साये में धूप दुष्यंत कुमार

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    Saaye Mein Dhoop Dushyant Kumar

    अनुक्रम

    साये में धूप दुष्यंत कुमार

    1. कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए

    कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
    कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

    यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
    चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

    न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
    ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

    ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
    कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए

    वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
    मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए

    तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
    ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए

    जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
    मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए

    2. कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं

    कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
    गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं

    अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
    ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं

    वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको
    क़ायदे-क़ानून समझाने लगे हैं

    एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है
    जिसमें तहख़ानों में तहख़ाने लगे हैं

    मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने
    उस तरफ़ जाने से क़तराने लगे हैं

    मौलवी से डाँट खा कर अहले-मक़तब
    फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं

    अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम
    आदमी को भूल कर खाने लगे हैं

    3. ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा

    ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
    मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा

    यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
    मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा

    ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
    वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा

    तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है
    कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा

    कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उसके बारे में
    वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं,ऐसा हुआ होगा

    यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं
    ख़ुदा जाने वहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा

    चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें
    कम-अज-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा

    4. इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है

    इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
    नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है

    एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो
    इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है

    एक खँडहर के हृदय-सी,एक जंगली फूल-सी
    आदमी की पीर गूँगी ही सही, गाती तो है

    एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी
    यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है

    निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी
    पत्थरों से ओट में जा-जा के बतियाती तो है

    दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
    और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है

    5. देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली

    देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली
    ये ख़तरनाक सचाई नहीं जाने वाली

    कितना अच्छा है कि साँसों की हवा लगती है
    आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली

    एक तालाब-सी भर जाती है हर बारिश में
    मैं समझता हूँ ये खाई नहीं जाने वाली

    चीख़ निकली तो है होंठों से मगर मद्धम है
    बंद कमरों को सुनाई नहीं जाने वाली

    तू परेशान है, तू परेशान न हो
    इन ख़ुदाओं की ख़ुदाई नहीं जाने वाली

    आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा
    चन्द ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली

    6. खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही

    खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही
    अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही

    कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप
    जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही

    हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया
    हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही

    मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा
    या यूँ कहो कि बर्क़ की दहशत नहीं रही

    हमको पता नहीं था हमें अब पता चला
    इस मुल्क में हमारी हक़ूमत नहीं रही

    कुछ दोस्तों से वैसे मरासिम नहीं रहे
    कुछ दुश्मनों से वैसी अदावत नहीं रही

    हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग
    रो-रो के बात कहने की आदत नहीं रही

    सीने में ज़िन्दगी के अलामात हैं अभी
    गो ज़िन्दगी की कोई ज़रूरत नहीं रही

    7. परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं

    परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं
    हवा में सनसनी घोले हुए हैं

    तुम्हीं कमज़ोर पड़ते जा रहे हो
    तुम्हारे ख़्वाब तो शोले हुए हैं

    ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो
    क़ुरान-ओ-उपनिषद् खोले हुए हैं

    मज़ारों से दुआएँ माँगते हो
    अक़ीदे किस क़दर पोले हुए हैं

    हमारे हाथ तो काटे गए थे
    हमारे पाँव भी छोले हुए हैं

    कभी किश्ती, कभी बतख़, कभी जल
    सियासत के कई चोले हुए हैं

    हमारा क़द सिमट कर मिट गया है
    हमारे पैरहन झोले हुए हैं

    चढ़ाता फिर रहा हूँ जो चढ़ावे
    तुम्हारे नाम पर बोले हुए हैं

    8. अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ

    अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ
    तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ

    ये दरवाज़ा खोलें तो खुलता नहीं है
    इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ

    अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी
    उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ

    वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं
    जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ

    मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब
    तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ

    समालोचकों की दुआ है कि मैं फिर
    सही शाम से आचमन कर रहा हूँ

    9. भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ

    भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
    आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ ।

    मौत ने तो धर दबोचा एक चीते कि तरह
    ज़िंदगी ने जब छुआ तो फ़ासला रखकर छुआ ।

    गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही
    पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ ।

    क्या वज़ह है प्यास ज्यादा तेज़ लगती है यहाँ
    लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुँआ ।

    आप दस्ताने पहनकर छू रहे हैं आग को
    आप के भी ख़ून का रंग हो गया है साँवला ।

    इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
    जब तलक खिलते नहीं ये कोयले देंगे धुँआ ।

