Hazar-Hazar Bahon Wali Nagarjun
अनुक्रम
- 1 Hazar-Hazar Bahon Wali Nagarjun
- 2 हज़ार-हज़ार बाहों वाली नागार्जुन
- 2.1 भारतीय जनकवि का प्रणाम
- 2.2 सच न बोलना
- 2.3 पुलिस अफ़सर
- 2.4 मैं कैसे अमरित बरसाऊँ
- 2.5 उनको प्रणाम
- 2.6 कल और आज
- 2.7 नया तरीका
- 2.8 चमत्कार
- 2.9 कर दो वमन !
- 2.10 बातें
- 2.11 बेतवा किनारे-1
- 2.12 बेतवा किनारे-2
- 2.13 अभी-अभी हटी है
- 2.14 हमने तो रगड़ा है
- 2.15 प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है
- 2.16 पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने
- 2.17 कल्पना के पुत्र हे भगवान
- 2.18 तिकड़म के ताऊ
- 2.19 पीपल के पीले पत्ते
- 2.20 करवटें लेंगे बूँदों के सपने
- 2.21 छेड़ो मत इनको !
- 2.22 वह तो था बीमार
- 2.23 नाहक ही डर गई, हुज़ूर
- 2.24 ख़ूब फँसे हैं नंदा जी
- 2.25 बाकी बच गया अण्डा
हज़ार-हज़ार बाहों वाली नागार्जुन
भारतीय जनकवि का प्रणाम
गोर्की मखीम!
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!
घुल चुकी है तुम्हारी आशीष
एशियाई माहौल में
दहक उठा है तभी तो इस तरह वियतनाम ।
अग्रज, तुम्हारी सौवीं वर्षगांठ पर
करता है भारतीय जनकवि तुमको प्रणाम ।
गोर्की मखीम!
विपक्षों के लेखे कुलिश-कठोर, भीम
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!
गोर्की मखीम!
दर-असल’सर्वहारा-गल्प’ का
तुम्हीं से हुआ था श्रीगणेश
निकला था वह आदि-काव्य
तुम्हारी ही लेखनी की नोंक से
जुझारू श्रमिकों के अभियान का…
देखे उसी बुढ़िया ने पहले-पहल
अपने आस-पास, नई पीढी के अन्दर
विश्व क्रान्ति,विश्व शान्ति, विश्व कल्याण ।
‘मां’ की प्रतिमा में तुम्ही ने तो भरे थे प्राण ।
गोर्की मखीम!
विपक्षों के लेखे कुलिश-कठोर, भीम
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!
गोर्की मखीम!
सच न बोलना
मलाबार के खेतिहरों को अन्न चाहिए खाने को,
डंडपाणि को लठ्ठ चाहिए बिगड़ी बात बनाने को!
जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बांस दिखा!
सभी कट गए सुना, देश को पुलिस रही सबक सिखा!
जन-गण-मन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्र तुम्हारी है
भूख-भूख चिल्लाने वाली अशुभ अमंगलकारी है!
बंद सेल, बेगूसराय में नौजवान दो भले मरे
जगह नहीं है जेलों में, यमराज तुम्हारी मदद करे।
ख्याल करो मत जनसाधारण की रोज़ी का, रोटी का,
फाड़-फाड़ कर गला, न कब से मना कर रहा अमरीका!
बापू की प्रतिमा के आगे शंख और घड़ियाल बजे!
भुखमरों के कंकालों पर रंग-बिरंगी साज़ सजे!
ज़मींदार है, साहुकार है, बनिया है, व्योपारी है,
अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है!
सब घुस आए भरा पड़ा है, भारतमाता का मंदिर
एक बार जो फिसले अगुआ, फिसल रहे हैं फिर-फिर-फिर!
छुट्टा घूमें डाकू गुंडे, छुट्टा घूमें हत्यारे,
देखो, हंटर भांज रहे हैं जस के तस ज़ालिम सारे!
जो कोई इनके खिलाफ़ अंगुली उठाएगा बोलेगा,
काल कोठरी में ही जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा!
माताओं पर, बहिनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं!
बच्चे, बूढ़े-बाप तक न छूटते, सताए जाते हैं!
मार-पीट है, लूट-पाट है, तहस-नहस बरबादी है,
ज़ोर-जुलम है, जेल-सेल है। वाह खूब आज़ादी है!
