सतरंगे पंखोंवाली नागार्जुन
सतरंगे पंखोंवाली
दिये थे किसी ने शाप
लाख की कोशिश
नहीं बचा पाया उन्हें
गल गये बेचारे
सहज शुभाशंसा की मृदु-मद्विम आँच में
हाय, गल ही गये !
जाने कैसे थे वे शाप
जाने किधर से आये थे बेचारे
दी थी यद्यपि आशीष नहीं किसी ने
फिर भी, हाँ, फिर भी
आ ही गई बेचारी
तिहरी मुस्कान के चटकीले डैनों पे सवार
निगाहों ने कहा-आओ बहन, स्वागत !
तन गई पलकों की पश्मीन छतरी
एक बार झाँका निगाहों के अन्दर
ठमक गई बरोनियों की ड्योढ़ी पर
बार-बार पूछा तो बोली-
झुलसा पड़ा है यहाँ दिल का बगीचा
गवारा नहीं होगी कड़वी-कसैली भाफ
ऐसे में तो अपना दम ही घुट जायगा
गले हैं जाने किनके कंकाल
नोनी लगी है जाने किनके हाड़ों में
छिड़क देते कपूरी पराग
काश तुम अपनी सादी मुस्कान का !
अंतर की सपाट भूमिका से
परिचित तो था ही
कर ली कबूल भीतरी दरिद्रता
क्षण भर बाद बोला विनीत मैं-
हाँ जी, ऊधमी अशुभ शाप ही तो थे
गलते-गलते भी
छोड़ गये ढेर-सी
जहरीली बू-बास !
आ ही गई उझक-उझक कर होठों के कगारों तक
संजीदगी में डूबी कृतज्ञ मुस्कान
तगर की-सी सादगी में
जगमगा उठे धँसे-धँसे गाल
फिर तो मुसकुराई मासूम आशीष
सतरंगे पंखोंवाली पवित्र तितली
खिले मुख की इर्द-गिर्द लग गई मडराने
आहिस्ते से गुनगुनाई-
हाँ, अब आ सकती हूँ
मिट गई भलीभाँति शापों की तासीर
अब तो मैं रह लूँगी पद्मगंधी मानस में
तो फिर निगाहों ने कहा-आओ बहन, स्वागत….
तन गई तत्काल पलकों की पश्मीन छतरी
हो चुकी थी आशीष अंदर दाखिल
तो भी देर तक निगाहों पर
तनी रही पलकों की पश्मीन छतरी
हो चुकी थी आशीष अंदर दाखिल
तो भी देर तक
उझक-उझक कर आती रही बाहर
संजीदा और कृतज्ञ मुस्कान
यह कैसे होगा ?
यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?
नई-नई सृष्टि रचने को तत्पर
कोटि-कोटि कर-चरण
देते रहें अहरह स्निग्ध इंगित
और मैं अलस-अकर्मा
पड़ा रहूँ चुपचाप !
यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?
अधिकाधिक योग-क्षेम
अधिकाधिक शुभ-लाभ
अधिकाधिक चेतना
कर लूँ संचित लघुतम परिधि में !
असीम रहे व्यक्तिगत हर्ष-उत्कर्ष !
यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?
यथासमय मुकुलित हों
यथासमय पुष्पित हों
यथासमय फल दें
आम और जामुन, लीची और कटहल !
तो फिर मैं ही बाँझ रहूँ !
मैं ही न दे पाऊँ !
परिणत प्रज्ञा का अपना फल !
यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?
सलिल को सुधा बनाएँ तटबंध
धरा को मुदित करें नियंत्रित नदियाँ !
तो फिर मैं ही रहूँ निबंध !
मैं ही रहूँ अनियंत्रित !
यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?
भौतिक भोगमात्र सुलभ हों भूरि-भूरि,
विवेक हो कुंठित !
तन हो कनकाभ, मन हो तिमिरावृत्त !
कमलपत्री नेत्र हों बाहर-बाहर,
भीतर की आँखें निपट-निमीलित !
यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?
