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शिवमूर्ति की कहानियों में स्त्री (कसाईबाड़ा, तिरिया चरित्तर और कुच्ची का कानून के संदर्भ में)-मनीषा पाल

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Person's Body Covered with Cloth

शिवमूर्ति की कहानियों में स्त्री (कसाईबाड़ा, तिरिया चरित्तर और कुच्ची का कानून के संदर्भ में)

मनीषा पाल

शोधार्थी, पीएच.डी.

हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय

ईमेल- manisha2016jnu@gmail.com

सारांश

शिवमूर्ति हमारे समय के एक सशक्त कथाकार हैं। इनकी कहानियाँ शहरी जीवन के बजाय ग्रामीण जीवन के कटु यथार्थ का प्रतिफलन है। इनकी कहानियों के केन्द्र में ग्रामीण परिवेश से जुड़ी स्त्री-जीवन की समस्याएं भी हैं। इनकी कहानियाँ पितृसत्ता, जाति व्यवस्था और रूढ़िवादी मानवीय संबंधों को छिन्न-भिन्न करती हुई नज़र आती हैं। इस शोध आलेख में इनकी तीन कहानियों को केंद्र में रखकर मूल्यांकन किया गया है। इन तीनों कहानियों के माध्यम से जहाँ एक तरफ ग्रामीण स्त्री जीवन की विभिन्न समस्याओं को उजागर किया गया है वहीं दूसरी तरफ स्त्री के दैहिक शोषण, भ्रष्ट क़ानून व्यवस्था, भ्रष्टाचार, जाति व्यवस्था, पितृसत्ता आदि पर तीखा प्रहार किया गया है। इसके साथ ही इस शोध आलेख के माध्यम से विभिन्न सवालों जैसे स्त्री मुक्ति, स्त्री अस्मिता, स्त्री के अपने कोख पर अधिकार आदि की गहराई से पड़ताल की गई है। अंत में इस शोध आलेख के माध्यम से स्त्री प्रतिरोध और उसकी मुक्ति की आकांक्षा को रखने का प्रयास किया गया है।

बीज शब्द: पितृसत्ता, जाति व्यवस्था, भ्रष्ट क़ानून व्यवस्था, भ्रष्टाचार, स्त्री प्रतिरोध, देहमुक्ति

शोध आलेख

“मेहंदी टूटी, पिसी छनी, घुली रची तब रंग लाल हुआ,

का भी इस दुनिया में मेहंदी जैसा हाल हुआ।”

“सच पूछो तो नारी जीवन एक मेहंदी का बूटा है,

कदम-कदम पर इस अबला को हर रिश्ते ने लूटा है।”1

यहाँ ‘अबला’ शब्द के प्रयोग से कुछ आपत्तियां हो सकती हैं लेकिन वास्तविकता तो यही है कि एक लंबे समय तक नारी को अबला बनाकर ही रखा गया है और रिश्तों की आड़ में उनका शोषण न सिर्फ तब हुआ बल्कि आज भी जारी है। अपना सब कुछ पुरुष पर न्योछावर करने के बाद भी उसे बदले में मिला तो सिर्फ तिरस्कार, अपमान और दर-दर की ठोंकरे। समय के साथ स्त्रियों ने अन्याय का विरोध करना तो सीख लिया है लेकिन इनकी धार में तेजी समय के साथ आएगी। वह हर बार छली जाती है कभी रिश्तों के नाम तो कभी कुल-मर्यादा के नाम। समाज का यह कैसा दोहरा नजरिया है जिसमें कुल वंशज तो पुत्र है परंतु कुल की इज्ज़त बनाए रखने का जिम्मा सिर्फ पुत्री का।

स्त्री को गुलामी की जंजीरों में जकड़े रखने और परम्पराओं में बांधे रखने के लिए कितने पाखण्ड और आडम्बर रचे गए हैं, इसकी कोई थाह नहीं है। कभी उसे गरीब होने के कारण शोषित होना पड़ा तो कभी दलित होने के कारण और कभी मात्र स्त्री होने के कारण। जब भी स्त्री ने अपने प्रति हो रहे शोषण, उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ बुलंद करनी चाही तभी उसे नापाक करार देकर चरित्रहीन बना दिया गया। फिर चाहें वह ‘कसाईबाड़ा’ की बूढ़ी शनिचरी हो, ‘तिरिया चरित्तर’ की यौवनावस्था में प्रवेश करती विमली हो या फिर ‘कुच्ची का कानून’ की विधवा कुच्ची। हमेशा से ही पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री को दबी-कुचली, डरी-सहमी और पुरुषों पर आश्रित बने रहने के लिए मजबूर किया गया है परंतु आज की स्त्री अपने अधिकारों को पहचानती है और हर मुश्किल से लड़कर अपने लिए नए रास्ते खोजती है।