रोज़ी-रोटी, हक की बातें जो भी मुंह पर लाएगा,
कोई भी हो, निश्चय ही वह कम्युनिस्ट कहलाएगा!
नेहरू चाहे जिन्ना, उसको माफ़ करेंगे कभी नहीं,
जेलों में ही जगह मिलेगी, जाएगा वह जहां कहीं!
सपने में भी सच न बोलना, वर्ना पकड़े जाओगे,
भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुंचो, मेवा-मिसरी पाओगे!
माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजूर-किसानों का,
हम मर-भुक्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का!
पुलिस अफ़सर
जिनके बूटों से कीलित है, भारत माँ की छाती
जिनके दीपों में जलती है, तरुण आँत की बाती
ताज़ा मुंडों से करते हैं, जो पिशाच का पूजन
है अस जिनके कानों को, बच्चों का कल-कूजन
जिन्हें अँगूठा दिखा-दिखाकर, मौज मारते डाकू
हावी है जिनके पिस्तौलों पर, गुंडों के चाकू
चाँदी के जूते सहलाया करती, जिनकी नानी
पचा न पाए जो अब तक, नए हिंद का पानी
जिनको है मालूम ख़ूब, शासक जमात की पोल
मंत्री भी पीटा करते जिनकी ख़ूबी के ढोल
युग को समझ न पाते जिनके भूसा भरे दिमाग़
लगा रही जिनकी नादानी पानी में भी आग
पुलिस महकमे के वे हाक़िम, सुन लें मेरी बात
जनता ने हिटलर, मुसोलिनी तक को मारी लात
अजी, आपकी क्या बिसात है, क्या बूता है कहिए
सभ्य राष्ट्र की शिष्ट पुलिस है, तो विनम्र रहिए
वर्ना होश दुरुस्त करेगा, आया नया ज़माना
फटे न वर्दी, टोप न उतरे, प्राण न पड़े गँवाना
मैं कैसे अमरित बरसाऊँ
बजरंगी हूँ नहीं कि निज उर चीर तुम्हें दरसाऊँ !
रस-वस का लवलेश नहीं है, नाहक ही क्यों तरसाऊँ ?
सूख गया है हिया किसी को किस प्रकार सरसाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
नभ के तारे तोड़ किस तरह मैं महराब बनाऊँ ?
कैसे हाकिम और हकूमत की मै खैर मनाऊँ ?
अलंकार के चमत्कार मै किस प्रकार दिखलाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
गज की जैसी चाल , हरिन के नैन कहाँ से लाऊँ ?
बौर चूसती कोयल की मै बैन कहाँ से लाऊँ ?
झड़े जा रहे बाल , किस तरह जुल्फें मै दिखलाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
कहो कि कैसे झूठ बोलना सीखूँ और सिखलाऊँ ?
कहो कि अच्छा – ही – अच्छा सब कुछ कैसे दिखलाऊँ ?
कहो कि कैसे सरकंडे से स्वर्ण – किरण लिख लाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
कहो शंख के बदले कैसे घोंघा फूंक बजाऊँ ?
महंगा कपड़ा, कैसे मैं प्रियदर्शन साज सजाऊँ ?
बड़े – बड़े निर्लज्ज बन गए, मै क्यों आज लजाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
लखनऊ – दिल्ली जा – जा मै भी कहो कोच गरमाऊँ ?
गोल – मोल बातों से मै भी पब्लिक को भरमाऊँ ?
भूलूं क्या पिछली परतिज्ञा , उलटी गंग बहाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
चाँदी का हल , फार सोने का कैसे मैं जुतवाऊँ ?
इन होठों मे लोगों से कैसे रबड़ी पुतवाऊँ ?
घाघों से ही मै भी क्या अपनी कीमत कुतवाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
फूंक मारकर कागज़ पर मैं कैसे पेड़ उगाऊँ ?
पवन – पंख पर चढ़कर कैसे दरस – परस दे जाऊँ ?
किस प्रकार दिन – रैन राम धुन की ही बीन बजाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
दर्द बड़ा गहरा किस – किससे दिल का हाल बताऊँ ?
एक की न, दस की न , बीस की , सब की खैर मनाऊँ ?
देस – दसा कह – सुनकर ही दुःख बाँटू और बटाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
बकने दो , बकते हैं जो , उन को क्या मैं समझाऊँ ?
नहीं असंभव जो मैं उनकी समझ में कुछ न आऊँ ?
