इन दिनों कुँवर नारायण
नदी के किनारे
हाथ मिलाते ही
झुलस गई थीं उँगलियाँ
मैंने पूछा, “कौन हो तुम ?”
उसने लिपटते हुए कहा, “आग !”
मैंने साहस किया-
खेलूँगा आग से
धूप में जगमगाती हैं चीज़ें
धूप में सबसे कम दिखती है
चिराग़ की लौ।
कभी-कभी डर जाता हूँ
अपनी ही आग से
जैसे डर बाहर नहीं
अपने ही अन्दर हो।
आग में पकती रोटियाँ
आग में पकते मिट्टी के खिलौने।
आग का वादा-फिर मिलेंगे
नदी के किनारे।
हर शाम
इन्तजार करती है आग
नदी के किनारे।
एक अजीब-सी मुश्किल
एक अजीब-सी मुश्किल में हूँ इन दिनों-
मेरी भरपूर नफरत कर सकने की ताक़त
दिनोंदिन क्षीण पड़ती जा रही
अंग्रेजों से नफरत करना चाहता
जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया
तो शेक्सपीयर आड़े आ जाते
जिनके मुझ पर न जाने कितने एहसान हैं।
मुसलमानों से नफ़रत करने चलता
तो सामने ग़ालिब आकर खड़े हो जाते।
अब आप ही बताइए किसी की कुछ चलती है
उनके सामने ?
सिखों से नफ़रत करना चाहता
तो गुरुनानक आँखों में छा जाते
और सिर अपने आप झुक जाता
और ये कंबन, त्यागराज, मुत्तुस्वामी…
लाख समझाता अपने को
कि वे मेरे नहीं
दूर कहीं दक्षिण के हैं
पर मन है कि मानता ही नहीं
बिना इन्हें अपनाए
और वह प्रेमिका
जिससे मुझे पहला धोखा हुआ था
मिल जाए तो उसका खून कर दूँ!
मिलती भी है, मगर
कभी मित्र
कभी माँ
कभी बहन की तरह
तो प्यार का घूँट पीकर रह जाता।
हर समय
पागलों की तरह भटकता रहता
कि कहीं कोई ऐसा मिल जाए
जिससे भरपूर नफ़रत करके
अपना जी हलका कर लूँ।
पर होता है इसका ठीक उलटा
कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी
ऐसा मिल जाता
जिससे प्यार किए बिना रह ही नहीं पाता।
दिनोंदिन मेरा यह प्रेम-रोग बढ़ता ही जा रहा
और इस वहम ने पक्की जड़ पकड़ ली है
कि वह किसी दिन मुझे
स्वर्ग दिखाकर ही रहेगा।
(यह कविता पहले प्रेम-रोग’ शीर्षक से छपी थी)
बाज़ारों की तरफ़ भी
आजकल अपना ज़्यादा समय
अपने ही साथ बिताता हूँ।
ऐसा नहीं कि उस समय भी
दूसरे नहीं होते मेरे साथ
मेरी यादों में
या मेरी चिन्ताओं में
या मेरे सपनों में
वे आमन्त्रित होते हैं
इसलिए अधिक प्रिय
और अत्यधिक अपने
वे जब तक मैं चाहूँ साथ रहते
और मुझे अनमना देखकर
चुपचाप कहीं और चले जाते।
कभी-कभी टहलते हुए निकल जाता हूँ
बाज़ारों की तरफ़ भी :
नहीं, कुछ खरीदने के लिए नहीं,
सिर्फ़ देखने के लिए कि इन दिनों
क्या बिक रहा है किस दाम
फ़ैशन में क्या है आजकल
वैसे सच तो यह है कि मेरे लिए
बाज़ार एक ऐसी जगह है
जहाँ मैंने हमेशा पाया है
एक ऐसा अकेलापन जैसा मुझे
बड़े-बड़े जंगलों में भी नहीं मिला,
और एक खुशी
कुछ-कुछ सुकरात की तरह
कि इतनी ढेर-सी चीज़ें
जिनकी मुझे कोई ज़रूरत नहीं !
