हिन्दी कविता हंसराज रहबर

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    1. क्या चली क्या चली ये हवा क्या चली

    क्या चली क्या चली ये हवा क्या चली
    खौफ़ से कांप उठी बाग में हर कली

    लोग-बाग आज हैं इस कदर बदहवास
    ढूंढते हैं अपना घर इस गली उस गली

    ढेर की ढेर फुटपाथ पर रेंगती
    जिन्दगी दोस्तो ! लाश है अधजली

    जुस्तजू जिस की थी ग़ैर वो ले गये
    तुम उठा लाये हो सांप की केंचली

    अर्श से फ़र्श तक यकबयक कौंधती
    आग-सी इक सदा “दिल जली दिल जली”

    कुछ अजब-सी बला जान पर आ बनी
    शहर में गांव में मच गई खलबली

    ये किस रहनुमा का करिश्मा है ‘रहबर’
    देश भर का चलन बन गई धांधली

    ११-९-१९८९, दिल्ली

    2. जी है जुगनू-सी ज़िंदगी हमने

    जी है जुगनू-सी ज़िंदगी हमने
    दी अँधेरों को रोशनी हमने ।

    लब सिले थे ख़मोश थी महफ़िल
    अनकही बात तब कही हमने ।

    सच के बदले मिली जो बदनामी
    वो भी झेली ख़ुशी-ख़ुशी हमने ।

    ज़ख़्म पर जो नमक छिड़कते थे
    उनसे कर ली थी दोस्ती हमने ।

    जिसमें नफ़रत भरी जहालत थी
    ख़ूब देखी है वह हँसी हमने ।

    शक्ल-सूरत से आदमी थे वो
    जिनको समझा था आदमी हमने ।

    हर ज़बाँ पर है वाह वा ‘रहबर’
    आँख देखी ग़ज़ल कही हमने ।

    (15-07-1989, दिल्ली)

    3. उनकी फितरत है कि वे धोखा करें

    उनकी फितरत है कि वे धोखा करें
    हम पे लाज़िम है कि हम सोचा करें।

    बज़्म का माहौल कुछ ऐसा है आज
    हर कोई यह पूछता है ‘‘क्या करें?’’

    फिर जवां हो जाएं दिल की हसरतें
    कुछ न कुछ ऐ हमनशीं ऐसा करें।

    वो जो फ़रमाते हैं सच होगा मगर
    हम भी अपनी सोच को ताज़ा करें।

    जो हुआ मालूम सब मालूम है,
    दोस्तों से किस तरह शिकवा करें।

    घोंसले में कट रही है जिंदगी
    कौन-सी परवाज़ का दावा करें।

    शहर में सब नेक हैं, ‘रहबर’ बुरा
    वे भला उसकी बुराई क्या करें।

    (09-05-1988, दिल्ली)

    4. कांटों से घबराने वाले पग दो पग ही साथ चले

    कांटों से घबराने वाले पग दो पग ही साथ चले
    पिंजड़ों में है बन्द वे पंछी धूप से जिनके पंख जले

    अपने देस के लोग हैं अपने जैसे भी हैं बुरे भले,
    उन सांचों का रंग रूप हैं, जिन सांचों में ढले पले

    मन का मन से मेल यही है प्रीत इसी को कहते हैं
    राधा ने जब कृष्ण को देखा आंखों में सौ दीप जले

    ॠषी मुनी तो बनवासी थे हम तुम नगर निवासी हैं
    लेकिन अपना जीवन ये है घास उगी है पांव तले

    बात बना लें लाख मगर ये उनके बस का रोग नहीं,
    दलदल से वे क्या उभरेंगे डूब गये जो गले गले

    और तो सब है इस बस्ती में एक फ़क़त विश्वास नहीं
    छाछ फूंकते लोग यहां के दूध से उनके होंठ जले