सिर के बल चलनेवालों को मैं क्या चाल सुझाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
जुल्मों के जो मैल निकाले , उनको शीश झुकाऊँ ?
जो खोजी गहरे भावों के , बलि – बलि उन पे जाऊँ !
मै बुद्धू , किस भांति किसी से बाजी बदूँ – बदाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
पंडित की मैं पूंछ , आज – कल कबित – कुठार कहाऊँ !
जालिम जोकों की जमात पर कस – कस लात जमाऊँ !
चिंतक चतुर चाचा लोगों को जा – जा निकट चिढाऊँ !
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
उनको प्रणाम
जो नहीं हो सके पूर्ण–काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम ।
कुछ कंठित औ’ कुछ लक्ष्य–भ्रष्ट
जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;
रण की समाप्ति के पहले ही
जो वीर रिक्त तूणीर हुए !
उनको प्रणाम !
जो छोटी–सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि–पार;
मन की मन में ही रही¸ स्वयं
हो गए उसी में निराकार !
उनको प्रणाम !
जो उच्च शिखर की ओर बढ़े
रह–रह नव–नव उत्साह भरे;
पर कुछ ने ले ली हिम–समाधि
कुछ असफल ही नीचे उतरे !
उनको प्रणाम !
एकाकी और अकिंचन हो
जो भू–परिक्रमा को निकले;
हो गए पंगु, प्रति–पद जिनके
इतने अदृष्ट के दाव चले !
उनको प्रणाम !
कृत–कृत नहीं जो हो पाए;
प्रत्युत फाँसी पर गए झूल
कुछ ही दिन बीते हैं¸ फिर भी
यह दुनिया जिनको गई भूल !
उनको प्रणाम !
थी उम्र साधना, पर जिनका
जीवन नाटक दु:खांत हुआ;
या जन्म–काल में सिंह लग्न
पर कुसमय ही देहांत हुआ !
उनको प्रणाम !
दृढ़ व्रत औ’ दुर्दम साहस के
जो उदाहरण थे मूर्ति–मंत ?
पर निरवधि बंदी जीवन ने
जिनकी धुन का कर दिया अंत !
उनको प्रणाम !
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर–चूर !
उनको प्रणाम !
कल और आज
अभी कल तक
गालियॉं देती तुम्हें
हताश खेतिहर,
अभी कल तक
धूल में नहाते थे
गोरैयों के झुंड,
अभी कल तक
पथराई हुई थी
धनहर खेतों की माटी,
अभी कल तक
धरती की कोख में
दुबके पेड़ थे मेंढक,
अभी कल तक
उदास और बदरंग था आसमान!
और आज
ऊपर-ही-ऊपर तन गए हैं
तम्हारे तंबू,
और आज
छमका रही है पावस रानी
बूँदा-बूँदियों की अपनी पायल,
और आज
चालू हो गई है
झींगुरो की शहनाई अविराम,
और आज
ज़ोरों से कूक पड़े
नाचते थिरकते मोर,
और आज
आ गई वापस जान
दूब की झुलसी शिराओं के अंदर,
और आज विदा हुआ चुपचाप ग्रीष्म
समेटकर अपने लाव-लश्कर।
नया तरीका
दो हज़ार मन गेहूँ आया दस गाँवों के नाम
राधे चक्कर लगा काटने, सुबह हो गई शाम
सौदा पटा बड़ी मुश्किल से, पिघले नेताराम
पूजा पाकर साध गये चुप्पी हाकिम-हुक्काम
भारत-सेवक जी को था अपनी सेवा से काम
खुला चोर-बाज़ार, बढ़ा चोकर-चूनी का दाम
भीतर झुरा गई ठठरी, बाहर झुलसी चाम
भूखी जनता की ख़ातिर आज़ादी हुई हराम
नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल
बैलों वाले पोस्टर साटे, चमक उठी दीवाल
नीचे से लेकर ऊपर तक समझ गया सब हाल
सरकारी गल्ला चुपके से भेज रहा नेपाल
अन्दर टंगे पडे हैं गांधी-तिलक-जवाहरलाल
चिकना तन, चिकना पहनावा, चिकने-चिकने गाल
चिकनी किस्मत, चिकना पेशा, मार रहा है माल
नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल
(१९५८)
चमत्कार
पेट-पेट में आग लगी है, घर-घर में है फाका
यह भी भारी चमत्कार है, काँग्रेसी महिमा का
सूखी आँतों की ऐंठन का, हमने सुना धमाका
यह भी भारी चमत्कार है, काँग्रेसी महिमा का
महज विधानसभा तक सीमित है, जनतंत्री ख़ाका
यह भी भारी चमत्कार है, काँग्रेसी महिमा का
तीन रात में तेरह जगहों पर, पड़ता है डाका
यह भी भरी चमत्कार है, काँग्रेसी महिमा का
कर दो वमन !