अपठनीय
घसीट में लिखे गए
जिन्दगी के अन्तिम बयान पर
थरथराते हस्ताक्षर
इतने अस्पष्ट
कि अपठनीय
प्रेम-प्रसंग
बचपन से बुढ़ापे तक
इतने पर्दों की पर्तों में लिपटे
कि अपठनीय
सच्चाई
विज्ञापनों के फुटनोटों में
इतनी बारीक़ और धूर्त भाषा में छपी
कि अपठनीय
सियासती मुआमलों के हवाले
ऐसे मकड़जाले
कि अपठनीय
अख़बार
वही ख़बरें बार-बार
छापों पर इतनी छापें
सबूत की इतनी गलतियाँ
भूल-सुधार इतने संदिग्ध
कि अपठनीय
हर एक के अपने-अपने ईमान धरम
इतने पारदर्शी
कि अपठनीय
जीवन-वस्तु जितनी ही भाषा-चुस्त
उतनी ही तरफ़ों से इतनी एक-तरफ़ा
कि अपठनीय
सुई की नोंक बराबर धरती पर लिखा
भगवद्गीता का पाठ
इतना विराट
कि अपठनीय
और अब
जबकि जाने की हड़बड़ी
आने-जाने के टाइम-टेबिल में ऐसी गड़बड़ी
कि छूटने का वक़्त
और पहुँचने की जगह
दोनों अपठनीय
आजकल कबीरदास
आजकल
मगहर में रहते हैं कबीरदास।
कहाँ है मगहर ?
उत्तर प्रदेश में छोटा-सा गाँव
न जाने किस समय में
ठहरी हुई ज़रा-सी जगह में
कुटिया डाल, करते अज्ञातवास
जीते एक निर्वासित जीवन
आजकल कबीरदास
यदा-कदा दिख जाते फ़क़ीरों के भेस में
कभी अनमने-से साहित्य-समाज में
सब कहते-
सह नहीं सके जब
जग की उलटबाँसी,
छोड़ दिया कासी
आजकल कम ही लौटते हैं वे
अपने मध्यकाल में,
रहते हैं त्रिकाल में।
एक दिन दिख गए मुझको
फ़िलहाल में
पूछ बैठा
फक््कड़-से दिखते एक व्यक्ति से
“आप श्री दास तो नहीं,
अनन्त के रिश्तेदार ?”
अक्खड़ खड़ी बोली में बोले-
“कोई फ़र्क़ नहीं इसमें
कि मैं ‘दास’ हूँ या ‘प्रसाद’
“नाथ! हूँ या ‘दीन!
‘गुप्त’ हूँ या “नारायण’
या केवल एक समुदाय, हिन्दू या मुसलमान,
या मनुष्य की सामूहिक पहचान
ईश्वर-और-अल्लाह,
या केवल एक शब्द में रमण करता
पूरा ब्रह्मांड,
या सारे शब्दों से परे एक रहस्य”
स्पष्ट था कि पहचान का ही नहीं
भाषा का भी संकट था इस समय
जैसे मेरे और उनके समय को लेकर
उनका अद्वैत भाव-
“कौन कह सकता है कि जिसे
हम जी रहे आज
वह कल की मृत्यु नहीं,
और जिसे हम जी चुके कल
वह कल का भविष्य नहीं ?”
उनकी वाणी में एक राज़ था
जैसे उनकी चुप्पी में।
“अनन्त से मेरा कोई नज़दीकी रिश्ता नहीं,
वह केवल एक नाम है
जिससे मैं उसे पुकारता हूँ कभी-कभी
पर जो उसकी पहचान नहीं।
वैसे भी, रिश्तों को नाम देना
बिलकुल फ़र्ज़ी है,
होशियारी ज़रूरी है नामों को लेकर,
लोग लड़ते-मरते हैं
जिन नामों को लेकर
झूठे पड़ जाते वे देखते-देखते,
लाशों में बदल जाते
फूलों के ढेर,
करुणा और सुन्दरता का अनाम भाव
स्वाहा हो जाता है
नामों की जात-पाँत के धधकते पड़ोस में।”
एक दिन मिल गए मुझे
लोदी बाग़ के एक शानदार मक़बरे में।
ज़मीन पर पड़े एक बेताज सिकन्दर को देखकर बोले-
“नापसन्द था मुझे
सत्ता के दरबारों में सिर झुकाना।
जंज़ीरों की तरह लगते थे मुझे
दरबारी कपड़े
जिनमें अपने को जकड़े
पेश होना पड़े किसी को भी
भरे दरबार में
खुद को एक क़ैदी की तरह पकड़े,
चेहरे पर कसे मुखौटे की पाबन्दी को
उतारकर बेचेहरा होते हुए
चाहिए एक ऐसी मुक्ति
जिसमें न प्रसन्नता हो, न उदासी
न किसी का प्रभाव हो, न दबाव
केवल एक दार्शनिक हो अपना सद्भाव
सबके बीच लेकिन सबसे
थोड़ा हटकर भी”
देखकर अपना ज़माना
यक़ीन नहीं होता कि अब बीत गया
उनका ज़माना,
कि अब वे कहीं नहीं,
न् काशी में, न मगहर में
कि अब वे केवल इसे जानने में हैं