    दोस्त, अपने मुल्क कि किस्मत पे रंजीदा न हो
    उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ ।

    इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात
    अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ ।

    10. फिर धीरे-धीरे यहां का मौसम बदलने लगा है

    फिर धीरे-धीरे यहां का मौसम बदलने लगा है,
    वातावरण सो रहा था अब आंख मलने लगा है

    पिछले सफ़र की न पूछो , टूटा हुआ एक रथ है,
    जो रुक गया था कहीं पर , फिर साथ चलने लगा है

    हमको पता भी नहीं था , वो आग ठण्डी पड़ी थी,
    जिस आग पर आज पानी सहसा उबलने लगा है

    जो आदमी मर चुके थे , मौजूद है इस सभा में,
    हर एक सच कल्पना से आगे निकलने लगा है

    ये घोषणा हो चुकी है , मेला लगेगा यहां पर,
    हर आदमी घर पहुंचकर , कपड़े बदलने लगा है

    बातें बहुत हो रही है , मेरे-तुमहारे विषय में,
    जो रासते में खड़ा था परवत पिघलने लगा है

    11. कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए

    कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
    कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए ।

    जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
    बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए ।

    खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
    सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए ।

    दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
    तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए ।

    लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
    शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए ।

    ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
    यहाँ बबूल के साए में आके बैठ गए ।

    12. घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है

    घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है
    एक नदी जैसे दहानों तक पहुंचती है

    अब इसे क्या नाम दें , ये बेल देखो तो
    कल उगी थी आज शानों तक पहुंचती है

    खिड़कियां, नाचीज़ गलियों से मुख़ातिब है
    अब लपट शायद मकानों तक पहुंचती है

    आशियाने को सजाओ तो समझ लेना,
    बरक कैसे आशियानों तक पहुंचती है

    तुम हमेशा बदहवासी में गुज़रते हो,
    बात अपनों से बिगानों तक पहुंचती है

    सिर्फ़ आंखें ही बची हैं चँद चेहरों में
    बेज़ुबां सूरत , जुबानों तक पहुंचती है

    अब मुअज़न की सदाएं कौन सुनता है
    चीख़-चिल्लाहट अज़ानों तक पहुंचती है

    13. नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं

    नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं
    जरा-सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं

    वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है
    मेरे बयान को बंदिश निगल न जाए कहीं

    यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन
    ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं

    चले हवा तो किवाड़ों को बंद कर लेना
    ये गरम राख़ शरारों में ढल न जाए कहीं

    तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है
    तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं

    कभी मचान पे चढ़ने की आरज़ू उभरी
    कभी ये डर कि ये सीढ़ी फिसल न जाए कहीं

    ये लोग होमो-हवन में यकीन रखते है
    चलो यहां से चलें, हाथ जल न जाए कहीं

    14. तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया

    तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया
    पांवों की सब जमीन को फूलों से ढंक लिया

    किससे कहें कि छत की मुंडेरों से गिर पड़े
    हमने ही ख़ुद पतंग उड़ाई थी शौकिया

    अब सब से पूछता हूं बताओ तो कौन था
    वो बदनसीब शख़्स जो मेरी जगह जिया

    मुँह को हथेलियों में छिपाने की बात है
    हमने किसी अंगार को होंठों से छू लिया

    घर से चले तो राह में आकर ठिठक गये
    पूरी हूई रदीफ़ अधूरा है काफ़िया

    मैं भी तो अपनी बात लिखूं अपने हाथ से
    मेरे सफ़े पे छोड़ दो थोड़ा सा हाशिया

    इस दिल की बात कर तो सभी दर्द मत उंडेल
    अब लोग टोकते है ग़ज़ल है कि मरसिया

    15. मत कहो, आकाश में कुहरा घना है

    मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
    यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।

    सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
    क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।

    इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
    हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।

    पक्ष औ’ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
    बात इतनी है कि कोई पुल बना है

    रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
    आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।

    हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
    शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।

    दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
    आजकल नेपथ्य में संभावना है ।

    16. चांदनी छत पे चल रही होगी

    चांदनी छत पे चल रही होगी
    अब अकेली टहल रही होगी

    फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा
    बर्फ़-सी वो पिघल रही होगी