प्रभु तुम कर दो वमन !
होगा मेरी क्षुधा का शमन !!
स्वीकृति हो करुणामय,
अजीर्ण अन्न भोजी
अपंगो का नमन !
आते रहे यों ही यम की जम्हायियों के झोंके
होने न पाए हरा यह चमन
प्रभु तुम कर दो वमन !
मार दें भीतर का भाप
उमगती दूबों का आवागमन
बुझ जाए तुम्हारी आंतों की गैस से
हिंद की धरती का मन
प्रभु तुम कर दो वमन !
होगा मेरी क्षुधा का शमन !!
बातें
बातें–
हँसी में धुली हुईं
सौजन्य चंदन में बसी हुई
बातें–
चितवन में घुली हुईं
व्यंग्य-बंधन में कसी हुईं
बातें–
उसाँस में झुलसीं
रोष की आँच में तली हुईं
बातें–
चुहल में हुलसीं
नेह–साँचे में ढली हुईं
बातें–
विष की फुहार–सी
बातें–
अमृत की धार–सी
बातें–
मौत की काली डोर–सी
बातें–
जीवन की दूधिया हिलोर–सी
बातें–
अचूक वरदान–सी
बातें–
घृणित नाबदान–सी
बातें–
फलप्रसू, सुशोभन, फल–सी
बातें–
अमंगल विष–गर्भ शूल–सी
बातें–
क्य करूँ मैं इनका?
मान लूँ कैसे इन्हें तिनका?
बातें–
यही अपनी पूंजी¸ यही अपने औज़ार
यही अपने साधन¸ यही अपने हथियार
बातें–
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा
बना लूँ वाहन इन्हें घुटन का, घिन का?
क्या करूँ मैं इनका?
बातें–
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा
स्तुति करूँ रात की, जिक्र न करूँ दिन का?
क्या करूँ मैं इनका?
बेतवा किनारे-1
बदली के बाद खिल पड़ी धूप
बेतवा किनारे
सलोनी सर्दी का निखरा है रूप
बेतवा किनारे
रग-रग में धड़कन, वाणी है चूप
बेतवा किनारे
सब कुछ भरा-भरा, रंक है भूप
बेतवा किनारे
बदली के बाद खिल पड़ी धूप
बेतवा किनारे
(1979)
बेतवा किनारे-2
लहरों की थाप है
मन के मृदंग पर बेतवा-किनारे
गीतों में फुसफुस है
गीत के संग पर बेतवा-किनारे
क्या कहूँ, क्या कहूँ
पिकनिक के रंग पर बेतवा-किनारे
मालिश फ़िज़ूल है
पुलकित अंग-अंग पर बेतवा-किनारे
लहरों की थाप है
मन के मृदंग पर बेतवा-किनारे
(1979)
अभी-अभी हटी है
अभी-अभी हटी है
मुसीबत के काले बादलों की छाया
अभी-अभी आ गयी–
रिझाने, दमित इच्छाओं की रंगीन माया
लगता है कि अभी-अभी
ज़रा-सी गफ़लत में होगा चौपट किया-कराया
ठिकाने तलाश रही है चाटुकारों की भीड़
शंख फूँकने लगे नये-नये कुवलयापीड़
फिर से पहचान लो, वाद्यवृन्दों में पुरानी गमक और मीड़
दिखाई दे गये हैं गीध के शावकों को अपने नीड़
(1977 में रचित)
हमने तो रगड़ा है
तुमसे क्या झगड़ा है
हमने तो रगड़ा है–
इनको भी, उनको भी, उनको भी !
दोस्त है, दुश्मन है
ख़ास है, कामन है
छाँटो भी, मीजो भी, धुनको भी
लँगड़ा सवार क्या
बनना अचार क्या
सनको भी, अकड़ो भी, तुनको भी
चुप-चुप तो मौत है
पीप है, कठौत है
बमको भी, खाँसो भी, खुनको भी
तुमसे क्या झगड़ा है
हमने तो रगड़ा है
इनको भी, उनको भी, उनको भी !