तन गई रीढ़
झुकी पीठ को मिला
किसी हथेली का स्पर्श
तन गई रीढ़
महसूस हुई कन्धों को
पीछे से,
किसी नाक की सहज उष्ण निराकुल साँसें
तन गई रीढ़
कौंधी कहीं चितवन
रंग गए कहीं किसी के होठ
निगाहों के ज़रिये जादू घुसा अन्दर
तन गई रीढ़
गूँजी कहीं खिलखिलाहट
टूक-टूक होकर छितराया सन्नाटा
भर गए कर्णकुहर
तन गई रीढ़
आगे से आया
अलकों के तैलाक्त परिमल का झोंका
रग-रग में दौड़ गई बिजली
तन गई रीढ़
(1957 में रचित)
यह तुम थीं
कर गई चाक
तिमिर का सीना
जोत की फाँक
यह तुम थीं
सिकुड़ गई रग-रग
झुलस गया अंग-अंग
बनाकर ठूँठ छोड़ गया पतझार
उलंग असगुन-सा खड़ा रहा कचनार
अचानक उमगी डालों की सन्धि में
छरहरी टहनी
पोर-पोर में गसे थे टूसे
यह तुम थीं
झुका रहा डालें फैलाकर
कगार पर खड़ा कोढ़ी गूलर
ऊपर उठ आई भादों की तलैया
जुड़ा गया बौने की छाल का रेशा-रेशा
यह तुम थीं !
(1957 में रचित)
देखना ओ गंगा मइया
चंद पैसे
दो-एक दुअन्नी-इकन्नी
कानपुर-बंबई की अपनी कमाई में से
डाल गए हैं श्रद्धालु गंगा मइया के नाम
पुल पर से गुजर चुकी है ट्रेन
नीचे प्रवहमान उथली-छिछली धार में
फुर्ती से खोज रहे पैसे
मलाहों के नंग-धड़ंग छोकरे
दो-दो पैर
हाथ दो-दो
प्रवाह में खिसकती रेत की ले रहे टोह
बहुधा-अवतरित चतुर्भुज नारायण ओह
खोज रहे पानी में जाने कौस्तुभ मणि।
बीड़ी पिएंगे…
आम चूसेंगे…
या कि मलेंगे देह में साबुन की सुगंधित टिकिया
लगाएंगे सर में चमेली का तेल
या कि हम-उम्र छोकरी को टिकली ला देंगे
पसंद करे शायद वह मगही पान का टकही बीड़ा
देखना ओ गंगा मइया।
निराश न करना इन नंग-धरंग चतुर्भुजों ।
कहते हैं निकली थीं कभी तुम
बड़े चतुर्भुज के चरणों में निवेदित अर्थ-जल से
बड़े होंगे तो छोटे चतुर्भुज भी चलाएंगे चप्पू
पुष्ट होगा प्रवाह तुम्हारा इनके भी श्रम-स्वेद-जल से
मगर अभी इनको निराश न करना
देखना ओ गंगा मइया।
खुरदरे पैर
खुब गए
दूधिया निगाहों में
फटी बिवाइयोंवाले खुरदरे पैर
धँस गए
कुसुम-कोमल मन में
गुट्ठल घट्ठोंवाले कुलिश-कठोर पैर
दे रहे थे गति
रबड़-विहीन ठूँठ पैडलों को
चला रहे थे
एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन चक्र
कर रहे थे मात त्रिविक्रम वामन के पुराने पैरों को
नाप रहे थे धरती का अनहद फासला
घण्टों के हिसाब से ढोये जा रहे थे !
देर तक टकराए
उस दिन इन आँखों से वे पैर
भूल नहीं पाऊंगा फटी बिवाइयाँ
खुब गईं दूधिया निगाहों में
धँस गईं कुसुम-कोमल मन में
(१९६१)
नाकहीन मुखड़ा
गठरी बना गई
माघ की ठिठुरन
अद्भुत यह सर्वांग-आसन
हिली-डुली
वो देखो हिली-डुली गठरी
दे गया दिखाई झबरा माथा
सुलग उठी माबिस की तीली
बीड़ी लगा धूंकने नाकहीन मुखड़ा
आँखों के नीचे
होठों के ऊपर
दो बड़े छेद थे
निकला उन छिद्रों से
धुआँ ढेर-ढर सा
अँधेरे में डूब गई ठूँठ बाँह
सहलाते-सहलाते गर्दन
डूब गया सब कुछ अंधेरे में…
शायद दुबारा खिंच जाय कस
चमके शायद दुबारा बीड़ी का सिरा
बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अब की मैंने जी-भर देखी
पकी-सुनहली फसलों की मुसकान
— बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अब की मैं जी-भर सुन पाया
धान कुटती किशोरियों की कोकिल-कंठी तान
— बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अब की मैंने जी-भर सूँघे
मौलसिरी के ढेर-ढेर से ताजे-टटके फूल
— बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अब की मैं जी-भर छू पाया
अपनी गँवई पगडंडी की चंदनवर्णी धूल
— बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अब की मैंने जी-भर तालमखाना खाया
गन्ने चूसे जी-भर
— बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अब की मैंने जी-भर भोगे
गंध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श सब साथ-साथ इस भू पर
— बहुत दिनों के बाद
क्या अजीब नेचर पाया है
कदम-कदम पर मुसकाती है
बात-बात पर हँस देती है
दिल का दर्द कभी नहीं जाहिर करती है
सच वतलाना, कभी उसास नहीं भरती है ?
