परिवेश : हम-तुम कुँवर नारायण
प्यार के सौजन्य से
आह्वान
मानसर सनीर नयन,
रूपों के नील-कमल :
दर्द सही बार-बार,
कर जाओ फिर पागल।
सूनी मत होने दो
लहराती क्षितिज-कोर,
दूर हटो नीरव नभ,
सलिल ज्वार करो शोर :
बरसो हे जलद दिनों
इसी पार धरती पर,
पारदर्शी असीम
बूँदों से धुँधला कर :
हिलने दो आँधी में
यह अटूट बियावान,
टूट पड़े खंड-खंड
चिल्लाकर आसमान :
जीवन की नस-नस में
बिजली-सी कड़क जाए,
एक बार क्षितिजों तक
दृश्य-दृश्य तड़प जाए।
प्यार के सौजन्य से
वृक्ष से लिपटी हुई क्वाँरी लताएँ,
दो नयन
मानों अपरिमित प्यास के सन्दर्भ में काली घटाएँ,
कौंधती नंगी बिजलियाँ,
उर्वरा धरती समर्पित,
सृष्टि का आभास वर्जित गर्भ में,
तुष्टि का अपयश
कलकित मालती की दुधमुँही कलियाँ?
हज़ारों साल बूढ़े मन्दिरों
तुम चुप रहो,
आत्मीय है वह नाम जो अज्ञात-
उसको पूछने से पाप लगता,
फूल हैं उसकी खुशी की देन
उनको पोछने से दाग़ लगता!
पतित-पावन वत्सला धरती
तुम्हारे पुत्र हैं जो जन्म ले लें…
साक्षी हैं
फूलदानों में सिसकते चन्द धुँधले फूल,
कुंठित सभ्यता के किसी तोषक अर्थ में
वनजात है सौन्दर्य की भाषा!
उसे स्वच्छन्द रहने दो।
बड़े संयोग से ही यह कहानी
सुनी तारों की ज़बानी
प्यार के सौजन्य से।
बदलते सन्दर्भ
यह एक स्नेह-वल्लरी
जो उठी
और फूल ही फूल हुई,
मौँगती रही केवल अपना निसर्ग
किरण का प्यार-
बदले में देती रंग, रूप, गन्ध, स्पर्श,
दिशाओं भर आत्मोत्सर्ग।
आह, मत झिझको,
यही सुख कदाचित् वह प्रथम अनुभव हो
जिसे आरम्भ करते
सृष्टि रोमांचित हुई थी!
ठहरने से यही पहली भोर
अन्तिम साँझ बन सकती।
किरण के रास्तों पर
रात गुमसुम
विभाजन करती-
वही सब कुछ,
बदलते
सन्दर्भ : हम तुम
अजामिल-मुक्ति
इस राज के सम्राट,
ओ ऋतुराज!
मेरे स्वप्न के आलोक-मंडित गुम्बदों को
चूम कर आयी हवा तुमको जगाती है :
(उसे क्या नाम दूँ?)
किसी प्रस्तावना की अप्सरा-छाया
अभी तक गर्म है आसंग से तेरे,
पड़ी अर्धांगिनी माया लजाती है।
(इसे क्या नाम दूँ?)
किरण-वल्गा सँभालो,
विहग उड़ते अश्व-
सीमाएँ न अपनी अवधि की ही तोड़कर उड़ जाएँ!
मुट्ठी भर सुनहले फूल
उस फूली लता पर खिलखिलाते,
डोलता मानो चंवर
खाली सिंहासन पर।
अनंग ऋतुराज,
हर पतझार में तुम याद आते हो।
(तम्हें क्या नाम दूँ?)
ओ मधुमक्खियों,
आनन्द की छलिया पंखुड़ियों पर
लुढ़क कर सोखतीं मकरन्द छवि-किंजल्क पर बेहोश,
प्रतिद्वन्द्वी तुम्हरी-खोमचे पर भिनभिनाती मक्खियाँ
सस्ती मिठाई पर भिड़ी :
या सिर्फ दुर्गति पर अड़ी।
(उन्हें क्या नाम दूँ?)
