कोई दूसरा नहीं कुँवर नारायण

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    कोई दूसरा नहीं कुँवर नारायण

    अनुक्रम

    उत्केंद्रित ?

    मैं ज़िंदगी से भागना नहीं
    उससे जुड़ना चाहता हूँ। –
    उसे झकझोरना चाहता हूँ
    उसके काल्पनिक अक्ष पर
    ठीक उस जगह जहाँ वह
    सबसे अधिक बेध्य हो कविता द्वारा।

    उस आच्छादित शक्ति-स्त्रोत को
    सधे हुए प्रहारों द्वारा
    पहले तो विचलित कर
    फिर उसे कीलित कर जाना चाहता हूँ
    नियतिबद्ध परिक्रमा से मोड़ कर
    पराक्रम की धुरी पर
    एक प्रगति-बिन्दु
    यांत्रिकता की अपेक्षा
    मनुष्यता की ओर ज़्यादा सरका हुआ…

    जन्म-कुंडली

    फूलों पर पड़े-पड़े अकसर मैंने
    ओस के बारे में सोचा है –

    किरणों की नोकों से ठहराकर
    ज्योति-बिन्दु फूलों पर
    किस ज्योतिर्विद ने
    इस जगमग खगोल की
    जटिल जन्म-कुंडली बनायी है ?

    फिर क्यों निःश्लेष किया
    अलंकरण पर भर में ?
    एक से शून्य तक
    किसकी यह ज्यामितिक सनकी जमुहाई है ?

    और फिर उनको भी सोचा है –
    वृक्षों के तले पड़े
    फटे-चिटे पत्ते—–
    उनकी अंकगणित में
    कैसी यह उधेडबुन ?

    हवा कुछ गिनती हैः
    गिरे हुए पत्तों को कहीं से उठाती
    और कहीं पर रखती है ।
    कभी कुछ पत्तों को डालों से तोड़कर
    यों ही फेंक देती है मरोड़कर …।

    कभी-कभी फैलाकर नया पृष्ठ – अंतरिक्ष-
    गोदती चली जाती…वृक्ष…वृक्ष…वृक्ष

    अबकी बार लौटा तो

    अबकी बार लौटा तो
    बृहत्तर लौटूंगा
    चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
    कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं
    जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
    तरेर कर न देखूंगा उन्हें
    भूखी शेर-आँखों से

    अबकी बार लौटा तो
    मनुष्यतर लौटूंगा
    घर से निकलते
    सड़को पर चलते
    बसों पर चढ़ते
    ट्रेनें पकड़ते
    जगह बेजगह कुचला पड़ा
    पिद्दी-सा जानवर नहीं

    अगर बचा रहा तो
    कृतज्ञतर लौटूंगा

    अबकी बार लौटा तो
    हताहत नहीं
    सबके हिताहित को सोचता
    पूर्णतर लौटूंगा

    घर पहुँचना

    हम सब एक सीधी ट्रेन पकड़ कर
    अपने अपने घर पहुँचना चाहते

    हम सब ट्रेनें बदलने की
    झंझटों से बचना चाहते

    हम सब चाहते एक चरम यात्रा
    और एक परम धाम

    हम सोच लेते कि यात्राएँ दुखद हैं
    और घर उनसे मुक्ति

    सचाई यूँ भी हो सकती है
    कि यात्रा एक अवसर हो
    और घर एक संभावना

    ट्रेनें बदलना
    विचार बदलने की तरह हो
    और हम सब जब जहाँ जिनके बीच हों
    वही हो
    घर पहुँचना

    दुनिया को बड़ा रखने की कोशिश

    असलियत यही है कहते हुए
    जब भी मैंने मरना चाहा
    ज़िन्दगी ने मुझे रोका है।

    असलियत यही कहते हुए
    जब भी मैंने जीना चाहा
    ज़िन्दगी ने मुझे निराश किया।

    असलियत कुछ नहीं है कहते हुए
    जब भी मैंने विरक्‍त होना चाहा
    मुझे लगा मैं कुछ नहीं हूँ।

    मैं ही सब कुछ हूँ कहते हुए
    जब भी मैंने व्यक्त होना चाहा
    दुनिया छोटी पड़ती चली गई
    एक बहुत बड़ी महत्तवाकांक्षा के सामने।

    असलियत कहीं और है कहते हुए
    जब भी मैंने विश्वासों का सहारा लिया-
    लगा यह खाली जगहों और खाली वक़्तों को
    और अधिक ख़ाली करने-जैसी चेष्टा थी कि मैं उन्हें
    एक ईश्वर-क़द उत्तरकाण्ड से भर सकता हूँ।

    मैं कुछ नहीं हूँ कहते हुए
    जब भी मैंने छोटा होना चाहा।
    इस एक तथ्य से बार-बार लज्जित हुआ हूँ
    कि दुनिया में आदमी के छोटेपन से ज़्यादा छोटा
    और कुछ नहीं हो सकता।

    पराजय यही है कहते हुए
    जब भी मैंने विद्रोह किया
    और अपने छोटेपन से ऊपर उठना चाहा
    मुझे लगा कि अपने को बड़ा रखने की
    छोटी-से-छोटी कोशिश भी
    दुनिया को बड़ा रखने की कोशिश है।

    पालकी

    काँधे धरी यह पालकी, है किस कन्हैयालाल की?

    इस गाँव से उस गाँव तक
    नंगे बदता फैंटा कसे
    बारात किसकी ढो रहे
    किसकी कहारी में फंसे?

    यह कर्ज पुश्तैनी अभी किश्तें हज़ारो साल की
    काँधे धरी यह पालकी, है किस कन्हैयालाल की?

    इस पाँव से उस पाँव पर
    ये पाँव बेवाई फटे
    काँधे धरा किसका महल?
    हम नीव पर किसकी डटे?

    यह माल ढोते थक गई तक़दीर खच्चर हाल की
    काँधे धरी यह पालकी, है किस कन्हैयालाल की?

    फिर एक दिन आँधी चली
    ऐसी कि पर्दा उड़ गया
    अन्दर न दुल्हन थी न दूल्हा
    एक कौवा उड़ गया…

    तब भेद जाकर यह खुला – हमसे किसी ने चाल की
    काँधे धरी यह पालकी, लाला अशर्फी लाल की?

    सम्मेदीन की लड़ाई

    ख़बर है
    कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध
    बिल्कुल अकेला लड़ रहा है एक युद्ध
    कुराहा गाँव का ख़ब्ती सम्मेदीन

    बदमाशों का दुश्मन
    जान गवाँ बैठेगा एक दिन
    इतना अकड कर अपने को
    समाजसेवी कहने वाला सम्मेदीन

    यह लड़ाई ज्यादा नहीं चलने की
    क्योंकि उसके रहते
    चोरों की दाल नहीं गलने की
    एक छोटे से चक्रव्यूह में घिरा है वह
    और एक महाभारत में प्रतिक्षण
    लोहूलुहान हो रहा है सम्मेदीन
    भरपूर उजाले में रहे उसकी हिम्मत
    दुनिया को खबर रहे
    कि एक बहुत बड़े नैतिक साहस का नाम है सम्मेदीन

    जल्दी ही वह मारा जाएगा।
    सिर्फ़ उसका उजाला लड़ेगा
    अंधेरों के ख़िलाफ़… खबर रहे

    किस-किस के खिलाफ लड़ते हुए
    मारा गया निहत्था सम्मेदीन

    बचाए रखना
    उस उजाले को
    जिसे अपने बाद
    जिन्दा छोड़ जाने के लिए
    जान पर खेल कर आज
    एक लड़ाई लड़ रहा है
    किसी गाँव का कोई खब्ती सम्मेदीन

    शब्दों की तरफ़ से

    कभी कभी शब्दों की तरफ़ से भी
    दुनिया को देखता हूँ ।

    किसी भी शब्द को
    एक आतशी शीशे की तरह
    जब भी घुमाता हूँ आदमी, चीज़ों या सितारों की ओर
    मुझे उसके पीछे
    एक अर्थ दिखाई देता
    जो उस शब्द से कहीं बड़ा होता है

    ऐसे तमाम अर्थों को जब
    आपस में इस तरह जोड़ना चाहता हूँ
    कि उनके योग से जो भाषा बने
    उसमें द्विविधाओं और द्वाभाओं के
    सन्देहात्मक क्षितिज न हों, तब-

    सरल और स्पष्ट
    (कुटिल और क्लिष्ट की विभाषाओं में टूट कर)
    अकसर इतनी द्रुतगति से अपने रास्तों को बदलते
    कि वहाँ विभाजित स्वार्थों के जाल बिछे दिखते
    जहाँ अर्थपूर्ण संधियों को होना चाहिए ।

    एक यात्रा के दौरान

    (1)
    सफ़र से पहले अकसर

    रेल-सी लम्बी एक सरसराहट

    मेरी रीढ़ पर रेंग जाया करती है।

    याद आने लगते कुछ बढ़ते फ़ासले-

    जैसे जनता और सरकार के बीच,
    जैसे उसूलों और व्यवहार के बीच,

    जैसे सम्पत्ति और विपत्ति के बीच,

    जैसे गति और प्रगति के बीच

    घेरने लगती कुछ असह्य नज़दीकियाँ-

    जैसे दृढ़ता और विचलन के बीच,

    जैसे तेज़ी और फिसलन के बीच,

    जैसे सफ़ाई और गन्दगी के बीच,

    जैसे मौत और जिन्दगी के बीच ।

    याद आते छोटे-छोटे स्टेशनों पर फैले

    बीमार रोशनी के मैले मरियल उजाले,

    गाड़ी छूटने का बौखलाहट–भरा वक़्त,

    आरक्षण-चार्ट की अन्तिम कार्बन-कापी,

    याद आती ट्रेन के इस छोर से उस छोर तक

    बदहवास दौड़ती जनता अपने बीवी, बच्चों,

    सामान, कुली और जेब को एक साथ संभाले….

