कनुप्रिया धर्मवीर भारती
पूर्वराग
पहला गीत
ओ पथ के किनारे खड़े छायादार पावन अशोक-वृक्ष
तुम यह क्यों कहते हो कि तुम मेरे चरणों के स्पर्श की प्रतीक्षा में
जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे तुम को क्या मालूम कि
मैं कितनी बार केवल तुम्हारे लिए-धूल में मिली हूँ
धरती में गहरे उतर जड़ों के सहारे
तु्म्हारे कठोर तने के रेशों में कलियाँ बन, कोंपल बन,सौरभ बन,लाली बन-
चुपके से सो गयी हूँ
कि कब मधुमास आए और तुम कब मेरे
प्रस्फुटन से छा जाओ !
फिर भी तुम्हें याद नहीं आया, नहीं आया,
तब तुम को मेरे इन जावक-रचित पाँवों ने
केवल यह स्मरण करा दिया कि मैं तुम्हीं में हूँ
तुम्हारे ही रेशे-रेशे में सोई हुई-
और अब समय आ गया कि
मैं तुम्हारी नस-नस में पंख पसार कर उडूँगी
और तुम्हारी डाल-डाल में गुच्छे-गुच्छे लाल-लाल
कलियाँ बन खिलूँगी !
ओ पथ के किनारे खड़े
छायादार पावन अशोक-वृक्ष
तुम यह क्यों कहते हो कि
तुम मेरी ही प्रतीक्षा में
कितने ही जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे !
दूसरा गीत
यह जो अकस्मात्
आज मेरे जिस्म के सितार के
एक-एक तार में तुम झंकार उठे हो-
सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत
तुम कब से मुझ में छिपे सो रहे थे।
सुनो, मैं अक्सर अपने सारे शरीर को-
पोर-पोर को अवगुण्ठन में ढँक कर तुम्हारे सामने गयी
मुझे तुम से कितनी लाज आती थी,
मैं ने अक्सर अपनी हथेलियों में
अपना लाज से आरक्त मुँह छिपा लिया है
मुझे तुम से कितनी लाज आती थी
मैं अक्सर तुम से केवल तम के प्रगाढ़ परदे में मिली
जहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझता था
मुझे तुम से कितनी लाज आती थी,
पर हाय मुझे क्या मालूम था
कि इस वेला जब अपने को
अपने से छिपाने के लिए मेरे पास
कोई आवरण नहीं रहा
तुम मेरे जिस्म के एक-एक तार से
झंकार उठोगे
सुनो ! सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत
इस क्षण की प्रतीक्षा में तुम
कब से मुझ में छिपे सो रहे थे।
तीसरा गीत
घाट से लौटते हुए
तीसरे पहर की अलसायी बेला में
मैं ने अक्सर तुम्हें कदम्ब के नीचे
चुपचाप ध्यानमग्न खड़े पाया
मैं न कोई अज्ञात वनदेवता समझ
कितनी बार तुम्हें प्रणाम कर सिर झुकाया
पर तुम खड़े रहे अडिग, निर्लिप्त, वीतराग, निश्चल!
तुम ने कभी उसे स्वीकारा ही नहीं !
दिन पर दिन बीतते गये
और मैं ने तुम्हें प्रणाम करना भी छोड़ दिया
पर मुझे क्या मालूम था कि वह अस्वीकृति ही
अटूट बन्धन बन कर
मेरी प्रणाम-बद्ध अंजलियों में, कलाइयों में इस तरह
लिपट जायेगी कि कभी खुल ही नहीं पायेगी।
और मुझे क्या मालूम था कि
तुम केवल निश्चल खड़े नहीं रहे
तुम्हें वह प्रणाम की मुद्रा और हाथों की गति
इस तरह भा गयी कि
तुम मेरे एक-एक अंग की एक-एक गति को
पूरी तरह बाँध लोगे
इस सम्पूर्ण के लोभी तुम
भला उस प्रणाम मात्र को क्यों स्वीकारते ?
और मुझ पगली को देखो कि मैं
तुम्हें समझती थी कि तुम कितने वीतराग हो
कितने निर्लिप्त !
चौथा गीत
यह जो दोपहर के सन्नाटे में
यमुना के इस निर्जन घाट पर अपने सारे वस्त्र
किनारे रख
मैं घण्टों जल में निहारती हूँ
क्या तुम समझते हो कि मैं
इस भाँति अपने को देखती हूँ ?
नहीं, मेरे साँवरे !
यमुना के नीले जल में
मेरा यह वेतसलता-सा काँपता तन-बिम्ब, और उस के चारों
ओर साँवली गहराई का अथाह प्रसार जानते हो
कैसा लगता है-
मानो यह यमुना की साँवली गहराई नहीं है
यह तुम हो जो सारे आवरण दूर कर
मुझे चारों ओर से कण-कण, रोम-रोम
अपने श्यामल प्रगाढ़ अथाह आलिंगन में पोर-पोर
कसे हुए हो !
यह क्या तुम समझते हो
घण्टों-जल में-मैं अपने को निहारती हूँ
नहीं, मेरे साँवरे !
पाँचवाँ गीत
यह जो मैं गृहकाज से अलसा कर अक्सर
इधर चली आती हूँ
और कदम्ब की छाँह में शिथिल, अस्तव्यस्त
अनमनी-सी पड़ी रहती हूँ….
यह पछतावा अब मुझे हर क्षण
सालता रहता है कि
मैं उस रास की रात तुम्हारे पास से लौट क्यों आयी ?
जो चरण तुम्हारे वेणुवादन की लय पर
तुम्हारे नील जलज तन की परिक्रमा दे कर नाचते रहे
वे फिर घर की ओर उठ कैसे पाये
मैं उस दिन लौटी क्यों-
कण-कण अपने को तुम्हें दे कर रीत क्यों नहीं गयी ?
तुम ने तो उस रास की रात
जिसे अंशत: भी आत्मसात् किया
उसे सम्पूर्ण बना कर
वापस अपने-अपने घर भेज दिया
पर हाय वही सम्पूर्णता तो
इस जिस्म के एक-एक कण में
बराबर टीसती रहती है,
तुम्हारे लिए !
कैसे हो जी तुम ?
जब मैं जाना ही नहीं चाहती
तो बाँसुरी के एक गहरे अलाप से
मदोन्मत्त मुझे खींच बुलाते हो
और जब वापस नहीं आना चाहती
तब मुझे अंशत: ग्रहण कर
सम्पूर्ण बना कर लौटा देते हो !
मंजरी-परिणय
आम्र-बौर का गीत
यह जो मैं कभी-कभी चरम साक्षात्कार के क्षणों में
बिलकुल जड़ और निस्पन्द हो जाती हूँ
इस का मर्म तुम समझते क्यों नहीं मेरे साँवरे!
तुम्हारी जन्म-जन्मान्तर की रहस्यमयी लीला की एकान्त संगिनी मैं
इन क्षणों में अकस्मात
तुम से पृथक नहीं हो जाती हूँ मेरे प्राण,
तुम यह क्यों नहीं समझ पाते कि लाज
सिर्फ जिस्म की नहीं होती
मन की भी होती है
एक मधुर भय
एक अनजाना संशय,
एक आग्रह भरा गोपन,
एक निर्व्याख्या वेदना, उदासी,
जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी अभिभूत कर लेती है।
भय, संशय, गोपन, उदासी
ये सभी ढीठ, चंचल, सरचढ़ी सहेलियों की तरह
मुझे घेर लेती हैं,
और मैं कितना चाह कर भी तुम्हारे पास ठीक उसी समय
नहीं पहुँच पाती जब आम्र मंजरियों के नीचे
अपनी बाँसुरी में मेरा नाम भर कर तुम बुलाते हो!
उस दिन तुम उस बौर लदे आम की
झुकी डालियों से टिके कितनी देर मुझे वंशी से टेरते रहे
ढलते सूरज की उदास काँपती किरणें
तुम्हारे माथे मे मोरपंखों
से बेबस विदा माँगने लगीं –
मैं नहीं आयी
गायें कुछ क्षण तुम्हें अपनी भोली आँखों से
मुँह उठाये देखती रहीं और फिर
धीरे-धीरे नन्दगाँव की पगडण्डी पर
बिना तुम्हारे अपने-आप मुड़ गयीं –
मैं नहीं आयी
यमुना के घाट पर
मछुओं ने अपनी नावें बाँध दीं
और कन्धों पर पतवारें रख चले गये –
मैं नहीं आयी
तुम ने वंशी होठों से हटा ली थी
और उदास, मौन, तुम आम्र-वृक्ष की जड़ों से टिक कर बैठ गये थे
और बैठे रहे, बैठे रहे, बैठे रहे
मैं नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी
तुम अन्त में उठे
एक झुकी डाल पर खिला एक बौर तुम ने तोड़ा
और धीरे-धीरे चल दिये
अनमने तुम्हारे पाँव पगडण्डी पर चल रहे थे
पर जानते हो तुम्हारे अनजान में ही तुम्हारी उँगलियाँ क्या कर रही थीं!
वे उस आम्र मंजरी को चूर-चूर कर
श्यामल वनघासों में बिछी उस माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखेर रही थीं …..
यह तुमने क्या किया प्रिय!
क्या अपने अनजाने में ही
उस आम के बौर से मेरी क्वाँरी उजली पवित्र माँग भर रहे थे साँवरे?
पर मुझे देखो कि मैं उस समय भी तो माथा नीचा कर
इस अलौकिक सुहाग से प्रदीप्त हो कर
माथे पर पल्ला डाल कर
झुक कर तुम्हारी चरणधूलि ले कर
तुम्हें प्रणाम करने –
नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी!
++ पर मेरे प्राण
यह क्यों भूल जाते हो कि मैं वही
बावली लड़की हूँ न जो – कदम्ब के नीचे बैठ कर
जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को
तोड़ कर, मसल कर, उन की लाली से मेरे पाँव को
महावर रचने के लिए अपनी गोद में रखते हो
तो मैं लाज से धनुष की तरह दोहरी हो जाती हूँ
अपनी दोनों बाँहों में अपने धुटने कस
मुँह फेर कर निश्चल बैठ जाती हूँ
पर शाम को जब घर आती हूँ तो
निभॄत एकान्त में दीपक के मन्द आलोक में
अपनी उन्हीं चरणों को
अपलक निहारती हूँ
बावली-सी उनहें बार-बार प्यार करती हूँ
जल्दी-जल्दी में अधबनी महावर की रेखाओं को
चारों ओर देख कर धीमे-से
चूम लेती हूँ।
+++ रात गहरा आयी है
और तुम चले गये हो
और मैं कितनी देर तक बाँह से
उसी आम्र डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हूँ
जिस पर टिक कर तुम मेरी प्रतीक्षा करते हो
और मैं लौट रही हूँ,
हताश, और निष्फल
और ये आम के बौर के कण-कण
मेरे पाँव मे बुरी तरह साल रहे हैं।
पर तुम्हें यह कौन बतायेगा साँवरे
कि देर ही में सही
पर मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी
और माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखरे
ये मंजरी-कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो
इसीलिए न कि इतना लम्बा रास्ता
कितनी जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है
और काँटों और काँकरियों से
मेरे पाँव किस बुरी तरह घायल हो गये हैं!
यह कैसे बताऊँ तुम्हें
कि चरम साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी
जो कभी-कभी मेरे हाथ से छूट जाते हैं
तुम्हारी मर्म-पुकार जो कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती
तुम्हारी भेंट का अर्थ जो नहीं समझ पाती
तो मेरे साँवरे –
लाज मन की भी होती है
एक अज्ञात भय,
अपरिचित संशय,
आग्रह भरा गोपन,
और सुख के क्षण
में भी घिर आने वाली निर्व्याख्या उदासी –
फिर भी उसे चीर कर
देर में ही आऊँगी प्राण,
तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी
चन्दन-बाहों में भर कर बेसुध नहीं कर दोगे?
आम्र-बौर का अर्थ
अगर मैं आम्र-बौर का ठीक-ठीक
संकेत नहीं समझ पायी
तो भी इस तरह खिन्न मत हो
प्रिय मेरे!
कितनी बार जब तुम ने अर्द्धोन्मीलित कमल भेजा
तो मैं तुरत समझ गयी कि तुमने मुझे संझा बिरियाँ बुलाया है
कितनी बार जब तुम ने अँजुरी भर-भर बेले के फूल भेजे
तो मैं समझ गयी कि तुम्हारी अंजुरियों ने
किसे याद किया है
कितनी बार जब तुम ने अगस्त्य के दो
उजले कटावदार फूल भेजे
तो मैं समझ गई कि
तुम फिर मेरे उजले कटावदार पाँवों में
– तीसरे पहर – टीले के पास वाले
सहकार की घनी छाँव में
बैठ कर महावर लगाना चाहते हो।
आज अगर आम के बौर का संकेत नहीं भी
समझ पायी तो क्या इतना बड़ा मान ठान लोगे?
मैं मानती हूँ
कि तुम ने अनेक बार कहा है:
“राधन्! तुम्हारी शोख चंचल विचुम्बित पलकें तो
पगडण्डियाँ मात्र हैं:
जो मुझे तुम तक पहुँचा कर रीत जाती हैं।”
तुम ने कितनी बार कहा है:
“राधन्! ये पतले मृणाल सी तुम्हारी गोरी अनावृत बाँहें
पगडण्डियाँ मात्र हैं: जो मुझे तुम तक पहुँचा कर
रीत जाती हैं।”
तुम ने कितनी बार कहा है:
“सुनो! तुम्हारे अधर, तुम्हारी पलकें, तुम्हारी बाँहें, तुम्हारे
चरण, तुम्हारे अंग-प्रत्यंग, तुम्हारी सारी चम्पकवर्णी देह
मात्र पगडण्डियाँ हैं जो
चरम साक्षात्कार के क्षणों में रहती ही नहीं –
रीत-रीत जाती हैं!”
हाँ चन्दन,
तुम्हारे शिथिल आलिंगन में
मैंने कितनी बार इन सबको रीतता हुआ पाया है
मुझे ऐसा लगा है
जैसे किसी ने सहसा इस जिस्म के बोझ से
मुझे मुक्त कर दिया है
और इस समय मैं शरीर नहीं हूँ…
मैं मात्र एक सुगन्ध हूँ –
आधी रात में महकने वाले इन रजनीगन्धा के फूलों की
प्रगाढ़, मधुर गन्ध –
आकारहीन, वर्णहीन, रूपहीन…
मुझे नित नये शिल्प मे ढालने वाले !
मेरे उलझे रूखे चन्दनवासित केशों मे
पतली उजली चुनौती देती हुई मांग
क्या वह आखिरी पगडण्डी थी जिसे तुम रिता देना चाहते थे
इस तरह
उसे आम्र मंजरी से भर भरकर;
मैं क्यों भूल गयी थी कि
मेरे लीलाबन्धु, मेरे सहज मित्र की तो पद्धति ही यह है
कि वह जिसे भी रिक्त करना चाहता है
उसे सम्पूर्णता से भर देता है ।
यह मेरी मांग क्या मेरे-तुम्हारे बीच की
अन्तिम पार्थक्य रेखा थी,
क्या इसीलिए तुमने उसे आम्र मंजरियों से
भर-भर दिया कि वह
भर कर भी ताजी, क्वाँरी, रीती छूट जाए!
