कविताएँ कुँवर नारायण

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    कविताएँ कुँवर नारायण

    अनुक्रम

    अगली यात्रा

    “अभी-अभी आया हूँ दुनिया से
    थका-मांदा
    अपने हिस्से की पूरी सज़ा काट कर…”
    स्वर्ग की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए
    जिज्ञासु ने पूछा − “मेरी याचिकाओं में तो
    नरक से सीधे मुक्तिधाम की याचना थी,
    फिर बीच में यह स्वर्ग-वर्ग कैसा?”

    स्वागत में खड़ी परिचारिका
    मुस्करा कर उसे
    एक सुसज्जित विश्राम-कक्ष में ले गई,
    नियमित सेवा-सत्कार पूरा किया,
    फिर उस पर अपनी कम्पनी का
    ‘संतुष्ट-ग्राहक’ वाला मशहूर ठप्पा
    लगाते हुए बोली − “आपके लिए पुष्पक-विमान
    बस अभी आता ही होगा।”

    कुछ ही देर बाद आकाशवाणी हुई −
    “मुक्तिधाम के यात्रियों से निवेदन है
    कि अगली यात्रा के लिए
    वे अपने विमान में स्थान ग्रहण करें।”

    भीतर का दृश्य शांत और सुखद था।
    अपने स्थान पर अपने को
    सहेज कर बांधते हुए
    सामने के आलोकित पर्दे पर
    यात्री ने पढ़ा −
    “कृपया अब विस्फोट की प्रतीक्षा करें।”

    अच्छा लगा

    पार्क में बैठा रहा कुछ देर तक
    अच्छा लगा,
    पेड़ की छाया का सुख
    अच्छा लगा,
    डाल से पत्ता गिरा- पत्ते का मन,
    “अब चलूँ” सोचा,
    तो यह अच्छा लगा…

    अंग अंग उसे लौटाया जा रहा था

    अंग-अंग
    उसे लौटाया जा रहा था।

    अग्नि को
    जल को
    पृथ्वी को
    पवन को
    शून्य को।

    केवल एक पुस्तक बच गयी थी
    उन खेलों की
    जिन्हें वह बचपन से
    अब तक खेलता आया था।

    उस पुस्तक को रख दिया गया था
    ख़ाली पदस्थल पर
    उसकी जगह
    दूसरों की ख़ुशी के लिए।

    अलविदा श्रद्धेय!

    अबकी बार लौटा तो
    बृहत्तर लौटूँगा
    चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
    कमर में बाँधे लोहे की पूँछें नहीं
    जगह दूँगा साथ चल रहे लोगों को
    तरेर कर न देखूँगा उन्हें
    भूखी शेर-आँखों से

    अबकी बार लौटा तो
    मनुष्यतर लौटूँगा
    घर से निकलते
    सड़को पर चलते
    बसों पर चढ़ते
    ट्रेनें पकड़ते
    जगह बेजगह कुचला पड़ा
    पिद्दी-सा जानवर नहीं

    अगर बचा रहा तो
    कृतज्ञतर लौटूँगा

    आवाज़ें

    यह आवाज़
    लोहे की चट्टानों पर
    चुम्बक के जूते पहन कर
    दौड़ने की आवाज़ नहीं है

    यह कोलाहल और चिल्लाहटें
    दो सेनाओं के टकराने की आवाज़ है,

    यह आवाज़
    चट्टानों के टूटने की भी नहीं है
    घुटनों के टूटने की आवाज़ है

    जो लड़ कर पाना चाहते थे शान्ति
    यह कराह उनकी निराशा की आवाज़ है,
    जो कभी एक बसी बसाई बस्ती थी
    यह उजाड़ उसकी सहमी हुई आवाज़ है,

    बधाई उन्हें जो सो रहे बेख़बर नींद
    और देख रहे कोई मीठा सपना,
    यह आवाज़ उनके खर्राटों की आवाज़ है,

    कुछ आवाज़ें जिनसे बनते हैं
    हमारे अन्त:करण
    इतनी सांकेतिक और आंतरिक होती है

    कि उनके न रहने पर ही
    हम जान पाते हैं कि वे थीं

    सूक्ष्म कड़ियों की तरह
    आदमी से आदमी को जोड़ती हुई
    अदृश्य शृंखलाएँ

    जब वे नहीं रहतीं तो भरी भीड़ में भी
    आदमी अकेला होता चला जाता है

    मेरे अन्दर की यह बेचैनी
    ऐसी ही किसी मूल्यवान कड़ी के टूटने की
    आवाज़ तो नहीं?

    इतना कुछ था

    इतना कुछ था दुनिया में
    लड़ने झगड़ने को
    पर ऐसा मन मिला
    कि ज़रा-से प्यार में डूबा रहा
    और जीवन बीत गया
    अच्छा लगा
    पार्क में बैठा रहा कुछ देर तक
    अच्छा लगा,
    पेड़ की छाया का सुख
    अच्छा लगा,
    डाल से पत्ता गिरा- पत्ते का मन,
    ”अब चलूँ” सोचा,तो यह अच्छा लगा…

    उजास

    तब तक इजिप्ट के पिरामिड नहीं बने थे
    जब दुनिया में
    पहले प्यार का जन्म हुआ

    तब तक आत्मा की खोज भी नहीं हुई थी,
    शरीर ही सब कुछ था

    काफ़ी बाद विचारों का जन्म हुआ
    मनुष्य के मष्तिष्क से

    अनुभवों से उत्पन्न हुई स्मृतियाँ
    और जन्म-जन्मांतर तक
    खिंचती चली गईं

    माना गया कि आत्मा का वैभव
    वह जीवन है जो कभी नहीं मरता

    प्यार ने
    शरीर में छिपी इसी आत्मा के
    उजास को जीना चाहा

    एक आदिम देह में
    लौटती रहती है वह अमर इच्छा
    रोज़ अँधेरा होते ही
    डूब जाती है वह
    अँधेरे के प्रलय में

    और हर सुबह निकलती है
    एक ताज़ी वैदिक भोर की तरह
    पार करती है
    सदियों के अन्तराल और आपात दूरियाँ
    अपने उस अर्धांग तक पहुँचने के लिए
    जिसके बार बार लौटने की कथाएँ
    एक देह से लिपटी हैं

    उदासी के रंग

    उदासी भी
    एक पक्का रंग है जीवन का

    उदासी के भी तमाम रंग होते हैं
    जैसे
    फ़क्कड़ जोगिया
    पतझरी भूरा
    फीका मटमैला
    आसमानी नीला
    वीरान हरा
    बर्फ़ीला सफ़ेद
    बुझता लाल
    बीमार पीला

    कभी-कभी धोखा होता
    उल्लास के इंद्रधनुषी रंगों से खेलते वक्त
    कि कहीं वे
    किन्हीं उदासियों से ही
    छीने हुए रंग तो नहीं हैं ?

    एक चीनी कवि-मित्र द्वारा बनाए
    अपने एक रेखाचित्र को सोचते हुए

    यह मेरे एक चीनी कवि-मित्र का
    झटपट बनाया हुआ
    रेखाचित्र है

    मुझे नहीं मालूम था कि मैं
    रेखांकित किया जा रहा हूँ

    मैं कुछ सुन रहा था
    कुछ देख रहा था
    कुछ सोच रहा था

    उसी समय में
    रेखाओं के माध्यम से
    मुझे भी कोई
    देख सुन और सोच रहा था।

    रेखाओं में एक कौतुक है
    जिससे एक काग़ज़ी व्योम खेल रहा है

    उसमें कल्पना का रंग भरते ही
    चित्र बदल जाता है
    किसी अनाम यात्री की
    ऊबड़-खाबड़ यात्राओं में।

    शायद मैं विभिन्न देशों को जोड़ने वाले
    किसी ‘रेशमी मार्ग’ पर भटक रहा था।

    ऐतिहासिक फ़ासले

    अच्छी तरह याद है
    तब तेरह दिन लगे थे ट्रेन से
    साइबेरिया के मैदानों को पार करके
    मास्को से बाइजिंग तक पहुँचने में।

    अब केवल सात दिन लगते हैं
    उसी फ़ासले को तय करने में −
    हवाई जहाज से सात घंटे भी नहीं लगते।

    पुराने ज़मानों में बरसों लगते थे
    उसी दूरी को तय करने में।

    दूरियों का भूगोल नहीं
    उनका समय बदलता है।

    कितना ऐतिहासिक लगता है आज
    तुमसे उस दिन मिलना।

    और जीवन बीत गया

    इतना कुछ था दुनिया में
    लड़ने झगड़ने को

    पर ऐसा मन मिला
    कि ज़रा-से प्यार में डूबा रहा

    और जीवन बीत गया..।

    कभी पाना मुझे

    तुम अभी आग ही आग
    मैं बुझता चिराग

    हवा से भी अधिक अस्थिर हाथों से
    पकड़ता एक किरण का स्पन्द
    पानी पर लिखता एक छंद
    बनाता एक आभा-चित्र

    और डूब जाता अतल में
    एक सीपी में बंद

    कभी पाना मुझे
    सदियों बाद

    दो गोलाद्धों के बीच
    झूमते एक मोती में ।

    कोलम्बस का जहाज

    बार-बार लौटता है
    कोलम्बस का जहाज
    खोज कर एक नई दुनिया,
    नई-नई माल-मंडियाँ,
    हवा में झूमते मस्तूल
    लहराती झंडियाँ।

    बाज़ारों में दूर ही से
    कुछ चमकता तो है −
    हो सकता है सोना
    हो सकती है पालिश
    हो सकता है हीरा
    हो सकता है काँच…
    ज़रूरी है पक्की जाँच।

    ज़रूरी है सावधानी
    पृथ्वी पर लौटा है अभी-अभी
    अंतरिक्ष यान
    खोज कर एक ऐसी दुनिया
    जिसमें न जीवन है − न हवा − न पानी −

    जंगली गुलाब

    नहीं चाहिए मुझे
    क़ीमती फूलदानों का जीवन

    मुझे अपनी तरह
    खिलने और मुरझाने दो
    मुझे मेरे जंगल और वीराने दो

    मत अलग करो मुझे
    मेरे दरख़्त से
    वह मेरा घर है
    उसे मुझे अपनी तरह सजाने दो,
    उसके नीचे मुझे
    पंखुरियों की शैय्या बिछाने दो

    नहीं चाहिए मुझे किसी की दया
    न किसी की निर्दयता
    मुझे काट छांट कर
    सभ्य मत बनाओ

    मुझे समझने की कोशिश मत करो
    केवल सुरभि और रंगों से बना
    मैं एक बहुत नाजुक ख्वाब हूँ
    काँटों में पला
    मैं एक जंगली गुलाब हूँ

    जिस समय में

    जिस समय में
    सब कुछ
    इतनी तेजी से बदल रहा है

    वही समय
    मेरी प्रतीक्षा में
    न जाने कब से
    ठहरा हुआ है !

    उसकी इस विनम्रता से
    काल के प्रति मेरा सम्मान-भाव
    कुछ अधिक
    गहरा हुआ है ।

    दीवारें

    अब मैं एक छोटे-से घर
    और बहुत बड़ी दुनिया में रहता हूँ

    कभी मैं एक बहुत बड़े घर
    और छोटी-सी दुनिया में रहता था

    कम दीवारों से
    बड़ा फ़र्क पड़ता है

    दीवारें न हों
    तो दुनिया से भी बड़ा हो जाता है घर।

    नई किताबें

    नई नई किताबें पहले तो
    दूर से देखती हैं
    मुझे शरमाती हुईं

    फिर संकोच छोड़ कर
    बैठ जाती हैं फैल कर
    मेरे सामने मेरी पढ़ने की मेज़ पर

    उनसे पहला परिचय…स्पर्श
    हाथ मिलाने जैसी रोमांचक
    एक शुरुआत…

    धीरे धीरे खुलती हैं वे
    पृष्ठ दर पृष्ठ
    घनिष्ठतर निकटता
    कुछ से मित्रता
    कुछ से गहरी मित्रता
    कुछ अनायास ही छू लेतीं मेरे मन को
    कुछ मेरे चिंतन की अंग बन जातीं
    कुछ पूरे परिवार की पसंद
    ज़्यादातर ऐसी जिनसे कुछ न कुछ मिल जाता

    फिर भी
    अपने लिए हमेशा खोजता रहता हूँ
    किताबों की इतनी बड़ी दुनिया में
    एक जीवन-संगिनी
    थोडी अल्हड़-चुलबुली-सुंदर
    आत्मीय किताब
    जिसके सामने मैं भी खुल सकूँ
    एक किताब की तरह पन्ना पन्ना
    और वह मुझे भी
    प्यार से मन लगा कर पढ़े…

    प्रस्थान के बाद

    दीवार पर टंगी घड़ी
    कहती − “उठो अब वक़्त आ गया।”

    कोने में खड़ी छड़ी
    कहती − “चलो अब, बहुत दूर जाना है।”

    पैताने रखे जूते पाँव छूते
    “पहन लो हमें, रास्ता ऊबड़-खाबड़ है।”

    सन्नाटा कहता − “घबराओ मत
    मैं तुम्हारे साथ हूं।”

    यादें कहतीं − “भूल जाओ हमें अब
    हमारा कोई ठिकाना नहीं।”

    सिरहाने खड़ा अंधेरे का लबादा
    कहता − “ओढ़ लो मुझे
    बाहर बर्फ पड़ रही
    और हमें मुँह-अंधेरे ही निकल जाना है…”

    एक बीमार
    बिस्तर से उठे बिना ही
    घर से बाहर चला जाता।

    बाक़ी बची दुनिया
    उसके बाद का आयोजन है।

    पवित्रता

    कुछ शब्द हैं जो अपमानित होने पर
    स्वयं ही जीवन और भाषा से
    बाहर चले जाते हैं

    ‘पवित्रता’ ऐसा ही एक शब्द है
    जो अब व्यवहार में नहीं,
    उसकी जाति के शब्द
    अब ढूंढें नहीं मिलते
    हवा, पानी, मिट्टी तक में

    ऐसा कोई जीता जागता उदहारण
    दिखाई नहीं देता आजकल
    जो सिद्ध और प्रमाणित कर सके
    उस शब्द की शत-प्रतिशत शुद्धता को !

    ऐसा ही एक शब्द था ‘शांति’.
    अब विलिप्त हो चुका उसका वंश ;
    कहीं नहीं दिखाई देती वह –
    न आदमी के अन्दर न बाहर !
    कहते हैं मृत्यु के बाद वह मिलती है
    मुझे शक है —
    हर ऐसी चीज़ पर
    जो मृत्यु के बाद मिलती है…

    शायद ‘प्रेम’ भी ऐसा ही एक शब्द है, जिसकी अब
    यादें भर बची हैं कविता की भाषा में…

    ज़िन्दगी से पलायन करते जा रहे हैं
    ऐसे तमाम तिरस्कृत शब्द
    जो कभी उसका गौरव थे.

    वे कहाँ चले जाते हैं
    हमारे जीवन को छोड़ने के बाद?

    शायद वे एकांतवासी हो जाते हैं
    और अपने को इतना अकेला कर लेते हैं
    कि फिर उन तक कोई भाषा पहुँच नहीं पाती.

    प्यार की भाषाएँ

    मैंने कई भाषाओँ में प्यार किया है
    पहला प्यार
    ममत्व की तुतलाती मातृभाषा में…
    कुछ ही वर्ष रही वह जीवन में:

    दूसरा प्यार
    बहन की कोमल छाया में
    एक सेनेटोरियम की उदासी तक :

    फिर नासमझी की भाषा में
    एक लौ को पकड़ने की कोशिश में
    जला बैठा था अपनी उंगुलियां:

    एक परदे के दूसरी तरफ़
    खिली धूप में खिलता गुलाब
    बेचैन शब्द
    जिन्हें होठों पर लाना भी गुनाह था

    धीरे धीरे जाना
    प्यार की और भी भाषाएँ हैं दुनिया में
    देशी-विदेशी

    और विश्वास किया कि प्यार की भाषा
    सब जगह एक ही है
    लेकिन जल्दी ही जाना
    कि वर्जनाओं की भाषा भी एक ही है:

    एक-से घरों में रहते हैं
    तरह-तरह के लोग
    जिनसे बनते हैं
    दूरियों के भूगोल…

    अगला प्यार
    भूली बिसरी यादों की
    ऐसी भाषा में जिसमें शब्द नहीं होते
    केवल कुछ अधमिटे अक्षर
    कुछ अस्फुट ध्वनियाँ भर बचती हैं
    जिन्हें किसी तरह जोड़कर
    हम बनाते हैं
    प्यार की भाषा

    प्यार के बदले

    कई दर्द थे जीवन में :
    एक दर्द और सही, मैंने सोचा —
    इतना भी बे-दर्द होकर क्या जीना !

    अपना लिया उसे भी
    अपना ही समझ कर

    जो दर्द अपनों ने दिया
    प्यार के बदले…

    बीमार नहीं है वह

    बीमार नहीं है वह
    कभी-कभी बीमार-सा पड़ जाता है
    उनकी ख़ुशी के लिए
    जो सचमुच बीमार रहते हैं।

    किसी दिन मर भी सकता है वह
    उनकी खुशी के लिए
    जो मरे-मरे से रहते हैं।

    कवियों का कोई ठिकाना नहीं
    न जाने कितनी बार वे
    अपनी कविताओं में जीते और मरते हैं।

    उनके कभी न मरने के भी उदाहरण हैं
    उनकी ख़ुशी के लिए
    जो कभी नहीं मरते हैं।

    मामूली ज़िन्दगी जीते हुए

    जानता हूँ कि मैं
    दुनिया को बदल नहीं सकता,
    न लड़ कर
    उससे जीत ही सकता हूँ

    हाँ लड़ते-लड़ते शहीद हो सकता हूँ
    और उससे आगे
    एक शहीद का मकबरा
    या एक अदाकार की तरह मशहूर…

    लेकिन शहीद होना
    एक बिलकुल फ़र्क तरह का मामला है

    बिलकुल मामूली ज़िन्दगी जीते हुए भी
    लोग चुपचाप शहीद होते देखे गए हैं

    मेरे दुःख

    मेरे दुःख अब मुझे चौकाते नहीं
    उनका एक रिश्ता बन गया है
    दूसरों के दुखों से
    विचित्र समन्वय है यह
    कि अब मुझे दुःस्वप्नों से अधिक
    जीवन का यथार्थ विचलित करता है

    अखबार पढ़ते हुए घबराहट होती-
    शहरों में बस्तियों में
    रोज यही हादसा होता-
    कि कोई आदमखोर निकलता
    माँ के बगल में सोयी बच्ची को
    उठा ले जाता –
    और सुबह-सुबह जो पढ़ रहा हूँ
    वह उस हादसे की खबर नहीं
    उसके अवशेष हैं।

    जो बच रहा

    पटना के निकट रेल-दुर्घटना में
    मृतकों की सूची में देख कर अपना नाम
    हरदयाल चौंक पड़े-“अरे,
    मैं तो अभी जिन्दा हूँ!”
    (फिर कौन था वह दूसरा, जो मारा गया?
    क्या कोई और भी हो सकता है
    मुझ जैसा ही?)

    विस्फोट असफल रहा।
    वे जिन्हें नहीं जीतना चाहिए था
    हार गए अपने आप।

    क़िले से उठता धुआँ

    लगता है कोई भीषण दुर्व्यवस्था
    हमारी रक्षा कर रही।

    जो बच रहा उसने सोचा-
    एक मौका है
    अब लौटना चाहिए :
    मनुष्य होने का पूरा तात्पर्य
    संगठित हो सकता है
    एक कूटुम्ब के आसपास :

    निर्वाचित हो सकता है बहुमत से
    पृथ्वी पर उसका प्रतिनिधित्व।

    रसोई से उठता धुआँ
    आश्चर्य, बिना सुरक्षा-बलों के भी
    सुरक्षित थी गृहस्थी : पत्नी बेचारी
    ईमानदारी की तरह खुश थी
    नहीं-बराबर-जगह में भी :
    साइकिल से स्कूल गया बच्चा
    सकुशल लौट आया था
    एक खुंख्वार ट्रेफ़िक के जबड़ों से बच कर…
    पत्नी से बोले हरदयाल :

    “शायद मैं स्वप्न देख रहा था।
    सुनो, अब हमारी ख़ैर नहीं :
    एक उत्तेजित भीड़ ने हमें
    खुशी से गले मिलते देख लिया है,
    हम चारों तरफ से घिर गए हैं,
    कल ख़बर छपेगी कि हम
    किसी मुठभेड़ में
    या भेड़ियाधसान में मारे गए…।”

    “नहीं, ऐसा नहीं होगा,” उसने सरलता से कहा,
    “तुम डर गए हो :
    वे हमारे पड़ोसी हैं।
    उनकी आँखें हमारी ख़ुशी से नम हैं :
    उन्हें अपने विश्वास का चेहरा दो-
    वे भीड़ नहीं, हम हैं।”

    मैं कहीं और भी होता हूँ

    मैं कहीं और भी होता हूँ
    जब कविता लिखता

    कुछ भी करते हुए
    कहीं और भी होना
    धीरे-धीरे मेरी आदत-सी बन चुकी है

    हर वक़्त बस वहीं होना
    जहाँ कुछ कर रहा हूँ
    एक तरह की कम-समझी है
    जो मुझे सीमित करती है

    ज़िन्दगी बेहद जगह मांगती है
    फैलने के लिए

    इसे फैसले को ज़रूरी समझता हूँ
    और अपनी मजबूरी भी
    पहुंचना चाहता हूँ अन्तरिक्ष तक
    फिर लौटना चाहता हूँ सब तक
    जैसे लौटती हैं
    किसी उपग्रह को छूकर
    जीवन की असंख्य तरंगें…

    मौत ने कहा

    फ़ोन की घण्टी बजी
    मैंने कहा — मैं नहीं हूँ
    और करवट बदल कर सो गया।

    दरवाज़े की घण्टी बजी
    मैंने कहा — मैं नहीं हूँ
    और करवट बदल कर सो गया।

    अलार्म की घण्टी बजी
    मैंने कहा — मैं नहीं हूँ
    और करवट बदल कर सो गया।

    एक दिन
    मौत की घण्टी बजी…
    हड़बड़ा कर उठ बैठा —
    मैं हूँ… मैं हूँ… मैं हूँ..

    मौत ने कहा —
    करवट बदल कर सो जाओ।

    रोते-हँसते

    जैसे बेबात हँसी आ जाती है
    हँसते चेहरों को देख कर

    जैसे अनायास आँसू आ जाते हैं
    रोते चेहरों को देख कर

    हँसी और रोने के बीच
    काश, कुछ ऐसा होता रिश्ता
    कि रोते-रोते हँसी आ जाती
    जैसे हँसते-हँसते आँसू !

    सुबह हो रही थी

    सुबह हो रही थी
    कि एक चमत्कार हुआ
    आशा की एक किरण ने
    किसी बच्ची की तरह
    कमरे में झाँका

    कमरा जगमगा उठा

    “आओ अन्दर आओ, मुझे उठाओ”
    शायद मेरी ख़ामोशी गूँज उठी थी।

    छोटी सी दुनिया

    छोटी-सी दुनिया
    बड़े-बड़े इलाके
    हर इलाके के
    बड़े-बड़े लड़ाके
    हर लड़ाके की
    बड़ी-बड़ी बन्दूकें
    हर बन्दूक के बड़े-बड़े धड़ाके
    सब को दुनिया की चिन्ता
    सब से दुनिया को चिन्ता

    खाली पीछा

    एक बार धोखा हुआ
    कि तितलियों के देश में पहुँच गया हूँ
    और एक तितली मेरा पीछा कर रही…

    मैं ठहर गया
    तो वह भी ठहर गई,
    मैंने अपने पीछे मुड़कर देखा
    तो अपने पीछे मुड़कर उसने भी देखा
    फिर जब मैं उसके पीछे भागने लगा
    वह भी अपने पीछे की ओर भागने लगी।

    दरअसल वह भी
    मेरी तरह धोखे में थी
    कि वह तितलियों के देश में है
    और कोई उसका पीछा कर रहा है।

    कोई दुःख

    कोई दु:ख
    मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं-

    वही हारा
    जो लड़ा नहीं

    कविता की मधुबनी में

    सुबह से ढूँढ़ रहा हूँ
    अपनी व्यस्त दिनचर्या में
    सुकून का वह कोना
    जहाँ बैठ कर तुम्हारे साथ
    महसूस कर सकूँ सिर्फ अपना होना

    याद आती बहुत पहले की
    एक बरसात,
    सर से पाँव तक भीगी हुई
    मेरी बाँहों में कसमसाती एक मुलाकात

    थक कर सो गया हूँ
    एक व्यस्त दिन के बाद :
    यादों में खोजे नहीं मिलती
    वैसी कोई दूसरी रात।

    बदल गए हैं मौसम,
    बदल गए हैं मल्हार के प्रकार –
    न उनमें अमराइयों की महक
    न बौराई कोयल की बहक

    एक अजनबी की तरह भटकता कवि-मन
    अपनी ही जीवनी में
    खोजता एक अनुपस्थिति को
    कविता की मधुबनी में…