    कल का सपना बहुत सुहाना था
    ये उदासी न कल रही होगी

    सोचता हूँ कि बंद कमरे में
    एक शमअ-सी जल रही होगी

    तेरे गहनों सी खनखनाती थी
    बाजरे की फ़सल रही होगी

    जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया
    उन में मेरी ग़ज़ल रही होगी

    17. ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो

    ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो
    कि जैसे जल में झलकता हुआ महल, लोगो

    दरख़्त हैं तो परिन्दे नज़र नहीं आते
    जो मुस्तहक़ हैं वही हक़ से बेदख़ल, लोगो

    वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है
    थमी हुई है वहीं उम्र आजकल, लोगो

    किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में
    तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नकल, लोगो

    तमाम रात रहा महव-ए-ख़्वाब दीवाना
    किसी की नींद में पड़ता रहा ख़लल, लोगो

    ज़रूर वो भी किसी रास्ते से गुज़रे हैं
    हर आदमी मुझे लगता है हम शकल, लोगो

    दिखे जो पाँव के ताज़ा निशान सहरा में
    तो याद आए हैं तालाब के कँवल, लोगो

    वे कह रहे हैं ग़ज़लगो नहीं रहे शायर
    मैं सुन रहा हूँ हर इक सिम्त से ग़ज़ल, लोगो

    18. हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

    हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
    इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

    आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
    शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

    हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
    हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

    सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
    मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

    मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
    हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

    19. आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख

    आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
    घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख

    एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
    आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख

    अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह
    यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख

    वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे
    कट चुके जो हाथ ,उन हाथों में तलवारें न देख

    दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़
    रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख

    ये धुँधलका है नज़र का,तू महज़ मायूस है
    रोज़नों को देख,दीवारों में दीवारें न देख

    राख, कितनी राख है चारों तरफ़ बिखरी हुई
    राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख

    20. मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए

    मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए
    ऐसा भी क्या परहेज़, ज़रा-सी तो लीजिए

    अब रिन्द बच रहे हैं ज़रा तेज़ रक़्स हो
    महफ़िल से उठ लिए हैं नमाज़ी तो लीजिए

    पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह
    पेड़ों से पहले आप उदासी तो लीजिए

    ख़ामोश रह के तुमने हमारे सवाल पर
    कर दी है शहर भर में मुनादी तो लीजिए

    ये रौशनी का दर्द, ये सिरहन ,ये आरज़ू,
    ये चीज़ ज़िन्दगी में नहीं थी तो लीजिए

    फिरता है कैसे-कैसे सवालों के साथ वो
    उस आदमी की जामातलाशी तो लीजिए

    21. पुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भी

    पुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भी
    ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी

    लपट आने लगी है अब हवाओं में
    ओसारे और छप्पर फेंक दो तुम भी

    यहाँ मासूम सपने जी नहीं पाते
    इन्हें कुंकुम लगा कर फेंक दो तुम भी

    तुम्हें भी इस बहाने याद कर लेंगे
    इधर दो—चार पत्थर फेंक दो तुम भी

    ये मूरत बोल सकती है अगर चाहो
    अगर कुछ बोल कुछ स्वर फेंक दो तुम भी

    किसी संवेदना के काम आएँगे
    यहाँ टूटे हुए पर फेंक दो तुम भी

    22. इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और

    इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और
    या इसमें रौशनी का करो इन्तज़ाम और

    आँधी में सिर्फ़ हम ही उखड़ कर नहीं गिरे
    हमसे जुड़ा हुआ था कोई एक नाम और

    मरघट में भीड़ है या मज़ारों में भीड़ है
    अब गुल खिला रहा है तुम्हारा निज़ाम और

    घुटनों पे रख के हाथ खड़े थे नमाज़ में
    आ-जा रहे थे लोग ज़ेह्न में तमाम और

    हमने भी पहली बार चखी तो बुरी लगी
    कड़वी तुम्हें लगेगी मगर एक जाम और

    हैराँ थे अपने अक्स पे घर के तमाम लोग
    शीशा चटख़ गया तो हुआ एक काम और

    उनका कहीं जहाँ में ठिकाना नहीं रहा
    हमको तो मिल गया है अदब में मुकाम और

    23. मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे

    मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे
    मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएँगे

    हौले-हौले पाँव हिलाओ,जल सोया है छेड़ो मत
    हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आएँगे

    थोड़ी आँच बची रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो
    कल देखोगी कई मुसाफ़िर इसी बहाने आएँगे