चाहे गगन का राह,
चाहे राह चलते,
बीत जाते स्वप्न सोते-जागते :
पर, शब्द….
लाखों स्वप्न के संसर्ग से उत्पन्न अक्षय नाम,
जो तुम मर्म बनकर
मोह के हर संस्करण पर छूट जाओगे,
असंगत नाम!
दैनिक वाङ्मय में किसी विश्वातीत के सुचक
मरण के पूत क्षण में याद आओगे,
हमारे पास कितने सुक्ष्म अर्थों में
अजामिल-मुक्ति लाओगे
तुमने देखा
तुमने देखा,
कि हंसती बहारों ने?
तुमने देखा,
कि लाखों सितारों ने?
कि जैसे सुबह
धूप का एक सुनहरा बादल छा जाए,
और अनायास
दुनिया की हर चीज भा जाए :
कि जैसे सफ़ेद और लाल गुलाबों का
एक शरारती गुच्छा
चुपके से खिड़की के अन्दर झाँके
और फिर हवा से खेलने लग जाय
शरमा के
मगर बुलाने पर
एक भीनी-सी नाज़ुक खुशबू
पास खड़ी हो जाय आ के।
तुमने कुछ कहा,
कि जाग रही चिड़ियों ने?
तुमने कुछ कहा,
कि गीत की लड़ियों ने
तुमने सिर्फ पूछा था-
“तुम कैसे हो?”
लगा यह उलाहना था-
“तुम बड़े वैसे हो!…”
मैंने चाहा
तुमसे भी अधिक सुन्दर कुछ कहूँ,
उस विरल क्षण की अद्वितीय व्याख्या में
सदियों तक रहूँ,
लेकिन अव्यक्त
लिये मीठा-सा दर्द,
बिखर गए इधर-उधर
मोहताज शब्द….।
शक
रात जैसे दर्पणों की गली हो,
और तुम एक चाँद बन कर निकली हो
हर चीज तुम्हारे रूप का आईना :
हर ख़्वाब तुम्हारे प्यार से सना,
तुम्हारे लिए मेरा मन ललचता है,
तुम्हारे बिना कुछ नहीं जंचता है।
लेकिन, कभी-कभी
लगा है ऐसा भी-
वह नज़र-जो खूब पिये थी-
वह हँसी-क्या सबके लिए थी?
तुम्हारे हँसने पर फूल-से झड़ते हैं,
बाद में याद में काँटे-से गड़ते हैं!
वह गुलाबी प्यार-अच्छा तो है,
लेकिन शक़ होता है-सच्चा तो है?
कहीं तुम ख़राब न निकलो
मामूली शराब न निकलो
जिसकी अदा दूसरी हो,
जिसका असर ऊपरी हो,
जो एक बात में छल जाए,
जो एक रात में ढल जाए,
और तब हर एक चीज़ मुझ पर हँसे?
यही रात नागिन-सी रह-रह कर डसे।
प्यार और बेला के फूल
काश कि तुम भूली रहतीं
अपनी सुन्दरता
जिसे तुमसे अधिक मुझे चाहना चाहिए,
और दर्पण में जो तुम्हें दीखता
वह तुम ही नहीं
मेरा विनम्र मन भी होता….
तब शायद उन रेखाओं का भरा-पूरा रूप
विश्वास भर पा सकता,
इतना अच्छा,
जैसे एक ही आँचल में
प्यार और बेला के फूल।
तीन ‘तुम’ : एक फोटोग्राफ़
तुम-अद्वितीय सौन्दर्य-उस तरफ़-धूप में,
बीच में चिलमन,
चिलमन पर तुम्हारा कटा-पिटा रूप :
दृष्टि में तीन ‘तुम’-
धूप में, चिलमन पर,
फ़र्श पर कुबड़ी-सी छाया कुरूप!
तुम्हें पाने की अदम्य आकांक्षा
तुम्हें पाने की अदम्य आकांक्षा
देह की बन्दी है।
तुम्हें देह तक लाने की इच्छा तो
शव-सी गन्दी है।
तुम्हारे रूप की समृद्धि के प्रहरी
अकिंचन शब्द, केवल दास हैं :
एक पराई सम्पत्ति की तिजोरी के
सिर्फ आसपास हैं।
अ-व्यक्ति प्यार के सन्तोष तक उठ सकें,
चाहों में शक्ति कहाँ?-
तुमको हर चेहरे के सुख-दुख में देख सकें,
ऐसी अनुरक्ति कहाँ?
