कुरूक्षेत्र रामधारी सिंह ‘दिनकर’

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    Kurukshetra Ramdhari Singh Dinkar

    कुरूक्षेत्र रामधारी सिंह ‘दिनकर’

    प्रथम सर्ग

    वह कौन रोता है वहाँ-
    इतिहास के अध्याय पर,
    जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है
    प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;
    जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;
    जो आप तो लड़ता नहीं,
    कटवा किशोरों को मगर,
    आश्वस्त होकर सोचता,
    शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की ?

    और तब सम्मान से जाते गिने
    नाम उनके, देश-मुख की लालिमा
    है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;
    देश की इज्जत बचाने के लिए
    या चढा जिनने दिये निज लाल हैं ।

    ईश जानें, देश का लज्जा विषय
    तत्त्व है कोई कि केवल आवरण
    उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का
    जो कि जलती आ रही चिरकाल से
    स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी
    नायकों के पेट में जठराग्नि-सी ।

    विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में
    मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;
    चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,
    फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से ।

    हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,
    हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही-
    उपचार एक अमोघ है
    अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का !

    लड़ना उसे पड़ता मगर ।
    औ’ जीतने के बाद भी,
    रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ;
    वह सत्य, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में
    विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता ।

    उस सत्य के आघात से
    हैं झनझना उठ्ती शिराएँ प्राण की असहाय-सी,
    सहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों ।
    वह तिलमिला उठता, मगर,
    है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है ।

    सहसा हृदय को तोड़कर
    कढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की-
    ‘नर का बहाया रक्त, हे भगवान ! मैंने क्या किया
    लेकिन, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने ।

    इस दंश क दुख भूल कर
    होता समर-आरूढ फिर;
    फिर मारता, मरता,
    विजय पाकर बहाता अश्रु है ।

    यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि में
    नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी,
    पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का
    वज्रांग पाण्डव भीम क मन हो चुका परिशान्त था ।

    और जब व्रत-मुक्त-केशी द्रौपदी,
    मानवी अथवा ज्वलित, जाग्रत शिखा प्रतिशोध की
    दाँत अपने पीस अन्तिम क्रोध से,
    रक्त-वेणी कर चुकी थी केश की,
    केश जो तेरह बरस से थे खुले ।

    और जब पविकाय पाण्डव भीम ने
    द्रोण-सुत के सीस की मणि छीन कर
    हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो
    पाँच नन्हें बालकों के मुल्य-सी ।

    कौरवों का श्राद्ध करने के लिए
    या कि रोने को चिता के सामने,
    शेष जब था रह गया कोई नहीं
    एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा ।

    और जब,
    तीव्र हर्ष-निनाद उठ कर पाण्डवों के शिविर से
    घूमता फिरता गहन कुरुक्षेत्र की मृतभूमि में,
    लड़खड़ाता-सा हवा पर एक स्वर निस्सार-सा,
    लौट आता था भटक कर पाण्डवों के पास ही,
    जीवितों के कान पर मरता हुआ,
    और उन पर व्यंग्य-सा करता हुआ-
    ‘देख लो, बाहर महा सुनसान है
    सालता जिनका हृदय मैं, लोग वे सब जा चुके।’

    हर्ष के स्वर में छिपा जो व्यंग्य है,
    कौन सुन समझे उसे ? सब लोग तो
    अर्द्ध-मृत-से हो रहे आनन्द से;
    जय-सुरा की सनसनी से चेतना निस्पन्द है ।

    किन्तु, इस उल्लास-जड़ समुदाय में
    एक ऐसा भी पुरुष है, जो विकल
    बोलता कुछ भी नहीं, पर, रो रहा
    मग्न चिन्तालीन अपने-आप में ।

    “सत्य ही तो, जा चुके सब लोग हैं
    दूर ईष्या-द्वेष, हाहाकार से !
    मर गये जो, वे नहीं सुनते इसे;
    हर्ष क स्वर जीवितों का व्यंग्य है।”

    स्वप्न-सा देखा, सुयोधन कह रहा-
    “ओ युधिष्ठिर, सिन्धु के हम पार हैं;
    तुम चिढाने के लिए जो कुछ कहो,
    किन्तु, कोई बात हम सुनते नहीं ।

    “हम वहाँ पर हैं, महाभारत जहाँ
    दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा,
    जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर,
    अर्थ जिसका अब न कोई याद है ।

    “आ गये हम पार, तुम उस पार हो;
    यह पराजय या कि जय किसकी हुई ?
    व्यंग्य, पश्चाताप, अन्तर्दाह का
    अब विजय-उपहार भोगो चैन से।”

    हर्ष का स्वर घूमता निस्सार-सा
    लड़खड़ाता मर रहा कुरुक्षेत्र में,
    औ’ युधिष्ठिर सुन रहे अव्यक्त-सा
    एक रव मन का कि व्यापक शून्य का ।

    ‘रक्त से सिंच कर समर की मेदिनी
    हो गयी है लाल नीचे कोस-भर,
    और ऊपर रक्त की खर धार में
    तैरते हैं अंग रथ, गज, बाजि के ।

    ‘किन्तु, इस विध्वंस के उपरान्त भी
    शेष क्या है ? व्यंग ही तो भग्य का ?
    चाहता था प्राप्त मैं करना जिसे
    तत्व वह करगत हुआ या उड़ गया ?

    ‘सत्य ही तो, मुष्टिगत करना जिसे
    चाहता था, शत्रुओं के साथ ही
    उड़ गये वे तत्त्व, मेरे हाथ में
    व्यंग्य, पश्चाताप केवल छोड़कर ।

    ‘यह महाभारत वृथा, निष्फल हुआ,
    उफ ! ज्वलित कितना गरलमय व्यंग है ?
    पाँच ही असहिष्णु नर के द्वेष से
    हो गया संहार पूरे देश का !

    ‘द्रौपदी हो दिव्य-वस्त्रालंकृता,
    और हम भोगें अहम्मय राज्य यह,
    पुत्र-पति-हीना इसी से तो हुईं
    कोटि माताएँ, करोड़ों नारियाँ !

    ‘रक्त से छाने हुए इस राज्य को
    वज्र हो कैसे सकूँगा भोग मैं ?
    आदमी के खून में यह है सना,
    और इसमें है लहू अभिमन्यु का’ ।

    वज्र-सा कुछ टूटकर स्मृति से गिरा,
    दब गये कौन्तेय दुर्वह भार में ।
    दब गयी वह बुद्धि जो अब तक रही
    खोजती कुछ तत्त्व रण के भस्म में ।

    भर गया ऐसा हृदय दुख-दर्द-से,
    फेन य बुदबुद नहीं उसमें उठा !
    खींचकर उच्छ्वास बोले सिर्फ वे
    ‘पार्थ, मैं जाता पितामह पास हूँ।’

    और हर्ष-निनाद अन्तःशून्य-सा
    लड़खड़ता मर रहा था वायु में ।

    द्वितीय सर्ग

    आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि
    ‘योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर,
    रुकी रहो पास कहीं’; और स्वयं लेट गये
    बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर !
    व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त,
    काल के करों से छीन मुष्टि-गत प्राण कर ।
    और पंथ जोहती विनीत कहीं आसपास
    हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मान कर ।

    श्रृंग चढ जीवन के आर-पार हेरते-से
    योगलीन लेटे थे पितामह गंभीर-से ।
    देखा धर्मराज ने, विभा प्रसन्न फैल रही
    श्वेत शिरोरुह, शर-ग्रथित शरीर-से ।
    करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद,
    उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से,
    “हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ”
    चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर-से ।

    “वीर-गति पाकर सुयोधन चला गया है,
    छोड़ मेरे सामने अशेष ध्वंस का प्रसार;
    छोड़ मेरे हाथ में शरीर निज प्राणहीन,
    व्योम में बजाता जय-दुन्दुभि-सा बार-बार;
    और यह मृतक शरीर जो बचा है शेष,
    चुप-चुप, मानो, पूछता है मुझसे पुकार-
    विजय का एक उपहार मैं बचा हूँ, बोलो,
    जीत किसकी है और किसकी हुई है हार ?

    “हाय, पितामह, हार किसकी हुई है यह ?
    ध्वन्स-अवशेष पर सिर धुनता है कौन ?
    कौन भस्नराशि में विफल सुख ढूँढता है ?
    लपटों से मुकुट क पट बुनता है कौन ?
    और बैठ मानव की रक्त-सरिता के तीर
    नियति के व्यंग-भरे अर्थ गुनता है कौन ?
    कौन देखता है शवदाह बन्धु-बान्धवों का ?
    उत्तरा का करुण विलाप सुनता है कौन ?

    “जानता कहीं जो परिणाम महाभारत का,
    तन-बल छोड़ मैं मनोबल से लड़ता;
    तप से, सहिष्णुता से, त्याग से सुयोधन को
    जीत, नयी नींव इतिहास कि मैं धरता ।
    और कहीं वज्र गलता न मेरी आह से जो,
    मेरे तप से नहीं सुयोधन सुधरता;
    तो भी हाय, यह रक्त-पात नहीं करता मैं,
    भाइयों के संग कहीं भीख माँग मरता ।

    “किन्तु, हाय, जिस दिन बोया गया युद्ध-बीज,
    साथ दिया मेर नहीं मेरे दिव्य ज्ञान ने;
    उलत दी मति मेरी भीम की गदा ने और
    पार्थ के शरासन ने, अपनी कृपान ने;
    और जब अर्जुन को मोह हुआ रण-बीच,
    बुझती शिखा में दिया घृत भगवान ने;
    सबकी सुबुद्धि पितामह, हाय, मारी गयी,
    सबको विनष्ट किया एक अभिमान ने ।

    “कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे
    प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से;
    लगता मुझे है, क्यों मनुष्य बच पाता नहीं
    दह्यमान इस पुराचीन अभिशाप से ?
    और महाभारत की बात क्या ? गिराये गये
    जहाँ छल-छद्म से वरण्य वीर आप-से,
    अभिमन्यु-वध औ’ सुयोधन का वध हाय,
    हममें बचा है यहाँ कौन, किस पाप से ?

    “एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है,
    एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध है;
    जनता हूँ, लड़ना पड़ा था हो विवश, किन्तु,
    लहू-सनी जीत मुझे दीखती अशुद्ध है;
    ध्वंसजन्य सुख याकि सश्रु दुख शान्तिजन्य,
    ग्यात नहीं, कौन बात नीति के विरुद्ध है;
    जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य,
    या महान पाप यहाँ फूटा बन युद्ध है ।

    “सुलभ हुआ है जो किरीट कुरुवंशियों का,
    उसमें प्रचण्ड कोई दाहक अनल है;
    अभिषेक से क्या पाप मन का धुलेगा कभी ?
    पापियों के हित तीर्थ-वारि हलाहल है;
    विजय कराल नागिनी-सी डँसती है मुझे,
    इससे न जूझने को मेरे पास बल है;
    ग्रहण करूँ मैं कैसे ? बार-बार सोचता हूँ,
    राजसुख लोहू-भरी कीच का कमल है ।

    “बालहीना माता की पुकार कभी आती, और
    आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का;
    आँख पड़ती है जहाँ, हाय, वहीं देखता हूँ
    सेंदुर पुँछा हुआ सुहागिनी के भाल का;
    बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी,
    तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का;
    और सोते-जागते मैं चौंक उठता हूँ, मानो
    शोणित पुकारता हो अर्जुन के लाल का ।

    “जिस दिन समर की अग्नि बुझ शान्त हुई,
    एक आग तब से ही जलती है मन में;
    हाय, पितामह, किसी भाँति नहीं देखता हूँ
    मुँह दिखलाने योग्य निज को भुवन मे
    ऐसा लगता है, लोग देखते घृणा से मुझे,
    धिक् सुनता हूँ अपने पै कण-कण में;
    मानव को देख आँखे आप झुक जातीं, मन
    चाहता अकेला कहीं भाग जाऊँ वन में ।

    “करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा,
    नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा;
    पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी
    कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा;
    जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,
    छिप तो रहुँगा, दुःख कुछ तो भुलऊँगा;
    व्यंग से बिंधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं,
    वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा।”

    और तब चुप हो रहे कौन्तेय,
    संयमित करके किसी विध शोक दुष्परिमेय
    उस जलद-सा एक पारावार
    हो भरा जिसमें लबालब, किन्तु, जो लाचार
    बरस तो सकता नहीं, रहता मगर बेचैन है ।

    भीष्म ने देखा गगन की ओर
    मापते, मानो, युधिष्ठिर के हृदय का छोर;
    और बोले, ‘हाय नर के भाग !
    क्या कभी तू भी तिमिर के पार
    उस महत् आदर्श के जग में सकेगा जाग,
    एक नर के प्राण में जो हो उठा साकार है
    आज दुख से, खेद से, निर्वेद के आघात से ?’

    औ’ युधिष्ठिर से कहा, “तूफान देखा है कभी ?
    किस तरह आता प्रलय का नाद वह करता हुआ,
    काल-सा वन में द्रुमों को तोड़ता-झकझोरता,
    और मूलोच्छेद कर भू पर सुलाता क्रोध से
    उन सहस्रों पादपों को जो कि क्षीणाधार हैं ?
    रुग्ण शाखाएँ द्रुमों की हरहरा कर टूटतीं,
    टूट गिरते गिरते शावकों के साथ नीड़ विहंग के;
    अंग भर जाते वनानी के निहत तरु, गुल्म से,
    छिन्न फूलों के दलों से, पक्षियों की देह से ।

    पर शिराएँ जिस महीरुह की अतल में हैं गड़ी,
    वह नहीं भयभीत होता क्रूर झंझावात से ।
    सीस पर बहता हुआ तूफान जाता है चला,
    नोचता कुछ पत्र या कुछ डालियों को तोड़ता ।
    किन्तु, इसके बाद जो कुछ शेष रह जाता, उसे,
    (वन-विभव के क्षय, वनानी के करुण वैधव्य को)
    देखता जीवित महीरुह शोक से, निर्वेद से,
    क्लान्त पत्रों को झुकाये, स्तब्ध, मौनाकाश में,
    सोचता, ‘है भेजती हुमको प्रकृति तूफ़ान क्यों ?’

    पर नहीं यह ज्ञात, उस जड़ वृक्ष को,
    प्रकृति भी तो है अधीन विमर्ष के ।
    यह प्रभंजन शस्त्र है उसका नहीं;
    किन्तु, है आवेगमय विस्फोट उसके प्राण का,
    जो जमा होता प्रचंड निदाघ से,
    फूटना जिसका सहज अनिवार्य है ।

    यों ही, नरों में भी विकारों की शिखाएँ आग-सी
    एक से मिल एक जलती हैं प्रचण्डावेग से,
    तप्त होता क्षुद्र अन्तर्व्योम पहले व्यक्ति का,
    और तब उठता धधक समुदाय का आकाश भी
    क्षोभ से, दाहक घृणा से, गरल, ईर्ष्या, द्वेष से ।
    भट्ठियाँ इस भाँति जब तैयार होती हैं, तभी
    युद्ध का ज्वालामुखी है फूटता
    राजनैतिक उलझनों के ब्याज से
    या कि देशप्रेम का अवलम्ब ले ।

    किन्तु, सबके मूल में रहता हलाहल है वही,
    फैलता है जो घृणा से, स्वर्थमय विद्वेष से ।

    युद्ध को पहचानते सब लोग हैं,
    जानते हैं, युद्ध का परिणाम अन्तिम ध्वंस है !
    सत्य ही तो, कोटि का वध पाँच के सुख के लिए !

    किन्तु, मत समझो कि इस कुरुक्षेत्र में
    पाँच के सुख ही सदैव प्रधान थे;
    युद्ध में मारे हुओं के सामने
    पाँच के सुख-दुख नहीं उद्देश्य केवल मात्र थे !

    और भी थे भाव उनके हृदय में,
    स्वार्थ के, नरता, कि जलते शौर्य के;
    खींच कर जिसने उन्हें आगे किया,
    हेतु उस आवेश का था और भी ।

    युद्ध का उन्माद संक्रमशील है,
    एक चिनगारी कहीं जागी अगर,
    तुरत बह उठते पवन उनचास हैं,
    दौड़ती, हँसती, उबलती आग चारों ओर से ।

    और तब रहता कहाँ अवकाश है
    तत्त्वचिन्तन का, गंभीर विचार का ?
    युद्ध की लपटें चुनौती भेजतीं
    प्राणमय नर में छिपे शार्दूल को ।

    युद्ध की ललकार सुन प्रतिशोध से
    दीप्त हो अभिमान उठता बोल है;
    चाहता नस तोड़कर बहना लहू,
    आ स्वयं तलवार जाती हाथ में ।

    रुग्ण होना चाहता कोई नहीं,
    रोग लेकिन आ गया जब पास हो,
    तिक्त ओषधि के सिवा उपचार क्या ?
    शमित होगा वह नहीं मिष्टान्न से ।

    है मृषा तेरे हृदय की जल्पना,
    युद्ध करना पुण्य या दुष्पाप है;
    क्योंकि कोई कर्म है ऐसा नहीं,
    जो स्वयं ही पुण्य हो या पाप हो ।

    सत्य ही भगवान ने उस दिन कहा,
    ‘मुख्य है कर्त्ता-हृदय की भावना,
    मुख्य है यह भाव, जीवन-युद्ध में
    भिन्न हम कितना रहे निज कर्म से।’

    औ’ समर तो और भी अपवाद है,
    चाहता कोई नहीं इसको मगर,
    जूझना पड़ता सभी को, शत्रु जब
    आ गया हो द्वार पर ललकारता ।

    है बहुत देखा-सुना मैंने मगर,
    भेद खुल पाया न धर्माधर्म का,
    आज तक ऐसा कि रेखा खींच कर
    बाँट दूँ मैं पुण्य औ’ पाप को ।

    जानता हूँ किन्तु, जीने के लिए
    चाहिए अंगार-जैसी वीरता,
    पाप हो सकता नहीं वह युद्ध है,
    जो खड़ा होता ज्वलित प्रतिशोध पर ।

    छीनता हो सत्व कोई, और तू
    त्याग-तप के काम ले यह पाप है ।
    पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे
    बढ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो ।

    बद्ध, विदलित और साधनहीन को
    है उचित अवलम्ब अपनी आह का;
    गिड़गिड़ाकर किन्तु, माँगे भीख क्यों
    वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक्ति हो ?