अगर बात शिवमूर्ति की कहानियों की करें तो इनकी ये तीनों कहानियाँ ग्रामीण परिवेश, जीवन और समस्याओं पर केंद्रित हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से मनुष्य के मनोभावों को अभिव्यक्त करने की कोशिश की है। साथ ही ग्रामीण परिवेश में फैले अंधविश्वास, पाखण्ड और झूठी शान की खातिर किसी की हत्या तक से परहेज न करने वाली कुरूप मानसिकता को भी इन्होंने उजागर किया है। आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी शिवमूर्ति के विषय में कहते हैं कि “शिवमूर्ति ग्रामीण जीवन के विश्वनीय कथाकार हैं।… उनका व्यक्तित्व, रहन-सहन, बोली-बानी सब कुछ ग्रामीण और किसानी है।”2 शिवमूर्ति ने अपनी रचनाओं के माध्यम से ‘मैथिलीशरण गुप्त’ के ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या’ से इतर ग्रामीण जीवन में परिवार, समाज, राजनीति के भीतर रचे जाने वाले बारीक से बारीक षडयंत्रों का पर्दाफाश किया है। शिवमूर्ति के संदर्भ में कँवल भारती कहते हैं कि “शिवमूर्ति आदर्शवादी नहीं हैं….वह यथार्थवादी हैं। यथार्य कितना वीभत्स हो, वह उसे वैसे ही चित्रित करने में विश्वास करते हैं। इसलिए उनकी कहानियाँ गाँवों के यथार्थ की एक बेहतरीन फोटोग्राफी है।”3

‘कसाईबाड़ा’ की शनिचरी शुरुआत में ही धरने पर बैठी नज़र आती है जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह लड़ाई अन्याय, दगाबाजी और शोषण के खिलाफ है। शनिचरी कहती है कि “मोर बिटिया वापस कर दे बेईमानवा, मोर फूल ऐसी बिटिया गाय-बकरी की नाई, बेंचि के तिजोरी भरैवाले।”4 यहाँ उस पितृसत्तात्मक सोच का परिचय मिलता है जहाँ पुरुष स्त्री को भी अपनी सम्पत्ति की तरह मानता है और जैसे चाहे वैसे व्यवहार करता है। अंतत: थोड़े से लालच के लिए उसे बेच देता है। सुगना बताती है कि “काकी, अपना परधान कसाई है। इसने पैसा लेकर हम सबको बेच दिया है। शादी की बात धोखा थी।”5 “एक तरफ परधान से खिलाफत। बिरादरी में बदनामी। हुक्का-पानी बंद होने का डर। छोटे बेटे-बेटियों की शादी में रुकावट और दूसरी तरफ बेटी की ममता।”6 बेटी से मोह पर सामाजिक इज्जत भारी पड़ती है। जहाँ पूरा समाज इज्जत के नाम पर सब बर्दाश्त करता नज़र आता है वहीं शनिचरी इस मानसिकता को तोड़कर अपनी बेटी को पाने की जद्दोजहद में रहती है। शनिचरी के लिए आमरण अनशन-विद्रोह का वह तरीका है जिसके माध्यम से वह समाज में परिवर्तन लाना चाहती है।

इस कहानी के माध्यम से शिवमूर्ति ने निचली जाति की स्त्रियों के साथ समाज के व्यवहार को दिखाने की कोशिश की है। साथ ही धन के अभाव में धोखे से सामूहिक आदर्श विवाह के नाम पर गरीब कन्याओं को बेचकर अपनी सुख-सुविधाओं को पूरा करते प्रधान जी जैसे चरित्र के माध्यम से समाज के उस चेहरे को उजागर किया है, जिसमें किसी की मजबूरी का फायदा उठाना यह पुरुषवर्चस्वादी समाज बखूबी जानता है। शनिचरी के विरोध की परिणति उसे मृत्यु के द्वार पर पहुँचा देती है और वह षड्यंत्रकारियों द्वारा धोखे से मार दी जाती है। वह स्त्री जिसने सदा से पुरुषों को सिर्फ दिया, कभी अपने सपने तो कभी अपना समय और तो और उसने पुरुष के नाम कर दी अपनी पूरी ज़िन्दगी लेकिन उसी स्त्री ने पाया शोषण, निरादर, धोखा और अंत: वही पुरुष अपने जुर्म को छुपाने के लिए उस स्त्री की बलि चढ़ाने से भी परहेज नहीं करता। यह प्रधान जी द्वारा प्रधानिन के हाथों शनिचरी को दूध पिलवाने वाले प्रसंग में बखूबी देखा सकता है।

“थाने के अहाते में कदम रखते ही एक काला-कलूटा भीमकाय कुत्ता भौंकते हुए दौड़ता है, लेकिन अमावट की महक पाकर पूंछ हिलाने लगता है-कूं-कूं…आओ-आओ,स्वागत है। तोंदवाला कुत्ता देखा है कभी ? देख लो।”7 इस कथन से समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और ग्रामीण परिवेश में कानून व्यवस्था को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। शिवमूर्ति कुत्ते का जो चित्र प्रस्तुत करते हैं वह सत्ता में बैठे हर उस व्यक्ति की छवि लगता है जो फ्री का खाते-खाते मोटे हो गए है और इतने भ्रष्ट हो गए है कि दूर से ही ललचाने वाली वस्तुएं पहचान लेते हैं। कोई व्यक्ति उनके लिए सिर्फ वह मोहरा है जिससे माध्यम से वह जो पाना चाहते है उसे पा सकते हैं। नैतिकहीनता, मूल्यहीनता, अवसरवादिता आदि ग्रामीण परिवेश में किस तरह मौजूद है, यह शिवमूर्ति की कहानियाँ बताती है।

‘तिरिया चरित्तर’ की विमली चेतना के धरातल पर ‘कसाईबाड़ा’ की शनिचरी का विकसित रूप कही जा सकती है। यह विमली समाज की उन वास्तविकताओं से वाकिफ है जो उसे बार-बार स्त्री होने का बोध कराते है और मात्र स्त्री होने के कारण उसकी सीमा घर के कार्यक्षेत्र तक सीमित कर अन्य सभी काम करने में असमर्थ घोषित कर देती हैं। विमली न केवल इस धारणा को तोड़ती हैं कि पुरुष ही शारीरिक कार्य करने में सक्षम है बल्कि पुत्र ही घर का पालन पोषण कर सकता है जैसी पिछड़ी मानसिकताओं को तोड़ते हुए हर उस कार्य को करती है जो स्त्री होने के नाते वर्जित माना जाता रहा है। विमली कहती है- “कौन कहता है कि आदमी- लड़के ही काम कर सकते हैं भट्टे पर ?”8 एक और बड़ा परिवर्तन वहाँ नज़र आता है जहाँ विमली अपने लिए पुरुष का चुनाव स्वयं करती है। वह स्पष्ट कहती है कि वह जिससे चाहेंगी उससे बात करेगी। हालांकि विमली का एक रूप परम्परावादी भारतीय स्त्री का भी नज़र आता है जो अपने अनदेखे पति के ख्यालों में खोई रहती है।

‘तिरिया चरित्तर’ की विमली पितृसत्तात्मक समाज में रूढ़िगत धारणाओं, वर्जनाओं को तोड़ती नजर आती है लेकिन धोखे से अपने पिता के समान उम्र वाले ससुर के शोषण का शिकार होती है। शिवमूर्ति की यह कहानियाँ अभिशप्त स्त्री जीवन का जीवन्त दस्तावेज है तो उसे अभिशप्त बनाने वाली क्रूर, निर्मम, शोषक शक्तियों की चालाकियों और साजिशों का भी इनमें लेखा-जोखा है। इन कहानियों में स्त्री पात्र भाग्यवादी बनकर नहीं बैठती बल्कि न्याय के लिए लड़ती हैं फिर भले ही उन्हें इस संघर्ष में सफलता मिले या न मिले। उन्हें जरूरी लगता है- आवाज उठाना। हर जुल्म के खिलाफ और हर उस आवाज के खिलाफ जो स्त्री को बचपन से ही आवाजहीन बने रहने को बाध्य करती है। शनिचरी, विमली, कुच्ची जैसे अन्य स्त्री पात्र भी कहानी में आवश्यकता होने पर अन्याय के विरोध में खड़ी नजर आती हैं। इनके यहाँ स्त्रियाँ बेचारी अबला बनकर रहना स्वीकार नहीं करती ना ही रिरियाती है। वह एक सीमा तक सहन करती हैं लेकिन अतिवाद की स्थिति में विरोध भी करती है। शिवमूर्ति की अधिकांशतः कहानियों में नारी एक मुख्य धुरी बनकर उभरती है क्योंकि जीवन का प्रत्येक पक्ष उसके बिना अधूरा है।

‘तिरिया चरित्तर’ इस बात की बानगी है कि सारा दोष पुरुष का होते हुए भी दोषी औरत को ही ठहराया जाता है। पुरुष समाज उस पर ही त्रिया चरित्र का तमगा लगा देता है। यह कहानी बताती है कि आज भी समाज में चरित्र के पैमाने स्त्री के लिए कुछ खास नहीं बदले और समाज के मानदंड स्त्री और पुरुष दोनों के लिए अलग है। विमली के परिप्रेक्ष्य में जब शिवमूर्ति से पूछा गया कि “वह नायिका के चरित्र को इतने यथार्थ के करीब से कैसे लिख सके तो वह कहते हैं कि उन्हें इस कहानी के इस चरित्र को रचना नहीं पड़ा क्योंकि उसने खुद ही कहानी में जगह बना ली। वह इस पात्र से स्वयं कई बार, कई अवसरों पर मिल चुके हैं।…..मेरा नजरिया किसी पूर्वनिर्धारित सोच या निश्छलता में जीते हुए ही मेरे रचनात्मक सरोकार आकार ग्रहण करते हैं।”9 यह कहानी अंत तक पाठक को यह सोचने को बाध्य करती है कि कब तक यूं ही इज्जत के नाम पर स्त्रियों को सजा मिलती रहेगी और क्या इस इज्जत का प्रश्न सिर्फ एक स्त्री के लिए है ? पुरुष के लिए नैतिकता, सही-गलत, इज्जत जैसा कुछ नहीं ? साथ ही इज्जत के नाम पर यह पितृसत्तात्मक सोच कैसे समाज को खोखला कर अमानवीय बना रही है, इस तरफ भी लेखक ने इशारा किया है। महतो कहता है कि “गाँव की नाक काटने वाली, गाँव की इज्जत में दाग लगाने वाली जनाना को बेदाग नहीं छोड़ा जा सकता। दागी जनाना को लोहे की कलछुल की डाँडी लाल करके दाग करके ही नैहर भेजा जाएगा।”10 यहाँ समाज की क्रूरता, अमानवीयता को स्पष्ट देखा जा सकता है।

शिवमूर्ति पाठकों के बीच एक चिन्तन विषय छोड़ जाते हैं कि क्यों समाज आधुनिकता के हजारों-हजार ढकोसलों के बाद का भी स्त्री के प्रति अपनी मानसिकता में बदलाव नहीं लाना चाहता। इनके यहाँ स्त्री मात्र स्वयं को व्यक्ति रूप में स्वीकारने के लिए अपने अस्तित्व की दरकार करती हैं जिसके अधिकार और दायित्व अपने पुरुष साथी के समकक्ष हो। वह ऐसा समतामूलक और समरसतामूलक संबंध चाहती है जिसमें पुरुष व नारी एक-दूसरे को आश्रय देते हुए मिल-जुलकर जीवन के संघर्षों में सहभागी हो। दलित चिंतक ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं कि “उनकी कहानियाँ नायिका प्रधान है। ‘तिरिया चरित्तर’, ‘कसाईबाड़ा’, ‘तर्पण’ आदि में स्त्री की वेदना, उसका संघर्ष, अपमान, प्रताड़ना, कामवासना, पारस्परिक रिश्तों की जकड़न, पारिवारिक विघटन सभी कुछ गहरी वेदना के साथ अभिव्यक्त होते हैं।”11 ‘कुच्ची का कानून’ की कुच्ची विमली का अगला चरण है। ‘कुच्ची का कानून’ में जहाँ एक ओर न्याय पाने की जद्दोजहद है तो वही दूसरी ओर अन्याय के प्रति एक टीस है। यह कहानी ऊपरी तौर पर भले ही ग्रामीण विशेष की समस्या लगे परन्तु यह जिस मुद्दे को उठाती है वह किसी अंचल विशेष का न होकर ग्लोबल है। कोख पर स्त्री का अपना अधिकार हो शिवमूर्ति यह बात रखने की कोशिश करते है। विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं कि “एक भी ऐसा रचनाकार नहीं है जिसके पास कुच्ची जैसा सशक्त चरित्र हो।”12