+++
ये सितारे तुम्हारी दूरी को दुहराते हैं,
मन को आकाश-सा सूना कर जाते हैं।
तुम्हारा मौन जैसे नदी के उस ओर का अँधियार,
कहने के लिए उस पार-सहने के लिए इस पार!
एक दृष्टि है जिसकी उदासी से
चीज़-चीज़ बचती है,
जिसके सम्पर्क से सपनों-सी छुईमुई
दुनिया सकुचती है।
इन चिथड़ा खंडहरों की विपन्न शामों में
कोई चिल्लाता है-
जिसका स्वर सदियों की
दूरी से आता है।
लगता है,
यह सब भूल जाना है :
एक कहानी-
जो सुलाने का बहाना है।
तुम और तुम्हारा प्यार, एक तमाशा
जो मेरे बाद न होगा।
और ज़िन्दगी, एक टूटा हुआ ख़्वाब
जो हमें याद न होगा।
केवल प्रतीक्षा में
अब तुममें उसे नहीं जीना है
एकान्तिक शब्दों में प्यार जो व्यतीत हुआ।
अब शायद और नहीं पीना है
वह पीड़ा जिसका हर पागल क्षण
एक युग प्रतीत हुआ।
आँखों में तम सिमटे;
पौंवों में पथ लिपटे,
जिये बिना उम्र घटी,
चले बिना राह कटी।
कुछ खोया असमय कुछ यथासमय,
केवल प्रतीक्षा में-यह जीवन असह्य
जिसका सारा भविष्य
जैसे बिन बीते ही जीते जी अतीत हुआ!
आमने-सामने
पश्चिमी आकाश में बिखरे बादल,
कि सूरज के रंगीन छिलके-
या घायल गुबार
किसी मुरझाये दिल के
नीचे, टहनियों की टोकरी में,
गौंज कर फेंकी हुई एक रद्द शाम :
दबी सिसकियों की तरह चारों ओर
एक घुटता हुआ कूहराम…
मुझे ख़ुशी है
कि तुम आ गए,
मेरी ख़ामोशी से
आख़िर उकता गए!
ज़रा ठहरो, ज़िन्दगी के इन टुकड़ों को
फिर से सँवार लूँ,
और उन सुनहले क्षणों को जो भागे जा रहे हैं
पुकार लूँ…
एक उम्र
एक उम्र खुला की
भर भर के ढला की,
एक प्यास
नशा खास पीने में।
एक उम्र बला की
बातों में टला की,
एक रात
साथ साथ जीने में।
बहुत दिनों खला की
बुझ बुझकर जला की,
एक आग
जाग जाग सीने में।
इंच इंच, साँस साँस, नपी-तुली ज़िन्दगी,
एक ख्वाब-बेहिसाब ख़र्च हुई ज़िन्दगी।
उपसंहार
तुम्हारी मान्यताएँ वह परिधि है
जिससे केवल शून्य बनते हैं,
तुम्हारा व्यक्तित्व वह इकाई है
जिससे केवल संख्याएँ बनती हैं।
मैं समूह से विस्छिन्न हूँ
क्योंकि कुछ भिन्न हूँ।
मैं जानता हूँ कभी न कभी
तुम्हारे स्वत्व की कोई अदम्य जिज्ञासा
या उसकी व्याकुल पुनरावृत्ति-मुझे खोजेगी,
लेकिन तब जब कि यह समूची दुनिया
मेरे हाथों से गिर कर टूट चुकी होगी
और मैं अस्तित्व के किसी विघटित प्रतीक में ही
पाया जा सकूँगा।
हमारी पछताती आत्माएँ अनन्त काल तक भटकेंगी
उस अर्थ के लिए
जो हम आज एक दूसरे को दे सकते हैं।
विदा
दो समानान्तर पटरियाँ
जो कभी भी मिल न सकतीं।
उस नियम की श्रृंखला में बद्ध
जिसमें हिल न सकती।
ज्यामितिक
दो सरल रेखाएँ समय-विस्तार की
जो दिल न रखतीं!
