Saaye Mein Dhoop Dushyant Kumarअनुक्रम
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साये में धूप दुष्यंत कुमार1. कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिएकहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले 2. कैसे मंज़र सामने आने लगे हैंकैसे मंज़र सामने आने लगे हैं अब तो इस तालाब का पानी बदल दो वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने मौलवी से डाँट खा कर अहले-मक़तब अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम 3. ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगाये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उसके बारे में यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें 4. इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो हैइस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो एक खँडहर के हृदय-सी,एक जंगली फूल-सी एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर 5. देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वालीदेख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली कितना अच्छा है कि साँसों की हवा लगती है एक तालाब-सी भर जाती है हर बारिश में चीख़ निकली तो है होंठों से मगर मद्धम है तू परेशान है, तू परेशान न हो आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा 6. खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रहीखँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा हमको पता नहीं था हमें अब पता चला कुछ दोस्तों से वैसे मरासिम नहीं रहे हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग सीने में ज़िन्दगी के अलामात हैं अभी 7. परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैंपरिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं तुम्हीं कमज़ोर पड़ते जा रहे हो ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो मज़ारों से दुआएँ माँगते हो हमारे हाथ तो काटे गए थे कभी किश्ती, कभी बतख़, कभी जल हमारा क़द सिमट कर मिट गया है चढ़ाता फिर रहा हूँ जो चढ़ावे 8. अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँअपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ ये दरवाज़ा खोलें तो खुलता नहीं है अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब समालोचकों की दुआ है कि मैं फिर 9. भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआभूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ मौत ने तो धर दबोचा एक चीते कि तरह गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही क्या वज़ह है प्यास ज्यादा तेज़ लगती है यहाँ आप दस्ताने पहनकर छू रहे हैं आग को इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो दोस्त, अपने मुल्क कि किस्मत पे रंजीदा न हो इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात 10. फिर धीरे-धीरे यहां का मौसम बदलने लगा हैफिर धीरे-धीरे यहां का मौसम बदलने लगा है, पिछले सफ़र की न पूछो , टूटा हुआ एक रथ है, हमको पता भी नहीं था , वो आग ठण्डी पड़ी थी, जो आदमी मर चुके थे , मौजूद है इस सभा में, ये घोषणा हो चुकी है , मेला लगेगा यहां पर, बातें बहुत हो रही है , मेरे-तुमहारे विषय में, 11. कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गएकहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है 12. घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती हैघंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है अब इसे क्या नाम दें , ये बेल देखो तो खिड़कियां, नाचीज़ गलियों से मुख़ातिब है आशियाने को सजाओ तो समझ लेना, तुम हमेशा बदहवासी में गुज़रते हो, सिर्फ़ आंखें ही बची हैं चँद चेहरों में अब मुअज़न की सदाएं कौन सुनता है 13. नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहींनज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन चले हवा तो किवाड़ों को बंद कर लेना तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है कभी मचान पे चढ़ने की आरज़ू उभरी ये लोग होमो-हवन में यकीन रखते है 14. तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा कियातूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया किससे कहें कि छत की मुंडेरों से गिर पड़े अब सब से पूछता हूं बताओ तो कौन था मुँह को हथेलियों में छिपाने की बात है घर से चले तो राह में आकर ठिठक गये मैं भी तो अपनी बात लिखूं अपने हाथ से इस दिल की बात कर तो सभी दर्द मत उंडेल 15. मत कहो, आकाश में कुहरा घना हैमत कहो, आकाश में कुहरा घना है, सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से, इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है, पक्ष औ’ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं, रक्त वर्षों से नसों में खौलता है, हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था, दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है, 16. चांदनी छत पे चल रही होगीचांदनी छत पे चल रही होगी फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा कल का सपना बहुत सुहाना था सोचता हूँ कि बंद कमरे में तेरे गहनों सी खनखनाती थी जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया 17. ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगोये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो दरख़्त हैं तो परिन्दे नज़र नहीं आते वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में तमाम रात रहा महव-ए-ख़्वाब दीवाना ज़रूर वो भी किसी रास्ते से गुज़रे हैं दिखे जो पाँव के ताज़ा निशान सहरा में वे कह रहे हैं ग़ज़लगो नहीं रहे शायर 18. हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिएहो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में, सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, 19. आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देखआज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़ ये धुँधलका है नज़र का,तू महज़ मायूस है राख, कितनी राख है चारों तरफ़ बिखरी हुई 20. मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिएमरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए अब रिन्द बच रहे हैं ज़रा तेज़ रक़्स हो पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह ख़ामोश रह के तुमने हमारे सवाल पर ये रौशनी का दर्द, ये सिरहन ,ये आरज़ू, फिरता है कैसे-कैसे सवालों के साथ वो 21. पुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भीपुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भी लपट आने लगी है अब हवाओं में यहाँ मासूम सपने जी नहीं पाते तुम्हें भी इस बहाने याद कर लेंगे ये मूरत बोल सकती है अगर चाहो किसी संवेदना के काम आएँगे 22. इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम औरइस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और आँधी में सिर्फ़ हम ही उखड़ कर नहीं गिरे मरघट में भीड़ है या मज़ारों में भीड़ है घुटनों पे रख के हाथ खड़े थे नमाज़ में हमने भी पहली बार चखी तो बुरी लगी हैराँ थे अपने अक्स पे घर के तमाम लोग उनका कहीं जहाँ में ठिकाना नहीं रहा 23. मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगेमेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे हौले-हौले पाँव हिलाओ,जल सोया है छेड़ो मत थोड़ी आँच बची रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो उनको क्या मालूम विरूपित इस सिकता पर क्या बीती रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता हम क्या बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गए 24. आज वीरान अपना घर देखाआज वीरान अपना घर देखा पाँव टूटे हुए नज़र आये होश में आ गए कई सपने रास्ता काट कर गई बिल्ली नालियों में हयात देखी है उस परिंदे को चोट आई तो हम खड़े थे कि ये ज़मीं होगी 25. वो निगाहें सलीब हैंवो निगाहें सलीब हैं आइये आँख मूँद लें ज़िन्दगी एक खेत है सिलसिले ख़त्म हो गए हम कहीं के नहीं रहे आपने लौ छुई नहीं उफ़ नहीं की उजड़ गए 26. बाएँ से उड़के दाईं दिशा को गरुड़ गयाबाएँ से उड़के दाईं दिशा को गरुड़ गया इन खँडहरों में होंगी तेरी सिसकियाँ ज़रूर बच्चे छलाँग मार के आगे निकल गये दुख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें लेकर उमंग संग चले थे हँसी-खुशी जिन आँसुओं का सीधा तअल्लुक़ था पेट से 27. अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोलाअफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला इन राहों के पत्थर भी मानूस थे पाँवों से लगता है ख़ुदाई में कुछ तेरा दख़ल भी है आख़िर तो अँधेरे की जागीर नहीं हूँ मैं सोचा कि तू सोचेगी ,तूने किसी शायर की 28. अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाएअगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए हुज़ूर! आरिज़ो-ओ-रुख़सार क्या तमाम बदन उठा के फेंक दो खिड़की से साग़र-ओ-मीना वो बात कितनी भली है जो आप करते हैं बहुत क़रीब न आओ यक़ीं नहीं होगा ग़लत कहूँ तो मेरी आक़बत बिगड़ती है 29. ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं हैज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है राम जाने किस जगह होंगे क़बूतर आपसे मिल कर हमें अक्सर लगा है पेड़-पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे मैकदे का रास्ता अब भी खुला है इस चमन को देख कर किसने कहा था 30. ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाएये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था जैसे किसी बच्चे को खिलोने न मिले हों चट्टानों से पाँवों को बचा कर नहीं चलते यों पहले भी अपना-सा यहाँ कुछ तो नहीं था 31. बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैंबाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं, चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर, इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं, आपके क़ालीन देखेंगे किसी दिन, जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में, अब तड़पती-सी ग़ज़ल कोई सुनाए, 32. जाने किस-किसका ख़्याल आया हैजाने किस-किसका ख़्याल आया है एक बच्चा था हवा का झोंका एक ढेला तो वहीं अटका था कल तो निकला था बहुत सज-धज के ये नज़र है कि कोई मौसम है इस अँधेरे में दिया रखना था हमने सोचा था जवाब आएगा 33. ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जातीये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती इन सफ़ीलों में वो दरारे हैं देखिए उस तरफ़ उजाला है शाम कुछ पेड़ गिर गए वरना एक आदत-सी बन गई है तू मयकशो मय ज़रूर है लेकिन मुझको ईसा बना दिया तुमने 34. तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरातुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब पौधे झुलस गए हैं मगर एक बात है लम्बी सुरंग-से है तेरी ज़िन्दगी तो बोल माथे पे हाथ रख के बहुत सोचते हो तुम 35. रोज़ जब रात को बारह का गजर होता हैरोज़ जब रात को बारह का गजर होता है कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए सिर से सीने में कभी पेट से पाओं में कभी ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे सैर के वास्ते सड़कों पे निकल आते थे 36. हालाते जिस्म, सूरते-जाँ और भी ख़राबहालाते जिस्म, सूरते-जाँ और भी ख़राब नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे पाबंद हो रही है रवायत से रौशनी मूरत सँवारने से बिगड़ती चली गई रौशन हुए चराग तो आँखें नहीं रहीं आगे निकल गए हैं घिसटते हुए क़दम सोचा था उनके देश में मँहगी है ज़िंदगी 37. ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारोये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो दर्दे-दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुँचाएगा लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की 38. धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती हैधूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है यह दिया चौरास्ते का ओट में ले लो कुछ बहुत गहरी दरारें पड़ गईं मन में कौन शासन से कहेगा, कौन पूछेगा मैं तुम्हें छू कर ज़रा-सा छेड़ देता हूँ तुम कहीं पर झील हो मैं एक नौका हूँ 39. पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहींपक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो बूँद टपकी थी मगर वो बूँदो—बारिश और है आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर सिर्फ़ शायर देखता है क़हक़हों की अस्लियत 40. एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली-पहली बार उड़ाएक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली-पहली बार उड़ा बंजर धरती, झुलसे पौधे, बिखरे काँटे तेज़ हवा चट्टानों पर खड़ा हुआ तो छाप रह गई पाँवों की सहने को हो गया इकठ्ठा इतना सारा दुख मन में धीरे-धीरे भीग रही हैं सारी ईंटें पानी में 41. ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ ये ज़मीन तप रही थी ये मकान तप रहे थे मैं ठिठक गया था लेकिन तेरे साथ-साथ था मैं तेरे सर पे धूप आई तो दरख़्त बन गया मैं कभी दिल में आरज़ू-सा, कभी मुँह में बद्दुआ-सा मेरे दिल पे हाथ रक्खो, मेरी बेबसी को समझो यहाँ कौन देखता है, यहाँ कौन सोचता है 42. तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिएतुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत जाने कैसी उँगलियाँ हैं, जाने क्या अँदाज़ हैं इस अहाते के अँधेरे में धुआँ-सा भर गया 43. लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद हैलफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है आप दीवार गिराने के लिए आए थे ख़ामुशी शोर से सुनते थे कि घबराती है आदमी होंठ चबाए तो समझ आता है जिस्म पहरावों में छुप जाते थे, पहरावों में- लोग तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के सलीक़े सीखे 44. ये शफ़क़ शाम हो रही है अबये शफ़क़ शाम हो रही है अब जिस तबाही से लोग बचते थे अज़मते-मुल्क इस सियासत के शब ग़नीमत थी, लोग कहते हैं जो किरन थी किसी दरीचे की तिश्ना-लब तेरी फुसफुसाहट भी 45. एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान हैएक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो- मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम इस क़दर पाबन्दी-ए-मज़हब कि सदक़े आपके कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ 46. बहुत सँभाल के रक्खी तो पाएमाल हुईबहुत सँभाल के रक्खी तो पाएमाल हुई बड़ा लगाव है इस मोड़ को निगाहों से कोई निजात की सूरत नहीं रही, न सही मेरे ज़ेह्न पे ज़माने का वो दबाब पड़ा समुद्र और उठा, और उठा, और उठा उन्हें पता भी नहीं है कि उनके पाँवों से मेरी ज़ुबान से निकली तो सिर्फ़ नज़्म बनी 47. वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान हैवो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए देखे हैं हमने दौर कई अब ख़बर नहीं वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से 48. किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हमकिसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम वो बरगश्ता थे कुछ हमसे उन्हें क्योंकर यक़ीं आता जो हमको ढूँढने निकला तो फिर वापस नहीं लौटा लगन ऐसी खरी थी तीरगी आड़े नहीं आई 49. होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखियेहोने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ 50. मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँमैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ एक जंगल है तेरी आँखों में तू किसी रेल-सी गुज़रती है हर तरफ़ ऐतराज़ होता है एक बाज़ू उखड़ गया जबसे मैं तुझे भूलने की कोशिश में कौन ये फ़ासला निभाएगा 51. अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरारअब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार आप बच कर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं रोज़ अखबारों में पढ़कर यह ख़्याल आया हमें मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके-जुर्म हैं हालते-इन्सान पर बरहम न हों अहले-वतन रौनक़े-जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर 52. तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहींतुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो |
होम साये में धूप दुष्यंत कुमार