कुच्ची इस कहानी की वह मुख्य पात्र है जो तर्क के माध्यम से अपने दम पर अकेले ही आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर वर्चस्ववादी पुरुष सत्ता से अपने हक के लिए मुठभेड़ करती है। वह भरी सभा में स्पष्ट स्वरों में कहती है कि “मेरी कोख पर मेरा हक कब बनेगा ?”13 लेखक ने इस कहानी में पुरुषों की उस मानसिकता का भी परिचय दिया है जिसमें उन्हें स्त्रियों की न में भी हाँ छिपी नज़र आती है। कुच्ची के माध्यम से शिवमूर्ति स्त्री की उस स्थिति की ओर भी ध्यान दिलाते है जिसमें वह रोज तिलतिल थोड़ा थोड़ा मरती हैं। कुच्ची कहती है कि “मेरा आदमी तो एक बार मरकर फुरसत पा गया लेकिन बेसहारा समझकर हर आदमी किसी न किसी बहाने मुझे रोज मार रहा था। मैं मरते-मरते थक गई तो जीने क लिए अपना सहारा पैदा कर रही हूँ।”14 लेखक ने भविष्य को लेकर भी इशारा किया है कि अभी तक धर्म, वेद, कानून आदि के नाम पर स्त्री को बांधे रखने की जो साजिश रची गई चूंकि अब उसकी कलई खुल चुकी है तो समय के परिवर्तन के साथ उन सब में भी परिवर्तन आना चाहिए। शिवमूर्ति कुच्ची के माध्यम से यह प्रश्न भी उठाते हैं कि क्या विवाहिता के रिश्ते सिर्फ पति तक सीमित होते हैं, उसके न होने की स्थिति में वह रिश्ते भी वाकई खत्म हो जाते हैं। सुघरा कहती है – “आदमी की नजर में औरत खुद प्रॉपर्टी है। बनवारी और बजरंगी राम-लछिमन की तरह थे लेकिन जैसे ही बजरंगी मरा, बनवारी उसकी बेवा की मदद करने के बजाए उसे अपनी प्रॉपर्टी बनाने की तिकड़म में लग गया।”15

एक अन्य प्रसंग की ओर लेखक ने इशारा किया है जहाँ वह प्वाइजन बेड और जले हुए लोगों के वार्ड में सिर्फ स्त्रियों को ही दिखाते हैं। साथ ही सिर्फ स्त्री पेंशट का जला हुआ आना और प्वाइजन खाना उनके खिलाफ हो रही घरेलू हिन्सा की ओर भी इशारा किया गया है। अगर हम तीनों कहानियों की बात करें तो इनमें कहीं भी पुरुष पात्र स्त्रियों का साथ निभाते, उनके विद्रोह का समर्थन करते नहीं दिखते सिवाए ‘कसाईबाड़ा’ के अधरंगी के। लेखक के शब्दों में- “खुलेआम शनिचरी का पक्ष लेकर कोई आगे आया तो वह है अधपगला अधरंगी। सम्पूर्ण वामांग, आंशिक पैरालिसिस का शिकार। बाई आंख मिच-मिची और ज्योतिहीन। होंठ बाई तरफ खिंचे हुए। बायां हाथ चेतना शून्य। आंतकित करने की हद तक स्पष्ट भाषी। तीस-पैंतीस की उम्र में बूढ़ा दिखने लगा है। पेशा है- गाँव भर के जानवर लगा चराना। मजदूरी प्रति जानवर, प्रतिफसल, प्रति माह एक सेर अनाज।”16 जिसे समाज शारीरिक, मानसिक रूप से अपंग मानता है और आर्थिक रूप से भी सशक्त नहीं वही अधरंगी स्त्रियों के उत्पीड़न के खिलाफ बिना किसी स्वार्थ के खुलकर समर्थन करता नजर आता है।

इन कहानियों के प्रकाशन वर्ष को ध्यान रखते हुए निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि इन कहानियों के माध्यम से समय के साथ स्त्री चेतना में आए परिवर्तन को समझा जा सकता है। जहाँ शनिचरी अनशन के माध्यम से शांति से अपना विरोध व्यक्त करती है, वही विमली स्पष्ट रूप से भरी सभा में मरजाद के नाम पर सब कुछ बदाश्त करने से इन्कार करती है साथ ही पंचों का फैसला अस्वीकार करती है तो कुच्ची अपने तर्कों से सबको धराशाही कर अपनी सही बात मनवाना जानती है। इनकी स्त्री पात्र ग्रामीण परिवेश में अधिक पढ़ी-लिखी न होते भी सहज रूप से जिन मुद्दों को उठाती हैं वह स्त्री-विमर्श के अहम मुद्दों में से हैं। कहीं यह स्त्री पात्र पारम्परिक आवाजहीन स्त्री की भूमिका में नज़र आती हैं तो वही दूसरी तरफ वही स्त्री आधुनिक स्त्री के समकक्ष नजर आती है। साथ ही इनकी कहानियों की एक और विशेषता है- भाषा। यहाँ भाषा उस परिवेश का अटूट हिस्सा है जहाँ से कहानी के पात्रों को लिया गया है। अंतः में ममता कालिया की कविता की कुछ पंक्तियाँ उद्‌धृत है-

“जैसे-जैसे लड़की बड़ी होती है

उसके सामने दीवार खड़ी होती है

क्रांतिकारी कहते हैं

कि दीवार तोड़ देनी चाहिए

पर लड़की है समझदार और संवेदनशील

वह दीवार पर लगाती है खूँटियाँ

पढ़ाई लिखाई और रोज़गार की

और एक दिन धीरे से उन पर पाँव

धरती दीवार की दूसरी तरफ पहुँच जाती है।”17

सन्दर्भ सूची:-

  1. https://www.google.com/url?sa=t&source=web&rct=j&url=https://hindilyrics123.com/sach-puchho-to-nari-jivan-lyrics-in-hindi-21634.html&ved=2ahUKEwjr5oPG7vf4AhXCB7cAHcuIBmsQFnoECB0QAQ&usg=AOvVaw2rTrNc-ofF6Lsgk29Q7WNQ, मेहंदी फ़िल्म, 1998
  2. सम्पादक, मयंक खरे, अतिथि सम्पादक संजीव, मंच, जनवरी-मार्च, 2011, पृ. सं. 32
  3. सम्पादक, मयंक खरे, अतिथि सम्पादक संजीव, मंच, जनवरी-मार्च, 2011, पृ. सं. 203
  4. शिवमूर्ति, कसाईबाड़ा, दिशा प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 1986, पृ. सं. 68
  5. वही, पृ. सं. 70
  6. वही, पृ. सं. 70
  7. वही, पृ. सं. 72
  8. शिवमूर्ति, केसर कस्तूरी, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2015, पृ. सं. 40
  9. शिवमूर्ति, मेरे साक्षात्कार, पहला संस्करण, 2014, पृ. सं. 120-121
  10. शिवमूर्ति, केसर कस्तूरी, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2015, पृ. सं. 47
  11. संपादक, ऋत्विक, लमही, अक्टूबर-दिसम्बर, पृ. सं. 42
  12. शिवमूर्ति, कुच्ची का कानून, राजकमल प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, 2020, भूमिका
  13. वही, पृ. सं. 118
  14. वही, पृ. सं. 118
  15. वही, पृ. सं. 121
  16. शिवमूर्ति, कसाईबाड़ा, दिशा प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 1986, पृ. सं. 75
  17. http://www.anubhuti-hindi.org/chhandmukt/m/mamta_kalia/ladki.htm