    कदम कदम पर मौत का खटका ग़ज़ल तुम्हारी कौन सुने
    जुगत बता कोई ऐसी ‘रहबर’ जिससे आई बला टले

    ११-७-१९८५, दिल्ली

    5. तअज्जुब है कि मकड़ी की तरह उलझा बशर होकर

    तअज्जुब है कि मकड़ी की तरह उलझा बशर होकर
    खुदा को ढूंढता फिरता है खुद से बेखबर होकर

    अनलहक कह दिया जिसने खुदी से बाखबर होकर
    सज़ा मंसूर की मंज़ूर करता है निडर होकर

    अंधेरों में उजालों की हमें है जुस्तजू पैहम
    गुज़ारी रात आंखों में सहर के मुंतज़र होकर

    यहां सब धान इक भाओ चलन इक चापलूसी का
    हिदायत है नज़र वालो रहो तुम बेनज़र होकर

    वह इंसां भी क्या इंसां वज़न क्या बात में उसकी
    गुज़ारी ज़िन्दगी जिसने ग़ुबारे-रह-गुज़र होकर

    न जाओ इनकी बातों पे बड़े पुरकार हैं ये लोग
    उगाते हाथ पे सरसों हवा के हमसफ़र होकर

    छिपाकर सात परदों में जिसे तुम राज़ कहते हो
    वो किस्सा अब ज़माने की ज़बां पर है खबर होकर

    सुनो यारो हमारी बेगुनाही हो गई साबित
    रहे बदनाम होकर जा रहे हैं नामवर होकर

    ग़ज़ल तेरी तेरा मूंहबोलता किरदार है ‘रहबर’
    उतर जाता है हर इक शेर दिल में नेश्तर होकर

    १-७-१९८५, दिल्ली
    (अनलहक=मैं ख़ुदा हूँ, अहंब्रह्मस्मि, जुस्तजू=इच्छा,
    पैहम-हमेशा, सहर=सुबह)

    6. तलाश करते हैं उसको जो हमनवा-सा था

    तलाश करते हैं उसको जो हमनवा-सा था
    हमें है याद वह चेहरा भला-भला-सा था

    नज़र ढली है हमारी कुछ ऐसे सांचे में
    कि रहज़न को भी देखा तो रहनुमा-सा था

    तुम्हारे शहर में जिस हुक्मरां का चर्चा था
    वो हुक्मरां भी सुना है कि बेहया-सा था

    तो कौन आग थी जिसने ये कहर ढाया है
    तमाम शहर में हर शख्स दिलजला-सा था

    खता मुआफ़ कि हमको भी ये बात कहनी है
    सुना जो आज तलक महज़ इक दिलासा था

    पहाड़ हो कि नदी फांदते चले जाओ
    यही तो जी में हमारे भी वलवला-सा था

    तुम्हारी बात में ‘रहबर’ असर न क्यों होता
    हर इक लफ़्ज तुम्हारा खरा-खरा सा था
    ९-१०-१९८३, दिल्ली
    (हमनवा=दोस्त, रहज़न=लुटेरा, बेहया=निरलज्ज)