(1978 में रचित)
प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है
नफ़रत की अपनी भट्ठी में
तुम्हें गलाने की कोशिश ही
मेरे अन्दर बार – बार ताकत भरती है
प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है अपने ऋषि का,
वियत्काण्ड के तरुण गुरिल्ले जो करते थे
मेरी प्रिया वही करती है…
नव – दुर्वासा, शबर – पुत्र मैं, शवर पितामह
सभी रसों को गला – गलाकर
अभिनव द्रव तैयार करूँगा
महासिद्ध मैं, मैं नागार्जुन
अष्ट धातुओं के चूरे की छाई में मैं फूँक भरूँगा
देखोगे, सौ बार मरूँगा
देखोगे, सौ बार जियूँगा
हिंसा मुझसे थर्राएगी
मैं तो उसका खून पियूँगा
प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है मेरे कवि का
जन – जन में जो ऊर्जा भर दे, उदगाता हूँ उस रवि का।
पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने
शुरू-शुरू कातिक में
निशा शेष ओस की बूँदियों से लदी है
अगहनी धान की दुद्धी मंजरियाँ
पाकर परस प्रभाती किरणों का
मुखर हो उठेगा इनका अभिराम रूप…
टहलने निकला हूँ, ‘परमान’ के किनारे-किनारे
बढ़ता जा रहा हूँ खेत की मेड़ों पर से, आगे
वापस मिला है अपना वह बचपन
कई युगों के बाद आज
करेगा मेरा स्वागत
शरद् का बाल रवि…
चमकता रहेगा घड़ी-आधी घड़ी
पूर्वांचल प्रवाही ‘परमान’ की
द्रुत-विलंबित लहरों पर
और मेरे ये अनावृत चरण युगल
करते रहेंगे चहल-क़दमी
सैकत पुलिन पर
छोड़ते जाएँगे सादी-हलकी छाप…
और फिर आएगी, हँसी, मुझे अपने आप पर
उतर पड़ूँगा तत्क्षण पंकिल कछार में
बुलाएँगे अपनी ओर भारी खुरों के निशान
झुक जाएगा यह मस्तक अनायास
दुधारू भैंसों की याद में…
यह लो, दूर कहीं शीशम की झुरमुट से
उड़ता आया है नीलकठं
गुज़र जाएगा ऊपर ही ऊपर
कहाँ जाकर बैठेगा?
इधर पीछे जवान पाकड़ की फुनगी पर?
या कि, उस बूढ़े पीपल की बदरंग डाल पर?
या कि, उड़ता ही जाएगा
पहुँचेगा विष्णुपुर के बीचोंबीच
मंदिर की अँगनई में मौलसिरी की
सघन पत्तियों वाली टहनियों की ओट में
हो जाएगा अदृश्य, करेगा वहीं आराम!
जाने भी दो,
आओ तुम मेरे साथ रत्नेश्वर
देखेंगे आज जी भरकर
उगते सूरज का अरूण-अरूण पूर्ण-बिम्ब
जाने कब से नहीं देखा था शिशु भास्कर
आओ रत्नेश्वर, कृतार्थ हों हमारे नेत्र!
देखना भई, जल्दी न करना
लौटना तो है ही
मगर यह कहाँ दिखता है रोज़-रोज़
सोते ही बिता देता हूँ शत-शत प्रभात
छूट-सा गया है जनपदों को स्पर्श
(हाय रे आंचलिक कथाकार!)
आज मगर उगते सूरज को
देर तक देखेंगे, जी भरकर देखेंगे
करेंगे अर्पित बहते जल का अर्घ
गुनगुनाएँगे गद्गद होकर-
‘ओं नमो भगवते भुवन-भास्कराय
ओं नमो ज्योतिरीश्वराय
ओं नमो सूर्याय सवित्रे…।’
देखना भई रत्नेश्वर, जल्दी न करना!
लौटेंगे इत्मीनान से
पछाड़ दिया है आज मेरे आस्तिक ने मेरे
नास्तिक को
साक्षी रहा तुम्हारे जैसा नौजवान ‘पोस्ट-ग्रेजुएट’
मेरे इस ‘डेविएशन’ का!
नहीं? मैं झूठ कहता हूँ!