तुम्हारे इस अत्यन्त रहस्यमय संकेत को
ठीक-ठीक न समझ मैं उसका लौकिक अर्थ ले बैठी
तो मैं क्या करूँ,
तुम्हें तो मालूम है
कि मैं वही बावली लड़की हूँ न
जो पानी भरने जाती है
तो भरे घड़े में
अपनी चंचल आँखों की छाया देख कर
उन्हें कुलेल करती चटुल मछलियाँ समझ कर
बार-बार सारा पानी ढलका देती है!
सुनो मेरे मित्र
यह जो मुझ में, इसे, उसे, तुम्हें, अपने को –
कभी-कभी न समझ पाने की नादानी है न
इसे मत रोको
होने दो:
वह भी एक दिन हो-हो कर
रीत जायेगी
और मान लो न भी रीते
और मैं ऐसी ही बनी रहूँ तो
तो क्या?
मेरे हर बावलेपन पर
कभी खिन्न हो कर, कभी अनबोला ठानकर, कभी हँस कर
तुम जो प्यार से अपनी बाँहों में कस कर
बेसुध कर देते हो
उस सुख को मैं छोड़ूँ क्यों?
करूँगी!
बार-बार नादानी करूँगी
तुम्हारी मुँहलगी, जिद्दी, नादान मित्र भी तो हूँ न!
आज इस निभृत एकांत में
तुम से दूर पड़ी मैं:
और इस प्रगाढ़ अँधकार में
तुम्हारे चंदन कसाव के बिना मेरी देहलता के
बड़े-बड़े गुलाब धीरे-धीरे टीस रहे हैं
और दर्द उस लिपि का अर्थ खोल रहा है
जो तुम ने आम्र मंजरियों के अक्षरों में
मेरी माँग पर लिख दी थी
आम के बौर की महक तुर्श होती है-
तुम ने अक्सर मुझमें डूब-डूब कर कहा है
कि वह मेरी तुर्शी है
जिसे तुम मेरे व्यक्तित्व में
विशेष रूप से प्यार करते हो!
आम का वह पहला बौर
मौसम का पहला बौर था
अछूता, ताजा सर्वप्रथम!
मैंने कितनी बार तुम में डूब-डूब कर कहा है
कि मेरे प्राण! मुझे कितना गुमान है
कि मैंने तुम्हें जो कुछ दिया है
वह सब अछूता था, ताजा था,
सर्वप्रथम प्रस्फुटन था
तो क्या तुम्हारे पास की डार पर खिली
तुम्हारे कन्धों पर झुकी
वह आम की ताजी, क्वाँरी, तुर्श मंजरी मैं ही थी
और तुम ने मुझ से ही मारी माँग भरी थी!
यह क्यों मेरे प्रिय!
क्या इसलिए कि तुमने बार-बार यह कहा है
कि तुम अपने लिए नहीं
मेरे लिए मुझे प्यार करते हो
और क्या तुम इसी का प्रमाण दे रहे थे
जब तुम मेरे ही निजत्व को, मेरे ही आन्तरिक अर्थ को
मेरी माँग में भर रहे थे
और जब तुम ने कहा कि, “माथे पर पल्ला डाल लो!”
तो क्या तुम चिंता रहे थे
कि अपने इसी निजत्व को, अपने आन्तरिक अर्थ को
मैं सदा मर्यादित रक्खूँ, रसमय और
पवित्र रक्खूँ
नववधू की भाँति!
हाय! मैं सच कहती हूँ
मैं इसे नहीं समझी; नहीं समझी; बिलकुल नहीं समझी!
यह सारे संसार से पृथक् पद्धति का
जो तुम्हारा प्यार है न
इस की भाषा समझ पाना क्या इतना सरल है
तिस पर मैं बावरी
जो तुम्हारे पीछे साधारण भाषा भी
इस हद तक भूल गई हूँ
कि श्याम ले लो! श्याम ले लो!
पुकारती हुई हाट-बाट में
नगर-डगर में
अपनी हँसी कराती घूमती हूँ!
फिर मैं उपनी माँग पर
आम के बौर की लिपि में लिखी भाषा
का ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझ पायी
तो इसमें मेरा क्या दोष मेरे लीला-बन्धु!
आज इस निभृत एकांत में
तुम से दूर पड़ी हूँ
और तुम क्या जानो कैसे मेरे सारे जिस्म में
आम के बौर टीस रहे हैं
और उन की अजीब-सी तुर्श महक
तुम्हारा अजीब सा प्यार है
जो सम्पूर्णत: बाँध कर भी
सम्पूर्णत: मुक्त छोड़ देता है!
छोड़ क्यों देता ही प्रिय?
क्या हर बार इस दर्द के नये अर्थ
समझने के लिए!
तुम मेरे कौन हो
तुम मेरे कौन हो कनु
मैं तो आज तक नहीं जान पाई
बार-बार मुझ से मेरे मन ने
आग्रह से, विस्मय से, तन्मयता से पूछा है-
‘यह कनु तेरा है कौन? बूझ तो !’
बार-बार मुझ से मेरी सखियों ने
व्यंग्य से, कटाक्ष से, कुटिल संकेत से पूछा है-
‘कनु तेरा कौन है री, बोलती क्यों नहीं?’
बार-बार मुझ से मेरे गुरुजनों ने
कठोरता से, अप्रसन्नता से, रोष से पूछा है-
‘यह कान्ह आखिर तेरा है कौन?’
मैं तो आज तक कुछ नहीं बता पाई
तुम मेरे सचमुच कौन हो कनु !
अक्सर जब तुम ने
माला गूँथने के लिए
कँटीले झाड़ों में चढ़-चढ़ कर मेरे लिए
श्वेत रतनारे करौंदे तोड़ कर
मेरे आँचल में डाल दिये हैं
तो मैंने अत्यन्त सहज प्रीति से
गरदन झटका कर
वेणी झुलाते हुए कहा है :
‘कनु ही मेरा एकमात्र अंतरंग सखा है !’
अक्सर जब तुम ने
दावाग्नि में सुलगती डालियों,
टूटते वृक्षों, हहराती हुई लपटों और
घुटते हुए धुएँ के बीच
निरुपाय, असहाय, बावली-सी भटकती हुई
मुझे
साहसपूर्वक अपने दोनों हाथों में
फूल की थाली-सी सहेज कर उठा लिया
और लपटें चीर कर बाहर ले आये
तो मैंने आदर, आभार और प्रगाढ़ स्नेह से
भरे-भरे स्वर में कहा है:
‘कान्हा मेरा रक्षक है, मेरा बन्धु है
सहोदर है।’
अक्सर जब तुम ने वंशी बजा कर मुझे बुलाया है
और मैं मोहित मृगी-सी भागती चली आयी हूँ
और तुम ने मुझे अपनी बाँहों में कस लिया है
तो मैंने डूब कर कहा है:
‘कनु मेरा लक्ष्य है, मेरा आराध्य, मेरा गन्तव्य!’
पर जब तुम ने दुष्टता से
अक्सर सखी के सामने मुझे बुरी तरह छेड़ा है
तब मैंने खीझ कर
आँखों में आँसू भर कर
शपथें खा-खा कर
सखी से कहा है :
‘कान्हा मेरा कोई नहीं है, कोई नहीं है
मैं कसम खाकर कहती हूँ
मेरा कोई नहीं है !’
पर दूसरे ही क्षण
जब घनघोर बादल उमड़ आये हैं
और बिजली तड़पने लगी है
और घनी वर्षा होने लगी है
और सारे वनपथ धुँधला कर छिप गये हैं
तो मैंने अपने आँचल में तुम्हें दुबका लिया है
तुम्हें सहारा दे-दे कर
अपनी बाँहों मे घेर गाँव की सीमा तक तुम्हें ले आई हूँ
और सच-सच बताऊँ तुझे कनु साँवरे !