    उनको क्या मालूम विरूपित इस सिकता पर क्या बीती
    वे आये तो यहाँ शंख-सीपियाँ उठाने आएँगे

    रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
    आगे और बढ़ें तो शायद दृश्य सुहाने आएँगे

    मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
    हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे

    हम क्या बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गए
    इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएँगे

    24. आज वीरान अपना घर देखा

    आज वीरान अपना घर देखा
    तो कई बार झाँक कर देखा

    पाँव टूटे हुए नज़र आये
    एक ठहरा हुआ सफ़र देखा

    होश में आ गए कई सपने
    आज हमने वो खँडहर देखा

    रास्ता काट कर गई बिल्ली
    प्यार से रास्ता अगर देखा

    नालियों में हयात देखी है
    गालियों में बड़ा असर देखा

    उस परिंदे को चोट आई तो
    आपने एक-एक पर देखा

    हम खड़े थे कि ये ज़मीं होगी
    चल पड़ी तो इधर-उधर देखा

    25. वो निगाहें सलीब हैं

    वो निगाहें सलीब हैं
    हम बहुत बदनसीब हैं

    आइये आँख मूँद लें
    ये नज़ारे अजीब हैं

    ज़िन्दगी एक खेत है
    और साँसे जरीब हैं

    सिलसिले ख़त्म हो गए
    यार अब भी रक़ीब है

    हम कहीं के नहीं रहे
    घाट औ’ घर क़रीब हैं

    आपने लौ छुई नहीं
    आप कैसे अदीब हैं

    उफ़ नहीं की उजड़ गए
    लोग सचमुच ग़रीब हैं

    26. बाएँ से उड़के दाईं दिशा को गरुड़ गया

    बाएँ से उड़के दाईं दिशा को गरुड़ गया
    कैसा शगुन हुआ है कि बरगद उखड़ गया

    इन खँडहरों में होंगी तेरी सिसकियाँ ज़रूर
    इन खँडहरों की ओर सफ़र आप मुड़ गया

    बच्चे छलाँग मार के आगे निकल गये
    रेले में फँस के बाप बिचारा बिछुड़ गया

    दुख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें
    सुख तो किसी कपूर की टिकिया-सा उड़ गया

    लेकर उमंग संग चले थे हँसी-खुशी
    पहुँचे नदी के घाट तो मेला उजड़ गया

    जिन आँसुओं का सीधा तअल्लुक़ था पेट से
    उन आँसुओं के साथ तेरा नाम जुड़ गया

    27. अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला

    अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला
    मैंने भी सुना है अब जाएगा तेरा डोला

    इन राहों के पत्थर भी मानूस थे पाँवों से
    पर मैंने पुकारा तो कोई भी नहीं बोला

    लगता है ख़ुदाई में कुछ तेरा दख़ल भी है
    इस बार फ़िज़ाओं ने वो रंग नहीं घोला

    आख़िर तो अँधेरे की जागीर नहीं हूँ मैं
    इस राख में पिन्हा है अब भी वही शोला

    सोचा कि तू सोचेगी ,तूने किसी शायर की
    दस्तक तो सुनी थी पर दरवाज़ा नहीं खोला

    28. अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए

    अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए
    तेरी सहर हो मेरा आफ़ताब हो जाए

    हुज़ूर! आरिज़ो-ओ-रुख़सार क्या तमाम बदन
    मेरी सुनो तो मुजस्सिम गुलाब हो जाए

    उठा के फेंक दो खिड़की से साग़र-ओ-मीना
    ये तिशनगी जो तुम्हें दस्तयाब हो जाए

    वो बात कितनी भली है जो आप करते हैं
    सुनो तो सीने की धड़कन रबाब हो जाए

    बहुत क़रीब न आओ यक़ीं नहीं होगा
    ये आरज़ू भी अगर कामयाब हो जाए

    ग़लत कहूँ तो मेरी आक़बत बिगड़ती है
    जो सच कहूँ तो ख़ुदी बेनक़ाब हो जाए

    29. ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है

    ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है
    एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है

    राम जाने किस जगह होंगे क़बूतर
    इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है

    आपसे मिल कर हमें अक्सर लगा है
    हुस्न में अब जज़्बा-ए-अमज़द नहीं है

    पेड़-पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे
    रास्तों में एक भी बरगद नहीं है