मुझको तो लगता है, तूने बहुत-बहुत-सा जहर पिया है
धीरे-धीरे सारा ही विष पचा लिया है
शोधित विष का सुधा-तुल्य यह झाग जब कभी
उफन-उफनकर बाहर आता
दुनिया को लगता है : रे, रे ! परजाते के फूल झर रहे
इस लड़की के होठों से तो…
क्या अजीब नेचर पाया है…
पग-पग पर यूं ढेर-ढेर-सा हँस देती है…
खुली एक दिन, मुझसे बोली :
बाबा, पिछले छै वर्षों से गूंगी हूँ मैं
मिला न कोई
मिला न कोई
जिसके आगे अपने दिल की बातें रखती
परिचित हैं यूँ तो बहुतेरे
बोल-चाल या हँसी-खुशी के अवसर आते ही रहते हैं
फिर भी मैं गूंगी हूं बाबा !
कभी-कभी तो लगता है,
इस दिल-दिमाग को कहीं न लकबा मार गया हो !
पागलखाने में भर्ती हो जाऊँ बाबा ?
यह सब सुनकर मैंने उसको
मीठी-सी फटकार बताई
और कहा–आ, ओ री बौड़म,
चलें अपन मद्रासी होटल, गरम-गरम काफी पी आएं !
गालों पर पड़ गईं प्यार की दो चपतें तो
लगा दिया छत-फाड़ ठहाका !
क्या अजीब नेचर पाया है !
कैसी अद्भुत है यह लड़की !!
तुम किशोर, तुम तरुण
तुम किशोर
तुम तरुण
तुम्हारी राह रोककर
अनजाने यदि खड़े हुए हम :
कितना ही गुस्सा आए, पर, मत होना नाराज
वय:संधि के कितने ही क्षण हमने भी तो
इसी तरह फेनिल क्षोभों के बीच गुजारे
कान लगाकर सुनो : कहीं से आती है आवाज–
“भले ही विद्रोही हो,
“सहनशील होती है लेकिन अगली पीढ़ी”
पर, अपने प्रति सहिष्णुता की भीख न हम माँगेंगे तुमसे
मीमांसा का सप्ततिक्त वह झाग
अजी हम खुशी-खुशी पी लेंगे।
क्रोध-क्षोभ के अवसर चाहे आ भी जाएँ
किन्तु द्वेष से दूर रहेंगे
तुम किशोर
तुम तरुण
तुम्हारी अगवानी में
खुरच रहे हम राजपथों की काई-फिसलन
खोद रहे जहरीली घासें
पगडंडियाँ निकाल रहे हैं
गुंफित कर रक्खी हैं हमने
ये निर्मल-निश्छल प्रशस्तियाँ
आओ, आगे आओ, अपना दायभाग लो
अपने स्वप्नों को पूरा करने की खातिर,
तुम्हें नहीं तो और किसे हम देखें बोलो !
निविड़ अविद्या से मन मूर्छित
तन जर्जर है भूख-प्यास से
व्यक्ति-व्यक्ति दुख-दैन्य ग्रस्त है
दुविधा में समुदाय पस्त है
लो मशाल, अब घर-घर को आलोकित कर दो
सेतु बनो प्रज्ञा-प्रयत्न के मध्य
शांति को सर्वमंगला हो जाने दो
खुश होंगे हम–
इन निर्बल बाँहों का यदि उपहास तुम्हारा
क्षणिक मनोरंजन करता हो
खुश होंगे हम !