    (2)
    सुबह चार बजे मुझे एक ट्रेन पकड़ना है।

    मुझे एक यात्रा पर जाना है।

    मुझे काम पर जाना है।

    मुझे कहाँ जाना है

    दशरथ की पत्नियों के प्रपंच से बच कर ?

    मुझ तरह तरह के कामों के पीछे

    कहाँ कहाँ जाना है ?

    कहाँ नहीं जाना है ?

    (3)
    एक गहरे विवाद में

     

    फँस गया है मेरा कर्तव्य-बोध :

    ट्रेन ही नहीं एक रॉकेट भी

    पकड़ना है मुझे अन्तरिक्ष के लिए

    ताकि एक डब्बे में ठसाठस भरा

    मेरा ग़रीब देश भी

    कह सके सगर्व कि देखो

    हम एक साधारण आदमी भी

    पहुँचा दिए गए चाँद पर

    पृथ्वी के आकर्षण के विरुद्ध

    आकाश की ओर ले जानेवाले ज्ञान के

    हम आदिम आचार्य हैं ।

    हमारी पवित्र धरती पर

    आमंत्रित देवताओं के विमान :

    न जाने कितनी बार हमने

    स्थापित किए हैं गगनचुम्बी उँचाइयों के कीर्तिमान !

    पर आज

    गृहदशा और ग्रहदशा दोनों

    कुछ ऐसे प्रतिकूल

    कि सातों दिन दिशाशूल :

    करते प्रस्थान

    रख कर हथेली पर जान

    चलते ज़मीन पर देखते आसमान,

    काल-तत्व खींचातान : एक आँख

    हाथ की घड़ी पर

    दूसरी आँख संकट की घड़ी पर ।

    न पकड़ से छूटता पुराना सामान,

    न पकड़ में आता छूटता वर्तमान।

    (4)
    …घटनाचक्र की तरह घूमते पहिये :

    वह भी एक नाटकीय प्रवेश होता है

    चलती ट्रेन पकड़ने वक़्त, जब एक पाँव

    छूटती ट्रेन पर और दूसरा

    छूटते प्लेटफ़ार्म पर होता है

    सरकते साँप-सी एक गति

    दो क़दमों के बीच की फिसलती जगह में,

    जब मौत को एक ही झटके में लाँघ कर

    हम डब्बे में निरापद हो जाना चाहते हैं :

    वह एक नया शुभारम्भ होता है किसी यात्रा का

    भागती ट्रेन में दोनो पांव जब

    एक ही समय में एक ही जगह होते हैं,

    जब कोई ख़तरा नहीं नज़र आता

    दो गतियों के बीच एक तीसरी संभावना का ।

    भविष्य के प्रति आश्वस्त

    एक बार फिर जब हम

    दुश्चिन्तामुक्त समय में – स्थिर चित्त –

    केवल जेब में रख्खे टिकट को सोचते हैं,

    उसके या अपने कहीं गिर जाने को नहीं ।

    (5)
    कभी कभी दूसरों का साथ होना मात्र

    हमें कृतज्ञ करता

    दूसरों के साथ होने मात्र के प्रति,

    किसी का सीट बराबर जगह दे देना भी

    हमें विश्वास दिलाता कि दुनिया बहुत बड़ी है,

    जब अटैची पर एक हल्की-सी पकड़ भी

    ज़िंदगी पर पकड़ मालूम होती है,

    और दूसरों के लिए चिन्ता

    अपने लिए चिन्ताओं से मुक्ति…..

    (6)
    कुछ आवाज़ें ।

    कोई किसी को लेने आया है ।

    कुछ और आवाज़ें ।

    कोई किसी को छोड़ने आया है।

    किसी का कुछ छूट गया है।

    छूटते स्टेशन पर

    छूटे वक़्त की हड़बड़ी में ।

    अब एक बज रहा स्टेशन की घड़ी में ।

    (7)
    क्यों किसी की सन्दूक का कोना

    अचानक मेरी पिण्डली में गड़ने लगा ?

    क्यों मेरे सिर के ठीक ऊपर टिका

    गिरने-गिरने को वह बिस्तर अखरने लगा ?

    कौन हैं वे ?

    क्यों मेरी चिन्ताओं का एक कोना

    उनसे भरने लगा ?-

    मेरी एक ओर बैठा वह

    विक्षिप्त –सा युवक,

    मेरी दूसरी ओर वह चिन्तित स्त्री,

    अपने बच्चेको छाती से चिपकाये

    दोनों के बीच मैं कौन हूँ —

    केवल एक आरक्षित जगह का दावेदार ?

    वह स्त्री और वह बच्चा

    क्यों नहीं दो मनुष्यों के बीच

    एक पूर्णतः सुरक्षित संसार ?

    क्यों यह निरन्तर आने जाने का क्रम

    अनाश्वस्त करता –

    और उस पूरी व्यवस्था को ध्वस्त

    जिस हम किसी तरह

    दो स्टेशनों के बीच मान लेते हैं ?

    जो अनायास मिलता और छूट जाता

    क्यों ऐसा

    मानो कुछ बनता और टूट जाता ?

    (8)
    शायद मैं ऊँघ कर

    लुढ़क गया था एक स्वप्न में –

    एक प्राचीन शिलालेख के अधमिटे अक्षर

    पढ़ते हुए चकित हूँ कि इतना सब समय

    कैसे समा गया दो ही तारीख़ों के बीच

    कैसे अट गया एक ही पट पर

    एक जन्म

    एक विवरण

    एक मृत्यु

    और वह एक उपदेश-से दिखते

    अमूर्त अछोर आकाश का अटूट विस्तार

    जिसमे न कहीं किसी तरफ़

    ले जाते रास्ते

    न कहीं किसी तरफ़ बुलाते संकेत,

    केवल एक अदृश्य हाथ

    अपने ही लिखे को कभी कहता स्वप्न

    कभी कहता संसार……

    अचानक वह ट्रेन जिसमें रखा हुआ था मैं

    और खिलौने की तरह छोटी हो गई,

    और एक बच्चे की हथेलियाँ इतनी बड़ी

    कि उस पर रेल-रेल खेलने लगे फ़ासले

    बना कर छोटे बड़े घर, पहाड़, मैदान, नदी, नाले …..

    उसकी क़लाई में बंधी पृथ्वी

    अकस्मात् बज उठी जैसे घुँघरू

    रेल की सीटी …..

    (9)
    शायद उसी वक़्त मैंने

    गिरते देका था ट्रेन से दो पांवों की

    और चौंक कर उठ बैठा था ।

    पैताने दो पांव-

    क्यों हैं यहां ? क्या करूं इनका ?

    सोच रात है अभी,

    सुबह उतार लूँगा इन्हें

    अपने सामान के साथ ।

    सुबह हुई तो देखा

    कन्धों पर ढो रहे थे मुझे

    किसी और के पाँव ।

    हफ़्ते…..महीने….साल….

    बीत गए पल भर में,

    “पिता ? तुम ? यहां ?”

    “मुझे चाहिए मेरे पाँव,….वापस करो उन्हें ।”

    “नहीं,वे मेरे हैं : मैं

    उन पर आश्रित हूँ।

    और मेरा परिवार :

    मैं उन्हें नहीं दे सकता तुम्हें !”

    वे हँसने लगे, एक बेजान असंगत हँसी ।

    कभी कभी किसी विषम घड़ी में हम

    जी डालते हैं एक पूरा जीवन – एक पूरी मृत्यु —

    एक पूरा सन्देह कि कौन चल रहा है

    किसके पाँवों पर ?