    युद्ध को तुम निन्द्य कहते हो, मगर,
    जब तलक हैं उठ रहीं चिनगारियाँ
    भिन्न स्वर्थों के कुलिश-संघर्ष की,
    युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है ।

    और जो अनिवार्य है, उसके लिए
    खिन्न या परितप्त होना व्यर्थ है ।
    तू नहीं लड़ता, न लड़ता, आग यह
    फूटती निश्चय किसी भी व्याज से ।

    पाण्डवों के भिक्षु होने से कभी
    रुक न सकता था सहज विस्फोट यह
    ध्वंस से सिर मारने को थे तुले
    ग्रह-उपग्रह क्रुद्ध चारों ओर के ।

    धर्म का है एक और रहस्य भी,
    अब छिपाऊँ क्यों भविष्यत् से उसे ?
    दो दिनों तक मैं मरण के भाल पर
    हूँ खड़ा, पर जा रहा हूँ विश्व से ।

    व्यक्ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा,
    व्यक्ति की शोभा विनय भी, त्याग भी,
    किन्तु, उठता प्रश्न जब समुदाय का,
    भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को।

    जो अखिल कल्याणमय है व्यक्ति तेरे प्राण में,
    कौरवों के नाश पर है रो रहा केवल वही ।
    किन्तु, उसके पास ही समुदायगत जो भाव हैं,
    पूछ उनसे, क्या महाभारत नहीं अनिवार्य था ?
    हारकर धन-धाम पाण्डव भिक्षु बन जब चल दिये,
    पूछ, तब कैसा लगा यह कृत्य उस समुदाय को,
    जो अनय का था विरोधी, पाण्डवों का मित्र था ।

    और जब तूने उलझ कर व्यक्ति के सद्धर्म में
    क्लीव-सा देखा किया लज्जा-हरण निज नारि का,
    द्रौपदी के साथ ही लज्जा हरी थी जा रही
    उस बड़े समुदाय की, जो पाण्डवों के साथ था
    और तूने कुछ नहीं उपचार था उस दिन किया;
    सो बता क्या पुण्य था ? य पुण्यमय था क्रोध वह,
    जल उठा था आग-सा जो लोचनों में भीम के ?

    कायरों-सी बात कर मुझको जला मत; आज तक
    है रहा आदर्श मेरा वीरता, बलिदान ही;
    जाति-मन्दिर में जलाकर शूरता की आरती,
    जा रहा हूँ विश्व से चढ युद्ध के ही यान पर ।

    त्याग, तप, भिक्षा ? बहुत हूँ जानता मैं भी, मगर,
    त्याग, तप, भिक्षा, विरागी योगियों के धर्म हैं;
    याकि उसकी नीति, जिसके हाथ में शायक नहीं;
    या मृषा पाषण्ड यह उस कापुरुष बलहीन का,
    जो सदा भयभीत रहता युद्ध से यह सोचकर
    ग्लानिमय जीवन बहुत अच्छा, मरण अच्छा नहीं

    त्याग, तप, करुणा, क्षमा से भींग कर,
    व्यक्ति का मन तो बली होता, मगर,
    हिंस्र पशु जब घेर लेते हैं उसे,
    काम आता है बलिष्ठ शरीर ही ।

    और तू कहता मनोबल है जिसे,
    शस्त्र हो सकता नहीं वह देह का;
    क्षेत्र उसका वह मनोमय भूमि है,
    नर जहाँ लड़ता ज्वलन्त विकार से ।

    कौन केवल आत्मबल से जूझ कर
    जीत सकता देह का संग्राम है ?
    पाश्विकता खड्ग जब लेती उठा,
    आत्मबल का एक बस चलता नहीं ।

    जो निरामय शक्ति है तप, त्याग में,
    व्यक्ति का ही मन उसे है मानता;
    योगियों की शक्ति से संसार में,
    हारता लेकिन, नहीं समुदाय है ।

    कानन में देख अस्थि-पुंज मुनिपुंगवों का
    दैत्य-वध का था किया प्रण जब राम ने;
    “मातिभ्रष्ट मानवों के शोध का उपाय एक
    शस्त्र ही है ?” पूछा था कोमलमना वाम ने ।
    नहीं प्रिये, सुधर मनुष्य सकता है तप,
    त्याग से भी,” उत्तर दिया था घनश्याम ने,
    “तप का परन्तु, वश चलता नहीं सदैव
    पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने।”

    तृतीय सर्ग

    समर निंद्य है धर्मराज, पर,
    कहो, शान्ति वह क्या है,
    जो अनीति पर स्थित होकर भी
    बनी हुई सरला है ?

    सुख-समृद्धि क विपुल कोष
    संचित कर कल, बल, छल से,
    किसी क्षुधित क ग्रास छीन,
    धन लूट किसी निर्बल से ।

    सब समेट, प्रहरी बिठला कर
    कहती कुछ मत बोलो,
    शान्ति-सुधा बह रही, न इसमें
    गरल क्रान्ति का घोलो ।

    हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त
    अपना मुझको पीने दो,
    अचल रहे साम्रज्य शान्ति का,
    जियो और जीने दो ।

    सच है, सत्ता सिमट-सिमट
    जिनके हाथों में आयी,
    शान्तिभक्त वे साधु पुरुष
    क्यों चाहें कभी लड़ाई ?

    सुख का सम्यक्-रूप विभाजन
    जहाँ नीति से, नय से
    संभव नहीं; अशान्ति दबी हो
    जहाँ खड्ग के भय से,

    जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति
    को सत्ताधारी,
    जहाँ सुत्रधर हों समाज के
    अन्यायी, अविचारी;

    नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के
    जहाँ न आदर पायें;
    जहाँ सत्य कहनेवालों के
    सीस उतारे जायें;

    जहाँ खड्ग-बल एकमात्र
    आधार बने शासन का;
    दबे क्रोध से भभक रहा हो
    हृदय जहाँ जन-जन का;

    सहते-सहते अनय जहाँ
    मर रहा मनुज का मन हो;
    समझ कापुरुष अपने को
    धिक्कार रहा जन-जन हो;

    अहंकार के साथ घृणा का
    जहाँ द्वन्द्व हो जारी;
    ऊपर शान्ति, तलातल में
    हो छिटक रही चिनगारी;

    आगामी विस्फोट काल के
    मुख पर दमक रहा हो;
    इंगित में अंगार विवश
    भावों के चमक रहा हो;

    पढ कर भी संकेत सजग हों
    किन्तु, न सत्ताधारी;
    दुर्मति और अनल में दें
    आहुतियाँ बारी-बारी;

    कभी नये शोषण से, कभी
    उपेक्षा, कभी दमन से,
    अपमानों से कभी, कभी
    शर-वेधक व्यंग्य-वचन से ।

    दबे हुए आवेग वहाँ यदि
    उबल किसी दिन फूटें,
    संयम छोड़, काल बन मानव
    अन्यायी पर टूटें;

    कहो, कौन दायी होगा
    उस दारुण जगद्दहन का
    अहंकार य घृणा ? कौन
    दोषी होगा उस रण का ?

    तुम विषण्ण हो समझ
    हुआ जगदाह तुम्हारे कर से ।
    सोचो तो, क्या अग्नि समर की
    बरसी थी अम्बर से ?

    अथवा अकस्मात् मिट्टी से
    फूटी थी यह ज्वाला ?
    या मंत्रों के बल जनमी
    थी यह शिखा कराला ?

    कुरुक्षेत्र के पुर्व नहीं क्या
    समर लगा था चलने ?
    प्रतिहिंसा का दीप भयानक
    हृदय-हृदय में बलने ?

    शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का
    जब वर्जन करती है,
    तभी जान लो, किसी समर का
    वह सर्जन करती है ।

    शान्ति नहीं तब तक, जब तक
    सुख-भाग न नर का सम हो,
    नहीं किसी को अधिक हो,
    नहीं किसी को कम हो ।

    ऐसी शान्ति राज्य करती है
    तन पर नहीं, हृदय पर,
    नर के ऊँचे विश्वासों पर,
    श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर ।

    न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है,
    जबतक न्याय न आता,
    जैसा भी हो, महल शान्ति का
    सुदृढ नहीं रह पाता ।

    कृत्रिम शान्ति सशंक आप
    अपने से ही डरती है,
    खड्ग छोड़ विश्वास किसी का
    कभी नहीं करती है ।

    और जिन्हेँ इस शान्ति-व्यवस्था
    में सिख-भोग सुलभ है,
    उनके लिए शान्ति ही जीवन-
    सार, सिद्धि दुर्लभ है ।

    पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर,
    शोणित पीकर तन का,
    जीती है यह शान्ति, दाह
    समझो कुछ उनके मन का ।

    सत्व माँगने से न मिले,
    संघात पाप हो जायें,
    बोलो धर्मराज, शोषित वे
    जियें या कि मिट जायें ?

    न्यायोचित अधिकार माँगने
    से न मिलें, तो लड़ के,
    तेजस्वी छीनते समर को
    जीत, या कि खुद मरके ।

    किसने कहा, पाप है समुचित
    सत्व-प्राप्ति-हित लड़ना ?
    उठा न्याय क खड्ग समर में
    अभय मारना-मरना ?

    क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल
    की दे वृथा दुहाई,
    धर्मराज, व्यंजित करते तुम
    मानव की कदराई ।

    हिंसा का आघात तपस्या ने
    कब, कहाँ सहा है ?
    देवों का दल सदा दानवों
    से हारता रहा है ।

    मनःशक्ति प्यारी थी तुमको
    यदि पौरुष ज्वलन से,
    लोभ किया क्यों भरत-राज्य का ?
    फिर आये क्यों वन से ?

    पिया भीम ने विष, लाक्षागृह
    जला, हुए वनवासी,
    केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख
    कहलायी दासी

    क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल,
    सबका लिया सहारा;
    पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे
    कहो, कहाँ कब हारा ?

    क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
    तुम हुए विनत जितना ही,
    दुष्ट कौरवों ने तुमको
    कायर समझा उतना ही ।

    अत्याचार सहन करने का
    कुफल यही होता है,
    पौरुष का आतंक मनुज
    कोमल होकर खोता है ।

    क्षमा शोभती उस भुजंग को,
    जिसके पास गरल हो ।
    उसको क्या, जो दन्तहीन,
    विषरहित, विनीत, सरल हो ?

    तीन दिवस तक पन्थ माँगते
    रघुपति सिन्धु-किनारे,
    बैठे पढते रहे छन्द
    अनुनय के प्यारे-प्यारे ।

    उत्तर में जब एक नाद भी
    उठा नहीं सागर से,
    उठी अधीर धधक पौरुष की
    आग राम के शर से ।

    सिन्धु देह धर ‘त्राहि-त्राहि’
    करता आ गिरा शरण में,
    चरण पूज, दासता ग्रहण की,
    बँधा मूढ बन्धन में ।

    सच पूछो, तो शर में ही
    बसती है दीप्ति विनय की,
    सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
    जिसमें शक्ति विजय की ।

    सहनशीलता, क्षमा, दया को
    तभी पूजता जग है,
    बल का दर्प चमकता उसके
    पीछे जब जगमग है ।

    जहाँ नहीं सामर्थ्य शोध की,
    क्षमा वहाँ निष्फल है ।
    गरल-घूँट पी जाने का
    मिस है, वाणी का छल है ।

    फलक क्षमा का ओढ छिपाते
    जो अपनी कायरता,
    वे क्या जानें ज्वलित-प्राण
    नर की पौरुष-निर्भरता ?

    वे क्या जानें नर में वह क्या
    असहनशील अनल है,
    जो लगते ही स्पर्श हृदय से
    सिर तक उठता बल है ?

    जिनकी भुजाओं की शिराएँ फडकी ही नहीं,
    जिनके लहु में नहीं वेग है अनल का ।
    शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा,
    चक्खा ही जिन्होनें नहीं स्वाद हलाहल का;
    जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं,
    ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका ।
    जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है,
    बैठते भरोसा किए वे ही आत्मबल का ।

    उसकी सहिष्णुता क्षमा का है महत्व ही क्या,
    करना ही आता नहीं जिसको प्रहार है ।
    करुणा, क्षमा को छोड़ और क्या उपाय उसे,
    ले न सकता जो बैरियों से प्रतिकार है ?

    सहता प्रहार कोई विवश कदर्य जीव,
    जिसके नसों में नहीं पौरुष की धार है ।
    करुणा, क्षमा है क्लीब जाति के कलंक घोर,
    क्षमता क्षमा की शूर वीरों का सृंगार है ।

    प्रतिशोध से है होती शौर्य की शीखाएँ दीप्त,
    प्रतिशोध-हीनता नरो में महपाप है ।
    छोड़ प्रतिवैर पीते मूक अपमान वे ही,
    जिनमें न शेष शूरता का वह्नि-ताप है ।
    चोट खा सहिष्णु व’ रहेगा किस भाँति, तीर
    जिसके निषग में, करों में धृड चाप है ।
    जेता के विभूषण सहिष्णुता, क्षमा है पर,
    हारी हुई जाति की सहिष्णुता अभिशाप है ।

    सटता कहीं भी एक तृण जो शरीर से तो,
    उठता कराल हो फणीश फुफकर है ।
    सुनता गजेंद्र की चिंघार जो वनों में कहीं,
    भरता गुहा में ही मृगेंद्र हुहुकार है ।
    शूल चुभते हैं, छूते आग है जलाती, भू को
    लीलने को देखो गर्जमान पारावार है ।
    जग में प्रदीप्त है इसी का तेज, प्रतिशोध
    जड़-चेतनों का जन्मसिद्ध अधिकार है ।

    सेना साज हीन है परस्व-हरने की वृत्ति,
    लोभ की लड़ाई क्षात्र-धर्म के विरुद्ध है ।
    वासना-विषय से नहीं पुण्य-उद्भूत होता,
    वाणिज के हाथ की कृपाण ही अशुद्ध है ।
    चोट खा परन्तु जब सिंह उठता है जाग,
    उठता कराल प्रतिशोध हो प्रबुद्ध है ।
    पुण्य खिलता है चंद्र-हास की विभा में तब,
    पौरुष की जागृति कहाती धर्म-युद्ध है ।
    धर्म है हुताशन का धधक उठे तुरंत,
    कोई क्यों प्रचंड वेग वायु को बुलाता है ?

    फूटेंगे कराल ज्वालामुखियों के कंठ, ध्रुव
    आनन पर बैठ विश्व धूम क्यों मचाता है ?
    फूँक से जलाएगी अवश्य जगति को ब्याल,
    कोई क्यों खरोंच मार उसको जगाता है ?
    विद्युत खगोल से अवश्य ही गिरेगी, कोई
    दीप्त अभिमान पे क्यों ठोकर लगाता है ?

    युद्ध को बुलाता है अनीति-ध्वजधारी या कि
    वह जो अनीति भाल पै दे पाँव चलता ?
    वह जो दबा है शोषणो के भीम शैल से या
    वह जो खड़ा है मग्न हँसता-मचलता ?
    वह जो बनाके शांति-व्यूह सुख लूटता या
    वह जो अशांत हो क्षुदानल में जलता ?
    कौन है बुलाता युद्ध ? जाल जो बनाता ?
    या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल-सा निकलता ?

    पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,
    पातकी बताना उसे दर्शन कि भ्रांति है ।
    शोषणो के श्रंखला के हेतु बनती जो शांति,
    युद्ध है, यथार्थ में वो भीषण अशांति है ।
    सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व का है,
    ईश के अवज्ञा घोर, पौरुष कि श्रान्ति है ।
    पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का,
    ऐसी श्रंखला में धर्म विप्लव है, क्रांति है ।

    भूल रहे हो धर्मराज तुम
    अभी हिन्स्त्र भूतल है ।
    खड़ा चतुर्दिक अहंकार है,
    खड़ा चतुर्दिक छल है ।

    मैं भी हूँ सोचता जगत से
    कैसे मिटे जिघान्सा,
    किस प्रकार धरती पर फैले
    करुणा, प्रेम, अहिंसा ।

    जिए मनुज किस भाँति
    परस्पर होकर भाई भाई,
    कैसे रुके प्रदाह क्रोध का ?
    कैसे रुके लड़ाई ?

    धरती हो साम्राज्य स्नेह का,
    जीवन स्निग्ध, सरल हो ।
    मनुज प्रकृति से विदा सदा को
    दाहक द्वेष गरल हो ।

    बहे प्रेम की धार, मनुज को
    वह अनवरत भिगोए,
    एक दूसरे के उर में,
    नर बीज प्रेम के बोए ।

    किंतु, हाय, आधे पथ तक ही,
    पहुँच सका यह जग है,
    अभी शांति का स्वप्न दूर
    नभ में करता जग-मग है ।

    भूले भटके ही धरती पर
    वह आदर्श उतरता ।
    किसी युधिष्ठिर के प्राणों में
    ही स्वरूप है धरता ।

    किंतु, द्वेष के शिला-दुर्ग से
    बार-बार टकरा कर,
    रुद्ध मनुज के मनोद्देश के
    लौह-द्वार को पा कर ।

    घृणा, कलह, विद्वेष विविध
    तापों से आकुल हो कर,
    हो जाता उड्डीन, एक दो
    का ही हृदय भिगो कर ।

    क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन
    अगणित अभी यहाँ हैं,
    बढ़े शांति की लता, कहो
    वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं ?

