हरिवंशराय बच्चन की कविता

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    हरिवंशराय बच्चन की कविता

    1. अग्निपथ

    वृक्ष हों भले खड़े,
    हों घने हों बड़े,
    एक पत्र छाँह भी,
    माँग मत, माँग मत, माँग मत,
    अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

    तू न थकेगा कभी,
    तू न रुकेगा कभी,
    तू न मुड़ेगा कभी,
    कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
    अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

    यह महान दृश्य है,
    चल रहा मनुष्य है,
    अश्रु श्वेत रक्त से,
    लथपथ लथपथ लथपथ,
    अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

    2. चल मरदाने

    चल मरदाने, सीना ताने,
    हाथ हिलाते, पांव बढाते,
    मन मुस्काते, गाते गीत ।

    एक हमारा देश, हमारा
    वेश, हमारी कौम, हमारी
    मंज़िल, हम किससे भयभीत ।

    चल मरदाने, सीना ताने,
    हाथ हिलाते, पांव बढाते,
    मन मुस्काते, गाते गीत ।

    हम भारत की अमर जवानी,
    सागर की लहरें लासानी,
    गंग-जमुन के निर्मल पानी,
    हिमगिरि की ऊंची पेशानी
    सबके प्रेरक, रक्षक, मीत ।

    चल मरदाने, सीना ताने,
    हाथ हिलाते, पांव बढाते,
    मन मुस्काते, गाते गीत ।

    जग के पथ पर जो न रुकेगा,
    जो न झुकेगा, जो न मुडेगा,
    उसका जीवन, उसकी जीत ।
    चल मरदाने, सीना ताने,
    हाथ हिलाते, पांव बढाते,
    मन मुस्काते, गाते गीत ।

    3. पथ की पहचान

    पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले

    पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी,
    हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की ज़बानी,
    अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या,
    पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी,
    यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है,
    खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर ले।
    पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

    है अनिश्चित किस जगह पर सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे,
    है अनिश्चित किस जगह पर बाग वन सुंदर मिलेंगे,
    किस जगह यात्रा ख़तम हो जाएगी, यह भी अनिश्चित,
    है अनिश्चित कब सुमन, कब कंटकों के शर मिलेंगे
    कौन सहसा छूट जाएँगे, मिलेंगे कौन सहसा,
    आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले।
    पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

    कौन कहता है कि स्वप्नों को न आने दे हृदय में,
    देखते सब हैं इन्हें अपनी उमर, अपने समय में,
    और तू कर यत्न भी तो, मिल नहीं सकती सफलता,
    ये उदय होते लिए कुछ ध्येय नयनों के निलय में,
    किन्तु जग के पंथ पर यदि, स्वप्न दो तो सत्य दो सौ,
    स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो, सत्य का भी ज्ञान कर ले।
    पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

    स्वप्न आता स्वर्ग का, दृग-कोरकों में दीप्ति आती,
    पंख लग जाते पगों को, ललकती उन्मुक्त छाती,
    रास्ते का एक काँटा, पाँव का दिल चीर देता,
    रक्त की दो बूँद गिरतीं, एक दुनिया डूब जाती,
    आँख में हो स्वर्ग लेकिन, पाँव पृथ्वी पर टिके हों,
    कंटकों की इस अनोखी सीख का सम्मान कर ले।
    पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

    यह बुरा है या कि अच्छा, व्यर्थ दिन इस पर बिताना,
    अब असंभव छोड़ यह पथ दूसरे पर पग बढ़ाना,
    तू इसे अच्छा समझ, यात्रा सरल इससे बनेगी,
    सोच मत केवल तुझे ही यह पड़ा मन में बिठाना,
    हर सफल पंथी यही विश्वास ले इस पर बढ़ा है,
    तू इसी पर आज अपने चित्त का अवधान कर ले।
    पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

    4. आज मुझसे बोल, बादल

    आज मुझसे बोल, बादल!