    (10)
    नींद खुल गई थी

    शायद किसी बच्चे के रोने से

    या किसी माँ के परेशान होने से

    या किसी के अपनी जगह से उठने से

    या ट्रेन की गति के धीमी पड़ने से

    या शायद उस हड़कम्प से जो

    स्टेशन पास आने पर मचता है…..

    बाहर अँधेरा ।

    भीतर इतना सब

    एक मामूली-सी रोशनी में भी जगमग

    जागता और जगाता हुआ ।

    एक छोटा–सा प्लेटफ़ॉर्म सरक कर पास आता

    सुबह की रोशनी में,

    डब्बे में चढ़ते उतरते लोगों का ताँता

    कोई जगह ख़ाली करता

    कोई जगह बनाता ।

    (11)
    बाहर किसी घसीट लिखावट में

    लिखे गए परिचित यात्रा-वृत्तान्त के

    फरकराते दृश्यों को बिना पढ़े

    पन्नों पर पन्ने उलटती चली जाती रफ़्तार :

    विवरण कहीं कहीं रोचक

    प्लॉट अव्यवस्थित, उथले विचार, उबाऊ विस्तार !

    भीतर एक डब्बे में खचाखच भरा

    एक टुकड़ा भारतीय समाज

    मानो कहानियों, फिल्मों, कॉमिक्स, अख़बार आदि से

    लेकर बनाये गये चरित्रों का कोलाज ।

    (12)
    यहाँ और वहाँ के बीच

    कहीं किसी उजाड़ जगह

    अनिश्चित काल के लिए

    खड़ी हो गई है ट्रेन ।

    दूर तक फैली ऊबड़खाबड़ पहाड़ियाँ,

    जगह जगह टेसू और बबूल की झाड़ियाँ,

    काँस औऱ जँगली घास के झाड़झंखाड़,

    जहाँ तहाँ बरसाती पानी के तलाब …..

    वह सब जो चल रहा था

    अचानक अकारण अमय कहीं रुक गया है

    आशंका और उतावली के किसी असह्य बिन्दु पर ।

    कुछ हुआ है जो नहीं होना चाहिए था

    जो अकसर होता रहता है जीवन में ।

    कौन थे वे जो होकर भी नहीं होते ?

    ऐसा क्यों हुआ ? वैसा क्यों नहीं हुआ

    जैसा होना चाहिए था ?

    सवालों के एक उफान के बाद

    अलग अलग अनुमानों में निथर कर

    बैठ गई हैं उत्सुकताएँ ।

    फिर चल पड़ती है ट्रेन एक धक्के से

    घसीटती हुई अपने साथ

    उस शेष को भी जो घटित होगा

    कुछ समय बाद

    कहीं और

    किसी अन्य यहाँ और वहाँ के बीच

    (13)
    धीमी पड़ती चाल ।

    अगले ठहराव पर

    उतर जाना है मुझे ।

    एक सिहरन-सी दौड़ जाती नसों में ।

    पहली बार वहाँ जा रहा हूँ ।

    हो सकता है कोई लेने आये, या कोई नहीं

    केवल एक सपाट प्लटफॉर्म मिले,

    बर्फीली ठंढक, अँधेरे और अनिश्चय का

    घना कोहरा : इतनी रात गये

    एक बिल्कुल नयी जगह से नयी तरह

    संबंध बनाता हुआ एक अजनबी ।

    एक ख़ामोश-सी तैयारी है मेरे आसपास

    जैसे यह मेरा घर था

    और अब मैं उसे छोड़कर कहीं और जा रहा हूँ ।

    (14)
    कुछ लोग मुझे लेने आये हैं ।

    मैं उन्हें नहीं जानता :

    जैसे कुछ लोग मुझे छोड़ने आये थे

    जिन्हें मैं जानता था ।

    ट्रेन जा चुकी है

    एक अस्थायी भागदौड़ और अव्यवस्था बाद

    प्लेटफ़ॉर्म फिर एक सन्नाटे में जम गया है ।

    (15)
    आश्चर्य ! वह स्त्री और बच्चा भी

     

    अकेले खड़े हैं उधर ।

    क्या मैं कुछ कर सकता हूँ उनके लिए ?

    स्त्री मुझे निरीह आँखों से देखती है –

    “वो आते होंगे, मेरे लिए भी ……”

    कुछ दूर चल कर

    ठहर गया हूं –

    उसके लिए ?

    या अपने लिए ?

    देखता हूं उसकी आंखों में

    जो घिर आई थी एक दुश्चिन्ता-सी

    एक सरल कृतज्ञता में बदल जाती ।

    गले तक धरती में

    गले तक धरती में गड़े हुए भी
    सोच रहा हूँ
    कि बँधे हों हाथ और पाँव
    तो आकाश हो जाती है उड़ने की ताक़त

    जितना बचा हूँ
    उससे भी बचाये रख सकता हूँ यह अभिमान
    कि अगर नाक हूँ
    तो वहाँ तक हूँ जहाँ तक हवा
    मिट्टी की महक को
    हलकोर कर बाँधती
    फूलों की सूक्तियों में
    और फिर खोल देती
    सुगन्धि के न जाने कितने अर्थों को
    हज़ारों मुक्तियों में

    कि अगर कान हूँ
    तो एक धारावाहिक कथानक की
    सूक्ष्मतम प्रतिध्वनियों में
    सुन सकने का वह पूरा सन्दर्भ हूँ
    जिसमें अनेक प्राथनाएँ और संगीत
    चीखें और हाहाकार
    आश्रित हैं एक केन्द्रीय ग्राह्यता पर
    अगर ज़बान हूँ
    तो दे सकता हूँ ज़बान
    ज़बान के लिए तरसती ख़ामोशियों को –
    शब्द रख सकता हूँ वहाँ
    जहाँ केवल निःशब्द बेचैनी है

    अगर ओंठ हूँ
    तो रख सकता हूँ मुर्झाते ओठों पर भी
    क्रूरताओं को लज्जित करती
    एक बच्चे की विश्वासी हँसी का बयान

    अगर आँखें हूँ
    तो तिल-भर जगह में
    भी वह सम्पूर्ण विस्तार हूँ
    जिसमें जगमगा सकती है असंख्य सृष्टियाँ ….

    गले तक धरती में गड़े हुए भी
    जितनी देर बचा रह पाता है सिर
    उतने समय को ही अगर
    दे सकूँ एक वैकल्पिक शरीर
    तो दुनिया से करोड़ों गुना बड़ा हो सकता है
    एक आदमक़द विचार ।

    भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में

    प्लास्टिक के पेड़
    नाइलॉन के फूल
    रबर की चिड़ियाँ

    टेप पर भूले बिसरे
    लोकगीतों की
    उदास लड़ियाँ…..

    एक पेड़ जब सूखता
    सब से पहले सूखते
    उसके सब से कोमल हिस्से-
    उसके फूल
    उसकी पत्तियाँ ।

    एक भाषा जब सूखती
    शब्द खोने लगते अपना कवित्व
    भावों की ताज़गी
    विचारों की सत्यता –
    बढ़ने लगते लोगों के बीच
    अपरिचय के उजाड़ और खाइयाँ ……

    सोच में हूँ कि सोच के प्रकरण में
    किस तरह कुछ कहा जाय
    कि सब का ध्यान उनकी ओर हो
    जिनका ध्यान सब की ओर है –

    कि भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में
    आग यदि लगी तो पहले वहाँ लगेगी
    जहाँ ठूँठ हो चुकी होंगी
    अपनी ज़मीन से रस खींच सकनेवाली शक्तियाँ ।

    बात सीधी थी पर

    बात सीधी थी पर एक बार
    भाषा के चक्कर में
    ज़रा टेढ़ी फँस गई ।

    उसे पाने की कोशिश में
    भाषा को उलटा पलटा
    तोड़ा मरोड़ा
    घुमाया फिराया
    कि बात या तो बने
    या फिर भाषा से बाहर आये-
    लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
    बात और भी पेचीदा होती चली गई ।

    सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
    मैं पेंच को खोलने के बजाय
    उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
    क्यों कि इस करतब पर मुझे
    साफ़ सुनायी दे रही थी
    तमाशाबीनों की शाबाशी और वाह वाह ।

    आख़िरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था –
    ज़ोर ज़बरदस्ती से
    बात की चूड़ी मर गई
    और वह भाषा में बेकार घूमने लगी ।

    हार कर मैंने उसे कील की तरह
    उसी जगह ठोंक दिया ।
    ऊपर से ठीकठाक
    पर अन्दर से
    न तो उसमें कसाव था
    न ताक़त ।

    बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
    मुझसे खेल रही थी,
    मुझे पसीना पोंछती देख कर पूछा –
    “क्या तुमने भाषा को
    सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा ?”