    शांति-बीन बजती है, तब तक
    नहीं सुनिश्चित सुर में ।
    सुर की शुद्ध प्रतिध्वनि, जब तक
    उठे नहीं उर-उर में ।

    यह नबाह्य उपकरण, भार बन
    जो आवे ऊपर से,
    आत्मा की यह ज्योति, फूटती
    सदा विमल अंतर से ।

    शांति नाम उस रुचित सरणी का,
    जिसे प्रेम पहचाने,
    खड्ग-भीत तन ही न,
    मनुज का मन भी जिसको माने

    शिवा-शांति की मूर्ति नहीं
    बनती कुलाल के गृह में ।
    सदा जन्म लेती वह नर के
    मनःप्रान्त निस्प्रह में ।

    घृणा-कलह-विफोट हेतु का
    करके सफल निवारण,
    मनुज-प्रकृति ही करती
    शीतल रूप शांति का धारण ।

    जब होती अवतीर्ण मूर्ति यह
    भय न शेष रह जाता ।
    चिंता-तिमिर ग्रस्त फिर कोई
    नहीं देश रह जाता ।

    शांति, सुशीतल शांति,
    कहाँ वह समता देने वाली ?
    देखो आज विषमता की ही
    वह करती रखवाली ।

    आनन सरल, वचन मधुमय है,
    तन पर शुभ्र वसन है ।
    बचो युधिष्ठिर, उस नागिन का
    विष से भरा दशन है ।

    वह रखती परिपूर्ण नृपों से
    जरासंध की कारा ।
    शोणित कभी, कभी पीती है,
    तप्त अश्रु की धारा ।

    कुरुक्षेत्र में जली चिता
    जिसकी वह शांति नहीं थी ।
    अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली
    वह दुश्क्रान्ति नहीं थी ।

    थी परस्व-ग्रासिनी, भुजन्गिनि,
    वह जो जली समर में ।
    असहनशील शौर्य था, जो बल
    उठा पार्थ के शर में ।

    हुआ नहीं स्वीकार शांति को
    जीना जब कुछ देकर ।
    टूटा मनुज काल-सा उस पर
    प्राण हाथ में लेकर

    पापी कौन ? मनुज से उसका
    न्याय चुराने वाला ?
    या कि न्याय खोजते विघ्न
    का सीस उड़ाने वाला ?

    चतुर्थ सर्ग

    ब्रह्मचर्य के व्रतीधर्म के
    महास्तंभ, बल के आगार
    परम विरागी पुरुष जिन्हें
    पाकर भी पा न सका संसार ।

    किया विसर्जित मुकुट धर्म हित
    और स्नेह के कारण प्राण
    पुरुष विक्रमी कौन दूसरा
    हुआ जगत में भीष्म सामान ?

    शरों की नोक पर लेटे हुए,गजराज जैसे
    थके, टूटे गरुड़ से,स्रस्त पन्न्गराज जैसे
    मरण पर वीर-जीवन का अगम बल भार डाले
    दबाये काल को, सायास संज्ञा को संभाले,

    पितामह कह रहे कौन्तेय से रण की कथा हैं,
    विचारों की लड़ी में गूंथते जाते व्यथा हैं।
    ह्रदय सागर मथित होकर कभी जब डोलता है
    छिपी निज वेदना गंभीर नर भी बोलता है ।

    “चुराता न्याय जो, रण को बुलाता भी वही है,
    युधिष्ठिर ! स्वत्व की अन्वेषणा पातक नहीं है ।
    नरक उनके लिए, जो पाप को स्वीकारते हैं;
    न उनके हेतु जो तन में उसे ललकारते हैं ।

    सहज ही चाहता कोई नहीं लड़ना किसी से;
    किसीको मारना अथवा स्वयं मरना किसी से;
    नहीं दु:शांति को भी तोडना नर चाहता है;
    जहाँ तक हो सके, निज शांति प्रेम निबाहता है ।

    मगर, यह शांतिप्रियता रोकती केवल मनुज को
    नहीं वो रोक पाती है दुराचारी दनुज को ।
    दनुज क्या शिष्ट मानव को कभी पहचानता है ?
    विनय की नीति कायर की सदा वह मानता है ।

    समय ज्यों बीतता, त्यों त्यों अवस्था घोर होती है
    अन्य की श्रंखला बढ़ कर कराल कठोर होती है ।
    किसी दिन तब, महाविस्फोट कोई फूटता है
    मनुज ले जान हाथों में दनुज पर टूटता है ।

    न समझोकिन्तु, इस विध्वंस के होते प्रणेता
    समर के अग्रणी दो ही, पराजित और जेता ।
    नहीं जलता निखिलसंसार दो की आग से है,
    अवस्थित ज्यों न जग दो-चार ही के भाग से है ।

    युधिष्ठिर ! क्या हुताशन-शैल सहसा फूटता है ?
    कभी क्या वज्र निर्धन व्योम से भी छूटता है ?
    अनलगिरी फूटता, जब ताप होता है अवनी में,
    कडकती दामिनी विकराल धूमाकुल गगन में ।

    महाभारत नहीं था द्वन्द्व केवल दो घरों का,
    अनल का पुंज था इसमें भरा अगणित नरों का ।
    न केवल यह कुफल कुरुवंश के संघर्ष का था,
    विकट विस्फोट यह सम्पूर्ण भारतवर्ष का था ।

    युगों से विश्व में विष-वायु बहती आ रही थी,
    धरित्री मौन हो दावाग्नि सहती आ रही थी;
    परस्पर वैर-शोधन के लिए तैयार थे सब,
    समर का खोजते कोई बड़ा आधार थे सब ।

    कहीं था जल रहा कोई किसी की शूरता से ।
    कहीं था क्षोभ में कोई किसी की क्रूरता से ।
    कहीं उत्कर्ष ही नृप का नृपों को सालता था
    कहीं प्रतिशोध का कोई भुजंगम पालता था ।

    निभाना पर्थ-वध का चाहता राधेयथा प्रण ।
    द्रुपद था चाहता गुरु द्रोण से निज वैर-शोधन ।
    शकुनी को चाह थी, कैसे चुकाए ऋण पिता का,
    मिला दे धूल में किस भांति कुरु-कुल की पताका ।

    सुयोधन पर न उसका प्रेम था, वह घोर छल था ।
    हितू बन कर उसे रखना ज्वलित केवल अनल था ।
    जहाँ भी आग थी जैसी, सुलगती जा रही थी,
    समर में फूट पड़ने के लिए अकुला रही थी ।

    सुधारों से स्वयं भगवान के जो-जो चिढे थे
    नृपति वे क्रुद्ध होकर एक दल में जा मिले थे ।
    नहीं शिशुपाल के वध से मिटा था मान उनका,
    दुबक कर था रहा धुन्धुंआँ द्विगुण अभिमान उनका ।

    परस्पर की कलह से, वैर से, हो कर विभाजित
    कभी से दो दलों में हो रहे थे लोग सज्जित ।
    खड़े थे वे ह्रदय में प्रज्वलित अंगार ले कर,
    धनुर्ज्या को चढा कर, म्यान में तलवार ले कर ।

    था रह गया हलाहल का यदि
    कोई रूप अधूरा,
    किया युधिष्ठिर, उसे तुम्हारे
    राजसूय ने पूरा ।

    इच्छा नर की और, और फल
    देती उसे नियति है ।
    फलता विष पीयूष-वृक्ष में,
    अकथ प्रकृति की गति है ।

    तुम्हें बना सम्राट देश का,
    राजसूय के द्वारा,
    केशव ने था ऐक्य- सृजन का
    उचित उपाय विचारा ।

    सो, परिणाम और कुछ निकला,
    भडकी आग भुवन में ।
    द्वेष अंकुरित हुआ पराजित
    राजाओं के मन में ।

    समझ न पाए वे केशव के
    सदुद्देश्य निश्छल को ।
    देखा मात्र उन्होंने बढ़ते
    इन्द्रप्रस्थ के बल को ।

    पूजनीय को पूज्य मानने
    में जो बाधा-क्रम है,
    वही मनुज का अहंकार है,
    वही मनुज का भ्रम है ।

    इन्द्रप्रस्थ का मुकुट-छत्र
    भारत भर का भूषण था;
    उसे नमन करने में लगता
    किसे, कौन दूषण था ?

    तो भी ग्लानि हुई बहुतों को
    इस अकलंक नमन से,
    भ्रमित बुद्धि ने की इसकी
    समता अभिमान-दलन से ।

    इस पूजन में पड़ी दिखाई
    उन्हें विवशता अपनी,
    पर के विभव, प्रताप, समुन्नति
    में परवशता अपनी ।

    राजसूय का यज्ञ लगा
    उनको रण के कौशल सा,
    निज विस्तार चाहने वाले
    चतुर भूप के छल सा ।

    धर्मराज ! कोई न चाहता
    अहंकार निज खोना
    किसी उच्च सत्ता के सम्मुख
    सन्मन से नत होना ।

    सभी तुम्हारे ध्वज के नीचे
    आये थे न प्रणय से
    कुछ आये थे भक्ति-भाव से
    कुछ कृपाण के भय से ।

    मगर भाव जो भी हों सबके
    एक बात थी मन में
    रह सकता था अक्षुण्ण मुकुट का
    मान न इस वंदन में ।

    लगा उन्हें, सर पर सबके
    दासत्व चढा जाता है,
    राजसूय में से कोई
    साम्राज्य बढ़ा आता है ।

    किया यज्ञ ने मान विमर्दित
    अगणित भूपालों का,
    अमित दिग्गजों का,शूरों का,
    बल वैभव वालों का ।

    सच है सत्कृत किया अतिथि
    भूपों को तुमने मन से
    अनुनय, विनय, शील, समता से,
    मंजुल, मिष्ट वचन से ।

    पर, स्वतंत्रता-मणि का इनसे
    मोल न चूक सकता है
    मन में सतत दहकने वाला
    भाव न रुक सकता है ।

    कोई मंद, मूढमति नृप ही
    होता तुष्टवचन से,
    विजयी की शिष्टता-विनय से,
    अरि के आलिंगन से ।

    चतुर भूप तन से मिल करते
    शमित शत्रु के भय को,
    किन्तु नहीं पड़ने देते
    अरि-कर में कभी ह्रदय को ।

    हुए न प्रशमित भूप
    प्रणय-उपहार यज्ञ में देकर,
    लौटे इन्द्रप्रस्थ से वे
    कुछ भाव और ही ले कर ।

    “धर्मराज, है याद व्यास का
    वह गंभीर वचन क्या ?
    ऋषि का वह यज्ञान्त-काल का
    विकट भविष्य-कथन क्या ?

    जुटा जा रहा कुटिल ग्रहों का
    दुष्ट योग अम्बर में,
    स्यात जगत पडने वाला है
    किसी महा संगरमें ।

    तेरह वर्ष रहेगी जग में
    शांति किसी विध छायी ।
    तब होगा विस्फोट, छिडेगी
    कोई कठिन लड़ाई ।

    होगा ध्वंस कराल, काल
    विप्लव का खेल रचेगा,
    प्रलय प्रकट होगा धरणी पर,
    हा-हा कार मचेगा ।

    यह था वचन सिद्ध दृष्टा का,
    नहीं निरी अटकल थी,
    व्यास जानते थे वसुधा
    जा रही किधर पल-पल थी ।

    सब थे सुखी यज्ञ से, केवल
    मुनि का ह्रदय विकल था,
    वहीजानते थे कि कुण्ड से
    निकला कौन अनल था ।

    भरी सभा के बीच उन्होंने
    सजग किया था सबको,
    पग-पग पर संयम का शुभ
    उपदेश दिया था सबको ।

    किन्तु अहम्म्य, राग-दीप्त नर
    कब संयम करता है ?
    कल आने वाली विपत्ति से
    आज कहाँ डरता है ?

    बीत न पाया वर्ष काल का
    गर्जन पड़ा सुनाई,
    इन्द्रप्रस्थ पर घुमड़ विपद की
    घटा अतर्कित छायी ।

    किसे ज्ञात था खेल-खेल में
    यह विनाश छायेगा ?
    भारत का दुर्भाग्य द्यूत पर
    चढा हुआ आएगा ?

    कौन जानता था कि सुयोधन
    की धृति यों छूटेगी ?
    राजसूय के हवन-कुण्ड से
    विकट- वह्नि फूटेगी ?

    तो भी है सच, धर्मराज !
    यह ज्वाला नयी नहीं थी;
    दुर्योधन के मन में वह
    वर्षों से खेल रही थी ।

    बिंधा चित्र-खग रंग भूमि में
    जिस दिन अर्जुन-शर से,
    उसी दिवस जनमी दुरग्नि
    दुर्योधन के अन्तर से ।

    बनी हलाहल वहीवंश का,
    लपटें लाख-भवन की,
    द्यूत-कपट शकुनी का वन-
    यातना पांडु-नंदन की ।

    भरी सभा में लाज द्रोपदी
    की न गयी थी लूटी,
    वह तो यही कराल आग
    थी निर्भय हो कर फूटी ।

    ज्यों ज्यों साड़ी विवश द्रोपदी
    की खिंचती जाती थी,
    त्यों–त्यों वह आवृत,
    दुरग्नि यह नग्न हुयी जाती थी ।

    उसके कर्षित केश जाल में
    केश खुले थे इसके,
    पुंजीभूत वसन उसका था
    वेश खुले थे इसके ।

    दुरवस्था में घेर खड़ा था
    उसे तपोबल उसका,
    एक दीप्त आलोक बन गया
    था चीरांचल उसका ।

    पर, दुर्योधन की दुरग्नि
    नंगी हो नाच रही थी
    अपनी निर्लज्जता, देश का
    पौरुष जांच रही थी ।

    किन्तु न जाने क्यों उस दिन
    तुम हारे, मैं भी हारा,
    जाने, क्यों फूटी न भुजा को
    फोड़ रक्त की धारा ।

    नर की कीर्ति- ध्वजा उस दिन
    कट गयी देश में जड़ से
    नारी ने सुर को टेरा,
    जिस दिन निराश हो नर से ।

    महासमर आरम्भ देश में
    होना था उस दिन ही,
    उठा खड्ग यह पंक रुधिर से
    धोना था उस दिन ही ।

    निर्दोषा, कुलवधू, एकवस्त्रा
    को खींच महल से,
    दासी बना सभा में लाये
    दुष्ट द्यूत के छल से ।

    और सभी के सम्मुख
    लज्जा-वसन अभय हो खोलें
    बुद्धि- विषण्ण वीर भारत के
    किन्तु नहीं कुछ बोलें ।

    समझ सकेगा कौन धर्म की
    यह नव रीति निराली,
    थूकेंगीं हम पर अवश्य
    संततियां आने वाली ।

    उस दिन की स्मृति से छाती
    अब भी जलने लगती है,
    भीतर कहीं छुरी कोई
    हृत पर चलने लगती है ।

    धिक् धिक् मुझे, हुयी उत्पीड़ित
    सम्मुख राज-वधूटी
    आँखों के आगे अबला की
    लाज खलों ने लूटी ।

    और रहा जीवित मैं, धरणी
    फटी न दिग्गज डोला,
    गिरा न कोई वज्र, न अम्बर
    गरज क्रोध में बोला ।

    जिया प्रज्ज्वलित अंगारे-सा
    मैं आजीवन जग में,
    रुधिर नहीं था, आग पिघल कर
    बहती थी रग-रग में ।

    यह जन कभी किसी का अनुचित
    दर्प न सह सकता था,
    कहीं देख अन्याय किसी का
    मौन न रह सकता था ।

    सो कलंक वह लगा, नहीं
    धुल सकता जो धोने से,
    भीतर ही भीतर जलने से
    या कष्ट फाड़ रोने से ।

    अपने वीर चरित पर तो मैं
    प्रश्न लिए जाता हूँ,
    धर्मराज ! पर, तुम्हें एक
    उपदेश दिए जाता हूँ ।

    शूरधर्म है अभय दहकते
    अंगारों पर चलना,
    शूरधर्म है शाणित असि पर
    धर कर चरण मचलना ।

    शूरधर्म कहते हैं छाती तान
    तीर खाने को,
    शूरधर्म कहते हँस कर
    हालाहल पी जाने को ।

    आग हथेली पर सुलगा कर
    सिर का हविष्चढाना,
    शूरधर्म है जग को अनुपम
    बलि का पाठ पढ़ाना ।

    सबसे बड़ा धर्म है नर का
    सदा प्रज्वलित रहना,
    दाहक शक्ति समेट स्पर्श भी
    नहीं किसी का सहना ।

    बुझा बुद्धि का दीप वीरवर
    आँख मूँद चलते हैं,
    उछल वेदिका पर चढ जाते
    और स्वयं बलते हैं ।

    बात पूछने को विवेक से
    जभी वीरता जाती,
    पी जाती अपमान पतित हो
    अपना तेज गंवाती ।

    सच है बुद्धि-कलश में जल है
    शीतल सुधा तरल है,
    पर,भूलो मत, कुसमय में
    हो जाता वही गरल है ।

    सदा नहीं मानापमान की
    बुद्धि उचित सुधि लेती,
    करती बहुत विचार, अग्नि की
    शिखा बुझा है देती ।

    उसने ही दी बुझा तुम्हारे
    पौरुष की चिंगारी,
    जली न आँख देख कर खिंचती
    द्रुपद-सुता की साड़ी ।

    बाँध उसी ने मुझे द्विधा से
    बना दिया कायर था,
    जगूँ-जगूँ जब तक, तब तक तो
    निकल चुका अवसर था ।

    यौवन चलता सदा गर्व से
    सिर ताने, शर खींचे,
    झुकने लगता किन्तु क्षीण बल
    वे विवेक के नीचे ।

    यौवन के उच्छल प्रवाह को
    देख मौन, मन मारे,
    सहमी हुई बुद्धि रहती है
    निश्छल खड़ीकिनारे ।

    डरती है, बह जाए नहीं
    तिनके-सी इस धारा में,
    प्लावन-भीत स्वयं छिपती
    फिरती अपनी कारा में ।

    हिम-विमुक्त, निर्विघ्न, तपस्या
    पर खिलता यौवन है,
    नयी दीप्ति, नूतन सौरभ से
    रहता भरा भुवन है ।

    किन्तु बुद्धि नित खड़ी ताक में
    रहती घातलगाए,
    कब जीवन का ज्वार शिथिल हो
    कब वह उसे दबाये ।

    और सत्य ही, जभी रुधिर का
    वेग तनिक कम होता,
    सुस्ताने को कहीं ठहर
    जाता जीवन का सोता ।

    बुद्धि फेंकती तुरत जाल निज
    मानव फंस जाता है,
    नयी नयी उलझने लिए
    जीवन सम्मुखआता है ।

    क्षमा या कि प्रतिकार, जगत में
    क्या कर्त्तव्य मनुज का ?
    मरण या कि उच्छेद ? उचित
    उपचार कौन है रूज का ?