    7. ताज़ा खबर सुनाई किसी ने

    ताज़ा खबर सुनाई किसी ने
    पर्वत पार किया चींटी ने

    छीन लिया है दिन का उजाला
    आधी रात की आज़ादी ने

    घटना जाने कौन घटी है,
    आह भरी बस्ती-बस्ती ने

    ये तो क्या है ? इससे बड़े भी
    भार सहे हैं इस धरती ने

    सच्ची बात जो कहने निकले
    हमसे न मिलाई आंख किसी ने

    हम उनको कैसे समझाएं,
    घूंट लहू के लगे जो पीने

    ज़ख़्म छिपे हैं कितने कितने
    तेरे सीने मेरे सीने

    कहना था जो कह ही दिया है,
    तेरे जी ने मेरे जी ने

    माया मोह में फंस न जाना
    बात कही थी एक ॠषी ने

    रुके नहीं ये कदम कहीं भी
    बढ़ते आए ज़ीने ज़ीने

    लोग-बाग जब हंसने लगते,
    आ जाते हैं तुम्हें पसीने

    तूफ़ानों से डरने वाले
    साहिल पे डुबो वे आए सफ़ीने

    हंसता है दिन भर दीवाना
    पागल शायद किया खुशी ने

    ‘रहबर’ को बस इतना जानें
    उनकी ग़ज़ल सुनाई किसी ने

    १८-१२-१९८२, दिल्ली

    8. किस कदर गर्म है हवा देखो

    किस कदर गर्म है हवा देखो
    जिस्म मौसम का तप रहा देखो

    बदगुमानी-सी बदगुमानी है
    पास होकर भी फ़ासला देखो

    वे जो उजले लिबास वाले है
    उनकी आँखों में अज़दहा देखो

    हो अंधेरा सफ़र, सफ़र ठहरा
    ले के चलते है हम दिया देखो

    खेलता है जो मौत से होली
    क्या करेगा वो मनचला देखो

    अम्न ही अम्न सुन लिया, लेकिन
    मक़तलों का भी सिलसिला देखो

    इस ज़माने में भी जी लिया ‘रहबर’
    मर्दे-मोमिन का हौसला देखो

    (01-05-1980, दिल्ली)
    (अज़दहा=बड़ा सांप, मर्दे-मोमिन=साहसी पुरुष)

    9. उसका भरोसा क्या यारो वो शब्दों का व्यापारी है

    उसका भरोसा क्या यारो वो शब्दों का व्यापारी है।
    क्यों मुंह का मीठा वो न हो जब पेशा ही बटमारी है।

    रूप कोई भी भर लेता है पांचों घी में रखने को,
    तू इसको होशियारी कहता लोग कहें अय्यारी है।

    जनता को जो भीड़ बताते मंझधार में डूबेंगे,
    कागज़ की है नैया उनकी शोहरत भी अखबारी है।

    सुनकर चुप हो जाने वाले बात की तह तक पहुंचे हैं,
    कौवे को कौवा नहीं कहते यह उनकी लाचारी है।

    पेड़ के पत्ते गिनने वालो तुम ‘रहबर’ को क्या जानो,
    कपड़ा-लत्ता जैसा भी हो बात तो उसकी भारी है।

    (11 अप्रैल 1976, सेण्ट्रल जेल, तिहाड़, दिल्ली)

    10. पत्ते झड़ते हर कोई देखे लेकिन चर्चा कौन करे

    पत्ते झड़ते हर कोई देखे लेकिन चर्चा कौन करे
    रुत बदली तो कितनी बदली ये अंदाज़ा कौन करे

    मन में जिसके खोट भरा है झूठ-कपट से नाता है
    उनसे हमको न्याय मिलेगा ऐसी आशा कौन करे

    सीधी अँगुली घी निकलेगा,आज तलक देखा न सुना
    झूठे दावे करनेवालो, तुमसे झगड़ा कौन करे

    बोल रहे इतिहास के पन्ने सीधी-सच्ची एक ही बात
    धरती डाँवा-डोल हो जब कानून कि परवा कौन करे

    ये चेहरे हैं इंसानों के कुछ तो अर्थ है ख़ामोशी का
    सुनने वाले बहरे हैं बेकार का शिकवा कौन करे

    अब हम भी हथियार उठाएँ भोलेपन में ख़ैर नहीं
    राजमहल में डाकू बैठे उनसे रक्षा कौन करे

    ‘रहबर’ वह समय आ पहुँचा जब मरने वाले जीते हैं
    ऐसे में क्या मौत से डरना, जीवन आशा कौन करे

    11. बढ़ाता है तमन्ना आदमी आहिस्ता आहिस्ता

    बढ़ाता है तमन्ना आदमी आहिस्ता आहिस्ता ।
    गुज़र जाती है सारी ज़िंदगी आहिस्ता आहिस्ता ।