होतीं बस आँखें ही आँखें
थकी-पकी तनी-घनी भौंहें
नीली नसोंवाल ढलके पपोटे
सयत्न-विस्फारित कोए
कोरों में जमा हुआ कीचड़
कुछ नहीं होता
कुछ नहीं होता
होतीं बस आँखें ही आँखें
बेतरतीब बालों का जंगल
झुर्रियों भरा कुंचित ललाट
खिचड़ी दाढ़ी का उजाड़ घोंसला
कुछ नहीं होता
कुछ नहीं होता
होतीं बस आँखें ही आँखें
मूंछों की ओट में खोए होठों का सीमांत
सीध भें लंबी खिची बड़ी नथनोंवाली नाक
अधिक से अधिक लटके हुए गाल
झाँकते हुए लंबे-लंबे कान
कुछ नहीं होता
कुछ नहीं होता
होतीं बस आँखें ही आँखें
अकाल और उसके बाद
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
वसंत की अगवानी
दूर कहीं पर अमराई में कोयल बोली
परत लगी चढ़ने झींगुर की शहनाई पर
वृद्ध वनस्पतियों की ठूँठी शाखाओं में
पोर-पोर टहनी-टहनी का लगा दहकने
टूसे निकले, मुकुलों के गुच्छे गदराए
अलसी के नीले पुष्पों पर नभ मु्स्काया
मुखर हुई बांसुरी, उंगलियाँ लगीं थिरकने
पिचके गालों तक पर है कुंकुम न्यौछावर
टूट पड़े भौंरे रसाल की मंजरियों पर
मुरक न जाएँ सहजन की ये तुनुक टहनियाँ
मधुमक्खी के झुंड भिड़े हैं डाल-डाल में
जौ-गेहूं की हरी-हरी वालों पर छाई
स्मित-भास्वर कुसुमाकर की आशीष रंगीली
शीत समीर, गुलाबी जाड़ा, धूप सुनहली
जग वसंत की अगवानी में बाहर निकला
माँ सरस्वती ठौर-ठौर पर पड़ी दिखाई
प्रज्ञा की उस देवी का अभिवादन करने
आस्तिक-नास्तिक सभी झुक गए, माँ मुस्काई
बोली–बेटे, लक्ष्मी का अपमान न करना
जैसी मैं हूँ, वह भी वैसी मां है तेरी
धूर्तों ने झगड़े की बातें फैलाई हैं
हम दोनों ही मिल-जुलकर संसार चलातीं
बुद्धि और वैभव दोनों यदि साथ रहेंगे
जन-जीवन का यान तभी आगे निकलेगा
इतना कहकर मौन शारदा हुई तिरोहित
दूर कहीं पर कोयल फिर-फिर रही कूकती
झींगुर की शहनाई बिल्कुल बंद हो गई
नीम की दो टहनियाँ
नीम की दो टहनियाँ
झाँकती हैं सीखचों के पार
यह कपूरी धूप
शिशिर की यह दुपहरी, यह प्रकृति का उल्लास
रोम-रोम बुझा लेगा ताज़गी की प्यास
रात-भर जगती रही
खटती रही
अब कर रही आराम
गाढ़ी नींद का आश्वास भर अब मौन से लिपटा हुआ है
—बेखबर सोई हुई है छापने की यह विराट मशीन
उधर मुँह बाए पड़े हैं टाइपों के मलिन-धूसर केस,
पर, इधर तो झाँकती हैं दो सलोनी टहनियाँ
सीखचों के पार।
कालिदास
कालिदास! सच-सच बतलाना
इन्दुमती के मृत्युशोक से
अज रोया या तुम रोये थे?
कालिदास! सच-सच बतलाना!
शिवजी की तीसरी आँख से
निकली हुई महाज्वाला में
घृत-मिश्रित सूखी समिधा-सम
कामदेव जब भस्म हो गया
रति का क्रंदन सुन आँसू से
तुमने ही तो दृग धोये थे
कालिदास! सच-सच बतलाना
रति रोयी या तुम रोये थे?
वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घन-घटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा
खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर
चित्रकूट से सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था
जिनके ही द्वारा संदेशा
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़ने वाले
कालिदास! सच-सच बतलाना
पर पीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थककर औ’ चूर-चूर हो
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर
प्रियवर! तुम कब तक सोये थे?
रोया यक्ष कि तुम रोये थे!
कालिदास! सच-सच बतलाना!
सिंदूर तिलकित भाल
घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल!
याद आता है तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल!
कौन है वह व्यक्ति जिसको चाहिए न समाज?
कौन है वह एक जिसको नहीं पड़ता दूसरे से काज?
चाहिए किसको नहीं सहयोग?
चाहिए किसको नही सहवास?
कौन चाहेगा कि उसका शून्य में टकराए यह उच्छवास?
