारी लगती है

    10. निष्ठा-रैनेर मरिया रिल्के

    मेरी आँखें निकाल दो
    फिर भी मैं तुम्हें देख लूँगा
    मेरे कानों में सीसा उड़ेल दो
    पर तुम्हारी आवाज़ मुझ तक पहुँचेगी

    पगहीन मैं तुम तक पहुँचकर रहूँगा
    वाणीहीन मैं तुम तक अपनी पुकार पहुँचा दूँगा
    तोड़ दो मेरे हाथ,
    पर तुम्हें मैं फिर भी घेर लूँगा और
    अपने हृदय से इस प्रकार पकड़ लूँगा
    जैसे उँगलियों से
    हृदय की गति रोक दो और मस्तिष्क धड़कने लगेगा
    और अगर मेरे मस्तिष्क को जलाकर खाक कर दो
    तब अपनी नसों में प्रवाहित रक्त की
    बूँदों पर मैं तुम्हें वहन करूँगा।

    11. मेरे बिना तुम प्रभु-रैनेर मरिया रिल्के

    जब मेरा अस्तित्व न रहेगा, प्रभु, तब तुम क्या करोगे?
    जब मैं– तुम्हारा जलपात्र, टूटकर बिखर जाऊँगा?
    जब मैं तुम्हारी मदिरा सूख जाऊँगा या स्वादहीन हो जाऊँगा?
    मैं तुम्हारा वेश हूँ, तुम्हारी वृत्ति हूँ
    मुझे खोकर तुम अपना अर्थ खो बैठोगे?
    मेरे बिना तुम गृहहीन निर्वासित होगे, स्वागत-विहीन
    मैं तुम्हारी पादुका हूँ, मेरे बिना तुम्हारे
    चरणों में छाले पड़ जाएँगे, वे भटकेंगे लहूलुहान!
    तुम्हारा शानदार लबादा गिर जायेगा
    तुम्हारी कृपादृष्टि जो कभी मेरे कपोलों की
    नर्म शय्या पर विश्राम करती थी
    निराश होकर वह सुख खोजेगी
    जो मैं उसे देता था–
    दूर चट्टानों की ठंडी गोद में
    सूर्यास्त के रंगों में घुलने का सुख
    प्रभु, प्रभु मुझे आशंका होती है
    मेरे बिना तुम क्या करोगे?