कि वस्तुगत होकर देखना
वस्तुवत् होकर देखना है,
सही को जानना
सही हो जाना है,
उनका हर शब्द एक ज़रूरी भेद करता
दृष्टि और दृष्टि-दोष में
स्थूल की सीमाओं के षड्यन्त्र में
कौन रहता है आशंकित हर घड़ी
कि अब ज़्यादा देर नहीं उसकी हत्या में,
कि वे ही उसे मारेंगे
जिन्हें उसने बेहद प्यार दिया
वे हत्यारे नहीं
अज्ञानी हैं
जो उसे बार-बार मृत्युदंड देते
उसे सूली पर चढ़ाते
उसकी अपनी ही हत्या के जुर्म में।
कौन आश्वस्त है फिर भी
कि वह मरेगा नहीं,
मर सकती है वह दुनिया
जिस पर होते रहते अत्याचार।
आज भी यक़ीन नहीं होता
कि वह जीवनद्रोही नहीं
एक सच्चा गवाह था जीवन का
जिसने जाते-जाते कहा था-
कहाँ जाऊँगा छोड़कर
इतनी बड़ी दुनिया को
जो मेरे ही अन्दर बसी है
हज़ारों वर्षों से
यहीं रहूँगा-
इसी मिट्टी में मिलूँगा
इसी पानी में बहूँगा
इसी हवा में साँस लूँगा
इसी आग से खेलूँगा
इन्हीं क्षितिजों पर होता रहूँगा
उदय-अस्त,
इसी शून्य में दिखूँगा खोजने पर
अनर्गल वस्तुओं
और आत्मरत दुनिया से विमुख
एक निरुद्वेल में
लिखकर एक अमिट हत्ताक्षर-प्रेम
उसने एक गहरी साँस ली
और भाप बनकर छिप गया
फिर एक बार बादलों के साथ
बेहद में।
जख़्म
इन गलियों से
बेदाग़ गुज़र जाता तो अच्छा था
और अगर
दाग़ ही लगना था तो फिर
कपड़ों पर मासूम रक्त के छींटे नहीं
आत्मा पर
किसी बहुत बड़े प्यार का जख़्म होता
जो कभी न भरता
शहर और आदमी
अपने ख़ूँख़्वार जबड़ों में
दबोचकर आदमी को
उस पर बैठ गया है
एक दैत्य-शहर
सवाल अब आदमी की ही नहीं
शहर की ज़िन्दगी का भी है
उसने बुरी तरह
चीर-फाड़ डाला है मनुष्य को
लेकिन शहर भी अब
एक बिल्कुल फर्क तरह के
मानव-रक्त से
प्रभावित हो चुका है
अक्सर उसे भी
एक वीमार आदमी की तरह
दर्द से कराहते हुए सुना गया है।
नींव के पत्थर
कभी-कभी विद्रोह करते हैं पत्थर
और फूटने लगते हमारे सिर
वे चीख़ते-मुक्त करो हमें
अपने खोलले प्रतीकों से,
अपनी कीर्ति के अरमानों से,
अपने मन्दिरों-मस्जिदों और गुरुद्वारों से
तुम्हारी सदियों पुरानी स्थापनाएँ
बिल्कुल निष्प्राण
उनकी बुनियाद से हिलना चाहते
हम पाषाण
उनकी जड़ों से खुलकर
चिड़ियों की तरह उड़ना चाहते
खुले आकाश में,
घिरना चाहते जैसे कपूरी बादल
और रखना चाहते पृथ्वी की हथेली पर
अपना माथा जैसे वर्षा का आशीर्वाद।
हम चाहते कि अंधेरी तहों से निकल कर
आँधियों की तरह साँस लें एक बार
और लौट जाएँ बर्फ से ढंकी
अपनी पर्वतीय ऊँचाइयों पर
रेत बनकर बहें
सागर की ओर झपटती नदियों में,
जीवन बनकर चमकें
प्रकृति की हरियाली में
आपस में जुड़े
जब खुलकर झगड़ते हैं नींव के पत्थर
लड़खड़ाकर ढहने लगते
हमारे ही ऊपर
हमारी सभ्यताओं के शिखर।
जिसे बहुत पहले आना था
न जाने कब से बन्द
एक दिन इस तरह खुला घर का दरवाज़ा
जैसे गर्द से ढंकी
एक पुरानी किताब
प्रवेश किया घर में
जैसे अपने पन्नों में लौटी हो
एक कहानी अपने नायक के साथ
छानकर दुनिया भर की ख़ाक
घर की दीवारों को दी नई व्यवस्था
इससे शायद बदले कुछ
हमारी कहानी
या कहानियाँ कहने का अन्दाज़
सोचते-सोचते सो गया था एक गहरी नींद
जैसे अब सुबह न होगी
कि एक आहट से खुल गई आँखें,
जैसे वही हो दरवाज़े पर
बरसों बाद
जिसे बहुत पहले आना था।
एक जले हुए मकान के सामने
शायद वह जीवित है अभी, मैंने सोचा।
उसने इन्कार किया-
मेरा तो कत्ल हो चुका है कभी का !
