दोहे -अमीर खुसरो

    0
    186
    मुख पृष्ठ / साहित्यकोश / दोहे -अमीर खुसरो

    दोहे अमीर खुसरो
    Dohe Amir Khusro

    दोहे

    अपनी छवि बनाई के मैं तो पी के पास गई।
    जब छवि देखी पीहू की सो अपनी भूल गई।।

    अंगना तो परबत भयो, देहरी भई विदेस।
    जा बाबुल घर आपने, मैं चली पिया के देस।।

    आ साजन मोरे नयनन में, सो पलक ढाप तोहे दूँ।
    न मैं देखूँ और न को, न तोहे देखन दूँ।।

    उज्जवल बरन अधीन तन एक चित्त दो ध्यान।
    देखत में तो साधु है पर निपट पाप की खान।।

    खुसरवा दर इश्क बाजी कम जि हिन्दू जन माबाश।
    कज़ बराए मुर्दा मा सोज़द जान-ए-खेस रा।।

    खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय।
    पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।।

    खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार।
    जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।।

    खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय।
    वेद, कुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय।।

    खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूँ पी के संग।
    जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।।

    खुसरो मौला के रुठते, पीर के सरने जाय।
    कहे खुसरो पीर के रुठते, मौला नहिं होत सहाय।।

    खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
    तन मेरो मन पियो को, दोउ भए एक रंग।।

    खुसरो सरीर सराय है क्यों सोवे सुख चैन।
    कूच नगारा सांस का, बाजत है दिन रैन।।

    गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।
    चल खुसरो घर आपने, सांझ भयी चहु देस।।

    चकवा चकवी दो जने इन मत मारो कोय।
    ये मारे करतार के रैन बिछोया होय।।

    ताज़ी खूटा देस में कसबे पड़ी पुकार।
    दरवाजे देते रह गए निकल गए उस पार।।

    देख मैं अपने हाल को रोऊं, ज़ार-ओ-ज़ार।
    वै गुनवन्ता बहुत है, हम हैं औगुन हार।।

    नदी किनारे मैं खड़ी सो पानी झिलमिल होय।
    पी गोरी मैं साँवरी अब किस विध मिलना होय।।

    पहले तिय के हीय में, डगमत प्रेम उमंग।
    आगे बाती बरति है, पीछे जरत पतंग।।

    पंखा होकर मैं डुली, साती तेरा चाव।
    मुझ जलती का जनम गयो तेरे लेखन भाव।।

    बाबुल भेजी मुझ देन कौ तादाँ कौ फूल।
    हो छावंजा दहाजिया नाला हो मोल।।

    भाई रे मल्‍लाहो हम को पार उतार।
    हाथ को देऊंगी मुंदरी गले को देऊं हार।।

    रैन बिना जग दुखी और दुखी चन्द्र बिन रैन।
    तुम बिन साजन मैं दुखी और दुखी दरस बिन नैंन।।

    रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ।
    जिसके कपरे रंग दिए सो धन धन वाके भाग।।

    वो गए बालम वो गए नदिया पार।
    आपे पार उतर गए, हम तो रहे मझधार।।

    श्याम सेत गोरी लिए जनमत भई अनीत।
    एक पल में फिर जात है जोगी काके मीत।।

    संतों की निंदा करे, रखे पर नारी से हेत।
    वे नर ऐसे जाऐंगे, जैसे रणरेही का खेत।।

    साजन ये मत जानियो तोहे बिछड़त मोहे को चैन।
    दिया जलत है रात में और जिया जलत बिन रैन।।

    सेज सूनी देख के रोऊं दिन-रैन।
    पिया पिया कहती मैं पल भर सुख न चैन।।

    सौ नारें सौ सुख सेवैं कंता को गुल लार।
    मैं दुखियारी जनम की दुखी गई बहार।।