    मैकदे का रास्ता अब भी खुला है
    सिर्फ़ आमद-रफ़्त ही ज़ायद नहीं

    इस चमन को देख कर किसने कहा था
    एक पंछी भी यहाँ शायद नहीं है

    30. ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए

    ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए
    पर पाँवों किसी तरह से राहों पे तो आए

    हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था
    कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए

    जैसे किसी बच्चे को खिलोने न मिले हों
    फिरता हूँ कई यादों को सीने से लगाए

    चट्टानों से पाँवों को बचा कर नहीं चलते
    सहमे हुए पाँवों से लिपट जाते हैं साए

    यों पहले भी अपना-सा यहाँ कुछ तो नहीं था
    अब और नज़ारे हमें लगते हैं पराए

    31. बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं

    बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं,
    और नदियों के किनारे घर बने हैं ।

    चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर,
    इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं ।

    इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं,
    जिस तरह टूटे हुए ये आइने हैं ।

    आपके क़ालीन देखेंगे किसी दिन,
    इस समय तो पाँव कीचड़ में सने हैं ।

    जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में,
    हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं ।

    अब तड़पती-सी ग़ज़ल कोई सुनाए,
    हमसफ़र ऊँघे हुए हैं, अनमने हैं ।

    32. जाने किस-किसका ख़्याल आया है

    जाने किस-किसका ख़्याल आया है
    इस समंदर में उबाल आया है

    एक बच्चा था हवा का झोंका
    साफ़ पानी को खंगाल आया है

    एक ढेला तो वहीं अटका था
    एक तू और उछाल आया है

    कल तो निकला था बहुत सज-धज के
    आज लौटा तो निढाल आया है

    ये नज़र है कि कोई मौसम है
    ये सबा है कि वबाल आया है

    इस अँधेरे में दिया रखना था
    तू उजाले में बाल आया है

    हमने सोचा था जवाब आएगा
    एक बेहूदा सवाल आया है

    33. ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती

    ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती
    ज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती

    इन सफ़ीलों में वो दरारे हैं
    जिनमें बस कर नमी नहीं जाती

    देखिए उस तरफ़ उजाला है
    जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती

    शाम कुछ पेड़ गिर गए वरना
    बाम तक चाँदनी नहीं जाती

    एक आदत-सी बन गई है तू
    और आदत कभी नहीं जाती

    मयकशो मय ज़रूर है लेकिन
    इतनी कड़वी कि पी नहीं जाती

    मुझको ईसा बना दिया तुमने
    अब शिकायत भी की नहीं जाती

    34. तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा

    तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा
    अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा

    ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब
    फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा-डरा

    पौधे झुलस गए हैं मगर एक बात है
    मेरी नज़र में अब भी चमन है हरा-भरा

    लम्बी सुरंग-से है तेरी ज़िन्दगी तो बोल
    मैं जिस जगह खड़ा हूँ वहाँ है कोई सिरा

    माथे पे हाथ रख के बहुत सोचते हो तुम
    गंगा क़सम बताओ हमें कया है माजरा

    35. रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है

    रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है
    यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है

    कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए
    वो घरौंदा ही सही, मिट्टी का भी घर होता है

    सिर से सीने में कभी पेट से पाओं में कभी
    इक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है

    ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे
    हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है

    सैर के वास्ते सड़कों पे निकल आते थे
    अब तो आकाश से पथराव का डर होता है

    36. हालाते जिस्म, सूरते-जाँ और भी ख़राब

    हालाते जिस्म, सूरते-जाँ और भी ख़राब
    चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब

    नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे
    होंठों पे आ रही है ज़ुबाँ और भी ख़राब

    पाबंद हो रही है रवायत से रौशनी
    चिमनी में घुट रहा है धुआँ और भी ख़राब

    मूरत सँवारने से बिगड़ती चली गई
    पहले से हो गया है जहाँ और भी ख़राब

    रौशन हुए चराग तो आँखें नहीं रहीं
    अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब

    आगे निकल गए हैं घिसटते हुए क़दम
    राहों में रह गए हैं निशाँ और भी ख़राब

    सोचा था उनके देश में मँहगी है ज़िंदगी
    पर ज़िंदगी का भाव वहाँ और भी ख़राब

    37. ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो

    ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
    अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो

    दर्दे-दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुँचाएगा
    इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो

    लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
    आज सैयाद को महफ़िल में बुला लो यारो

    आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे
    आज संदूक से वो ख़त तो निकालो यारो

    रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
    इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो

    कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
    एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

    लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
    तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो

    38. धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है

    धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है
    एक छाया सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती है

    यह दिया चौरास्ते का ओट में ले लो
    आज आँधी गाँव से हो कर गुज़रती है

    कुछ बहुत गहरी दरारें पड़ गईं मन में
    मीत अब यह मन नहीं है एक धरती है

    कौन शासन से कहेगा, कौन पूछेगा
    एक चिड़िया इन धमाकों से सिहरती है

    मैं तुम्हें छू कर ज़रा-सा छेड़ देता हूँ
    और गीली पाँखुरी से ओस झरती है

    तुम कहीं पर झील हो मैं एक नौका हूँ
    इस तरह की कल्पना मन में उभरती है

    39. पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं

    पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं
    कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं

    इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो
    धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं

    बूँद टपकी थी मगर वो बूँदो—बारिश और है
    ऐसी बारिश की कभी उनको ख़बर होगी नहीं

    आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है
    पत्थरों में चीख़ हर्गिज़ कारगर होगी नहीं

    आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर
    आपकी ताज़ीम में कोई कसर होगी नहीं

    सिर्फ़ शायर देखता है क़हक़हों की अस्लियत
    हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होगी नहीं

    40. एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली-पहली बार उड़ा

    एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली-पहली बार उड़ा
    मौसम एक गुलेल लिये था पट-से नीचे आन गिरा

    बंजर धरती, झुलसे पौधे, बिखरे काँटे तेज़ हवा
    हमने घर बैठे-बैठे ही सारा मंज़र देख किया

    चट्टानों पर खड़ा हुआ तो छाप रह गई पाँवों की
    सोचो कितना बोझ उठा कर मैं इन राहों से गुज़रा

    सहने को हो गया इकठ्ठा इतना सारा दुख मन में
    कहने को हो गया कि देखो अब मैं तुझ को भूल गया

    धीरे-धीरे भीग रही हैं सारी ईंटें पानी में
    इनको क्या मालूम कि आगे चल कर इनका क्या होगा

    41. ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ

    ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ
    मुझे किस क़दर नया है, मैं जो दर्द सह रहा हूँ

    ये ज़मीन तप रही थी ये मकान तप रहे थे
    तेरा इंतज़ार था जो मैं इसी जगह रहा हूँ

    मैं ठिठक गया था लेकिन तेरे साथ-साथ था मैं
    तू अगर नदी हुई तो मैं तेरी सतह रहा हूँ

    तेरे सर पे धूप आई तो दरख़्त बन गया मैं
    तेरी ज़िन्दगी में अक्सर मैं कोई वजह रहा हूँ

    कभी दिल में आरज़ू-सा, कभी मुँह में बद्दुआ-सा
    मुझे जिस तरह भी चाहा, मैं उसी तरह रहा हूँ

    मेरे दिल पे हाथ रक्खो, मेरी बेबसी को समझो
    मैं इधर से बन रहा हूँ, मैं इधर से ढह रहा हूँ

    यहाँ कौन देखता है, यहाँ कौन सोचता है
    कि ये बात क्या हुई है,जो मैं शे’र कह रहा हूँ

    42. तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए

    तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए
    छोटी-छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दीं

    हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत
    तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठा कर फेंक दीं

    जाने कैसी उँगलियाँ हैं, जाने क्या अँदाज़ हैं
    तुमने पत्तों को छुआ था जड़ हिला कर फेंक दी

    इस अहाते के अँधेरे में धुआँ-सा भर गया
    तुमने जलती लकड़ियाँ शायद बुझा कर फेंक दीं

    43. लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है

    लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है
    लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे, ये तो हद है

    आप दीवार गिराने के लिए आए थे
    आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है

    ख़ामुशी शोर से सुनते थे कि घबराती है
    ख़ामुशी शोर मचाने लगे, ये तो हद है

    आदमी होंठ चबाए तो समझ आता है
    आदमी छाल चबाने लगे, ये तो हद है

    जिस्म पहरावों में छुप जाते थे, पहरावों में-
    जिस्म नंगे नज़र आने लगे, ये तो हद है

    लोग तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के सलीक़े सीखे
    लोग रोते हुए गाने लगे, ये तो हद है