साफ़ दिखाई दे रहे थे
उसकी खुली छाती पर
गोलियों के निशान।
तब भी-उसने कहा-
ऐसे ही लोग थे, ऐसे ही शहर,
रुकते ही नहीं किसी तरह
मेरी हत्याओं के सिलसिले।
जीते जी देख रहा हूँ एक दिन
एक आदमी को अनुपस्थित-
सुबह-सुबह निकल गया है वह
टहलने अपने बिना
लौटकर लिख रहा है
अपने पर एक कविता अपने बरसों बाद
रोज़ पढ़ता है अख़बारों में
कि अब वह नहीं रहा
अपनी शोक-सभाओं में खड़ा है वह
आँखें बन्द किए-दो मिनटों का मौन।
भूल गया है रास्ता
किसी ऐसे शहर में
जो सैकड़ों साल पहले था।
दरअसल कहीं नहीं है वह
फिर भी लगता है कि हर जगह वही है
नया-सा लगता कोई बहुत पुराना आदमी
किसी गुमनाम गली में
एक जले हुए मकान के सामने
खड़ा हैरान
कि क्या यही है उसका हिन्दुस्तान ?
सोच में पड़ गया है वह
इतनी बड़ी रोशनी का गोला
जो रोज़ निकलता था पूरब से
क्या उसे भी लील गया कोई अँधेरा ?
कुतुब का परिसर
वैसे तो बिल्कुल स्पष्ट और क्रमानुसार थीं
सारी बातें मेरे दिमाग़ में
कि हर शहर की होती हैं
अपनी प्राचीनताएँ और आधुनिकताएँ
अपने चौक-चौराहे आमोख़ास सड़कें
लड़कियाँ और लड़के
नदी पुल बाग़ बगीचे
दिक़्क़तें और सुविधाएँ
सामान्यताएँ और विशेषताएँ
उसके क़िले महल
अजायबधर कलाभवन प्रेक्षालय
उसके लेखकों कलाकारों महानायकों
और शहीदों की अमरकथाएँ
उनके महाकाव्य, फ़ौजें, जहाजी और हवाई बेड़े।
बिल्कुल साफ़ था मेरे दिमाग़ में
हर शहर के भूगोल और इतिहास का नक़्शा
कि एक दिन
लखनऊ या शायद क्राकाउ के चिड़ियाघर में
घूमते हुए घूमने लगा मेरे दिमाग़ में
पूरी दुनिया का नक़्शा
और आदमी का पूरा इतिहास…
किस समय में हूँ ?
कहाँ से आया हूँ ? किस शहर में हूँ ?
काफ़्का के प्राहा में
22 नम्बर “स्वर्ण-गली” के एक छोटे-से कमरे में ?
या वेनिस की गलियों में ?
या बललीमारान में ?
हैब्सबर्ग्ज़ के भव्य महलों में हूँ ?
या वावेल-दुर्ग में ? या लाल क़िले के दीवाने-ख़ास में ?
वापस लौटा तो देखा
हुमायूँ के मकबरे या शायद कुतुब के परिसर में खड़ी
अभीर खुसरो की एक नयी पहेली
जोड़ रही थी
कलाओं की वंशावली में एक और कड़ी।
काफ़्का के प्राहा में
एक उपस्थिति से कहीं ज़्यादा उपस्थित
हो सकती है कभी-कभी उसकी अनुपस्थिति
एक वर्तमान से ज़्यादा जानदार
और शानदार हो सकता है उसका अतीत
एक शहर की व्यस्त दैनन्दिनी से
अधिक पठनीय हो सकते हैं
उसकी डायरी के पुराने पन्ने
एक अपरिचित भीड़ में भटकने से
ज़्यादा रोमांचक हो सकती है
उसकी प्राचीनताओं में बसी
सदियों पुरानी आत्माओं की आवभगत
बाज़ार की चौंधिया देनेवाली जगमगाहट के बीच
अचानक संगीत की एक उदास ध्वनि में
हम पा सकते हैं
उसके वैभव की एक ज़्यादा सच्ची पहचान
कभी-कभी एक ज़िन्दगी से
ज़्यादा अर्थपूर्ण हो सकती हैं
उस पर टिप्पणियाँ
एक प्रेम से ज़्यादा मधुर हो सकती हैं
उसकी स्मृतियाँ
एक पूरी सभ्यता की वीरगाथाओं से
कहीं अधिक सारगर्भित हो सकती है
एक स्मारक की संक्षिप्त भाषा।
क्राकाउ के चिड़ियाघर में अकेला हाथी
वैसे तो वह एक शानदार
विदेशी चिड़ियाघर में रहता है
लेकिन बिल्कुल अकेला हो गया है इन दिनों
जब से उसकी हथिनी नहीं रही
दिन-दिन भर चक्कर लगाता रहता
पागलों की तरह अपने बाड़े में…
उत्सुकता होती कि जानूं
क्या कुछ चल रहा है उसके अन्दर-अन्दर।
उसकी गीली आँखों से लगता
कि वह एक कवि है,
सूंड से लगता कि वैज्ञानिक है,
माथे से लगता कि विचारक है,
कानों से लगता कि ज्ञानी है…
इतना ही होता
तो वह लिपिक होता महाभारत का…
लेकिन एक उदासी में डूबा
कितना मनुष्य लगता है
एक हाथी भी…
सबीना
मैं नहीं जानता उसका अतीत
उसका राष्ट्र
नहीं जानता कब हुआ उसका जन्म
कब हुई वह जवान
कब होगी बूढ़ी
कब होगा उसका अन्त…
उसके कमरे की खिड़की से दिखता है केवल
दूर-दूर तक फैला उसका वर्तमान
हर समय झिलमिलाती एक उज्ज्वल सतह :
वह एक झील है
पहाड़ों से घिरी
उसकी आँखें आसमानी
उसका नाम है सबीना…
+++
बिल्कुल अपने ढंग की
अकेली है वह-
जैसे झील के बीच
सन्त पावलो का द्वीप,
जैसे पहाड़ की चोटी पर
चेरियोला का गिरजाघर,
पहाड़ों की गागर में
एक छोटा-सा सागर-
मृत्यु की तरह पुरातन
जीवन की तरह सनातन,
एक अपराजित साहस है वह :
लिखते नहीं बनती जो
ऐसी एक कविता का
शीर्षक है सबीना…
+++
सात समुद्र पार से
आती है उड़ कर
प्रतिवर्ष भारत में
एक घूमन्तू चिड़िया :
बैठ जाती है किसी भी डाल पर
और उसे ही मान लेती है अपना घर :
उड़ती फिरती
दिखायी देती है कुछ दिन-
चहकती बोलती
सुनायी देती है कुछ दिन-
फिर लौट जाती है एक दिन
अपनी झील के किनारे…
हमारे देश की एक ऋतु
एक बोली है सबीना!
दुनिया की चिन्ता
छोटी सी दुनिया
बड़े-बड़े इलाके
हर इलाके के
बड़े-बड़े लड़ाके
हर लड़ाके की
बड़ी-बड़ी बन्दूकें
हर बन्दूक के बड़े-बड़े धड़ाके
सबको दुनिया की चिन्ता
सबसे दुनिया को चिन्ता ।
एक ही छलांग में
कभी नहीं आया उसे संभल कर जीना
ज़रूरतों के मुताबिक
नपे तुले सावधान क़दमों से चलता
तो बहुत कुछ पा सकता था
छोटे-छोटे मन्सूबों से
लेकिन कल्पना की तो ऐसी
कि एक ही छलांग में
छोटी पड़ गई दुनिया
पीछे मुड़ कर देखता
ऐसी तो बड़ी भी न थी कोई छलांग
जितनी छोटी पड़ गई दुनिया!
कविता के बहाने
कविता एक उड़ान है चिड़िया के बहाने
कविता की उड़ान भला चिड़िया क्या जाने!
बाहर भीतर
इस घर, उस घर
कविता के पंख लगा उड़ने के माने
चिड़िया क्या जाने?
कविता एक खिलना है फूलों के बहाने
कविता का खिलना भला फूल क्या जाने!
बाहर भीतर
इस घर, उस घर
बिना मुरझाए महकने के माने
फूल क्या जाने?