    बल-विवेक में कौन श्रेष्ठ है,
    असि वरेण्य या अनुनय ?
    पूजनीयरुधिराक्त विजय
    या करुणा-धौतपराजय ?

    दो में कौन पुनीत शिखा है ?
    आत्मा की या मन की ?
    शमित-तेज वय की मति शिव
    या गति उच्छल यौवन की ?

    जीवन की है श्रांति घोर, हम
    जिसको वय कहते हैं,
    थके सिंह आदर्श ढूंढते,
    व्यंगय-बाण सहते हैं ।

    वय हो बुद्धि-अधीन चक्र पर
    विवश घूमता जाता,
    भ्रम को रोक समय को उत्तर,
    तुरत नहीं दे पाता ।

    तब तक तेज लूट पौरुष का
    काल चला जाता है ।
    वय-जड़ मानव ग्लानि-मग्न हो
    रोता-पछताता है ।

    वय का फल भोगता रहा मैं
    रुका सुयोधन-घर में,
    रही वीरता पड़ी तड़पती
    बंद अस्थि-पंजर में ।

    न तो कौरवों का हित साधा
    और न पांडव का ही,
    द्वंद्व-बीच उलझा कर रक्खा
    वय ने मुझे सदा ही ।

    धर्म, स्नेह, दोनों प्यारे थे
    बड़ा कठिन निर्णय था,
    अत: एक को देह, दूसरे-
    को दे दिया हृदय था ।

    किन्तु, फटी जब घटा, ज्योति
    जीवन की पड़ी दिखाई,
    सहसा सैकत-बीच स्नेह की
    धार उमड़ कर छाई ।

    धर्म पराजित हुआ, स्नेह का
    डंका बजा विजय का,
    मिली देह भी उसे, दान था
    जिसको मिला हृदय था ।

    भीष्म न गिरा पार्थ के शर से,
    गिरा भीष्म का वय था,
    वय का तिमिर भेद वह मेरा,
    यौवन हुआ उदय था ।

    हृदय प्रेम को चढ़ा, कर्म को
    भुजा समर्पित करके
    मैं आया था कुरुक्षेत्र में
    तोष हृदय में भर के ।

    समझा था, मिट गया द्वंद्व
    पा कर यह न्याय-विभाजन,
    ज्ञात न था, है कहीं कर्म से
    कठिन स्नेह का बंधन ।

    दिखा धर्म की भीति, कर्म
    मुझसे सेवा लेता था,
    करने को बलि पूर्ण स्नेह
    नीरव इंगित देता था ।

    धर्मराज, संकट में कृत्रिम
    पटल उघर जाता है,
    मानव का सच्चा स्वरूप
    खुल कर बाहर आता है ।

    घमासान ज्यों बढ़ा, चमकने
    धुंधली लगी कहानी,
    उठी स्नेह-वंदन करने को
    मेरी दबी जवानी ।

    फटा बुद्धि -भ्रम, हटा कर्म का
    मिथ्याजाल नयन से,
    प्रेम अधीर पुकार उठा
    मेरे शरीर से, मन से-

    लो, अपना सर्वस्व पार्थ !
    यह मुझको मार गिराओ,
    अब है विरह असह्य, मुझे
    तुम स्नेह-धाम पहुंचाओ ।

    ब्रह्मचर्य्य के प्रण के दिन जो
    रुद्ध हुयी थी धारा,
    कुरुक्षेत्र में फूट उसी ने
    बन कर प्रेम पुकारा ।

    बही न कोमल वायु, कुंज
    मन का था कभी न डोला,
    पत्तों की झुरमुट में छिप कर
    बिहग न कोई बोला ।

    चढ़ा किसी दिन फूल, किसी का
    मान न मैं कर पाया,
    एक बार भी अपने को था
    दान न मैं कर पाया ।

    वह अतृप्ति थी छिपी हृदय के
    किसी निभृत कोने में,
    जा बैठा था आँख बचा
    जीवन चुपके दोने में ।

    वही भाव आदर्श-वेदि पर
    चढ़ा फुल्ल हो रण में,
    बोल रहा है वही मधुर
    पीड़ा बन कर व्रण-व्रण में ।

    मैं था सदा सचेत, नियंत्रण-
    बंध प्राण पर बांधे,
    कोमलता की ओर शरासन
    तान निशाना साधे ।

    पर, न जानता था, भीतर
    कोई माया चलती है,
    भाव-गर्त के गहन वितल में
    शिखा छन्न जलती है ।

    वीर सुयोधन का सेनापति
    बन लड़ने आया था ;
    कुरुक्षेत्र में नहीं, स्नेह पर
    मैं मरने आया था ।

    सच है, पार्थ-धनुष पर मेरी
    भक्ति बहुत गहरी थी,
    सच है, उसे देख उठती
    मन में प्रमोद-लहरी थी ।

    “सच है, था चाहता पाण्डवों
    का हित मैं सम्मन से,
    पर दुर्योधन के हाथों में
    बिका हुआ था तन से ।

    “न्याय–व्यूह को भेद स्नेह ने
    उठा लिया निज धन है,
    सिद्ध हुआ, मन जिसे मिला,
    संपत्ति उसी की तन है ।

    “प्रकटी होती मधुर प्रेम की
    मुझ पर कहीं अमरता,
    स्यात देश को कुरूक्षेत्र का
    दिन न देखना पड़ता ।

    “धर्मराज, अपने कोमल
    भावों की कर अवहेला ।
    लगता है, मैंने भी जग को
    रण की ओर ढकेला ।

    “जीवन के अरूणाभ प्रहर में
    कर कठोर व्रत धारण,
    सदा स्निग्ध भावों का यह जन
    करता रहा निवारण ।

    “न था मुझे विश्वास, कर्म से
    स्नेह श्रेष्ठ, सुन्दर है,
    कोमलता की लौ व्रत के
    आलोकों से बढ़, कर है ।

    “कर में चाप, पीठ पर तरकस,
    नीति–ज्ञान था मन में,
    इन्हें छोड, मैंने देखा
    कुछ और नहीं जीवन में ।

    “जहाँ कभी अन्तर में कोर्इ
    भाव अपरिचित जागे,
    झुकना पड़ा उन्हें बरबस,
    नय–नीति–ज्ञान के आगे ।

    “सदा सुयोधन के कृत्यों से
    मेरा क्षुब्ध हृदय था,
    पर, क्या करता, यहाँ सबल थी
    नीति, प्रबलतम नय था !

    “अनुशासन का स्वत्व सौंप कर
    स्वयं नीति के कर में,
    पराधीन सेवक बन बैठा
    मैं अपने ही घर में,

    “बुद्धि शासिका थी जीवन की,
    अनुचर मात्र हृदय था,
    मुझसे कुछ खुलकर कहने में
    लगता उसको भय था ।

    कह न सका वह कभी, भीष्म !
    तुम कहाँ बहे जाते हो ?
    न्याय-दण्ड-धर हो कर भी
    अन्याय सहे जाते हो ।

    प्यार पांडवों पर मन से
    कौरव की सेवा तन से,
    सध पाएगा कौन काम
    इस बिखरी हुई लगन से ?

    बढ़ता हुआ बैर भीषण
    पांडव से दुर्योधन का,
    मुझमें बिम्बित हुआ द्वंद्व
    बन कर शरीर से मन का ।

    किन्तु, बुद्धि ने मुझे भ्रमित कर
    दिया नहीं कुछ करने,
    स्वत्व छीन अपने हाथों का
    हृदय-वेदी पर धरने ।

    कभी दिखती रही बैर के
    स्वयं-शमन का सपना,
    कहती रही कभी, जग में
    है कौन पराया-अपना ।

    कभी कहा, तुम बढ़े, धीरता
    बहुतों की छूटेगी,
    होगा विप्लव घोर, व्यवस्था
    की सरणी टूटेगी ।

    कभी वीरता को उभार
    रोका अरण्य जाने से ;
    वंचित रखा विविध विध मुझको
    इच्छित फल पाने से ।

    आज सोचता हूँ, उसका यदि
    कहा न माना होता,
    स्नेह-सिद्ध शुचि रूप न्याय का
    यदि पहचाना होता ।

    धो पाता यदि राजनीति का
    कलुष स्नेह के जल से,
    दंडनीति को कहीं मिला
    पाता करुणा निर्मल से ।

    लिख पायी सत्ता के उर पर
    जीभ नहीं जो गाथा,
    विशिख-लेखनी से लिखने मैं
    उसे कहीं उठ पाता ।

    कर पाता यदि मुक्त हृदय को
    मस्तक के शासन से,
    उतार पकड़ता बाँह दलित की
    मंत्री के आसन से ।

    राज-द्रोह की ध्वजा उठा कर
    कहीं प्रचारा होता,
    न्याय-पक्ष लेकर दुर्योधन
    को ललकारा होता ।

    स्यात सुयोधन भीत उठाता
    पग कुछ अधिक संभल के,
    भरतभूमि पड़ती न स्यात
    संगर में आगे चल के ।

    पर, सब कुछ हो चुका, नहीं कुछ
    शेष, कथा जाने दो,
    भूलो बीती बात, नए
    युग को जग में आने दो ।

    मुझे शांति, यात्रा से पहले
    मिले सभी फल मुझको,
    सुलभ हो गए धर्म, स्नेह
    दोनों के संबल मुझको ।

    पंचम सर्ग

    शारदे! विकल संक्रांति-काल का नर मैं,
    कलिकाल-भाल पर चढ़ा हुआ द्वापर मैं;
    संतप्त विश्व के लिए खोजते छाया,
    आशा में था इतिहास-लोक तक आया ।

    पर हाय, यहाँ भी धधक रहा अंबर है,
    उड़ रही पवन में दाहक लोल लहर है;
    कोलाहल-सा आ रहा काल-गह्वर से,
    तांडव का रोर कराल क्षुब्ध सागर से ।

    संघर्ष-नाद वन-दहन-दारू का भारी,
    विस्फोट वह्नि-गिरि का ज्वलंत भयकारी;
    इन पन्नों से आ रहा विस्र यह क्या है ?
    जल रहा कौन ? किसका यह विकत धुआँ है ?

    भयभीत भूमि के उरमें चुभी शलाका,
    उड़ रही लाल यह किसकी विजय-पताका ?
    है नाच रहा वह कौन ध्वंस-असिधारे,
    रुधिराक्त-गात, जिह्वा लेलिहम्य पसारे ?

    यह लगा दौड़ने अश्व कि मद मानव का ?
    हो रहा यज्ञ या ध्वंस अकारण भव का ?
    घट में जिसको कर रहा खड्ड संचित है,
    वह सरिद्वारि है या नर का शोणित है ?

    मंडली नृपों की जिन्हें विवश हो ढोती,
    यज्ञोपहार हैं या कि मान के मोती ?
    कुंडों में यह घृत-वलित हव्य बलता है ?
    या अहंकार अपहृत नृप का जलता है ?

    ऋत्विक पढ़ते हैं वेद कि, ऋचा दहन की ?
    प्रशमित करते या ज्वलित वह्नि जीवन की ?
    है कपिश धूम प्रतिगान जयी के यश का ?
    या धुँधुआता है क्रोध महीप विवश का ?

    यह स्वस्ति-पाठ है या नव अनल-प्रदाहन ?
    यज्ञान्त-स्नान है या कि रुधिर-अवगाहन ?
    सम्राट-भाल पर चढ़ी लाल जो टीका,
    चन्दन है या लोहित प्रतिशोध किसी का ?

    चल रही खड्ड के साथ कलम भी कवि की,
    लिखती प्रशस्ति उन्माद, हुताशन पवि की ।
    जय-घोष किए लौटा विद्वेष समर से
    शारदे! एक दूतिका तुम्हारे घर से-

    दौड़ी नीराजन-थाल लिए निज कर में,
    पढ़ती स्वागत के श्लोक मनोरम स्वर में ।
    आरती सजा फिर लगी नाचने-गाने,
    संहार-देवता पर प्रसून छितराने ।

    अंचल से पोंछ शरीर, रक्त-माल धो कर
    अपरूप रूप से बहुविध रूप सँजो कर,
    छवि को संवार कर बैठा लिया प्राणों में
    कर दिया शौर्य कह अमर उसे गानों में ।

    हो गया क्षार, जो द्वेष समर में हारा
    जो जीत गया, वो पूज्य हुआ अंगारा ।
    सच है, जय से जब रूप बदल सकता है,
    वध का कलंक मस्तक से टल सकता है-

    तब कौन ग्लानि के साथ विजय को तोले,
    दृग-श्रवण मूंद कर अपना हृदय टटोले ?
    सोचे कि एक नर की हत्या यदि अघ है,
    तब वध अनेक का कैसे कृत्य अनघ है ?

    रण-रहित काल में वह किससे डरता है ?
    हो अभय क्यों न जिस-तिस का वध करता है ?
    जाता क्यों सीमा भूल समर में आ कर ?
    नर-वध करता अधिकार कहाँ से पा कर ?

    इस काल–गर्भ में किन्तु, एक नर ज्ञानी
    है खड़ा कहीं पर भरे दृगों में पानी,
    रक्ताक्त दर्प को पैरों तले दबाये,
    मन में करुणा का स्निग्ध प्रदीप जलाए ।

    सामने प्रतीक्षा–निरत जयश्री बाला
    सहमी सकुची है खड़ी लिए वरमाला ।
    पर, धर्मराज कुछ जान नहीं पाते हैं,
    इस रूपसी को पहचान नहीं पाते हैं ।

    कौंतेय भूमि पर खड़े मात्र हैं तन से,
    हैं चढ़े हुये अपरूप लोक में मन से ।
    वह लोक, जहां विद्वेष पिघल जाता है
    कर्कश, कठोर कालायस गल जाता है;

    नर जहां राग से होकर रहित विचरता,
    मानव, मानव से नहीं परस्पर डरता;
    विश्वास–शांति का निर्भय राज्य जहां है,
    भावना स्वार्थ की कलुषित त्याज्य जहां है ।

    जन–जन के मन पर करुणा का शासन है
    अंकुश सनेह का, नय का अनुशासन है ।
    है जहां रुधिर से श्रेष्ठ अश्रु निज पीना,
    साम्राज्य छोड़ कर भीख मांगते जीना ।

    वह लोक जहां शोणित का ताप नहीं है,
    नर के सिर पर रण का अभिशाप नहीं है ।
    जीवन समता की छांह–तले पलटा है,
    घर–घर पीयूष–प्रदीप जहां जलता है ।

    अयि विजय! रुधिर से क्लिन्न वासन है तेरा,
    यम दृष्टा से क्या भिन्न दशन है तेरा ?
    लपटों की झालर झलक रही अंचल में,
    है धुआं ध्वंस का भरा कृष्ण कुंतल में ।

    ओ कुरुक्षेत्र की सर्व-ग्रासिनी व्याली,
    मुख पर से तो ले पोंछ रुधिर की लाली ।
    तू जिसे वरण करने के हेतु विकल है,
    वह खोज रहा कुछ और सुधामय फल है ।

    वह देख वहाँ, ऊपर अनंत अंबर में,
    जा रहा दूर उड़ता वह किसी लहर में
    लाने धरणी के लिए सुधा की सरिता,
    समता प्रवाहिनी, शुभ्र स्नेह–जल–भरिता ।

    सच्छान्ति जागेगी इसी स्वप्न के क्रम से,
    होगा जग कभी विमुक्त इसी विध यम से ।
    परिताप दीप्त होगा विजयी के मन में,
    उमड़ेंगे जब करुणा के मेघ नयन में;

    जिस दिन वध को वध समझ जयी रोएगा
    आँसू से तन का रुधिर–पंक धोएगा;
    होगा पथ उस दिन मुक्त मनुज की जय का
    आरम्भ भीत धरणी के भाग्योदय का ।

    संहार सुते! मदमत्त जयश्री वाले !
    है खड़ी पास तू किसके वरमाला ले ?
    हो चुका विदा तलवार उठाने वाला,
    यह है कोई साम्राज्य लुटाने वाला ।

    रक्ताक्त देह से इसको पा न सकेगी
    योगी को मद–शर मार जगा न सकेगी ।
    होगा न अभी इसके कर में कर तेरा,
    यह तपोभूमि, पीछे छूटा घर तेरा ।

    लौटेगा जब तक यह आकाश–प्रवासी,
    आएगा तज निर्वेद –भूमि सन्यासी,
    मद–जनित रंग तेरे न ठहर पाएंगे
    तब तक माला के फूल सूख जाएँगे ।

    बुद्धि बिलखते उर का चाहे जितना करे प्रबोध,
    सहज नहीं छोड़ती प्रकृति लेना अपना प्रतिशोध ।

    चुप हो जाए भले मनुज का हृदय युक्ति से हार,
    रुक सकता पर, नहीं वेदना का निर्मम व्यापार ।

    सम्मुख जो कुछ बिछा हुआ है,निर्जन, ध्वस्त,विषण्ण,
    युक्ति करेगी उसे कहाँ तक आँखों से प्रच्छ्न्न ?