    तम भरा तू, तम भरा मैं,
    ग़म भरा तू, ग़म भरा मैं,
    आज तू अपने हृदय से हृदय मेरा तोल, बादल
    आज मुझसे बोल, बादल!

    आग तुझमें, आग मुझमें,
    राग तुझमें, राग मुझमें,
    आ मिलें हम आज अपने द्वार उर के खोल, बादल
    आज मुझसे बोल, बादल!

    भेद यह मत देख दो पल-
    क्षार जल मैं, तू मधुर जल,
    व्यर्थ मेरे अश्रु, तेरी बूंद है अनमोल, बादल
    आज मुझसे बोल, बादल!

    5. गर्म लोहा

    गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
    सख्त पंजा, नस कसी चौड़ी कलाई
    और बल्लेदार बाहें,
    और आँखें लाल चिंगारी सरीखी,
    चुस्त औ तीखी निगाहें,
    हाँथ में घन, और दो लोहे निहाई
    पर धरे तू देखता क्या?
    गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।

    भीग उठता है पसीने से नहाता
    एक से जो जूझता है,
    ज़ोम में तुझको जवानी के न जाने
    खब्त क्या क्या सूझता है,
    या किसी नभ देवता नें ध्येय से कुछ
    फेर दी यों बुद्धि तेरी,
    कुछ बड़ा, तुझको बनाना है कि तेरा इम्तहां होता कड़ा है।
    गर्म लोहा पीट, ठंड़ा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।

    एक गज छाती मगर सौ गज बराबर
    हौसला उसमें, सही है;
    कान करनी चाहिये जो कुछ
    तजुर्बेकार लोगों नें कही है;
    स्वप्न से लड़ स्वप्न की ही शक्ल में है
    लौह के टुकड़े बदलते
    लौह का वह ठोस बन कर है निकलता जो कि लोहे से लड़ा है।
    गर्म लोहा पीट, ठंड़ा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।

    घन हथौड़े और तौले हाँथ की दे
    चोट, अब तलवार गढ तू
    और है किस चीज की तुझको भविष्यत
    माँग करता आज पढ तू,
    औ, अमित संतान को अपनी थमा जा
    धारवाली यह धरोहर
    वह अजित संसार में है शब्द का खर खड्ग ले कर जो खड़ा है।
    गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।

    6. शहीद की माँ

    इसी घर से
    एक दिन
    शहीद का जनाज़ा निकला था,
    तिरंगे में लिपटा,
    हज़ारों की भीड़ में।
    काँधा देने की होड़ में
    सैकड़ो के कुर्ते फटे थे,
    पुट्ठे छिले थे।
    भारत माता की जय,
    इंकलाब ज़िन्दाबाद,
    अंग्रेजी सरकार मुर्दाबाद
    के नारों में शहीद की माँ का रोदन
    डूब गया था।
    उसके आँसुओ की लड़ी
    फूल, खील, बताशों की झडी में
    छिप गई थी,
    जनता चिल्लाई थी-
    तेरा नाम सोने के अक्षरों में लिखा जाएगा।
    गली किसी गर्व से
    दिप गई थी।

    इसी घर से
    तीस बरस बाद
    शहीद की माँ का जनाजा निकला है,
    तिरंगे में लिपटा नहीं,
    (क्योंकि वह ख़ास-ख़ास
    लोगों के लिये विहित है)
    केवल चार काँधों पर
    राम नाम सत्य है
    गोपाल नाम सत्य है
    के पुराने नारों पर;
    चर्चा है, बुढिया बे-सहारा थी,
    जीवन के कष्टों से मुक्त हुई,
    गली किसी राहत से
    छुई छुई।

    7. कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

    लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
    कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

    नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
    चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
    मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
    चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
    आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
    कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

    डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है
    जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है
    मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में
    बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में
    मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
    कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

    असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
    क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो
    जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
    संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम
    कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती
    कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

    (इस रचना के बारे में काफी समय से मतभेद
    है कि यह रचना हरिवंश राय बच्चन की है या
    निराला की! महाराष्ट्र पाठ्य पुस्तक समिति के
    अध्यक्ष डॉ. रामजी तिवारी ने बताया कि लगभग
    20 साल पहले अशोक कुमार शुक्ल ने सोहनलाल
    द्विवेदी की यह कविता वर्धा पाठ्यपुस्तक समिति
    को लाकर दी थी। तब यह कविता छ्ठी या
    सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल की गई थी।)

    8. त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन

    त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!

    जब रजनी के सूने क्षण में,
    तन-मन के एकाकीपन में
    कवि अपनी विव्हल वाणी से अपना व्याकुल मन बहलाता,
    त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!

    जब उर की पीडा से रोकर,
    फिर कुछ सोच समझ चुप होकर
    विरही अपने ही हाथों से अपने आंसू पोंछ हटाता,
    त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!

    पंथी चलते-चलते थक कर,
    बैठ किसी पथ के पत्थर पर
    जब अपने ही थकित करों से अपना विथकित पांव दबाता,
    त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!

    9. इतने मत उन्‍मत्‍त बनो

    इतने मत उन्‍मत्‍त बनो!

    जीवन मधुशाला से मधु पी
    बनकर तन-मन-मतवाला,
    गीत सुनाने लगा झूमकर
    चुम-चुमकर मैं प्‍याला-
    शीश हिलाकर दुनिया बोली,
    पृथ्‍वी पर हो चुका बहुत यह,
    इतने मत उन्‍मत्‍त बनो।

    इतने मत संतप्‍त बनो।
    जीवन मरघट पर अपने सब
    आमानों की कर होली,
    चला राह में रोदन करता
    चिता-राख से भर झोली-
    शीश हिलाकर दुनिया बोली,
    पृथ्‍वी पर हो चुका बहुत यह,
    इतने मत संतप्‍त बनो।

    इतने मत उत्‍तप्‍त बनो।
    मेरे प्रति अन्‍याय हुआ है
    ज्ञात हुआ मुझको जिस क्षण,
    करने लगा अग्नि-आनन हो
    गुरू-गर्जन, गुरूतर गर्जन-
    शीश हिलाकर दुनिया बोली,
    पृथ्‍वी पर हो चुका बहुत यह,
    इतने मत उत्‍तप्‍त बनो।

    10. तुम तूफान समझ पाओगे

    गीले बादल, पीले रजकण,
    सूखे पत्ते, रूखे तृण घन
    लेकर चलता करता ‘हरहर’–इसका गान समझ पाओगे?
    तुम तूफान समझ पाओगे ?
    गंध-भरा यह मंद पवन था,
    लहराता इससे मधुवन था,
    सहसा इसका टूट गया जो स्वप्न महान, समझ पाओगे?
    तुम तूफान समझ पाओगे ?

    तोड़-मरोड़ विटप-लतिकाएँ,
    नोच-खसोट कुसुम-कलिकाएँ,
    जाता है अज्ञात दिशा को ! हटो विहंगम, उड़ जाओगे !
    तुम तूफान समझ पाओगे ?

    11. ऐसे मैं मन बहलाता हूँ

    सोचा करता बैठ अकेले,
    गत जीवन के सुख-दुख झेले,
    दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ!
    ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

    नहीं खोजने जाता मरहम,
    होकर अपने प्रति अति निर्मम,
    उर के घावों को आँसू के खारे जल से नहलाता हूँ!
    ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

    आह निकल मुख से जाती है,
    मानव की ही तो छाती है,
    लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ!
    ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

    12. आत्‍मपरिचय

    मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
    फिर भी जीवन में प्‍यार लिए फिरता हूँ;
    कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
    मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!