मुकर जाऊँ शायद कभी…
कहाँ! मैंने तो कभी झुकाया नहीं था यह
मस्तक!
कहाँ! मैंने तो कभी दिया नहीं था अर्घ
सूर्य को!
तो तुम रत्नेश्वर, मुसकुरा भर देना मेरी
मिथ्या पर …
कल्पना के पुत्र हे भगवान
कल्पना के पुत्र हे भगवान
चाहिए मुझको नहीं वरदान
दे सको तो दो मुझे अभिशाप
प्रिय मुझे है जलन, प्रिय संताप
चाहिए मुझको नहीं यह शान्ति
चाहिये सन्देह, उलझन, भ्रान्ति
रहूँ मैं दिन-रात ही बेचैन
आग बरसाते रहें ये नैन
करूँ मैं उद्दण्डता के काम
लूँ न भ्रम से भी तुम्हारा नाम
करूँ जो कुछ, सो निडर, निश्शंक
हो नहीं यमदूत का आतंक
घोर अपराधी-सदृश हो नत बदन निर्वाक
बाप-दादों की तरह रगडूँ न मैं निज नाक –
मन्दिरों की देहली पर पकड़ दोनों कान
हे हमारी कल्पना के पुत्र, हे भगवान,
नदी कर ली पार, उसके बाद
नाव को लेता चलूँ क्यों पीठ पर मैं लाद
सामने फैला पड़ा शतरंज-सा संसार
स्वप्न में भी मैं न इसको समझता निस्सार
इसी में भव, इसी में निर्वाण
इसी में तन-मन, इसी में प्राण
यहीं जड़-जंगम सचेतन औ’ अचेतन जन्तु
यहीं ‘हाँ’, ‘ना’, ‘किन्तु’ और ‘परन्तु’
यहीं है सुख-दुःख का अवबोध
यहीं हर्ष-विषाद, चिन्ता-क्रोध
यहीं है सम्भावना, अनुमान
यहीं स्मृति-विस्मृति सभी का स्थान
छोड़कर इसको कहाँ निस्तार
छोड़कर इसको कहाँ उद्धार
स्वजन-परिजन, इष्ट-मित्र, पड़ोसियों की याद
रहे आती, तुम रहो यों ही वितण्डावाद
मूँद आँखें शून्य का ही करूँ मैं तो ध्यान ?
कल्पना के पुत्र हे भगवान !
(1946)
तिकड़म के ताऊ
नये पुराने लेखों के संकलन छपाना।
आप लगाना फेरी खा खा उन्हें छपाना।
पास मिलेगा अब पहले दर्जे का तुमको
पार्ल में रहो सूंघते नील कुसुम को
नेहरु छींके, मौलाना को हो खुजलाहट
मिल जायेगी तुमको घर बैठे ही आहट।
(अधूरी रचना)
पीपल के पीले पत्ते
खड़-खड़ खड़ करने वाले
ओ पीपल के पीले पत्ते
अब न तुम्हारा रहा ज़माना
शक्ल पुरानी ढंग पुराना
आज गिरो कल गिरो कि परसों
तुमको तो अब गिरना ही है
बदल गई ऋतु राह देखती लाल लाल पत्तों की दुनियाँ
हरे-हरे कुछ भूरे-भूरे टूसों से लद रही टहनियाँ
इनका स्वागत करते जाओ
पतझड़ आया झरते जाओ
ओ पीपल के पीले पत्ते
छलक रहा इसमें जीवन रस
दौड रही इनपे लाली
बुनने लगे आँख खुलते ही
ये स्वर्णिम स्वप्नों की जाली
यह इनका युग ,ये इनके दिन
रहे अंत की घड़ियाँ तुम गिन
हट जाओ ,इनको अवसर दो
छोटे है बढ़ने का वर दो
पूर्ण हो रही आयु तुम्हारी
तुम हल्के इनका दिल भारी
राह रोक कर खड़े न होना
झूठ-मुठ के बड़े न होना
सारा श्रेय तुम्हें ही देंगें
अपने पूर्वज की उदारता
जीवन भर याद रखेंगें
ओ पीपल के पीले पत्ते !