    0. वक्तव्य

    (प्रथम संस्करण से)
    प्रस्तुत संकलन में यूरोप और अमेरिका (उत्तर और दक्षिण) के इक्कीस देशों की एक सौ इकसठ कविताओं की हिन्दी छायाएँ प्रस्तुत हैं। ये कविताएँ केवल उन कवियों की हैं जो 20 वीं शताब्दी में प्रख्यात हुए। आज जिसे हम आधुनिक काव्यबोध कहते हैं, उसे निर्मित करने में इन सबका हाथ रहा है। संकलित कवियों में से कुछ अपनी भाषा के सर्वश्रेष्ठ आधुनिक कवि माने जाते हैं, कुछ को लेकर काफ़ी वाद-विवाद चलता रहा है, कुछ में सम्भावनाएँ हैं और अभी वे पूर्णतः प्रतिष्ठित नहीं हो पाये और कुछ की सम्भावनाएँ उनकी असमय मृत्यु के कारण पूर्णतया विकसित नहीं हो पायीं। कुछ कवि ऐसे भी हैं जो अपेक्षाकृत अल्पख्यात हैं किन्तु उनकी कतिपय कृतियाँ आधुनिक भावभूमि के किसी विशेष क्षेत्र का उद्घाटन करती हैं अतः वे संकलनीय नहीं। कुछ महत्त्वपूर्ण कवि ऐसे भी हैं। जिनका अनुवाद करना सम्भव नहीं प्रतीत हो सका, अतः उनकी कृतियाँ सम्मिलित नहीं की जा सकीं। यह संकलन समूचे आधुनिक काव्य का सर्वांग-सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व करता है, यह मेरा दावा क़तई नहीं है। यह केवल उसकी वैविध्य की बानगी प्रस्तुत करता है।
    यों तो जब कभी दो सांस्कृतिक धाराओं में परस्पर सम्मिलन हुआ है, अनुवाद बराबर आदान-प्रदान का एक उपयोगी माध्यम रहा है। लेकिन आधुनिक सन्दर्भ में नये कवि के लिए काव्य का अनुवाद एक दूसरा महत्त्व भी रखता है। क्या कारण है कि एज़रा पाउण्ड से बोरिस पास्तरनाक तक किन्हीं विशेष स्थितियों में अनुवाद कार्य की ओर झुकते दीख पड़ते हैं।
    इसका एक विशेष कारण है।
    मध्य युग में कवि-कर्म का एक आवश्यक और महत्त्वपूर्ण अंग था-गुरुशिष्य परम्परा। प्रत्येक उदीयमान कवि किसी रससिद्ध कवि को गुरु के रूप में स्वीकारता था जिसे इस्लाह (परामर्श) देने, शिष्य के लेखन में संशोधन (तकमीन) करने का पूरा अधिकार रहता था। इन परामर्शों के अनुसार कवि अभ्यास करता था और परिपक्वता और प्रौढ़ता तक पहुँचते-पहुँचते स्वयं अपनी निजी शैली को खोजता और प्रतिष्ठित करता था।
    आधुनिक कविता जिस क्रान्तिकारी भाव-भूमि में पनपी उसमें यह गुरु-निर्देशित अनुशासित अभ्यास की परम्परा न केवल अनावश्यक वरन् बाधक और हानिकार प्रतीत हुई और समाप्त हो गयी। यही नहीं वरन् काव्य-सम्प्रदाय जितनी तेज़ी से बदले उसमें गुरु शिष्य का तो प्रश्नदूर हर नयी पीढ़ी ने तो अनिवार्यतः अपने को पुरानी पीढ़ी से मनसा पृथक् पाया। ऐसी स्थिति में प्रत्येक नया कवि कबीर की भाषा में न केवल ‘निगुरा’ रहा वरन् काव्य के क्षेत्र में अपने निगुरेपन को गर्व की वस्तु मानता रहा।
    लेकिन ऊर्णनाभ की भाँति केवल अपने अन्दर से ही सारे अनुशासन बुन लेना, या तो मकड़ी ही के लिए सम्भव है या केवल ब्रह्म के लिए। प्रत्येक नये कवि को ( चाहे वह स्वीकार करे या न करे) निर्देश, अनुशासन और अभ्यास की आवश्यकता होती है और समय-समय पर वह इसे महसूस भी करता है। ऐसी अवस्था में अगर वह अपने तत्काल पूर्णवर्ती काव्य-सम्प्रदाय से निज को सहमत नहीं पाता तो उनसे भी और पहले के कवियों में अपनी प्रकृति के अनुकूल कवियों को चुनकर उनके काव्य का अवगाहन करता है, उनका अनुवाद कर अभ्यास करता है और इस तरह अपनी अभिव्यक्ति को समृद्ध बनाता है। यह उसी की रचना प्रक्रिया का एक आवश्यक अंग है। मसलन रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा पहले ब्रजबूलि के कवियों और बाद में कबीर तथा बाउलों की खोज। कभी कभी इस खोज के लिए कवि देश-देशान्तर के काव्य की ओर निगाह दौड़ाता है और उसमें से अपनी प्रकृति के अनुकूल काव्य कृतियों को खोजता है : मसलन एज़रा पाउण्ड द्वारा चीनी कविताओं की खोज।
    किन्तु यहाँ पर एक बात कहना चाहूँगा। आधुनिक प्रकृति उतने निष्क्रिय समर्पण की नहीं है कि जिस क्षण ‘भई रे पूता गुरू सौं भेंट’ उसी क्षण अपना दायित्व समाप्त समझ ले। आधुनिक प्रकृति के अनुसार यह खोज उन अर्थों में अब गुरु की खोज न होकर एक सफल और समर्थ ‘समानधर्मा’ की खोज होती है। यह समानधर्मी कृतित्व खोजता है, वह एक कवि में मिले या कई कवियों में, एक भाषा में मिले या कई भाषाओं में, एक काव्यधारा में मिले या कई काव्यधाराओं में।
    जब कहीं किसी दूसरी भाषा में इस तरह के किसी कृतित्व की उपलब्धि नये कवि को होती है तो उसका सहज उत्साह उस कृतित्व को अपनी भाषा में पुनः प्रस्तुत करना चाहता है। उसको सहसा यह लगता है कि ‘अरे सचमुच बिलकुल यही बात तो वह कहना चाहता था पर कहने का इतना सटीक ढंग उसे नहीं आ पा रहा था।’ और वह काव्य-कृति स्वयं उसमें एक रचनात्मक उत्साह जगा देती है और अनुवाद उसी का परिणाम होता है। लेकिन यहीं पर एक कठिनाई भी आ खड़ी होती है। मूल कृति में और उसके अनुवाद के बीच में दीवारें बहुत बड़ी रहती हैं। पृथक् संस्कार, पृथक काव्य-रूढ़ियाँ पृथक् बिम्ब समूह। जोड़नेवाला तत्त्व बहुत क्षीण रहता है। और ऐसी स्थिति में सफल अनुवाद प्रस्तुत करें तो वह शाब्दिक अनुवाद नहीं हो पाता और शाब्दिक अनुवाद प्रस्तुत करें तो वह सफल नहीं हो पाता। और काव्य-कला ऐसी कला है जिसमें शब्द बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
    इस स्थिति को लक्षित कर एक अनुवादक ने कहा था कि ‘काव्यानुवाद की प्रकृति बिलकुल स्त्री-प्रकृति होती है। जितनी सुन्दर होगी उतनी ही अविश्वसनीय।’ स्त्री प्रकृति के बारे में तो इस कथन से पूर्णतया सहमत हूँ, पर अनुवादों के सम्बन्ध में मेरे ख़याल में एक बीच का रास्ता निकालने की गुंजायश है। मैंने भरसक कोशिश की है कि अनुवाद सुन्दर भी बनें और विश्वसनीय भी।
    इन अनुवादों को प्रस्तुत करते समय स्वयं इन महान् कवियों की वाणी में डूबने की जो सुखद अनुभूति मिली है, जिस प्रकार कभी-कभी मेरे अन्दर कहीं कुछ जो बन्द था खुलता हुआ लगा है, जिस प्रकार मुझे आत्मीयता और समानधर्मी तत्त्व मिले हैं उनके लिए मेरा मन आदर और आभार से नत है।
    इलाहाबाद
    16 जून, 1960
    धर्मवीर भारती