    मैं स्‍नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
    मैं कभी न जग का ध्‍यान किया करता हूँ,
    जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,
    मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!

    मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
    मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;
    है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता
    मैं स्‍वप्‍नों का संसार लिए फिरता हूँ!

    मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
    सुख-दुख दोनों में मग्‍न रहा करता हूँ;
    जग भ्‍ाव-सागर तरने को नाव बनाए,
    मैं भव मौजों पर मस्‍त बहा करता हूँ!

    मैं यौवन का उन्‍माद लिए फिरता हूँ,
    उन्‍मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,
    जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
    मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!

    कर यत्‍न मिटे सब, सत्‍य किसी ने जाना?
    नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
    फिर मूढ़ न क्‍या जग, जो इस पर भी सीखे?
    मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना!

    मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
    मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
    जग जिस पृथ्‍वी पर जोड़ा करता वैभव,
    मैं प्रति पग से उस पृथ्‍वी को ठुकराता!

    मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
    शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
    हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,
    मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ!

    मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
    मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
    क्‍यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
    मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!

    मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,
    मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;
    जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
    मैं मस्‍ती का संदेश लिए फिरता हूँ!

    13. स्वप्न था मेरा भयंकर

    स्वप्न था मेरा भयंकर!

    रात का-सा था अंधेरा,
    बादलों का था न डेरा,
    किन्तु फिर भी चन्द्र-तारों से हुआ था हीन अम्बर!
    स्वप्न था मेरा भयंकर!

    क्षीण सरिता बह रही थी,
    कूल से यह कह रही थी-
    शीघ्र ही मैं सूखने को, भेंट ले मुझको हृदय भर!
    स्वप्न था मेरा भयंकर!

    धार से कुछ फासले पर
    सिर कफ़न की ओढ चादर
    एक मुर्दा गा रहा था बैठकर जलती चिता पर!
    स्वप्न था मेरा भयंकर!

    14. गीत मेरे

    गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।

    एक दुनिया है हृदय में, मानता हूँ,
    वह घिरी तम से, इसे भी जानता हूँ,
    छा रहा है किंतु बाहर भी तिमिर-घन,
    गीत मेरे, देहरी का द‍ीप-सा बन।

    प्राण की लौ से तुझे जिस काल बारुँ,
    और अपने कंठ पर तुझको सँवारूँ,
    कह उठे संसार, आया ज्‍योति का क्षण,
    गीत मेरे, देहरी का द‍ीप-सा बन।

    दूर कर मुझमें भरी तू कालिमा जब,
    फैल जाए विश्‍व में भी लालिमा तब,
    जानता सीमा नहीं है अग्नि का कण,
    गीत मेरे, देहरी का द‍ीप-सा बन।

    जग विभामय न तो काली रात मेरी,
    मैं विभामय तो नहीं जगती अँधेरी,
    यह रहे विश्‍वास मेरा यह रहे प्रण,
    गीत मेरे, देहरी का द‍ीप-सा बन।

    15. आ रही रवि की सवारी

    आ रही रवि की सवारी।

    नव-किरण का रथ सजा है,
    कलि-कुसुम से पथ सजा है,
    बादलों-से अनुचरों ने स्‍वर्ण की पोशाक धारी।
    आ रही रवि की सवारी।

    विहग, बंदी और चारण,
    गा रही है कीर्ति-गायन,
    छोड़कर मैदान भागी, तारकों की फ़ौज सारी।
    आ रही रवि की सवारी।

    चाहता, उछलूँ विजय कह,
    पर ठिठकता देखकर यह-
    रात का राजा खड़ा है, राह में बनकर भिखारी।
    आ रही रवि की सवारी।

    16. चिड़िया और चुरूंगुन

    छोड़ घोंसला बाहर आया,
    देखी डालें, देखे पात,
    और सुनी जो पत्‍ते हिलमिल,
    करते हैं आपस में बात;-
    माँ, क्‍या मुझको उड़ना आया?
    ‘नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’

    डाली से डाली पर पहुँचा,
    देखी कलियाँ, देखे फूल,
    ऊपर उठकर फुनगी जानी,
    नीचे झूककर जाना मूल;-
    माँ, क्‍या मुझको उड़ना आया?
    ‘नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’

    कच्‍चे-पक्‍के फल पहचाने,
    खए और गिराए काट,
    खने-गाने के सब साथी,
    देख रहे हैं मेरी बाट;-
    माँ, क्‍या मुझको उड़ना आया?
    ‘नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’

    उस तरू से इस तरू पर आता,
    जाता हूँ धरती की ओर,
    दाना कोई कहीं पड़ा हो
    चुन लाता हूँ ठोक-ठठोर;
    माँ, क्‍या मुझको उड़ना आया?
    ‘नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’

    मैं नीले अज्ञात गगन की
    सुनता हूँ अनिवार पुकार
    कोइ अंदर से कहता है
    उड़ जा, उड़ता जा पर मार;-
    माँ, क्‍या मुझको उड़ना आया?

    ‘आज सुफल हैं तेरे डैने,
    आज सुफल है तेरी काया’

    17. आदर्श प्रेम

    प्यार किसी को करना लेकिन
    कह कर उसे बताना क्या
    अपने को अर्पण करना पर
    और को अपनाना क्या

    गुण का ग्राहक बनना लेकिन
    गा कर उसे सुनाना क्या
    मन के कल्पित भावों से
    औरों को भ्रम में लाना क्या

    ले लेना सुगंध सुमनों की
    तोड उन्हे मुरझाना क्या
    प्रेम हार पहनाना लेकिन
    प्रेम पाश फैलाना क्या

    त्याग अंक में पले प्रेम शिशु
    उनमें स्वार्थ बताना क्या
    दे कर हृदय हृदय पाने की
    आशा व्यर्थ लगाना क्या

    18. आत्मदीप

    मुझे न अपने से कुछ प्यार,
    मिट्टी का हूँ, छोटा दीपक,
    ज्योति चाहती, दुनिया जब तक,
    मेरी, जल-जल कर मैं उसको देने को तैयार|

    पर यदि मेरी लौ के द्वार,
    दुनिया की आँखों को निद्रित,
    चकाचौध करते हों छिद्रित
    मुझे बुझा दे बुझ जाने से मुझे नहीं इंकार|

    केवल इतना ले वह जान
    मिट्टी के दीपों के अंतर
    मुझमें दिया प्रकृति ने है कर
    मैं सजीव दीपक हूँ मुझ में भरा हुआ है मान|

    पहले कर ले खूब विचार
    तब वह मुझ पर हाथ बढ़ाए
    कहीं न पीछे से पछताए
    बुझा मुझे फिर जला सकेगी नहीं दूसरी बार|

    19. लहर सागर का श्रृंगार नहीं

    लहर सागर का नहीं श्रृंगार,
    उसकी विकलता है;
    अनिल अम्बर का नहीं खिलवार
    उसकी विकलता है;
    विविध रूपों में हुआ साकार,
    रंगो में सुरंजित,
    मृत्तिका का यह नहीं संसार,
    उसकी विकलता है।

    गन्ध कलिका का नहीं उदगार,
    उसकी विकलता है;
    फूल मधुवन का नहीं गलहार,
    उसकी विकलता है;
    कोकिला का कौन सा व्यवहार,
    ऋतुपति को न भाया?
    कूक कोयल की नहीं मनुहार,
    उसकी विकलता है।

    गान गायक का नहीं व्यापार,
    उसकी विकलता है;
    राग वीणा की नहीं झंकार,
    उसकी विकलता है;
    भावनाओं का मधुर आधार
    सांसो से विनिर्मित,
    गीत कवि-उर का नहीं उपहार,
    उसकी विकलता है।