कि उस समय मैं बिलकुल भूल गयी हूँ
कि मैं कितनी छोटी हूँ
और तुम वही कान्हा हो
जो सारे वृन्दावन को
जलप्रलय से बचाने की सामर्थ्य रखते हो,
और मुझे केवल यही लगा है
कि तुम एक छोटे-से शिशु हो
असहाय, वर्षा में भीग-भीग कर
मेरे आँचल में दुबके हुए
और जब मैंने सखियों को बताया कि
गाँव की सीमा पर
छितवन की छाँह में खड़े हो कर
ममता से मैंने अपने वक्ष में
उस छौने का ठण्डा माथा दुबका कर
अपने आँचल से उसके घने घुँघराले बाल पोंछ दिए
तो मेरे उस सहज उद्गार पर
सखियाँ क्यों कुटिलता से मुसकाने लगीं
यह मैं आज तक नहीं समझ पायी!
लेकिन जब तुम्हीं ने बन्धु
तेज से प्रदीप्त हो कर इन्द्र को ललकारा है,
कालिय की खोज में विषैली यमुना को मथ डाला है
तो मुझे अकस्मात् लगा है
कि मेरे अंग-अंग से ज्योति फूटी पड़ रही है
तुम्हारी शक्ति तो मैं ही हूँ
तुम्हारा संबल,
तुम्हारी योगमाया,
इस निखिल पारावार में ही परिव्याप्त हूँ
विराट्,
सीमाहीन,
अदम्य,
दुर्दान्त;
किन्तु दूसरे ही क्षण
जब तुम ने वेतसलता-कुंज में
गहराती हुई गोधूलि वेला में
आम के एक बौर को चूर-चूर कर धीमे से
अपनी एक चुटकी में भर कर
मेरे सीमन्त पर बिखेर दिया
तो मैं हतप्रभ रह गयी
मुझे लगा इस निखिल पारावार में
शक्ति-सी, ज्योति-सी, गति-सी
फैली हुई मैं
अकस्मात् सिमट आयी हूँ
सीमा में बँध गयी हूँ
ऐसा क्यों चाहा तुमने कान्ह?
पर जब मुझे चेत हुआ
तो मैंने पाया कि हाय सीमा कैसी
मैं तो वह हूँ जिसे दिग्वधू कहते हैं, कालवधू-
समय और दिशाओं की सीमाहीन पगडंडियों पर
अनन्त काल से, अनन्त दिशाओं में
तुम्हारे साथ-साथ चलती आ रही हूँ, चलती
चली जाऊँगी…
इस यात्रा का आदि न तो तुम्हें स्मरण है न मुझे
और अन्त तो इस यात्रा का है ही नहीं मेरे सहयात्री!
पर तुम इतने निठुर हो
और इतने आतुर कि
तुमने चाहा है कि मैं इसी जन्म में
इसी थोड़-सी अवधि में जन्म-जन्मांतर की
समस्त यात्राएँ फिर से दोहरा लूँ
और इसी लिए सम्बन्धों की इस घुमावदार पगडंडी पर
क्षण-क्षण पर तुम्हारे साथ
मुझे इतने आकस्मिक मोड़ लेने पड़े हैं
कि मैं बिलकुल भूल ही गयी हूँ कि
मैं अब कहाँ हूँ
और तुम मेरे कौन हो
और इस निराधार भूमि पर
चारों ओर से पूछे जाते हुए प्रश्नों की बौछार से
घबरा कर मैंने बार-बार
तुम्हें शब्दों के फूलपाश में जकड़ना चाहा है।
सखा-बन्धु-आराध्य
शिशु-दिव्य-सहचर
और अपने को नयी व्याख्याएँ देनी चाही हैं
सखी-साधिका-बान्धवी-
माँ-वधू-सहचरी
और मैं बार-बार नये-नये रूपों में
उमड़- उम़ड कर
तुम्हारे तट तक आयी
और तुम ने हर बार अथाह समुद्र की भाँति
मुझे धारण कर लिया-
विलीन कर लिया-
फिर भी अकूल बने रहे
मेरे साँवले समुद्र
तुम आखिर हो मेरे कौन
मैं इसे कभी माप क्यों नहीं पाती?
सृष्टि-संकल्प
सृजन-संगिनी
सुनो मेरे प्यार-
यह काल की अनन्त पगडंडी पर
अपनी अनथक यात्रा तय करते हुए सूरज और चन्दा,
बहते हुए अन्धड़
गरजते हुए महासागर
झकोरों में नाचती हुई पत्तियाँ
धूप में खिले हुए फूल, और
चाँदनी में सरकती हुई नदियाँ
इनका अन्तिम अर्थ आखिर है क्या?
केवल तुम्हारी इच्छा?
और वह क्या केवल तुम्हारा संकल्प है
जो धरती में सोंधापन बन कर व्याप्त है
जो जड़ों में रस बन कर खिंचता है
कोंपलों में पूटता है,
पत्तों में हरियाता है,
फूलों में खिलता है,
फलों में गदरा आता है-
यदि इस सारे सृजन, विनाश, प्रवाह
और अविराम जीवन-प्रक्रिया का
अर्थ केवल तुम्हारी इच्छा है
तुम्हारा संकल्प,
तो जरा यह तो बताओ मेरे इच्छामय,
कि तुम्हारी इस इच्छा का,
इस संकल्प का-
अर्थ कौन है?
कौन है वह
जिसकी खोज में तुमने
काल की अनन्त पगडंडी पर
सूरज और चाँद को भेज रखा है
कौन है जिसे तुमने
झंझा के उद्दाम स्वरों में पुकारा है
कौन है जिसके लिए तुमने
महासागर की उत्ताल भुजाएँ फैला दी हैं
कौन है जिसकी आत्मा को तुमने
फूल की तरह खोल दिया है
और कौन है जिसे
नदियों जैसे तरल घुमाव दे-दे कर
तुमने तरंग-मालाओं की तरह
अपने कण्ठ में, वक्ष पर, कलाइयों में
लपेट लिया है-
वह मैं हूँ मेरे प्रियतम!
वह मैं हूँ
वह मैं हूँ
और यह समस्त सृष्टि रह नहीं जाती
लीन हो जाती है
जब मैं प्रगाढ़ वासना, उद्दाम क्रीड़ा
और गहरे प्यार के बाद
थक कर तुम्हारी चन्दन-बाँहों में
अचेत बेसुध सो जाती हूँ
यह निखिल सृष्टि लय हो जाती है
और मैं प्रसुप्त, संज्ञाशून्य,
और चारों ओर गहरा अँधेरा और सूनापन-
और मजबूर होकर
तुम फिर, फिर उसी गहरे प्यार
को दोहराने के लिए
मुझे आधी रात जगाते हो
आहिस्ते से, ममता से-
और मैं फिर जागती हूँ
संकल्प की तरह
इच्छा की तरह
और लो
वह आधी रात का प्रलयशून्य सन्नाटा
फिर
काँपते हुए गुलाबी जिस्मों
गुनगुने स्पर्शों
कसती हुई बाँहों
अस्फुट सीत्कारों
गहरी सौरभ भरी उसाँसों
और अन्त में एक सार्थक शिथिल मौन से
आबाद हो जाता है
रचना की तरह
सृष्टि की तरह-
और मैं फिर थक कर सो जाती हूँ
अचेत-संज्ञाहीन-
और फिर वही चारों ओर फैला
गहरा अँधेरा और अथाह सूनापन
और तुम फिर मुझे जगाते हो!
