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राजस्थान की प्रथम नगर परिषद का ऐतिहासिक महत्व एवं महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता का एक विश्लेश्णात्मक अध्ययन: राजस्थान की प्रथम नगर परिषद्, ब्यावर के संदर्भ में

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राजस्थान की प्रथम नगर परिषद का ऐतिहासिक महत्व एवं महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता का एक विश्लेश्णात्मक अध्ययन: राजस्थान की प्रथम नगर परिषद्, ब्यावर के संदर्भ में

कविता अटवाल

शोधार्थी, राजनीति विज्ञान,

महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर (राजस्थान)

धर्मदास अटवाल

विभागाध्यक्ष एवं पीजीटी भाषा (हिन्दी),

आर्मी पब्लिक विद्यालय, मथुरा छावनी, उ.प्र.

सारांश

प्रस्तुत शोध पत्र राजस्थान प्रदेश की प्राचीनतम और प्रथम नगर परिषद्, ब्यावर को केन्द्रित करके प्रणित किया गया है, इसका उद्देश्य ब्रिटीशकाल में निर्मित ब्यावर शहर की नगर परिषद में महिलाओं की राजनीतिक स्थिति को स्पष्ट करना और स्त्रियों की सहभागिता को प्रकाश में लाना है। आज तक स्त्रियों के जीवन में होने वाले राजनीतिक अधिकारों और उनकी विकास गति को भी उपलब्ध कराया जाना शोध का महत्वपूर्ण कारण रहा है। आज़ादी के 75 वर्ष पूर्ण होने के पश्चात् उन बदलावों को सूचीबद्ध किया जाना, जिससे महिलाओं के जीवन स्तर में सुधार हो सके, शोध का प्रधान उद्देश्य है।

बीज शब्द: महिला, सशक्तिकरण, राजनीतिक, मेरवाडा, ब्रिटीशकाल, सहभागिता

शोध प्रविधि: प्रस्तुत शोध पत्र में प्राथमिक एवं द्वितीय आंकड़ों का प्रयोग किया है इसमें साक्षात्कार, समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं, पुस्तकों और इंटरनेट आदि का प्रयोग किया गया है।

शोध आलेख

प्रदेश का ब्यावर कस्बा सदैव ही अपनी प्राकृतिक सम्पदा और शौर्य बल के साथ ही साथ अपनी भौगोलिक स्थिति के लिए जाना जाता रहा है। यहा से पूरे प्रदेश के लिए मार्ग उपलब्ध होने के कारण राजस्थान पर आधिपत्य की दृष्टि से इस क्षेत्र पर अधिकार सबसे पहले आवश्यक है। इसी नजरिए से अजमेर क्षेत्र जिसके अंतर्गत ब्यावर क्षेत्र शामिल किया जाता है, पर अंग्रेज अपनी पहुंच और पकड़ बनाएं रखना चाहता थे। ब्रिटीशकाल में यही क्षेत्र केन्द्रशासित प्रदेश के रूप में था, जिस पर स्वतंत्र रूप से अंग्रेज अपना स्वतंत्र प्रशासन भी चलाते थे। इस क्षेत्र को वर्तमान राजस्थान राज्य के एकीकरण में अंतिम रूप से 01 नवम्बर 1956 को मिलाकर ही आधुनिक राजस्थान मूर्त रूप लेता है।

आज़ादी के पूर्व ब्रिटीश प्रशासकों ने अजमेर के इस क्षेत्र कोए अजमेर-मेरवाड़ा के अलग नाम से केन्द्रशासित प्रदेश बनाकर यहा अपनी शक्ति को केन्द्रीकृत किया। अजमेर तो मुख्य रूप से चला आ रहा वर्तमान जिला अजमेर शहर का नाम रहा है और मेरवाड़ा इसके आस-पास का क्षेत्र है। यह क्षेत्र मेरवाड़ा कहा जाने का भी विशेष कारण इस क्षेत्र में निवास करने वाली मेर नामक जाति है। यह पूरी दुनिया में हिन्दू और मुस्लिम एकता के लिए एक अनूठी कौम मानी जाती है, जो कि हिंदू-मुस्लिम रीति-रिवाजों को सयुक्त रूप से मानती है, तथा दोनों ही धर्मो के त्योहारों और उत्सवों को मनाती है। यह जाति अपने अदम्य शौर्य और बलिदान के लिए भी जानी जाती है। इस क्षेत्र में निवास करने वाली इस कौम में लगभग प्रत्येक परिवार अथवा घर का एक ना एक व्यक्ति सेना में अवश्य होगा। इस जाति के लोग देश सेवा के जज्बे से लबरेज होते है, तथा यहा के अधिकांश गांवों में सेना के शहीदों की छयाव चिह्न मिल जाते है। यहा का चप्पा-चप्पा भोमियां है और हर घर की फुलवारी वीरांगनाओं के पुष्पों से महकती है। इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति और अवस्थिति के कारण अंग्रेजों ने देश में पैर जमा लेने के बाद अपने भविष्य की योजनाओं को मूर्त रूप इसी क्षेत्र से दिया। इस दृष्टि से यह क्षेत्र अंग्रेजों की प्रयोगशाला रहा है, जिस पर देश के प्रशासन और नियंत्रण के प्रथम प्रयोग यही पर किए गए। उत्तर भारत का प्रथम गिरजाघर भी ब्यावर का शूलबे्रड चर्च है, जो की यही पर अवस्थित है। यही पर अंग्रेजों द्वारा प्रथम डिस्पेंसरी (चिकित्सालय) मेवाड़ी गेट के पास स्थापित की गई थी, तथा यही पर वर्तमान में पांच बत्ती बाज़ार के कपडा मार्केट में पुलिस थाने की स्थापना भी अंग्रेज प्रशासन ने की थी।

इतिहास के आइने से :

ब्यावर का ऐतिहासिक वर्चस्व कभी कम नहीं रहा है। 01 फरवरी 1836 को दिन के प्रातः 10.10 पर ब्यावर की स्थापना की नींव का प्रथम पत्थर आधुनिक अजमेरी गेट पर कर्नल चाल्र्स डिक्शन के द्वारा रखा गया था। साल 1839 को 144 मेरवाड़ा बटालियन की उपस्थिति में ब्रिटीश सरकार ने मेरवाड़ा स्टेट की घोषणा के साथ ही ब्यावर के महत्व को स्पष्ट कर दिया था। 01 मई 1867 को अंगे्रज सरकार ने मेरवाड़ा स्टेट के ब्यावर में शासन की सरलता के लिए कमिश्नरी राज (प्रजातांत्रिक गणराज्य) की स्थापना की जो भारत की स्वतंत्रता अर्थात 14 अगस्त 1947 तक अक्षुण्ण कायम रहा। देश की आज़ादी के आंदोलन में भी इस शहर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, राजपूताने की प्राचीनतम सैनिक छावनियों में से एक ब्यावर छावनी रही है और शहर के संस्थापक कर्नल डिक्सन इसी सैनिक छावनी के सदर थे, और उन्होंने इस शहर के सामरिक महत्व को जानकर ही एक आधुनिक शहर की स्थापना की थी। आज़ादी के पश्चात् अजमेर-मेरवाड़ा के इस केन्द्रशासित क्षेत्र को राजस्थान के एकीकरण के बाद अंतिम रूप से 01 नवम्बर 1956 को आज के राजस्थान का हिस्सा घोषित किया और अजमेर को जिला तथा ब्यावर को उपखण्ड का दर्जा दिया, जो कि आज भी जस का तस है।

ब्यावर नगर परिषद् और उसका वैभवशाली इतिहास :

1818 की सहायक संधियों के पश्चात् देश में अंग्रेजी राज्य की प्रगति में तीव्रोत्तर वृद्धि हुई और ब्रिटीश शासन महारानी के सीधे हस्तक्षेप में 1857 की क्रांति के बाद आ चुका था। ऐसे में अंग्रेजी राज इकाईयों में बांटकर एक नई व्यवस्था में विकसित होने लगा। शासन को सुविधा के नजरिये से बांटते हुए इनहे केन्द्रशासित प्रदेशों में बांटा जाने लगा। इस व्यवस्था में अजमेर-मेरवाडा एक केन्द्र शासित प्रदेश बना और अंग्रेजों ने इसका संचालन अपनी प्रयोगशाला के रूप में किया। किसी भी प्रकार की नई प्रयोग भूमि और योजनाओं के प्रारंभिक टेस्ट यही पर किए जाने लगे जैसे, उत्तर भारत का पहला प्रोटेस्टेट चर्च भी ब्यावर में बना, अंग्रेजों ने पुलिसिंग व्यवस्था की पहली चैकी और सिटी डिस्पेंसरी आदि योजनाओं के प्रथम प्रयोग इसी शहर में किए। लगभग 200 से अधिक वर्ष पुरानी अकबर-बीरबल की बादाशाह की सवारी इस शहर की अपनी ऐतिहासिक परंपरा है। अंग्रेज सेनाधिकारी कर्नल डिक्सन ने इस नए नगर को आधुनिक तकनीकि के साथ बसाया और उसे समकोण सड़कों से जोड़ा। ईसा मसीह के कू्रस के आधार पर शहर को बसाया गया और जातिवार बस्तियां बसाई गई। सम्पूर्ण विश्व में ब्यावर एकमात्र शहर है जो कि ईसाई धर्म के प्रतीक चिह्न कू्रस की आकृति पर ससुव्यवस्थित एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कर्नल चाल्र्स डिक्सन द्वारा स्थापित किया गया है। शहर के मध्य से गुजरता मार्ग जिस पर पाली बाजार बसाया गया और शहर की प्रत्येक सड़क से बाजार पहुचा जा सके ऐसी व्यवस्था के लिए समकोण सड़कों का विकास किया गया। शहर के परकोटे से लगी हुई नगर परिषद की भव्य इमारत, जिसके एक और बडा सा मिशन ग्राउण्ड और दूसरी ओर से अंग्रेजी शासन की सबसे बडी होलेंड स्कूल, जिसका नाम देश के प्रथम गृह मंत्री और उप प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम पर बदलकर पटेल स्कूल कर दिया गया है। आज की नगर परिषद ब्यावरए जिस इमारत में चल रही है, वह इमारत कभी टाउन हाल के नाम से विख्यात थी। अंग्रेजी शासन की समस्त बागडोर इस क्षेत्र में इसी इमारत से चलती थी। देश को दिया गया सूचना का अधिकार कानून की आवाज पूर्व आईएएस अधिकारी एवं सामाजिक कार्यकत्र्ता अरूणा रॉय एवं उनके संगठन ने ब्यावर के हृदय स्थल चांगगेट से पहलीबार उठाई थी, जहा आजकल स्मारक भी बना हुआ है। प्रदेश के 150 उपखंडों में ब्यावर सबसे बडा उपखण्ड है। ब्यावर नगर परिषद की स्थापना 01 मई 1867 को 1850 ई. के अंग्रेज सरकार के 26वें एक्ट की अनुशंसा में हुई। इसके संचालन के लिए कुल 15 सदस्य होते थे, जिनमें 12 सदस्य जनता द्वारा चुने जाते तथा 03 सदस्यों का मनोनयन अंग्रेज सरकार करती थी। इस समय नगर परिषद का अध्यक्ष अर्थात् चेयरमैन का पद सरकार द्वारा नियुक्त एक्सट्रा असिस्टेंट कमिश्नर होता था, पहले गैर सरकारी अध्यक्ष बनने वाले एडवोकेट लक्ष्मीनारायण माथुर थे। सरकार द्वारा इसके प्रथम सचिव के पद पर बंगाली अखैकुमार को नियुक्त किया गया था।

महिला सशाक्तिकरण एवं नगर परिषद ब्यावर :

भारतवर्ष में महिलाओं के राजनीतिक अधिकार एवं नागरिक क्षेत्रों में कार्य का दौर 90 के दशक से वास्तविक रूप में आरम्भ हुआ। इससे पूर्व यदा-कदा ही महिलाएं राजनीतिक और सार्वजनिक कार्यो में कभी उभर कर आ भी जाती तो अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण ही थी। इसमें भी कभी-कभी तो पुरूषों की अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए एक रबर स्टांम्प बनकर ही रह जाती थी। 90 के दशक से पंचायती राज और स्वायत्तशाषी संस्थाओं में आरक्षण और कुछ महिलाओं की दृढ़ इच्छा शक्ति का बड़ा हाथ रहा है। ऐसी ही स्थानीय नगर परिषद ब्यावर में प्रशासन और परिषद के कार्यो की विधिवत शुरूआत प्रथम प्रशासक कैम्पटन डौक्स की नियुक्ति 1904-1905 से होती है। अंग्रेजी हुक्मरानों की नियुक्तियां ब्यावर नगर परिषद में होती रही है, पहले भारतीय ब्यावर नगर परिषद में प्रशासक के रूप में नियुक्त होने वाले सैयद हुसैन (1906-1907) है। किसी महिला की नियुक्ति आजादी के 34 साल बाद में पहलीबार दिनांक 01.03.1981 से 31.03.1981 को सुश्री मीरा सहानी के रूप में होती है। ब्यावर नगर परिषद में सभापति के रूप में नियुक्त होने वाली प्रथम महिलानेत्री तारा झंवर (23.07.2004 से 27.11.2004) थी, जिन्हे राज्य सरकार ने सभापति प्रमोद सांखला के निलंबन के बाद मनोनीत किया था। 21वी सदी में जो शुरूआत तारा झंवर ने की वह निरन्तर आगे बढ़ने लगी। इनके बाद जयश्री जयपाल (28.11.2004 से 30.05.2007), रेखा जटिया (कार्यवाहक सभापति 08.06.2007 से 03.07.2007), श्रीमती पार्वती जाग्रत (04.07.2007 से 05.03.2009) तथा दो बार सभापति बनने का श्रेय श्रीमती शांति डाबला को जाता है जो कि पहलीबार कार्यवाहक सभापति तथा थोडे ही दिनों बाद सभापति (20.05.2009 से 26.11.2009) बनी। महिलाओं की राजनीति में भागीदारी का ग्राफ निरन्तर बढ़ रहा है, ब्यावर नगर परिषद में सर्वोच्च पद सभापति के लिए सबसे लंबी पारी खेलने का अभी तक किसी महिला का रिकार्ड रहा है, तो वो रहा है श्रीमती बबीता चैहान का, वे प्रथमबार निर्वाचित 26.11.2014 को हुई थी।

महिला सहभागिता और जननांकिय स्थिति :

यह पूर्व में ही स्पष्ट किया जा चुका है कि इस शहर की प्राचीनता और वैभव अतिप्राचीन होने के साथ साथ ब्रिटीशकाल के सीधे हस्तक्षेप में होने के कारण यहा पर अंग्रेजियत का विस्तार रहा है। आधुनिक शहर के निर्माता कर्नल डिक्सन ने भी जनसंख्या के हिसाब-किताब और 450 से अधिक भूखण्डों के पट्टे जारी करके जातिवार लोगों को नए शहर में सुनियोजित तरीके से बसाया था। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार ब्यावर शहर एवं ग्रामीण भागों में इस तहसील को बांटा गया हैं और इसी अनुसार भी जनसंख्या आंकलन किया गया है। ब्यावर शहरी क्षेत्र की कुल आबादी 151152 है, जिसमें पुरूष आबादी 77616 तथा महिला 73536 है। यहा साक्षरता भी अच्छी है कुल 84.39 प्रतिशत साक्षरता है, जिसमें पुरूष साक्षरता 91.54 प्रतिशत तथा महिला साक्षरता 76.61 है। शहरी क्षत्र में लिंगानुपात भी संतोषप्रद है, प्रति हजार पुरूषों पर 948 महिलाएं है।

ब्यावर का शहरी जननांकिय आरेख –

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आजादी के समय ब्यावर नगर परिषद के अध्यक्ष एडवोकेट मुकुटबिहारी भार्गव थे, तथा वाइस चेयरमैन पंडित बृजमोहनलाल थे। इस समय वार्डो की संख्या आठ थी, तथा प्रत्येक वार्ड से तीन सदस्य चुनकर आते थे। इस तरह आजादी के बाद तक 24 सदस्य चुनकर और 03 सदस्य सरकार द्वारा मनोनीत होते थे। 1971 में वार्डों की संख्या 22 कर दी गई और प्रत्येक वार्ड से एक सदस्य चुनकर आने लगा। 1972 में नगर परिषद बोर्ड का भंग सरकार द्वारा कर दिया गया और नगर परिषद का संचालन उपखण्ड अधिकारी को प्रशासक लगाकर किया जाने, जिसके विरूद्ध शहर के जागरूक नागरिक द्वारका प्रसाद मित्तल ने राजस्थान उच्च न्यायालय में जनहित याचिका लगाकर पुनः वर्ष 1988 से आम चुनाव कराये जाने लगे और समय सीमा भी अब पांच वर्ष कर दी गई। इस तरह 1988 से 2004 तक 3 बार आम चुनाव हुए, जिसमें कुल 135 पार्षद 16 वर्षो में चुने गए।

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ब्यावर नगर परिषद का विहंगम दृश्य

संदर्भ सूची:

  1. खुली बहियां एवं संचित लेख सूचियां।
  2. साक्षात्कार – इतिहासकार वासुदेव मंगल, संस्थापक ब्यावर इतिहास, साईट।
  3. राजस्थान पत्रिका, 06 फरवरी 2019 राजस्थान नगरपालिका कानून – डाॅ. बसन्तीलाल बाबेल
  4. नगर निगम चुनाव कानून – एड. उद्दीन (युग निर्माता पब्लिकेशन)
  5. महिला सशक्तिकरण, मानचन्द खंडेला (पोइन्टर पब्लिशर्स, जयपुर)
  6. आधी आबादी को पूरा हक, सरोकार – इरा झा (दैनिक जागरण, 1 सिंतबर 2009)
  7. नारी सशक्तिकरण – आशा कौशिक
  8. राजस्थान पत्रिका – समाचार पत्र
  9. दैनिक भास्कर – समाचार पत्र
  10. दैनिक नवज्योति – समाचार पत्र
  11. इलेक्ट्रोनिक मीडिया एवं इंटरनेट
  12. www.urban.rajasthan.gov.in
  13. www.censussindia.gov.in
  14. www.beawarhistory.com

कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में प्रकृति-बोध का आधुनिक सन्दर्भ

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kavita mein prakriti

कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में प्रकृति-बोध का आधुनिक सन्दर्भ

डॉ. सन्तोष विश्नोई

सम्पर्क- बुधाराम विश्नोई, आशीष पेट्रोल पम्प के पास,

एनएच 11, मोमासर बास, श्रीडूँगरगढ़ बीकानेर-331803

मो. 9887547908

शोध सारांश

कवि केदारनाथ अग्रवाल का प्रगतिशील कवियों में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। उनकी कविता ग्रामीण परिवेश एवं जनजीवन को मानवीय आधार प्रदान करती नज़र आती है। दूसरे शब्दों में कहें तो वे लोकजीवन के कवि है। उनकी ‘कविता का प्राणतत्व लोकजीवन’ है। यह बहुत बड़ा सच है कि कविता को अनिवार्यतः लोक से जुड़ना ही पड़ता है। क्योंकि कविता की सामूहिक चेतना लोक से उपजी है, इसी लोक से कविता में सहजता आती है। कविता की रचनात्मक जटिलता के बावजूद वह लोक तत्वों से ही अधिकाधिक संप्रेषणीय बन जाती है।

बीज शब्द – कवि केदारनाथ, प्रकृति-बोध, आधुनिकता, लोकजीवन, प्रकृति की कविता, गाँव एवं प्रकृति

शोध आलेख

प्रकृति और मनुष्य का नाता बहुत पुराना है। सौंदर्य का क्षेत्र मुख्यतः प्राकृतिक उपादानों से बना होता है। मनुष्य के इन्द्रियबोध का विकास प्रकृति के घात-प्रतिघात का परिणाम है। केदारनाथ सहृदय संवेद्य भावबोध के कवि हैं, प्रकृति उनकी कविताओं में पूर्ण सौष्ठव और निखार पाकर गौरवान्वित हुई है। केदारनाथ अग्रवाल की रचनाओं में परम्परागत रूप से लोकतत्वों का निरूपण नहीं हुआ है फिर भी उनका काव्य लोक-जीवन के हर रंग से रंगा गया है। इनकी कविताओं में मानव और प्रकृति के सौंदर्य का सहज, वेगवान और उन्मुक्त रूप मिलता है। गाँव एवं प्रकृति के प्रति उनकी कविता में आत्मीयता दिखाई देती है। गोविन्द प्रसाद कहते हैं कि ‘‘केदारनाथ अग्रवाल की कविता का स्थायी भाव प्रकृति है, उसमें भी प्रकृति का लोक रूप उन्हें सहज ही आकृष्ट करता है। परिणामस्वरूप कभी नारी और प्रकृति का योग चेतन को स्फुरित करता है तो कभी मजदूर किसान का श्रम-संघर्ष और कभी प्रकृति का ताना-बाना कवि के संवेदन को काव्य संस्कार देता चलता है। कवि केदार की अधिकांश कविताएँ इसी पैटर्न पर चलती हैं। अपवाद के रूप में कुछ कविताएँ विशुद्ध प्रकृति पर भी मिल जाएगी।’’[1] सबसे खास बात यह है कि केदारनाथ अग्रवाल के प्रकृति चित्रण में संवेदनात्मक पक्ष कभी उपेक्षित नहीं रहा, बल्कि केदारनाथ के काव्य में प्रकृति का जन-जीवन के बुनियादी सवालों से सीधा सरोकार करती नज़र आती है। इसलिए सच्चे मायने में केदारनाथ लोकधर्मी संवेदना के सर्वश्रेष्ठ कवि है। वे कहते हैं-

‘‘छोटे हाथ/सबेरा होते

लाल कमल से खिल उठते हैं।

करनी करने को उत्सुक हो,

धूप हवा में हिल उठते हैं।

छोटे हाथ/परिश्रम करते

ईंटों पर ईंटें धरते हैं।

मधुमक्खी से तन्मय होकर

मधुकोषों से घर रचते हैं

हर घर में आशा रहती हैं

आशा के बच्चे पलते हैं।’’[2]

केदारनाथ के काव्य में चित्रित प्रकृति की विशेषता बताते हुए नरेन्द्र पुंडरीक लिखते हैं, ‘‘वे अकसर क्षण की अनुभूतियां और चित्र प्रस्तुत करते हैं, लेकिन उनका समर्पण क्षण को नहीं बल्कि युग को है, क्षण को प्रस्तुत करते हुए भी क्षण का मोह छोड़ने में ही केदार का व्यक्तित्व विशद् और अर्थ से भरा हुआ है। सरलता में संश्लिष्टता, सहजता में रूप, बिंब में अर्थ, यथार्थ में कल्पना, क्षण में युग और वर्तमान में भविष्य की अन्वित से समृद्ध केदार के स्वर आधुनिक हिन्दी कविता की बहुत बड़ी उपलब्धि हैं, केदारनाथ अग्रवाल की प्राकृत सौंदर्य की कविताओं में बिंबों का संश्लिष्ट रूप ही नहीं भाषा का वह फोटोजनित सौंदर्य भी है कि एक दम से आँखें रूक एवं टकी-सी रह जाती हैं।’’[3] कवि केदारनाथ के काव्य में ग्रामीण भारत और आम जनजीवन के दैनिक संघर्षों की विविध एवं वास्तविक चित्र खींचा गया है। उनके काव्य में लोक-जीवन और ग्रामीण जीवन की संवेदना का विविध रूपों में चित्रण पाया जाता है। जिसमें खेत की बुवाई, कटाई करते किसान वर्ग है और श्रमिक अपने हक और अधिकार के लिए संगठित होकर मजदूरी करता श्रमिक, गाँव की सुबह, शाम, धूप, बारिश आदि सभी का यथार्थ चित्रण उनकी कविताओं का विषय बने हैं। गाँवों की जीवंतता, नैसर्गिकता को कवि ने सहजता से प्रस्तुत किया है-

‘‘नीम के फूल

दूध की फुटकियों से झरे

मुलायम-मुलायम

कठोर भूमि पर बिखरे

जैसे कोई

प्यार से शरीर स्पर्श करें।’’[4]

केदारनाथ अग्रवाल में बिम्ब विधान की अद्भुत शक्ति है, वे सक्षम बिंब विधायक है। नरेन्द्र पुंडरीक का कथन है कि ‘‘केदार के सौंदर्य बिंबों में एक भी बिंब ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें जीवन के प्रति उद्दाम ललक न हो, जीवन होगा और जीवन से जुड़े श्रम का सौंदर्य अनिवार्य रूप से उसमें परिलक्षित होता है।’’[5] लोक-जीवन में प्रकृति और मानव दोनों सहचर हैं। केदारनाथ अग्रवाल के काव्य में लोक-जीवन के साथ प्रकृति का स्वाभाविक चित्रण मिलता है। कवि के इस चित्रण में प्रगतिशीलता और लोकधर्मी संवेदना का अनोखा रूपायन सहजता से प्रकट हुआ है। प्रकृति और लोक-जीवन की संवेदनाओं का ऐसा चित्रण अन्यत्र मिलना दुर्लभ होता है। प्रकृति के माध्यम से कवि ने होली का जो गत्यात्मक बिंब बुना है, वह लोक प्रचलित बिंब से ग्रहित है। उदाहरण-

‘‘फूलों ने /होली

फूलों से खेली

लाल गुलाबी/ पीत-परागी

रंगों की रंगरेली पेली

काम्य कपोली /कुंज-किलोली

अंगों की अठखेली खेली।’’[6]

डॉ. रवीन्द्रनाथ मिश्र कहते हैं कि, ‘‘कवि केदार की कविता में प्रकृति और लोक परिवेश की सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका को अलग करके नहीं देखा जा सकता। कालिदास, तुलसीदास, निराला, नागार्जुन की परम्परा में केदार के घन लोकजन के कल्याण से जुड़े हैं। केदार की लोक-दृष्टि मानववादी है। लोक-जीवन का कोई ऐसा कोना नहीं है जो कि उनकी आँखों से ओझल हो गया है।’’[7] कवि केदारनाथ ने लोक-जीवन का इतना गहराई से चित्र खींचा है कि उनकी आँखों से छोटी-छोटी संवेदनाएँ भी कहीं ओझल नहीं हो पाई हैं। जिस प्रकार वे सहज जीवन बोध के कवि हैं, उसी प्रकार प्रकृति भी उनकी कविता में सहज बोध को व्यक्त करती है। उनकी रचनाओं में ग्रामीण जन-जीवन की धड़कने बोलती है। सही अर्थों में वे ग्रामीण सामाजिक जीवन के चितेरे हैं। डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं, ‘‘केदार का गाँव सारे देश की प्रगति-दुर्गति का मानदंड बन जाता है।’’[8] केदारनाथ अग्रवाल मूलतः किसान और श्रम के कवि हैं, उनकी कविताएँ गाँव व किसान का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती है। इसलिए डॉ. रामविलास शर्मा आगे लिखते हैं कि ‘‘दूर खड़े होकर किसान को देखने वाले कवि और होंगे केदार बहुत नजदीक से उसकी श्रम प्रक्रिया देखते और उसका वर्णन करते हैं…उनकी कविता देखने में बहुत आसान लगती हैं, आकार में भी बहुत छोटी होती है, इसलिए उनकी सरलता भुलावे में डाल देती है। कई बार पढ़ने, ठहर कर विचार करने, कवि की मनोदशा में डूबने से उनकी गहराई का अंदाजा होता है। उनकी भाषा देखकर लगता है कि कोई किसान कविता लिख रहा है।’’[9] कवि संवेद्य बिंबों की रचना से पूरा ग्रामीण जीवन और भारतीय संस्कृति का संस्कार उतार देता हैं-

‘‘ये माटी के दिए/मौन जलते /मुसकाते

अंधकार को मार भगाते/ पावन पर्व प्रकाश मनाते।’’[10]

कवि केदारनाथ ने प्रकृति के सामान्य रूपों में ऋतुओं की सुंदरता का चित्रण बड़ी संजीदगी से अंकित किया है। वे बसंत ऋतु का स्वरूप कुछ इस तरह दिखाते हैं –

‘‘यह बसंत जो

धूप, हवा, मैदान, खेत, खलिहान, बाग में

निराकार मन्मथ मदांध-सा रात-दिवस साँसे लेता हैं

जानी-अनजानी सुधियों के कितने-कितने संवेदों से

सरवर, सरिता

लता गुल्म को, तरु-पातों को छू लेता है

और हजारों फूलों की रंगीन सुगंधित सजी डोलियां

यहां वहां चहुं ओर खोलकर मनोमोहिनी रख देता है

वही हमारे/ और तुम्हारे अंतःपुर में

आज समाए /हमको-तुमको

आलिंगन की मन्मयता में एक बनाए।’’[11]

इस प्रकार शरद को देखकर वे चित्रित करते हैं –

‘‘मुग्ध कमल की तरह /पांखुरी-पलकें खोले

कंधों पर अलियों की व्याकुल

अलकें तोले / तरल ताल से

दिवस श रद के पास बुलाते

मेरे मन में रस पीने की / प्यास जगाते।’’[12]

इनकी अधिकांश कविताओं में प्रकृति के मानवीकरण का दर्शन देखते हैं और वह मनुष्य के साथ, साथी बनकर संघर्ष करती है। केदार ने बादलों के गर्जन, तर्जन और बारिश के श्रव्य बिंब बहुत सुंदर खींचा है जिसमें वर्षा पूर्व और वर्षा बाद के परिवर्तन स्पष्ट झलकते हैं-

‘‘अंबर का छाया मेघालय

तड़-तड़-तड़-तड़ / तड़का टूटा

रोर-रोर ही / फूटा, फैला

चपला चैंकी/ फिर-फिर चैंकी

बाहर आकर/ चम-चम चमकी

गदगद-गदगद/ गिरा दौंगरा

पानी-पानी हुआ धरातल

कल-कल/ छल-छल

लहरा आंचल।’’ [13]

केदारनाथ ने प्रकृति के जीवन उपयोगी सभी उपादानों को अपने काव्य की विषयवस्तु बनाया, उनकी कविता में चित्रात्मकता, तार्किकता और बौद्धिकता के समावेश से भरी होती है,। केदारनाथ अग्रवाल के काव्य चित्रों की विशेषता बताते हुए मंजुल उपाध्याय लिखते हैं, ‘‘केदारनाथ के चित्रों की विशेषता यह है कि वे उनके भावों को स्थापत्य प्रदान करते हैं। इसी कारण उनकी कविता में स्थापत्य-जैसी परिपूर्णता होती है। तरलता अथवा गति की कमी उसमें नहीं होती, लेकिन अपनी ओर कवि उसे एक रूप में बाँध देता है। यह बात केदार की छोटी-छोटी कविताओं में खासतौर से देखी जा सकती है, जिनमें वे एक ही चित्र अंकित करते हैं और उसे तरह से ‘फिनिश’ कर देते हैं।’’[14] उनके काव्य में ऐसी अनेक कविताएँ देखने को मिलती हैं जिनमें न केवल प्रकृति का सुंदर रूप हमारे आता है बल्कि उनके माध्यम से देश की तत्कालीन परिस्थितियों, समस्याओं की व्यंजना भी है। वे लिखते हैं –

‘‘यह धरती है उस किसान की

जो मिट्टी का पूर्ण पारखी

जो मिट्टी के संग साथ है

तपकर/गलकर/जीकर/मरकर/

खपा रहा है जीवन अपना

देख रहा है मिट्टी में सोने का सपना

मिट्टी की महिमा गाता

मिट्टी के ही अंतस्थल में

अपने तन की खाद मिलाकर

मिट्टी को जीवित रखता है

खुद जीता है।’’[15]

कवि केदारनाथ ने अपनी प्राकृतिक कविताओं में लोक-जीवन के गहरे और व्यापक परिप्रेक्ष्य में जन-जीवन और प्रकृति को परस्पर गूंथा है। वे लोक बिंबों और लोक गीतों की सहज लय में ग्रामीण सौंदर्य को अभिव्यक्त किया है। यहीं नहीं, इनके यहां लोक-जीवन के पारिवारिक और सामाजिक संबंध भी प्रकृति के विविध उपादानों द्वारा साकार हो उठे हैं इसलिए केदारनाथ के अनुसार ‘धूप मैके में आई बेटी की तरह मग्न और प्रसन्न है-

‘‘धूप चमकती है चांदी की साड़ी पहने

मैके में आई बेटी की तरह मगन है

फूली सरसों की छाती से लिपट गयी है

जैसे दो हमजोली सखियां गले मिली हैं

भैया की बांहों से छूटी भौजाई-सी

लंहगे को लहराती लचती हवा चली है।’’[16]

प्रस्तुत उदाहरण में कवि ने जिस बिंब को उकेरा है वह लोकजीवन से कवि के निकट परिचय का प्रमाण है। इस बिंब में ग्रामीण प्रकृति अपनी संस्कृति के साथ मिलकर संयुक्त रूप में प्रकट हुई है। ग्रामीण संस्कृति की होली उत्सव की झलक उनकी फाल्गुनी प्रकृति में मिलती है-

‘‘चोली फटी सरस सरसों की

नीचे गिरा फागुनी लहंगा

ऊपर उड़ी चुनरिया नीली

देखो हुई पहाड़ी विवसन।’’[17]

प्रकृति के इन रम्य-मधुर चित्रों द्वारा केदारनाथ ने ग्रामीण लोक जीवन की यथार्थ झांकी बुनी है। लोक-जीवन में प्रचलित रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार आदि को सामाजिक -सांस्कृतिक परिवेश के साथ अपनी कविताओं में समेटने का प्रयास किया है। इसलिए कवि की प्रकृति-चित्रण केवल प्रकृति के सौंदर्य का यथातथ्य वर्णन मात्र नहीं है बल्कि वह लोक जीवन की सामाजिकता से समन्वित सौंदर्य का रूपायन है। यही कारण है कि डॉ. रामविलास शर्मा उनकी कविताओं को लोकसंस्कृति की उपज मानते हैं, जो लोक संस्कृति को समृद्ध करती है।’’[18] केदारनाथ अग्रवाल की कविता में प्रकृति भी अपने सौंदर्य के साथ निखरी है। उनकी कविताओं में ‘‘पश्चिमी अस्तित्ववादी ढंग का, अमूर्त और व्यक्तिवादी अजनबीपन दिखाई नहीं देता, तो इसका कारण कवि का देश और जन से सच्चे रूप से जुड़ा होना है। क्योंकि वे स्वयं देश और लोक के बीच अपने को अजनबी महसूस नहीं करते थे और लोगों के बीच जीते थे। अतः उनकी कविताएँ भाववादी अजनबीपन के एहसास से दूर रही है।’’[19] कवि गाँव के वास्तविक रूप को अपनी कविता के माध्यम से चित्रित करते हैं-

‘‘सड़े घर की, गोबर की बदबू से दबकर

महक जिंदगी के गुलाब की मर जाती है।’’[20]

कवि केदारनाथ अग्रवाल प्रकृति के ऐसे चितेरे हैं जो मानव की अनुभूतियों को निसर्ग में स्थापित करते हुए काव्य की रचना की है जिसमें लोक-बोध संवेदना के साथ बखूबी वर्णन किया है। डॉ. रामविलास शर्मा का कथन है कि, ‘‘आकाश, पवन, जल, प्रकाश-इन्हें देखकर केदार की प्रतिक्रिया गणसमाजी की उस आदिम मानव सी होती है, जो उत्पादन का इतना विकास कर चुका हो कि प्रकृति से त्रस्त न हो, देवी-देवताओं को पशुबलि अथवा नरबलि से तुष्ट करने को प्रवृत्त न हो, उगते हुए सूर्य को देखने और उससे प्रसन्न होने की क्षमता उसमें हो।…आज का किसान गणसमाजों के प्रकृति प्रेमी उक्त आदिम मानव का है। आज का किसान गणसमाजों का साम्यवादी संस्कार अपने उप-चेतन में कहीं गहरे संजोये हैं, ठीक वैसे ही प्रकृति से उसका वह हर्ष उल्लास वाला संबंध अब भी कहीं अटूट बना हुआ है। केदार इस अटूट संबंध के कवि हैं, राजनीति के स्तर से और गहरे उतर कर वह अपने देश की जनता के सूक्ष्म, आदिम संस्कार सूत्रों से बंधे हैं।’’[21]

प्रकृति में मनुष्य का हस्तक्षेप बढ़ने से मानव प्रकृति का उपकरण न रहकर प्रकृति को ही उसने अपना उपकरण बना लिया है। प्रकृति चित्रण में कवि ने प्रकृति के किसी भी रमणीय दृश्य के अंकन करने से अपने को वंचित नहीं रखा। केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में प्रकृति का जो वर्णन मिलता है, उसमें वह बोलती हुई दिखाई देती है। केदारनाथ के काव्य में जिस प्राकृतिक सौंदर्य का अंकन हुआ है, वे प्रकृति के कोमल और कठोर दोनों रूपों में देखते हैं। उनकी प्रकृति विषय कविताओं में प्रकृति के लगभग सभी उपादानों पर कविताओं की रचना हुई है। वे बुंदेलखंड की धरती से जुड़े कवि है। उन्होंने वहाँ के खेतों-खलिहानों, पशु-पक्षियों, नदी आदि पर सशक्त कविताओं की रचना की है। इसके अलावा भी कवि की दृष्टि से प्रकृति का कोई अंग ऐसा नहीं है, जो ओझल हुआ हो। उनकी प्रकृति विषयक कविताओं को पढ़कर यह पूरा संसार सुंदर लगने लगता है। उनकी प्रसिद्ध कविता है-

‘‘फूल नहीं/ रंग बोलते हैं

पंखुरियों से/ समुद्र के अंतस्तल के

नील, श्वेत और गुलाबी

शंख बोलते हैं बल्लरियों से

फूल अखंड मौन हैं

रंग अमन्द नाद है/ अखंड मौन

अमन्द नाद

एक ही वृन्त पवर प्रतिष्ठित

धैर्य और उन्माद है।’’[22]

उन्होंने प्रकृति के छोटे से छोटे और बड़े से बड़े तत्वों का चित्रण अपनी कविताओं में किया है। धरती, आसमान, नदी, झरना, खेत-खलिहान, हवा, सूरज, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, बाग-बगीचे, फूल, पहाड़, पत्थर, बादल, धूप आदि का सुंदर चित्रण उन्होंने अपनी कविताओं में किया है। ग्राम प्रकृति के जितने भी चित्र हो सकते हैं, उन्होंने उन सबको अपनी कविताओं उतारने का प्रयास किया है। ‘‘केदार की कविताओं का असली वैभव उनकी प्रकृतिविषयक कविताओं में प्रकट हुआ है। उनकी प्रकृति स्वतंत्र भी है और वह उनके प्रेम तथा उनकी लोकचेतना अथवा जनचेतना से भी जुड़ी हुई है। छायावादी की तुलना में वह अत्यधिक मूर्त है, यानी उसमें ऐंद्रियता बहुत ज्यादा है। केदार ने ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ की भूमिका में कहा भी है कि मैंने प्रकृति को चित्र में देखा है।’’[23]

निष्कर्षतः प्रकृति चित्रण में कवि ने प्रकृति के किसी भी रमणीक दृश्य के अंकन करने से अपने को वंचित नहीं रखा। केदारनाथ की प्रकृति रचना में क्षण तो छूटा ही नहीं बल्कि अनंत को भी बांधा गया है। यही प्रकृति के सर्वोत्तम चितेरे कवि की श्रेष्ठतम विशेषता है। केदारनाथ के काव्य में प्रकृति के महत्त्व को बताते हुए डॉ. रणजीत का कथन है-‘‘हिन्दी के प्रगतिशील कवियों में केदारनाथ अपने प्रकृति प्रेम और आँचलिक कविताओं के कारण याद किए जाते रहेंगे।’’[24] निस्संदेह केदारनाथ अग्रवाल की कविता लोक-जीवन की संवेदनाओं की कविता है, जिसमें प्रकृति चित्र भी लोक-जीवन को महकाने के लिए उतरती है। उनके काव्य में प्रकृति चित्रण अनेक बार मनुष्य-जीवन के यथार्थ सत्य का बोध कराने के लिए इनकी कविताओं में प्रकट हुई है। डॉ. खगेंद्र ठाकुर केदारनाथ अग्रवाल की संवेदना के बारे में लिखते हैं ‘वे जीवन की समग्रता के कवि है।’’ [25]

सन्दर्भ सूची:

  1. गोबिंद प्रसाद, कविता के सम्मुख, पृ. 84
  2. केदारनाथ अग्रवाल, गुलमेंहदी, पृ.133
  3. आजकल मासिक, नरेन्द्र पुंडरीक, मई 2011, पृ. 36
  4. केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 109
  5. आजकल मासिक, नरेन्द्र पुंडरीक, मई 2011, पृ. 37
  6. केदारनाथ अग्रवाल, खुली आँखे खुले डैने, पृ. 54
  7. डॉ. रवीन्द्रनाथ मिश्र, केदार काव्य की लोकधर्मिता, आलोचना त्रैमासिक, जुलाई-सितंबर 2011, पृ. 66
  8. डॉ. रामविलास शर्मा, प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल, पृ. 46
  9. डॉ. रामविलास शर्मा, प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल, पृ. 47
  10. केदारनाथ अग्रवाल, पुष्पदीप, पृ. 36
  11. केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 39
  12. केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 62
  13. केदारनाथ अग्रवाल, खुली आँखे खुले डैने, पृ. 86
  14. नंदकिशोर नवल, अथातो काव्य जिज्ञासा, पृ. 100
  15. केदारनाथ अग्रवाल, गुलमेंहदी, पृ. 56
  16. केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 63
  17. केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 154
  18. डॉ. शशि शर्मा, प्रगतिशील कविता में लोकतत्त्व, पृ. 77
  19. डॉ. मधुछंदा, श्रम का सौंदर्यशास्त्र और केदारनाथ अग्रवाल का काव्य, पृ. 131
  20. केदारनाथ अग्रवाल, गुलमेंहदी, पृ. 63
  21. डॉ. रामविलास शर्मा, प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल, पृ. 58-59
  22. केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 107
  23. नंदकिशोर नवल, केदारनाथ अग्रवाल की काव्य-चेतना, बांदा का योगी: केदार, विश्वरंजन (संपा.) पृ. 393
  24. विजेन्द नारायण सिंह, केदार व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ. 105
  25. वसुधा पत्रिका, अंक जनवरी-जून 1987, पृ. 70
  1. गोबिंद प्रसाद, कविता के सम्मुख, पृ. 84

  2. केदारनाथ अग्रवाल, गुलमेंहदी, पृ.133

  3. आजकल मासिक, नरेन्द्र पुंडरीक, मई 2011, पृ. 36

  4. केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 109

  5. आजकल मासिक, नरेन्द्र पुंडरीक, मई 2011, पृ. 37

  6. केदारनाथ अग्रवाल, खुली आँखे खुले डैने, पृ. 54

  7. डॉ. रवीन्द्रनाथ मिश्र, केदार काव्य की लोकधर्मिता, आलोचना त्रैमासिक, जुलाई-सितंबर 2011, पृ. 66

  8. डॉ. रामविलास शर्मा, प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल, पृ. 46

  9. डॉ. रामविलास शर्मा, प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल, पृ. 47

  10. केदारनाथ अग्रवाल, पुष्पदीप, पृ. 36

  11. केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 39

  12. केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 62

  13. केदारनाथ अग्रवाल, खुली आँखे खुले डैने, पृ. 86

  14. नंदकिशोर नवल, अथातो काव्य जिज्ञासा, पृ. 100

  15. केदारनाथ अग्रवाल, गुलमेंहदी, पृ. 56

  16. केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 63

  17. केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 154

  18. डॉ. शशि शर्मा, प्रगतिशील कविता में लोकतत्त्व, पृ. 77

  19. डॉ. मधुछंदा, श्रम का सौंदर्यशास्त्र और केदारनाथ अग्रवाल का काव्य, पृ. 131

  20. केदारनाथ अग्रवाल, गुलमेंहदी, पृ. 63

  21. डॉ. रामविलास शर्मा, प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल, पृ. 58-59

  22. केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 107

  23. नंदकिशोर नवल, केदारनाथ अग्रवाल की काव्य-चेतना, बांदा का योगी: केदार, विश्वरंजन (संपा.) पृ. 393

  24. विजेन्द नारायण सिंह, केदार व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ. 105

  25. वसुधा पत्रिका, अंक जनवरी-जून 1987, पृ. 70

मनुष्य और पशु के साहचर्य जीवन को दर्ज करती रेणु की कहानी ‘तॅबे एकला चलो रे’

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renu kahani

मनुष्य और पशु के साहचर्य जीवन को दर्ज करती रेणु की कहानी ‘तॅबे एकला चलो रे’

डॉ. मणिबेन पटेल

8383805299

शोध सारांश

फणीश्वर नाथ रेणु अपने समाज, परिवेश, लोक संस्कृति और संवेदना के महान कथाकार हैं। उनकी कहानियों में बिहार क्षेत्र (विशेषतया; मैथिल अंचल तथा बिहार-बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्रों) का लोकजीवन, आंचलिक परिवेश दृष्टिगत होता है। स्थानीय रंग, रूप, गंध, स्पर्श – सभी को रेणु एक सूत्र में पिरोते हैं।‘तॅबे एकला चलो रे’ इनकी चर्चित कहानियों में से एक है। यह कहानी तमाम संवेदनाओं और भावनाओं से बुनी गई है। इसमें संवेदना का विस्तार मनुष्यों की भाव-भूमि से विस्तृत होकर पशु जगत तक दिखाई पड़ता है।

बीज शब्द: साहित्य, परिवेश, लोक संस्कृति, कथाकार, क्षेत्र

शोध आलेख

फणीश्वर नाथ रेणु अपने समाज, परिवेश, लोक संस्कृति और संवेदना के महान कथाकार हैं। उनकी कहानियों में बिहार क्षेत्र (विशेषतया; मैथिल अंचल तथा बिहार-बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्रों) का लोकजीवन, आंचलिक परिवेश दृष्टिगत होता है। स्थानीय रंग, रूप, गंध, स्पर्श – सभी को रेणु एक सूत्र में पिरोते हैं।‘तॅबे एकला चलो रे’ इनकी चर्चित कहानियों में से एक है। यह कहानी तमाम संवेदनाओं और भावनाओं से बुनी गई है। इसमें संवेदना का विस्तार मनुष्यों की भाव-भूमि से विस्तृत होकर पशु जगत तक दिखाई पड़ता है।

कहानी की शुरूआत लालबाबू की भैंस के बच्चे (पाड़ा) के जन्म से होता है। अनुपयोगी समझकर लोग उसकी उपेक्षा करते हैं। यहाँ तक कि उसके लिए अमंगल वचन बोलते हैं। मनुष्य के उपयोगितावादी नजरिए के कारण उसके साथ उचित न्याय नहीं होता। लेखक मनुष्यों में बेटी और पशु जगत में बेटा अर्थात नर के प्रति नकार के भाव की भारतीय कुरूप मानसिकता को बेहद सहजता के साथ उजागर करते हैं। कहानी में गाँव और परिवार के बड़े-बूढ़े षष्ठी माँ से प्रार्थना करते हैं – ‘‘जय मैया छठी! मानुस को दो बेटा, पसु को बेटी।… ले जा मैया पाड़ा, दे जा मैया पाड़ी। ’’1‘ले जा’ से अर्थ है उठा लो अथवा बलिदान लो। यह उपयोगितावादी दृष्टि मनुष्य समाज की विडंबना है। वह चीजों को तब तक स्वीकार नहीं करना चाहता जब तक कि उसमें स्वयं उसे अपना हित ना दिखे। पाड़ा (किसन महराज) के साथ भी यही होता है।

‘‘ किसन महराज को कौवे तंग करते … बेचारा शुभ दिन में धरती पर आया और जन्म से ही अपमान और लाँछना सह रहा है ! पाड़ी होती तो गले में कौड़ियों की माला के साथ एक टुनटुनी भी पड़ी होती। कोई आँख के कीचड़ पोछ जाती, हवेली से बाहर निकल कर कोई बड़ी जतन से दूध में जड़ी घिस कर पिलाती- चुचकार कर। घर की बड़ी बूढ़ी सदा तीर धनुष लेकर बथान को अगोरती। उड़ने वाले हर परेवा पंछी को कौवा समझ कर हाँकती।’’2

लालबाबू, किसन महराज (पाड़ा) के दुख से दुखी है। उसका डगमग करके चलना लेखक को जैसे बाल्यकाल के तुलसी के राम की याद दिला देता है।‘ठुमकि-ठुमकि प्रभु चलहिं पराई !’यह सौंदर्य बोध अद्भुत है। गाँव, परिवार की उपेक्षा के बाद भी बिना किसी की परवाह किये लेखक अपनी आत्मा की आवाज सुनता है और उसे अपने साहचर्य में रखता है। उसे स्नेह के साथ दुलारता पुचकारता है।‘‘उसे दिखलाकर मैंने पाड़े के मुँह के पास अपना मुँह लाकर चुचकार दिया। चु: चु: !… आदमी के उस पिद्दी बच्चे ने मेरी ओर घृणा भरी दृष्टि से देखा, फिर धरती पर थूकता हुआ आँगन की ओर भागा – राम! राम! तोबा, तोबा! बाबूजी निरघिन डोम भेल – पाड़ा क थुथनी में चुम्मा लेल… !’’3 दरअसल सामाजिक रूप से अत्यंत ही घृणित व्यक्ति को मिथिलांचल में ‘निरघिनडोम’ कहा जाता है। लेखक ने अपनी कहानियों में लोक भाषा का जबरदस्त प्रयोग किया है। भौगोलिक रूप से मिथिला और बांग्ला एक दूसरे से जुड़े भूभाग भी हैं। इसलिए भी कहानियों में बंगला और मैथिली शब्द ही ज्यादातर प्रयुक्त हैं।‘‘पूरब मुलुक से आए हुए व्यापारियों के दल का कोई ‘लबाना’(पाड़ा खरीदने वाला) इसके पुट्ठे पर हाथ रख कर परीक्षा करेगा– अभी तो एकदम बच्चा है। हल में लगाने के काबिल नहीं …लेबोना, एटा लेबोना!… शायद हर बात में लेबोना सुनकर ही लोगों ने इन व्यापारियों को लबाना कहना शुरू किया।’’4 ग्रामीण परिवेश, रहन-सहन, बोली- बानी, प्रकृति को सजीव रूप में इन्होंने अंकित किया है। देहात के सरल जीवन में आत्मीयता अधिक है। नफा-नुकसान से परे भी एक संबंध है जो ग्रामीण संस्कृति की धड़कन में बसता है। जीवन के विविध रूपों, उसकी सरल सहज वृत्ति, मनोदशा का हृदयस्पर्शी चित्रण रेणु ने किया है। किसन महाराज को परिवार के लोगों द्वारा मकदूम मियां के हाथ नब्बे रुपये में बेच देने के बावजूद लालबाबू गाँव लौटने पर एक सौ दस रुपये देकर पाड़ा को वापस लाता है। अपने मालिक के प्रति पशु का अद्भुत प्रेम प्रेमचंद की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ के हीरा मोती की याद दिला देता है। इसका वर्णन लेखक अपनी पत्नी के द्वारा कुछ इस प्रकार से करवाते हैं- ‘‘कन्हाई बाबू ने रुपए गिन कर मकदूम के हाथ में पाड़े की रस्सी थमा दी, लेकिन पाड़ा रस्सी तुड़ाकर आँगन भाग आया, मेरे पास। मैं रसोई घर में थी। वहाँ पहुँचकर डिकरने लगा।… एह! आँख से लोर झहर-झहर झर रहे थे … आँचल में छिपने की कोशिश कर रहा हो मानो।’’5 मनुष्य और पशु के भावनात्मक रिश्ते, अपनेपन की गंध, सहज वृत्ति जैसे इस कहानी में मूर्त हो उठी है। लालबाबू पाँच-पंचों के बीच में कह आता है कि यह पाड़ा आज से सबका हुआ, गाँव का, इलाके का। धीरे धीरे यह सबका प्यारा हो जाता है। गाँव भर के बच्चे इस पर सवारी करते हैं। दरअसल गाँव में सुख शांति लेखक का सपना है और उसके द्वारा गढ़ा गया पात्र ‘किसन’ इस सपने को पूरा करने का जिम्मा अपनी आखिरी साँस तक उठाता है। कठिन समय में गाँव वालों की रक्षा करता है। ग्रामीण समाज की विडंबना रही है कि वह पूजा-पाठ, धर्म आडंबर में ही प्रसन्नता का अनुभव करता है। इस आवरण में वह अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए तैयार हो जाता है। जो ग्रामवासी किसन की उपेक्षा करते हैं वही उसे ‘देवहा’ पाड़ा कह कर पूजते भी हैं और उसकी प्रिय वस्तुएं खिलाकर खुद को सुरक्षित व संतुष्ट पाते हैं। इस कहानी में गाँव की विद्रूपताओं, विसंगतियों, ग्रामीण जन की पीड़ा के साथ ही लोकजीवन की सत्यानुभूति, सहज मन की सहज अभिव्यक्ति भी मुखरित हुई है। यह कहानी मनुष्य के निरंतर बदलते हुए व्यक्तित्व को भी परिभाषित करती है। इसमें सामाजिक समस्याओं के प्रति लेखक की चिंता को गहराई से महसूस किया जा सकता है। गौरतलब है कि उस दौरान जमीन हदबंदी एक बड़ी समस्या थी। भूमि सुधार को लेकर विभिन्न जनवादी पार्टियों द्वारा तरह-तरह की माँग भी की जा रही थी । कुछ लोगों का विचार था कि एक निश्चित अवधि तक जो खेत में अन्न उपजाये खेत उसी के नाम पर कर दिया जाए अर्थात् जमीन उसी की जो जमीन की जुताई करे, उसपर फसल उपजाए | चूँकि बड़े किसान, जमींदार अपनी जमीन गरीब बटाईदारों को दे दिया करते थे इसलिए उनके मन में अपना खेत हड़पे जाने का भय समा गया। गाँवों में किसान और गरीब बटाईदारों में हिंसा शुरू हो गई । रेणु लिखते हैं – ‘‘बिहार विधानसभा में जमीन हदबंदी के सवाल पर विचार होना अभी भी बाकी है। लेकिन जिस दिन यह प्रस्ताव सदन में पेश हुआ उसके दोमाह पहले से ही… जिले में किसान और गरीब बटाईदारों में कई जगह गुत्थम-गुत्थी भी हो गई।’’6 कहानी में लाल बाबू के गाँव में भी किसान, जमीदारों ने तय किया कि वे फसल बटाईदारों को नहीं काटने देंगे। योजनानुसार किसान शिव शंकर सिंह लठैतों के साथ जमीन पर आ धमके। बटाईदार वाक हो गए। चारों ओर कोहराम मच गया। अभागे बटाईदार लालबाबू के पास आकर गिड़गिड़ाने लगे पर लालबाबू अपने पसीजते हुए दिल को पत्थर बनाने की चेष्टा में व्यस्त होने की कोशिश करते रहे। दरअसल पारिवारिक, सामाजिक तमाम दबाव या कहें कि अपना स्वार्थ आड़े आने पर मनुष्य चाहते हुए भी उचित न्याय नहीं कर पाता। जहाँ उसका हित दिखता है वहाँ उसका रवैया कहीं ना कहीं पक्षपातपूर्ण हो ही जाता है। आखिर किसन महाराज मोर्चे पर पहुँच जाता है। गाँव वालों की लड़ाई अकेले लड़ता है और शहीद होता है। किसन के माध्यम से लेखक की घुटती हुई आत्मा को जैसे रास्ता मिल जाता है ।इसके बाद गाँव में सर्वत्र शांति विराजमान हो जाती है । लोग आपस में समझौता कर लेते हैं।

किसन की समाधि पर आसपास के कई गांव वालों ने शोक जताया। धूप दीप जलाया गया, शंख ध्वनि की गई, लाल शालू का झंडा गाड़ा गया। एक विद्यार्थी ने अपनी टूटी-फूटी भाषा में भाषण भी दिया कि ‘‘जब आदमी के दुख को आदमी ने नहीं समझा, किसन महराज ने पशु होकर आदमी का काम किया। आदमी का काम नहीं देवता का ।’’7दरअसल जो नैसर्गिक न्याय मनुष्य नहीं कर पाता, उसे कहानी में पशु के माध्यम से लेखक ने संपन्न करवाया है। पाड़ा जिस तनुक शाह के घर की चोर से रक्षा करता है उसी तनुक शाह को उसकी बेईमानी की सजा उसके दो बीघे तंबाकू को रौंद कर देता भी है। लेखक कहते हैं कि ‘‘तनुक शाह ने दो दर्जन केले खिलाए थे किसन महराज को… लेकिन दो दर्जन केले खिलाकर उसकी नीति भ्रष्ट नहीं कर सका तनुक शाह।’’8

जब गाँव का ही कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति लालच देकर संतोषी की बेवा से अपनी तृप्ति के लिए प्रेम निवेदन करता है तब भी पाड़ा वहाँ पहुँच जाता है और संतोषी की बेवा की रक्षा करता है। संतोषी की बेवा के शब्दों में -‘‘…सच कहती हूँ मालकिन, उस दिन किसन महराज नहीं आ जाता तो मैं डूब चुकी थी।’’9

इस कहानी में लेखक यह भी दर्शाने की कोशिश करता है कि न्याय बलिदान माँगता है, न्याय के लिए लड़ना पड़ता है, सजग रहना पड़ता है । किसन महराज लेखक के प्रतिनिधि के रूप में पूर्ण न्याय करता है। अकेले ही गरीबों के हक की रक्षा करता है। शारीरिक रूप से मर कर भी विचार दर्शन के रूप में जैसे सब में प्रवाहित हो उठता है। शायद इसलिए उसके समाधि पर विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर का गीत ‘जोदि तोर डाक सुने केउ ना आसे…’ भी गाया जाता है। कहानी में लेखक के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज है। तमाम आरोप उस पर लगे हैं। किसन के कृत्यों के लिए उसे दोषी ठहराया गया। किसन को समाधि देने के लिए एकत्रित लोगों से पुलिस प्रशासन के कान खड़े हो गए हैं। प्रशासन इस घटना को अपने नजरिए से देखता है। दरअसल चेतना के स्तर पर जागृत होता समाज हमेशा से ही सत्ता के लिए चुनौती रहा है। कहानी में लेखक से जवाब तलब किया गया है। लालबाबू कहते हैं -‘‘जानता हूँ, कचहरी में ऐसे बयान आजादी की लड़ाई के दिनों क्रांतिकारी लोग ही देते थे, जिन्हें तत्कालीन हाकिम न पढ़ते थे न सुनते थे। किंतु आप के संबंध में यह मशहूर हो चुका है कि आप किसी भी मुकदमे की राई-रत्ती तक पढ़ते हैं, सुनते हैं।’’10 लेखक का यह कथन हमारे प्रशासन पर व्यंग है चूँकि आजादी के बाद भी उसके स्वरूप में कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ है। हम आज 21वीं सदी की सत्ता, पुलिस, प्रशासन पर नजर डालें तो स्थितियाँ भयावह ही नजर आती हैं। लेखक सियासी दाव पेंच और उसके खतरे को बेहद गहराई से महसूस करता है। आज भी चालाक तंत्र, आम आदमी को अनेक ढंगों से व्यक्तित्वहीन बनाने की लगातार कोशिश कर रहा है। शासकों की मूर्खता ने जनता को बदहाल कर रखा है। आज हम शब्दरहित भय के साए में जी रहे हैं। लोग यथास्थिति से समझौता किए जा रहे हैं। दुनिया का इससे खतरनाक दौर और क्या हो सकता है जहाँ आजादी का मतलब महज सत्ता का बदल जाना हो गया है। खासकर ऐसे समय में जबकि मनुष्यता जैसे पद का भी अपहरण हो चुका है- यह कहानी हमें सचेत करती है।

कहानी में दरोगा किसन महराज की समाधि पर गाड़े गए लाल झंडे के प्रति सशंकित है। इस पर लालबाबू कहते हैं – ‘‘गाँव के किसी भी देव स्थल पर लाल शालू का झंडा फहराया जाता है। हनुमान जी का झंडा हो या मां चंडिका का – रंग लाल ही होता है।’’11 रिपोर्ट के आधार पर उससे तो यहाँ तक पूछ लिया जाता है कि आपके नाम लालबाबू का लाल किसी राजनैतिक लाल का संकेत है क्या?…यह सच है कि रेणु किसी विचार, दर्शन या आदर्श को अपनी कहानियों के केंद्र में रखकर नहीं चलते परंतु प्रकारांतर से उनकी पक्षधरता और विचारों की झलक उनके लेखन में सर्वत्र विद्यमान है । समकालीन कथाकारों की कहानियों से बिल्कुल अलग अपने आप में बेजोड़ उनकी कहानियाँ एक नया सौंदर्यशास्त्र निर्मित करने की माँग करती है। उनके लेखन को उनके जीवन से अलगाकर नहीं देखा जा सकता। ऐसा लगता है जैसे उनका लेखन हमारे अहसासों, संवेदनाओं की परत दर परत कुरेदता चल रहा हो। ग्रामीण समाज की तमाम समस्याओं, मनुष्य की अनेकानेक चिंताओं को इन्होंने एक लय में पिरोया है । अपने समाज, परिवेश के कोने-कोने से ये गहरे परिचित हैं। चीजों के तह तक कहानीकार की दृष्टि पहुँचती है। रेणु ने अपने हृदय की स्पंदन को इस कहानी में बड़ी कुशलता के साथ दर्ज किया है। स्वतंत्रता पश्चात का उत्तर भारतीय ग्रामीण जीवन, रीति-रिवाज, लोक विश्वास का यथार्थ इस कहानी में देखा जा सकता है।

कहानीकार अंत में लिखते हैं कि ‘‘गाँव के दर्जी ने झंडे पर पाड़े की आकृति बनाने की चेष्टा की है, सफेद कपड़े से। मुझे लगता है कि दरोगा साहब ने झंडे में अंकित किसन महाराज के सिंगों को हसिया समझा… पैर को हल… पूछ को चक्र… मुँह को हथौड़ा…! दोष उनकी दृष्टि का है।’’12 चूँकि सर्वहारा वर्ग का समाजवादी, वामपंथी विचारधारा पर विश्वास सत्ता को अपने लिए खतरा नजर आता है। हमेशा से ही चेतना के धरातल पर जनता को पंगु करना इनकी फितरत रही है। लेखक ने सत्ता और प्रशासन के चारित्रिक पतन को पहचाना है। पाड़ा एक विचार दर्शन के रूप में पूरे गाँव का प्रतिनिधित्व करता है। यह कहानी जनविरोधी स्थितियों की पहचान कराती है। राजनीतिक अव्यवस्था, सामाजिक कुरूपता, आपसी मतभेद पर चोट करती है और वैचारिक एकजुटता के लिए साहस का संचार भी करती है।

संदर्भ सूची:

1. रेणु, फणीश्वर नाथ : आदिम रात्रि की महक : अनुपम प्रकाशन, पटना, बिहार, प्रकाशन वर्ष –1997 : पृष्ठ संख्या – 6

2. वही, पृष्ठ संख्या – 7

3. वही, पृष्ठ संख्या – 9

4. वही, पृष्ठ संख्या – 8

5. वही, पृष्ठसंख्या – 11

6. वही, पृष्ठ संख्या – 14

7. वही, पृष्ठ संख्या – 20

8. वही, पृष्ठ संख्या – 12

9. वही, पृष्ठ संख्या – 14

10. वही, पृष्ठ संख्या – 10

11. वही, पृष्ठ संख्या – 20

12. वही, पृष्ठ संख्या – 20

प्रभा खेतान के छिन्नमस्ता उपन्यास में स्त्री विमर्श

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woman in white and black dress holding woven basket

प्रभा खेतान के ‘छिन्नमस्ता’ उपन्यास में ‘स्त्री विमर्श’

गढवी योगेशकुमार गणपतदान

स्वदूर विला सोसायटी मकान

नं-५ पदमनाथ चौकड़ी,

चाणस्मा हाईवे पाटन,

तहसिल / जिल्ला – पाटन

मो -९८७९३११९६३

शोध सारांश

नारी विमर्श को अंग्रेजी में ‘फेमिनिज्म ‘कहां गया है। पश्चिम के विद्वान इस्टेल फ्रडमैन ने निम्न शब्दों में परिभाषित किया है। “नारी विमर्श यानी पुरुष एवं स्त्री सम महत्व रखते हैं । अधिकांश समाजों में पुरुष को वरीयता देते हैं।स्त्री पुरुष समानता के लिए सामाजिक आंदोलन जरूरी है।क्योंकि लिंगा धारित अंतरअन्य अतः सामाजिक परंपराओं में प्रवेश करता है।जो हो यह निश्चित है कि यह चिंतन अन्याय के विरुद्ध है। भारत की संस्कृति मे जब भी कहीं नारी ने अपने विचार के लिए सिर उठाया तो उसे पश्चिमी सोच समझ कर टाल दिया गया। आज हम प्रभा खेतान जीके ‘छिन्नमस्ता ‘उपन्यास में नारीविमर्श या चिंतन किया है।प्रभा खेतान जीने अपने साहित्य के माध्यम से समाज में चेतना लाने की बात की है।उन्होंने स्त्री को पुरुष के समान दर्जा दिलवाने के लिए अनेक कहानी उपन्यास की रचना की है।

बीज शब्द: स्त्री विमर्श, फेमिनिज़्म, पश्चिम, साहित्य

शोध आलेख :

हिंदी साहित्य ने इस युग मे बहुत से दबे हुए स्वर को उदघोषित किया है। हिन्दी साहित्य ने अनेक विधाओं पर अपनी सशक्त लेखनी चलाई है। आजके आधुनीक युग में विमर्श की लेखनी ज्यादातर लीखी जा रही है। उसमें दलित विमर्श आदिवासी जाती के उत्थान में विमर्श पिछड़े हुए समाजके प्रति उदघोषकेश्वर ज्यादातर दिखाई देते हैं। आज नारी विमर्श की बात कर रहे हैं तो नारी विमर्श या यानी स्त्री विमर्श की बात यह विमर्श मैं स्त्री को केंद्र बिंदु रहकर आंदोलन जरिए स्त्री अस्मिता मुल्कसाहित्य की रचना की जाए उसे नारी विमर्श या स्त्री विमर्श कहा जाता है। नारी विमर्श को अंग्रेजी में ‘फेमिनिज्म ‘कहां गया है। पश्चिम के विद्वान इस्टेल फ्रडमैन ने निम्न शब्दों में परिभाषित किया है। “नारी विमर्श यानी पुरुष एवं स्त्री सम महत्व रखते हैं । अधिकांश समाजों में पुरुष को वरीयता देते हैं।स्त्री पुरुष समानता के लिए सामाजिक आंदोलन जरूरी है।क्योंकि लिंगा धारित अंतरअन्य अतः सामाजिक परंपराओं में प्रवेश करता है।जो हो यह निश्चित है कि यह चिंतन अन्याय के विरुद्ध है। ” -> इस्टेल फ्रेडमेन

भारत की संस्कृति मे जब भी कहीं नारी ने अपने विचार के लिए सिर उठाया तो उसे पश्चिमी सोच समझ कर टाल दिया गया। आज हम प्रभा खेतान जीके ‘छिन्नमस्ता ‘उपन्यास में नारीविमर्श या चिंतन किया है।प्रभा खेतान जीने अपने साहित्य के माध्यम से समाज में चेतना लाने की बात की है।उन्होंने स्त्री को पुरुष के समान दर्जा दिलवाने के लिए अनेक कहानी उपन्यास की रचना की है।

कवियत्री का नारी दर्शन :

प्राचीन समय में भी नारी नें पुरुष समाज के समक्ष अपना वैचारिक द्रोह व्यक्त किया है।उस समय चल रही पुरुष समाज ने अपने बने बनाए नियमों उसके वर्चस्व को स्त्री की अपनी निरिहता के विवशता के कि वह अपने कोउसको जकड़ने से उनकी रुढीयो विपरीताओ के प्रती अपनी आवाज बुलन्द की है। प्रभा खेतान जी नें अपने ‘ छिन्नमस्ता ‘उपन्यास में स्त्री वेदना केा उभारा है । आप महाभारत से लेकर रामायण काल तक स्त्री केा लज्जा के दायरेसंस्कार की दुहाई देकर शोषण किया गया है । तब भी द्रौपदी ने अपनी पांच पति एवं सभा के सभी सदस्यों को फटकार लगाई है । स्त्री को समझना बहुत जरूरी है उसकी भी बहुत सी उम्मीदें भावना पर चोट लगती है तब विमर्श के स्वर बहते हैं । पुरुष प्रधान समाज की कठपुतली नहीं है स्त्रीउसके अनेक रूप है कहीं वह मां के रूप में है कहीं पत्नी के रूप में सदा वात्सल्य ही उसका प्रयोजन रहा है उसकी मासूमियत को जब चोट पहुंचाई जाती है तभी समाज में क्रांति के स्वर गूंजते हैं इस स्वर को पकड़कर लेखिका ने स्त्री पीड़ा कोसमाज तक पहुंचाने का सघन प्रयास किया है । प्रभा जी का जन्म 1 नवंबर 1942 में हुआ था उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एम.ए. की डिग्री हासिल की ज्या पार्ल सार्त्र के अस्तित्व पर पी.एच . डी की उपाधि हासिल की -उन्होंने अपनी 12वर्ष की उम्र से ही साहित्य साधना में लग गई उनकी पहली रचना सुप्रभात में छपी थी हिंदी साहित्य की विलक्षण बुद्धि जीव उपन्यासकार कवियत्री नारीवादी उद्घोषक तथा समाजसेवी रही है।कोलकाता चेंबर ऑफ कॉमर्स की वह पहली महिला अध्यक्ष रहे।स्त्री विमर्श को केंद्र में रखकर लिखने वाले नामांकित लेखकों में से एक डॉ .प्रभा खेतान थे।

डॉ प्रभा खेतान जी ने समाज में आंखें देखी एवं कानों सुनी सभी परिस्थितियों को अभिव्यक्त किया है । स्त्री विमर्श यानीपुरुष प्रधान समाज के द्वारा लैंगिक भेदभाव से स्त्री शोषण के खिलाफ किया गया आंदोलन जिसमें प्रभा खेतान जी ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति की है।

प्रभा खेतान जी के उपन्यास छिन्नमस्ता में स्त्री विमर्श :

प्रभा खेतान जी के छिन्नमस्ता उपन्यास में पितृसत्तात्मक समाज मेजो स्त्री को चार दिवार ही उसकी दुनिया है उसमें से पिछड़ी हुई नारी को नई दुनिया नए विचार प्रदान किए हैं । चार दिवार के बाहर भी विशाल विश्व हैस्त्री को इस खोखले समाज ने चार दिवार में ही उसका जीवन है यह समझ देकर चुप करा दिया थावह नारी उसने आधुनिक एवं पाश्चात्य रूप में विद्या के कारणस्त्री ने अपना नारी अस्तित्वएवं स्त्री शक्ति का जयघोष किया । पितृसत्ता को सदा ही जय भय रहता था कि वह स्त्री सत्ता से पराजित हो न जाए स्त्री को उन्होंने लज्जा एवं संस्कार के दायरे देकर स्त्री के अपने विचार को कभी फर्स्ट एवं सहज समझा ही न है । स्त्री अपना जीवन भोजन पकाना एवं घर की जिम्मेदारी को उठाना ही उसका सर्वस्व बन गया है आज आधुनिक नारी शिक्षा एवं कानून से परिचित हुई है और उसने अपने प्रति होने वाले अत्याचार शोषण यौन शोषण मानसिक विडंबना के खिलाफ आवाज उठाई है । स्त्री विमर्श यानी स्त्रीशोषण अत्याचार जैसेसभी उत्पीड़न के सामने स्त्री की पैरवी कर उसे न्याय दिलाना उसके वास्तविक अधिकार को दिलवाना जब स्त्री विमर्श यानी स्त्री के साथ विमर्श जुड़ने से यह तात्पर्य है कि स्त्री वहां मध्यस्थान रखकरया केंद्र रूप रखकर उसकी समाज या परिवार में उपेक्षा एवं अवमानना के कारणों की सघन जांच करना या उसकी अवमानना करने का कारण क्या है यह प्रश्न समाज से पूछना स्त्री विमर्श यानी पुरुष समाज के द्वारा लाजित किए हुए मूल्य पर प्रश्न उठा कर सचोट और कटाक्ष कर स्त्री को पुनः जागरण के लिए जागृत करना । स्त्री विमर्श के माध्यम से पुरुष समाज के द्वारा स्त्री पर हो रहे दुराचारहिंसा प्रहार एवं शोषण करने वाली मानसिकता पर विचार करता है । आज आधुनिक युग में स्त्री पुरुष प्रधान समाज को चुनौती देकर उनके अस्तित्व को बरकरार रखने का प्रयत्न कर रही है । यही प्रधानता छिन्नमस्ता उपन्यास में स्त्री विमर्श की बात को सचोट प्रिया के माध्यम से समझाया गया है । स्त्री पर बहुत शोषण अत्याचार के प्रति प्रिया अपना सिर तानकर खड़ी है । रब्बा खेतान जी ने भी बहुत ही सघन रूप में समाज की अभिव्यक्ति स्पष्ट की है । समय ने करवट बदली है उसी प्रकार लेखन की परिस्थिति बदल रही है। कई सदियों से अपेक्षित वंचित शोषित नारी आज अपने अधिकार के लिए लड़ना सीख गई है । नारी ने अपनी सदियों की चुप्पी को तोड़ा है । पुरुष प्रधान समाज ने चाहा हुआ रूप बिल्कुल अपनाया था स्त्री ने उस चोले को निकालकर दहाड़ नई चेतना रूपी आज के युग अनुरूपनए मूल्यों के अनुसार नारी विमर्श था के स्वरूप कलम चली है । उसमें प्रभा खेतान जी नारी चेतना एवं विमर्श था पर अपनी सशक्त लेखनी चला रही है । स्त्री लेखन की प्रक्रिया सुधरी परंपरा रही है और वह लंबी यात्रा के बाद प्रभा जी के पास मुदित हुई है । श्री के स्वतंत्र अस्तित्व की और उंगली निर्देशन कर रही है उसे घोर निंद्रा के द्वारा उखेड़ रही है । प्रभा जी ने साहित्य जगत में स्त्री की आर्थिक स्थिति संघर्ष को समझ कर कड़वे अनुभवो को बडे संघर्ष को बडे ही सींदत से उठाया गया है । प्रभा जी ने अपने जीवन अनुभव का आईना उनके साहित्य में दिखाई देता है । उनके साहित्य में काल्पनिक का से ज्यादा वास्तविकता दिखाई पड़ती है । प्रभाजी स्त्री विमर्श एवं स्त्री मुक्ति की पैरवी करती हैं । जगत में पुरुष प्रधान समाज के रूबी चुस्त एवं घटिया किस्म के नियम निधान से नारी विमर्श का स्वर उन्होंने छिन्नमस्ता उपन्यास में वर्णित किया है उनके निजी जीवन में घटित घटनाओं एवं अनुभव के द्वारा घिसी पिटी परंपराओं का विरोध किया है और स्त्री जाति को विशिष्ट सम्मान प्रदान किया है ।

‘छिन्नमस्ता ‘ में स्त्री विमर्श के आलाप :

हिंदी साहित्य जगत में प्रभा खेतान जी का कथा साहित्य में उनकी ईमानदारी अनेक स्तरों पर दिखाई पड़ती है । ‘छिन्नमस्ता में विश्व की नारी का जीवनविडंबना का चित्रण है । छिन्नमस्ता में उच्च वर्ग एवं सामंतवादी व्यवस्था की खोखले पन को बहुत ही फिटकारा है । इस उपन्यास का क्षेत्र मारवाड़ी संपन्न परिवार है उसके इत्र गिद्र रचा गया है यह व समाज है जो सब्जी मंडी की तरह अपने बेटे या लड़के को बेचते या खरीदते हैं इस कूरीवाज की शिकार खुद प्रभा जी भी हुई है । छिन्नमस्ता उपन्यास साधारण स्त्री प्रिया के जीवन संघर्ष एवम् असाधारण संघर्षों की गाथा भी कहा जा सकता है । स्त्री विमर्श की प्रमुख पक्षधर रही लेखिका ने नायिका प्रिया के माध्यम से स्त्री जीवन की पीड़ा को दर्द को महसूस क२आलेखा है । हमारे देश एवं समाज की सामंती अर्थ-व्यवस्थाधर्म एवं इज्जत की आड़ में रखकर स्त्री की शोषण प्रक्रिया की गई है । साधारण स्त्री लगने वाली प्रिया अपनों के बीच ही पराया पन महसूस करती हैं । किंतु कहीं भी हिम्मत न हारकर स्त्री विमर्श का जयघोष कर अपने न्याय के लिए लड़ती हैं प्रिया जो स्त्रीपात्र में छिन्नमस्ता मेंप्रमुख नायिका के रूप में अपनी महत्वाकांक्षा का दामन छोड़ती नहीं है । और अंत तक पूर्ण जिजीविषाके साथ वह एक सफल व्यवसायिक बनकरअपना जीवन व्यतीत करती है । जब अपने से ज्यादा व्यवसायिक दौर में ऊपर उठी प्रिया को देखकर बिजनेस में आगे बढ़ने के कारण जब समाज के खोखले आडंबर को छोड़ प्रिया स्त्री अधिकार की बात करती है तब उसकी आजादीसहन ना हो पाने के कारण नरेंद्र प्रिया से गुस्से से कहता है कि -“यह मत भूलो प्रिया कि मैं पुरुष हूं इस घर का कर्ता । यहां मेरी मर्जी चलेगी :हां सिर्फ मेरी ! ” ( छिन्नमस्ता – प्रभा खेतान पृ – 13 ) इस उपन्यास के माध्यम रूप प्रिया ने संघर्षों की और पीड़ा की कहानी नहीं किंतु समाज में स्त्रियों के उत्पीड़न एवं अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की बात करता है । उच्च वर्ग एवं सामंत शाही परिवार जो मर्यादा एवं इज्जत को खोखला पन बेनकाब किया है । स्त्री यदि दहलीज के उस पार जाए तो पुरुष प्रधान उसे लज्जा समझता है । किंतु एक पत्नी होने के बावजूद वह किसी भीस्त्री से संबंध जो अवैधीक है वह रखे तो जायज है । वह लैंगिक भेदभाव को इस उपन्यास में प्रभा जी ने प्रिया नामक नायिका के माध्यम से कोचा एवं सशक्त लेखनी के द्वारा विरोध किया है । “पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री और पुरुष दोनों ही उत्पादन में लगे हुए हैं लेकिन पुरुष सता ने एक खास उत्पादन पद्धति को अपनाया हुआ है पुरुष जो कुछ करता है उसकी कीमत आंकी जाती है । इसलिए उसकी पहचान और अस्मिता विशिष्ट मानी जाती है । दूसरी और स्त्री श्रम का मूल्यांकन नहीं हुआ । यह मूल्यांकन पुरुष ने मनमाने ढंग से किया है । ” ( प्रभा खेतान – स्त्री धर्म और परंपरा – पृ – 52 ) इस उपन्यास का पुरुष पात्र नरेंद्र हो या नरेंद्र का पिता विजय हो जो तिलोत्तमा की मांग में सिंदूर तो भरता है मंगलसूत्र पहनाता है । किंतु समाज एवं जिंदगी में उसे पत्नी के रूप में हाथ थामना नहीं चाहता उसमें उसे झिझक एवं शर्म महसूस होती है उसे आजीवन उसके रखैल का जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर किया जाता है इसी प्रकार उपन्यास स्त्री प्रधान नायिका प्रिया की नानी दूसरी मामी छोटी मां एवं एस आराम की जिंदगी प्रसार करने वाला नरेंद्र कि हर महीने बदलने वाली सेक्रेटरी यह सब स्त्री या शोषित रूप में दिखाई देती है । सबसे को खुलापन यह है कि स्त्रीकों अपनों ने ही प्रताड़ित किया है । स्त्री – स्त्री जाति की दुश्मन बनी हुई है । साडे 9 वर्ष की उम्र में ही प्रिया जब अपने ही बड़े भाई के द्वारा हवस का शिकार बनती हैं तब उसके मानसिक तनाव का अंदाजा भी पुरुष समाज नहीं लगा सकता । जब प्रिया सदियों से चल रही घिसी पिटी प्रथा एवं रिवाज का खंडन करती है तब आग उगला होते हुए नरेंद्र अपनी पत्नी से कहता है कि – “दरअसल तुम्हें इतनी खुली छूट देने की गलती मेरी ही थी । मुझे पहले ही चिड़िया के पंख काट डालने चाहिए थे । ” ( छिन्नमस्ता – प्रभा खेतान पृ – 11 )