    घबरा कर

    वह किसी उम्मीद से मेरी ओर मुड़ा था
    लेकिन घबरा कर वह नहीं मैं उस पर भूँक पड़ा था ।

    ज़्यादातर कुत्ते
    पागल नहीं होते
    न ज़्यादातर जानवर
    हमलावर
    ज़्यादातर आदमी
    डाकू नहीं होते न ज़्यादातर जेबों में चाकू

    ख़तरनाक तो दो चार ही होते लाखों में
    लेकिन उनका आतंक चौकता रहता हमारी आँखों में ।

    मैंने जिसे पागल समझ कर
    दुतकार दिया था
    वह मेरे बच्चे को ढूँढ रहा था
    जिसने उसे प्यार दिया था।

    आँकड़ों की बीमारी

    एक बार मुझे आँकड़ों की उल्टियाँ होने लगीं
    गिनते गिनते जब संख्या
    करोड़ों को पार करने लगी
    मैं बेहोश हो गया

    होश आया तो मैं अस्पताल में था
    खून चढ़ाया जा रहा था
    आँक्सीजन दी जा रही थी
    कि मैं चिल्लाया
    डाक्टर मुझे बुरी तरह हँसी आ रही
    यह हँसानेवाली गैस है शायद
    प्राण बचानेवाली नहीं
    तुम मुझे हँसने पर मजबूर नहीं कर सकते
    इस देश में हर एक को अफ़सोस के साथ जीने का
    पैदाइशी हक़ है वरना
    कोई माने नहीं रखते हमारी आज़ादी और प्रजातंत्र

    बोलिए नहीं – नर्स ने कहा – बेहद कमज़ोर हैं आप
    बड़ी मुश्किल से क़ाबू में आया है रक्तचाप

    डाक्टर ने समझाया – आँकड़ों का वाइरस
    बुरी तरह फैल रहा आजकल
    सीधे दिमाग़ पर असर करता
    भाग्यवान हैं आप कि बच गए
    कुछ भी हो सकता था आपको –

    सन्निपात कि आप बोलते ही चले जाते
    या पक्षाघात कि हमेशा कि लिए बन्द हो जाता
    आपका बोलना
    मस्तिष्क की कोई भी नस फट सकती थी
    इतनी बड़ी संख्या के दबाव से
    हम सब एक नाज़ुक दौर से गुज़र रहे
    तादाद के मामले में उत्तेजना घातक हो सकती है
    आँकड़ों पर कई दवा काम नहीं करती
    शान्ति से काम लें
    अगर बच गए आप तो करोड़ों में एक होंगे …..

    अचानक मुझे लगा
    ख़तरों से सावधान कराते की संकेत-चिह्न में
    बदल गई थी डाक्टर की सूरत
    और मैं आँकड़ों का काटा
    चीख़ता चला जा रहा था
    कि हम आँकड़े नहीं आदमी हैं

    किसी पवित्र इच्छा की घड़ी में

    व्यक्ति को
    विकार की ही तरह पढ़ना
    जीवन का अशुद्ध पाठ है।

    वह एक नाज़ुक स्पन्द है
    समाज की नसों में बन्द
    जिसे हम किसी अच्छे विचार
    या पवित्र इच्छा की घड़ी में भी
    पढ़ सकते हैं ।

    समाज के लक्षणों को
    पहचानने की एक लय
    व्यक्ति भी है,
    अवमूल्यित नहीं
    पूरा तरह सम्मानित
    उसकी स्वयंता
    अपने मनुष्य होने के सौभाग्य को
    ईश्वर तक प्रमाणित हुई !

    दूसरी तरफ़ उसकी उपस्थिति

    वहाँ वह भी था
    जैसे किसी सच्चे और सुहृद
    शब्द की हिम्मतों में बँधी हुई
    एक ठीक कोशिश…….

    जब भी परिचित संदर्भों से कट कर
    वह अलग जा पड़ता तब वही नहीं
    वह सब भी सूना हो जाता
    जिनमें वह नहीं होता ।

    उसकी अनुपस्थिति से
    कहीं कोई फ़र्क न पड़ता किसी भी माने में,
    लेकिन किसी तरफ़ उसकी उपस्थिति मात्र से
    एक संतुलन बन जाता उधर
    जिधर पंक्तियाँ होती, चाहे वह नहीं ।

    उनके पश्चात्

    कुछ घटता चला जाता है मुझमें
    उनके न रहने से जो थे मेरे साथ

    मैं क्या कह सकता हूँ उनके बारे में, अब
    कुछ भी कहना एक धीमी मौत सहना है।

    हे दयालु अकस्मात्
    ये मेरे दिन हैं ?
    या उनकी रात ?

    मैं हूँ कि मेरी जगह कोई और
    कर रहा उनके किये धरे पर ग़ौर ?
    मैं और मेरी दुनिया, जैसे
    कुछ बचा रह गया हो उनका ही
    उनके पश्चात्

    ऐसा क्या हो सकता है
    उनका कृतित्व-
    उनका अमरत्व –
    उनका मनुष्यत्व-
    ऐसा कुछ सान्त्वनीय ऐसा कुछ अर्थवान
    जो न हो केवल एक देह का अवसान ?

    ऐसा क्या कहा जा सकता है
    किसी के बारे में
    जिसमें न हो उसके न-होने की याद ?

    सौ साल बाद
    परस्पर सहयोग से प्रकाशित एक स्मारिका,
    पारंपरिक सौजन्य से आयोजित एक शोकसभा :

    किसी पुस्तक की पीठ पर
    एक विवर्ण मुखाकृति
    विज्ञापित
    एक अविश्वसनीय मुस्कान !

    यक़ीनों की जल्दबाज़ी से

    एक बार ख़बर उड़ी
    कि कविता अब कविता नहीं रही
    और यूँ फैली
    कि कविता अब नहीं रही !

    यक़ीन करनेवालों ने यक़ीन कर लिया
    कि कविता मर गई,
    लेकिन शक़ करने वालों ने शक़ किया
    कि ऐसा हो ही नहीं सकता
    और इस तरह बच गई कविता की जान

    ऐसा पहली बार नहीं हुआ
    कि यक़ीनों की जल्दबाज़ी से
    महज़ एक शक़ ने बचा लिया हो
    किसी बेगुनाह को ।

    कविता

    कविता वक्तव्य नहीं गवाह है
    कभी हमारे सामने
    कभी हमसे पहले
    कभी हमारे बाद

    कोई चाहे भी तो रोक नहीं सकता
    भाषा में उसका बयान
    जिसका पूरा मतलब है सचाई
    जिसका पूरी कोशिश है बेहतर इन्सान

    उसे कोई हड़बड़ी नहीं
    कि वह इश्तहारों की तरह चिपके
    जुलूसों की तरह निकले
    नारों की तरह लगे
    और चुनावों की तरह जीते

    वह आदमी की भाषा में
    कहीं किसी तरह ज़िन्दा रहे, बस

    कविता की ज़रूरत

    बहुत कुछ दे सकती है कविता
    क्यों कि बहुत कुछ हो सकती है कविता
    ज़िन्दगी में

    अगर हम जगह दें उसे
    जैसे फलों को जगह देते हैं पेड़
    जैसे तारों को जगह देती है रात

    हम बचाये रख सकते हैं उसके लिए
    अपने अन्दर कहीं
    ऐसा एक कोना
    जहाँ ज़मीन और आसमान
    जहाँ आदमी और भगवान के बीच दूरी
    कम से कम हो ।

    वैसे कोई चाहे तो जी सकता है
    एक नितान्त कवितारहित ज़िन्दगी
    कर सकता है
    कवितारहित प्रेम

    टूटे हुए ख़ंजर की मूठ

    किसी टूटे हुए ख़ंजर की मूठ हाथों में लिए
    सोच रहा हूँ-
    ख़ंजरों के बारे में
    उन्हें चलानेवाले हाथों के बारे में
    क़ातिलों और हमलों के बारे में
    हज़ारों वर्षों के बारे में

    और एक पल में अचानक
    किसी अन्धी गली में खो जानेवाली
    चीख़ के बारे में…

    महाभारत

    धृतराष्ट्र अन्धे।
    विदुर-नीति हुई फेल।

    धर्मराज धूर्तराज दोनों जुआड़ी :
    पांसे खनखनाते हुए
    राजनीति में शकुनी का प्रवेश।

    न धर्मक्षेत्रे न कुरुक्षेत्रे।
    सीधे सीधे चुनाव क्षेत्रे-
    जीत की प्रबल इच्छा से
    इकट्ठा हुए महारथियों के
    ढपोरशंखी नाद से
    युद्ध का श्रीगणेश।

    दलों के दलदल में जूझ रहे
    आठ धर्म अट्ठारह भाषाएँ अट्ठाईस प्रदेश…

    पर ओर रथ पर
    शान्त भाव से गीता पकड़े
    श्रीकृष्ण,
    दूसरी ओर एक हाथ से गाण्डीव
    और दूसरे से अपना सिर पकड़े गुडाकेश,
    देख रहे
    भारत से महा भारत होता हुआ एक देश।

    अयोध्या, 1992

    हे राम,
    जीवन एक कटु यथार्थ है
    और तुम एक महाकाव्य !