कविता एक खेल है बच्चों के बहाने
बाहर भीतर
यह घर वह घर
सब घर एक कर देने के माने
बच्चा ही जाने।
पानी की प्यास
धरती में प्रवेश करती
पानी की प्यास
पाना चाहती जिस गहराई को
वह पहुँच से दूर थी,
वहाँ से फिर ऊपर उठ कर
आकाश हो जाने की सम्भावना
अभी ओझल थी।
कई तहों को पार करती
एक पारदर्शी तरलता को
मिट्टी के रन्ध्र
धीरे धीरे सोख रहे थे।
देवदार की जड़ों से
अभी और बहुत नीचे तक जाना था पानी को
कि सहता खिंच कर
उसकी जड़ों में समा गया वह
और तेजी से ऊपर उठने लगा :
जिस शिखर तक पहुँचा
वह बेशक बादलों को छू रहा था
पर था वह अब भी
एक वृक्ष का ही शरीर-
वही मरमर
वही हवा में सांस लेने का स्वर
चिड़ियों का घर
वही बसन्त, वही वर्षा वही पतझर…
नहीं-उसने सोचा-फिर नहीं लोटना है उसे
धूल में
झरते फूल पत्तों के संग!
उसने एक लम्बी सांस ली हवा में
और बादलों के साथ हो लिया।
अद्भुत था पृथ्वी का दृश्य
उस ऊँचाई से
अपनी ओर खींचता
उसका प्रबल आकर्षण,
उसकी सोंधी उसांस…
वही था इस रोमांच का
सब से नाजुक क्षण-
उत्कर्ष के चरम बिन्दु पर थरथराती
एक बूँद की अदम्य अभिलाषा
कि लुढ़क कर बादलों से
चूम ले अपनी मिट्टी को फिर एक बार
भर कर अपने प्रगाढ़ आलिंगन में!
रंगों की हिफ़ाज़त
रंग के विशेषज्ञों को डर है
कि आगामी वर्षों में
कुछ रंगों की भारी कमी मुमकिन है।
उनका अकाल तक पड़ सकता है
अगर इसी रफ़्तार से हम उन्हें नष्ट करते रहे :
जैसे लाल और हरा, जो या तो
आसमान की तरह नीले पड़ जाएँगे
या कोयले की तरह काले।
एहतियात ज़रूरी है
कि जहाँ भी वे मिलें
मेरा घनिष्ठ पड़ोसी
मेरा घनिष्ठ पड़ोसी है
एक पुराना पेड़
-न जाने क्या तो है उसका नाम, क्या उसकी जात-
पर इतना निकट है कि उसकी डालें
हमेशा बनी ही रहती हैं
मेरे घर के वराण्डे में
कुछ इस तरह कि जब चाहता
हाथ बढ़ा कर सहला सकता उसका माथा
और वह गऊ-सा
मुझे निहारता रहता निरीह आँखों से
मेरी उससे गाढ़ी दोस्ती हो गई है
इतनी कि जब हवा चलती
तो लगता वह मेरा नाम लेकर
मुझे बुला रहा,
सुबह की धूप जब उसे जगाती
वह बाबा की तरह खखारते हुए उठता
और मुझे भी जगा देता।
अकसर हम घण्टों बातें करते
इधर-उधर की बातें
अपनी-अपनी भाषा में…
लेकिन भाषा से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता-वह कहता-
हमारे सुख-दुख की भाषा एक ही है,
जाड़ा गर्मी बरसात उसे भी उसी तरह भासते जैसे मुझे,
पतझर की उदासी
वसन्त का उल्लास
कितनी ही बार हमने साथ मनाया है
एक दूसरे के जन्मदिन की तरह…
जब भी बैठ जाता हूँ थक कर
उसकी बगल में
चाहे दिन हो चाहे रात
वह ध्यान से सुनता है मेरी बातों को,
कहता कुछ नहीं
बस, एक नया सवेरा देता है मेरी बेचैन रातों को
उसकी बाँहों में चिड़ियों का बसेरा है,
हर घड़ी लगा रहता उनका आना-जाना…
कभी-कभी जब अपना ही घर समझ कर
मेरे घर में आकर ठहर जाते हैं
उसके मेहमान-
तो लगता चिड़ियों का घोंसला है मेरा मकान,
और एक भागती ऋतु भर की सजावट है मेरा सामान…
तटस्थ नहीं
तट पर हूँ
पर तटस्थ नहीं
देखना चाहता हूँ
एक जगमगाती दुनिया को
डूबते सूरज के आधार से।
अभी बाकी हैं कुछ पल
और प्यार का भी एक भी पल
बहुत होता है
इसी बहुलता को
दे जाना चाहता हूँ पूरे विश्वास से
इन विह्वल क्षणों में
कि कभी-कभी एक चमत्कार हुआ है पृथ्वी पर
जीवन के इसी गहरे स्वीकार से।
मद्धिम उजाले में
कभी-कभी एक फूल के खिलते ही
उस पर मुग्ध हो जाता है पूरा जंगल
देखते-देखते फूल-ही-फूल हो जाता है
उसका तन-मन, उसका जल थल, उसका प्रति पल…
यह सिज आरण्यक का दूसरा हिस्सा है
उसके पहले हिस्से में फूल नहीं था
न उस पर कोई विमर्श,
केवल एक प्रश्न था
कि जिस बीज में निबद्ध है
पूरे वृक्ष की वंशावली
उसके विकास की तमाम शाखाओं प्रशाखाओं,
जातियों प्रजातियों, चक्रों कुचक्रों, क्रमों उपक्रमों से
होते हुए कैसे उसके सर्वोच्च शिखर तक पहुँच कर
बची रह पाती है
एक विनम्र सुन्दरता!
किसी दिन
कुम्हलाती-सी आवाज़ में
उसने कहा होगा-अब मुझे जाना है…
विदा कहते ही
अंग-अंग अनेक उपमानों में बदल गई होगी
उसके जाने की एक-एक भंगिमा…
पहले वह गई होगी जैसे सुगंध,
फिर जैसे रूप,
जैसे रस, जैसे रंग,
फिर पंखुरी-पंखुरी बिखर गई होगी
जैसे एक साम्राज्य…
लेकिन जाते-जाते एक बार
उसने पीछे मुड़कर देखा होगा
किसी की कल्पनाओं में छूट गई
अपनी ही एक अलौकिक छवि,
और अपने से भी अधिक सुंदर कुछ देखकर
ठगी-सी खड़ी रह गई होगी
कहीं धरती और आकाश के बीच
एक अस्तव्यस्त छाया-चित्र
किसी पुराकथा के मद्धिम उजाले में…।
एक अधूरी रचना
लौटती है पृथ्वी पर बार-बार
खोजती हुई उन्हीं अनमनी आँखों को-
जो देखती हैं जीवन को जैसे एक मिटता सपना,
और सपनों में रख जाती हैं एक अमिट जीवन।
आना किन्तु इस तरह…
आना किन्तु इस तरह
कि अबकी पहचान में न आना
जैसे तुम नहीं
तुम्हारी जगह
एक धुंध
एक कुहासा
डूबते सूरज की धूसर रोशनी को ओढ़े हुए
आना जब कि समय बहुत कम हो
और अनंत पड़ा हो पाने को
मुझे बेहद जल्दी हो कहीं जाने की
और एक अजनबी रास्ता
बेताब हो मुझे ले जाने को
उस वक़्त आना ऐसे कि लगे
किसी ने द्वार खटखटाया
कोई न हो
पर लगे कि कोई आया
इतना आत्मीय
इतना अशरीर
जैसे हवा एक झोंका
और मुझमें समा कर निकल जाना
जैसे निकल गयी
एक पूरी उम्र
ये शब्द वही हैं
यह जगह वही है
जहां कभी मैंने जन्म लिया होगा
इस जन्म से पहले
यह मौसम वही है
जिसमें कभी मैंने प्यार किया होगा
इस प्यार से पहले
यह समय वही है
जिसमें मैं बीत चुका हूँ कभी
इस समय से पहले
वहीं कहीं ठहरी रह गयी है एक कविता
जहां हमने वादा किया था कि फिर मिलेंगे
ये शब्द वही हैं
जिनमें कभी मैंने जिया होगा एक अधूरा जीवन
इस जीवन से पहले।
दूसरों की खुशी के लिए
बीमार नहीं है वह,
कभी कभी बीमार-सा पड़ जाता है
उनकी ख़ुशी के लिए
जो सचमुच बीमार रहते हैं।
किसी दिन मर भी सकता है वह
उनकी खुशी के लिए
जो मरे-से रहते हैं।
कवियों का कोई ठिकाना नहीं,
न जाने कितनी बार वे
अपनी कविताओं में जीते और मरते हैं…
उनके कभी न मरने के भी उदाहरण हैं-
उनकी खुशी के लिए
जो कभी नहीं मरते हैं।
घंटी
फ़ोन की घंटी बजी
मैंने कहा- मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया
दरवाज़े की घंटी बजी
मैंने कहा- मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया
अलार्म की घंटी बजी
मैंने कहा- मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया
एक दिन
मौत की घंटी बजी…
हड़बड़ा कर उठ बैठा-
मैं हूँ… मैं हूँ… मैं हूँ..
मौत ने कहा-
करवट बदल कर सो जाओ।
काला और सफ़ेद
सिर्फ दो ही रंग होते हैं
शब्दों की दुनिया में-
काला और सफ़ेद।
दरअसल, काला तो कोई रंग ही नहीं :
और सफ़ेद भी
होता है कई रंगों से मिल मिल कर बना
एक तटस्थ रंग
लेकिन काले का घोर प्रतिवादी,
और यही उसकी ताक़त है।
काला जिस सचाई को ढंकता
सफ़ेद उसके बीच से बोलता रहता-
-दबी ज़बान-कभी खुल कर-
मानो गवाही दे रहा हो
भरी अदालत में
काले के ख़िलाफ़
सफ़ेद स्वभाव से विनम्र
लेकिन प्रभाव में तीखा है।
उसकी निडर सादगी
खादी की तरह
कपट को ओढ़ने से इनकार करती,
कभी कभी तो लगभग पारदर्शी हो जाती
नंगई के ख़िलाफ़
और चीख़ने लगती उसकी उज्जवलता
जैसे सूरज की रोशनी!
सभी चाहते कि शब्दों के बीच
सचाई को ज़्यादा-से-ज़्यादा जगह मिले…
लेकिन परेशान हैं इन दिनों :
काले की जगह
सफ़ेद नामक झूठ ने ले ली है
और दोनों ने मिल कर
एक बहुत बड़ी दूकान खोल ली है!
रोज़ धड़ल्ले से उनके रंगबिरंगे विज्ञापन छपते
कि झूठ कुछ नहीं
सिर्फ सच को ढँकने की कला है :
ज़िन्दगी का कारोबार
झूठ-सच की लीपापोती पर चला है।
चन्द्रगुप्त मौर्य
अब सुलह कर लो
उस पारदर्शी दुश्मन की सीमाहीनता से
जिसने तुम्हें
तुम्हारे ही गढ़ में घेर लिया है
कहाँ तक लड़ोगे
ऐश्वर्य की उस धँसती हुई
विवादास्पद ज़मीन के लिए
जो तुम्हारे पाँवों के नीचे से खिसक रही?
अपनी स्वायत्तता के अधिकारों को त्यागते ही
तुम्हारे शरीर पर जकड़ी जंज़ीरें
शिथिल पड़ जाएँगी। तुम अनुभव करोगे
एक अजीब-सा हल्कापन।
उस शक्ति-अधिग्रहण को स्वीकार करते ही
तुम्हें प्रदान किया जाएगा
मैत्री का एक ढीला चोला-
एक कुशा-मुकुट-
सहारे के लिए एक काष्ठ-कोदंड-
और तुम्हारे ही साम्राज्य में दूर कहीं
एक छोटा-सा क़िला
जिसके अन्दर ही अन्दर तुम
धीरे-धीरे इस संसार से विरक्त होते चले जाओगे…
तुम्हारा पुनर्जन्म होगा, सदियों बाद,
किसी अनुश्रुति में, एक शिलालेख के रूप में…
अबकी वर्तमान में नहीं, अतीत में-
जहाँ तुम विदग्ध सम्राटों की सूची में
स्वयं को अंकित पाओगे।
अमीर खुसरो
हाँ ग़यास, दिल्ली के इसी डगमगाते तख्त पर
एक नहीं ग्यारह बादशाहों को
बनते और उजड़ते देखा है ।
ऊब गया हूँ इस शाही खेल तमाशे से
यह ‘तुगलकनामा’ – बस, अब और नहीं।
बाकी ज़िन्दगी मुझे जीने दो
सुल्तानों के हुक्म की तरह नहीं
एक कवि के ख़यालात की तरह आज़ाद
एक पद्मिनी के सौंदर्य की तरह स्वाभिमानी
एक देवलरानी के प्यार की तरह मासूम
एक गोपालनायक के संगीत की तरह उस
और एक निज़ामुद्दीन औलिया की तरह पाक।
ग़यास एक स्वप्न देखता है, ” अब्बा जान
उस संगीत में तो आपकी जीत हुई थी ?”
”नहीं बेटा, हम दोनों हार गए थे।
दरबार जीता था।
मैंने बनाये थे जो कानून
उसमें सिर्फ़ मेरी ही जीत की गुंजाइश थी।
मैं ही जीतूँ
यह मेरी नहीं आलमपनाह की ख्वाहिश थी।”
खुसरो जानता है अपने दिल में
उस दिन भी सुल्तानी आतंक ही जीता था
अपनी महफिल में।
भूल जाना मेरे बच्चे कि खुसरो दरबारी था।
वह एक ख्वाब था –
जो कभी संगीत
कभी कविता
कभी भाषा
कभी दर्शन से बनता था
वह एक नृशंस युग की सबसे जटिल पहेली था
जिसे सात बादशाहों ने बूझने की कोशिश की !
खुसरो एक रहस्य था
जो एक गीत गुनगुनाते हुए
इतिहास की एक कठिन डगर से गुजर गया था।