    चलती रही पितामह-मुख से कथा अजस्र,अमेय,
    सुनते ही सुनते, आँसू में फूट पड़े कौंतेय ।

    हाँ, सब हो चुका पितामह, रहा नहीं कुछ शेष,
    शेष एक आँखों के आगे है यह मृत्यु-प्रदेश-

    जहां भयंकर भीमकाय शव-सा निस्पंद, प्रशांत,
    शिथिल श्रांत हो लेट गया है स्वयं काल विक्रांत ।

    रुधिर-सिक्त-अंचल में नर के खंडित लिए शरीर,
    मृतवत्सला विषण्ण पड़ी है धरा मौन, गंभीर ।

    सड़ती हुई विषाक्त गंध से दम घुटता सा जान,
    दबा नासिका निकाल भागता है द्रुतगति पवमान ।

    सीत-सूर्य अवसन्न डालता सहम-सहम कर ताप,
    जाता है मुंह छिपा घनों में चाँद चला चुपचाप ।

    वायस, गृद्ध, शृगाल, स्वान, दल के दलवन-मार्जार,
    यम के अतिथि विचरते सुख से देख विपुलआहार ।

    मनु का पुत्र बने पशु-भोजन! मानव का यह अंत !
    भरत-भूमि के नर वीरों की यह दुर्गति, हा, हंत !

    तन के दोनों ओर झूलते थे जो शुंड विशाल,
    कभी प्रिया का कंठहार बन, कभी शत्रु का काल-

    गरुड-देव के पुष्ट पक्ष-निभ दुर्दमनीय, महान,
    अभय नोचते आज उन्हीं को वन के जम्बुक, श्वान ।

    जिस मस्तक को चंचु मार कर वायस रहे विदार,
    उन्नति-कोश जगत का था वह, स्यात,स्वप्न-भांडार ।

    नोच नोच खा रहा गृद्ध जो वक्ष किसी का चीर,
    किसी सुकवि का, स्यात, हृदय था स्नेह सिक्त गंभीर ।

    केवल गणना ही नर की कर गया न कम विध्वंस,
    लूट ले गया है वह कितने ही अलभ्य अवतंस ।

    नर वरेण्य, निर्भीक, शूरता के ज्वलंत आगार,
    कला, ज्ञान, विज्ञान, धर्म के मूर्तिमान आधार-

    रण की भेंट चढ़े सब; हृतरत्ना वसुंधरा दीन,
    कुरुक्षेत्र से निकली है होकर अतीव श्रीहीन ।

    विभव, तेज, सौंदर्य, गए सब दुर्योधन के साथ,
    एक शुष्क कंकाल लगा है मुझ पापी के हाथ ।

    एक शुष्क कंकाल, मृतों के स्मृति-दंशन का शाप,
    एक शुष्क कंकाल, जीवितों के मन का संताप ।

    एक शुष्क कंकाल, युधिष्ठिर की जय की पहचान,
    एक शुष्क कंकाल, महाभारत का अनुपम दान ।

    धरती वह, जिस पर कराहता है घायाल संसार,
    वह आकाश, भरा है जिसमें करुणा की चीत्कार ।

    महादेश वहजहां सिद्धि की शेष बची है धूल,
    जलकर जिसके क्षार हो गए हैं समृद्धि के फूल ।

    यह उच्छिष्ट प्रलय का, अहि-दंशित मुमूर्ष यह देश,
    मेरे हित श्री के गृह में, वरदान यही था शेष ।

    सब शूर सुयोधन-साथ गए
    मृतकों से भरा यह देश बचा है;
    मृत वत्सला माँ की पुकार बची,
    युवती विधवाओं का वेश बचा है;
    सुख-शांति गयी, रस राग गया,
    करुणा, दुख-दैन्य अशेष बचा है;
    विजयी के लिए यह भाग्य के हाथ में
    क्षार समृद्धि का शेष बचा है ।

    रण शांत हुआ,पर हाय, अभी भी
    धारा अवसन्न, दरी हुई है;
    नर-नारियों के मुख देश पे नाश की
    छाया सी एक पड़ी हुई है;
    धरती, नभ, दोनों विषण्ण उदासी
    गंभीर दिशा मेंभरी हुई है;
    कुछ जान नहीं पड़ता, धरणि यह
    जीवित है कि मरी हुई है ।

    यह घोर मसान पितामह! देखिये
    प्रेत समृद्धि के आ रहे वे;
    जय-माला पिन्हा कुरुराज को घेर
    प्रशस्ति के गीत सुना रहे वे;
    मुरदों के कटे-फटे गात को इंगित
    से मुझको दिखला रहे वे;
    सुनिए ये व्यंग निनाद हंसी का
    ठठा मुझको ही चिढ़ा रहे वे ।

    कहते हैं, युधिष्ठिर, बातें बड़ी बड़ी
    साधुता की तू किया करता था;
    उपदेश सभी को सदा तप, त्याग
    क्षमा, करुणा का दिया करता था;
    अपना दुख-भाग पराये के दुख से
    दौड़ के बाँट लिया करता था;
    धन-धाम गंवा कर धर्म हेतु
    वनों में जा वास किया करता था ।

    वह था सच या उसका छल-पूर्ण
    विराग, न प्राप्त जिसे बल था;
    जन में करुणा को जगा निज कृत्य से
    जो निज जोड़ रहा दल था;
    थी सहिष्णुता या तुझमें प्रतिशोध का
    दीपक गुप्त रहा जल था ?
    वह धर्म था या कि कदर्यता को
    ढकने के निमित्त मृषा छल था ?

    जन का मन हाथ में आया जभी,
    नर-नायक पक्ष में आने लगे
    करुणा तज जाने लगी तुझको
    प्रतिकार के भाव सताने लगे;
    तप-त्याग विभूषण फेंक के पांडव
    सत्य स्वरूप दिखाने लगे;
    मंडराने विनाश लगा नभ में
    घन युद्ध के आ गहराने लगे ।

    अपने दुख और सुयोधन के सुख
    क्या न सदा तुझको खलते थे ?
    कुरुराज का देख प्रताप बता, सच
    प्राण क्या तेरे नहीं जलते थे ?
    तप से ढँक किन्तु, दुरग्नि को पांडव
    साधू बने जग को छलते थे,
    मन में थी प्रचंड शिखा प्रतिशोध की
    बाहर वे कर को मलते थे ।

    जब युद्ध में फूट पड़ी यह आग, तो
    कौन सा पाप नहीं किया तूने ?
    गुरु के वध के हित झूठ कहा
    सिर काट समाधि में ही लिया तूने;
    छल से कुरुराज की जांघ को तोड़
    नया रण धर्म चला दिया तूने
    अरे पापी, मुमुर्ष मनुष्य के वक्ष को
    चीर सहास लहू पिया तू ने ।

    अपकर्म किए जिसके हित, अंक में
    आज उसे भरता नहीं क्यों है ?
    ठुकराता है जीत को क्यों पद से ?
    अब द्रोपदी से डरतानहीं क्यों है ?
    कुरुराज की भोगी हुई इस सिद्धि को
    हर्षित हो वरता नहीं क्यों है ?
    कुरुक्षेत्र-विजेता, बता, निज पाँव
    सिंहासन पै धरता नहीं क्यों है ?

    अब बाधा कहाँ? निज भाल पै पांडव
    राज-किरीट धरें सुख से;
    डर छोड़ सुयोधन का जग में
    सिर ऊंचा किए विहरें सुख से;
    जितना सुख चाहें, मिलेगा उन्हें
    धन-धान्य से धाम भरें सुख से;
    अब वीर कहाँ जो विरोध करे ?
    विधवाओं पै राज करें सुख से ।

    सच ही तो पितामह, वीर-वधू
    वसुधा विधवा बन रो रही है;
    कर-कंकड़ को कर चूर ललाट से
    चिह्न सुहाग का धो रही है;
    यह देखिये जीत की घोर अनीति,
    प्रमत्त पिशाचिनी हो रही है;
    इस दु:खिता के संग ब्याह का साज
    समीप चिता के सँजो रही है ।

    इस रोती हुई विधवा को उठा
    किस भांति गले से लगाऊँगा मैं ?
    जिसके पति की न चिता है बुझी
    निज अंक में कैसे बिठाऊंगा मैं ?
    धन में अनुरक्ति दिखा अवशिष्ट
    स्वकीर्ति को भी न गवाऊंगा मैं ।
    लड़ने का कलंक लगा सो लगा
    अब और इसे न बढ़ाऊंगा मैं ।

    धन ही परिणाम है युद्ध का अंतिम
    तात, इसे यदि जानता मैं;
    वनवास में जो अपने में छिपी
    इस वासना को पहचानता मैं,
    द्रौपदी की तो बात क्या? कृष्ण का भी
    उपदेश नहीं टुक मानता मैं,
    फिर से कहता हूँ पितामह, तो
    यह युद्ध कभी नहीं ठानता मैं ।

    पर हाय, थी मोहमयी रजनी वह,
    आज का दिव्य प्रभात न था;
    भ्रम की थी कुहा तम-तोम-भरी
    तब ज्ञान खिला अवदात न था;
    धन-लोभ उभारता था मुझको,
    वह केवल क्रोध का घात न था;
    सबसे था प्रचंड जो सत्य पितामह,
    हाय, वही मुझे ज्ञात न था ।

    जब सैन्य चला, मुझमें न जगा
    यह भाव कि मैं कहाँ जा रहा हूँ;
    किस तत्व का मूल्य चुकाने को देश के
    नाश को पास बुला रहा हूँ;
    कुरु-कोष है या कच द्रौपदी का
    जिससे रण-प्रेरणा पा रहा हूँ
    अपमान को धोने चला अथवा
    सुख भोगने को ललचा रहा हूँ ।

    अपमान का शोध मृषा मिस था,
    सच में, हम चाहते थे सुख पाना,
    फिर एक सुदिव्य सभागृह को
    रचवा कुरुराज के जी को जलाना,
    निज लोलुपता को सदा नर चाहता
    दर्प की ज्योति के बीच छिपाना,
    लड़ता वह लोभ से, किन्तु, किया
    करता प्रतिशोध का झूठ बहाना ।

    प्रतिकार था ध्येय, तो पूर्ण हुआ,
    अब चाहिए क्या परितोष हमें ?
    कुरु-पक्ष के तीन रथी जो बचे,
    उनके हित शेष न रोष हमें;
    यह माना, प्रचारित हो अरी से
    लड़ने नहीं कुछ दोष हमें;
    पर, क्या अघ-बीच न देगा डुबो
    कुरु का यह वैभव-कोष हमें ?

    सब लोग कहेंगे, युधिष्ठिर दंभ से
    साधुता का व्रतधारी हुआ;
    अपकर्म में लीन हुआ, जब क्लेश
    उसे तप त्याग का भारी हुआ;
    नरमेध में प्रस्तुत तुच्छ सुखों को
    निमित्त महा अभिचारी हुआ
    करुणा-व्रत पालन में असमर्थ हो
    रौरव का अधिकारी हुआ ।

    कुछ के अपमान के साथ पितामह,
    विश्व-विनाशक युद्ध को तोलिए;
    इनमें से विघातक पातक कौन
    बड़ा है? रहस्य विचार को खोलिए;
    मुझ दीन, विपणन को देख, दयार्द्र हो
    देव! नहीं निज सत्य से डोलिए;
    नर-नाश का दायी था कौन ? सुयोधन
    या कि युधिष्ठिर का दल ? बोलिए ।

    हठ पै दृढ़ देख सुयोधन को
    मुझको व्रत से डिग जाना था क्या ?
    विष की जिस कीच में था वह मग्न
    मुझे उसमें गिर जाना था क्या ?
    वह खड्ड लिए था खड़ा, इससे
    मुझको भी कृपाण उठाना था क्या ?
    द्रौपदी के पराभव का बदला
    कर देश का नाश चुकाना था क्या ?

    मिट जाये समस्त महीतल, क्योंकि
    किसी ने किया अपमान किसी का;
    जगती जल जाये कि छूट रहा है
    किसी का दाहक वाण किसी का;
    सबके अभिमान उठें बल, क्योंकि
    लगा बलने अभिमान किसी का;
    नर हो बली के पशु दौड़ पड़ें
    कि उठा बज युद्ध-विषाण किसी का ।

    कहिए मत दीप्ति इसे बल की,
    यह दारद है, रण का ज्वर है;
    यह दानवता की शिखा है मनुष्य में
    राग की आग भयंकर है;
    यह बुद्धि-प्रमाद है, भ्रांति में सत्य को
    देख नहीं सकता नर है;
    कुरुवंश में आग लगी, तो उसे
    दिखता जलता अपना घर है ।

    दुनिया तज देती न क्यों उसको,
    लड़ने लगते जब दो अभिमानी ?
    मिटने दे उन्हें जग, आपस में
    जिन लोगों ने है मिटने की ही ठानी;
    कुछ सोचे-विचारे बिना रण में
    निज रक्त बहा सकता नर दानी;
    पर, हाय, तटस्थ हो डाल नहीं
    सकता वह युद्ध की आग में पानी ।

    कुरुक्षेत्र का युद्ध समाप्त हुआ; हम
    सात हैं; कौरव तीन बचे हैं;
    सब लोग मरे; कुछ पंगु, व्रणी,
    विकलांग, विवर्ण, निहीन बचे हैं;
    कुछ भी न किसी को मिला, सब ही
    कुछ खो कर, हो कुछ दीन बचे हैं;
    बस, एक है पांडव जो कुरुवंश का
    राज-सिंहासन छीन बचे हैं ।

    यह राज-सिंहासन ही जड़ था
    इस युद्ध की, मैं अब जानता हूँ,
    द्रौपदी कचमें थी जो लोभ की नागिनी
    आज उसे पहचानता हूँ;
    मन के दृग की शुभ ज्योति हरी
    इस लोभ ने ही, यह मानता हूँ;
    यह जीता रहा, तो विजेता कहाँ मैं ?
    अभी रण दूसरा ठानता हूँ ।

    यह होगा महा रण राग के साथ,
    युधिष्ठिर हो विजयी निकलेगा;
    नर-संस्कृति की रण छिन्न लता पर
    शांति-सुधा-फल दिव्य फलेगा,
    कुरुक्षेत्र की धूल नहीं इति पंथ की
    मानव ऊपर और चलेगा
    मनु का यह पुत्र निराश नहीं
    नव धर्म-प्रदीप अवश्य जलेगा !

    षष्ठ सर्ग

    धर्म का दीपक, दया का दीप,
    कब जलेगा,कब जलेगा, विश्व में भगवान ?
    कब सुकोमल ज्योति से अभिसिक्त
    हो, सरस होंगे जली-सूखी रसा के प्राण ?

    है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार,
    पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार ।
    भोग-लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम,
    बह रही असहाय नर की भावना निष्काम ।

    भीष्म हों अथवा युधिष्ठिर या कि हों भगवान,
    बुद्ध हों कि अशोक, गांधी हों कि ईसु महान;
    सिर झुका सबको, सभी को श्रेष्ठ निज से मान,
    मात्र वाचिक ही उन्हे देता हुआ सम्मान,

    दग्ध कर पर को, स्वयं भी भोगता दुख-दाह,
    जा रहा मानव चला अब भी पुरानी राह ।
    अपहरण, शोषण वही, कुत्सित वही अभियान,
    खोजना चढ़ दूसरों के भस्म पर उत्थान;

    शील से सुलझा न सकना आपसी व्यवहार,
    दौड़ना रह-रह उठा उन्माद कीतलवार ।
    द्रोह से अब भी वही अनुराग
    प्राण में अब भी वही फुँकार भरता नाग ।

    पूर्व युग सा आज का जीवन नहीं लाचार,
    आ चुका है दूर द्वापर से बहुत संसार;
    यह समय विज्ञान का, सब भांति पूर्ण, समर्थ;
    खुल गए हैं गूढ संसृति के अमित गुरु अर्थ ।

    चीरता तमको, संभाले बुद्धि की पतवार
    आ गया है ज्योति की नव भूमि में संसार ।
    आज की दुनिया विचित्र, नवीन;
    प्रकृति पर सर्वत्र है, विजयी पुरुष आसीन ।

    हैं बंधे नर के करों में वारी, विद्युत, भाप,
    हुक्म पर चढ़ता उतरता है पवन का ताप ।
    है नहीं बाकी कहीं व्यवधान,
    लांघ सकता नर सरित, गिरि, सिंधु एक समान ।

    सीस पर आदेश कर अवधार्य,
    प्रकृति के सब तत्त्व करते हैं मनुज के कार्य ।
    मानते हैं हुक्म मानव का महा वरुणेश,
    और करता शब्दगुण अंबर वहन संदेश ।

    नव्य नर की मुष्टि में विकराल
    हैं सिमटते जा रहे प्रत्येक क्षण दिक्काल ।
    यह प्रगति निस्सीम ! नर का यह अपूर्व विकास !
    चरण तल भूगोल ! मुट्ठी में निखिल आकाश !

    किन्तु है बढ़ता गया मस्तिष्क ही नि:शेष,
    छूट कर पीछे गया है रह हृदय का देश;
    नर मानता नित्य नूतन बुद्धि का त्योहार,
    प्राण में करते दुखी होदेवता चीत्कार ।

    चाहिए उनको न केवल ज्ञान
    देवता हैं मांगते कुछ स्नेह, कुछ बलिदान;
    मोम-सी कोई मुलायम चीज,
    ताप पा कर जो उठे मन में पसीज-पसीज;

    प्राण के झुलसे विपिन में फूल कुछ सुकुमार;
    ज्ञान के मरू में सुकोमल भावना की धार;
    चाँदनी की रागनि, कुछ भोर की मुसकान;
    नींद में भूली हुई बहती नदी का गान;

    रंग में घुलता हुआ खिलती कली का राज़;
    पत्तियों पर गूँजती कुछ ओस की आवाज़;
    आंसुओं में दर्द की गलती हुई तस्वीर;
    फूल की, रस में बसी-भीगी हुई जंजीर ।

    धूम, कोलाहल, थकावट धूल के उस पार,
    शीतजल से पूर्ण कोई मंदगामी धार;
    वृक्ष के नीचे जहां मन को मिले विश्राम,
    आदमी काटे जहां कुछ छुट्टियाँ, कुछ शाम ।

    कर्म-संकुल लोक-जीवन से समय कुछ छीन,
    हो जहां पर बैठ नर कुछ पल स्वयं में लीन ।
    फूल-सा एकांत में उर खोलने के हेतु
    शाम को दिन की कमाई तोलने के हेतु ।

    ले चुकी सुख-भाग समुचित से अधिक है देह,
    देवता हैं मांगते मन के लिएलघु गेह ।
    हाय रे मानव ! नियति के दास !
    हाय रे मनुपुत्र, अपना आप ही उपहास !