    44. ये शफ़क़ शाम हो रही है अब

    ये शफ़क़ शाम हो रही है अब
    और हर गाम हो रही है अब

    जिस तबाही से लोग बचते थे
    वो सरे आम हो रही है अब

    अज़मते-मुल्क इस सियासत के
    हाथ नीलाम हो रही है अब

    शब ग़नीमत थी, लोग कहते हैं
    सुब्ह बदनाम हो रही है अब

    जो किरन थी किसी दरीचे की
    मरक़ज़े बाम हो रही है अब

    तिश्ना-लब तेरी फुसफुसाहट भी
    एक पैग़ाम हो रही है अब

    45. एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है

    एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
    आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है

    ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए
    यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है

    एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो-
    इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है

    मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
    तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है

    इस क़दर पाबन्दी-ए-मज़हब कि सदक़े आपके
    जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है

    कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
    मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है

    मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ
    हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है

    46. बहुत सँभाल के रक्खी तो पाएमाल हुई

    बहुत सँभाल के रक्खी तो पाएमाल हुई
    सड़क पे फेंक दी तो ज़िंदगी निहाल हुई

    बड़ा लगाव है इस मोड़ को निगाहों से
    कि सबसे पहले यहीं रौशनी हलाल हुई

    कोई निजात की सूरत नहीं रही, न सही
    मगर निजात की कोशिश तो एक मिसाल हुई

    मेरे ज़ेह्न पे ज़माने का वो दबाब पड़ा
    जो एक स्लेट थी वो ज़िंदगी सवाल हुई

    समुद्र और उठा, और उठा, और उठा
    किसी के वास्ते ये चाँदनी वबाल हुई

    उन्हें पता भी नहीं है कि उनके पाँवों से
    वो ख़ूँ बहा है कि ये गर्द भी गुलाल हुई

    मेरी ज़ुबान से निकली तो सिर्फ़ नज़्म बनी
    तुम्हारे हाथ में आई तो एक मशाल हुई

    47. वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है

    वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
    माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है

    वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू
    मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है

    सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर
    झोले में उसके पास कोई संविधान है

    उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप
    वो आदमी नया है मगर सावधान है

    फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए
    हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है

    देखे हैं हमने दौर कई अब ख़बर नहीं
    पैरों तले ज़मीन है या आसमान है

    वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से
    ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेज़ुबान है

    48. किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम

    किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम
    किसी का हाथ उठ्ठा और अलकों तक चला आया

    वो बरगश्ता थे कुछ हमसे उन्हें क्योंकर यक़ीं आता
    चलो अच्छा हुआ एहसास पलकों तक चला आया

    जो हमको ढूँढने निकला तो फिर वापस नहीं लौटा
    तसव्वुर ऐसे ग़ैर-आबाद हलकों तक चला आया

    लगन ऐसी खरी थी तीरगी आड़े नहीं आई
    ये सपना सुब्ह के हल्के धुँधलकों तक चला आया

    49. होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये

    होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये
    इस पर कटे परिंदे की कोशिश तो देखिये

    गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में
    सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिये

    बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन
    सूखा मचा रही है ये बारिश तो देखिये

    उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें
    चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिये

    जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ
    इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिये

    50. मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ

    मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
    वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ

    एक जंगल है तेरी आँखों में
    मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ

    तू किसी रेल-सी गुज़रती है
    मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ

    हर तरफ़ ऐतराज़ होता है
    मैं अगर रौशनी में आता हूँ

    एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
    और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ

    मैं तुझे भूलने की कोशिश में
    आज कितने क़रीब पाता हूँ

    कौन ये फ़ासला निभाएगा
    मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ

    51. अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार

    अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार
    घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार

    आप बच कर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं
    रहगुज़र घेरे हुए मुर्दे खड़े हैं बेशुमार

    रोज़ अखबारों में पढ़कर यह ख़्याल आया हमें
    इस तरफ़ आती तो हम भी देखते फ़स्ले-बहार

    मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं
    बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार

    इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके-जुर्म हैं
    आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार

    हालते-इन्सान पर बरहम न हों अहले-वतन
    वो कहीं से ज़िन्दगी भी माँग लायेंगे उधार

    रौनक़े-जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं
    मैं जहन्नुम में बहुत ख़ुश था मेरे परवरदिगार

    दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर
    हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़रार

    52. तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं

    तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
    कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

    मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ
    मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं

    तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह
    तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं

    तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ
    अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं

    तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर
    तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं

    बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ
    ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं

    ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
    तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं