पुष्टिमार्गीय भक्ति का दर्शन शुद्धादैतवाद है जो शंकाराचार्य के अद्वैतवाद के विरोध के फलस्वरूप आया। अद्वैतवाद जहां निर्गुण भक्ति का समर्थन करता है वहीं शुद्धाद्वैतवाद सगुण भक्ति का । पुष्टिमार्गीय भक्ति के आधारभूमि लिए शंकाराचार्य का अद्वैतवाद तो एक कारण बना ही, इसके अलावा तत्कालीन परिस्थितियां भी उतनी ही जिम्मेदार रहीं । इस भक्ति के प्रतिपादक आचार्य महाप्रभु वल्लभाचार्य ने श्रीमदभागवत के ‘पोषणं तदनुग्रह:’ के आधार पर अपनी भक्ति का नाम ‘पुष्टिमार्ग’ रखा। श्रीमदभागवत के द्वितीय स्कन्ध के दशम अध्याय में वर्णित जो दस विषय हैं, उनमें से एक ‘पोषण’ भी है। भक्तों के उपर जब भगवान की असीम कृपा होती है तब भक्त और भगवान का तादात्मीकरण हो जाता है । इसी कृपा को ‘पोषण’ कहते हैं । ‘पोषण’ भगवान के अनुग्रह पर अवलम्बित होता है । इसलिए इसमें भगवान के अनुग्रह पर सर्वाधिक बल दिया जाता है । यह अनुग्रह ही भक्त का कल्याण करता है । पुष्टिमार्ग की भक्ति प्रेम-लक्षणा भक्ति है ।
आचार्य वल्लभ का जन्म सन १४७८ ई. में हुआ । उनके पिता तेलगू ब्राम्हण थे । जिनका नाम लक्ष्मण भट्ट और माता का नाम एल्लमा गारू था । वल्लभाचार्य ने अपने पिता के साथ काशी में रहकर समस्त शास्त्रों का अध्ययन किया । पिता के स्वर्गवास के पश्चात् उन्होंने भारत के प्रमुख तीर्थ स्थानों की यात्रा की, और अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ कर मायावाद का खण्डन करके अपनी भक्ति का प्रचार किया । इस बीच में वे दक्षिण भारत भी गये, जहाँ विजयनगर राज्य की राजधानी में आयोजित सभा में शास्त्रार्थ कर अपने शुद्धाद्वैतवाद का प्रतिपादन किया । दक्षिण भारत की यात्रा के बाद उन्होंने वृन्दावन, मथुरा एवं काशी को अपने मत के प्रचार का प्रधान केन्द्र बनाया तथा ब्रज में गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथ मन्दिर की स्थापना की । “कहते हैं कि गोवर्धन पर्वत पर देवदमन या श्रीनाथ जी की मुर्ति प्रकट हुई जिसने उन्हे स्वप्न दिया कि – ‘यहां मन्दिर बनवाकर मेरी प्रतिष्ठा करों और पुष्टि मार्ग का प्रचार करों ’ । गोवर्धन पर जाकर वल्लभाचार्य जी ने श्रीनाथ जी की मूर्ति का दर्शन किया । पूरनमल खत्री ने वहाँ बड़ा भारी मन्दिर बनवाया जिसमें श्रीनाथ जी की मूर्ति की प्रतिष्ठा की गयी । आचार्य जी चतुर्मास यहीं बिताया करते थे । यहीं पर उन्होंने सेवामार्ग की नवीन व्यवस्था की, और बड़ी सजावट भोग राग और धूमधाम के साथ भगवान की पूजा करने की पद्धति चलायी।[1]
पद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में मुस्लिम साम्राज्य अच्छी तरह से स्थापित हो चुका था । जिससे भारतीय जनता पर अनेकानेक प्रकार से अत्याचार किए जा रहे थे । दूसरी तरफ सूफी पद्धति और निर्गुण भक्ति का व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा था । विभिन्न प्रकार के मतमतान्तर अपना पांव तेजी से फैलाने में लगे थे । इस दु:खद दशा से प्रेरित होकर वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्ग की स्थापना की और पुष्टिभक्ति के प्रचार –प्रसार द्वारा भारतीय जनता में एक नई उर्जा भरने का कार्य किया । डॉ. रामकृष्ण शर्मा ने तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए कहा है कि – “आचार्य वल्लभ का प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ, जबकि भारत मुगलों की दासता में जकड़ा हुआ घोर कष्ट भोग रहा था । तथा हिन्दू जनता पर वज्रपात किए जा रहे थे । आपका प्राकट्य संत्रस्त हिन्दू जाति का अवलम्बन बना । अलौकिक प्रतिभा के धनी महाप्रभु वल्लभाचार्य जी ने अपने सिद्धान्तों, धर्मोपदेशों द्वारा जनता का जैसा कल्याण किया वैसा आजतक किसी भी महापुरूष ने नहीं किया।”[2]
वल्लभाचार्य जी के दर्शन शुद्धादैतवाद में आत्मा और परमात्मा के शुद्ध अद्वैतवाद का प्रतिपादन है । इसी दर्शन के आधार पर उन्होंने भगवान की भक्ति के लिए पुष्ठिमार्ग की स्थापना की । यह पुष्टिमार्ग श्रीमद भागवत् के एक वाक्य ‘पोषणं तदनुग्रह:’ पर आधारित है । इसकी भक्ति रागात्मक और प्रवृत्तिमूलक है । इसमें जीवन से निवृत्ति नहीं बल्कि असीम राग है । भक्त अपना सारा सुख-दुख भगवान से साझा कर लेता है तथा भगवान को अपना साथी, सखा, प्रेमी इत्यादि समझकर कीर्तन, भजन और रास द्वारा उनमें लीन होकर पूर्णरूपेण आनंदित होता है । इस आनन्द की अवस्था में भक्त अपना सुख–दुख, बुद्धि-विवेक, लोभ, माया, मोह इत्यादि सबकुछ भूलकर परम रसानुभूति का अनुभव करता है । यही रसानभूति पुष्टिमार्ग का मूल तत्व है ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपना वक्तव्य इस प्रकार दिया है – “भगवान का अनुग्रह ही जीव का असली पोषण या पुष्टि है जिससे उसके ह्दय में भक्ति का संचार होता है । ह्दय पर प्रभाव उत्पन्न हुए बिना धर्म स्वरूप भगवान की विभूति में ह्दय लगे बिना, अन्त: प्रकृति की वह पुष्टता नहीं प्राप्त हो सकती जिसके बल से कल्याण पथ की ओर मनुष्य बराबर चला चल सकता है । जिसमें भक्ति दिखाई पड़े उसके संबन्ध में समझ लेना चाहिए कि उसे भगवान का अनुग्रह अर्थात पोषण प्राप्त है ।”[3]
वल्लभाचार्य के दार्शनिक सिद्धान्त को समझने के लिए हमें शंकराचार्य के मायावाद को समझना होगा । उपनिषद् के ज्ञानकांड में ब्रम्ह का जो स्वरूप बताया गया है, वह कई प्रकार का है –अशब्द, अस्पर्श, अगंध, अदृष्य, अग्राह्य इत्यादि जहां निर्गुण के स्वरूप हैं वहीं सर्वकर्मा, सर्वरस,सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान इत्यादि सगुण स्वरूप इसके आतिरिक्त कई जगह ब्रम्ह का स्वरूप उभयात्मक भी मिलता है । शंकराचार्य ने उपनिषदों के ज्ञान कांड में प्रस्तुत ब्रम्ह के निर्गुण स्वरूप को लेकर अपने अद्वैतवादी दर्शन में जगत की सत्ता को माया घोषित कर दिया और ब्रम्ह को निर्गुण या निराकार। ‘ब्रम्ह सत्यं जगन्मिथ्या’ अर्थात ब्रम्हा ही सत्य है बाकी सारा जगत मिथ्या है । आत्मा और परमात्मा दोनों एक दूसरें से भिन्न नहीं हैं। संसारिक माया के कारण मनुष्य आत्मा-परमात्मा की एकता को पहचानने की भूल करता है ।
शंकराचार्य के अद्वैतवादी ब्रम्ह के स्वरूप के संबध में आचार्य रामचंन्द्र शुक्ल ने कहा है कि – “शंकराचार्य ने उपनिषदों में कथित ईश्वर, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वकर्म, इत्यादि को ब्रम्ह का पारमार्थिक रूप नहीं माना बल्कि अविद्यात्मक उपाधिविशिष्ट रूप कहा । इस प्रकार उन्होंने ब्रम्ह के दो रूप बताए – एक नामरूपविकार भेदोपाधिविशिष्ट या सगुण और दूसरा सर्वोपाथिविवर्जित या निर्गुण । इसी दूसरे निर्गुण, निराकार और निर्विशेष ( एब्सोल्यूट) को ही उन्होंने ब्रम्ह का असली या पारमार्थिक रूप स्वीकार किया ।”[4]
रामानुजाचार्य से लेकर वल्लभाचार्या तक लगभग सभी परवर्ती आचार्यों ने एकमत से शंकराचार्य के मायावाद और उनके ब्रम्ह के स्वरूप का विरोध किया, तथा मत-मतान्तर के विकास क्रम में वल्लभाचार्य ने शुद्धादैतवादी दर्शन का स्वरूप निर्धारित किया । यह अलग बात है कि तत्कालीन परिस्थिति में सगुण भक्ति की नितांत आवश्यकता थी । इस प्रकार वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्गीय भक्ति के लिए ब्रम्ह के उभयलिंगी स्वरूप को स्वीकार किया । इस कारण उन्होंने अपने दर्शन के प्रचार-प्रसार एवं स्थापना हेतु कृष्ण के चरित्र को चुना जिसका स्वरूप ब्रह्म के समान पहले से ही स्थापित था ।
पुष्टिमार्ग में परमात्मा का स्वरूप उपनिषदों के ज्ञानकांड में प्रस्तुत स्वरूप के आधार पर है । लेकिन साधना का आधार प्रेम है, शुद्ध प्रेम । जिससे भगवान का अनुग्रह या पोषण होता है । यह मार्ग मनुष्य मात्र के लिए था । इसमें से, पुरूष-स्त्री द्विज, शुद्र इत्यादि के लिए कोई भेद-भाव नहीं था । सभी को भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति रखने का पूरा-पूरा अधिकार था । भगवान के चरणों में जो अपने आपको समर्पित कर सकता था वही सच्चा पुष्टिमार्गीय भक्त कहलाने का अधिकारी था, और यह तभी सम्भव था जब भक्त को भगवान का अनुग्रह प्राप्त हो । ब्रम्ह का स्वरूप वल्लभाचार्य के अनुसार आधिदैविक, आध्यात्मिक और आधिभौतिक होता है । जिसमें आधिदैविक को परब्रम्ह, आध्यात्मिक को ‘अक्षर ब्रम्ह’ और आधिभौतिक को ‘जगत ब्रम्ह’ माना गया है । इसमें से आधिदैविक अर्थात परब्रम्ह की उपासना भक्तिमार्ग के द्वारा की जाती है ।
परब्रम्ह, जो कि सच्चिदानन्द(सत् – चित् -आनन्द) है और यही सच्चिदानन्द श्रीकृष्ण (परब्रम्ह तु कृष्णहि )हैं। परब्रम्ह अर्थात सच्चिदानन्द अर्थात श्रीकृष्ण अपनी ‘संघिनी’ शक्ति से ‘सत्’ का, ‘संवित्’ से ‘चित’ का, और ‘अह्लादिनी’ से ‘आनन्द’ का अविर्भाव करता है । कहने का ताप्तर्य यह है कि परब्रम्हा में इन तीनों गुणों का प्रकाश रहता है ।
वल्लभाचार्य ने जीवात्मा के संबन्ध में शंकराचार्य के मत को खण्डन किया । जिनके अनुसार ब्रम्ह और जीवात्मा के स्वरूप में कोई भेद नहीं है । जीवात्मा भी ब्रम्ह की तरह नित्यज्ञान स्वरूप और विभू अर्थात सर्वव्यापी है । इसके विरूद्ध में – ‘यथाने क्षुद्रा स्फुलिगा’ ( तात्पर्य यह है कि ब्रम्ह और जीव का वही संबंध है जो अग्नि और उसके स्फूलिंग का ) के आधार पर वल्लभाचार्य ने जीव को ब्रम्ह का अंश माना और उसे ‘अणु’ रूप में स्वीकार किया । इसप्रकार जीव और ब्रम्ह की व्याख्या करते हुए उन्होने भक्ति के नवीन पद्धति का स्वरूप निर्धारित किया । जिसमें तीन प्रकार के जीवों की व्याख्या की गयी-पुष्टिजीव, मर्यादाजीव और प्रवाह जीव । शुक्ल जी ने जीवों का स्वरूप निम्न प्रकार से बताया है ।
“१-पुष्टि जीव, जो भगवान के अनुग्रह का ही भरोसा रखते हैं और नित्यलीला में प्रवेश पाते हैं ।
२ – मर्यादा जीव, जो वेद की विधियों का अनुसरण करते हैं और स्वर्ग आदि लोक प्राप्त करते हैं । और