    प्रकृति को प्रच्छन्नता को जीत
    सिंधु से आकाश तक सबको किए भयभीत;
    सृष्टि को निज बुद्धि से करता हुआ परिमेय
    चीरता परमाणु की सत्ता असीम, अजेय,

    बुद्धि के पवमान में उड़ता हुआ असहाय
    जा रहा तू किस दशा की ओर को निरुपाय ?
    लक्ष्य क्या ? उद्देश्य क्या? क्या अर्थ ?
    यह नहीं यदि ज्ञात, तो विज्ञान का श्रम व्यर्थ ।

    सुन रहा आकाश चढ़ ग्रह तारकों का नाद;
    एक छोटी बात ही पड़ती न तुझको याद ।
    एक छोटी, एक सीधी बात,
    विश्व में छायी हुर्इ है वासना की रात।

    वासना की यमिनी, जिसके तिमिर से हार,
    हो रहा नर भ्रांत अपना आप ही आहार;
    बुद्धि में नभ की सुरभि, तन में रुधिर की कीच,
    यह वचन से देवता, पर, कर्म से पशु नीच ।

    यह मनुज,
    जिसका गगन में जा रहा है यान,
    काँपते जिसके कारों को देख कर परमाणु ।
    खोल कर अपना हृदय गिरि, सिंधु, भू, आकाश
    हैं सुना जिसको चुके निज गुह्यतम इतिहास ।

    खुल गए पर्दे, रहा अब क्या यहाँ अज्ञेय
    किन्तु, नर को चाहिए नित विघ्न कुछ दुर्जेय,
    सोचने को और करने को नया संघर्ष,
    नव्य जय का क्षेत्र पाने को नया उत्कर्ष ।

    पर धरा सुपरीक्षिता, विशिष्ट, स्वाद-विहीन,
    यह पढ़ी पोथी न दे सकती प्रवेग नवीन ।
    एक लघु हस्तामलक यह भूमि मण्डल गोल,
    मानवों ने पढ़ लिए सब पृष्ठ जिसके खोल ।

    किन्तु, नर-प्रज्ञा सदा गतिशालिनी उद्दाम,
    ले नहीं सकती कहीं रुक एक पल विश्राम ।

    यह परीक्षित भूमि, यह पोथी पठित, प्राचीन
    सोचने को दे उसे अब बात कौन नवीन ?
    यह लघु ग्रह भूमिमंडल, व्योम यह संकीर्ण,
    चाहिए नर को नया कुछ और जग विस्तीर्ण ।

    घुट रही नर-बुद्धि की है सांस;
    चाहती वह कुछ बड़ा जग, कुछ बड़ा आकाश ।
    यह मनुज जिसके लिए लघु हो रहा भूगोल
    अपर-ग्रह-जय की तृषा जिसमें उठी है बोल ।

    यह मनुज विज्ञान में निष्णात,
    जो करेगा, स्यात, मंगल और विधु से बात ।
    यह मनुज ब्रह्मांड का सबसे सुरम्य प्रकाश,
    कुछ छिपा सकते न जिससे भूमि या आकाश ।

    यह मनुज जिसकी शिखा उद्दाम;
    कर रहे जिसको चराचर भक्तियुक्त प्रणाम ।
    यह मनुज, जो सृष्टि का शृंगार;
    ज्ञान का, विज्ञान का, आलोक का आगार ।

    पर सको सुन तो सुनो, मंगल-जगत के लोग !
    तुम्हें छूने को रहा जो जीव कर उद्योग-
    वह अभी पशु है; निरा पशु, हिंस्र, रक्त पिपासु,
    बुद्धि उसकी दानवी है स्थूल की जिज्ञासु ।

    कड़कता उसमें किसी का जब कभी अभिमान,
    फूंकने लगते सभी हो मत्त मृत्यु-विषाण ।

    यह मनुज ज्ञानी, शृंगालों, कूकरों से हीन
    हो, किया करता अनेकों क्रूर कर्म मलिन ।

    देह ही लड़ती नहीं, हैं जूझते मन-प्राण,
    साथ होते ध्वंस में इसके कला-विज्ञान ।
    इस मनुज के हाथ से विज्ञान के भी फूल,
    वज्र हो कर छूटते शुभ धर्म अपना भूल ।

    यह मनुज, जो ज्ञान का आगार !
    यह मनुज, जो सृष्टि का शृंगार !
    नाम सुन भूलो नहीं, सोचो विचारो कृत्य;
    यह मनुज, संहार सेवी वासना का भृत्य ।

    छद्म इसकी कल्पना, पाषंड इसका ज्ञान,
    यह मनुष्य मनुष्यता का घोरतम अपमान ।
    व्योम से पाताल तक सब कुछ इसे है ज्ञेय,
    पर, न यह परिचित मनुज का, यह न उसका श्रेय ।

    श्रेय उसका बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत;
    श्रेय मानव की असीमित मानवों से प्रीत;
    एक नर से दूसरे के बीच का व्यवधान
    तोड़ दे जो, है वही ज्ञानी, वही विद्वान ।

    और मानव भी वही, जो जीव बुद्धि-अधीर
    तोड़ना अणु ही, न इस व्यवधान का प्राचीर;
    वह नहीं मानव; मनुज से उच्च, लघु या भिन्न
    चित्र-प्राणी है किसी अज्ञात ग्रह का छिन्न ।

    स्यात, मंगल या शनिश्चर लोक का अवदान
    अजनबी करता सदा अपने ग्रहों का ध्यान ।
    रसवती भू के मनुज का श्रेय
    यह नहीं विज्ञान, विद्या-बुद्धि यह आग्नेय;

    विश्व-दाहक, मृत्यु-वाहक, सृष्टि का संताप,
    भ्रांत पाठ पर अंध बढ़ते ज्ञान का अभिशाप ।
    भ्रमित प्रज्ञा का कौतुक यह इन्द्र जाल विचित्र,
    श्रेय मानव के न आविष्कार ये अपवित्र ।

    सावधान, मनुष्य! यदि विज्ञान है तलवार,
    तो इसे दे फेंक, तज कर मोह, स्मृति के पार ।
    हो चुका है सिद्ध, है तू शिशु अभी नादान;
    फूल-काँटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान ।

    खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार;
    काट लेगा अंग, तीखी है बड़ी यह धार ।
    रसवती भू के मनुज का श्रेय,
    यह नहीं विज्ञान कटु, आग्नेय ।

    श्रेय उसका प्राणमें बहती प्रणय की वायु,
    मानवों के हेतु अर्पित मानवों की आयु ।
    श्रेय उसका आंसुओं की धार,
    श्रेय उसका भग्न वीणा की अधीर पुकार ।

    दिव्य भावों के जगत में जागरण का गान,
    मानवों का श्रेय आत्मा का किरण-अभियान ।
    यजन अर्पण, आत्मसुख का त्याग,
    श्रेय मानव का तपस्या की दहकती आग ।

    बुद्धि-मंथन से विनिगत श्रेय वह नवनीत,
    जो करे नर के हृदय को स्निग्ध, सौम्य, पुनीत ।
    श्रेय वह विज्ञान का वरदान,
    हो सुलभ सबको सहज जिसका रुचिर अवदान ।

    श्रेय वह नर-बुद्धि का शिवरूप आविष्कार,
    ढोसके जिससे प्रकृति सबके सुखों का भार ।
    मनुज के श्रम के अपव्यय की प्रथा रुक जाये,
    सुख-समृद्धि-विधान में नर के प्रकृति झुक जाये ।

    श्रेय होगा मनुज का समता-विधायक ज्ञान,
    स्नेह-सिंचित न्याय पर नव विश्व का निर्माण ।
    एक नर में अन्य का नि:शंक, दृढ़ विश्वास,
    धर्म दीप्त मनुष्य का उज्ज्वल नया इतिहास-

    समर, शोषण, ह्रास की विरुदावली सेहीन,
    पृष्ठ जिसका एक भी होगा न दग्ध, मलिन ।
    मनुज का इतिहास, जो होगा सुधामय कोष,
    छलकता होगा सभी नर का जहां संतोष ।

    युद्ध की ज्वर-भीति से हो मुक्त,
    जब किहोगी, सत्यही, वसुधा सुधा से युक्त ।
    श्रेय होगा सुष्ठु-विकसित मनुज का यह काल,
    जब नहीं होगी धरा नर के रुधिर से लाल ।

    श्रेय होगा धर्म का आलोक वहनिर्बन्ध,
    मनुज जोड़ेगा मनुज से जब उचित संबंध ।
    साम्यकि वह रश्मि स्निग्ध, उदार,
    कब खिलेगी, कब खिलेगी विश्व में भगवान ?
    कब सुकोमल ज्योति से अभिसिक्त
    हो सारस होंगे जली-सूखी रसा के प्राण ?

    सप्तम सर्ग

    रागानल के बीच पुरुष कंचन-सा जलने वाला
    तिमिर-सिंधु में डूब रश्मि की ओर निकलने वाला,
    ऊपर उठने को कर्दम से लड़ता हुआ कमल सा,
    ऊब-डूब करता, उतराता घन में विधु-मण्डल-सा ।

    जय हो, अघ के गहन गर्त में गिरे हुये मानव की,
    मनु के सरल, अबोध पुत्र की, पुरुष ज्योति-संभव की ।
    हार मानहो गयी न जिसकी किरण तिमिर की दासी,
    न्योछावर उस एक पुरुष पर कोटि-कोटि सन्यासी ।

    मही नहीं जीवित है, मिट्टी से डरने वालों से,
    जीवित है वह उसे फूँक सोना करने वालों से,
    ज्वलित देख पंचाग्नि जगत से भाग निकलता योगी,
    धुनि बना कर उसे तापता अनासक्त रसभोगी ।

    रश्मि देश की राह यहाँ तमसे हो कर जाती है,
    उषा रोज रजनी के सिरपर चढ़ी हुई आती है,
    और कौन है, पड़ा नहीं जो कभी पाप कारा में ?
    किसके वसन नहीं भीगे वैतरणी की धारा में ?

    अथ से ले इति तक किसका पथ रहा सदा उज्ज्वल है ?
    तोड़ न सके तिमिर का बंधन, इतना कौन अबल है ?
    सूर्य-सोम दोनों डरते जीवन के पथ पिच्छल से,
    होते ग्रसित, पुन: चलते दोनों हो मुक्त कवल से ।

    उठता गिरता शिखर, गर्त, दोनों से पूरित पथ पर,
    कभी विराट चलता मिट्टी पर, कभी पुण्य के रथ पर
    करता हुआ विकट रण-तम से पापी-पश्चात्तापि,
    किरण देश की ओर चला जा रहा मनुष्य-प्रतापी ।

    जब तक है नर की आँखों में शेषव्यथा का पानी,
    जब तक है करती विदग्ध मानव को मलिन कहानी,
    जब तक है अवशिष्ट पुण्य-बल की नर में अभिलाषा,
    तब तक है अक्षुण्ण मनुज में मानवता की आशा ।

    पुण्य-पाप दोनों वृन्तों पर यह आशा खिलती है,
    कुरुक्षेत्र के चिता-भस्म के भीतर भी मिलती है,
    जिसने पाया इसे, वही है सात्विक धर्म-प्रणेता,
    सत्सेवक मानव-समाज का, सखा, अग्रणी नेता ।

    मिली युधिष्ठिर कोयह आशा आखिर रोते-रोते,
    आँसू के जल में अधीर, अंतर को धोते-धोते,
    कर्मभूमि के निकट वैरागी को प्रत्यागत पा कर,
    बोले भीष्म युधिष्ठिर का ही मनोभाव दुहराकर ।

    अंत नहीं नर पंथ का, कुरुक्षेत्र की धूल,
    आँसू बरसें, तो यहीं खिले शांति का फूल ।

    द्वापर समाप्त हो रहा है धर्मराज, देखो,
    लहर समेटने लगा है एक पारावार ।
    जग से विदा हो जा रहाहै काल-खंड एक
    साथ लिए अपनी समृद्धि की चिता का क्षार ।

    संयुग की धूलि में समाधियुग की ही बनी
    बहरही जीवन की आज भी अजस्रधार ।
    गत ही अचेत हो गिरा है मृत्यु गोद बीच,
    निकट मनुष्य के अनागत रहा पुकार ।

    मृति के अधूरे, स्थूल भाग ही मिटे हैं यहाँ
    नर का जलाहै नहीं भाग्य इस रण में ।
    शोणित में डूबा है मनुष्य, मनुजत्त्व नहीं,
    छिपता फिरा है देह छोड़ वह मन में ।

    आशा है मनुष्य की मनुष्य में, न ढूंढो उसे
    धर्मराज, मानव का लोक छोड़ वन में,
    आशा मनुजत्त्व की विजेता के विलाप में है
    आशा है मनुष्य की तुम्हारे अश्रुकण में ।

    रण में प्रवृत्त राग-प्रेषित मनुष्य होता
    रहती विरक्त किन्तु, मानव की मति है ।
    मन से कराहता मनुष्य,पर, ध्वंस-बीच
    तन में नियुक्त उसे करती नियति है ।

    प्रतिशोध से हो दृप्त वासना हँसाती उसे,
    मन को कुरेदती मनुष्यता की क्षति है ।
    वासना-विराग, दो कगारों में पछाड़ खाती
    जा रही मनुष्यता बनाती हुयी गति है ।

    ऊंचा उठ देखो, तो किरीट, राज, धन, तप,
    जप, याग, योग से मनुष्यता महान है ।
    धर्म सिद्धरूप नहीं भेद-भिन्नता का यहाँ
    कोई भी मनुष्य किसी अन्य के समान है ।

    वह भी मनुष्य, है न धन और बल जिसे,
    मानव ही वह जो धनी या बलवान है ।
    मिला जो निसर्ग-सिद्ध जीवन मनुष्य को है,
    उसमें न दीखता कहीं भी व्यवधान है ।

    अब तक किन्तु, नहीं मानव है देख सका
    शृंग चढ़ जीवन की समता-अमरता ।
    प्रत्यय मनुष्य का मनुष्य में न दृढ़ अभी,
    एक दूसरे से अभी मानव है डरता ।

    और है रहा सदैव शंकित मनुष्य यह
    एक दूसरे में द्रोह-द्वेष-विष भरता ।
    किन्तु, अब तक है मनुष्य बढ़ता ही गया
    एक दूसरे से सदा लड़ता-झगड़ता ।

    कोटि नर-वीर, मुनि मानव के जीवन का
    रहे खोजते ही शिव रूप आयु-भर हैं ।
    खोजते इसे ही सिंधु मथित हुआ है और
    छोड़ गए व्योम में अनेक ज्ञान-शर हैं ।

    खोजते इसे ही पाप-पंक में मनुष्यगिरे,
    खोजते इसे ही बलिदान हुये नर हैं ।
    खोजते इसे ही मानवों ने है विराग लिया
    खोजते इसे ही किए ध्वंसक समर हैं ।

    खोजना इसे हो,तो जलाओ शुभ्र ज्ञान दीप,
    आगे बढ़ो वीर, कुरुक्षेत्र के शमशान से ।
    राग में विरागी, राज दंड-धर योगी बनो,
    नर को दिखाओ पंथ त्याग बलिदान से ।

    दलित मनुष्य में मनुष्यता के भाव भरो,
    दर्प की दुराग्नि करो दूर बलवान से ।
    हिम-शीट भावना में आग अनुभूति की दो,
    छीन लो हलाहल उदग्र अभिमान से ।

    रण रोकना है, तो उखाड़ विषदन्त फेंको,
    वृक-व्याघ्र-भीति से महि को मुक्तकर दो ।
    अथवा अजाके छागलों को भी बनाओ व्याघ्र
    दांतों में कराल काल कूट-विष भर दो ।

    वट की विशालता के नीचे जो अनेक वृक्ष
    ठिठुर रहे हैं, उन्हें फैलने का वर दो ।
    रस सोखता है जो मही का भीमकाय वृक्ष,
    उसकी शिराएँ तोड़ो, डालियाँ कतर दो ।

    धर्मराज, यह भूमि किसी की
    नहीं क्रीत है दासी
    हैं जन्मना समान परस्पर
    इसके सभी निवासी ।

    है सबको अधिकार मृत्ति का
    पोषक-रस पीने का
    विविध अभावों से अशंक हो-
    कर जग में जीने का ।

    सबको मुक्त प्रकाश चाहिए,
    सबको मुक्त समीरण,
    बाधा-रहित विकास, मुक्त
    आशंकाओं से जीवन ।

    उद्भिज-निभ चाहते सभी नर
    बढ्न मुक्त गगन में
    अपना चरम विकास खोजना
    किसी प्रकार भुवन में ।

    लेकिन, विघ्न अनेक अभी
    इस पाठ में पड़े हुये हैं
    मानवता की राह रोक कर
    पर्वत अड़े हुये हैं ।

    न्यायोचित सुख सुलभ नहीं
    जब तक मानव-मानव को
    चैन कहाँ धरती पर, तब तक
    शांति कहाँ इस भाव को ?

    जब तक मनुज-मनुज का यह
    सुख भाग नहीं सम होगा
    शमित न होगा कोलाहल
    संघर्ष नहीं कम होगा ।

    था पाठ सहज अतीव, सम्मिलित
    हो समग्र सुख पाना
    केवल अपने लिए नहीं
    कोई सुख-भाग चुराना ।

    उसे भूल नर फंसा परस्पर
    की शंका में, भय में,
    निरत हुआ केवल अपने ही
    हेतु भोग संचय में ।

    इस वैयक्तिक भोगवाद से
    फूटी विष की धारा,
    तड़प रहा जिसमें पड़ कर
    मानव-समाज यह सारा ।

    प्रभु के दिये हुये सुख इतने
    हैं विकीर्ण धरणी पर
    भोग सकें जो,जगत में,
    कहाँ अभी इतने नर ?