और यह प्रवाह में बहती हुई
तुम्हारी असंख्य सृष्टियों का क्रम
महज हमारे गहरे प्यार
प्रगाढ़ विलास
और अतृप्त क्रीड़ा की अनन्त पुनरावृत्तियाँ हैं-
ओ मेरे स्रष्टा
तुम्हारे सम्पूर्ण अस्तित्व का अर्थ है
मात्र तुम्हारी सृष्टि
तुम्हारी सम्पूर्ण सृष्टि का अर्थ है
मात्र तुम्हारी इच्छा
और तुम्हारी सम्पूर्ण इच्छा का अर्थ हूँ
केवल मैं!
केवल मैं!!
केवल मैं!!!
आदिम भय
अगर यह निखिल सृष्टि
मेरा ही लीलातन है
तुम्हारे आस्वादन के लिए-
अगर ये उत्तुंग हिमशिखर
मेरे ही – रुपहली ढलान वाले
गोरे कंधे हैं – जिन पर तुम्हारा
गगन-सा चौड़ा और साँवला और
तेजस्वी माथा टिकता है
अगर यह चाँदनी में
हिलोरें लेता हुआ महासागर
मेरे ही निरावृत जिस्म का
उतार-चढ़ाव है
अगर ये उमड़ती हुई मेघ-घटाएँ
मेरी ही बल खाती हुई वे अलकें हैं
जिन्हें तुम प्यार से बिखेर कर
अक्सर मेरे पूर्ण-विकसित
चन्दन फूलों को ढँक देते हो
अगर सूर्यास्त वेला में
पच्छिम की ओर झरते हुए ये
अजस्र-प्रवाही झरने
मेरी ही स्वर्ण-वर्णी जंघाएँ हैं
और अगर यह रात मेरी प्रगाढ़ता है
और दिन मेरी हँसी
और फूल मेरे स्पर्श
और हरियाली मेरा आलिंगन
तो यह तो बताओ मेरे लीलाबंधु
कि कभी-कभी “मुझे” भय क्यों लगता है?
–
अक्सर आकाशगंगा के
सुनसान किनारों पर खड़े हो कर
जब मैंने अथाह शून्य में
अनन्त प्रदीप्त सूर्यों को
कोहरे की गुफाओं में पंख टूटे
जुगनुओं की तरह रेंगते देखा है
तो मैं भयभीत होकर लौट आयी हूँ……
क्यों मेरे लीलाबन्धु
क्या वह आकाशगंगा मेरी माँग नहीं है?
फिर उसके अज्ञात रहस्य
मुझे डराते क्यों हैं?
और अक्सर जब मैंने
चन्द्रलोक के विराट्, अपरिचित, झुलसे
पहाड़ों की गहरी, दुर्लंघ्य घाटियों में
अज्ञात दिशाओं से उड़ कर आने वाले
धुम्रपुंजों को टकराते और
अग्निवर्णी करकापात से
वज्र की चट्टानों को
घायल फूल की तरह बिखरते देखा है
तो मुझे भय क्यों लगा है
और मैं लौट क्यों आयी हूँ मेरे बन्धु!
क्या चन्द्रमा मेरे ही माथे का
सौभाग्य-बिन्दु नहीं है?
और अगर ये सारे रहस्य मेरे हैं
और तुम्हारा संकल्प मैं हूँ
और तुम्हारी इच्छा मैं हूँ
और इस तमाम सृष्टि में मेरे अतिरिक्त
यदि कोई है तो केवल तुम, केवल तुम, केवल तुम,
तो मैं डरती किससे हूँ मेरे प्रिय!
और अगर यह चन्द्रमा मेरी उँगलियों के
पोरों की छाप है
और मेरे इशारों पर घटता और बढ़ता है
और अगर यह आकाशगंगा मेरे ही
केश-विन्यास की शोभा है
और मेरे एक इंगित पर इसके अनन्त
ब्रह्माण्ड अपनी दिशा बदल
सकते हैं-
तो मुझे डर किससे लगता है
मेरे बन्धु!
–
कहाँ से आता है यह भय
जो मेरे इन हिमशिखरों पर
महासागरों पर
चन्दनवन पर
स्वर्णवर्णी झरनों पर
मेरे उत्फुल्ल लीलातन पर
कोहरे की तरह
फन फैला कर
गुंजलक बाँध कर बैठ गया है।
उद्दाम क्रीड़ा की वेला में
भय का यह जाल किसने फेंका है?
देखो न
इसमें उलझ कर मैं कैसे
शीतल चट्टानों पर निर्वसना जलपरी की तरह
छटपटा रही हूँ
और मेरे भींगे केशों से
सिवार लिपटा है
और मेरी हथेलियों से
समुद्री पुखराज और पन्ने
छिटक गये हैं
और मैं भयभीत हूँ!
सुनो मेरे बन्धु
अगर यह निखिल सृष्टि
मेरा लीलातन है
तुम्हारे आस्वादन के लिए
तो यह जो भयभीत है – वह छायातन
किसका है?
किस लिए है मेरे मित्र?
केलिसखी
आज की रात
हर दिशा में अभिसार के संकेत क्यों हैं?
हवा के हर झोंके का स्पर्श
सारे तन को झनझना क्यों जाता है?
और यह क्यों लगता है
कि यदि और कोई नहीं तो
यह दिगन्त-व्यापी अँधेरा ही
मेरे शिथिल अधखुले गुलाब-तन को
पी जाने के लिए तत्पर है
और ऐसा क्यों भान होने लगा है
कि मेरे ये पाँव, माथा, पलकें, होंठ
मेरे अंग-अंग – जैसे मेरे नहीं हैं-
मेरे वश में नहीं हैं-बेबस
एक-एक घूँट की तरह
अँधियारे में उतरते जा रहे हैं
खोते जा रहे हैं
मिटते जा रहे हैं
और भय,
आदिम भय, तर्कहीन, कारणहीन भय जो
मुझे तुमसे दूर ले गया था, बहुत दूर-
क्या इसी लिए कि मुझे
दुगुने आवेग से तुम्हारे पास लौटा लावे
और क्या यह भय की ही काँपती उँगलियाँ हैं
जो मेरे एक-एक बन्धन को शिथिल
करती जा रही हैं
और मैं कुछ कह नहीं पाती!
मेरे अधखुले होठ काँपने लगे हैं
और कण्ठ सूख रहा है
और पलकें आधी मुँद गयी हैं
और सारे जिस्म में जैसे प्राण नहीं हैं
मैंने कस कर तुम्हें जकड़ लिया है
और जकड़ती जा रही हूँ
और निकट, और निकट
कि तुम्हारी साँसें मुझमें प्रविष्ट हो जायें
तुम्हारे प्राण मुझमें प्रतिष्ठित हो जायें
तुम्हारा रक्त मेरी मृतपाय शिराओं में प्रवाहित होकर
फिर से जीवन संचरित कर सके-
और यह मेरा कसाव निर्मम है
और अन्धा, और उन्माद भरा; और मेरी बाँहें
नागवधू की गुंजलक की भाँति
कसती जा रही हैं
और तुम्हारे कन्धों पर, बाँहों पर, होठों पर
नागवधू की शुभ्र दन्त-पंक्तियों के नीले-नीले चिह्न
उभर आये हैं
और तुम व्याकुल हो उठे हो
धूप में कसे
अथाह समुद्र की उत्ताल, विक्षुब्ध
हहराती लहरों के निर्मम थपेड़ों से-
छोटे-से प्रवाल-द्वीप की तरह
बेचैन-
……………………………………….
………………………………….
……………………………
…………………….