३ – प्रवाह जीव, जो संसार के प्रवाह में पड़े सांसारिक सुखों की प्राप्ति में ही लगे रहते है ।”[5]
पुष्टिमार्गीय भक्ति में ये तीन प्रकार के जीव ही भगवान की सेवा के अधिकारी होते है । इन तीन प्रकार के जीवों की भक्ति के भी चार सोपान होते हैं – प्रवाह पुष्टि भक्ति, मर्यादा पुष्टि भक्ति, पुष्टिपुष्ट भक्ति और शुद्ध पुष्टि भक्ति। प्रवाह पुष्टि का जीव जहाँ संसारिक मर्यादा में रहते हुए भगवत् भक्ति का प्रयास करता है । वहीं मर्यादा पुष्टि भक्ति में वह नवधा भक्ति पर आरूढ़ होता है । पुष्टिपुष्ट भक्ति में जीव को भगवान के अनुग्रह का आभास मिलता है जिससे वह भक्ति के साथ – भगवान के तात्विक स्वरूप के ज्ञान हेतु भी लालायित रहता है । शुद्ध पुष्टि भक्ति में जीव बिना किसी बौद्धिक प्रयास के भगवत् प्रेम में लीन होकर भजन कीर्तनादि करते हुए भगवान के प्रति अपने आपको समर्पित कर देता है ।
इसी प्रकार जब जीवों पर भगवान का अनुग्रह होता है तब जीव भगवान के प्रेम में लीन होकर सर्वात्मसमर्पण के भाव को दृढ़ करता है । और तीन प्रकार की सेवा का संकल्प लेता है । तनुजा, वितजा, और मानसी । इसमें सबसे कठिन मानसी को माना जाता है । यह जितना कठिन है उतना ही महत्वपूर्ण भी ।
सेवा का यह भाव पारम्परिक धर्म में वर्णित पुरूषार्थ ( धर्म अर्थ काम और मोक्ष ) से काफी प्रभावित लगता है । यहां पर तनुजा को ‘तन’ अर्थात ‘काम’ से, वितजा को ‘वित्’ अर्थात ‘अर्थ’ और ‘मानसी’ को ‘मन’ अर्थात ‘धर्म’ से जोड़कर देखा जा सकता है । सामान्य अर्थों में तन-मन-धन लगाकर की गयी भक्ति ही तनुजा, वितजा और मानसी है ।
नवधा भक्ति का स्वरूप भी कुछ इसी प्रकार का है जिसको डॉ. सरोज जैन ने इस प्रकार से दर्शाया है – “प्रभु का प्रेम और अनुग्रह पाने तथा अविद्या का नाश करने के लिए महाप्रभु ने दृढ़ विश्वासपूर्वक श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्म-निवेदन वाली नवधा भक्ति को करने का उपदेश दिया है । भक्ति के उक्त प्रकारों में सें प्रथम छ: कृत्य हैं और अंतिम तीन भाव ।”[6] इसप्रकार पुष्टिमार्ग में वर्णित भक्ति के विविध प्रकार, प्रेम-लक्षणा भक्ति के साधन हैं । जिससे मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है ।
वल्लभाचार्य का यह नवीन मार्ग भारतीय जनता के लिए आशा की दीप का तरह था । श्रीकृष्ण जैसे महान नायक का प्रादुर्भाव होने से जनता का आत्म विश्वास फिर से बढ़ने लगा । जिससे ब्रज-क्षेत्रों में तरह-तरह के उत्सवों का आयोजन होना शुरू हुआ । जिसका प्रयोजन, मात्र श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति था । आज भी यह परम्परा उतर भारत में प्रत्येक तीज-त्योहारों पर देखने को मिल जाती है । कृष्ण- जन्मोत्सव, राधा-जन्मोत्सव, होली, दीपावली इत्यादि के अलावा शादी-विवाह मुडंन इत्यादि के आयोजन में भी वैसी ही भक्ति का स्वरूप देखने को मिलता है । उदाहरण के रूप में प्रत्येक गांव-क्षेत्र में आयोजित भजन,कीर्तन इत्यादि में ढ़ोलक और झाल की थाप पर गवैये और श्रोताओं को झूम–झूम कर आनन्द लेते हुए देखा जा सकता है । यह अलग बात है कि इस प्रकार की भक्ति, क्षणिक-मनोरंजन का रूप धारण कर लेती है ।