    तुम्हारे बस की नहीं
    उस अविवेक पर विजय
    जिसके दस बीस नहीं
    अब लाखों सर – लाखों हाथ हैं,
    और विभीषण भी अब
    न जाने किसके साथ है.

    इससे बड़ा क्या हो सकता है
    हमारा दुर्भाग्य
    एक विवादित स्थल में सिमट कर
    रह गया तुम्हारा साम्राज्य

    अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
    योद्धाओं की लंका है,
    ‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
    चुनाव का डंका है !

    हे राम, कहां यह समय
    कहां तुम्हारा त्रेता युग,
    कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
    कहां यह नेता-युग !

    सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
    किसी पुरान – किसी धर्मग्रन्थ में
    सकुशल सपत्नीक….
    अबके जंगल वो जंगल नहीं
    जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक !

    क्या वह नहीं होगा

    क्या फिर वही होगा
    जिसका हमें डर है ?
    क्या वह नहीं होगा
    जिसकी हमें आशा थी?

    क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे
    बाजारों में
    अपनी मूर्खताओं के गुलाम?

    क्या वे खरीद ले जायेंगे
    हमारे बच्चों को दूर देशों में
    अपना भविष्य बनवाने के लिए ?

    क्या वे फिर हमसे उसी तरह
    लूट ले जायेंगे हमारा सोना
    हमें दिखाकर कांच के चमकते टुकडे?

    और हम क्या इसी तरह
    पीढी-दर-पीढी
    उन्हें गर्व से दिखाते रहेंगे
    अपनी प्राचीनताओं के खण्डहर
    अपने मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे?

    तबादले और तबदीलियां

    तबदीली का मतलब तबदीली होता है, मेरे दोस्‍त
    सिर्फ तबादले नहीं
    वैसे, मुझे ख़ुशी है
    कि अबकी तबादले में तुम
    एक बहुत बड़े अफसर में तबदील हो गए
    बाकी सब जिसे तबदील होना चाहिए था
    पुरानी दरखास्‍तें लिए
    वही का वही
    वहीं का वहीं

    जल्दी में

    प्रियजन
    मैं बहुत जल्दी में लिख रहा हूं
    क्योंकि मैं बहुत जल्दी में हूं लिखने की
    जिसे आप भी अगर
    समझने की उतनी ही बड़ी जल्दी में नहीं हैं
    तो जल्दी समझ नहीं पायेंगे
    कि मैं क्यों जल्दी में हूं ।

    जल्दी का जमाना है
    सब जल्दी में हैं
    कोई कहीं पहुंचने की जल्दी में
    तो कोई कहीं लौटने की …

    हर बड़ी जल्दी को
    और बड़ी जल्दी में बदलने की
    लाखों जल्दबाज मशीनों का
    हम रोज आविष्कार कर रहे हैं
    ताकि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती हुई
    हमारी जल्दियां हमें जल्दी से जल्दी
    किसी ऐसी जगह पर पहुंचा दें
    जहां हम हर घड़ी
    जल्दी से जल्दी पहुंचने की जल्दी में हैं ।

    मगर….कहां ?
    यह सवाल हमें चौंकाता है
    यह अचानक सवाल इस जल्दी के जमाने में
    हमें पुराने जमाने की याद दिलाता है ।

    किसी जल्दबाज आदमी की सोचिए
    जब वह बहुत तेजी से चला जा रहा हो
    -एक व्यापार की तरह-
    उसे बीच में ही रोक कर पूछिए,
    ‘क्या होगा अगर तुम
    रोक दिये गये इसी तरह
    बीच ही में एक दिन
    अचानक….?’

    वह रुकना नहीं चाहेगा
    इस अचानक बाधा पर उसकी झुंझलाहट
    आपको चकित कर देगी ।
    उसे जब भी धैर्य से सोचने पर बाध्य किया जायेगा
    वह अधैर्य से बड़बड़ायेगा ।
    ‘अचानक’ को ‘जल्दी’ का दुश्मान मान
    रोके जाने से घबड़ायेगा । यद्यपि
    आपको आश्चर्य होगा
    कि इस तरह रोके जाने के खिलाफ
    उसके पास कोई तैयारी नहीं….

    अलग अलग खातों में

    किसी ने कहा-‘”रुको,”
    तो मैंने रुक सकने की संभावना को सोचा।
    मैं मजबूर था।
    कुछ भी रुका नहीं मेरे रुकने से।

    ‘चलो,’ किसी ने कहा।
    मैंने चलना चाहा तो लगा
    कुछ भी तैयार नहीं चलने को मेरे साथ।

    शायद उड़ना चाहिए-मैंने सोचा।
    पंख फैलाये तो हर तरफ़।
    न जाने कैसे कैसे
    हौसलों के परखचे
    उड़ते नज़र आये।

    किसी ने कहा-“लड़ो,
    जिन्दगी हक़ की लड़ाई है।”
    हथियार उठाया तो देखा
    मेरे खिलाफ़ पहला आदमी
    मेरा भाई है।

    गहराइयों में उतरा-
    एक मछली दिखी। उससे पूछा-
    “मछली मछली कितना पानी?”
    वह इतरा कर बोली-“मुझे पकड़ो,
    पकड़ सको तो वही थाह,
    नहीं तो अथाह!”

    इसी तरह साल दर साल
    अलग अलग खातों में
    दर्ज होते रहे मेरे हिसाब,
    और एक दिन जब
    कुल जमा पूंजी में से
    घटा कर देखा पिछला सब रहा सहा

    तो ढूँढ़े नहीं मिल रहा था
    वह एक ख़्वाब जो लगा था
    जिन्दगी से भी बड़ा…

    खोज में

    कल दलालों की अदालत में
    मैं एक गवाह शब्द की जाँच में फँसा रहा।
    फिर घर आकर एक बड़े ही महात्मा शब्द की
    तलाश में वेदों-पुराणों में चला गया।
    एक व्यापारी शब्द की पुकार पर
    मैं अपने गाँव से निकला
    और सीधा बम्बई की ओर भागा।
    अन्त में कौड़ी कौड़ी को मुहताज
    -अपने सपने तक गंवा-
    मैंने एक हताश शब्द के लिए
    अपने देश के भूखे चेहरे पर
    सदियों से जमी ख़ाक छानी…

    +++
    आज मैं शब्द नहीं
    किसी ऐसे विश्वास की खोज में हूँ
    जिसे आदमी में पा सकूँ।

    आदमी का चेहरा

    “कुली !” पुकारते ही
    कोई मेरे अंदर चौंका ।
    एक आदमी आकर खड़ा हो गया मेरे पास

    सामान सिर पर लादे
    मेरे स्वाभिमान से दस क़दम आगे
    बढ़ने लगा वह
    जो कितनी ही यात्राओं में
    ढ़ो चुका था मेरा सामान

    मैंने उसके चेहरे से उसे
    कभी नहीं पहचाना
    केवल उस नंबर से जाना
    जो उसकी लाल कमीज़ पर टँका होता

    आज जब अपना सामान ख़ुद उठाया

    एक आदमी का चेहरा याद आया

    आठवीं मंज़िल पर

    आठवीं मंज़िल पर
    इस छोटे-से फ़्लैट में
    दो ऐसी खिड़कियाँ हैं
    जो बाहर की ओर खुलतीं।

    फ़्लैट में अकेले
    इतनी ऊँचाई पर बाहर की ओर खुलनेवाली
    खिड़कियों के साथ
    लगातार रहना
    भयानक है।

    मैंने दोनों खिड़कियों पर
    मज़बूत जंगले लगवा दिए हैं
    यह जानते हुए भी
    कि आठवीं मंज़िल पर
    बाहर से अन्दर आने का दुस्साहस तो
    शायद ही कोई करे

    दरअसल मैं बाहर से नहीं
    अन्दर से डरता हूँ
    कि हालात से घबरा कर
    या खुद ही से ऊब कर
    किसी दिन मैं ही कहीं
    अन्दर से बाहर न कूद जाऊँ।

    एक संक्षिप्त कालखण्ड में

    अगर मुझमें अपनी दुनिया को
    बदल सकने की ताक़त होती
    तो सब से पहले
    उस ‘मैं’ को बदलने से शुरू करता
    जिसमें दुनिया को बदलने की ताक़त होती।
    उसे एक पिचका गुब्बारा देता
    जिस पर दुनिया का नक़्शा बना होता
    और कहता-

    इसमें अपनी साँसे भरो,
    इसे फुला कर
    अपने से करोड़ों गुना बड़ा कर लो,
    और फिर अनुभव करो
    कि तुम उतना ही उसके अन्दर हो
    जितना उसके बाहर

    धीरे-धीरे एक असह्य दबाव में
    बदलती चली जाएगी
    तुम्हारे प्रयत्नों की भूमिका,
    किसी अन्य ययार्थ में प्रवेश कर जाने को
    बेचैन हो उठेंगी तुम्हारी चिन्ताएँ।

    उससे कहता-
    एक हिम्मत और करो,
    अपनी पूरी ताक़त लगा कर
    गुब्बारे को थोड़ा और फुलाओ
    ….लगभग……..फूटने की हद तक…..
    अब देखो कि तुम
    इस कोशिश में
    नष्ट हो जाते हो
    एक कर्कश विस्फोट के साथ

    या किसी विरल ऊँचाई को
    छू पाता है तुम्हारा गुब्बारा

    हवा से भी हल्का
    और कल्पना की तरह मुक्त

    रिक्शा पर

    रिक्शा पर ढोंढू भाई :
    रिक्शा औ रिक्शावाले के कुल जोड़ वज़न के ढाई!