हो गया हूं मैं नहीं पाषाण
जिसको डाल दे कोई कहीं भी
करेगा वह कभी कुछ न विरोध
करेगा वह कुछ नहीं अनुरोध
वेदना ही नहीं उसके पास
फिर उठेगा कहां से नि:श्वास
मैं न साधारण, सचेतन जंतु
यहां हां-ना-किंतु और परंतु
यहां हर्ष-विषाद-चिंता-क्रोध
यहां है सुख-दुःख का अवबोध
यहां है प्रत्यक्ष औ’ अनुमान
यहां स्मृति-विस्मृति के सभी के स्थान
तभी तो तुम याद आतीं प्राण,
हो गया हूं मैं नहीं पाषाण!
याद आते स्वजन
जिनकी स्नेह से भींगी अमृतमय आंख
स्मृति-विहंगम की कभी थकने न देगी पांख
याद आता है मुझे अपना वह ‘तरउनी’ ग्राम
याद आतीं लीचियां, वे आम
याद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू-भाग
याद आते धान
याद आते कमल, कुमुदिनी और तालमखान
याद आते शस्य-श्यामल जनपदों के
रूप-गुण-अनुसार ही रक्खे गए वे नाम
याद आते वेणुवन वे नीलिमा के निलय, अति अभिराम
धन्य वे जिनके मृदुलतम अंक
हुए थे मेरे लिए पर्यंक
धन्य वे जिनकी उपज के भाग
अन्य-पानी और भाजी-साग
फूल-फल औ’ कंद-मूल, अनेक विध मधु-मांस
विपुल उनका ऋण, सधा सकता न मैं दशमांश
ओह! यद्यपि पड़ गया हूं दूर उनसे आज
हृदय से पर आ रही आवाज,
धन्य वे जन्य, वही धन्य समाज
यहां भी तो हूं न मैं असहाय
यहां भी व्यक्ति औ’ समुदाय
किंतु जीवन भर रहूं फिर भी प्रवासी ही कहेंगे हाय!
मरूंगा तो चिता पर दो फूल देंगे डाल
समय चलता जाएगा निर्बाध अपनी चाल
सुनोगी तुम तो उठेगी हूक
मैं रहूंगा सामने (तस्वीर में) पर मूक
सांध्य नभ में पश्चिमांत-समान
लालिमा का जब करुण आख्यान
सुना करता हूं, सुमुखि उस काल
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल
यह दंतुरित मुस्कान
तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूली-धूसर तुम्हारे ये गात
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारी ही प्राण,
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल?
तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष!
थक गए हो?
आँख लूँ मैं फेर?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होगी आज
मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान
धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय क्या रहा तम्हारा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि आँखे चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुस्कान
लगती बड़ी ही छविमान!
ओ जन-मन के सजग चितेरे
हँसते-हँसते, बातें करते
कैसे हम चढ़ गए धड़ाधड़
बंबेश्वर के सुभग शिखर पर
मुन्ना रह-रह लगा ठोकने
तो टुनटुनिया पत्थर बोला—
हम तो हैं फ़ौलाद, समझना हमें न तुम मामूली पत्थर
नीचे है बुंदेलखंड की रत्न-प्रसविनी भूमि
शीश पर गगन तना है नील मुकुट-सा
नाहक़ नहीं हमें तुम छेड़ो
फिर मुन्ना कैमरा खोलकर
उन चट्टानों पर बैठे हम दोनों की छवियाँ उतारता रहा देर तक
नीचे देखा :
तलहटियों में
छतों और खपरैलों वाली
सादी-उजली लिपी-पुती दीवारोंवाली
सुंदर नगरी बिछी हुई है
उजले पालों वाली नौकाओं से शोभित
श्याम-सलिल सरवर है बाँदा
नीलम की घाटी में उजला श्वेत कमल-कानन है बाँदा!
अपनी इन आँखों पर मुझको
मुश्किल से विश्वास हुआ था
मुँह से सहसा निकल पड़ा—
क्या सचमुच बाँदा इतना सुंदर हो सकता है
यू.पी. का वह पिछड़ा टाउन कहाँ हो गया ग़ायब सहसा
बाँदा नहीं, अरे यह तो गंधर्व नगर है
उतरे तो फिर वही शहर सामने आ गया!