एक हाहाकार-सी
(कब से प्रतीक्षित !)
वार्तमानिक ट्रेन का आना
ठहरना
और नस नस में समा जाना।
बोलते-से
तोतले भीगे नयन
गाढ़ी व्यथा की चुप्पियों के बीच,
बारम्बार
जैसे ढूँढ़ कर अपनत्व-कोई दर्द-
अपनों को लगा लेते गले से
खींच।
जोड़े हाथ, घायल प्रार्थना में :
टूट कर मैं-
फूल मालाओं सहित गति को समर्पित।
ताश के खेले हुए पत्तों सरीखे
याद में फिंटते हुए-से
कुछ विदित चेहरे।
उमड़ती भावनाओं में बहे जाते
किनारे के हज़ारों दृश्य….
अशेष
आहत। प्रेमी। शिशु-
संसार एक स्तन जो नहीं मिला।
मेरी अशेष इच्छा में
तुम और मैं
अभी शेष
एक स्मृति
एक गान
एक दूरी,
मिट रहे चेहरे पर उस चिर-चाहे रूप को
आज भी चूम लेने को जी चाहता है।
लेकिन
अब हम सुरक्षित हैं
एक दूसरे की वासना से
एक दूसरे को बचा कर,
एक दूसरे के बिना रोशनी बिता कर
शाम की सुन्न बेहोशी में
ज़िन्दा-
बचे हुए-
रोज़ की तरह
अशान्ति, धुआँ और बेबसी :
सिगरेट पीता हुआ आसमान,
उमड़ते बादलों के धुआँधार छल्ले
बेज़बान।
लाल, काले, नीले रंग घुले-मिले
तेज़ शराब की तरह
मेज़ पर लुढ़की हुई शाम में
धीरे-धीरे डूब गया दिन
औँधे मुँह
रात गए
कन्धे पर लाद
कोई कमरे में डाल गया
रोज़ की तरह
आज भी!
शेष पूंजी
तुमसे फिर मिल रहा हूँ;
तुम जैसे एक कथानक के पूर्व,
और मैं एक ट्रेजेडी के बाद।
जो कुछ संचित है
वह तुम नहीं,
तुम्हें अप्राप्य समझती हुई
मेरी पहली महत्त्वाकांक्षा है
जिसने जीवन को सिद्ध किया।
जिसका इतिहास
पत्थरों की ज़बानी
एक फटेहाल, नंगे सिर, छिले पाँव
नायक की कहानी है,
पक लम्बी यात्रा
जो वहीं समाप्त होती है जहाँ से शुरू!
जिसकी आँखें बहता पानी,
तट को छूकर अपने में डूब जाती
लहरों की तरंग-कथा…
उद्गम!
तुमसे मिले ताप ने, शीत ने, जल ने
मुझको भविष्य दिया :
सारांश,
अब मैं उन चेष्टाओं की
शेष पूँजी हूँ
जिसे तुम नहीं समय प्राप्त करेगा।
उजले रंग
सवेरे-सवेरे
कार्तिक की हँसमुख सुबह।
नदी-तट से लौटती गंगा नहा कर
सुवासित भीगी हवाएँ
सदा पावन
माँ सरीखी
अभी जैसे मंदिरों में चढ़ाकर ख़ुशरंग फूल
ठंड से सीत्कारती घर में घुसी हों,
और सोते देख मुझ को जगाती हों-
सिरहाने रख एक अंजलि फूल हरसिंगार के,
नर्म ठंडी उंगलियों से गाल छूकर प्यार से,
बाल बिखरे हुए तनिक सँवार के…
कार्निस पर
कार्निस पर
एक नटखट किरण बच्चे-सी
खड़ी जंगला पकड़ कर,
किलकती है–“मुझे देखो!”
साँस रोके-
बांह फैलाए खड़ा गुलमुहर…
कब वह कूद कर आ जाए उसकी गोद में!
कमरे में धूप
हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।
सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !
खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर खड़ा हो गया,
किताबें मुँह बाये देखती रहीं,
पानी से भरी सुराही फर्श पर टूट पड़ी,
मेज़ के हाथ से क़लम छूट पड़ी।
धूप उठी और बिना कुछ कहे
कमरे से बाहर चली गई।
शाम को लौटी तो देखा
एक कुहराम के बाद घर में ख़ामोशी थी।
अँगड़ाई लेकर पलँग पर पड़ गई,
पड़े-पड़े कुछ सोचती रही,
सोचते-सोचते न जाने कब सो गई,
आँख खुली तो देखा सुबह हो गई।
बहार आई है
ये जंगली फूल जो हर साल
हल्ला बोल कर शहर में घुस आते हैं
और राह चलते, आते-जाते लोगों को
बेशर्मी से घूरते, फुसलाते हैं-
क्या इन्हें मालूम नहीं
कि शहरों में इसकी सख्त मनाही है
कि कोई किसी से बिना जान-पहिचान बोले
और कहे कि देखो, बहार आई है!
बसंत आ…
फूलों के चेहरे और तथाकथित चेहरे :
दौड़ कर किसी ने बांह गर्दन में डाल दी…
छू गया बसंत की बयार का महक-दुकूल।
ये मकान भी अजीब आदमी!
बने-ठने
तने-तने
न फूल हैं न पत्तियाँ :
बेज़बान मूंह असंख्य
खिड़कियाँ खुली हुई पुकारतीं-
“बस अंत आ बस अंत आ!!’
धूल उड़ रही उधर
जिधर तमाम भीड़ से लदी-फंदी सवारियाँ
गुज़र रहीं,
उधर नहीं…
तू उसी प्रसूनयुत छबीलकुंज मार्ग से
बसंत आ।
समीप से सु्गंधि-रथ गुज़र गए :
मन उचाट इस तरह
कि हम अतिथि शुभागमन भुला गए!
यह बहार
एक ज्वार फूल फिर उलीच कर चली गई,
कोकिला-कंठ से पुकारती
‘बसंत–
आ गया।
बसंत आ गया :
बसंत आ,
गया…!’
लकड़ी का टूटा पुल
उस लकड़ी के टूटे पुल पर
इस तरह पड़ रही धूप-छांह
जैसे कोई प्यासा चीता
झरने में अगले पंजे रख पानी पीता!
छरहरा पवन
हरनों-सा भाग रहा चौतरफा डरा-डरा
मानो हिंसक जानवर नहीं,
मीलों तक उनका डर
उनका पीछा करता।
दो छाया-चित्र
1
नदी-पथ पर डगमगाते चन्द्रमा के पाँव।
नदी-तट पर खोजते शायद प्रिया का गाँव!
2
नदी की गोद में नादान शिशु-सा
अर्द्धसोया दीप ।-
झिलमिल चांदनी में नाचती परियाँ,
लहर पर लहर लहरातीं
बजा कर तालियाँ गातीं
सुनाती लोरियाँ-
सुनता नदी का लाड़ला बेटा,
चमकते चाँद के चाँदी-कटोरे से
मज़े में दूध पीता।
एक स्थापना
सम्बन्ध के डोरे
कुछ भी नहीं
सच है
कान में तुमने कहा था-
(सिर्फ़ शब्दों का मधुर स्पर्श भर ही याद है)
क्या? अर्थ है मेरी पहेली का?
हटा लो हाथ आँखों से,
न केवल स्वरों से ही बूझ पाऊँगा तुम्हारा रूप,
कुछ अनुमान ही मेरे
कदाचित् छद्म-उत्तर हों तुम्हारे अंध-प्रश्नों का!
अपितु, सारांश मुट्ठी में-
धुरी से चेतना की तीलियाँ फैली चर्तुर्टिक्,
प्राण-गतिमय पलों की आहट,
कि जैसे किसी नन्हें फूल की चुप- सान्ध्य-छाया
डूबने से पूर्व
हल्के चरण रखती पास ही से गुज़रती हो
या स्वयं अपनी नियति के जाल में उलझा हुआ पंछी,
विशद आकाश से दो दीन कातर दृष्टियों द्वारा जु़ड़ा-
ज्यों फड़फड़ाए,
और सहता निरर्थक आकाश उसकी तड़प से भर जाए!