    आगे थी कठिन चढ़ाई :
    देखा रिक्शावाले ने तो ताक़त भर एड़ लगाई :

    लेकिन ग़रीब की हिम्मत
    हद भर मोटे के आगे कुछ ज़्यादा काम न आई।

    लद कर वो बैठे रहे वहीं,
    कुछ करें मदद बेचारे की, यह समझ न उनको आई :

    रिक्शावाले का मतलब
    रिक्शा का हिसा नहीं, आदमी होता, ढोंढू भाई

    ये जुल्म देख कर रिक्शा
    दो पहियों पर हो गई खड़ी जैसे घोड़ी बौराई!

    फिर सरपट पीछे भागी
    हो एक तरफ़ से लोटपोट जा पुलिया से टकराई।

    यह देख भीड़ घबराई
    समझी कोई आफ़त सिर पर उसके ही ढहने आई।

    पटकी खा ढोंढू भाई
    रिक्शा के नीचे चित्‌ पड़े-रिक्शा मन मन मुस्काई!

    बेहाल देख कर उनको
    पहले तो सभी सन्‍न फिर असली बात समझ में आई-

    रिक्शावाले को ज़्यादा चोट न आई,
    दुबला-पतला था झाड़पोंछ उठ बैठा :
    पर ऐम्बुलेन्स में भरे गए,
    बेचारे ढोंढू भाई।

    वर्षों इसी तरह

    कितनी सस्वर होती है
    प्रतिवर्ष
    ऋतुओं के साथ
    एक वृक्ष की जीवनी में
    उसकी उत्सवी बनावट

    उसका आरोह और अवरोह
    एक विराट आयोजन में
    उसका अवसर के संग
    लयात्मक जुड़ाव

    वसन्‍त के साथ
    विलम्बित में खिलती हुई
    किसी लजाती डाल पर
    कोपलों की धीमी-सी “अरे सुन…”,
    और देखते देखेते उसके आसपास
    रंगों और सुरभि का द्रुत भराव,

    मन्द से तीव्रतर होती हुई
    अछोर चहल-पहल इच्छा-तरंगों की बढ़त

    फिर क्रमश: पतझर के साथ
    एक अनन्त उदासी से भरा
    उसका जोगिया तराना
    वर्षों इसी तरह
    अथक लय विलय में
    अन्तिम साँस तक जीवन-राग को
    किसी तरह न टूटने देने की
    उसकी पागल धुन!

    मालती

    कितनी ढिठाई से बढ़ती
    और कैसा ठठा कर खिलती है मालती

    वह एक भीनी-सी खुशबू की कड़ी कार्रवाई है
    पछुवां के निर्मम थपेड़ों के खिलाफ
    घर की पच्छिम की दीवार को यत्न से घेरे
    एक अल्हड़ खिलखिलाहट है मालती

    आज अचानक क्‍या हो गया तुझे?
    क्या तेरा बच्चा बीमार है?
    क्यों इस तरह सिर झुकाये
    गुमसुम खड़ी है मालती?

    माली कहता-
    राकस होती है मालती की बेल
    मर मर कर जी उठनेवाली
    देसी हिम्मत है मालती
    कैसे ही उसे काटो छाँटो
    कभी नहीं सूखती है जड़ों से मालती

    किसी और ने नहीं

    नहीं, किसी और ने नहीं।
    मैंने ही तोड़ दिया है कभी कभी
    अपने को झूठे वादे की तरह
    यह जानते हुए भी कि बार बार
    लौटना है मुझे
    प्रेम की तरफ
    विश्वास बनाये रखना है
    मनुष्य में
    सिद्ध करते रहना है
    कि मैं टूटा नहीं

    चाहे कविता बराबर ही
    जुड़े रहना है किसी तरह
    सबसे।

    अद्यापि…

    (संदर्भ : चौर-पंचाशिका)

    आज भी
    कदली के गहन झुरमुटों में
    एक संकेत की प्रतीक्षा करता हुआ कवि
    देखता है किसी अँधेरी शताब्दी में
    तुम्हारा सौन्दर्य
    एक दीये-सा जगमगाता है।

    आज भी तुम्हारे कौमार्य का कंचन-वैभव
    कड़े पहरों में
    एक राजमहल की तरह
    दूर से झिलमिलाता है।

    आज भी
    तुम्हारे यौवन के एक गुलाबी मौसम से उड़ कर
    बेचैन कर जानेवाली हवाओं का
    लड़खड़ाता झोंका
    फूलों के रंगीन गवाक्षों से आता है।

    आज भी
    हमारी ढीठ वासनाओं के चोर-दरवाज़ों से होता हुआ
    एक संकरा रास्ता
    लुकता छिपता
    तुम्हारे शयनकक्ष तक जाता है।

    आज भी
    नंगी पीठ से चिपकी तुम्हारी कामातुर हथेलियाँ
    तुम्हारे बेसब्र समर्पण को स्वीकारता पौरुष
    तुम्हें एक छन्‍द की तरह रचता
    और एक उत्सव की तरह मनाता है।

    आज भी
    तुम एक गीत हो सूनी घाटियों में गूँजता हुआ
    जो रात के तीसरे पहर
    अपने पंखुरी-से ओंठों को कानों पर रख कर
    धीरे से जगाता है।

    आज भी
    किसी प्राचीन अनुशासन की ऊँची अटारी पर क़ैद
    राजकन्या-सा प्यार
    एक सामान्य कवि को
    स्वीकार करने का साहस दिखाता है।

    आज भी
    उसकी आँखें तुम्हें एक नींद की तरह सोतीं-
    एक स्वप्न की तरह देखतीं-
    एक याद की तरह जीती हुई रातों का
    वह अन्तराल है
    जो कभी नहीं भर पाता है।

    आज भी
    तुम्हारे साथ जी गई पचास रातों का एक वसंत
    प्रतिवर्ष जीवन का कोना कोना
    अपनी सम्पूर्ण कलाओं से भर जाता है।

    आज भी
    एक कवि काल को सम्मुख रख
    कठोरतम राजाज्ञा की अन्तिम अवज्ञा में
    ‘विद्या’ और ‘सुन्दर’ की वर्जित प्रेमलीलाओं को
    शब्दों की मनमानी ऋतुओं से सजाता है।

    आज भी
    एक दरबार का पराजित अहं
    क्षमा का ढोंग रचता
    और विजयी प्यार के सामने
    अपना सिर झुकाता है।

    सुनयना

    (1)
    कई बार ऐसा हुआ
    कि वैसा नहीं हुआ
    जैसा होना चाहिए था…

    कैसा होना चाहिए था
    फूल-सी सुनयना की आँखों में
    अपने प्रेम में विश्वास का रंग?

    वैसा नहीं मिला मौसम
    जिसमें खिलते हैं फूल
    अपनी समस्तता में
    निश्छल और चंचल एक साथ…

    (2)
    कुछ लोग उसे देखने आये
    देखने की तारीख़ से पहले,
    ख़रीद की तर्ज़ पर पक्की कर गये उसे
    पकने की तारीख़ से पहले।

    (3)
    तूफानों से लड़ती
    एक अकेली पत्ती
    दरख़्त की उँगली पकड़े.

    उसके विश्वास का रंग

    अब वैसा था जैसा होता है
    डाल से तोड़े हुए फूलों का रंग।

    (4)
    …पिछली बार अयोध्या में
    कनकभवन की सीढ़ियों से उतरते देखा उसे-
    भस्म अंगों में वैसा न था यौवन
    जैसा होना चाहिए था
    ऐसे भरे फागुन में टेसू का रंग!