उठो मेरे प्राण
और काँपते हाथों से यह वातायन बंद कर दो
यह बाहर फैला-फैला समुद्र मेरा है
पर आज मैं उधर नहीं देखना चाहती
यह प्रगाढ़ अँधेरे के कण्ठ में झूमती
ग्रहों-उपग्रहों और नक्षत्रों की
ज्योतिर्माला मैं ही हूँ
और अंख्य ब्रह्माण्डों का
दिशाओं का, समय का
अनन्त प्रवाह मैं ही हूँ
पर आज मैं अपने को भूल जाना चाहती हूँ
उठो और वातायन बन्द कर दो
कि आज अँधेरे में भी दृष्टियाँ जाग उठी हैं
और हवा का आघात भी मांसल हो उठा है
और मैं अपने से ही भयभीत हूँ
………………………………….
………………………………………
लो मेरे असमंजस!
अब मैं उन्मुक्त हूँ
और मेरे नयन अब नयन नहीं हैं
प्रतीक्षा के क्षण हैं
और मेरी बाँहें, बाँहें नहीं हैं
पगडण्डियाँ हैं
और मेरा यह सारा
हलका गुलाबी, गोरा, रुपहली
धूप-छाँव वाला सीपी जैसा जिस्म
अब जिस्म नहीं-
सिर्फ एक पुकार है
उठो मेरे उत्तर!
और पट बन्द कर दो
और कह दो इस समुद्र से
कि इसकी उत्ताल लहरें द्वार से टकरा कर लौट जाएँ
और कह दो दिशाओं से
कि वे हमारे कसाव में आज
घुल जाएँ
और कह दो समय के अचूक धनुर्धर से
कि अपने शायक उतार कर
तरकस में रख ले
और तोड़ दे अपना धनुष
और अपने पंख समेट कर द्वार पर चुपचाप
प्रतीक्षा करे-
जब तक मैं
अपनी प्रगाढ़ केलिकथा का अस्थायी विराम चिह्न
अपने अधरों से
तुम्हारे वक्ष पर लिख कर, थक कर
शैथिल्य की बाँहों में
डूब न जाऊँ…..
आओ मेरे अधैर्य!
दिशाएँ घुल गयी हैं
जगत् लीन हो चुका है
समय मेरे अलक-पाश में बँध चुका है।
और इस निखिल सृष्टि के
अपार विस्तार में
तुम्हारे साथ मैं हूँ – केवल मैं-
तुम्हारी अंतरंग केलिसखी!
इतिहास
विप्रलब्धा
बुझी हुई राख, टूटे हुए गीत, डूबे हुए चाँद,
रीते हुए पात्र, बीते हुए क्षण-सा –
– मेरा यह जिस्म
कल तक जो जादू था, सूरज था, वेग था
तुम्हारे आश्लेष में
आज वह जूड़े से गिरे जुए बेले-सा
टूटा है, म्लान है
दुगुना सुनसान है
बीते हुए उतस्व-सा, उठे हुए मेले-सा –
मेरा यह जिस्म –
टूटे खँडहरों के उजाड़ अन्तःपुर में
छूटा हुआ एक साबित मणिजटित दर्पण-सा –
आधी रात दंश भरा बाहुहीन
प्यासा सर्वीला कसाव एक
जिसे जकड़ लेता है
अपनी गुंजलक में
अब सिर्फ मै हूँ, यह तन है, और याद है
खाली दर्पण में धुँधला-सा एक, प्रतिबिम्ब
मुड़-मुड़ लहराता हुआ
निज को दोहराता हुआ!
कौन था वह
जिस ने तुम्हारी बाँहों के आवर्त में
गरिमा से तन कर समय को ललकारा था!
कौन था वह
जिस की अलकों में जगत की समस्त गति
बँध कर पराजित थी!
कौन था वह
जिस के चरम साक्षात्कार का एक गहरा क्षण
सारे इतिहास से बड़ा था, सशक्त था!
कौन था कनु, वह,
तुम्हारी बाँहों में
जो सूरज था, जादू था, दिव्य मन्त्र था
अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है, और याद है।
मन्त्र-पढ़े बाण-से छूट गये तुम तो कनु,
शेष रही मैं केवल,
काँपती प्रत्यंचा-सी
अब भी जो बीत गया,
उसी में बसी हुई
अब भी उन बाहों के छलावे में
कसी हुई
जिन रूखी अलकों में
मैं ने समय की गति बाँधी थी –
हाय उन्हीं काले नागपाशों से
दिन-प्रतिदिन, क्षण-प्रतिक्षण बार-बार
डँसी हुई
अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है –
– और संशय है
– बुझी हुई राख में छिपी चिन्गारी-सा
रीते हुए पात्र की आखिरी बूँद-सा
पा कर खो देने की व्यथा-भरी गूँज-सा ……
सेतु : मैं
नीचे की घाटी से
ऊपर के शिखरों पर
जिस को जाना था वह चला गया –
हाय मुझी पर पग रख
मेरी बाँहों से
इतिहास तुम्हें ले गया!
सुनो कनु, सुनो
क्या मैं सिर्फ एक सेतु थी तुम्हारे लिए
लीलाभूमि और युद्धक्षेत्र के
अलंघ्य अन्तराल में!
अब इन सूने शिखरों, मृत्यु-घाटियों में बने
सोने के पतले गुँथे तारों वालों पुल- सा
निर्जन
निरर्थक
काँपता-सा, यहाँ छूट गया – मेरा यह सेतु जिस्म
– जिस को जाना था वह चला गया
उसी आम के नीचे
उस तन्मयता में
तुम्हारे वक्ष में मुँह छिपा कर
लजाते हुए
मैं ने जो-जो कहा था
पता नहीं उस में कुछ अर्थ था भी या नहीं :
आम-मंजरियों से भरी हुई मांग के दर्प में
मैं ने समस्त जगत् को
अपनी बेसुधी के
एक क्षण में लीन करने का
जो दावा किया था – पता नहीं
वह सच था भी या नहीं:
जो कुछ अब भी इस मन में कसकता है
इस तन में काँप-काँप जाता है
वह स्वप्न था या यथार्थ
– अब मुझे याद नहीं
पर इतना जरूर जानती हूँ
कि इस आम की डाली के नीचे
जहाँ खड़े हो कर तुम ने मुझे बलाया था
अब भी मुझे आ कर बड़ी शान्ति मिलती है
न,
मैं कुछ सोचती नहीं
कुछ याद भी नहीं करती
सिर्फ मेरी अनमनी, भटकती उँगलियाँ
मेरे अनजाने, धूल में तुम्हारा
वह नाम लिख जाती हैं
जो मैं ने प्यार के गहनतम क्षणों में
खुद रखा था
और जिसे हम दोनों के अलावा
कोई जानता ही नहीं
और ज्यों ही सचेत हो कर
अपनी उँगलियों की
इस धृष्टता को जान पाती हूँ
चौंक कर उसे मिटा देती हूँ
(उसे मिटाते दुःख क्यों नहीं होता कनु!
क्या अब मैं केवल दो यन्त्रों का पुंज-मात्र हूँ?
– दो परस्पर विपरीत यन्त्र –
उन में से एक बिन अनुमति नाम लिखता है
दूसरा उसे बिना हिचक मिटा देता है!)
—
तीसरे पहर
चुपचाप यहाँ छाया में बैठती हूँ
और हवा ऊपर ताज़ी नरम टहनियों से,
और नीचे कपोलों पर झूलती मेरी रूखी अलकों
से खेल करती है
और मैं आँख मूंद कर बैठ जाती हूँ
और कल्पना करना चाहती हूँ कि
उस दिन बरसते में जिस छौने को
अपने आँचल में छिपा कर लायी थी
वह आज कितना, कितना, कितना महान हो गया है
लेकिन मैं कुछ नहीं सोच पाती
सिर्फ –
जहाँ तुम ने मुझे अमित प्यार दिया था
वहीं बैठ कर कंकड़, पत्ते, तिनके, टुकड़े चुनती रहती हूँ
तुम्हारे महान बनने में
क्या मेरा कुछ टूट कर बिखर गया है कनु!