किसी संबंध के डोरे
हमें अस्तित्व की हर वेदना से बांधते हैं,
तभी तो-
चाह की पुनरुक्तियाँ
या आह की अभिव्यक्तियाँ-ये फूल पंछी…
और तुम जो पास ही अदृश्य पर स्पृश्य-से लगते,
तुम्हारे लिए मेरे प्राण
बन कर गान
मुक्ताकाश में बिखरे चले जाते।
घबराहट
आसमान चट्टान-सा बोझिल,
जगह जगह रोशनी के बिल,
और एक धड़कता हुआ छोटा-सा दिल…
फ़र्श पर खून के ताज़े निशान।
खिड़की पर मुँह रखकर झाँक रहा बियाबान।
आँखों पर पड़ी हुई अँधेरे की सिल्लियाँ।
बाहर बरामदे में लड़ती हुई बिल्लियाँ।
पूर्व ते हवा का एक तेज़ झोंका।
सहमा हुआ आसपास चौंका।
हवा घर से होकर कुछ इस तरह निकली
गोया कि पूरे मकान ने एक गहरी साँस ली।
सांपों की तरह काले बादल छाने लगे,
तारों को बीन कर खाने लगे।
बिजली की एक चमक
फिर एक धमक
इतनी भयानक
जैसे मीलों तक
बादल नहीं शीशे का एक समुद्र लटका हो
जो किसी पहाड़ से टकरा कर अभी अभी चिटका हो।
बेतहाशा चारों ओर
पानी गिरने का शोर।
एकाएक मुझे कुछ ऐसा एहसास हुआ
जैसे किसी ने आहिस्ता से सांकल को छुआ :
और एक अपरिचित आवाज़ ने पुकारा…
मैं चुप रहा।
दुबारा।
तिबारा।
एक अज्ञात भय यह कहता रहा कि दरवाज़ा न खोलूँ :
इसी में ख़ैरियत है कि चुप पड़ा रहूं-न बोलूँ।
क्या पता आदमी ऊपर से ठीक-ठाक हो
लेकिन अन्दर से भेड़िये-सा खतरनाक हो!
मैं दम साधे पड़ा रहा :
आगन्तुक पानी में खड़ा रहा।
मैं चाहता था वह हार कर चला जाए :
दरवाज़े से किसी तरह आई हुई बला जाए!
अब बिल्कुल शान्ति थी।
लेकिन, मन में एक अजीब क्रान्ति थी!
आदमी के वेश में जानवर
इससे ज्यादा घातक-यह डर!!
सारी परिस्थिति की एक और भी सूरत थी-
शायद उस आदमी को मदद की ज़रूरत थी।
एक स्थापना
आज नहीं,
अपने वर्षों बाद शायद पा सकूँ
वह विशेष संवेदना जिसमें उचित हूँ।
मुझे सोचता हुआ कोई इनसान,
मुझे प्यार करती हुई कोई स्त्री,
जब मुझे समझेंगे-ताना नहीं देंगे;
जब मैं उन्हें नहीं-वे मुझे पाएँगे,
तब मुझे जीवन मिलेगा…
तब तक अपरिचित हूँ।
जब मैं नहीं
यह सब जो लिख रहा हुं-
होगा-साक्षी-
कि मैंने जीने का प्रयत्न किया,
अजीब लोगों के बीच
जो मुझे अजीब समझते रहे,
लांछित और अपमानित लोग
जो मुझे ग़रीब समझते रहे
मैंने अनष्ट रखा-
अपने को पाया, सिद्ध किया और दे गया।
जब मैं नहीं
मेरी ओर से कोई स्थापित करेगा मेरे वर्षों बाद
कि आज भी कहीं जीवन था-
क्योंकि केवल पहियों और पंखों वाली इस बे-सिर-पैर की सभ्यता में
दफ़्तरों, दुकानों और कारखानों से अस्वीकृत होकर भी
मैंने जीना पसन्द किया!