    भू से ले अंबर तक यह जल
    कभी न घटने वाला,
    यह प्रकाश, यह पवन कभी भी
    नहीं सिमटने वाला ।

    यह धरती फल, फूल, अन्न, धन-
    रत्न उगलने वाली
    यह पालिका मृगव्य जीव की
    अटवी सघन निराली ।

    तुंग शृंग ये शैल कि जिनमें
    हीरक-रत्न भरे हैं,
    ये समुद्र जिनमें मुक्ता
    विद्रुम, प्रवाल बिखरे हैं ।

    और मनुज कीनयी नयी
    प्रेरक वे जिज्ञासाएँ !
    उसकी वे सुबलिष्ठ, सिंधु मंथन
    में दक्ष भुजाएँ ।

    अन्वेषणी बुद्धि वह
    तम में भी टटोलने वाली,
    नव रहस्य, नव रूप प्रकृति का
    नित्य खोलने वाली ।

    इस भुज, इस प्रज्ञाके सम्मुख
    कौन ठहर सकता है ?
    कौन विभव वह, जो कि पुरुष को
    दुर्लभ रह सकता है ?

    इतना कुछ है भरा विभव का
    कोष प्रकृति के भीतर
    निज इच्छित सुख-भोग सहज
    ही पा सकते नारी-नर ।

    सब हो सकते तुष्ट एक सा
    सब सुख पा सकते हैं
    चाहें तो, पल में धरती को
    स्वर्ग बना सकते हैं ।

    छिपा दिये सबतत्त्व आवरण
    के नीचे ईश्वर ने
    संघर्षों से खोज निकाला
    उन्हें उद्यमी नर ने ।

    ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में
    मनुज नहीं लाया है,
    अपना सुख उसने अपने
    भुजबल से ही पाया है ।

    प्रकृति नहीं डर कर झुकती है
    कभी भाग्य के बल से
    सदा हारती वह मनुष्य के
    उद्यम से, श्रमजल से ।

    ब्रह्मा का अभिलेख पढ़ा
    करते निरुद्यमी प्राणी
    धोते वीर कु-अंक भाल का
    बहा भ्रुवों से पानी ।

    भाग्यवाद आवरण पाप का
    और शस्त्र शोषण का,
    जिससे रखता दबा एक जन
    भाग दूसरे जन का ।

    पुछो किसी भाग्यवादी से
    यदि विधि अंक प्रबल है
    पदपर क्यों देती न स्वयं
    वसुधा निज रत्न उगल है ?

    उपजाता क्यों विभव प्रकृति को
    सींच-सींच वह जल से ?
    क्यों न उठा लेता निज संचित
    कोष भाग्य के बल से ।

    और मरा जब पूर्व जन्म में
    वह धन संचित करके
    विदा हुआ था न्यास समर्जित
    किसके घर में धरके ।

    जन्मा है वह जहां, आज
    जिस पर उसका शासन है
    क्या है यह घर वही? और
    यह उसी न्यास का धन है ?

    यह भी पूछो, धन जोड़ा
    उसने जब प्रथम-प्रथम था
    उस संचय के पीछे तब
    किस भाग्यवाद का क्रम था ?

    वही मनुज के श्रम का शोषण
    वही अनयमय दोहन,
    वही मलिन छल नर-समाज से
    वही ग्लानिमय अर्जन ।

    एक मनुज संचित करता है
    अर्थ पाप के बल से,
    और भोगता उसे दूसरा
    भाग्यवाद के छल से ।

    नर-समाज का भाग्य एक है
    वह श्रम, वह भुज-बल है,
    जिसके सम्मुख झुकी हुई
    पृथिवी, विनीत नभ-तल है ।

    जिसने श्रम जल दिया, उसे
    पीछे मत रह जाने दो,
    विजित प्रकृति से सबसे पहले
    उसको सुख पाने दो ।

    जो कुछ न्यस्त प्रकृति में है,
    वह मनुज मात्र का धन है,
    धर्मराज, उसके कण-कण का
    अधिकारी जन-जन है ।

    सहज-सुरक्षित रहता यह
    अधिकार कहीं मानव का
    आज रूप कुछ और दूसरा
    ही होता इस भव का ।

    श्रम होता सबसे अमूल्य धन
    सब जन खूब कमाते
    सब अशंक रहते अभाव से
    सब इच्छित सुख पाते ।

    राजा-प्रजा नहीं कुछ होता
    होते मात्र मनुज ही
    भाग्य-लेख होता न मनुज को
    होता कर्मठ भुज ही ।

    कौन यहाँ राजा किसका है ?
    किस की कौन प्रजा है ?
    नर ने हो कर भ्रमित स्वयं ही
    यह बंधन सिरजा है ।

    बिना विघ्न जल, अनिल सुलभ है
    आज सभी को जैसे
    कहते हैं, थी सुलभ भूमि भी
    कभी सभी को वैसे ।

    नर नर का प्रेमी था मानव
    मानव का विश्वासी
    अपरिग्रह था नियम, लोग थे
    कर्म-लीन सन्यासी ।

    बंधे धर्म केबंधन में
    सब लोग जिया करते थे
    एक दूसरे का दुख हँसकर
    बाँट लिया करते थे ।

    उच्च-नीच का भेद नहीं था;
    जन-जन में समताथी
    था कुटुम्ब-सा जन-समाज,
    सब पर सबकी ममताथी ।

    जी भर करते काम, ज़रूरत भर
    सब जन थे खाते,
    नहीं कभी निज को औरों से
    थे विशिष्ट बतलाते ।

    सब थे बद्ध समष्टि-सूत्रमें,
    कोई छिन्न नहीं था
    किसी मनुज का सुख समाज के
    सुख से भिन्न नहीं था ।

    चिंता न थी किसी को कुछ
    निज-हित संचय करने की,
    चुरा ग्रास मानव-समाज का
    अपना घर भरने की ।

    राजा-प्रजा नहीं था कोई
    और नहीं शासन था
    धर्म नीति का जन-जन के
    मन-मन पर अनुशासन था ।

    अब जो व्यक्ति-स्वत्व रक्षित है
    दण्ड-नीति के कर से
    स्वयं समादृ तथा वह पहले
    धर्म-निरतनर नर से ।

    ऋजु था जीवन-पंथ, चतुर्दिक
    थीं उन्मुक्त दिशाएँ,
    पग-पग पर थीं अड़ी राज्य-
    नियमों की नहीं शिलाएँ ।

    अनायास अनुकूल लक्ष्य को
    मानव पा सकता था
    निज विकास की चरम भूमि तक
    निर्भय जा सकता था ।

    तब बैठा कलि-भाव स्वार्थ बन
    कर मनुष्य के मन में
    लगा फैलने गरल लोभ का
    छिपे छिपे जीवन में ।

    पड़ा कभी दुष्काल, मरे नर,
    जीवित का मन डोला,
    उर के किसी निभृत कोने से
    लोभ मनुज का बोला ।

    हाय, रखा होता संचित कर
    तूने यदि कुछ अपना
    इस संकट में आज नहीं
    पड़ता यों तुझे कलपना ।

    नहीं टूटती तुझ पर सब के
    साथ विपद यह भारी,
    जाग मूढ़, आगे के हित
    अब भी तो कर तैयारी ।

    और, जगा, सचमुच मनुष्य
    पछतावे से घबरा कर,
    लगा जोड़ने अपना धन
    औरों की आँख बचा कर ।

    चला एक नर जिधर, उधर ही
    चले सभी नर-नारी,
    होने लगी आत्मरक्षा की
    अलग-अलग तैयारी ।

    लोभ-नागिनी ने विष फूंका,
    शुरू हो गयी चोरी,
    लूट, मार, शोषण, प्रहार
    छीना-झपटी, बरजोरी ।

    छिन्न-भिन्न हो गयी शृंखला
    नर-समाज की सारी,
    लगी डूबने कोलाहल के
    बीच महि बेचारी ।

    तब आयी तलवार शमित
    करने को जगद्दहन को
    सीमा में बांधने मनुज की
    नयी लोभ नागिन को ।

    और खड़गधर पुरुष विक्रमी
    शासक बना मनुज का
    दण्ड-नीति-धारी त्रासक
    नर-तन में छिपे दनुज का ।

    तज समष्टि को व्यष्टि चली थी
    निज को सुखी बनाने,
    गिरि गहन दासत्व-गर्त के
    बीच स्वयं अनजाने ।

    नर से नर का सहज प्रेम
    उठ जाता नहीं भुवन से,
    छल करने में सकुचाता यदि
    मनुज कहीं परिजन से ।

    रहता यदि विश्वास एक में
    अचल दूसरे नर का
    निज सुख चिंतन में न भूलता
    वह यदि ध्यान अपरका ।

    रहता याद उसे यदि, वह कुछ
    और नहीं है, नर है
    विज्ञ वंशधर मनु का, पशु-
    पक्षी से योनि इतर है ।

    तो न मानता कभी मनुज
    निज सुख गौरव खोने में,
    किसी राजसत्ता के सम्मुख
    विनत दास होने में ।

    सह न सका जो सहज-सुकोमल
    स्नेह सूत्र का बंधन,
    दण्ड-नीति के कुलिश-पाश में
    अब है बद्ध वही जन ।

    दे न सका नर को नर जो
    सुख-भाग प्रीति से, नय से
    आज दे रहा वही भाग वह
    राज-खड़ग के भय से ।

    अवहेला कर सत्य-न्याय के
    शीतल उद्दगारों की
    समझ रहा नर आज भली विध
    भाषा तलवारों की ।

    इससे बढ़ कर मनुज-वंश का
    और पतन क्या होगा ?
    मानवीय गौरव का बोलो
    और हनन क्या होगा ?

    नर-समाज को एक खड़गधर
    नृपति चाहिए भारी,
    डरा करें जिससे मनुष्य
    अत्याचारी, अविचारी ।

    नृपति चाहिए, क्योंकि परस्पर
    मनुज लड़ा करते हैं
    खड्ड चाहिए, क्योंकि न्याय से
    वे न स्वयं डरते हैं ।

    नृपति चाहिए जो कि उन्हें
    पशुओं की भांति चराए
    रखे अनय से दूर, नीति-नय
    पग-पगपर सिखलाये ।

    नृप चाहिए नरों को, जो
    समझे उनकी नादानी
    रहे छींटता पल-पल
    पारस्परिक कलह पर पानी ।

    नृप चाहिए, नहीं तो आपस
    में वे खूब लड़ेंगे
    एक दूसरे के शोणित में
    लड़ कर डूब मरेंगे ।

    राजतंत्र द्योतक है नर की
    मलिन निहीन प्रकृति का
    मानवता की ग्लानि और
    कुत्सित कलंक संस्कृति का ।

    आया था यह प्रगति रोकने
    को केवल दुर्गुण की
    नहीं बांधने को सीमा
    उन्मुक्त पुरुष के गुण की ।

    सो देखो, अब दिशा विचारों
    की भी निर्धारित है
    राज-नियम से परे कर्म क्या,
    चिंतन भी वारित है ।

    कृष्ण हों कि हों विदुर, नियोजित
    सब पर एक नियम है
    सब के मन, वच और कर्म पर
    अनुशासन का क्रम है ।

    इनकी भी यदि क्रिया रही
    अनुकूल नहीं सत्ता के
    तो ये भी तृणवत नगण्य हैं
    सम्मुख राज प्रथा के ।

    जो कुछ है, उसका रक्षण ही
    ध्येय एक शासन का;
    नयी भूमि की ओर न बह
    सकता प्रवाह जीवन का ।

    कहीं रूढ़ि-विपरीत बात
    कोई न बोल सकता है
    नया धर्म का भेद मुक्त
    हो कर न खोल सकता है ।

    ग्रीवा पर दु:शील तंत्र को
    शिला भयानक धारे
    घूम रहा है मनुज जगत में
    अपना रूप बिसारे ।

    अपना बस रख सका नहीं
    अविचल वह अपने मन पर,
    अत: बिताया एक खड़गधर
    प्रहरी निज जीवन पर ।

    और आज प्रहरी न देता
    उसे न हिलने-डुलने
    रूढ़ि बंध से परे मनुज का
    रूप निराला खुलने ।

    किन्तु, स्वयं नर ने कु कृत्य से
    संभव किया इसे है,
    आपस में लड़-झगड़ उसी से
    आदर दिया इसे है ।

    जब तक स्वार्थ-शैल मानव के
    मन का चूरन होगा
    तब तक नर-समाज से असिधर
    प्रहरी दूर न होगा ।

    नर है विकृत अत:, नरपति
    चाहिए धर्म-ध्वज-धारी
    राजतंत्र है हेय, इसीसे
    राज धर्म है भारी ।

    धर्मराज, सन्यास खोजना
    कायरता है मन की
    है सच्चा मनुजत्व ग्रंथियां
    सुलझाना जीवन की ।

    दुर्लभ नहीं मनुज के हित,
    निज वैयक्तिक सुख पाना
    किन्तु कठिन है कोटि-कोटि
    मनुजों को सुखी बनाना ।

    एक पंथ है, छोड़ जगत को
    अपने में रम जाओ,
    खोजो अपनी मुक्ति और
    निज को ही सुखी बनाओ ।

    अपर पंथ है, औरों को भी
    निज-विवेक बल दे कर,
    पहुँचो स्वर्ग-लोक में जग से
    साथ बहुत को ले कर ।

    जिस तप से तुम चाह रहे
    पाना केवल निज सुख को
    कर सकता है दूर वही तप
    अमित नरों के दुख को ।

    निज तप रखो चुरा निज हित,
    बोलो क्या न्याय यही है ?
    क्या समष्टि-हित मोक्षदान का
    उचित उपाय यही है ?

    निज को ही देखो न युधिष्ठिर !
    देखो निखिल भुवन को
    स्ववत शांति-सुख की ईहा में
    निरत, व्यग्र जन जन को ।

    माना, इच्छित शांति तुम्हारी
    तुम्हें मिलेगी वन में
    चरण चिह्न पर, कौन छोड़
    जाओगे यहाँ भुवन में ?

    स्यात दु:ख से तुम्हें कहीं
    निर्जन में मिले किनारा
    शरण कहाँ पाएगा पर, यह
    दह्यमान जग सारा ।

    और कहीं आदर्श तुम्हारा
    ग्रहण कर नर-नारी
    तो फिर जाकर बसे विपिन में
    उखाड़ सृष्टि यह सारी ।

    बसी भूमि मरघट बन जाये
    राजभवन हो सूना
    जिससे डरता यति, उसी का
    बन बन जाये नमूना ।

    त्रिविध ताप में लगें वहाँ भी
    जलने यदि पुरवासी,
    तो फिर भागे उठा कमंडलु
    वन से भी सन्यासी ।

    धर्मराज, क्या यति भागता
    कभी गेहया वन से ?
    सदा भागता फिरता है वह
    एक मात्र जीवन से ।

    वह चाहता सदैव मधुर रस,
    नहीं तिक्तया लोना
    वह चाहता सदैव प्राप्ति ही
    नहीं कभी कुछ खोना ।

    प्रमुदित पा कर विजय, पराजय
    देख खिन्न होता है
    हँसता देख विकास, ह्रास को
    देख बहुत रोता है ।

    रह सकता न तटस्थ, खीझता,
    रोता, अकुलाता है,
    कहता, क्यों जीवन उसके
    अनुरूप न बन जाता है ।

    लेकिन, जीवन जुड़ा हुआ है
    सुघर एक ढांचे में
    अलग-अलग वह ढला करे
    किसके-किसके सांचे में ?

    यह अरण्य, झुरमुट जो काटे,
    अपनी राह बना ले,
    क्रीतदास यह नहीं किसी का
    जो चाहे, अपना ले ।

    जीवन उनका नहीं युधिष्ठिर,
    जो उससे डरते हैं
    वह उनका, जो चरण रोप
    निर्भय हो कर लड़ते हैं ।

    यह पयोधि सबका मुख करता
    विरत लवण-कटुजल से
    देता सुधा उन्हें, जो मथते
    इसे मंदराचल से ।

    बिना चढ़े फुनगी पर जो
    चाहता सुधा फल पाना
    पीना रस पीयूष, किन्तु
    यह मन्दर नहीं उठाना ।

    खारा कह जीवन-समुद्र को
    वही छोड़ देता है
    सुधा-सुरा-मणि-रत्न कोष से
    पीठ फेर लेता है ।

    भाग खड़ा होता जीवन से
    स्यात सोच यह मन में
    सुख का अक्षय कोष कहीं
    प्रक्षिप्त पड़ा है वन में ।

    जाते ही वह जिसे प्राप्त कर
    सब कुछ पा जाएगा
    गेह नहीं छोड़ा कि देह धर
    फिर न कभी आएगा ।

    जनाकीर्ण जग से व्याकुल हो
    निकल भागना वन में
    ; धर्मराज, है घोर पराजय
    नर की जीवन रण में ।

    यह निवृति है ग्लानि, पलायन
    का यह कुत्सित क्रम है
    नि: श्रेयस यह श्रमित, पराजित
    विजित बुद्धि का भ्रम है ।

    इसे दीखती मुक्ति रोर से,
    श्रवण मूँद लेने में
    और दहन से परित्राण-पथ
    पीठ फेर देने में ।

    मरुद्भित प्रति काल छिपाती
    सजग, क्षीण-बल तप को
    छाया में डूबती छोड़ कर
    जीवन के आतप को ।

    कर्म-लोक से दूर पलायन
    कुंज बसा कर अपना
    निरी कल्पना में देखा
    करती अलभ्य का सपना ।

    वह सपना, जिस पर अंकित
    उंगली का दाग नहीं है,
    वह सपना, जिसमे ज्वलंत
    जीवन की आग नहीं है ।

    वह सपनों का देश कुसुम ही
    कुसुम जहां खिलते हैं,
    उड़ती कहीं न धूल, न पथ में
    कंटक ही मिलते हैं ।

    कटु की नहीं, मात्र सत्ता है
    जहां मधुर, कोमल की
    लौह पिघल कर जहां रश्मि
    बन जाता विधु-मण्डल की ।

    जहां मानती हुक्म कल्पना
    का जीवन धारा है
    होता सब कुछ वही, जो कि
    मानव-मन को प्यारा है ।
    उस विरक्त से पूछो, मन से
    वह जो देख रहा है,
    उस कल्पना जनित जग का
    भू पर अस्तित्व कहाँ है ?