वह सब अब भी
ज्यों का त्यों है
दिन ढले आम के नये बौरों का
चारों ओर अपना मायाजाल फेंकना
जाल में उलझ कर मेरा बेबस चले आना
नया है
केवल मेरा
सूनी माँग आना
सूनी माँग, शिथिल चरण, असमर्पिता
ज्यों का त्यों लौट जाना ……..
उस तन्मयता में – आम-मंजरी से सजी माँग को
तुम्हारे वक्ष में छिपा कर लजाते हुए
बेसुध होते-होते
जो मैं ने सुना था
क्या उस में कुछ भी अर्थ नहीं था?
अमंगल छाया
घाट से आते हुए
कदम्ब के नीचे खड़े कनु को
ध्यानमग्न देवता समझ, प्रणाम करने
जिस राह से तू लौटती थी बावरी
आज उस राह से न लौट
उजड़े हुए कुंज
रौंदी हुई लताएँ
आकाश पर छायी हुई धूल
क्या तुझे यह नहीं बता रहीं
कि आज उस राह से
कृष्ण की अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ
युद्ध में भाग लेने जा रही हैं!
आज उस पथ से अलग हट कर खड़ी हो
बावरी!
लताकुंज की ओट
छिपा ले अपने आहट प्यार को
आज इस गाँव से
द्वारका की युद्धोन्मत्त सेनाएँ गुजर रही हैं
मान लिया कि कनु तेरा
सर्वाधिक अपना है
मान लिया कि तू
उसकी रोम-रोम से परिचित है
मान लिया कि ये अगणित सैनिक
एक-एक उसके हैं:
पर जान रख कि ये तुझे बिलकुल नहीं जानते
पथ से हट जा बावरी
यह आम्रवृक्ष की डाल
उनकी विशेष प्रिय थी
तेरे न आने पर
सारी शाम इस पर टिक
उन्होंने वंशी में बार-बार
तेरा नाम भर कर तुझे टेरा था-
आज यह आम की डाल
सदा-सदा के लिए काट दी जायेगी
क्योंकि कृष्ण के सेनापतियों के
वायुवेगगामी रथों की
गगनचुम्बी ध्वजाओं में
यह नीची डाल अटकती है
और यह पथ के किनारे खड़ा
छायादार पावन अशोक-वृक्ष
आज खण्ड-खण्ड हो जाएगा तो क्या –
यदि ग्रामवासी, सेनाओं के स्वागत में
तोरण नहीं सजाते
तो क्या सारा ग्राम नहीं उजाड़ दिया जायेगा?
दुःख क्यों करती है पगली
क्या हुआ जो
कनु के ये वर्तमान अपने,
तेरे उन तन्मय क्षणों की कथा से
अनभिज्ञ हैं
उदास क्यों होती है नासमझ
कि इस भीड़-भाड़ में
तू और तेरा प्यार नितान्त अपरिचित
छूट गये हैं,
गर्व कर बावरी!
कौन है जिसके महान् प्रिय की
अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ हों?
एक प्रश्न
अच्छा, मेरे महान् कनु,
मान लो कि क्षण भर को
मैं यह स्वीकार लूँ
कि मेरे ये सारे तन्मयता के गहरे क्षण
सिर्फ भावावेश थे,
सुकोमल कल्पनाएँ थीं
रँगे हुए, अर्थहीन, आकर्षक शब्द थे –
मान लो कि
क्षण भर को
मैं यह स्वीकार कर लूँ
कि
पाप-पुण्य, धर्माधर्म, न्याय-दण्ड
क्षमा-शील वाला यह तुम्हारा युद्ध सत्य है –
तो भी मैं क्या करूँ कनु,
मैं तो वही हूँ
तुम्हारी बावरी मित्र
जिसे सदा उतना ही ज्ञान मिला
जितना तुमने उसे दिया
जितना तुमने मुझे दिया है अभी तक
उसे पूरा समेट कर भी
आस-पास जाने कितना है तुम्हारे इतिहास का
जिसका कुछ अर्थ मुझे समझ नहीं आता है!
अपनी जमुना में
जहाँ घण्टो अपने को निहारा करती थी मैं
वहाँ अब शस्त्रों से लदी हुई
अगणित नौकाओं की पंक्ति रोज-रोज कहाँ जाती है?
धारा में बह-बह कर आते हुए, टूटे रथ
जर्जर पताकाएँ किसकी हैं?
हारी हुई सेनाएँ, जीती हुई सेनाएँ
नभ को कँपाते हुए, युद्ध-घोष, क्रन्दन-स्वर,
भागे हुए सैनिकों से सुनी हुई
अकल्पनीय अमानुषिक घटनाएँ युद्ध की
क्या ये सब सार्थक हैं?
चारों दिशाओं से
उत्तर को उड़-उड़ कर जाते हुए
गृद्धों को क्या तुम बुलाते हो
(जैसे बुलाते थे भटकी हुई गायों को)
जितनी समझ अब तक तुमसे पाई है कनु,
उतनी बटोर कर भी
कितना कुछ है जिसका
कोई भी अर्थ मुझे समझ नहीं आता है
अर्जुन की तरह कभी
मुझे भी समझा दो
सार्थकता क्या है बन्धु?
मान लो कि मेरी तन्मयता के गहरे क्षण
रँगे हुए, अर्थहीन, आकर्षक शब्द थे –
तो सार्थक फिर क्या है कनु?
शब्द : अर्थहीन
पर इस सार्थकता को तुम मुझे
कैसे समझाओगे कनु?
शब्द, शब्द, शब्द…….
मेरे लिए सब अर्थहीन हैं
यदि वे मेरे पास बैठकर
मेरे रूखे कुन्तलों में उँगलियाँ उलझाए हुए
तुम्हारे काँपते अधरों से नहीं निकलते
शब्द, शब्द, शब्द…….
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व……..
मैंने भी गली-गली सुने हैं ये शब्द
अर्जुन ने चाहे इनमें कुछ भी पाया हो
मैं इन्हें सुनकर कुछ भी नहीं पाती प्रिय,
सिर्फ राह में ठिठक कर
तुम्हारे उन अधरों की कल्पना करती हूँ
जिनसे तुमने ये शब्द पहली बार कहे होंगे
– तुम्हारा साँवरा लहराता हुआ जिस्म
तुम्हारी किंचित मुड़ी हुई शंख-ग्रीवा
तुम्हारी उठी हुई चंदन-बाँहें
तुम्हारी अपने में डूबी हुई
अधखुली दृष्टि
धीरे-धीरे हिलते हुए होठ!
मैं कल्पना करती हूँ कि
अर्जुन की जगह मैं हूँ
और मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
और मैं नहीं जानती कि युद्ध कौन-सा है
और मैं किसके पक्ष में हूँ
और समस्या क्या है
और लड़ाई किस बात की है
लेकिन मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
क्योंकि तुम्हारे द्वारा समझाया जाना
मुझे बहुत अच्छा लगता है
और सेनाएँ स्तब्ध खड़ी हैं
और इतिहास स्थगित हो गया है
और तुम मुझे समझा रहे हो……
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व,
शब्द, शब्द, शब्द…….
मेरे लिए नितान्त अर्थहीन हैं-
मैं इन सबके परे अपलक तुम्हें देख रही हूँ
हर शब्द को अँजुरी बनाकर
बूँद-बूँद तुम्हें पी रही हूँ
और तुम्हारा तेज
मेरे जिस्म के एक-एक मूर्छित संवेदन को
धधका रहा है
और तुम्हारे जादू भरे होठों से
रजनीगन्धा के फूलों की तरह टप्-टप् शब्द झर रहे हैं
एक के बाद एक के बाद एक……
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व……..