    अब वह
    सूर्यास्त समय…
    जैसे नदी पार के घिरते अंधेरे में
    घुलता चला जाय एक बजरे का रंग
    ऐसा था ऐसे समय
    हाथों में फूल लिये
    उसका चुपचाप कहीं
    ओझल हो जाने का ढंग।

    नदी बूढ़ी नहीं होती

    बहुतों को पसन्द करती है वह।
    उसकी पसन्दें मुझे भयभीत नहीं करती।
    बहुतों से अलग
    कभी कभी बिल्कुल अपनी तरह
    उसके साथ होने की इच्छा को
    मैंने खुद से भी छिपाया है :

    अज्ञात जगहों में
    लम्बी यात्राओं में
    उसके और अपने बीच
    अनेक काल्पनिक प्रसंगों को
    इस तरह रचा है
    मानो वह मीनाक्षी नहीं
    मेरी कविता या कहानी हो
    जिसे जब जैसे चाहूँ
    लिख या पढ़ सकता हूँ :

    मानो वह अधिकार देती है
    कि उसके हंसने को
    ऐसा कोई अर्थ दूँ
    जैसा देती है कभी कभी धूप
    ऊँचाइयों से गिरते झरनों को,
    या हवा
    लोटपोट फूलों को,
    या उसके बोलने को कहूँ
    कि वह एक छन्द है जिसके अन्दर
    मेरी एक अटपटी इच्छा बन्द है,

    या उसके साथ
    किसी मामूली-सी चहलक़दमी के किनारे
    एक नदी बना दूँ या माँडू का क़िला
    और कहूँ कि रूपमती
    इस क्षण मैं सैकड़ों वर्षों को जीना चाहता हूँ
    तुम्हारे साथ-

    और अचानक उसे बाहों में भर कर चौंका दूँ
    एक ऐसे वक़्त
    जब वह सचमुच परेशान हो
    अपने चेहरे पर गाढ़ी होती झुर्रियों को लेकर
    या आँखों पर जल्द चढ़नेवाले चश्मों की चिन्ता से!

    हवा से खेलते उसके केश,
    एक खुशबू उसे छूते हुए
    ठहर गई है स्मृति में उकेरती हुई
    एक इच्छा-मूर्ति।

    किसी मन्दिर की निचली सीढ़ियों को
    छूती कावेरी या तुंगभद्रा-
    लहरों को छूते उसके हाथ

    पिछली सदियों का प्रमाद
    जब यक्षणी के पाषाण-वक्षों तक
    उठ आया था बाढ़ का जल
    और ठहरा रह गया था वहीं
    उसका एक दुस्साहसी पल।

    आओ इस भागते उजास को जियें
    डूब कर उस एक नाजुक क्षण में
    जब सब कुछ होता है हमसे
    उदास या प्रसन्न,
    एक अपवाद से ज़्यादा लम्बी हो
    तुम्हारी आयु
    उन शब्दों में
    जो तुमसे मिलता जुलता
    एक सपना देखते हैं-

    कि उस सूर्य-बिन्दु तक उठें
    जहाँ से साफ़ देखा जा सके
    इस मटमैली सतह को
    जिसे हम बार बार सजा कर
    धारण करते हैं एक मुकुट की तरह,

    एक नए संधि-तट से देखें-
    उस अरूप शिलाक्त्‌ चमक को
    चिटक कर स्वयं से अलग होते,
    तडित्‌-गति से कौंध कर
    पृथ्वी में प्रवेश करते,
    और एक अमिट अनुभव के सौंदर्य को
    किसी भविष्य में घनीभूत होते।

    +++
    साथ बहें :
    जिन तटों को हम छुएँगे बसा जाएँगे।
    हज़ारों नाम देंगे
    इस उन्माद के वशीभूत होने को,
    एक आवेग में बह जाने को कहेंगे जीवन,
    अपने ही प्रवाह में नहा उठने को
    एक अलौकिक संज्ञा में बाँधेंगे,

    और एक दिन
    इसी तरह बहते हुए
    कभी जंगल, कभी गाँव, कभी नगर से होते हुए
    सागर में समा जाने को
    ढिठाई से कहेंगे
    कि नदी बूढ़ी नहीं होती।

    अन्तिम परिच्छेद में

    कल्पना करो कि तुम सुखी हो
    जीवन के अन्तिम परिच्छेद में

    कथानक पीछे लौट रहा
    मृत्यु से जीवन की ओर

    पार करते हुए
    कठिनाइयों के अथाह दुर्ग को
    वहाँ पहुँच रहा
    जहाँ वे दोनों
    एक दूसरे से मिल कर
    एक हो जाते हैं

    वह अतिरेक अब
    उनमें समा नहीं पा रहा

    वह एक खुशी का जन्म है
    एक असह्य पीड़ा से।

    एक जन्मदिन जन्मस्थान पर…

    क़स्बे की साँझ, बुझे कण्डों का धुआं,
    बल्‍बों की फुन्सियाँ जल उठीं यहाँ वहाँ।
    अभी गये साल यहाँ आई है बिजली-
    लेकिन बस एक सड़क छूते हुए निकली :
    कुत्ता-लोट सड़कें और कौव्वों की काँव-काँव,
    धूल भरे चौराहे पूछ रहे नाम गाँव…

    घोड़ी बेच घिर्राऊ रिक्शा ले आये,
    इक्का-दिन बीते अब रिक्शा-दिन आये :
    एक जून दाल भात, एक जून चना,
    भरते पेट घोड़ी का कि भरते पेट अपना :
    जान लिए लेती है रिक्शा खिंचाई,
    बाक़ी कमर तोड़ रही बढ़ती महँगाई।

    यादों की पगडण्डी, खेतों की मेड़-मेड़
    कुएँ की जगत पर पीपल का वही पेड़…
    पेड़ तले पंडित सियाराम का मदरसा
    लगता था तब भी पंडिताइन के घर-सा :
    वही अंकगणित और वही वर्णमाला-
    चलती है सृष्टिवत्‌ उनकी कार्यशाला :
    वह सादा जीवन जो अनायास बीत गया
    कितने निर्द्वन्द्व भाव एक युद्ध जीत गया :
    रुधे कण्ठ, भरी आँख, उनका आशीर्वाद-
    “कैसे हो बेटे तुम? दिखे बहुत दिनों बाद…”
    वही तो चौक है-वही तो बजाजा है-
    वैसी ही भीड़भाड़, वैसी ही आ जा है :
    गेहूँ की बोरी से टेक लगाये, अधलेटा,
    भज्जामल अढ़तिये का सिड़बिल्ला बेटा,
    वैसे तो जनमजात तुतला और बैला था
    पर इससे क्‍या होता-रुपयों का थैला था!
    नुक्कड़ पर दीख गये बूढ़े इरफ़ान मियाँ,
    सब उनको प्यार से कहते हैं “बड़े मियाँ” :
    बाबा के जिगरी दोस्त, गाँव के बुजुर्गवार,
    झगड़ों मुक़द्दमों में सबके सलाहकार…
    मेरे आदाब पर दिल से दुआएँ दीं,
    सेहत के बारे में एक दो सलाहें दीं।
    बापू की ‘बेटा’ सुन आँखें भर आई-
    नीम के झरोखों में सिसकी पुरवाई :
    “बेटा घर आया है”, कहने को होंठ हिले
    पर शायद इतना भी कहने को न शब्द मिले!
    एक वृक्ष वंचित ज्यों अपनी ही छाया से-
    उदासीन होता मन अपनी ही काया से।
    ताड़ों पर झूलते पतंग-दिन बचपन के;
    बीत रहे बुआ के विधवा-दिन पचपन के।
    अम्मा की ऐनक पर बरसों की जमी धूल,
    रखा रामायण पर गुड़हल का एक फूल :
    दोने से निकाल कर प्रसाद दिया मंगल का,
    आँखों से प्यार लगा अब छलका तब छलका :
    आँचल क्‍यों बार बार आँखों तक जाता है?
    आँसू का खुशियों से यह कैसा नाता है :
    कभी उसे वही, कभी बदल गया लगता हूँ,
    कभी कुछ दुबला तो कभी थका लगता हूँ-
    “ज़रा देर लेट ले-सफ़र की थकान है-”
    “ठीक हूँ अम्मा, तू नाहक परेशान है…”
    बहन को देख कर अम्मा ने आह भरी-
    “छब्बिस की हो गई इस असाढ़ माधुरी,”
    कहने लगीं, आले पर रखते हुए लालटेन,
    “दस बीघा खेती है, थोड़ी-बहुत लेनदेन,
    तीस की माँग थी, पच्चिस पर माने हैं,
    बाक़ी हाल घर का तू खुद ही सब जाने है।
    लड़की का भाग्य-कौन जाने क्‍या होना है-
    भरेगी माँग या अभी और रोना है…”

    “मुझे नहीं करना है उस घुघ्घू से शादी,
    कुछ माने रखती है मेरी भी आज़ादी!
    सबको बस एक फ़िक्र रातदिन सुबहशाम,
    लड़की सयानी हुई, शादी का इंतज़ाम-
    एक रस्म जल्दी-से-जल्दी निबाह दो
    लड़की का मतलब है किसी तरह ब्याह दो :
    मुझ पर ही रहने दो तुम सब मेरा जिम्मा,
    पढ़ी लिखी हूँ मैं भी, कुछ कर सकती हूँ अम्मा…”
    कहने को कह डाला, फिर सहसा फूट पड़ी,
    बिजली-सी कड़की और वर्षा-सी टूट पड़ी,
    सबको डरा कर फिर ख़ुद ही से डर गई,
    घबराई बिल्ली-सी इधर गई उधर गई…

    मैंने कहा हँसते हुए, “लगता ये सिरफिरी
    सचमुच अब छब्बिस की हो गई माधुरी-
    जल्दी यदि तूने कुछ किया नहीं तो अम्मा
    अपने सिर ले लेगी दुनिया भर का जिम्मा!”