उस समय पुष्टिमार्ग की भक्ति से समाज पर जो भी प्रभाव पड़ा हो, लेकिन आज के संदर्भ में पिछले दो दशकों से खासकर इक्कीसवीं शती के प्रारंभ होने के बाद, या यूँ कहें कि भूमण्डलीकरण के आगमन के बाद से इस प्रकार की भक्ति का स्वरूप बहुत कुछ बदल गया है । जहां पुष्टिमार्गीय भक्ति में सर्वस्व-समर्पण का भाव था, वहीं आज की भक्ति व्यापारिक हो गयी है । भक्त, भगवान को तभी याद करता है जब उससे कुछ लाभ लेना हो । लाभ मिलते ही ( चाहें जिस माध्यम से मिले ) भक्त सम्बन्ध विच्छेद् कर लेता है। इसके अलावा यह भी बताते चलें कि हम ज्यों ही अपना टेलीविजन चालू करते हैं, भक्तों के लिए भक्ति के लोक-लुभावने विज्ञापन दिखाई देने लगते हैं ।
जनता इसको किस रूप में लेती है यह उनकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता है। लेकिन समग्र रूप से देखा जाए तो आजकल भक्तों के उद्देश्य में भी अत्याधिक परिवर्तन आ गया है । पुष्टि-भक्ति मार्ग के समय में भक्त भगवान की भक्ति, मोक्ष या समाज कल्याण को ध्यान में रखकर करता था । परन्तु आज का भक्त अपने व्यक्तिगत दु:ख दूर करने के उद्देश्य से करता है । यह कहने की बात नहीं किन्तु विचारणीय जरूर है कि अब तो धर्म को आधार बनाकर सरकार भी अपने एजेण्डे तय करती है ।
अंततः यह कहा जा सकता है कि वल्लभाचार्य ने जनता के शुष्क पड़े हृदय में पुष्टि मार्ग की भक्ति के द्वारा एक नया संदेश संप्रेषित किया । यह दर्शन मूलतः अमूर्त के स्थान पर मूर्त के रूप में दर्शनों की विकास परम्परा के रूप में आगे विकसित हुआ, महाप्रभु ने शंकर के मायावाद और आत्मा-परमात्मा संबन्धी विचार का खण्डन-मण्डन करते हुए अपने दर्शन की नींव रखी तथा आगे चलकर उसका स्वरूप भी निर्धारित किया, तथा इस शुद्धाद्वैतवादी भक्ति के लिए ब्रम्ह के रूप में कृष्ण के स्वरूप को चुना । इसके अतिरिक्त उन्होंने भक्तों की व्याख्या करते हुए तीन प्रकार के जीवों के बारे में बताया । इन जीवों की व्याख्या बहुत कुछ मनुष्य की मनोवैज्ञानिक प्रवृति पर आधारित था । भक्ति की इस नवीन पद्धति को निर्धारित करते हुए उन्होंने सभी प्रकार के भेद-भाव मिटाकर मनुष्य मात्र के लिए भक्ति का द्वार खोल दिया, जिससे भेदभाव एवं भगवान से विमुख जनता का उद्धार संम्भव हो सका । नवधा भक्ति की प्रचलित परम्परा में से कीर्तन, श्रवण,पाद-पूजन इत्यादि आज भी हमें देखने को मिलते हैं, जिसका श्रेय वल्लभाचार्य को दिया जाना अतिशयोक्ति न होगी । धर्म और भक्ति सर्वदा मानव कल्याण मात्र के लिए होता है । लेकिन आज धर्म और भक्ति का जो स्वरूप है उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि महाप्रभु को आज के समय में होना चाहिए था ।
[1] सूरदास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,अनु प्रकाशन जयपुर – 2007 पृष्ठ -59
[2] अष्टछापेत्तर पुष्टिमार्गीय कवि :सिद्धान्त और साहित्य, डॉ. रामकृष्ण शर्मा, राधा पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली-1991,पृष्ठ – 14
[3] सूरदास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,अनु प्रकाशन जयपुर – 2007 पृष्ठ – 65
[5] हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,कमल प्रकाशन, नई दिल्ली – पृष्ठ -115
[6] अष्टछाप काव्य की अन्तरकथाओं का अध्ययन, डॉ.सरोज जैन, राधा पब्लिकेशन नई दिल्ली, पृष्ठ – 34