इस उपन्यास में सभी स्त्री पात्र अपनी उत्पीड़न को कहे तो भी किसी जहां पुरुष समाज उनके शोषण एवं लूट के लिए तैयार बैठा है एवं स्त्री जाति की चपलता के कारण ही एक स्त्री दूसरी स्त्री सेद्रोणा या इच्छा रखती है पर उनका उनके प्रति सहानुभूति का कोई रूप न देखकर दूसरी स्त्री के शोषण एवं अत्याचार में अपनी हां भर्ती हैं । यदि प्रिया के अत्याचार को उसकी मां बचपन में सुन लेती उसे बचपन में सहानुभूति एवं लाड़ दुलार देती तो मुझे लगता है कि शायद छिन्नमस्ता जैसा उपन्यास लिखा ही न जाता । क्या हुआ समाज है जहां एक पुरुष को तानाशाह में तब्दील कर दिया जाता है और यही तानाशाही वैचारिक ता पत्नी बहन और बेटी को तिरस्कृत करती है । नैतिकता मर्यादा जैसे दिल मिले सब दो की दुहाई देता हुआ पुरुष प्रधान समाज स्त्री को एक बोज वस्तु के अतिरिक्त कुछ नहीं समझा जाता । एवं पुरखो से मिली परंपरागत रूबी का संस्कार है उसके कारण स्त्री की भावना को कहीं कोई चेत ही नहीं दी जाती । केवल स्त्री को पुरुष के पैर की जूतीसमझा जाता है समाज की कोई भी स्त्री या बहन मां हो किंतु इस उपन्यास में नारी की पीड़ा को प्रमुख स्थान दिया गया है । पितृसतावादी समाजमें स्त्री की वंचनायातना को भुगतती है । उसका कच्चा पीठा यहां प्रभा जी ने खोला है । इस उपन्यास में नीना और तिलोत्तमा के माध्यम से हम देख सकते हैं कि पुरुष दोषी होते हुए भी साफ सुथरा दिखाई पड़ता है और स्त्री निर्दोष होने के बावजूद भी सजा भुगत ती है पुरुष प्रधान समाज तिलमिला उठता है उसे लगता है कि अर्थो पाजन उसका जिम्मा है । या अधिकार है इस चित्र में स्त्री कैसे आ सकती है और आप भी जाए तो स्थापित किस प्रकार हो सकती हैंयदि स्त्री अपनी काबिलियत पर स्थापित हो जाए या परिश्रम रंग ला देता हे तो पुरुष समाज को यह जरा भी नहीं भाता इसी बात पर नरेंद्र प्रिया का पति प्रिया को कहता है कि – ‘तू में रुपया ! चाहे ना बोलो कितने रुपए लाख , दो लाख ,करोड़ जब देखो रुपया के पीछे भागती रहती है । लो यह लो !जब अपने से ज्यादा व्यवसायिक क्षेत्र में आगे बढ़े हुए प्रिया को देखकर नरेंद्र उसे कहता है कि तुझे परिवार चाहिए या व्यवसाय इस दोनों में से किसी एक को चुन लें इस प्रकार उसकी प्रगतिके पथ पर कांटे बिछाता है । नरेंद्र प्रिया से कहता है कि “मैं सीरियस हूं । फिर कहता हूं यदि आज तुम लन्दन गई तो मेरे घर में तुम्हारी जगह नहीं । यह भी साली को जिंदगी है ,जब देखो तब बिजनेस । फिर सुन लो ,यहां मत आना आओगी तो मैं धक्के देकर बाहर निकलवा दूंगा । ” ( छिन्नमस्ता – प्रभा खेतान – पृ . 13 )

यह कैसी विडंबना है कि एक स्त्री कितनी यातना एवं विडंबना को सहते हुएअपने अस्तित्व को बरकरार करती हैं तो पुरुष समाज इसको देख तिलमिला उठता है उसके अहंकार को ठेस पहुंचती है । जिसको कभी अपनी बराबरी का नहीं समझा वह नारी शक्ति उसके बराबर कैसे होगी इस संदर्भ में छिन्नमस्ता उपन्यास नारी विमर्श हो प्रबलता से उभारता है । इस उपन्यास के द्वारा वस्तुतः रूप में स्त्री को कंटे बिखरे मार्ग वाह स्वतंत्र अस्तित्व की खोज के लिए लोही लुहान होता दृष्टिकोण प्रदान करता है । स्त्री एवं पुरुष दो सिक्के की एक पहलू है या दोनों पुरुष स्त्री समानता का जयघोष करता है । जब तक स्त्री अपने अन्याय के लिए खुद लड़ना सीखेगी नहीं तब तक उसे न्याय न मिलेगा । जबकि उपन्यास इस बात को बार-बार दोहराता है स्त्री को अपने अस्तित्व का वजूद खुद होना पड़ेगा । इसी संदर्भ में उपन्यास की प्रमुख नायिका यह कथन करती है प्रिया की – ” नीना हम सबको अपनी अपनी लड़ाई अकेले ही लडनी होगी । ” यहां नारी के मान में फिलिप कहता है कि – “प्रिया सम्मान कोई देगा नहीं सम्मान अर्जित करना पड़ता है सम्मान अर्जन के लिए स्त्री पहले आत्मा रूप से आत्मनिर्भर बने । “

प्रिया पुरुष शून्य होकर निरंतर अपनी जिंदगी में आत्मा और समाज से संघर्ष करती हुई परिस्थिति से जूझते हुए अपने मुकाम पर पहुंचती है प्रिया कहती है कि पुरुष पैसा कमाता है वह दो चार लोगों को पाल लेता है जब स्त्री सीमा लग जाती है तो वही परंपरा समाज उसके लिए खत्म हो जाता है । “लेकिन असल रूप में मानव समाज बहुत बड़ा है प्रिया जो स्त्री होकर इस समाज को दे सकती है वह पुरुष होकर भी नरेंद्र नहीं दे सकता । प्रभा जी ने इस उपन्यास में पुरुष समाज का स्वार्थ बेनकाब किया है । प्रिया के माध्यम से प्रभा जी ने सशक्त स्त्री चेतना का चिंतन करवाया है प्रिया कहती है – “मैंने अभी-अभी जीना सीखा है धरती पर मेरी जरूरत के मुताबिक धूप है हवा है पानी है और मैं अपनी इस गति से दौड़ रही हूं । ” दोस्तों इसी गति से पुरुष प्रधान समाज डरा हुआ है स्त्री की यही गति को अटकाने के लिए हीस्त्री के पथ पर रोड़े अटकाता है । स्त्री को समाज के सम्मानित ठेकेदार दरअसल ऐसी घरतोड़ स्त्री कोसजा देने के हक में हैं वे चाहते हैं कि स्त्री को आगे ना बढ़ने दिया जाए । क्योंकि यदि एक स्त्री अपने अधिकार को अपने अधिकार को प्राप्त कर लेगी तो दूसरी औरतें भी न्याय के लिए लड़ने लगेगी और उनके पितृसत्ता की सिहासन खुर्ची एवं सत्ता का क्या होगा इसलिए स्त्री को संवेदना एवं चेतना शून्य बनाए रखना उचित है । समाज की खोखली मर्यादा संस्कार जैसी रूढीता में स्त्री को ही क्यों आहूत किया जाता है । ” सच कहूं नरेंद्र , ये शब्द भ्रम है । औरत को यह सब इसलिए सिखाया जाता है कि वह इन शब्दों के चक्रव्यू से कभी बाहर नहीं निकल पाए ताकि युगो सें चली आती आहुती की परंपरा को कायम रखे । ” ( छिन्नमस्ता – प्रभा खेतान – पृ -12 ) इस उपन्यास में इस और दृष्टिकोण किया हैप्रिया के माध्यम से समाज में नारी जाति को आगे बढ़ने का साहस दिलवाया है । स्त्री स्वतंत्रता के माध्यम से पथरीला मार्ग पर चलना एवं अपने खुद के निर्णय सोचने के लिए प्रोत्साहित किया है । इस दुनिया में अपना अस्तित्व स्थापित कर जयघोष कराना चाहा है उपन्यास में कहा है कि उठो अपनी बाहों को फैलाओ अपने अधिकार की लड़ाई खुद को लड़ने पड़ेगी । आज के युग में स्त्री की सुरक्षा के अनेक प्रश्न दिखाई पड़ते हैं । सूरत में स्त्री की हत्या का केस अभी ही दर्ज हुआ है । क्या यह घर में या घर के बाहर सुरक्षित है कि नहीं इसे दर्शाते प्रिया उपन्यास में कहती है कि “मुझे नफरत है इस पुरुष जाति से नफरत है उनसे जो मासूम छोटी नादान लड़कियों को भी नहीं छोड़ते जन्म से औरऔरत असहाय औरत उसे न पीता छोड़ता है । न भाई अपनी नारी देह मे स्वयं क्षत-विक्षत कर रह जाती हैं। इस दलदल से जिंदगी में क्या कहीं नया पनया बदलाव दिखाई नहीं देता । छिन्नमस्ता उपन्यास तरीके कमजोरी को न तो कहीं छुपाता है न कि उसकी ताकत को दबाता है । वरन बेबाक होकर स्त्री अपने आप को अपने जीवन को समाज के सन्मुख खोलकर सत्यता बताने की हिम्मत करती हैं । इस उपन्यास में स्त्री विमर्श को आवाज दी गई है ।

निष्कर्ष :

निष्कर्षत: छिन्नमस्ता उपन्यास की स्त्री अंधेरे से अधिकार हीन स्त्री को उजाले की और किरण भी दिखाता है । उपन्यास स्त्री जीवन के जख्म एवं दर्द को समाज में मुखिया कराती हैं । वाह चाहती नहीं कि उसके दर्द में कोई भागी हो या कोई जख्म पर मलम लगाए । अपने बाहुबल के द्वारा ही स्वयं अपने जख्म खोलकर अधिकार न्याय की मांग करती है । नैना और प्रिया के माध्यम से प्रिया संकल्प कर कहती है कि “नहीं मैं हार नहीं मानूंगीबड़ी कीमत दूंगी और बड़ी आहुति देखती हूं कोई मेरी उपेक्षा कैसे करता है । मैं जरूरी हूं इस समाज का अपने परिवार का बहुत ही जरूरी खंभा हूँ । ” स्त्री निव का पत्थर है उसके बिना जीवन शक्य नहीं है यही बात धर्म भी बताता है -यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता यानी स्त्री का जहां आदर होता है वही प्रभु का वास होता हैइसी बात को दोहराते हुए स्त्री अधिकार की मोहर प्रभा जी समाज में इस उपन्यास के माध्यम से लगाना चाहती है । इस उपन्यास के माध्यम से पिछड़ी हुई स्त्री को समाज में मान एवं आदर का जीवन जी ने के लिए स्त्री विमर्श को प्रभा जी ने उभारा है । इस प्रकार यह उपन्यास स्त्री चेतना का सघन प्रयास है ।

संदर्भ सूची

1. छिन्नमस्ता – प्रभा खेतान – पृ – 13

2. स्त्री धर्म और परंपरा – पृ 52

3. छिन्नमस्ता – प्रभा खेतान – पृ – 11

4. छिन्नमस्ता -प्रभा खेतान – पृ – 13

5. छिन्नमस्ता -प्रभा खेतान – पृ – 12

उषा प्रियंवदा के कथा साहित्य में बदलते स्त्री-पुरुष संबंध

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crowd, crowded, street

उषा प्रियंवदा के कथा साहित्य में बदलते स्त्री-पुरुष संबंध

अर्चना मीणा,

शोधार्थी, हिन्दी विभाग,

दिल्ली विश्वविद्यालय,

मोबाइल: 9953583025,

ईमेल: anu31814@gmail.com,

शोध सार

यह अध्ययन उषा प्रियंवदा के कथा साहित्य में बदलते स्त्री-पुरुष के संबंधों से संबंधित है। उषा प्रियंवदा समकालीन नारी चेतना का सशक्त चित्रण करने वाली लेखिका है। इनके कथा साहित्य में स्त्री -पुरुष संबंधों में प्रतिस्पर्धा अस्मिता की रक्षा तथा व्यक्तिपरक भोगवाद आदि का चित्रण है। इनके साहित्य में भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति के टकराव के कारण स्त्री – पुरुषों के बदलते संबंधों का विवेचन है कि आज पति-पत्नी एक दूसरे के सहायक न होकर निजी व्यक्तित्व की चाह में तनावग्रस्त, कुण्ठा, अकेलापन ,विवाह-विच्छेद आदि की स्थिति को सामने लायी है।

बीज शब्द: कथा, साहित्य, स्त्री, पुरुष, संबंध, चित्रण, संस्कृति

मूल आलेख

आधुनिकता बोध की तीव्रता आज के जीवन के क्षेत्र में दिखाई देती है। आज की जीवन व्यवस्था में संबंध और नातेदारी चल नहीं पाती है। पुत्र अब परलोक के लिए नहीं इहलोक के लिए जरूरी हो गया है। पति-पत्नी के संबंधो में अब बदलाव आ चुका है। पुरुष आज अधिक स्वतंत्र सैक्स की मांग कर रहा है विवाह विच्छेद को आज तटस्थ भाव से देखा जा रहा है स्थापित मान्यताओं के विरोध में जाकर नारियां अब कई पुरुषों से अपने संबंध स्थापित कर रही हैं। हिन्दी की आधुनिक कथा लेखिकाओं ने वर्तमान समाज में नारी की सजगता, दांपत्य तथा पारिवारिक जीवन की स्थिति, कामकाजी नारी में अपनी स्वतंत्रता की चिंता आदि बातों का वास्तविक चित्रण किया है। नारी होने के नाते नारी-वर्ण की कठिनाइयों और वास्तविकताओं का चित्रण कथा- लेखकों की अपेक्षा कथा लेखिकायें ही स्वाभाविकता और सच्चाई के साथ कर सकती हैं। हिन्दी आधुनिक लेखिकाओं में उषा प्रियंवदा का स्थान सर्वोपरि है। वह समकालीन नारी चेतना सशक्त चित्रण करने वाली लेखिका है। इनके साहित्य में स्त्री-पुरुष संबंधों में प्रतिस्पर्धा अस्मिता की रक्षा तथा व्यक्तिपरक भोगवाद आदि का चित्रण है।

बदलते स्त्री-पुरुष संबंध

बदलते सामाजिक परिवेश के कारण पारिवारिक-सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन आया है जिसका प्रभाव स्त्री-पुरुष का साथ जहाँ उनकी जैविक आवश्यकता है, वहाँ अपनी अस्मिता बनाये रखना उनकी मानसिक आवश्यकता है। आज तक हमारे समाज में स्त्री सभी मोर्चों पर पुरुषों के आधिपत्य को स्वीकार करती रही पर आधुनिकता की प्रक्रिया में वह इससे धीरे-धीरे मुक्त होने का प्रयास कर रही है। इस मुक्ति की यात्रा में जीवन के जैविक व व्यवहारिक मानसिक पक्षों को ध्यान में रखना आवश्यक है। स्त्री-पुरुष के संबंधों में तीसरे आदमी की उपस्थिति को लेकर सोच और रवैये में अंतर आता गया है। स्त्री-पुरुषो के संबंधों में आर्थिक संदर्भ को लेकर व्यक्ति स्वतंत्रता के कारण रिश्तों में बदलाव आया है। आर्थिक स्वतंत्रता के अतिरिक्त स्त्री मानसिक स्वतंत्रता भी चाहती है। उषा प्रियवंदा के अधिकांश कथा- साहित्य में स्त्री- पुरुष के बदलते रिश्तों का नया स्वरूप देखने को मिल रहा है कि दो संस्कृति के टकरावों से रिश्तों में क्या- क्या परिवर्तन आता रहा है।

उषा प्रियंवदा के कथा-साहित्य में यथार्थ को जैसे के तैसे रूप में प्रस्तुत किया है आज भी परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हो गयी है कि विश्वास के स्थान पर संदेश जागृत हो जाता है आज का आदमी चिंता ग्रस्त है। प्रतिक्षा से ऊबा हुआ है भीड़ में भी अकेला है। आज सत्य असत्य, नैतिक-अनैतिक, पाप-पुण्य, मूल्य और वर्जनाओं के अर्थ बदल गये हैं। नारी कामकाजी होने के नाते किसी पर निर्भर नहीं है। वह अपने फैसले खुद लेती है। इसलिए पुरुष सत्ता डगमगाती जा रही है। विवाह अब युवकों को मीनिंगलैस रस्म लगती है। विवाह विच्छेद को आज तटस्थ भाव से देखा जा रहा है स्थापित मान्यताओं के विरोध में जाकर नारियाँ अब कई पुरुषों से अपने संबंध स्थापित कर रही है और लिव-इन रिलेशनशिप एक सामान्य बात हो गयी है।

लेखिका के कथा साहित्य में विदेशी और भारतीय वातावरण का विचित्र व रहस्यमय सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया है। भारतीय परिवेश में उनके उपन्यास व कहानियों के पात्र आधुनिक मानसिकता के कारण विसंगतियों का सामना करते हैं तथा विदेशी परिवेश में भारतीय संस्कारों के कारण विसंगतियों में फंस कर रह जाते हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं में भारतीय – अभारतीय तत्वों को संजोया है।

परिस्थितियों से पलायन कर जाना आज के मनुष्य की आदत बन गई है। समाज ने जो भी सम्बल प्रदान किये हैं वह उसे स्वीकार्य नहीं है और नवीन सम्बल वह बना नहीं पाया है। पुराने मूल्य पूर्णतः टूटे नहीं हैं, नये मूल्य पूर्णतः स्थापित नहीं हो पाये। परिणामस्वरुप मनुष्य दोनों के मध्य अटक कर रह गया है। इस संदर्भ में उषा प्रियंवदा की ‘एक कोई दूसरा’, ‘सागर पार का संगीत’, ‘पिघलती हुई बर्फ‘, ‘टूटे हुये’ आदि कहानियाँ हैं। इनमें शून्यता, एकाकीपन, निराशा तथा अजनबीपन आदि अनुभूतियों लक्षित होती है।

लेखिका की अधिकांश कहानियों में यह देखने को मिलता है कि विवाहित दंपत्तियों के बीच प्रेम नहीं केवल सम्बन्ध है। संबंधों के बीच लगभग निरावेग ठंडापन है जिसके कारण विवाहित जीवन संबंधों को ढोते रहने की प्रक्रिया से अधिक कुछ नहीं। यह पारस्परिक उदासीनता या निरपेक्षता के बीच में किसी तीसरे के आ जाने से यानी प्रेम के त्रिकोण बनने से पैदा नहीं होती, बल्कि एक ही छत के नीचे रहते हुये अपनी जीवन अपने ढंग से जीने की स्वतंत्रता से पैदा होती है तथा पति-पत्नी एक दूसरे के लिए नहीं, अपनी जिंदगी अपने लिये जीते हैं। विवाह जैसे उनके लिये एक समझौता है। दांपत्य संबंधों में ऊब आ रही है।

उषा प्रियंवदा ने देशी और विदेशी परिवेषों में स्त्री पुरुषों के संबंधों को उजागर किया है। आज की नारी में स्वतंत्रता के उपरांत जो परिवर्तन आये हैं। वह भी इसके साहित्य में देखने को मिला है तथा साथ ही पति – पत्नी के संबंधों का स्वरूप क्या है। स्वतंत्रता के बाद की बदलते परिवेश में पत्नी का परस्परागत स्वरूप बदलता दिखा है पत्नी के जीवन में भी स्वच्छंद दृष्टिकोण आया है। यह सब परिवर्तन का कारण भारतीय और विदेशी संस्कृति के टकराव से अधिक देखने को मिला है।

निष्कर्ष

उषा प्रियंवदा के कथा साहित्य में सामाजिक यथार्थवाद और मनोविश्लेषणवाद विशेष रूप से दर्शनीय है स्त्री-पुरुष संबंध सबसे अधिक प्राकृतिक है दोनों एक गाड़ी के दो पहिए हैं इसलिए दोनों के साथ होने में गति रहती है। उषा प्रियंवदा ने स्त्री-पुरुषों के संबंधों को नैसर्गिक आवश्यकता के रूप में ग्रहण किया है तथा इन्होंने मानक के अंतरंग पक्षों को समझते हुए उनके अंदर की कुंठा, भय, यौन-आकांक्षा, आगे बढ़ने की चाह, पाश्चात्य सभ्यता के प्रति ललक इत्यादि को स्पष्ट रूप से अपनी रचनाओं में जीवंत रूप में अभिव्यक्त करने की कोशिश की है।

संदर्भ सूची-

  1. ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’, 2018, डॉ उषा प्रियंवदा , राजकमल प्रकाशन , प्रा. लि. नई दिल्ली ।
  2. ‘एक कोई दूसरा’, 2000, डॉ उषा प्रियंवदा , राजकमल प्रकाशन , नई दिल्ली , पहला संस्करण ।
  3. ‘जिंदगी और गुलाब के फूल’, 2008, डॉ उषा प्रियंवदा , भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, दसवाँ संस्करण ।
  4. ‘कितना बड़ा झूठ’, 2008, डॉ उषा प्रियंवदा , राजकमल प्रकाशन , नई दिल्ली , पहला संस्करण ।
  5. ‘रुकोगी नहीं राधिका’, 2019, डॉ उषा प्रियंवदा , राजकमल प्रकाशन , नई दिल्ली ,पॉंचवाँ संस्करण ।
  6. ‘शेष यात्रा ’, 1994, डॉ उषा प्रियंवदा , राजकमल प्रकाशन , प्राइवेट लिमिटेड, 8 नेताजी सुभाष मार्ग ,नई दिल्ली – 110002 पहला संस्करण ।
  7. ‘पचपन खंभे लाल दीवारें ’, 1962, डॉ उषा प्रियंवदा , राजकमल प्रकाशन , प्राइवेट लिमिटेड , 1- बी ,नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज , नई दिल्ली , 110002 पहला संस्करण ।
  8. ‘भारतीय नारी की अस्मिता की पहचान’, 1998, उमा शुक्ला , लोक भारती प्रकाशन , जयपुर प्रथम संस्करण ।
  9. ‘उत्तर आधुनिकता और समकालीन कथा साहित्य’, 2013, डॉ लक्ष्मी गौतम , लोकभारती प्रकाशन , पहला संस्करण ।
  10. ‘स्त्रियों की पराधीनता’, 2013, जॉन स्टुउर्ट मिल , लोकभारती प्रकाशन , पहला संस्करण ।

हरीश अरोड़ा कृत ‘महाप्रयाण’ एकांकी संग्रह : चेतना का नवीन स्वर

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theater, girls, stage

हरीश अरोड़ा कृत ‘महाप्रयाण’ एकांकी संग्रह : चेतना का नवीन स्वर

डॉ. साक्षी

सत्यवती महाविद्यालय (सांध्य)

दिल्ली विश्वविद्यालय

ई.मेल- sakshi060188@gmail.com

शोध सार

‘महाप्रयाण’ भारतीय मनीषा की काल्पनिक और यथार्थ पृष्ठभूमि पर लिखा गया एक ऐसा एकाँकी संग्रह है जिसमें पौराणिक और ऐतिहासिक गाथाओं के माध्यम से भारत की राष्ट्रीय चेतना को अभिव्यक्ति दी गई है। इसे राष्ट्र की चिरंतन विचारणा को पौराणिक और ऐतिहासिक गाथाओं के उन पन्नों से उकेरा गया है जिसपर कुछ लिखा नहीं है। लेखन ने कथा की पृष्ठभूमि में उसी विचार को कल्पना द्वारा भारत की जीवंत चेतना का स्वरूपों प्रदान किया है। इस संग्रह के चारों एकाँकी भारत-बोध के एकाँकी हैं।

बीज शब्द : नाट्यशास्त्र, अखंड-राष्ट्र, मातृभूमि, जिजीविषा।

शोध आलेख

एकांकी का सम्बन्ध प्राचीन नाट्यशास्त्र से होते हुए भी वह स्वरुप में नाटक से भिन्न है। ‘एकांकी’ का अर्थ एक अंक वाला से है। अर्थात लेखक जिसमें एक अंक के अन्दर ही अपनी परिकल्पना को समावेशित करता है। “हिंदी एकांकी का उदय संस्कृत आदर्शों पर भारतेंदु युग में ही हो चुका था ….पर इसमें किसी सुनिश्चित शैली का पालन नहीं है … इसमें एक अंक के सम्बन्ध में कोई निश्चित धारणा नहीं मिलती, किन्तु एकांकी कला के कुछ महत्वपूर्ण तत्त्व अवश्य मिल जाते हैं।”1 “एक ही विचार (आइडिया) पर एकांकी नाटक की रचना हो सकी है। विचार के विकास के लिए जो संघर्ष (कनफ्लिक्ट)अनिवार्य है, उस संघर्ष के पूरे नाटक में कई पहलू दिखाए जा सकते हैं। पर एकांकी में सिर्फ एक पहलू।” 2

एक तरह से कहा जा सकता है की एकांकी में एक सुनिश्चित, सुकल्पित, एकलक्ष्य, संकलन-त्रय के साथ रंग संकेत, कथावस्तु, पात्र या चरित्र चित्रण, कथोपकथन, रस-भाव और उद्देश्य में पिरोया जाता है। “वर्तमान में एकांकी का शिल्प भिन्न है। स्वरुप, विषय और उद्देश्य सबमें परिवर्तन आया है।” 3

अभी तक के क्रम में एकांकी और नाटक संवेदना तथा शिल्प के कई आयाम तय कर चुका है। व्यष्टि-चेतना, समष्टि-चेतना, राष्ट्र-संस्कृति-राजनीति, लोकधर्मिता, मध्यवर्ग की विडम्बना और हास्य-व्यंग्य आदि – एक प्रकार से जीवन के लगभग सभी अंशों से जुड़ चुका है। इसी क्रम में हरीश अरोड़ा का एकांकी-लेखन राष्ट्रीय चेतना की खोई आवाज़ को पुनर्जीवित करने का कार्य करता है, विशेषकर- ‘महाप्रयाण’। ‘महाप्रयाण’ भारतेंदु के मुद्राराक्षस नाटक के विचार का विस्तार है । मुद्राराक्षस नाटक के केंद्र में राष्ट्र और समाज है इस एकांकी में इसी को लेकर बहस प्रस्तुत की गई है, एक असमाप्त-व्यापार (unfinished bussiness) । यह एक प्रकार का विस्तार है जो विचारधारात्मक विमर्श का आगामी पड़ाव है। आपने आर्यावर्त के स्वर्णिम इतिहास का पुनः स्मरण करवाया है, लेकिन जिसकी चेतना नवीन है। “कोई भी प्रतिभा संपन्न, प्राणवंत साहित्यकार अपने समय के ताप को अनुभव किये बिना रह नहीं सकता, और वह जो अनुभव करेगा तो उसके साहित्य में उसकी अभिव्यक्ति होगी ही।” 4 रचनाकार के कार्य से उसका समाज और समाज के कार्य से रचनाकार असम्पृक्त नहीं रह सकते । महाप्रयाण में इस बहस को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। रचनाकार के कृति का अंत कोई समाज से विलग नहीं हो सकता।

आज विचारों की जो टकराहट समाज और राजनीति में दिख रही है उसमें पूर्व व पश्चिम का सांस्कृतिक भेद स्पष्ट दृष्टव्य है । आज विकास के स्वरुप और धरातल पर चर्चा होती है। ऐसे में एक सजग विचारक अपनी अस्मिता और गौरव की खोज करे तो कुछ गलत नहीं। हमें परंपरा के किन अंशों को स्वीकारना है और किन विचारों को आयातित करना है यह गंभीर विषय है । हरीश अरोड़ा हमारे आदर्श इतिहास व मिथकों पर विचार कर संस्कृति के उन उज्जवल पक्ष की ओर पाठक का ध्यान केन्द्रित करना चाहते हैं जो भारतीय इतिहास का स्वर्णिम अध्याय रहा। वे इतिहास के माध्यम से मूल्यहीनता, विघटन, असंतोष को समसामयिक परिप्रेक्ष्य से समझने की कोशिश करते हैं। हर युग के परिवर्तन के पीछे एक घुटा हुआ इतिहास है जिससे मुक्ति दिलाकर मानवीय नैतिकता की स्थापना का लक्ष्य ही उन परिवर्तन की दिशा तय करता है। “राजनीतिक प्रगतिशीलता का काम नुस्खों से चल सकता है, पर साहित्यिक प्रगतिशीलता जीवन की गहराई में प्रवेश किये बिना नहीं आती।” 5

हरीश अरोड़ा ‘महाप्रयाण’ के अंतर्गत इतिहास से प्रेरणा स्रोत संगृहीत कर उनके उपेक्षित पक्षों तक के मंतव्यों में सन्निहित राष्ट्रीय दायित्व बोध की तरफ ध्यान इंगित करते हैं। इस संग्रह में कुल चार एकाँकी हैं- जिनकी विशेषता उनका राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना का स्वर है। ‘महाप्रयाण’ में मौर्य काल, ‘अर्धसत्य’ और ’त्यागपत्र’ में महाभारत काल, और ‘आत्मोत्सर्ग’ में रामायण काल और उनकी कथाओं के पीछे की मूल करवटों को लेकर मंथन किया गया है।

‘महाप्रयाण’ में गुप्त काल के स्वर्णिम इतिहास की परिपाटी दर्शायी गयी है । यह हमारे अतीत के गौरव गान का समय है। इसके अंतर्गत भारत का उदात्त जीवन-दर्शन, उन्नत भारतीय सभ्यता, धर्म के साथ दर्शन का श्रेष्ठ रूप, शीर्षस्थ राष्ट्र भक्ति जैसे भाव जिनका स्मरण मात्र भारतीय जन मानस में एक चिंगारी के सामान उर्जावान होता है, को आधारभूमि के रूप में प्रयोग किया गया है। राष्ट्रीय व जातीय स्वाभिमान के इतिहास को हरीश अरोड़ा ने अपने एकांकी का विषय चुना । इस काल में जड़ व्यवस्था का खंडन कर उचित लोकतांत्रिक-वरणीय-उर्जस्वित व्यवस्था का निर्माण हुआ। मानवीयता के साथ राष्ट्रीयता का स्वर तीव्र हुआ। एक विभक्त राजनीति के स्थान पर एकात्म की राजनीति का साक्षात्कार हुआ। “यदि व्यक्ति इतिहास बनाता है तो वहां मात्र व्यक्ति ही नहीं प्रत्युतर समष्टि की आकांक्षा का वह प्रतिनिधित्व भी होता है। समष्टि चाहे सुप्त दशा में ही क्यों न हो व्यक्ति उसके चरित्र की प्रेरिका होती है।” 6

‘महाप्रयाण’ में चाणक्य के अखंड-राष्ट्र के स्वप्न की पूर्ति हेतु नन्द वंश के अंत की रणनीति द्रष्टव्य है । अनुराग जो एकांकी का प्रमुख चरित्र है, जिसकी रचना का नाम है ‘महाप्रयाण’, उसकी रचना से आम जन जीवन में नवीन चेतना का संचार हुआ है। परन्तु स्वयं लेखक अनुराग इस ग्रन्थ के अंत को लेकर निश्चित व संतुष्ट नहीं है । एकांकी के अन्दर कई प्रश्न है । हिंसा-अहिंसा में कौन सी स्थिति वरणीय व उचित है, नैतिकता व मानवीयता की रक्षा कैसे हो – इसी मानसिक उद्वेलन से ग्रस्त है। वह यथार्थ और कल्पना के द्वंद्व में फंस जाता है। चन्द्रिका, सुकांत, सिद्धार्थक मानो उसे लक्ष्य तक ले जाने वाली कड़ी हैं। कल्पना की आधारभूमि हमारा देखा-सोचा-समझा यथार्थ ही है । यथार्थ और कल्पना का सापेक्षता सम्बन्ध है जिसका आभास अनुराग को समय-समय पर होता है। “महाकवि चेतो चेतो कल्पना ही जीवन है।” 7 और “मनुष्य का कर्म ही उसका यथार्थ है ।” 8

‘महाप्रयाण’ एकांकी में साहित्य का समाज व राजनीति से गहरा सम्बन्ध दर्शाया गया है। “सारा साहित्य अपने परिवेश में गढ़ा जाता है। यद्यपि कला के भक्त दावा करते हैं कि साहित्य विश्व की दिशा बदल सकता है, सच्चाई यह है राजनीति पहले आती है और साहित्य उसके अनुरूप बदलता है।” 9 हरीश अरोड़ा के इस संग्रह में भी राजनीति और साहित्य का यह सापेक्षता सम्बन्ध दिखता है जिसका स्वर आज का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य भी है। विकल्प मौजूद है चयन दिशा निश्चित करेगा।

साहित्यिक और विचारधारात्मक मत अलग हो सकते है परन्तु उनमें लोक कल्याण व लोकचेतना का भाव अंतर्निहित होना चाहिए। वास्तव में साहित्य का यही उद्देश्य है। वे अनुराग को समझाते हैं कि उनकी रचना ‘महाप्रयाण’ “राष्ट्र की सम्पदा का एक अंश है और फिर तुमने जिन भावों को समाज में उनके हिताय बाँट दिया है, उन भावों को उनसे माँगने का अधिकार अब तुम्हें नहीं।” 10

एकांकी में राष्ट्रीय सुरक्षा, अखंड भारत, एकत्व की भावना मूल रूप में दृष्टिगत हुई है। विष्णुगुप्त का भी यही लक्ष्य था। “आचार्य मात्र नंदवंश का सर्वनाश नहीं करना चाहते …..वे नन्द वंश के साथ इस समाज में फलीभूत क्रूरता और निराशा को समाप्त करने का निश्चय कर चुके हैं।” 11 राष्ट्र भावना किसी भी अन्य निजी भावना से सर्वोपरि है। “देश की अखंडता का प्रश्न मनुष्य की इच्छाओं या उसकी समस्याओं से कहीं अधिक विशाल है।” 12 जन में राष्ट्र प्रेम का प्रसार और जीर्ण क्षीण भावनाओं से ऊपर उठाना, साथ ही सकारात्मक दिशा प्रेषित करना साहित्य का उद्देश्य है। ‘महाप्रयाण’ में हरीश अरोडा लिखते हैं- “राष्ट्र का हित जीवन जीने में नहीं जीवन समझने में है।” 13

हरीश अरोड़ा की दो एकांकी की पृष्ठभूमि भारतीय संस्कृति के महान ग्रन्थ ‘महाभारत’ पर सृजित है। ‘त्यागपत्र’ और ‘अर्धसत्य’ नामक दो एकांकी हैं जिसमें एक युद्ध से पहले और दूसरा युद्ध के बाद की स्थिति पर मत-मतान्तर प्रस्तुत किया गया है। ‘त्यागपत्र’ में एक ओर भीष्म और विदुर धृतराष्ट्र को कौरवों और पांडवों के विद्वेष से पैदा होने वाले भीषण जनसंहार व जान माल की हानि के प्रति सचेत कर रहे हैं । वह धृतराष्ट्र को चेता रहे हैं कि भविष्य की आधारशिला का बोझ राजा के कंधों पर ही होता है। एक राजा को राष्ट्र की चिंता पहले और स्व की चिंता बाद में होनी चाहिए। लोभ और स्वार्थ जनित महत्वाकांक्षा सम्पूर्ण राष्ट्र के नाश का कारण बनती है। “अपने कर्तव्यों से विचलित हुआ राजा नेत्रों के होते हुए भी नेत्रहीन होता है और अपने युग की विडंबनाओं का वही मूल आधार बनता है।” 14 विदुर समझाते हुए कहते है – “राजसिंहासन किसी की व्यक्तिगत सम्पदा नहीं है कि विनाशलीला के पश्चात मातृभूमि का सम्पूर्ण दायित्व युवराज दुर्योधन पर नहीं आप पर होगा।” 15 वहीँ दूसरी ओर दुर्योधन इन नीति वचनों से क्रुद्ध हो उनका विरोध करता है। दुर्योधन में बसा आत्माभिमान व कुंठा उसकी विचार दृष्टि को बाँध देता है।

एकांकी का आरम्भ ही अनहोनी की आशंका से होता है । “त्याग, पुण्य, सच- कोई नहीं बचा सकेगा कुरुवंश को……मैं केवल आशा करता हूँ , सत्य की आशा , पुण्य की आशा ,मानव धर्म के आदर्श का यथार्थ ।” 16 विदुर की नीति-बुद्धि इस अनहोनी को नही होने देना चाहती। वह इसकी संभावना को ही ख़त्म करना चाहते है और इसीलिए युवराज दुर्योधन के जीवन का अंत करने को तत्पर होते हैं । परन्तु राजा धृतराष्ट्र का अंधा मोह इसे अस्वीकार कर देता है। ऐसे में वह उस राजनीति तक का हिस्सा नहीं बनना चाहते जिसकी धुरी ही अनीति हो। “महाराज ! इस अमर्यादित जीवन जीने से कहीं अधिक उचित है, मैं अपने पद से त्यागपत्र दे दूँ। निर्णय आप पर है। युद्ध का प्रतिरोध, दुर्योधन की मेरे हाथों मृत्यु, अथवा महामंत्री का त्यागपत्र।” 17

ऐसे में कृष्ण का प्रवेश होता है और विदुर कृष्ण से निर्णय में सहयोग चाहते हैं। तब कृष्ण ही कहते हैं कि युद्ध एक अवश्यम्भावी सत्य है। वे युद्ध को रोकने का प्रयास भी कर चुके हैं लेकिन नियति उसी दिशा की ओर करवट ले चुकी हैं । “युद्ध तो अनिवार्य है क्यूंकि यही सत्य है, वही आदर्श है। युद्ध और कर्म की प्रतिबद्धता की प्रक्रिया से निकलने पर ही मनुष्य को यथार्थ की अनुभूति होती है।” 18

वह कहते हैं कि वह केवल आशा का एक रूप हैं ,सत्य का प्रकाश हैं जो आदर्श जीवन के स्थायित्व हेतु और अमर्यादित शक्तियों के क्षमन हेतु प्रयासरत हैं। देवता का अवतार लोकमंगल की स्थापना हेतु होता है। यही कर्म उनको देवत्व की स्थिति में पहुंचा महान बनाता है। प्रत्येक व्यक्ति में देवता व राक्षस दोनों का वास होता है । उसके कर्म उसकी वृत्ति का निर्धारण करते हैं ।

आज फिर से वही असुरक्षा का भाव, दानवी वृति, असंतोष -मानव व राष्ट्र में व्याप्त है, जो मानव को अपने सत्कर्म की और पुकार रहा है। आज भी संपत्ति हेतु अपनों में संघर्ष, लोभ, अहम्, भ्रष्टाचार,राजनीतिक असंतोष, सीमा सुरक्षा, लोकतंत्र का खतरे में होना, अवसरवाद, गिरती नैतिकता और मर्यादा, मानव समाज का बहुमुखी द्वंद्वात्मक संघर्ष -राष्ट्र के लिए प्रश्न बने हुए हैं। परन्तु इन सबसे बड़ी है मानव समाज की जिजीविषा जो संघर्ष का सामना कर शांति का पथ निर्माण करती है।

सन १९५५ में धर्मवीर भारती का सुप्रसिद्ध गीतिनाट्य ‘अँधा युग’ आया था और अब महाभारत के १८वे दिन के पश्चात की पृष्ठभूमि पर हरीश अरोड़ा का गीति एकांकी ‘अर्धसत्य’ साहित्य के क्षेत्र में आया है, एक नए आवरण में। हरीश अरोड़ा ने एकांकी साहित्य में एक नवीन प्रयोग किया है। अभी तक साहित्य की किसी भी विधा की आलोचना (समर्थन या विरोध) हेतु आलोचना या लेख विधा का उपयोग होता रहा है। अब इन्होंने कथा के उत्तर में इसकी आलोचना (समर्थन या विरोध) हेतु कथा-माध्यम का ही प्रयोग किया है। अतीत के नाटक के प्रसंग में एकांकी साहित्य का सृजन हिन्दी की परिपक्वता को बताता है। ‘अर्द्धसत्य’ में विभिन्न प्रसंग और संवाद में या शब्दावली की समानता के माध्यम से इसे सहज ही महसूस किया जा सकता है। यह एक प्रकार से अपनी ही परंपरा का पुनर्पाठ है।

हरीश अरोड़ा ने युद्धजनित अवसाद को एक सकारात्मक मानवीय जीजिविषा के रूप में ढाला है। संत्रास से ग्रसित पात्रों को एक सकारात्मक दिशा दी है । महाभारत एक ऐसा ग्रन्थ है जिसके प्रत्येक अंक में नैतिकता और अनैतिकता पर विचार के साथ संघर्ष व्याप्त है। महाभारत कोई एक दिन की घटना का नहीं अपितु इसके पार्श्व में क्रमशः उपजती कुंठा, अवसाद, द्वंद्व और प्रतिद्वंदिता का संघर्ष है जिसका प्रतिफलन युद्ध में हुआ। चाहे यह कुंठा पीढ़ियों की हो या समकालीनों से उपजी हुई, लेकिन टूटते मानवीय रिश्ते, आपसी द्वेष, नैतिकता और संस्कारों का विरोधाभासी स्वरुप, अधिकार भाव व शक्ति संचयन साथ में इन्हीं स्थितियों के चलते मतभेद का मनभेद में परिवर्तित होना-ही महाभारत है। ‘अर्धसत्य’ को युद्ध के बाद का शोक संवाद भी पुकार सकते हैं। गांधारी का केवल एक पुत्र युयुत्सु जीवित है लेकिन महाकाल की काली छाया से अपनों से घात करने के कारण उसे कोसती है। युयुत्सु के मन में बार-बार यही विचार उत्पन्न होता है कि इसका कारण क्या धर्म और नैतिकता का साथ देना था, जिस कारण स्वयं अपनी माँ तक की घृणा प्राप्त हो रही है । गांधारी उसे कुलनाशी व कुलघाती पुकारती स्वीकारती है।

“ घृणा मेरा फल है !

मेरे कर्मों का सार मिला क्या मुझे ?” 19

गांधारी की यह अवहेलना युयुत्सु में अपराधबोध के साथ अवसाद भर देती है जिससे वह आत्महनन की स्थिति तक पहुँच जाता है –

“तुम तो केवल कोख पले हो

पुत्र नहीं हो मेरे” 20

युयुत्सु अपने जीवन का अंत चाहता है, दुखद अंत –

“अभी इसी क्षण मृत्यु पाऊं

किन्तु मोक्ष मिले न मुझको

प्रेतयोनी के कुल में मुझको मिले स्थान

और भटकता रहूँ सदा ब्रह्माण्ड विविर में

मोक्ष मिले न

यही दंड होगा मेरा”

किसी व्यक्ति का संताप में अपने लिए दुरूह से दुरुह्तर दुःख माँगना उसके जीवन के संत्रास को दर्शाता है । मानव जिसकी पीठ पर युग का भविष्य टिका हो उसका जीवन संत्रास युक्त हो तो भविष्य का भी उन्मुक्त विकास नहीं होगा। ऐसे में कृष्ण स्वयं आकर युयुत्सु के इस अवसाद का अंत करते हैं। कृष्ण युयुत्सु को समझाते हुए कहते हैं-

“मृत्यु केवल अर्धसत्य है अनुज प्रिय

यह जीवन संत्रास

व्यर्थ की कुंठा और निराशा

नहीं शोभता तुमको

जीवन में लय है

गति है

तुम करो उसी का गान।” 21

आज का युवा भी भटकाव की स्थिति में हैं। सत्य-असत्य, नैतिकता-अनैतिकता, धर्म-अधर्म के संशय में है। यही संशय उसके तनाव का कारण बनता है। श्रीमद्भगवत गीता में कहा गया है ‘संशयात्मा विनश्यति’। नैतिक पथ सहज ग्राह्य नहीं और ना ही प्रशस्ति उसका अंत होता है। लेकिन मानव जब न्याय और धर्म के मार्ग पर चलता है तो उज्ज्वल भविष्य हेतु कष्ट उठाना ही होगा और सकारात्मक रहना होगा। तब हम जीवन के यथार्थ को बदल पाएंगे।

क्रोधजनित शब्द जो गांधारी के मुंह से निकले हैं वह केवल गांधारी के नहीं है बल्कि एक आहत माँ, एक आहत रानी और एक आहत स्त्री के हैं जिसने अपने यह तीनो रूप कुरुवंश की राजनीति में होम कर दिए । वह आहत स्त्री जो अपने शत पुत्रों, गुरुओं, कुल रक्षकों, सहयोगियों को खो चुकी है जिसे युद्ध के १८ दिन केवल हार मिली है, जिसकी नगरी रुदन से गूँज रही है । वह शोक से इतनी त्रस्त है कि नारायण कृष्ण भी उसकी क्रोधाग्नि से ना बच सके-

“जैसे मेरा पुत्र मरा पीड़ा से

और मरे कोटिक योद्धा

तुमको भी सहनी होगी वैसी पीड़ा

और मृत्यु को पाओगे” 22

परन्तु यहाँ भी नारायण द्वारा शाप की सहज स्वीकृति गांधारी में पश्चाताप भर देती है। उसके अंदर के क्रोध और अंधकार के घने बादल छांट देती है।

महात्मा विदुर जब नैतिक मार्गदर्शक समा न कौरवों और पांडवों के बीच हुई अनीति का वाचक बनते है तो कहते है कि मर्यादा और नैतिकता तो तभी ताक पर लग गयी थी जब एक सम्मानीय स्त्री और अपनी ही कुलवधू का चीरहरण भरी सभा में हुआ था। यह एक स्त्री की अस्मिता और गरिमा का प्रश्न नहीं अपितु अन्धकार, लोभ, अनैतिकता और अमर्यादा की पराकाष्ठा थी जिसने युद्ध की नींव रखी। उस समय मैंने(विदुर) बहुत रोकने और समझाने की कोशिश की लेकिन सभा के सभी विद्वत जन धर्म-अधर्म का भेद भूल गए।

“राजा चाहे जो भी हो

रक्षक थे वे कुरुवंश के”

कृष्ण, काल के उस चक्र समान है जो दिशा तो दिखाता है मगर दिशा का चयन पथिक के हाथ में होता है। वे दूत बने, अहिंसा का मार्ग दर्शाया, युद्ध का प्रतिफलन बताया, राजा का कर्तव्य और मर्यादा का मार्ग बताया । लेकिन लोभ, मोह, अहंकार, प्रतिद्वंद्विता की आँखें कहाँ होती है ।

“मैं स्वयं एक ऐसा धनु हूँ

जिसकी प्रत्यंचा साध नहीं पाता गर्वित” 23

वर्तमान में मनुष्य भी ऐसा ही असहज है। लेकिन उसे दिशा दिखाने हेतु कृष्ण नहीं। साथ ही राष्ट्र में शक्ति संग्रह और शक्ति प्रदर्शन वश निरंतर संघर्षमय स्थिति बनी रहती है । जो योद्धा इस संघर्ष को शांत करने का प्रयास करते हैं उनके घरवालों में भी युयुत्सु और गांधारी समान पीड़ा होगी। लेकिन यह कृष्ण रुपी राष्ट्र जो सब कुछ देखता है, धर्म का मार्ग सुझाता है, लेकिन परवश हो अपने ही धनुष में चढ़ी प्रत्यंचा से खुश नहीं क्योंकि दोनों ही पक्ष उसके है तो नुकसान भी उसी का हुआ। जबकि भारत सदैव से ही शांति को अग्रगण्य स्थान देता है।

“ राष्ट्र जातियों के संघर्षण से ही चलता है

किसे प्रिये था युद्ध

शांति के हम सेवक थे ।” 24

“मैं सबमे था

सब मुझमे थे

मैं सब में हूँ

सब मुझमे हैं

सब कृष्ण यहाँ” 25

लेखक अभी भी मानव के अंदर देवत्व का भाव होने की बात बताता है। यदि राक्षस वृत्ति वाले हम है तो देवात्मा भी हम में ही है। हमे अपने परिवेश को अपने कर्म से सकारात्मक निर्देश देना होगा। धर्म और न्याय की स्थापना में युद्ध भी हो तो वह धर्म युद्ध होगा ।

हरीश अरोड़ा जी का चौथा एकांकी ‘आत्मोत्सर्ग’ है। यह रामायण के राम राज्याभिषेक और राम वन गमन की पाशर्व भूमि पर निर्मित है। राम का अवतार जिस हितार्थ हुआ था उसी क्रम को आगे बढाने वाली यह नियति देव सृजित है । इसका माध्यम कैकयी व मंथरा बने। राम सर्व सनेही हैं। कैकयी को तो भरत से भी अधिक प्रिय हैं। परन्तु दूसरी ओर रावण की शक्ति के साथ राक्षसी प्रभाव से जन के साथ देवलोक भी चिंतित हैं। इस राक्षसी ताकत के अंत की नियति ही राम का वन गमन है। इसी प्रयोजन से देवर्षि नारद, चिंतित देवराज इंद्र को अपनी योजना बताते हैं कि कैकयी से इस सन्दर्भ मे उन्होंने बात की है। पहले तो कैकयी कुल के दीपक व अपने प्रिय राम के साथ यह अनीति करने को लेकर सहमत नहीं होती। वह राम के स्थान पर भरत को यह पीड़ा देने, यहाँ तक कि उसके जीवन पर्यंत वनवास तक की बात कहती है। वे कहती हैं कि भरत में भी सूर्यवंशियों का रक्त है वह भी वचन से डिगेगा नहीं। साथ ही वह राक्षसी साम्राज्य से निडर हो लोहा भी ले सकता है । तब देवर्षि समझाते हैं कि नारायण का मानव रूप में जन्म ही इसी ध्येय पूर्ति हेतु हुआ है। अमंगल का नश कर मंगल की स्थापना ही उनका लक्ष्य है। “देवी- यह युद्ध राम और रावण का नहीं – यह सत्य और असत्य का युद्ध है । अन्धकार और प्रकाश का युद्ध है । देवों और राक्षसों का युद्ध है।” 26

वे कैकयी को युग को नई चेतना देने की बात करते हैं। हर परिवर्तन से पहले गहरा अन्धकार छिपा होता है। किसी को उसके समूल नाश हेतु अग्रसर होना ही पड़ता है। “यह समय सोचने का नहीं है, इतिहास की नवीन चेतना के जन्म का है। अयोध्या के महागौरावशाली इतिहास की चेतना का, आर्य जाति की सांस्कृतिक चिंतनधारा की वैचारिक चेतना का,देव-जाति के सृष्टि को वितरित परम आनंदवाद की महामूर्ति का।” 27

देवर्षि कैकयी को पूरी रणनीति बताते हैं और सरस्वती के सहयोग द्वारा बुद्धि हरण और आगे होने वाले प्रसंगों के विषय में भी बताते हैं। कैकयी को सामाजिक अवहेलना तक का भय नहीं था। उनके लिए देव प्रयोजन और जन रक्षा सर्वोपरि है। “यदि देव और आर्य जातियों की राक्षसों से मुक्ति के लिए मुझे समाज और राज्य से बहिष्कृत भी होना पड़े तो कोई विकलता नहीं।” 28

सम्पूर्ण रामायण और लोक जीवन में कैकयी को जिस अवहेलना की दृष्टि से राम वन गमन विषय पर देखा जाता रहा है उस व्यक्तित्व को हरीश अरोड़ा ने एक नयी उंचाई पर पहुँचाया है। कैकेयी के लिए मातृत्व से भी ऊँचा राष्ट्र और राष्ट्रवासियों की रक्षा है। कैकयी सर्वप्रथम एक क्षत्राणी है जो अपने कर्म से डिगती नहीं। “मैं सूर्य वंश की क्षत्राणी रानी हूँ। क्षत्राणी होने के दायित्व से मुक्त होकर मैं स्वयं को अपने पूर्वजों के समक्ष लज्जित नहीं करना चाहती।…..देवराज सूर्यवंशियों का जीवन अपने लिए नहीं रहा……यदि राक्षस जाति की आसुरी शक्तियों की दुर्जेय अभिकल्पना को तोड़ना मेरे राम के हाथ में लिखा है तो अपने राम की शपथ इस अखंड राष्ट्र की वृहद् और सशक्त शिलाओं की जड़ों में शून्यता भर देने वाले इन आतताइयों की राम के हाथों मुक्ति अवश्य होगी।” 29

कैकयी के चरित्र को पराकाष्ठा तक ले जाना साहित्य का एक नवीन प्रयोग है। अखंड राष्ट्र व जाति की सुरक्षा हेतु एक क्षत्राणी स्त्री का सामाजिक बहिष्कार सहना बहुत बड़ा त्याग है। दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है कि राष्ट्र की अस्मिता और सुरक्षा में स्त्री का सामने आना । वर्तमान में स्त्री का सैन्य टुकड़ी में शामिल होना, राजनीतिक और वैचारिक मंच में अग्रसर होना स्त्री की शक्ति और सामर्थ्य का परिचायक है। स्त्री को केवल मातृत्व स्वरुप व्याख्यायित करना उसके भीतर के एकांगी रूप को दर्शाता है। उसका व्यक्तित्व इससे कहीं अधिक उपयोगी है। साथ ही समाज और राष्ट्र के पुनरुथान का जो प्रयास इस ‘महाप्रयाण’ एकांकी संग्रह में हैं उसमें स्त्री भी एक मत्वपूर्ण पक्ष है। हिंदी साहित्य में जिस प्रकार मैथिलीशरण गुप्त का प्रयोग ‘साहित्य में उर्मिला विषयक उदासीनता’ लेख में उपेक्षित उर्मिला के त्याग को दर्शा उसके चरित्र की महानता प्रस्तुत की गयी, उसी प्रकार यही प्रयास कैकयी और उसकी सामाजिक उपेक्षा के सन्दर्भ में हरीश अरोड़ा के एकांकी ‘आत्मोत्सर्ग’ में दिखा।

“साहित्य का क्षेत्र स्वस्थ और सबल भावनाओं के सृजन का क्षेत्र है……समय के प्रवाह के साथ नयी विचारधाराएं और नवीन जीवन दर्शन साहित्य में समाविष्ट होते हैं……साहित्यकार अपने युग की बहुमुखी सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं का प्रदर्शन करता है और उनके सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध प्रतिक्रियाओं का निरूपण कर दिखाता है।” 30 हरीश अरोड़ा के एकांकी साहित्य में भी आज के समय की आवाज़ और चिंताएं प्रदर्शित होती हैं। एक सजग लेखक का अपनी समसामयिक परिस्थितियों से अलग रह पाना संभव नहीं। आज भारत में भी सुरक्षा, एकता, आतंकी गतिविधियों, आतंरिक संघर्ष व मतमतांतर के चलते विकट स्थितियां बनी हुई है। राष्ट्र को कमज़ोर करने के बहुत से प्रयास नज़र आते हैं। शांति स्थापना और लोकतंत्र की रक्षा एक चुनौती बनी हुई है।

हरीश अरोड़ा ने इतिहास और संस्कृति के उन पक्षों को उठाया जहाँ राष्ट्र और समाज खतरे की स्थिति में है। ऐसे में भारत के वीरों और वीरांगनाओं को अपना दायित्व समझ नीति के तहत सुरक्षा का प्रयास करना होगा। भारतीय जन मानस को उसका पुरुषार्थ और औदात्य स्मरण इस एकांकी संग्रह द्वारा हुआ है। आततायी शक्तियों का सामना करना ही होगा ताकि सुख-शांति, मूल्य, मर्यादा व नैतिकता का संचार समाज में हो सके। इस हेतु खंडित ताकत को एकात्म स्वरुप धारण करना होगा। चिंतको का लेखन आत्मगौरव और विश्वास को बढाने हेतु एक मनोवैज्ञानिक प्रयास हो सकता है। संघर्ष कई बार नियति बन जाता है। लेकिन भयमुक्त हो उसका सामना उज्ज्वल भविष्य की कामना हेतु करना पड़ता है। जान-माल की हानि अवश्य होती है लेकिन उन वीरों के संबंधियों में इससे अवसाद नही अपितु राष्ट्र गौरव का अभिमान हो, ताकि आगे की पीढ़ी भी ऐसे प्रेरणा वीरों की गाथाये सुन राष्ट्र स्वाभिमान के लक्ष्य की ओर बढे।

हरीश अरोड़ा के एकांकी संग्रह का कथानक और उद्देश्य जितना प्रेरणास्पद है उतनी ही उनकी रंगमंचीय कला भी एकांकी का सौंदर्य बढाती दिखती है। उनके एकांकियों की एक प्रमुख विशेषता चरित्रों का स्वगत कथन और फ्लैशबैक पद्धति है। जब कोई पात्र या स्थिति में अत्यधिक संघर्ष, विचार मंथन की आवश्यकता होती है तब लेखक उस स्थिति को और अधिक रोमांचक व नाटकीय दिखाने हेतु इस पद्धति को अपनाता है। ताकि पाठक में जिज्ञासा बनी रहे । जैसे पात्रों का अपने आप से बात करना या एक अदृश्य शक्ति से पात्र का वार्तालाप या कहें स्वयं के अन्दर चल रही उथल उथल स्वगत कथनों में दिखती है। ‘महाप्रयाण’ में अनुराग का आत्मालाप, एक काली घनी आकृति से युयुत्सु का ‘अर्धसत्य’ में सामना, इसी में गांधारी का मन ही मन पश्चाताप, ’त्यागपत्र’ में छाया से संवाद-वह घटना की गंभीरता दर्शाता है। वास्तव में यह लेखक द्वारा कथानक में गर्भित सन्देश होते हैं। वहीं इन्ही संकेतों को आरम्भ में दर्शा कर अंततः उसी नियति का परिणति तक पहुंचना एक प्रकार की पूर्वस्मृति पद्धति का आभास देती है। जैसे ‘महाप्रयाण’ में दिखता है। यह लेखन की विशेष शैली शिल्प एकांकी को और अधित दमदार बना देती है।

मंच सज्जा, ध्वनि, रौशनी का प्रयोग यह उनके एकांकियों की रंगमंचीय प्रतिभा दर्शाती है। कहा जाता है कि मंच सज्जा पश्चिम से प्रभावित है। परन्तु नाटकों का मंचन भारत में प्राचीन समय से होता रहा है। मोहन राकेश कहते हैं-“हमारे दैनंदिन जीवन के राग-रंग को प्रस्तुत करने के लिए, हमारे सम्वेदों और स्पंदनों को अभिव्यक्त करने के लिए जिस रंगमंच की आवश्यकता है, वह पाश्चात्य रंगमंच से कहीं भिन्न होगा। इस रंगमंच का रूप विधान नाटकीय प्रयोगों के अभ्यंतर से जन्म लेगा और समर्थ अभिनेयताओं और दिग्दर्शकों के हाथों उसका विकास होगा।” 31

रंगमंचीयता की दृष्टि से हरीश अरोड़ा ने मंच सज्जा, आवरण का उठाव और गिराव, रोशिनी का विशिष्ट स्थान, रंगों का कुशल प्रयोग, ध्वनियों द्वारा वातावरण उद्दीपन यह सभी मंचन के दृष्टि से लेखक की कुशलता तो दिखाते ही हैं वहीँ पाठक के समक्ष भी ऐसे बिम्ब उत्पन्न कर देते हैं जैसे कोई फीचर पाठक से समक्ष प्रस्तुत हो। भावाभिव्यन्जना में यही बिम्ब प्रेरक साबित होते हैं । अगर कथ्य और शिल्प की दृष्टि से डॉ हरीश अरोड़ा के एकांकियों को समर्थ एकांकी कहा जाये तो अति नही होगी ।

संदर्भ सूची

हिंदी एकांकी : उद्भव और विकास ,डॉ रामचरण महेंद्र,प्रदीप साहित्य प्रकाशन, पृष्ठ-भूमिका

हिंदी एकांकी ,डॉ सत्येन्द्र , साहित्य रत्न भण्डार ,आगरा, पृष्ठ-४०

हिंदी आलोचन की पारिभाषिक शब्दावली ,डॉ अमरनाथ,राजकमल प्रकाशन ,दिल्ली, पृष्ठ -९९

स्कन्दगुप्त : संवेदना और शिल्प, सिद्धनाथ कुमार,अनुपन प्रकाशन, पटना, पृष्ठ २५

जयशंकर प्रसाद-नन्द दुलारे वाजपेयी , कमल प्रकाशन , जबलपुर, पृष्ठ -११

स्कंदगुप्त –जय शंकर प्रसाद , अनीता प्रकाशन,दिल्ली, पृष्ठ- निवेदन

अरोड़ा, हरीश (2014), महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ -२०

वही, पृष्ठ -३३

लेखक की साहित्यिकी,नंदकिशोर आचार्य,वाणी प्रकाशन,दिल्ली, पृष्ठ-१२४

महाप्रयाण, पृष्ठ – २२

अरोड़ा, हरीश (2014), महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ – २५

अरोड़ा, हरीश (2014), महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ -२७

अरोड़ा, हरीश (2014), महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ -३३

अरोड़ा, हरीश (2014), ‘त्यागपत्र’, महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ ८६

अरोड़ा, हरीश (2014), त्यागपत्र,महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-८७

अरोड़ा, हरीश (2014), त्यागपत्र,महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-७९

अरोड़ा, हरीश (2014), त्यागपत्र , महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ -९१

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अरोड़ा, हरीश (2014), अर्धसत्य , महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ -३६

अरोड़ा, हरीश (2014), अर्धसत्य, महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ -४४

अरोड़ा, हरीश (2014), अर्धसत्य,महाप्राण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-५२

अरोड़ा, हरीश (2014), अर्धसत्य , महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ -५३-५४

अरोड़ा, हरीश (2014), अर्धसत्य,महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-५१

अरोड़ा, हरीश (2014), अर्धसत्य,महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-४८

अरोड़ा, हरीश (2014), अर्धसत्य,महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ -५६

अरोड़ा, हरीश (2014), आत्मोत्सर्ग, महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ -६९

अरोड़ा, हरीश (2014), आत्मोत्सर्ग,महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ -७१

अरोड़ा, हरीश (2014), आत्मोत्सर्ग,महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-७५

अरोड़ा, हरीश (2014), आत्मोत्सर्ग,महाप्रयाण, सूर्यप्रभा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ -७५

जयशंकर प्रसाद-नंददुलारे वाजपेयी,कमल प्रकाशन, जबलपुर, पृष्ठ – १७

आषाढ़ का एक दिन-मोहन राकेश, राजपाल एंड संस प्रकाशन,दिल्ली, पृष्ठ-दो शब्द

हिन्दी साहित्येतिहास की समस्याएँ

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हिन्दी साहित्येतिहास की समस्याएँ

प्रवीन वर्मा

पीएच.डी, हिन्दी,अंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली

फोन न. 9899670330,8810341549

ई. मेल vermapraveen452@gmail.com

शोध सारांशइतिहास चाहे साहित्य का हो या देश का, वह सिर्फ तथ्यों से नहीं बनता बल्कि उसमें तथ्यों से अधिक महत्व व्याख्याओं का होता है। इतिहासबोध की परंपरा में सक्रिय परिवर्तन शुक्ल जी ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में प्रत्यक्षवादी या विधेयवादी दृष्टिकोण से किया। जिसके अंतर्गत जाति, वातावरण तथा क्षण तीन तत्वों को सर्वाधिक महत्व दिया। शुक्लजी के उपरांत कई इतिहासकारों ने इतिहास लिखे। वह सभी इतिहास शुक्ल के इतिहास को केंद्र में रखकर ही लिखे गए है हालांकि इतिहासबोध की दृष्टि से इतने खरे नहीं उतर पाए सिवाए हजारी प्रसाद द्विवेदीजी के।

बीज शब्द – इतिहासबोध, भाषिक संक्रमण, इतिहास, अपभ्रंश, बंधुत्व, साहित्येतिहास, वर्चस्व, पौरुष, तथ्य, संस्कृति, विभाजन, परिकल्पना।

शोध आलेख

इतिहास

इतिहास में अतीत की घटनाओं और प्रवृत्तियों का कालक्रमानुसार विवेचन और विश्लेषण होता है। इतिहास में घटनाओं और तथ्यों का समावेश किया जाता है, किन्तु यह सब मिलकर इतिहास नहीं कहलाता। इतिहास चाहे साहित्य का हो या देश का, वह सिर्फ तथ्यों से नहीं बनता बल्कि उसमें तथ्यों से अधिक महत्व व्याख्याओं का होता है। प्रसिद्ध इतिहासकार ई.एच.कार ने अपनी पुस्तक ‘इतिहास क्या है’ में लिखा है कि, ”इतिहास, इतिहासकार और तथ्यों की क्रिया-प्रतिक्रिया की एक अनवरत प्रकिया है, अतीत और वर्तमान के बीच एक अंतहीन संवाद है।”1 स्पष्ट है कि घटना प्रवाह में एक तर्क स्थापित करना इतिहास कहलाता है।

साहित्येतिहास

यदि हिन्दी साहित्येतिहास की समस्याओं पर विचार करे तो हम पाते है कि उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व भक्तमाल, कालीदास हजारा, कविमाला, चौरासी वैष्णव की वार्ता, दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता इत्यादि रचनाओं में इतिहास लेखन की आरंभिक झलक दिखाई पड़ती है, ये सभी रचनाएँ इतिहासबोध के स्तर पर प्रभाव शून्य हैं। उन्नीसवीं सदी में इतिहास लेखन की औपचारिक शुरूआत हुई। जिसमें गार्सा द तासी का ‘इस्तवार द ला लितरेत्युर ऐन्दुई ऐन्दुस्तानी’ शिवसिंह सेंगर का ‘शिवसिंह सरोज’ आदि इतिहासबोध से युक्त नहीं है। जॉर्ज ग्रियर्सन और मिश्रबन्धु के प्रयास में इतिहासबोध के प्रति सजगता दिखाई पड़ती है। लेकिन इनके इतिहास में भी इतिहासबोध की निश्चयात्मक व्याख्या प्रस्तुत नहीं है। इतिहासबोध की परंपरा में सक्रिय परिवर्तन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में प्रत्यक्षवादी या विधेयवादी दृष्टिकोण से किया। जिसके अंतर्गत जाति, वातावरण तथा क्षण तीन तत्वों को सर्वाधिक महत्व दिया। शुक्ल के उपरांत कई इतिहासकारों ने इतिहास लिखे। वह सभी इतिहास शुक्ल के इतिहास को केंद्र में रखकर ही लिखे गए हैं हालांकि इतिहासबोध की दृष्टि से इतने खरे नहीं उतर पाए सिवाए हजारी प्रसाद द्विवेदी के, हमें यह भी ध्यान रखना आवश्यक होगा कि हजारी प्रसाद द्विवेदी का इतिहास कोई इतिहास नहीं है बल्कि भूमिका मात्र है। बच्चन सिंह ने कहा है कि, ”न तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ को लेकर कोई दूसरा इतिहास लिखा जा सकता है और न उसे छोड़कर।“2

विद्वानों में मतभेद

हिन्दी साहित्य के इतिहास के आरंभ को लेकर विद्वानों में काफी मतभेद रहा है। कुछ विद्वान हिन्दी साहित्य को सातवीं शताब्दी से मानते हैं, क्योंकि सातवीं शताब्दी में पूर्ववर्ती अपभ्रंश के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। ऐसे विद्वानों में जॉर्ज ग्रियर्सन, मिश्रबन्धु, शिवसिंह सेंगर, पंडित राहुल सांकृत्यायन, डॉ. नगेंद्र और डॉ. रामकुमार वर्मा शामिल हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी व आचार्य रामचन्द्र शुक्ल दोनों हिन्दी साहित्य का आरंभ दसवीं शताब्दी से मानते हैं। द्विवेदी जी की दृष्टि में इसका कारण भाषिक है, जबकि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपभ्रंश को पुरानी हिन्दी मानते हैं किन्तु काफी समय तक सांप्रदायिक रचनाएँ होती रही, जिन्हें साहित्य नहीं माना जा सकता। इसीलिए वास्तविक रूप से हिन्दी साहित्य का आरंभ संवत् 1050 या 993 ई. के आस-पास से आरंभ हुआ। गणपति चन्द्रगुप्त और हरीशचन्द्र वर्मा हिन्दी साहित्य का आरंभ बारहवीं शताब्दी से मानते हैं और इसका कारण यह बताते हैं कि बारहवीं सदी के आस-पास अपभ्रंश व अवहट्ट से गुजरते हुए हिन्दी भाषा पुरानी हिन्दी के दौर में प्रवेश कर चुकी थी। वहीं सुनीति कुमार चटर्जी, उदय नारायण तिवारी तथा नामवर सिंह हिन्दी साहित्य का आरंभ भाषा वैज्ञानिक आधार पर चौदहवीं सदी से मानते हैं क्योंकि इस समय तक भाषिक संक्रमण का दौर पूर्णतः समाप्त हो चुका था और हिन्दी अपने वास्तविक रूप में आ चुकी थी। अत: हिन्दी साहित्य का आरम्भ दसवीं शताब्दी के आस-पास माना जाता है क्योंकि दसवीं शताब्दी के आरंभ में भाषिक संक्रमण एक निश्चित समय तक पहुँच चुका था। इसी समय आधुनिक हिन्दी के आरंभिक लक्षण भी दिखाई देने लगे थे।

काल विभाजन एवं नामकरण

हिन्दी साहित्येतिहास में काल विभाजन का सर्वप्रथम प्रयास जॉर्ज ग्रियर्सन ने किया। उन्होंने सम्पूर्ण साहित्य को ग्यारह कालों में विभक्त किया। इस विभाजन की समस्या यह थी कि इसमें कई कालखंड गैर-साहित्यिक आधारों पर स्थापित किए गए थे। चारणकाल का निश्चित समय 700 से 1300 ई. बताया किन्तु शेष कालों का निश्चित विभाजन न कर सके। इसलिए यह विभाजन अव्यवस्थित माना जाता है। मिश्रबंधु ने आदिकाल को आरंभिक काल कहते हुए उसका समय 643 से 1387 ई. बताया है। इस काल विभाजन की मूल समस्या यह है कि यह अत्यंत जटिल एवं अतार्किक है। आचार्य शुक्ल ने आदिकाल को ‘वीरगाथाकाल नाम’ दिया। इसका समय 1050 से 1375 संवत् माना है। उन्होंने इसके पीछे तर्क दिया है जो इस प्रकार है, “परिस्थिति के अनुसार शिक्षित जनसमूह की बदली हुई प्रवृत्तियों को लक्ष्य करके हिन्दी साहित्य के इतिहास के कालविभाग और रचना की भिन्न–भिन्न शाखाओं के निरूपण का एक कच्चा ढ़ाचा खड़ा किया गया था।”3 हजारी प्रसाद द्विवेदी भी शुक्ल की तरह साहित्य का आरंभ दसवीं शताब्दी से मानते हैं। गौरतलब है कि आदिकाल के नामकरण को लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी की वैचारिक दृष्टि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से भिन्न है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘वीरगाथाकाल’ नाम बारह पुस्तकों के आधार पर रखा। जोकि चार रचनाएँ अपभ्रंश की और आठ रचनाएँ देशभाषा (बोलचाल) की हैं। प्रश्न यह उठता है कि जिन बारह पुस्तकों के आधार पर ‘वीरगाथाकाल’ नाम रखा गया उसमें से कई धार्मिक उपदेशपरक रचनाएँ हैं। जिसको वह साहित्य की कोटि से बाहर रखते हैं। जिसका उल्लेख यह बताने के लिए करते है कि अपभ्रंश भाषा का आरंभ कब से हुआ। इसी आधार पर हजारी प्रसाद द्विवेदी विरोध करते हुए कहते हैं कि, “जिन ग्रन्थों के आधार पर इस काल का वीरगाथाकाल नाम रखा गया, उनमें से तो कुछ नोटिस मात्र से बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं, और कुछ तो पीछे की रचनाएँ है या पहले की रचनाओं के विकृत रूप हैं। इन पुस्तकों को नवीन मान लिया गया है।”4 ‘कीर्तिपताका’ जैसे रचनाएँ आज तक उपलब्ध नहीं हुई हैं। रासो साहित्य की कई रचनाएँ भाषा के आधार पर आदिकाल के बाद सिद्ध होने लगी हैं और कई ऐसी रचनाएँ सामने आने लगी है जो शुक्ल के समय में उपलब्ध नहीं थीं, और यदि होती तो शायद उनके निर्णय को बदल देती। वहीं अमीर खुसरो और विद्यापति को आचार्य शुक्ल फुटकर साहित्य में रखते हैं जबकि उन बारह रचनाओं में अमीर खुसरो, विद्यापति की रचनाएँ सम्मिलित है। अत: द्विवेदी द्वारा आदिकाल नाम पर सहमति बन चुकी हैं क्योंकि इसमें आरंभिक होने के साथ-साथ पूर्वज होने का एहसास भी शामिल है। भक्तिकाल में सगुण साहित्य तक आते-आते आचार्य शुक्ल की दृष्टि में परिवर्तन दिखाई पड़ता है। तुलसीदास, सूरदास को ‘जी’ कहकर सम्मान देते हैं। वही निर्गुण साहित्य में संतों को नाम से ही संबोधित करते हैं। आचार्य शुक्ल रचनाकारों से ज्यादा रचना को महत्व देते हैं। इसी कारण कबीर उनकी आलोचना का पात्र बनते हैं। तुलसीदास का वह बड़ा समर्थन करते है क्योंकि तुलसीदास और शुक्ल जाति से ब्राह्मण है। अगर देखा जाए तो कबीर भी विधवा ब्राह्मणी के अनचाहे गर्भ थे। भाषा के स्तर पर भी आचार्य शुक्ल कबीर को नकार देते हैं। उनकी भाषा को सधुक्कड़ी और फटकार वाली भाषा कहते हैं। कबीर जिस समय समाज से टकरा रहे थे उस समय सभ्य भाषा का प्रयोग उचित नहीं था इसलिए वह जनता के उस बड़े भाग को संभालते है जो प्रेमभाव और भक्तिरस से शून्य पड़ता जा रहा था। बहरहाल भक्तिकाल के उद्भव को लेकर भी द्वंद्व देखा जा सकता है। आचार्य शुक्ल कहते है कि, “देश में मुस्लमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देवमंदिर गिराए जाते थे, देवमूतियाँ तोड़ी जाती थी और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वह कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में वह अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गए। इतने भारी राजनीति उलटफेर के पीछे हिन्दू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी सी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था ?”5 स्पष्ट है कि आचार्य शुक्ल भक्ति काल का उद्भव इस्लाम प्रतिक्रिया के रूप में देखते है। हजारी प्रसाद द्विवेदी एक बार फिर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मत से असहमति जताते हुए कहते है कि, “अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।“6 लेकिन द्विवेदी चार आना छोड़ते है, कहीं न कहीं वे भी भक्तिकाल का अद्भव मुसलमानों से मानते हैं।

रीतिकाल का वर्गीकरण भी विवादस्पद रहा है। रीतिकाल को मिश्रबंधु ने ’अलंकृत काल’ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने ‘शृंगार काल’, रमाशंकर शुक्ल रसाल ने ‘कलाकाल’ और ग्रिर्यसन ने ‘रीतिकाव्य’ नाम से संबोधित किया। यह सभी नाम किसी एक प्रवृत्ति के आधार पर रखे गए इसलिए इन सभी नामों पर असहमति बनती हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा ‘रीतिकाल’ ही मान्य है। गहराई से विचार किया जाए तो यह समस्या हमारे समक्ष उत्पन्न होती हैं कि वीरकाव्य व नीतिकाव्य उस समय लिखे जा रहे थे किन्तु दोनों प्रवृत्ति अतिमहत्वपूर्ण होते हुए भी एकदम गौण बन जाती हैं। रीतिकाल की शुरूआत का प्रसंग भी विवादस्पद है। आचार्य शुक्ल ने केशवदास को रीतिपरम्परा का प्रवर्तक नहीं माना। कारण बताया कि वे अलंकारवादी आचार्य हैं, रसवादी नहीं, बल्कि तथ्य यह है कि केशवदास की रचना ‘रसिकप्रिय’ पूर्णत: रसवादी रचना है। तथा अन्य रसवादी आचार्यो ने भी अलंकारवादी रचनाएँ लिखी हैं। बहरहाल इस बात का जिक्र करना आवश्यक है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास की सबसे बड़ी समस्या तथ्यों की प्रामाणिकता हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में कई तथ्य प्रामाणिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं। उदाहरण के लिए कबीर के जन्म-मृत्यु की घटनाएँ, जायसी के रचनाओं की मूल प्रतियाँ, सूरदास के अंधत्व का प्रश्न, रासो साहित्य की प्रामाणिकता तथा घनानन्द की रचनाओं की पूरी सूची जैसे कई प्रश्न हैं जिनके निर्धारण की प्रकिया निरंतर चल रही हैं।

आधुनिक काल

आधुनिकता का आरंभ भारतेन्दु युग से माना जाता है, लेकिन आधुनिकता की शुरुआत एक शताब्दी पूर्व ही हो गई थी। ब्रिटिश शासन ने भारतीय शिक्षा प्रणाली पर ज़ोर दिया। माध्यमिक शिक्षा और विश्वविद्यालय शिक्षा अंग्रेजी भाषा में दी जाने लगी। अंग्रेजो ने भारत में फूट डालो की नीति अपनाकर बंगाल, उड़ीसा और बिहार राज्यों के अलावा पूर्णत: भारत पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। अंग्रेजो की इस कूटनीति का विद्रोह भारतेन्दु युग के कवियों की रचनाओं में स्पष्टत: दिखाई देता हैं। यह विद्रोह पद्य की बजाय गद्य में अधिक देखा जा सकता है। भारतेन्दु युग में काव्य की भाषा ब्रजभाषा और गद्य की भाषा खड़ी बोली रही। उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय संक्रमण के जिस दौर से गुजरा इसे कुछ चिंतक पुनर्जागरण कहते हैं, कुछ पुनरुत्थान कहते है और कुछ अन्य नवजागरण। रामस्वरूप चतुर्वेदी के शब्दों में, “पुनर्जागरण दो जातीय संस्कृति की टकराहट से उत्पन्न रचनात्मक ऊर्जा है।”7 एक ओर भारतीय संस्कृति है तो दूसरी ओर पाश्चात्य संस्कृति। यह भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान व मध्यकालीन दौर से गुजर रही थी। जबकि पाश्चात्य संस्कृति वैज्ञानिक तथा मशीनी क्रांति के आधार पर भौतिकवाद तथा पूंजीवाद का प्रतिनिधित्व कर रही थी। उनका अध्यात्म पक्ष कमजोर जरूर था, लेकिन वैज्ञानिक तार्किक शिक्षा, इहलौकिक मानसिकता, समानता स्वतंत्रता, न्याय व बंधुत्व के आधुनिक आदर्श थे। जो तत्कालीन भारतीय समाज के लिए दुर्लभ थे। इन दोनों की टकराहट से पाश्चात्य संस्कृति अध्यात्म से प्रभावित हुई। वही भारतीय संस्कृति ने आधुनिक शिक्षा व भौतिकता सीखी। द्विवेदी युग में राष्ट्रीयता का स्वर और प्रखर हो गया। अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि छायावाद में राष्ट्रीयता का स्वर मंद रहा। विचार करने पर पाते है कि छायावाद का मूल उत्स भारतीय स्वधीनता संघर्ष में है। ध्यान देने वाली बात है कि कविता में छायावाद और भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी का आगमन लगभग एक ही साथ हुआ। नगेंद्र के अनुसार, “ जिन परिस्थितियों ने हमारे दर्शन और कर्म को अहिंसा की ओर प्रेरित किया, उन्होंने ही भाव (सौन्दर्य) वृत्ति को छायावाद की ओर।”8 इसका मतलब यह नहीं है कि छायावाद और गांधी जी की जीवन दृष्टि समान है या स्वाधीनता संग्राम में जो भूमिका गांधी जी की थी, वही छायावाद की हिन्दी साहित्य के संदर्भ में। लेकिन स्वाधीनता संग्राम में छायावाद और गांधी दोनों की परिकल्पना उस दौर में लगभग समान कही जा सकती हैं। सत्य यह है कि छायावादी काव्य में राष्ट्रीय जागरण सांस्कृतिक जागरण के रूप में आता है। इस सांस्कृतिक जागरण की अभिव्यक्ति निराला की ‘जागो फिर एक बार’, पंत की ‘प्रथम रश्मि’, महादेवी वर्मा की ‘जाग तुझको दूर जाना’ और प्रसाद की ‘प्रथम प्रभात’, ‘अब जागो जीवन के प्रभात’, ‘बीती विभावरी जाग री’ आदि में देखा जा सकता है। छायावाद शब्द को लेकर भी हमारे समक्ष समस्या उत्पन्न होती है। विभिन्न विद्वानों ने छायावाद के संबंध में अपनी मान्यताएँ दी है, लेकिन आज तक कोई निश्चित परिभाषा तय नहीं हुई है। महावीर प्रसाद द्विवेदी मानते है कि, ”छायावाद से लोगों का क्या मतलब है, कुछ समझ में नहीं आता। शायद उनका मतलब है कि किसी कविता के भावों की छाया यदि कही अन्यत्र जाकर पड़े तो उसे छायावादी कविता कहना चाहिए।”9 वहीं शांतिप्रिय द्विवेदी छायावाद को गांधी से जोड़कर पहचान दिलाने की कोशिश करते है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल शुरुआती दिनों तक छायावाद को ‘मधुचर्या’ कहते रहे। बाद में निराला की कृति ‘राम की शक्तिपूजा’ प्रसाद की ‘कामायनी’ से परिचित होने के बाद अपनी धारणा को बदल देते है। जो इस प्रकार है, ”इस रूपात्मक आभास को यूरोप में छाया (फैन्टसमाटा) कहते थे। इसी से बंगाल में ब्रह्मसमाज के बीच उक्त वाणी के अनुकरण पर जो आध्यात्मिक गीत या भजन बनते थे वे ‘छायावाद’ कहलाने लगे। धीरे-धीरे यह शब्द धार्मिक क्षेत्र में वहाँ के साहित्यक्षेत्र में आया और फिर रवीन्द्र बाबू की धूम मचने पर हिन्दी के साहित्य क्षेत्र से भी प्रकट हुआ।”10 इस कथन से स्पष्ट है कि छायावाद पर जितना प्रभाव गांधी जी का पड़ा। उतना ही रवीन्द्रनाथ जी का भी।

हिन्दी साहित्य के इतिहास को नए विमर्शों और नए दृष्टियों का विवेचन करने के लिए शुक्ल के इतिहास से बाहर आना आवश्यक है। आधुनिक काल में हमारे समक्ष नई समस्याएँ आ खड़ी हुई। सबसे बड़ी समस्या भाषाई स्तर पर थी। हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का ज़ोर अपनी लय में था। भारत भाषा और समाज दोनों के लिए लड़ रहा था। भारत को आज़ादी तो मिल गई थी लेकिन हिन्दी भाषा राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई। आज़ादी के बाद हमने जो स्वप्न देखे, वह स्वप्न बनकर ही रह गए। भारत अब अपनों के हाथों का गुलाम बन गया था। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी रोज़मर्रा की बुनियादी चीजें, जिसके लिए भारत ने लंबी लड़ाई लड़ी वह भी प्राप्त नहीं हुई। ईश्वर की जगह मनुष्य केंद्र में आ गया था। उनकी समस्याओं और विद्रोह को नागार्जुन, रघुवीर सहाय, धूमिल, आदि साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में व्यक्त किया। सन् 1980 के बाद स्त्री विमर्श और दलित विमर्श साहित्य में स्थान पाने लगे। अक्सर यह सवाल उठाया जाता है कि स्त्री साहित्य को मुख्य धारा के साहित्य से विमुख रखा गया। परंतु विचार करने पर पाते है कि शुरूआती दौर से ही स्त्री साहित्य में बनी हुई है जैसे मीरा, महादेवी वर्मा, मन्नू भण्डारी, मृदुला गर्ग आदि। दलित साहित्य को लेकर भी एक प्रश्न बराबर उठता रहता है कि गैर-दलित साहित्यकार की दलित संबंधी रचना को दलित साहित्य की श्रेणी में रखा जाए या नहीं ? जिस प्रकार पुरुषों द्वारा लिखा गया स्त्री साहित्य को साहित्य की श्रेणी में महत्व दिया जाता है फिर गैर-दलित साहित्यकार की दलित संबंधी रचना पर इतनी बहस क्यों ? एक समस्या यह है कि प्रवासी साहित्य को लेकर रुचि का आभास दिखता है। हिन्दी साहित्य में प्रवासी साहित्यकारों को जो स्थान मिलना चाहिए वह स्थान उन्हे नहीं मिलता। विदेशों में रहकर भी हिन्दी भाषा और साहित्य का झण्डा कई वर्षो से फहराया जा रहा है। वह अतुलनीय है। एक ओर समस्या यह है कि मंचीय कविता को साहित्य की कोटि में रखा जाए या नहीं ? इस संदर्भ में मैनेजर पाण्डेय कहते है कि, “जो भड़ौती और विदूषक की प्रवृति का हास्य व्यंग्य है ऐसे कवियों को आप जानते हैं और मैं भी जनता हूँ कि अपनी पत्नी को पचास गंदी गालियां देकर हास्य पैदा करते हैं। ऐसी कविताओं को कविता कैसे मानेंगें। इसलिए जो हास्य व्यंग्य की गंभीर और विचारणीय कविताएं हैं। उनके लिए जगह हो सकती हैं।”11

अंत में यह कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता से पूर्व जो इतिहास लिखे गए उनकी मूल समस्या में स्वतंत्रता और हमारी परंपरा का सवाल था। स्वतंत्रता के बाद कई साहित्येतिहास लिखे गए उनकी मूल समस्या सामाजिक, सांस्कृतिक और परंपरा थी। जिसको रामस्वरूप चतुर्वेदी, बच्चन सिंह, और सुमन राजे अपने इतिहास में विशेष रूप से व्याख्यायित करते हैं।

संदर्भ ग्रंथ सूची-

1) कार,ई.एच., 2016, इतिहास क्या है, मैकामिलन इंडिया लिमिटेड प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: 21

2) सिंह, बच्चन, 2016, हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: भूमिका (vii)

3) शुक्ल, रामचंद्र, 2012, हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: भूमिका (xv)

4) प्रताप सिंह, योगेंद्र, 2016, हिन्दी साहित्य का इतिहास और उसकी समस्याएँ, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: 36

5) शुक्ल, रामचंद्र, 2012, हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: 39

6) प्रताप सिंह, योगेंद्र, 2016, हिन्दी साहित्य का इतिहास और उसकी समस्याएँ, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: 90

7) चतुर्वेदी, रामस्वरूप, 2011, हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: 79

8) अमरनाथ, 2018, हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: 151

9) वही, पृष्ठ संख्या: 151

10) शुक्ल, रामचंद्र, 2012, हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: 456

11) समसामयिक सृजन पत्रिका, अप्रैल-जून 2012, वर्ष दो, अंक दो, पृष्ठ संख्या: 145

अटल इनोवेशन मिशन: मेक इन इंडिया टू मेक फॉर दी वर्ल्ड-शुभम जायसवाल

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अटल इनोवेशन मिशन: मेक इन इंडिया टू मेक फॉर दी वर्ल्ड

शुभम जायसवाल

परिचय

भारत को नवाचार के क्षेत्र में एक वैश्विक केंद्र के रूप में स्थापित करने के उद्देश्य से अटल इनोवेशन मिशन की शुरुआत हुयी थी। इस मिशन ने अबतक कुल 68 अटल इनक्यूबेशन सेंटर स्थापित किए हैं। देश भर में फैले ये प्रारम्भिक आर्थिक सहायता, प्रयोगशाला, व्यवसाय इन्क्यूबेटर प्रौद्योगिकी सुविधाएं व सलाहकार की भूमिका निभा रहे हैं। यह आत्मनिर्भर भारत की पहल को और भी मजबूती प्रदान करती है। आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा पर व्यापक पहल भले ही कोविड के दौरान शुरू हुआ हो पर इसका नींव आज से सात वर्ष पहले ही मेक इन इंडिया के साथ ही पड़ चुकी थी। साथ ही भारतीय नवाचार ने फार्मास्युटिकल्स, तकनीक, कृषिए रक्षा, आईटी, उद्योग जगत में सकारात्मक परिणाम भविष्यगामी भारत की तस्वीर पेश करती हैं। मेक इन इंडिया की बात बस घरेलू बाजार की मांग पूरी करने के साथ ही खत्म नहीं होती, बल्कि विश्व बाजार से भी जोड़ने की कोशिश है। प्रस्तुत शोध पत्र अटल इनोवेशन मिशन की योजनाओं को संदेर्भित करते हुए भारत को आत्मनिर्भर बनाने की पहल का समीक्षात्मक अध्ययन करने की कोशिश करता है।

मुख्य आलेख

आज पूरा विश्व भविष्यगामी योजनाओं को लेकर गंभीरतापूर्वक कार्य कर रहा है। तकनीक व सूचनातंत्र के विस्फोट व आम जनमानस के जीवन में विभिन्न क्षेत्रों में उभरती हुयी चुनौतियों ने आवश्यक आविष्कारों को जन्म दिया है। ऐसे में केवल राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं बल्कि वैश्विक जगत में भी चुनौतियों के समाधान के लिए नवाचार को बढ़ावा देना ही बेहतर विकल्प होगा। नवाचार व उद्यमशीलता के क्षेत्र में अटल इनोवेशन मिशन (एआईएम) की पूरी कार्ययोजना राष्ट्रीय व वैश्विक स्तर पर अबतक सरकार द्वारा किए जा रहे पहल में सबसे अधिक सार्थकता को अपने अंदर समेटे हुए हैं। भारतीय नवाचार में फार्मास्युटिकल्स, तकनीक, कृषि व रक्षा, आईटी, उद्योग जगत में सकारात्मक परिणाम भविष्य के भारत की तस्वीर पेश करती हैं। अटल इनोवेशन मिशन की शुरुआत की तारीख 26 अप्रैल, 2018 है। इसकी नींव आज से सात साल पहले मेक इन इंडिया के साथ ही पड़ चुकी थी। AIM ने स्टार्ट-अप, SME और माइक्रो स्मॉल एंड मीडियम एंटरप्राइजेज (MSME) के लिए राष्ट्रीय स्तर पर लघु व्यवसाय नवाचार अनुसंधान और विकास (SBIR) को स्थापित करने और बढ़ावा देने की योजना बनाई है। मेक इन इंडिया की बात बस घरेलू बाजार की मांग पूरी करने के साथ ही खत्म नहीं होती, बल्कि विश्व बाजार से भी जोड़ने की कोशिश है। इस पूरे प्रयास मे एआईएम नवाचार के क्षेत्र मे जुड़े व्यक्तियों की प्रारम्भिक आर्थिक सहायता, प्रयोगशाला, व्यवसाय इन्क्यूबेटर प्रौद्योगिकी सुविधाएं व सलाहकार की भूमिका निभा रहा हैं। एआईएम नीति आयोग द्वारा देश में नवाचार और उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए एक प्रमुख पहल है, जो नवाचार नीतियों के संरेखण में केंद्रीय, राज्यीय और क्षेत्रीय नवप्रवर्तन योजनाओं के बीच महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा, विभिन्न स्तरों- माध्यमिक विद्यालय, विज्ञान, इंजीनियरिंग और उच्च शैक्षणिक संस्थान, और एसएमई / एमएसएमई उद्योग, कॉर्पोरेट और एनजीओ स्तर पर नवाचार और उद्यमिता के पारिस्थितिकी तंत्र की स्थापना और संवर्धन को प्रोत्साहित करेगा।[1] इसके साथ ही राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक-आर्थिक जरूरतों के अनुरुप, देश के प्रमुख अनुसंधान संस्थानों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी नवप्रवर्तनों का कायाकल्प शामिल है, जैसे- वैज्ञानिक औद्योगिक अनुसंधान परिषद्, कृषि अनुसंधान (आईसीएआर) और चिकित्सा अनुसंधान (आईसीएमआर), आदि।[2] अगर संक्षेप में अटल इनोवेशन मिशन के दो मुख्य कार्य ‘उद्यमिता संवर्धन व अभिनव पदोन्नति’ है। जिसके अंतर्गत सरकार नवप्रवर्तन व उद्यमियों को बढ़ावा देने के लिए एक मंच प्रदान करेगी। एआईएम के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मुख्य आधार स्तम्भ है[3] :

  1. अटल टिंकरिंग प्रयोगशालाएं
  2. अटल इनक्यूबेटर्स केंद्र
  3. अटल नया भारत चुनौतियां और अटल महाचुनौतियां
  4. मेंटर ऑफ चेंज

अटल टिकरिंग प्रयोगशाला

मुख्य रूप से स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों के अंदर तकनीकी समझ व एड्वान्स्ड़ तकनीकी के क्षेत्र में नवाचार के प्रति आकर्षित करता हैं। जिसमें 1400 से 1500 वर्ग फीट तक के क्षेत्र के अंदर रोबोटिक्स, 3D प्रिंटर व छोटे नवीनतम तकनीक विकसित करने के लिए 20 लाख रुपए तक अनुदान राशि प्रदान करता है। अटल इनोवेशन मिशन (एआईएम) ने अब तक देश के 720 से अधिक जिलों में 9,606 स्कूलों को अटल टिंकरिंग प्रयोगशालाओं (एटीएल) की स्थापना के लिए वित्त पोषित किया है[4]। एआईएम ने 27 मार्च 2018 को सैप[5] के साथ एसओआई पर हस्तांक्षर किए जिसका उद्देश्ये नवाचार एवं उद्यमिता की संस्कृाति को बढ़ावा देना है। सैप के कर्मचारी स्वहयंसेवक उन्‍नत प्रौद्योगिकी से जुड़े विषयों में विद्यार्थियों को प्रशिक्षि‍त करने के साथ-साथ सैप लैब्स इंडिया की डिजाइन लैब निर्माण में उनका मार्गदर्शन भी करेंगे। इसके अलावा, सैप के कर्मचारी स्वहयंसेवक विद्यार्थियों को प्रौद्योगिकी से जुड़े उपकरणों के बारे में व्यावहारिक अनुभव प्राप्तव करने का अवसर भी प्रदान करेंगे। इस कार्यक्रम का उद्देश्य विद्यार्थियों को डिजिटल रूपांतरण एवं इंटरनेट ऑफ थिंग्सय जैसे कि डिजाइन थिंकिंग विधि, प्रोग्रामिंग लैंग्वेज और अनुभवात्मक विज्ञान शिक्षण से संबंधित उन्नत प्रौद्योगिकी विषयों को सीखने में सक्षम बनाना है और लगभग 2.5 लाख युवाओं को कौशल शिक्षा प्रदान करना। इसके साथ ही नवाचार से जुड़ी कार्यरत परियोजनाओं की गुणवत्ता का आकलन कर उसको आवश्यक सूचना व साधन उपलब्ध कराना भी है।[6] साथ ही अटल इनोवेशन फेस्टिवल के जरिये अपनी योग्यता सिद्धि का अवसर देना जिसमे पाँच लाख युवा अन्वेसकों को एक अंतर्राष्ट्रीय मंच प्रदान करना शामिल है।

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अटल इनक्यूबेटर्स केंद्र

अटल इनोवेशन मिशन ने आज तक कुल 68 अटल इनक्यूबेशन सेंटर स्थापित किए हैं। देशभर में फैले ये व्यवसाय इन्क्यूबेटर प्रौद्योगिकी सुविधाएं और सलाह, प्रारंभिक विकास निधि, नेटवर्क और लिंकेज, सहकर्मी स्थान, प्रयोगशाला सुविधाएं, सलाह और सलाहकार सहायता प्रदान करके स्टार्टअप्स की सहायता कर रहे हैं। ये इनक्यूबेटर स्वास्थ्य सेवा, एआई, डीपटेक, एडटेक, कृषि और संबद्ध क्षेत्र, अक्षय ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहन और क्लीनटेक जैसे क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। महामारी के दौरान नवाचार के जारिए बनाए कई एकूईपमेंट ने लोगों को महामारी के खिलाफ लड़ाई में मदद की है और यह आज भी जारी है। ये पथ प्रदर्शक देशभर के अन्य उद्यमियों और युवा प्रतिभाओं को नए एवं रचनात्मक उत्पादों, सेवाओं और समाधानों को बनाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। ये इन्क्यूबेटर अगली पीढ़ी के नवोन्मेषकों और उद्यमियों को बढ़ावा दे रहे हैं जो आने वाले कल के निर्माण मे प्रभावशाली सहायक साबित होंगे।[7] इनक्यूबेशन सपोर्ट में तकनीकी सुविधाएं और सलाह, शुरुआती ग्रोथ फंड, नेटवर्क और लिंकेज, को-वर्किंग स्पेस, लैब सुविधाएं, मेंटरिंग और एडवाइजरी सपोर्ट शामिल हैं। वे अक्सर निवेशकों, सरकारी संगठनों, आर्थिक-विकास गठबंधनों, उद्यम पूंजीपतियों और अन्य निवेशकों से पूंजी के लिए एक अच्छा मार्ग होते हैं। अधिकांश इन्क्यूबेटरों के पास नवाचार के प्रारम्भिक स्तर पर निवेश करने के लिए संभावित पूंजी है या संभावित फंडिंग स्रोतों के लिंक हैं। वे एकाउंटेंट और वकीलों जैसे पेशेवरों जो अपने क्षेत्र के जानकार हैं उनसे नवाचार में लगे व्यक्ति से भी आवश्यकता पड़ने पर परामर्श जैसी सेवाएं भी प्रदान कराते हैं। प्रारंभिक चरण के हाथ धारकों के रूप में, इनक्यूबेटर स्टार्ट-अप पारिस्थितिकी तंत्र के एक अभिन्न अंग के रूप में कार्य करते हैं। वे क्षेत्रीय और साथ ही राष्ट्रीय आर्थिक विकास दोनों के लिए उत्प्रेरक के रूप में कार्य करते हैं।

कुछ नवाचार स्थानीय स्तर पर हैं जो कि इनक्यूबेटी उद्यमियों और अन्य लोगों के बीच उद्यमशीलता के क्षेत्र में नेटवर्किंग को बढ़ावा देने के लिए है। जबकि अन्य वर्चुअल आधार पर काम करते हैं इसके अलावा, बिजनेस इन्क्यूबेटर स्टार्ट-अप और शुरुआती चरण की कंपनियों का समर्थन करने के प्रति समर्पण में अनुसंधान और प्रौद्योगिकी पार्क से भिन्न होते हैं। अनुसंधान और प्रौद्योगिकी पार्क बड़े पैमाने की परियोजनाएं हैं, जिनमें सरकारी संस्थानों, कॉरपोरेट्स, विश्वविद्यालय प्रयोगशालाओं से लेकर बहुत छोटी कंपनियों तक के संगठन शामिल हैं[8]

अटल इंक्यूबेटर्स केंद्र के कुछ प्रमुख लक्ष्य हैं:

  1. विश्व स्तर के इंक्यूबेटर्स केंद्र की स्थापना के लिए प्रयास व इस प्रकार की योजनाओं को बढ़ावा देना शामिल है।
  2. नवाचारी व्यक्तियों को व्यवसायिक सलाह देना और बाजार व वित्त से जुड़ी बारीकियों को समझने में सहायता करना।
  3. अधिक से अधिक तकनीकी व प्राकृतिक आविष्कारों को अवसर देना।
  4. नवाचार से जुड़ी तकनीकों के प्रयोग के लिए प्रयोगशाला का निर्माण करना और प्रयोगशालों को अधिक सुगम बनाना ताकि नवाचारी व्यक्ति को अपने नवाचार से जुड़े कार्य के लिए एक उचित वातावरण मिल सके।

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अटल नया भारत चुनौतियां और अटल महाचुनौतियां

इसके अंतर्गत अत्याधुनिक डिजाइन आधरित तकनीक व यंत्र निर्माण को बढ़ावा दिया जाता है जिसके तहत सरकार एक करोड़ तक की अनुदान राशि भी प्रदान भी करती है। इसका मुख्य कार्य राष्ट्रीय व सामाजिक स्तर पर उत्पादन तकनीक से जुड़े नवाचार को जो व्यवसायिक उद्योग जगत के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर चुनोतियों का सामना करना व उनका समाधान प्राप्त करना है। अटल इनोवेशन मिशन के प्राथमिक लक्ष्यों में से एक स्वास्थ्य, आवास, स्वच्छता, ऊर्जा और पानी जैसे भारत के विकास के लिए महत्वपूर्ण क्षेत्रों में नवाचार को प्रोत्साहित करना है। इसमे कृषि, यातायात, रेल, शिक्षा, स्वास्थ, जल, आवास, इलेक्ट्रिक वाहन, ऊर्जा और खाद्य मुख्य रूप से शामिल हैं। अबतक 24 क्षेत्रों को मुख्य रूप से इसके अंतर्गत चुना गया है साथ ही 700 से अधिक पंजीकरण हुए हैं। जिसमे से 30 से अधिक नवाचार शामिल है और 29 को उनका वित्तीय अनुदान प्राप्त करा दिया गया है।[9] इस वर्ष विभिन्न मुद्दों पर विमर्श किया गया है जिसके विषयों से यह आभास होता है कि भारत नवाचार में कितना गंभीर है व भविष्य कि योजनाएँ किस प्रकार की हैं।

  1. कला के जारिए जलवायु जागरूकता कार्यक्रम।
  2. टिकाऊ प्रबंधन व नीति से जुड़ी कार्यशालाएं।
  3. स्वास्थ खाद्य सामग्री, जीवनस्तर से जुड़े मुद्दो पर चस्तरीय वार्तालाप।
  4. पर्यावरण से संबंधित समसायों से जुड़े नवाचार।
  5. टिकाऊ परिस्थितकी तंत्र में आने वाली समस्या व उसका समाधान।
  6. इन सभी क्षेत्रों मे अधिक से अधिक महिलाओं को नेतृत्व प्रदान करना।

अटल न्यू इंडिया चैलेंज में इसरो की भूमिका

इसरो हमारे देश की नवाचार व अन्तरिक्ष के क्षेत्र मे एक वैश्विक प्रतिष्ठित संस्था है। इसरो ने बड़े पैमाने पर MSMEs का समर्थन किया है और अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी में नवाचार और अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए पूरे भारत में अनुसंधान एवं विकास प्रयोगशालाएं भी स्थापित करने पर अपने सहमति जतायी है। इसरो ने मुख्य रूप से तीन क्षेत्रों को अपने इस मुहिम में शामिल किया है; आर्टिफ़िश्यल इंटेलीजेन्स , प्रणोदन (Propulsion), भू-स्थानिक (Geo-spatial)। जिसके अंतर्गत हरित प्रणोदन , उन्न्त वायु स्वास, विद्युत, फसल निगरानी, मौसम पूर्वानुमान, कार्यक्रम मूल्यांकन के लिए एआई व रोबोटिक्स का भी प्रयोग शामिल है। इसके साथ ही इसरो प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में 100 अटल टिंकरिंग लैब को एडोप्ट करेगा जिसमे प्रत्येक राज्य व केन्द्र्शासित से 3 को शामिल किया जाएगा ।

जैसा कि लेख के शुरुआत मे ही हमने यह बताया था कि एआईएम का नींव मेक इन इंडिया के साथ ही पड़ गया था। मेक इन इंडिया रक्षा, कृषि, खाद्य, रेल, स्वास्थ, आटोमोबाइल, ऊर्जा, जलवायु परिवर्तन, जल, फार्मा इंडस्ट्री व आदि क्षेत्रों उत्कृष्ट परिणाम दिए हैं[10]:

  1. दिसंम्बर 2021 में दवा व फार्मास्यूटिक्लस का कुल निर्यात 2280.20 मिलियन डॉलर रहा जो कुल निर्यात का 6.14 फीसदी है।
  2. रक्षा के क्षेत्र भी भारत ने पिछले कुछ वर्षो के अप्रत्याशित तरक्की की है। इस दौरान 155 एमएम आर्टिलरी गन सिस्टम- धनुष, हल्के युद्धक विमान – तेजस, सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रणाली – आकाश, आरएनएस कलवरी, आईएनएस कंडेरी, आईएनएस चेन्नई, पनडुब्बी-रोधी वारफेयर कार्वेड, ब्रिज लेयर टैंक, लैंडिंग क्राफ्ट यूटिलिटी, ऑफशोर सर्विलेंस शिप, वाटर जेट फास्ट अटैक क्राफ्ट, फास्ट इंटरसेप्टर बोट आदि। इन सबका उत्पादन मेक इन इंडिया के तहत देश में किया जा रहा है।
  3. खाद्य के क्षेत्र में 2014-15 के दौरान सकल मूल्य संवर्धन (जीवीए) 1.34 लाख करोड़ रुपये था जो 2019-20 में 2.24 लाख करोड़ रुपये पर पहुंचा जो 10.82 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर को दर्शाता है। वहीं देश में 20 मेगा फूड पार्क चालू हो चुके हैं। इनकी संख्या 40 या उससे भी ज़्यादा ले जाने का लक्ष्य है। समुद्री उत्पादों का निर्यात दिसम्बर 2021 में 720.51 मिलियन डॉलर पर पहुंचा जो दिसम्बर 2020 के मुकाबले करीब 28 फीसदी ज़्यादा है।
  4. कचरे से बिजली बनाने का संयंत्र भुवनेश्वर में स्थापित किया गया है जो 24 घंटे मे बिना किसी प्रदूषण निस्तारण के पूरे कचरे का प्रसंस्करण भी करता है।
  5. रेल क्षेत्र में ग्रीन इंडिया मिशन के तहता पहली डबल स्टैक कंटेनर ट्रेन का नियमन शुरू किया गया है और 160 किलोमीटर प्रति घंटे तक की रफ्तार से चलने वाले सेल्फ प्रोपेल्ड स्वदेशी रेल गीयर का भी निर्माण किया गया है।
  6. 12,000 हॉर्स पावर के इंजन निर्माण क्षमता का विकास जो भारत को दुनिया के उन 6 चुनिन्दा देशो में शामिल करता है जिनके पास यह निर्माण क्षमता है।
  7. वस्त्र उद्योग को बढ़ावा देने के लिए 17800 करोड़ रुपये से ज़्यादा की योजना शुरू की गई है। वहीं बुनकरों की बेहतरी के लिए दो विशेष योजनाएं शुरू कि गयी हैं – राष्ट्रीय हथकरघा विकास कार्यक्रम और कच्ची सामग्री आपूर्ति योजना।

अटल इनोवेशन मिशन की उपलमधियां:

  1. एआईएम ने अबतक 9500 से अधिक अटल टृंकिंग लैब का निर्माण व विनिर्माण किया है।
  2. लगभग 75 लाख से अधिक छात्र-छात्राओं को इसके तहत जोड़ा गया है जो इनको तकनीकी के क्षेत्र मे न केवल रुचि जागृत कर रही हैं बल्कि नवाचार के लिए भी प्रोत्साहित भी करना है।
  3. अभीतक 68 इंक्यूबेसन केंद्र कि स्थापना हुआ है , जो अब तक 30000 से अधिक लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया है। इसके साथ ही 23 राज्यों को कवर करने वाले 102 इनक्यूबेटरों को शॉर्टलिस्ट किया है और इन इन्क्यूबेटरों में से 47 पहले से ही फाइनेंस्ड हैं।
  4. AIC और EICS के तहत, 2200 से अधिक स्टार्ट-अप इनक्यूबेट किए गए और 650 के करीब महिलाएं स्टार्ट-अप का नेतृत्व कर रही हैं।
  5. अब तक आयोजित किए ज्ञे 900 कार्यक्रम और 350 से अधिक प्रशिक्षण कार्यक्रम का सफल संचालन किया जा चुका है।
  6. 5100 से अधिक मेंटर ऑफ चेंज के बनाए गए हैं जो नवाचार के क्षेत्र मे सहयोग व परमर्श का कार्य कर रहे हैं।
  7. एएआईएम ने लगभग 6 करोड़ रू. के सीड फंड उपलब्ध कराए हैं।
  8. एकोसिस्टम डवलपमेंट के विकास के लिए 350 से अधिक सहयोग स्थापित किए।
  9. लघु उधम से जुड़े चुनौतियों के क्षेत्र में लगभग 15 प्रयोगिक शोध व नवाचार के कार्यक्रम संचाइट हैं।
  10. एआईएम के तहत 40 से अधिक घरेलू व वैश्विक सहयोगी है जो नवाचार से जुड़े तकनीकी, वित्तीय व बौद्धिक परामर्श मे हमें मदत प्रदान कर रहे हैं।

मेक इन इंडिया व एएआईएम के तहत नवाचार के क्षेत्र में हो रहे आविष्कार भारत के सामाजिक व आर्थिक स्तर पर गति व मजबूती प्रदान कर रही हैं और इस बात का आधार बन रही है कि भारत आने वाले देश की घरेलू ज़रूरतों को पूरा करने के साथ विश्व बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने का रास्ता काफी हद तक तैयार है। अब तक के प्राप्त आकड़ों व अध्ययन में जो परिणाम आए है वह इस महामारी के दौरान के रहे हैं और अगर यह कहा जाये कि यह ‘आपदा मे अवसर’ कि बात को चरितार्थ कर रहे तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी। प्रधानमंत्री ने 17 जनवरी, 2022 को वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में संबोधन के दौरान वक्तव्य में यह बात व्यक्त किया कि ‘हम मेक इन इंडिया व मेक फॉर द वर्ल्ड’ की भावना से आगे बढ़ रहे हैं[11]। अटल इनोवेशन मिशन पूरी योजन न केवल घरेलू चुनौतियों पर ध्यान दे रही बल्कि वैश्विक बाजार तक भी अपनी पहुँच बनाने के लिए कार्य कर रही है जो आने वाले समय में भारतीय नवाचार के क्षेत्र मे मील का पत्थर साबित होंगी।

संदर्भ-सूची:

  1. AIM-iCREST: NITI Aayog (2020).
  2. Atal Innovation Mission (2021).
  3. Atal Innovation Mission collaborates with Bayer to work towards healthcare and agriculture innovations (2021).
  4. Atal Innovation Mission collaborates with KidEx to provide innovation and entrepreneurship (2021).
  5. Atal Innovation Mission launches’Innovations for You’ to showcase success stories of start-ups (2021).
  6. Atal Innovation Mission, AWS collaborate to scale cloud skilling, and accelerate innovation with education technology startups in India (2021). https://www.highereducationdigest.com/atal-innovation-mission-aws-collaborate-to-scale-cloud-skilling-and-accelerate-innovation-with-education-technology-startups-in-india/

Atal Innovation Mission.

Atal Innovation Mission: Envisaging Innovation Among Youth (2017). https://digitallearning.eletsonline.com/2017/12/atal-innovation-mission-envisaging-innovation-among-youth/
  1. Atal innovation Missioncollaborates with CIPS for innovations in public systems (2021). https://government.economictimes.indiatimes.com/news/policy/atal-innovation-mission-collaborates-with-cips-for-innovations-in-public-systems/81964875
  2. Govt moving ahead with idea of ‘Make in India, Make for World’, says PM Modi at WEF (2021). https://timesofindia.indiatimes.com/business/india-business/govt-moving-ahead-with-idea-of-make-in-india-make-for-world-said-pm-modi-at-wef/articleshow/88957982.cms
    1. https://cleartax.in/s/atal-innovation-mission-aim
    2. https://government.economictimes.indiatimes.com/news/digital-india/atal-innovation-mission-collaborates-with-kidex-to-provide-innovation-and-entrepreneurship-programs-for-students/90141917
    3. https://government.economictimes.indiatimes.com/news/technology/atal-innovation-mission-launches-innovations-for-you-to-showcase-success-stories-of-start-ups/87200869

https://indiaai.gov.in/missions/atal-innovation-mission

  1. https://www.niti.gov.in/atal-innovation-mission-0
  2. https://www.pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1786070
  3. Ibid. p. 23, 24
  4. NITI Aayog launches Atal Innovation Mission digi-book (2021). https://www.aninews.in/news/national/general-news/niti-aayog-launches-atal-innovation-mission-digi-book20211021200745/
  5. कुरुक्षेत्र, फरवरी, 2022, पृ. 29-33.
  1. अटल इनोवेशन मिशन. https://www.niti.gov.in/hi/aim (मार्च, 2022)
  2. Ibid.
  3. Ibid.
  4. Over 9,600 schools get funds from Atal Innovation Mission for promoting innovation.
  5. SAIP (POZZI Industries), कंपनियों और तकनीकी समाधानों का एक साथ हिस्सा है, जिसका मिशन ग्राहकों को एक एकीकृत अवसर प्रदान करना है, जो ट्रंकी (Turnkey Projects) के साथ भी सफल विचारों को विकसित और कार्यान्वित करने के लिए विविध और पूरक कौशल में अत्याधुनिक हैं। https://www.saipequipment.com/company/ (11 मार्च, 2022 को देखा गया)
  6. https://vikaspedia.in/InDG
  7. कुरुक्षेत्र, फरवरी, 2022, पृ. 23.
  8. https://aim.gov.in/aic-overview.php
  9. https://aim.gov.in/atal-new-india-challenge.php
  10. कुरुक्षेत्र, फरवरी, 2022, पृ. 29-33.
  11. Govt moving ahead with idea of ‘Make in India, Make for World’, says PM Modi at WEF. https://timesofindia.indiatimes.com/business/india-business/govt-moving-ahead-with-idea-of-make-in-india-make-for-world-said-pm-modi-at-wef/articleshow/88957982.cms. (18 March, 2022 देखा गया).

शोधार्थी, लार्डिस,

लोक सभा सचिवालय, नई दिल्ली

ईमेल : subham.loksabha@sansad.nic.in

मो. 8299552164

सिनेमाई मनोरंजन से विदेशों में हिंदी का विस्तार-डॉ. कुमार भास्कर

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सिनेमाई मनोरंजन से विदेशों में हिंदी का विस्तार

डॉ. कुमार भास्कर

एसोसिएट प्रोफेसर

हिंदी विभाग

शहीद भगत सिंह कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली

ईमेल-Kumarbhaskar2008@gmail.com

मोबाइल-9312154532

सारांश

विदेशों में हिंदी सिनेमा के विस्तार और आकर्षण में गीत-संगीत की बड़ी भूमिका रही है। सिनेमा में कला का यह पक्ष, विदेशी समाज को एक अलग नजरिये से भारतीय हिंदी सिनेमा के प्रति सदैव आकर्षित करता रहा है। सोशल मीडिया के इस नए दौर में कलात्मक अभिव्यक्ति के, कई सारे आयामों की नवीन अभिव्यक्ति निरंतर देखने को मिल रही है।  आजकल अभिव्यक्ति का पॉपुलर मंच यूट्यूब है। जिस पर नृत्य और संगीत के कार्यक्रम का आकर्षण बहुत देखने को मिल रहा है। इस भूमंडलीय संचार की संस्कृति में, सिनेमा ने भाषा को लेकर, अनजाने में ही सही लेकिन हिंदी भाषा की पहुंच को विस्तारित करने में अपनी भूमिका अदा की है। निःसंदेह सवाल भाषा की गरिमा और पॉपुलर अभिव्यक्ति के बीच भाषा के स्वरूप का भी है।

बीज शब्द भूमंडलीकरण, सोशल मीडिया, संचार ,संस्कृति, मनोरंजन, भाषा, कला इत्यादि।

शोध आलेख

इतिहास पढें तो मालूम होता है कि भाषा के बनने, बदलने और उसके विस्तार में सत्ता,धर्म और व्यापार की बहुत बड़ी भूमिका रही है। हिंदी में बहुत सारे शब्द अंग्रेजी ,फ्रेंच ,पुर्तगाली ,यूनानी,चीनी,अरबी-फारसी इत्यादि शामिल हैं। एक दौर था जब धर्मावलंबी अपने-अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए दूर-दूर तक जाते थे। भाषा भी उस धर्म प्रचार के भ्रमण में, साथ थी। धार्मिक प्रचार के लिए, अंग्रेजों ने भी बाइबल का हिंदी में अनुवाद कराया था । आज 21वीं सदी में धर्म तो अपनी जगह मौजूद है, लेकिन अब उसका प्रभाव क्षेत्र, मास मीडिया के माध्यम से ज्यादा विस्तारित हो गया है और यह मास मीडिया भूमंडलीकरण के बाद राजनीति और व्यापार के मद्देनजर संचालित होता है। सत्ता और व्यापार, भाषा और संस्कृति को जोड़कर एक नया रूप दे देती है। उर्दू उसी में से एक है। जब हम भाषा के विस्तार में सुनियोजित प्रयास की बात करते हैं, तो  उसके लिए जो कोशिश की जाती है, उसमें सरकारी और अकादमिक तरीकों को अपनाया जाता है। लेकिन भाषा का संबंध सर्वप्रथम सामाजिक है उसके पश्चात किताबी है। भारत में जब हिंदी नाटकों की शुरुआत हुई, तो उस दौर में हम आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र उस लड़ाई को साहित्यिक जमीन पर अपनी जिम्मेदार भूमिका के साथ निभा रहे थे। उन्होंने जनता तक अपनी आवाज और विचार पहुंचाने के लिए सरल, खड़ीबोली हिंदी को चुना और साथ ही साथ नाटकों को हास्य-व्यंग के माध्यम से प्रस्तुत किया। ताकि लोग उसमें रुचि भी ले सकें। उस दौर में पारसी थियेटर जिस प्रकार का मनोरंजन पेश कर रहे थे, उसमें रोमांस और फैंटेसी की मौजूदगी थी। जिसकी प्रसिद्धि ठीक-ठाक थी। ऐसे में भारतेंदु हरिश्चंद्र, जिनके लिए सामाजिक और देश के मुद्दे तो महत्वपूर्ण थे हीं और उनके समक्ष पारसी थियेटर भी एक बड़ी चुनौती थे। जिसके मनोरंजन का आकर्षण लोगों में ज्यादा था। भाषा के नजरिए से पारसी थियेटर और भारतेंदु दोनों की भूमिका कहीं से कमतर नहीं की जा सकती है। भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटकों में हम देखें तो,बीच-बीच में वह गीतों के माध्यम से भी अपने विचार को एक रागात्मक रूप देने की कोशिश करते हैं। हम कह सकते हैं की भारतेंदु मनोरंजन का सार्थक इस्तेमाल करते हैं। जो पारसी थिएटर के मुकाबले अपनी एक जगह बनाता है। जब भी सामाजिक-राजनैतिक जिम्मेदारी की बात आएगी तो वहाँ भारतेंदु का नाम बड़े सम्मान से लिया जाएगा।

किसी विधा में गीत-संगीत जुड़ जाए तो उसके प्रति आकर्षण मनोवैज्ञानिक तौर पर बढ़ जाता है, क्योंकि उसमें मनोरंजन की रागात्मक अभिव्यक्ति हो जाती है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो हिंदी के अलावा पंजाबी, हरियाणवी ,भोजपुरी ,पहाड़ी इत्यादि जो हिंदी क्षेत्र से जुड़े हुए अन्य बोली और भाषाएं हैं। इन भाषाओं के क्षेत्रीय गीत-संगीत पूरे प्रसिद्धि से कायम है। संगीत की रागात्मक अभिव्यक्ति किसी भी तरह की भाषा, क्षेत्रीयता की बाधा को पार कर जाती है। इसलिए भोजपुरी के गाने  मध्यप्रदेश में, हरियाणवी गाने को बिहार में ,पंजाबी गाने को राजस्थान  इत्यादि में शादी-ब्याह या किसी भी अन्य समारोह में सुने जा सकते हैं। यह मनोरंजन का स्वाद ही है जो किसी अन्य भाषा को दूसरे की जिह्वा पर आराम से पहुँचा देता है। यह कला की मनोवैज्ञानिकता है। मनोरंजन का भाषाई विस्तार भूमंडलीकरण के बाद और तेजी से फैलता है। खासकर विदेशों में भाषा की उपस्थिति को लेकर एक नई उड़ान मिल जाती है।

विदेशों में हिंदी फ़िल्म

भूमंडलीकरण के बाद विदेशों में भी हिंदी फिल्मों को वहाँ के सिनेमाघरों में स्क्रीन उपलब्ध हो जाता है। जिसकी वजह से व्यापार तो फैलता ही है, उसके साथ भाषा भी। दैनिक जागरण की रिपोर्ट के अनुसार “बॉलीवुड की फिल्में आजकल न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी दिखाई जाती है। बॉलीवुड के फैन दुनिया में हर जगह हैं, ऐसे में कई सारी फिल्में है जो दुनियाभर में पसंद की जाती है। बॉलीवुड के कुछ स्टार ऐसे हैं जिन्हें वर्ल्डवाइड बेहद पसंद किया जाता है..”*1

विदेशों में हिंदी फिल्मों के प्रति लगाव इस दौर में और भी बढ़ गया है। इसकी वजह प्रवासी भारतीयों की बढ़ती हुई संख्या तो है ही, साथ हीं  विदेशी लोगों में भारतीय फिल्मों को लेकर पैदा हुई रूचि भी है। हिंदी फिल्मों के गीत-संगीत ,नृत्य और कलाकारों को लेकर एक दर्शक वर्ग विदेशों में भी मौजूद है, जो लगातार उसको देखता है और फॉलो करता है। एक दौर में यह मुकाम राजकपूर ने अपनी फिल्मों से हासिल किया था। उनकी फिल्मों को कुछ देशों में, खासकर रसिया में काफी पसंद की जाती थी। उनके फिल्मों के गीत पर रसियन बच्चों ने प्रदर्शन किया था ।

कलाकारों को लेकर के जब एक दर्शक वर्ग, फैन फॉलोइंग की तरफ बढ़ जाता है तो, उस कलाकार की भाषा भी उन दर्शकों से जुड़ी जाती है। “यही वजह है कि चाइना में आमिर खान की फिल्म ‘दंगल’ ने बॉक्स ऑफिस पर बहुत जबरदस्त कमाई की, कुछ इसी तरह का कमाल ‘बाहुबली’ ने भी किया। पोलैंड में सलमान खान को काफी पसंद किया जाता है और पोलैंड के लोग बॉलीवुड म्यूजिक और नृत्य के दीवाने हैं। इजिप्ट में हिंदी फिल्मों के प्रति इतनी दीवानगी है जिसकी वजह से वहाँ की लोकल फिल्म को नुकसान होने लगा था। इस कारण से कुछ समय के लिए वहाँ की सरकार ने हिंदी फिल्मों को बैन कर दिया था, ताकि उनकी अपनी फिल्में चल सके। बाद में स्वयं इस बैन को उन्होंने उठा लिया था। ताइवान में आमिर खान काफी प्रसिद्ध है। उनकी फिल्में 3इडियट, पीके, दंगल इन सब को काफी पसंद किया गया। पेरू, ब्राजील, कोलंबिया में शाहरुख खान की फिल्में बहुत पसंद की जाती है। विशेष तौर पर जर्मनी में शाहरुख खान की फिल्म  ‘कभी खुशी,कभी गम’ की वजह से काफी फैन फॉलोइंग बढ़ी थी”।*2 

फ़िल्म मदर इंडिया के ऑस्कर नॉमिनेशन से हिंदी फिल्मों के प्रति विश्व की निगाह मुड़ती है। अब एक नया दौर है जिसमें चीजें तेजी से बदल रही है। भूमंडलीकरण के शुरुआती दौर में विदेशी फिल्मों का आग्रह हिंदुस्तान में काफी बढ़ गया था। विदेशी फिल्मों का हिंदी और अन्य भाषा में अनुवाद तेजी से होने लगा, जो आज भी जारी है। लेकिन हिंदी फिल्मों का भी अन्य विदेशी भाषाओं में अनुवाद और सबटाइटल अब होने लगा है। यही वजह है कि  सन 2000 से लंदन में आईफा अवार्ड (अंतरराष्ट्रीय भारतीय फिल्म अकादमी पुरस्कार) की शुरुआत की गई । विदेशों में हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता और व्यापार दोनों की मिलीजुली भूमिका से इस तरह के कार्यक्रम की नींव रखी गई। विदेशों में जाकर लाखों भारतीय और गैर-भारतीय लोगों के बीच हिंदी भाषा में आयोजन करना और उस आयोजन से लोगों का मनोरंजन होना, यह हिंदी के लिए भी गौरव की बात है। इसके साथ हिंदी भाषा के माध्यम से संस्कृति का भी प्रसार है। हिंदी फिल्मों की बढ़ती लोकप्रियता की वजह से आज भारतीय हिंदी सिनेमा में विदेशों के कई कलाकार हिंदी सीख कर अपना मुकाम हासिल कर रहे हैं। जिनमें से जैकलिन फर्नांडिस (श्रीलंका), नोरा फतेही (मोरक्को), कैटरीना कैफ (ब्रितानी हांगकांग), बॉब क्रिस्टो (ऑस्ट्रेलिया), एली एवराम (स्वीडिश ग्रीक) इत्यादि प्रसिद्ध विदेशी कलाकार काम कर रहे हैं। इससे इस बात की भी पुष्टि होती है कि हिंदी सिनेमा विश्व बाजार में अपनी एक भूमिका रखता है। जिसकी वजह से सिर्फ एशिया नहीं अमेरिका ,ऑस्ट्रेलिया और अन्य देशों से आए कलाकार भी अपने लिए काम ढूंढ रहे हैं। हिंदी सिनेमा के गीत-संगीत ने विदेशों में एक अलग प्रभाव छोड़ा है, जिसके कारण हिंदी भाषा के विस्तार में मदद मिली है। फिल्म ‘रॉ वन’ में अमेरिकी गायक ‘एकॉन'(AKON) ने हिंदी गाना “छम्मक छल्लो” गाया था। जो बहुत प्रसिद्ध भी हुआ। इसके अलावा कुछ और भी उदाहरण है, जिसे विदेशी गायकों ने गाया है। Scroll.in*3 के रिपोर्ट के अनुसार:- pascal heni,फ्रांस, उन्होंने फिल्म ‘बॉबी’ का गाना “मैं शायर तो नहीं” गाया, Natalie di Luccio, कनाडा ने फिल्म ‘जो जीता वही सिकंदर’ से “पहला नशा” गाया था। LuoPing,ताइवान ने फिल्म ‘रब ने बना दी जोड़ी’ से “तुझमें रब दिखता है” गाना गाया। Angelique Kidjo,बेनिन, ने फिल्म ‘आन’ का “दिल में छुपा के प्यार का तूफान ले चले” गाया। ऐसे कई गायकों ने या तो अपने एल्बम में हिंदी गाने शामिल किए या कहीं न कहीं परफॉर्म किया । दूसरी ओर ‘ए आर रहमान’ और ना जाने कितने भारतीय गायकों ने विदेशों में हिंदी संगीत के लिए एक जगह बनाई, एक दर्शक तैयार किया। इससे एक ऐसा फ्यूजन तैयार हुआ, जिसने हिंदी को मनोरंजन के माध्यम से एक वैश्विक प्रसिद्धि और पहचान दिलाई है। इसी वर्ष की बात है। हिंदुस्तान अखबार*4 के रिपोर्ट के अनुसार, जब विदेश मंत्री एस जयशंकर इजराइल दौरे पर गए हुए थे तो वहां एक कार्यक्रम में एक स्थानीय लड़की ने हिंदी सिनेमा के गाने को गाकर सभी को अचंभित कर दिया। इजराइल की दृष्टिबाधित लड़की ने “हर घड़ी बदल रही है” और “तुम पास आए यूं मुस्कुराए” गाने सुनाएं। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि दूसरे देश में हमारे राजनायिकों का स्वागत करने के लिए, हमारी भाषा का इस्तेमाल किया गया है। डॉ. गंगा प्रसाद विमल लिखते हैं की “विश्वमानस को हिंदी का स्वाद हिंदी फिल्मी गीतों द्वारा हुआ है। जैसे-जैसे हिंदी फिल्में और हिंदी गीत भारतीय संगीत के जादुई स्पर्श से लोक प्रसार पाता है हिंदी की उच्चारणगत ध्वनिपरक जानकारी विदेशी भाषियों के पास पहुँचती है। वे भले ही व्यापक रूप से भाषा जानने की ओर न आते हों किंतु फिल्म या समानरूप माध्यम द्वारा प्राप्त जानकारी उनकी पद्धति का हिस्सा बनती है, वह स्मृति ठीक भारतीय डायस्पोरिक स्मृति की तरह है जो भारतीयों में आनुष्ठानिक आचरणों में क्रियान्वित दिखती है वहीं गैर भारतीयों में भारत को जानने की प्रेरक वृत्ति बन उन्हें भारतीय प्रदर्शनवाची कलाओं की ओर आकर्षित करती है।”*5

विद्वानों में मतभेद हो सकता है कि किस तरह की हिंदी को हम पूरे विश्व के पटल पर देखना चाहते हैं। मगर यह मसला इतना सरल नहीं है। हम भूमंडलीकृत समय में जी रहे हैं। जहाँ चीजें बहुत तेजी से घुलमिल रही है। जिसमें भोजन,पहनावे के अलावा भाषा भी है। ऐसा नहीं है कि यह मिलावट भूमंडलीकरण के बाद ही हुआ है। लेकिन भूमंडलीकरण के दौर में, सूचना क्रांति की वजह से यह विस्तार ज्यादा गहरा और तीव्र गति से हुआ है। सिनेमा की जिम्मेदारी भाषा के प्रसार में सीधे तौर पर तो नहीं है, लेकिन भाषा के प्रसार में व्यापारिक रूप से ही सही, हिंदी सिनेमा की लोकप्रियता का फायदा भाषा को जरूर मिला है। भाषा के साम्राज्य में अंग्रेजी का आधिपत्य है। उस आधिपत्य में बाजार, राजनीति ,शिक्षा के अलावा मनोरंजन भी शामिल है। ऐसे में हिंदी भाषा को सम्मान दिलाने में सिनेमा का योगदान भी सराहनीय है। यह अलग बात हो सकती है कि फिल्मी कलाकार अपनी निजी जिंदगी में अंग्रेजीपरस्त हो सकते हैं। लेकिन फिल्म जब रिलीज हो जाती है तो वह उस कलाकार के निजीपन से नहीं,बल्कि उसके काल्पनिक चरित्र से पहचानी जाती है। तुलसीदास संस्कृत के ज्ञाता थे, लेकिन अवधि रचित रामचरितमानस उनकी पहचान है।

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 भारत की राष्ट्रीयता को वैश्विक मंच पर रखने के लिए अकादमिक,खेल,राजनीति इत्यादि के माध्यम से निरंतर प्रयास किये हीं जाते हैं। सिनेमा भी इस प्रयास को अपने तरीके से आगे बढ़ाता है। जितनी भूमिका भाषा को लेकर पत्र-पत्रिकाओं की रही है, इससे इतर  हिन्दी सिनेमा को उससे कमतर नहीं आंका जा सकता है। भाषा का सरल और पॉपुलर रूप ही अपनी जगह जल्दी और व्यापक बना पाता है, वनिस्पत भाषा के कठिन रूप से। हिंदी का लचीलापन ही उसकी ताकत है। जिसकी वजह से वह स्थितियों के अनुरूप अपने को ढ़ाल लेती है। आज के दौर में हिन्दी का हिंग्लिश रूप लोकप्रिय रूपों में से एक है। उसको हम साहित्यिक स्वीकृति तो नहीं दे सकते हैं, लेकिन उसकी सरलता की वजह से वह एक संभावना को जन्म देती है। सिनेमा के जानकार जबरीमल्ल पारख कहते हैं “पारसी थियेटर ने हिन्दी-उर्दू विवाद से परे रहते हुए बोल-चाल की एक ऐसी भाषा की परंपरा स्थापित की जो हिन्दी और उर्दू की संकीर्णताओं से परे थी और जिसे हिन्दुस्तानी के नाम से जाना गया। यह भारतीय उपमहाद्वीप के एक बड़े हिस्से में संपर्क भाषा के रूप में विकसित हुई थी। हिन्दी सिनेमा ने आरम्भ से ही भाषा के इसी रूप को अपनाया। इस भाषा ने ही हिन्दी सिनेमा को गैर हिन्दी भाषी दर्शकों के बीच लोकप्रिय बनाया। यह द्रष्टव्य है कि भाषा का यह आदर्श उस दौर में न हिंदी वालों ने अपनाया उर्दू वालों ने। साहित्य की दुनिया में इसे प्रेमचंद ने ही न सिर्फ स्वीकार किया बल्कि इस भाषा का रचनात्मक और कलात्मक परिष्कार भी किया। बाद में साहित्य के प्रगतिशील आंदोलन ने भाषा के इस आदर्श को अपना वैचारिक समर्थन भी दिया और उसका विकास भी किया। लेकिन यहाँ यह रेखांकित करना जरूरी है कि हिन्दी-उर्दू सिनेमा का भाषायी आदर्श इसी पारसी थियेटर की परंपरा का विस्तार था और इसी वजह से जिसे आज हिन्दी सिनेमा के नाम से जाना जाता है उसे दरअसल हिन्दुस्तानी सिनेमा ही कहा जाना चाहिए।”(समयांतर,जुलाई 2012)*6

जो भाषा अपने आप को समय के अनुकूल नहीं बदलेगी उसके खत्म होने की संभावना निरंतर बढ़ती चली जाएगी। हिंदी उन भाषाओं में से है जिसने अपने भीतर दुनिया के तमाम शब्दों को जगह दिया है, साथ ही वह समय के अनुकूल लगातार अपने आप को बदलती रही है। हिंदी सिनेमा की यह शक्ति रही है कि उसने अपने मनोरंजन के माध्यम से हिंदी के कई कठिन और साहित्यिक शब्दों को विदेशी दर्शकों के बीच उनकी शब्दावली का हिस्सा बना रहा है। महत्वपूर्ण बात यह है की हिंदी सिनेमा के कई गीत और पटकथा इस तरह के हैं जिसमें भाषा अपने हिंदीपन और साहित्यिक शब्दावलियों के साथ मौजूद है जो विदेशों में प्रसिद्ध भी हुई है। तो ऐसा हम नहीं कह सकते की हिंदी सिनेमा भाषा के किसी एकांगी रूप को लेकर चलता है। ‘HAVAS GURUHI’ उज्बेकिस्तान का एक लोकप्रिय म्यूजिकल ग्रुप है जो हिंदी फिल्मों के गाना गाने के लिए जाना जाता है। जिसने भारत के रियलिटी शो में भी अपना प्रदर्शन किया है। बगैर हिंदी फिल्मों के इस तरह के म्यूजिकल ग्रुप का होना, जो हिंदी में गाना गाते हैं, ऐसी संभावना कम होती। आजकल नार्वे का एक डांस ग्रुप “क्विक स्टाइल” सोशल मीडिया पर काफी प्रसिद्ध है,जो हिंदी गानों पर अपने डांस के प्रदर्शन से भी जाने जाते हैं।

 फ़्लैश मॉब का एक नया कल्चर इस दौर में पैदा हुआ है। जिसमें किसी भी गाने पर, अचानक पब्लिक प्लेस में कई लोग नृत्य /संगीत का कार्यक्रम करते हैं। हिंदी गानों को लेकर भी कई देशों में, चाहे वह ऑस्ट्रेलिया ,रसिया ,अमेरिका, जर्मनी इत्यादि हो। वहाँ पर भी इस तरह के फ्लैश मॉब, हिंदी गानों पर किया गया है। जिसमें वहाँ के लोग भी इसमें शामिल हैं। इनसे संबंधित वीडियो यूट्यूब पर उपलब्ध हैं। जो दर्शाता है कि समय के साथ हिंदी भाषा नई तरह की विधाओं से अपना तालमेल बना रही है। सबसे अच्छी बात यह है कि वह विदेशों के युवाओं को बहुत भा रही है। किसी भी भाषा के लिए यह जरूरी है कि वह आने वाली पीढ़ियों के साथ अपना एक संबंध स्थापित कर सके, चाहे वह मनोरंजन के बहाने ही क्यों न हो। हिंदी का यह संबंध वैश्विक स्तर पर फैलता जा रहा है। मनोरंजन के माध्यम से हिन्दी भाषा का यह विविधतापूर्ण विस्तार, तकनीक और नये विधाओं की समझ से लैस हो कर, लगातार आगे बढ़ रही है।

संदर्भ सूची:-

  1. Jagran.com., दंगल से रईस तक, इन 5 फिल्मों ने भारत से ज्यादा विदेशों में की कमाई, blog,11 dec 2017.
  2. Bookmyshow.com, सुकृति होरा,30अप्रैल2018.
  3. Scroll.in, मृदुला चारी,31 जनवरी,2015.
  4. Livehindustan.com, गौरव काला,18 अक्टूबर 2021.
  5. पृष्ठ-43, विश्व बाजार में हिंदी,संपादक द्वय-महिपाल सिंह और देवेंद्र मिश्र, ब्रह्म प्रकाशन, संस्करण-2010,दिल्ली ।
  6. www.lokmanch.in, सिनेमा की भाषा, लोकमंच पत्रिका, अरुण कुमार।