मुझ तक आते-आते सब बदल गए हैं
मुझे सुन पड़ता है केवल
राधन्, राधन्, राधन्,
शब्द, शब्द, शब्द,
तुम्हारे शब्द अगणित हैं कनु -संख्यातीत
पर उनका अर्थ मात्र एक है –
मैं,
मैं,
केवल मैं!
फिर उन शब्दों से
मुझी को
इतिहास कैसे समझाओगे कनु?
समुद्र-स्वप्न
जिसकी शेषशय्या पर
तुम्हारे साथ युगों-युगों तक क्रीड़ा की है
आज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कनु!
लहरों के नीले अवगुण्ठन में
जहाँ सिन्दूरी गुलाब जैसा सूरज खिलता था
वहाँ सैकड़ों निष्फल सीपियाँ छटपटा रही हैं
– और तुम मौन हो
मैंने देखा कि अगणित विक्षुब्ध विक्रान्त लहरें
फेन का शिरस्त्राण पहने
सिवार का कवच धारण किए
निर्जीव मछलियों के धनुष लिए
युद्धमुद्रा में आतुर हैं
– और तुम कभी मध्यस्थ हो
कभी तटस्थ
कभी युद्धरत
और मैंने देखा कि अन्त में तुम
थक कर
इन सब से खिन्न, उदासीन, विस्मित और
कुछ-कुछ आहत
मेरे कन्धों से टिक कर बैठ गए हो
और तुम्हारी अनमनी भटकती उँगलियाँ
तट की गीली बालू पर
कभी कुछ, कभी कुछ लिख देती हैं
किसी उपलब्धि को व्यक्त करने के अभिप्राय से नहीं;
मात्र उँगलियों के ठंढे जल में डुबोने का
क्षणिक सुख लेने के लिए!
आज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कनु!
विष भरे फेन, निर्जीव सूर्य, निष्फल सीपियाँ, निर्जीव मछलियाँ….
– लहरें नियन्त्रणहीन होती जा रही हैं
और तुम तट पर बाँह उठा-उठा कर कुछ कह रहे हो
पर तुम्हारी कोई नहीं सुनता, कोई नहीं सुनता!
अन्त में तुम हार कर, लौट कर, थक कर
मेरे वक्ष के गहराव में
अपना चौड़ा माथा रख कर
गहरी नींद में सो गए हो……
और मेरे वक्ष का गहराव
समुद्र में बहता हुआ, बड़ा-सा ताजा, क्वाँरा, मुलायम, गुलाबी
वटपत्र बन गया है
जिस पर तुम छोटे-से छौने की भाँति
लहरों के पालने में महाप्रलय के बाद सो रहे हो!
नींद में तुम्हारे होठ धीरे-धीरे हिलते हैं
“स्वधर्म!…. आखिर मेरे लिए स्वधर्म क्या है?”
और लहरें थपकी देकर तुम्हें सुलाती हैं
“सो जाओ योगिराज… सो जाओ… निद्रा समाधि है!”
नींद में तुम्हारे होठ धीरे-धीरे हिलते हैं
“न्याय-अन्याय, सद्-असद्, विवेक-अविवेक –
कसौटी क्या है? आखिर कसौटी क्या है?”
और लहरें थपकी देकर तुम्हें सुला देती हैं
“सो जाओ योगेश्वर… जागरण स्वप्न है, छलना है, मिथ्या है!”
तुम्हारे माथे पर पसीना झलक आया है
और होठ काँप रहे हैं
और तुम चौंक कर जाग जाते हो
और तुम्हें कोई भी कसौटी नहीं मिलती
और जुए के पासे की तरह तुम निर्णय को फेंक देते हो
जो मेरे पैताने है वह स्वधर्म
जो मेरे सिराहने है वह अधर्म……
और यह सुनते ही लहरें
घायल साँपों-सी लहर लेने लगती हैं
और प्रलय फिर शुरू हो जाती है
और तुम फिर उदास हो कर किनारे बैठ जाते हो
और विषादपूर्ण दृष्टि से शून्य में देखते हुए
कहते हो – “यदि कहीं उस दिन मेरे पैताने
दुर्योधन होता तो…………………………… आह
इस विराट् समुद्र के किनारे ओ अर्जुन, मैं भी
अबोध बालक हूँ!
आज मैंने समुद्र को स्वप्न में देखा कनु!
तट पर जल-देवदारुओं में
बार-बार कण्ठ खोलती हुई हवा
के गूँगे झकोरे,
बालू पर अपने पगचिन्ह बनाने के करुण प्रयास में
बैसाखियों पर चलता हुआ इतिहास,
… लहरों में तुम्हारे श्लोकों से अभिमंत्रित गांडीव
गले हुए सिवार-सा उतरा आया है……
और अब तुम तटस्थ हो और उदास
समुद्र के किनारे नारियल के कुंज हैं
और तुम एक बूढ़े पीपल के नीचे चुपचाप बैठे हो
मौन, परिशमित, विरक्त
और पहली बार जैसे तुम्हारी अक्षय तरुणाई पर
थकान छा रही है!
और चारों ओर
एक खिन्न दृष्टि से देख कर
एक गहरी साँस ले कर
तुमने असफल इतिहास को
जीर्णवसन की भाँति त्याग दिया है
और इस क्षण
केवल अपने में डूबे हुए
दर्द में पके हुए
तुम्हें बहुत दिन बाद मेरी याद आई है!
काँपती हुई दीप लौ जैसे
पीपल के पत्ते
एक-एक कर बुझ गए
उतरता हुआ अँधियारा……
समुद्र की लहरें
अब तुम्हारी फैली हुई साँवरी शिथिल बाँहें हैं
भटकती सीपियाँ तुम्हारे काँपते अधर
और अब इस क्षण में तुम
केवल एक भरी हुई
पकी हुई
गहरी पुकार हो………
सब त्याग कर
मेरे लिए भटकती हुई……
समापन
समापन
क्या तुमने उस वेला मुझे बुलाया था कनु ?
लो, मैं सब छोड़-छाड़ कर आ गयी !
इसी लिए तब
मैं तुममें बूँद की तरह विलीन नहीं हुई थी,
इसी लिए मैंने अस्वीकार कर दिया था
तुम्हारे गोलोक का
कालावधिहीन रास,
क्योंकि मुझे फिर आना था !
तुमने मुझे पुकारा था न
मैं आ गई हूँ कनु ।
और जन्मांतरों की अनन्त पगडण्डी के
कठिनतम मोड़ पर खड़ी होकर
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ ।
कि, इस बार इतिहास बनाते समय
तुम अकेले ना छूट जाओ !
सुनो मेरे प्यार !
प्रगाढ़ केलि-क्षणों में अपनी अंतरंग
सखी को तुमने बाँहों में गूँथा
पर उसे इतिहास में गूँथने से हिचक क्यों गए प्रभु ?
बिना मेरे कोई भी अर्थ कैसे निकल पाता
तुम्हारे इतिहास का
शब्द, शब्द, शब्द…
राधा के बिना
सब
रक्त के प्यासे
अर्थहीन शब्द !
सुनो मेरे प्यार !
तुम्हें मेरी ज़रूरत थी न, लो मैं सब छोड़कर आ गई हूँ
ताकि कोई यह न कहे
कि तुम्हारी अंतरंग केलि-सखी
केवल तुम्हारे साँवरे तन के नशीले संगीत की
लय बन तक रह गई….
मैं आ गई हूँ प्रिय !
मेरी वेणी में अग्निपुष्प गूँथने वाली
तुम्हारी उँगलियाँ
अब इतिहास में अर्थ क्यों नहीं गूँथती ?
तुमने मुझे पुकारा था न!
मैं पगडण्डी के कठिनतम मोड़ पर
तुम्हारी प्रतीक्षा में
अडिग खड़ी हूँ, कनु मेरे !