करवटें लेंगे बूँदों के सपने
अभी-अभी
कोहरा चीरकर चमकेगा सूरज
चमक उठेंगी ठूँठ की नंगी-भूरी डालें
अभी-अभी
थिरकेगी पछिया बयार
झरने लग जायेंगे नीम के पीले पत्ते
अभी-अभी
खिलखिलाकर हँस पड़ेगा कचनार
गुदगुदा उठेगा उसकी अगवानी में
अमलतास की टहनियों का पोर-पोर
अभी-अभी
करवटें लेंगे बूँदों के सपने
फूलों के अन्दर
फलों-फलियों के अन्दर
(1964)
छेड़ो मत इनको !
जाने कहाँ-कहाँ का चक्कर लगाया होगा !
छेड़ो मत इनको
बाहर निकालने दो इन्हें अपनी उपलब्धियाँ
भरने दो मधुकोष
छेड़ो मत इनको
बड़ा ही तुनुक है मिज़ाज
रंज हुईं तो काट खाएँगी तुमको
छोड़ दो इनको, करने दो अपना अकाम
छेड़ो मत इनको
रचने दो मधुछत्र
जमा हो ढेर-ढेर-सा शहद
भरेंगे मधुभाँड ग़रीब बनजारे के
आख़िर तुम तक तो पहुँचेगा ही शहद
मगर अभी छेड़ो मत इनको !
नादान होंगे वे
उनकी न बात करो
मारते हैं शहद के छत्तों पे कंकड़
छेड़ते हैं मधु-मक्खियों को नाहक
उनकी न बात करो, नादान होंगे वे
कच्ची होगी उम्र, कच्चे तजरबे
डाँट देना उन्हें, छेड़खानी करें अगर वे
तुम तो सयाने हो न ?
धीरज से काम लो
छेड़ो मत इनको
करने दो जमा शहद
भरने दो मधुकोष
रचने दो रस-चक्र
छेड़ो मत इनको !
वह तो था बीमार
मरो भूख से, फौरन आ धमकेगा थानेदार
लिखवा लेगा घरवालों से- ‘वह तो था बीमार’
अगर भूख की बातों से तुम कर न सके इंकार
फिर तो खायेंगे घरवाले हाकिम की फटकार
ले भागेगी जीप लाश को सात समुन्दर पार
अंग-अंग की चीर-फाड़ होगी फिर बारंबार
मरी भूख को मारेंगे फिर सर्जन के औजार
जो चाहेगी लिखवा लेगी डाक्टर से सरकार
जिलाधीश ही कहलायेंगे करुणा के अवतार
अंदर से धिक्कार उठेगी, बाहर से हुंकार
मंत्री लेकिन सुना करेंगे अपनी जय-जयकार
सौ का खाना खायेंगे, पर लेंगे नहीं डकार
मरो भूख से, फौरन आ धमकेगा थानेदार
लिखवा लेगा घरवालों से- ‘वह तो था बीमार’
(1955)
नाहक ही डर गई, हुज़ूर
भुक्खड़ के हाथों में यह बन्दूक कहाँ से आई
एस० डी० ओ० की गुड़िया बीबी सपने में घिघियाई
बच्चे जागे, नौकर जागा, आया आई पास
साहेब थे बाहर, घर में बीमार पड़ी थी सास
नौकर ने समझाया, नाहक ही दर गई हुज़ूर !
वह अकाल वाला थाना, पड़ता है काफ़ी दूर !
ख़ूब फँसे हैं नंदा जी
डाल दिया है जाने किसने फंदा जी !
कैसे हज़म करेगा लीडर लाख-लाख का चंदा जी ?
कैसे चमकेगा सेठों का दया-धरम का धंधा जी ?
कैसे तुक जोड़ेगा फिर तो मेरे जैसा बंदा जी ?
रेट बढ़ गया घोटाले का, सदाचार है मंदा जी !
कौन नहीं है भ्रष्टाचारी, कौन नहीं है गंदा जी ?
बुरे फँसे हैं नंदा जी !
डाल दिया है जाने किसने फंदा जी !
बाकी बच गया अण्डा
पाँच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूँखार
गोली खाकर एक मर गया, बाक़ी रह गए चार
चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन
देश-निकाला मिला एक को, बाक़ी रह गए तीन
तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो
अलग हो गया उधर एक, अब बाक़ी बच गए दो
दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक
चिपक गया है एक गद्दी से, बाक़ी बच गया एक
एक पूत भारतमाता का, कन्धे पर है झण्डा
पुलिस पकड कर जेल ले गई, बाकी बच गया अण्डा
रचनाकाल : 1950