अधकच्ची दीवारोंवाली खपरैलों की ही बहार थी
सड़कें तो थीं तंग किंतु जनता उदार थी
बरस रही थी मुस्कानों से विवश ग़रीबी
मुझे दिखाई पड़ी दुर्दशा ही चिरजीवी
ओ जन-मन के सजग चितेरे
साथ लगाए हम दोनों ने बाँदा के पच्चीसों फेरे
जनसंस्कृति का प्राणकेंद्र पुस्तकागार वह
वयोवृद्ध मुंशी जी से जो मिला प्यार वह
केन नदी का जल-प्रवाह, पोखर नवाब का
वृद्ध सूर्य के चंचल शिशु भास्वर छायानट
सांध्य घनों की सतरंगी छवियों का जमघट
रॉड ज्योति से भूरि-भूरि आलोकित स्टेशन
वहीं पास में भिखमंगों का चिर-अधिवेशन
काग़ज़ के फूलों पर ठिठकी हुई निगाहें
बसें छबीली, धूल भरी वे कच्ची राहें
द्वारपाल-सा जाने कब से नीम खड़ा था
ताऊजी थे बड़े कि जाने वही बड़ा था
नेह-छोह की देवी, ममता की वह मूरत
भूलूँगा मैं भला बहूजी की वह सूरत?
मुन्नू की मुस्कानों का प्यासा बेचारा
चिकना-काला मखमल का वह बटुआ प्यारा
जी, रमेश थे मुझे ले गए केन नहाने
भूल गया उस दिन दतुअन करना क्यों जाने
शिष्य तुम्हारे शब्द-शिकारी
तरुण-युगल इक़बाल-मुरारी!
ऊँचे-ऊँचे उड़ती प्रतिभा थी कि परी थी
मेरी ख़ातिर उनमें कितनी ललक भरी थी
रह-रह मुझको याद आ रहे मुन्ना दोनों
तरुणाई के ताज़ा टाइप थे वे मोनो
बाहर-भीतर के वे आँगन
फले पपीतों की वह बगिया
गोल बाँधकर सबका वह ‘दुखमोचन’ सुनना
कड़ी धूप, फिर बूँदाबाँदी
फिर शशि का बरसाना चाँदी
चितकबरी चाँदनी नीम की छतनारी डालों से
छन-छन कर आती थी
आसमान था साफ़, टहलने निकल पड़े हम
मैं बोला : केदार, तुम्हारे बाल पक गए!
‘चिंताओं की घनी भाफ में सीझे जाते हैं बेचारे’—
तुमने कहा, सुनो नागार्जुन,
दुख-दुविधा की प्रबल आँच में
जब दिमाग़ ही उबल रहा हो
तो बालों का कालापन क्या कम मखौल है?
ठिठक गया मैं, तुम्हें देखने लगा ग़ौर से
गौर-गेहुँआ मुख-मंडल चाँदनी रात में चमक रहा था
फैली-फैली आँखों में युग दमक रहा था
लगा सोचने—
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे बाँदावाले!
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे साहब काले!
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे आम मुवक्किल!
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे शासन की नाकों पर के तिल!
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे ज़िला अदालत के वे हाकिम!
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे मात्र पेट के बने हुए हैं जो कि मुलाज़िम!
प्यारे भाई, मैंने तुमको पहचाना है
समझा-बुझा है, जाना है
केन कूल की काली मिट्टी, वह भी तुम हो!
कालिंजर का चौड़ा सीना, वह भी तुम हो!
ग्रामवधू की दबी हुई कजरारी चितवन, वह भी तुम हो!
कुपित कृषक की टेढ़ी भौंहें, वह भी तुम हो!
खड़ी सुनहली फ़सलों की छवि-छटा निराली, वह भी तुम हो!
लाठी लेकर कालरात्रि में करता जो उनकी रखवाली वह भी तुम हो!
जनगण-मन के जाग्रत शिल्पी,
तुम धरती के पुत्र : गगन के तुम जामाता!
नक्षत्रों के स्वजन कुटुंबी, सगे बंधु तुम नद-नदियों के!
झरी ऋचा पर ऋचा तुम्हारे सबल कंठ से
स्वर-लहरी पर थिरक रही है युग की गंगा
अजी, तुम्हारी शब्द-शक्ति ने बाँध लिया है भुवनदीप कवि नेरूदा को
मैं बड़भागी, क्योंकि प्राप्त है मुझे तुम्हारा
निश्छल-निर्मल भाईचारा
मैं बड़भागी, तुम जैसे कल्याण मित्र का जिसे सहारा
मैं बड़भागी, क्योंकि चार दिन बुंदेलों के साथ रहा हूँ
मैं बड़भागी, क्योंकि केन की लहरों कुछ देर बहा हूँ
बड़भागी हूँ, बाँट दिया करते हो हर्ष-विषाद
बड़भागी हूँ, बार-बार करते रहते हो याद