    मुझे देख आँखों की बुझती गोधूली में
    बाबा ने टटोला कुछ यादों की झोली में-
    “हम में से एक को अकेले भी रहना था,
    अच्छा है इस दुख को उसे नहीं सहना था…”

    और फिर घिर आई पूर्ववत्‌ उदासी…
    बाबा ने इसी साल पूरे किये इक्यासी।
    बच्चा अधनींद में “अम्मा’ चिल्ला पड़ता,
    अपने ही सपनों से अपना ही भय लड़ता :
    सोते में लांघ गई शायद बिस्तुइया,
    असगुन सोच सिहर गई भीरुचित मैय्या!

    दौड़ रहे भइया किसी डाके की गवाही में,
    लेना न देना कुछ, ख़ामख़्वाह तबाही में।
    भइया को पुलिस ने बुलाया है थाने,
    क्या दुर्गति हो उनकी राम जी जानें।

    बोले दरोगा जी, “सोच लो रमेश्वर
    दुनिया नहीं चलती है खाली ईमान पर,
    होते दो-चार ही गांधी से मानव
    बाकी आम लोग तो न देवता न दानव,
    मामूली लोग हम, छोटी-सी ज़िन्दगी,
    क्या हमें सफ़ाई और क्या हमें गन्दगी,
    हमको तो किसी तरह पापी पेट भरना है
    थाने और घर के बीच गुज़र बसर करना है।”

    सिर पकड़े सोच रहे हम भी भइया भी
    इस जीवन-दर्शन की यह कैसी चाभी!
    थाने से लगा एक घोसी का अहाता
    दूध और पानी का सदियों से नाता।

    ज्यों ही कमरे से बाहर मुँह निकाला
    लिपट गया मुँह भर पर मकड़ी का जाला!
    आपे से बाहर हो भइया चिल्लाये-
    “ऐसी गवाही से बेहतर है मर जाये!”
    “भइया, इस गुस्से की नैतिक औक़ात से
    कहाँ कहाँ भिड़िएगा? किस किस की बात से?
    आँखें मूँद सो रहिए, ऐसी ही दुनिया है,
    अपना भी कूटुम्ब है-मुन्ना है, मुनिया है…”
    “मेरे ही दुर्दिन हैं, उनका तो क्या होना,
    लेकिन मुँह ढांक कर ऐसा भी क्या सोना!
    आज नहीं कल सही-लड़ना तो होगा ही-
    कहाँ तक न बोलेगी आख़िर बेगुनाही ?”…

    दिल्ली में दो कमरे : सपनों में गाँव :
    कभी इस पाँव खड़े कभी उस पाँव :
    यह कैसा दिशा-बोध घबराया घबराया-
    यह चेहरा बदहवास, वह चेहरा कुम्हलाया..

    नीम के फूल

    एक कड़वी–मीठी औषधीय गंध से
    भर उठता था घर
    जब आँगन के नीम में फूल आते।

    साबुन के बुलबुलों–से
    हवा में उड़ते हुए सफ़ेद छोटे–छोटे फूल
    दो–एक माँ के बालों में उलझे रह जाते
    जब की तुलसी घर पर जल चढ़ाकर
    आँगन से लौटती।

    अजीब सी बात है मैंने उन फूलों को जब भी सोचा
    बहुवचन में सोचा
    उन्हें कुम्हलाते कभी नहीं देखा – उस तरह
    रंगारंग खिलते भी नहीं देखा
    जैसे गुलमोहर या कचनार – पर कुछ था
    उनके झरने में, खिलने से भी अधिक
    शालीन और गरिमामय, जो न हर्ष था
    न विषाद।

    जब भी याद आता वह विशाल दीर्घायु वृक्ष
    याद आते उपनिषद् : याद आती
    एक स्वच्छ सरल जीवन–शैली : उसकी
    सदा शान्त छाया में वह एक विचित्र–सी
    उदार गुणवत्ता जो गर्मी में शीतलता देती
    और जाड़ों में गर्माहट।
    याद आती एक तीखी
    पर मित्र–सी सोंधी खुशबू, जैसे बाबा का स्वभाव।

    याद आतीं पेड़ के नीचे सबके लिये
    हमेशा पड़ी रहने वाली
    बाघ की दो चार खाटें
    निबौलियों से खेलता एक बचपन…

    याद आता नीम के नीचे रखे
    पिता के पार्थिव शरीर पर
    सकुचाते फूलों का वह वीतराग झरना
    – जैसे माँ के बालों से झर रहे हों –
    नन्हें नन्हें फूल जो आँसू नहीं
    सान्त्वना लगते थे।

    पुनश्‍च

    मैं इस्‍तीफा देता हूं
    व्‍यापार से
    परिवार से
    सरकार से
    मैं अस्‍वीकार करता हूं
    रिआयती दरों पर
    आसान किश्‍तों में
    अपना भुगतान
    मैं सीखना चाहता हूं
    फिर से जीना…
    बच्‍चों की तरह बढ़ना
    घुटनों के बल चलना
    अपने पैरों पर खड़े होना
    और अंतिम बार
    लड़खड़ा कर गिरने से पहले
    मैं कामयाब होना चाहता हूं
    फिर एक बार
    जीने में

    स्पष्टीकरण

    ग़लत से ग़लत वक़्त में भी
    सही से सही बात कही जा सकती है।
    हम थोड़ी देर के लिए
    स्थगित कर सकते हैं युद्ध,
    महत्त्व दे सकते हैं अपने भयभीत होने को,
    स्वीकार कर सकते हैं अपनी बदहवासी,
    एक बार, कम से कम एक बार तो
    काँप सकते हैं हमारे हाथ,
    हम चीख सकते हैं कि “नहीं
    ये सब पराये नहीं मेरे हैं,
    मैं इन्हें नहीं मार सकता,
    मैं युद्ध नहीं करूँगा…”

    ऐसी विषम घड़ी में हमारे अन्तःकरण
    कम से कम एक बार तो
    बना सकते हैं ईश्वर को साक्षी-
    माँग सकते हैं उससे भी स्पष्टीकरण…

    हँसी

    धीरे धीरे टूटता जाता
    मेरी ही हँसी से मेरा हर नाता
    अकसर वह सही जगहों पर नहीं आती
    अकसर वह ग़लत जगहों पर आ जाती
    मानो कोई फ़र्क़ ही न हो सही और ग़लत में,
    मानो हँसी मेरी हँसी नहीं अपनी मर्ज़ी हो
    चेहरे पर अपने ढंग से चढ़ा हुआ एक रंग
    जो किसी ख़ुशी का द्योतक न होकर
    एक विदूषक की भूमिका हो किसी प्रहसन में

    कभी कभी एक अधूरी हँसी
    या बनावटी हँसी
    या विक्षिप्त हँसी
    विकृत कर जाती है
    चेहरे की दरकती हुई जटिल नक़्क़ाशी को…
    सिर्फ आँखें हँसतीं
    या सिर्फ होंठ
    बाक़ी चेहरा किसी अन्य तल के प्रशान्त में
    अधडूबी चट्टान-सा झलकता जिसे
    हज़ारों वर्षों में लहरों और तुफ़ानों ने
    तराशा कर एक मनुष्य-चेहरे का आकार दिया हो।

    भूल चूक लेनी देनी

    कहीं कुछ भूल हो-
    कहीं कुछ चूक हो कुल लेनी देनी में
    तो कभी भी इस तरफ़ आते जाते
    अपना हिसाब कर लेना साफ़
    ग़लती को कर देना मुआफ़
    विश्वास बनाये रखना
    कभी बन्द नहीं होंगे दुनिया में
    ईमान के खाते।