    कहाँ वीथि है वह, सेवित है
    जो केवल फूलों से
    कहाँ पंथ वह, जिस पर छिलते
    चरण नहीं शूलों से ?

    कहाँ वाटिका वह, रहती जो
    सतत प्रफुल्ल हरी है ?
    व्योम खंड वह कहाँ,
    कर्म-रज जिसमें नहीं भरी है ?

    वह तो भाग छिपा चिंतन में
    पीठ फेर कर रण से,
    विदा हो गए, पर, क्या इससे
    दाहक दुख भुवन से ?

    और, कहें, क्या स्वयं उसे
    कर्तव्य नहीं करना है ?
    नहीं कमा कर सही, भीख से
    क्या न उदर भरना है ?

    कर्मभूमि है निखिल महीतल
    जब तक नर की काया
    तब तक है जीवन के अणु-अणु
    में कर्तव्य समाया ।

    क्रिया-धर्म को छोड़ मनुज
    कैसे निज सुख पाएगा ?
    कर्म रहेगा साथ, भाग वह
    जहां कहीं जाएगा ।

    धर्मराज, कर्मठ मनुष्य का
    पथ सन्यास नहीं है,
    नर जिस पर चलता, वह
    मिट्टी है, आकाश नहीं है ।

    ग्रहण कर रहे जिसे आज
    तुम निर्वेदाकुल मन से
    कर्म-न्यास वह तुम्हें दूर
    ले जाएगा जीवन से ।

    दीपक का निर्वाण बड़ा कुछ
    श्रेय नहीं जीवन का,
    है सद्धर्म दीप्त रख उसको
    हरना तिमिर भुवन का ।

    भ्रमा रही तुमको विरक्ति जो,
    वह अस्वस्थ, अबल है,
    अकर्मण्यता की छाया, वह
    निरे ज्ञान का छल है ।

    बचो युधिष्ठिर, कहीं डुबो दे
    तुम्हें नयह चिंतन में,
    निष्क्रियता का धूम भयानक
    भर न जाये जीवन में ।

    यह विरक्ति निष्कर्म बुद्धि की
    ऐसी क्षिप्र लहर है,
    एक बार जो उड़ा, लौट
    सकता न पुन:वह घर है ।

    यह अनित्य कह-कह कर देती
    स्वाद हीन जीवन को
    निद्रा को जागृति बताती
    जीवन अचल मरण को ।

    सत्ता कहती अनस्तित्व को
    और लाभ खोने को,
    श्रेष्ठ कर्म कहती निष्क्रियता,
    में विलीन होने को ।

    कहती सत्य उसे केवल,
    जो कुछ गोतीत, अलभ है
    मिथ्या कहती उस गोचर को
    जिसमें कर्म सुलभ है ।

    कर्महीनता को पनपाती
    है विलाप के बल से
    काट गिराती जीवन के
    तरु को विराग के छल से ।

    सह सकती यह नहीं कर्म संकुल
    जग के कल-कल को
    प्रशमित करती अत:, विविध विध
    नर के दीप्त अनल को ।

    हर लेती आनंद-ह्रास
    कुसूमों का यह चुम्बन से,
    और प्रगतिमय कंपन जीवित,
    चपल तुहिन के कण से ।

    शेष न रहते सबल गीत
    इसके विहंग के उर में,
    बजती नहीं बांसुरी इसकी
    उदद्वेलन के सुर में ।

    पौधों से कहती यह, तुम मत
    बढ़ो, वृद्धि ही दुख है,
    आत्म नाश है मुक्ति महत्तम,
    मुरझाना ही सुख है ।

    सुविकच, स्वस्थ, सुरम्य-सुमन को
    मरण भीति दिखला कर,
    करती है रस-भंग, काल का
    भोजन उसे बता कर ।

    श्री, सौंदर्य, तेज, सुख
    सबसे हीन बना देती है,
    यह विरक्ति मानव को दुर्बल,
    दीन बना देती है ।

    नहीं मात्र उत्साह-हरण
    करती नर के प्राणों से,
    लेती छीन प्रताप भुजा से
    और दीप्त बाणों से ।

    धर्मराज, किसको न ज्ञातहै
    यह कि अनित्य जगत है
    जनमा कौन, काल का जो नर
    हुआ नहीं अनुगत है ?

    किन्तु, रहे पल-पल अनियता
    ही जिस नर पर छाई
    नश्वरता को छोड़ पड़े
    कुछ और नहीं दिखलाई ।

    द्विधा मूढ़ वह कर्म योग से
    कैसे कर सकता है
    कैसे हो सन्नद्ध जगत के
    रण में लड़ सकता है ?

    तिरस्कार कर वर्तमान
    जीवन के उदद्वेलन का
    करता रहता ध्यान अहर्निश
    जो विद्रूप मरण का ।

    अकर्मण्य वह पुरुष काम,
    किसके, कब आ सकता है ?
    मिट्टी पर कैसे वह कोई
    कुसुम खिला सकता है ?

    सोचेगा वह सदा, निखिल
    अवनी तल ही नश्वर है,
    मिथ्या यह श्रम-भार, कुसुम ही
    होता कहाँ अमर है ?

    जगको छोड़ खोजता फिरता
    अपनी एक अमरता,
    किन्तु, उसे भी अभी लील
    जाती अजेय नश्वरता ।

    पर, निर्विघ्न सरणि जग की
    तब भी चलती रहती है
    एक शिखा ले भार अपर का
    जलती ही रहती है ।

    झर जाते हैं कुसुम जीर्ण दल
    नए फूल खिलते हैं
    रुक जाते कुछ, दल में फिर
    कुछ नए पथिक मिलते हैं ।

    अकर्मण्य पंडित हो जाता
    अमर नहीं रोने से
    आयु न होती क्षीण किसी की
    कर्म भार ढोने से ।

    इतना भेद अवश्य युधिष्ठिर !
    दोनों में होता है,
    हँसता एक मृत्ति पर,
    नभ में एक खड़ा रोता है ।

    एक सजाता है धरती का
    अंचल फुल्ल कुसुम से,
    भरता भूतल में समृद्धि-सुषमा
    अपने भुज बल से ।

    पंक झेलता हुआ भूमि का
    त्रिविध ताप को सहता
    कभी खेलता हुआ ज्योति से
    कभी तिमिर में बहता ।

    अधम अतल को फोड़ बहाता
    धार मृत्ति के पय की
    रस पीता, दुंदुभि बजाता
    मानवता की जय की ।

    होता विदा जगत से, जग को
    कुछ रमणीय बना कर,
    साथ हुआ था जहां, वहाँ से
    कुछ आगे पहुंचा कर ।

    और दूसरा कर्महीन चिंतन
    का लिए सहारा
    अंबुधि में निर्यान खोजता
    फिरता विफल किनारा ।

    कर्मनिष्ठ नर की भिक्षा पर
    सदा पालते तन को
    अपने को निर्लिप्त, अधम
    बतलाते निखिल भुवन को ।

    कहता फिरता सदा, जहां तक
    दृश्य वहाँ तक छल है
    जो अदृश्य, जो अलभ, अगोचर
    सत्य वही केवल है ।

    मानों सचमुच ही मिथ्या हो
    कर्मक्षेत्र यह काया
    मानों, पुण्य-प्रताप मनुज के
    सचमुच ही हों माया ।

    मानों, कर्म छोड़ सचमुच ही
    मनुज सुधर सकता हो,
    मानों, वह अम्बर पर तज कर
    भूमि ठहर सकता हो ।

    कलुष निहित, मानों सच ही हो
    जन्म-लाभ लेने में
    भुज से दुखका विषम भार
    ईषल्लघु कर देने में ।

    गंध, रूप, रस, शब्द, स्पर्श
    मानों, सचमुच फाटक हों
    रसना, त्वचा, घ्राण, दृग, श्रुति
    ज्यों मित्र नहीं घातक हों ।

    मुक्ति-पंथखुलता हो, मानों,
    सचमुच, आत्महनन से
    मानों, सचमुच ही, जीवन हो
    सुलभ नहीं जीवन से ।

    मानो, निखिल सृष्टि यह कोई
    आकस्मिक घटना हो
    जन्म साथ उद्देश्य मनुज का
    मानों नहीं सना हो ।

    धर्मराज क्या दोष हमारा
    धरती यदि नश्वर है ?
    भेजा गया, यहाँ पर आया
    स्वयं न कोई नर है ।

    निहित न होता भाग्य मनुज का
    यदि मिट्टी नश्वर में
    चित्र-योनि धार मनुज जनमता
    स्यात, कहीं अम्बर में-

    किरण रूप, निष्काम, रहित हो
    क्षुधा-तृषा के रुज से
    कर्म-बंध से मुक्त, हीं दृग,
    श्रवण, नयन, पद, भुज से ।

    किन्तु, मृत्ति है कठिन, मनुज को
    भूख लगा करती है
    त्वच से मन तक विविध भांति
    की तृषा जागा करती है ।

    यह तृष्णा, यह भूख न देती
    सोने कभी मनुज को
    मन को चिंतन-ओर, कर्म की
    ओर भेजती भुज को ।

    मन का स्वर्ग मृषा वह, जिसको
    देह न पा सकती है
    इससे तो अच्छा वह, जो कुछ
    भुजा बना सकती है ।

    क्योंकि भुजा जो कुछ लाती
    मन भी उसको पाता है
    नीरा ध्यान, भुज क्या? मन को भी
    दुर्लभ रह जाता है ।
    सफल भुजा वह, मन को भी जो
    भरे प्रमोद लहर से
    सफल ध्यान, अंकन असाध्य
    रह जाये न जिसका कर से ।

    जहां भुजा का एक पंथ हो
    अन्य पंथ चिंतन का
    सम्यक रूप नहीं खुलता उस
    द्वंद्व-ग्रस्त जीवन का ।

    केवल ज्ञानमयी निवृत्ति से
    द्विधा न मिट सकती है
    जगत छोड़ देने से मन की
    तृषा न घट सकती है ।

    बाहर नहीं शत्रु, छिप जाये
    जिसे छोड़ नर वन में
    जाओ जहां, वहीं पाओगे
    इसे उपस्थित मन में ।

    पर जिस अरि को यती जीतता
    जग से बाहर जा कर
    धर्मराज, तुम उसे जीत
    सकते जग को अपना कर ।

    हठयोगी जिसका वध करता
    आत्म हनन के क्रम से
    जीवित ही तुम उसे स्व-वश में
    कर सकते संयम से ।

    और जिसे पा कभी न सकता
    सन्यासी वैरागी
    जग में रह कर हो सकते तुम
    उस सुख के भी भागी ।

    वह सुख जो मिलता असंख्य
    मनुजों का अपना हो कर
    हंस कर उसके साथ हर्ष में
    और दुख में रो कर ।

    वह, जो मिलता भुजा पंगु की
    ओर बढ़ा देने से
    कंधों पर दुर्बल-दरिद्र का
    बोझ उठा लेने से ।

    सुकृत-भूमि वन ही न; महि यह
    देखो बहुत बड़ी है
    पग-पगपर साहाय्य-हेतु
    दीनता विपिन्न खड़ी है ।

    इसे चाहिए अन्न, वसन, जल,
    इसे चाहिए आशा,
    इसे चाहिए सुदृढ़ चरण, भुज
    इसे चाहिए भाषा ।

    इसे चाहिए वह झांकी,
    जिसको तुम देख चुके हो,
    इसे चाहिए वह मंज़िल
    तुम आकर जहां रुके हो ।

    धर्मराज, जिसके भय से तुम
    त्याग रहे जीवन को
    उस प्रदाह में देखो जलते
    हुये समग्र भुवन को ।

    यदि सन्यास शोध है इसका
    तो मत युक्ति छिपाओ
    सब हैं विकल, सभी को अपना
    मोक्ष मंत्र सिखलाओ ।

    जाओ शमित करो निज तप से
    नर के रागानल को
    बरसाओ पीयूष, करो
    अभिसिक्त दग्ध भूतल को ।

    सिंहासन का भाग छीन कर
    दो मत निर्जन वन को
    पहचानो निज कर्म युधिष्ठिर !
    कड़ा करो कुछ मन को ।

    क्षत-विक्षत है भरत-भूमि का
    अंग-अंगवाणों से
    त्राहि-त्राहि का नाद निकलता
    है असंख्य प्राणों से ।

    कोलाहल है महा त्रास है,
    विपद आज है भारी,
    मृत्यु-विवर से निकल चतुर्दिक
    तड़प रहे नर-नारी ।

    इन्हें छोड़ वन में जा कर तुम
    कौन शांति पाओगे ?
    चेतन की सेवा तज जड़ को
    कैसे अपनाओगे ?

    पोंछो अश्रु, उठो, द्रुत जाओ
    वन में नहीं भुवन में
    होओ खड़े असंख्य नरों की
    आशा बन जीवन में ।

    बुला रहा निष्काम कर्म वह,
    बुला रही है गीता
    बुला रही है तुम्हें आर्त हो
    महि समर-संभीता ।

    इस विविक्त, आहत वसुधा को
    अमृत पिलाना होगा
    अमित लता-गुल्मों में फिर से
    सुमन खिलाना होगा ।

    हरना होगा अश्रु ताप
    हृत-बंधु अनेक नरों का
    लौटाना होगा सुहास
    अगणित-विषण्ण अधरों का ।

    मरे हुओं पर धर्मराज,
    अधिकार न कुछ जीवन का
    ढोना पड़ता सदा
    जीवितों को ही भार भुवन का ।

    मरा सुयोधन जभी, पड़ा
    यह भार तुम्हारे पाले
    संभलेगा यह सिवा तुम्हारे
    किसके और संभाले ?

    मिट्टी का यह भार संभालो
    बन कर्मठ सन्यासी
    पा सकता कुछ नहीं मनुज
    बन केवल व्योम प्रवासी ।

    ऊपर सब कुछ शून्य-शून्य है,
    कुछ भी नहीं गगन में,
    धर्मराज! जो कुछ है, वह है
    मिट्टी में, जीवन में ।

    सम्यक विधि से इसे प्राप्त कर
    नर सब कुछ पाता है
    मृत्ति-जयी के पास स्वयं ही
    अम्बर भी आता है ।

    भोगो तुम इस भांति मृत्ति को
    दाग नहीं लग पाये
    मिट्टी में तुम नहीं, वही
    तुममें विलीन हो जाये ।

    और सिखाओ भोगवाद की
    यही रीति जन-जन को
    करें विलीन देह को मन में
    नहीं देह में मन को ।

    मन का होगा आधिपत्य
    जिस दिन मनुष्य के तन पर
    होगा त्याग अधिष्ठित जिस दिन
    भोग-लिप्त जीवन पर ।

    कंचन को नर साध्य नहीं
    साधन जिस दिन जानेगा
    जिस दिन सम्यक रूप मनुज का
    मानव पहचानेगा ।

    वल्कल-मुकुट, परे दोनों के
    छिपा एक जो नर है
    अन्तर्वासी एक पुरुष जो
    पिंडोंसे ऊपर है ।

    जिस दिन देखउसे पाएगा
    मनुज ज्ञान के बल से
    रह न जाएगी उलझ दृष्टि जब
    मुकुट और वल्कल से ।

    उस दिन होगा सुप्रभात
    नर के सौभाग्य उदय का
    उस दिन होगा शंख ध्वनित
    मानव की महा विजय का ।

    धर्मराज, गंतव्य देश है दूर
    न देर लगाओ
    इस पथ पर मानव समाज को
    कुछ आगे पहुंचाओ ।

    सच है, मनुज बड़ा पापी है
    नर का वध करता है
    पर, भूलो मत, मानव के हित
    मानव ही मरता है ।

    लोभ, द्रोह, प्रतिशोध, वैर
    नरता के विघ्न अमित हैं
    तप, बलिदान, त्याग के संबल
    भी न किन्तु, परिमित हैं ।

    प्रेरित करो इतर प्राणी को
    निज चरित्र के बल से
    भरो पुण्य की किरण प्रजा में
    अपने तप निर्मल से ।

    मत सोचो दिन-रात पाप में
    मनुज निरत होता है
    हाय, पाप के बाद वही तो
    पछताता रोता है ।

    यह क्रंदन, यह अश्रु मनुज की
    आशा बहुत बड़ी है
    बतलाता है यह, मनुष्यता
    अब तक नहीं मरी है ।

    सत्य नहीं पातक की ज्वाला
    में मनुष्य का जलना
    सच है बल समेट कर उसका
    फिर आगे को चलना ।

    नहीं एक अवलंब जगत का
    आभा पुण्य व्रती की
    तिमिर-व्यूह में फंसी किरण भी
    आशा है धरती की ।

    फूलों पर आँसू के मोती
    और अश्रु में आशा
    मिट्टी के जीवन की छोटी
    नपी-तुली परिभाषा ।

    आशा के प्रदीप को
    जलाए चलो धर्मराज,
    एक दिन होगी मुक्त
    भूमिरण-भीति से ।

    भावना मनुष्य की न
    राग में रहेगी लिप्त,
    सेवित रहेगा नहीं
    जीवन अनीति से ।

    हार से मनुष्य की
    न महिमा घटेगी और,
    तेज न बढ़ेगा किसी
    मानव की जीत से ।

    स्नेह-बलिदान होंगे
    माप नरता के एक,
    धरती मनुष्य की
    बनेगी स्वर्ग प्रीति से ।

    समाप्त