    अज़ल से सिलसिला ऐसा है ग़ुंचे फूल बनते हैं,
    चटकती है चमन की हर कली आहिस्ता आहिस्ता ।

    बहार-ए-ज़िंदगानी पर ख़ज़ाँ चुपचाप आती है,
    हमें महसूस होती है कमी आहिस्ता आहिस्ता ।

    सफ़र में बिजलियाँ हैं, आंधियाँ हैं और तूफ़ाँ हैं,
    गुज़र जाता है उनसे आदमी आहिस्ता आहिस्ता ।

    हो कितनी शिद्दते-ए-ग़म वक़्त आख़िर पोंछ देता है,
    हमारे दीदा-ए-तर की नमी आहिस्ता आहिस्ता ।

    परेशाँ किसलिए होता है ऐ दिल बात रख अपनी
    गुज़र जाती है अच्छी या बुरी आहिस्ता आहिस्ता ।

    तबीयत में न जाने खाम ऐसी कौन सी शै है,
    कि होती है मयस्सर पुख़्तगी आहिस्ता आहिस्ता ।

    इरादों में बुलंदी हो तो नाकामी का ग़म अच्छा,
    कि पड़ जाती है फीकी हर ख़ुशी आहिस्ता आहिस्ता ।

    छुपाएगी हक़ीक़त को नमूद-ए-जाहिरी कब तक,
    उभरती है शफ़क से रोशनी आहिस्ता आहिस्ता ।

    ये दुनिया ढूँढ़ लेती है निगाहें तेज़ हैं इसकी
    तू कर पैदा हुनर में आज़री आहिस्ता आहिस्ता ।

    तख़य्युल में बुलन्दी और ज़बाँ में सादगी ‘रहबर’
    निखर आई है तेरी शायरी आहिस्ता आहिस्ता ।

    (16 नवम्बर 1941, सेंट्रल जेल, संगरूर)
    (दीदा-ए-तर=नम आंखें, नमूद-ए-जाहिरी=ऊपरी दिखावा,
    शफ़क=ऊषा की लालिमा, आज़री=थयानी कला में पारंगत
    आजर का प्रसिद्ध मुर्तिकार, तख़य्युल=कल्पना)

    12. चाँदनी रात है जवानी भी

    चाँदनी रात है जवानी भी,
    कैफ़ परवर भी और सुहानी भी ।

    हल्का-हल्का सरूर रहता है,
    ऐश है ऐश ज़िन्दगानी भी ।

    दिल किसी का हुआ, कोई दिल का,
    मुख़्तसर-सी है यह कहानी भी ।

    दिल में उलफ़त, निगाह में शिकवे
    लुत्फ़ देती है बदगुमानी भी ।

    बारहा बैठकर सुना चुपचाप,
    एक नग़मा है बेज़बानी भी ।

    बुत-परस्ती की जो नहीं कायल
    क्या जवानी है वो जवानी भी ।

    इश्क़ बदनाम क्यों हुआ ‘रहबर
    कोई सुनता नहीं कहानी भी ।

    (15 नवम्बर 1941, सेंट्रल जेल, संगरूर)

    13. ज़ख्म हंस हंस के उठाने वाले

    ज़ख्म हंस हंस के उठाने वाले
    फन है जीने का सिखाने वाले
    आज जब हिचकी अचानक आई
    आ गये याद भुलाने वाले

    बात को तूल दिए जाते हैं
    झूठ का जाल बिछाने वाले
    रहनुमा जितने मिले जो भी मिले
    हाथ पर सरसों उगाने वाले

    लो चले नींद की गोली देकर
    वो जो आये थे जगाने वाले
    वे जो मासूम नज़र आते हैं
    आग भुस में हैं लगाने वाले

    सांच को आंच नहीं है ‘रहबर’
    मिट गये हमको मिटाने वाले ।