संत साहित्य: सामाजिक चेतना के स्त्रोत-मनीष कुमार कुर्रे

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sadhu, varanasi, hindu

संत साहित्य: सामाजिक चेतना के स्त्रोत

मनीष कुमार कुर्रे

शोधार्थी, हिन्दी विभाग,

शास0 दिग्विजय महा0 राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़,

पता – मेरेगाँव, अम्बागढ़ चौकी

जिला – मोहला-मानपुर-अं॰ चौकी, छत्तीसगढ़,

पिनकोड – 491665

सम्पर्क – 9669226959, 6265501890

अणु डाक – manishkumarkurreymkk@gmail.com

सारांश

संत साहित्य आचरण की पवित्रता एवं शुद्धता लेकर लोक के समक्ष आया। उसमें युगबोध एवं लोक चेतना का व्यापक स्वरूप प्रतिफलित है। मध्यकालीन सामाजिक, आर्थिक एवं साँस्कृतिक समस्याओं का संत साहित्य में स्वाभाविक चित्रण हुआ। संतों ने अपने समय के मानव समाज को दोषमुक्त कर परिष्कृत बनाने की चेष्टा की। उनकी साहित्य रचनाओं में मानव की क्षुद्रता, सीमाओं, स्वार्थपरतता, असत्यप्रियता, संकीर्णता, अर्थलोलुतपा, कामुकता आदि का चित्रण, विवेचन और विश्लेषण हुआ है। इसी प्रकार सामाजिक असंगतियों, धार्मिक विडम्बनाओं, बहुदेवोपासना, मूर्ति पूजा आदि समस्याओं की अभिव्यक्ति और निदान भी संत साहित्य में मिलता है। इसमें संदेह नहीं है की संत कवि समाज के सच्चे और सजग प्रहरी थे। संत कवियों ने जीवनदायिनी शक्तियों की ओर जनसामान्य को आकर्षित किया और समाज को सशक्त, निर्दोष एवं कल्याणकारी मार्ग पर अग्रसर करने की चेष्टा की। इस युग के सबसे प्रमुख संत कबीरदास थे। भक्ति कालीन ज्ञानाश्रयी भक्तों के साहित्य को संत साहित्य कहा गया।

बीज शब्द: संत, निर्गुण, चेतना, ज्ञान।

शोध आलेख

उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के मध्य दो धाराएँ प्रवाहित हुई – निगुर्ण काव्य धारा और सगुण काव्य धारा। अब सगुण काव्य धारा में भी दो शाखाएँ हुई – रामाश्रयी और कृष्णाश्रयी। काव्य की दूसरी धारा निगुर्ण ज्ञानाश्रयी थी। जिसे समकालीन संतों ने अपनी वाणियों में प्रवाहित किया। इसे डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘‘निर्गुण भक्ति साहित्य’’ कहा।1 ज्ञान और भक्ति का मेल अटपटा सा लगता है। ज्ञान को लेकर भ्रमरगीत साहित्य में सगुण कृष्णोपासक कवियों ने गोपियों से उद्धव की खिल्ली उड़ाई है। संत कवियों ने साधना के साथ प्रेम को जोड़कर उसमें लालित्य अवश्य लाने का प्रयास किया, परन्तु उसे भक्ति साहित्य कहना उचित प्रतीत नहीं होता, उसे भक्ति साहित्य ना कह कर यदि संत साहित्य कहा जाये तो अधिक उपयुक्त होगा। संत साहित्य पर नाथ साधुओं और सूफी धर्म की भावना का भी प्रभाव पड़ा लेकिन उनकी भक्ति की आत्मा उससे नितांत भिन्न है। भक्तिकाल (1300 ई0) का भक्ति आन्दोलन दक्षिण से आया, लेकिन व्यापक प्रभाव 15वीं शताब्दी में ही देखा गया। इन संतों में कबीरदास, पीपा, रैदास, धना, सेन, नानकदेव, दादूदयाल, सुन्दरदास आदि आते हैं परन्तु सर्वाधिक प्रसिद्धि कबीरदास को मिली। इसलिए संत साहित्य से ही भक्तिकाल का आरम्भ माना जाता है और संत कबीर को संत साहित्य के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं।

युगबोध:- संतों का व्यक्तित्व सच्चे अर्थों में संवेदनशील था। उनका मानस स्वच्छ और उदार था इसलिए उनका साहित्य जन भावनाओं की सहज प्रवृत्तियों, परिस्थितियों, विकृतियों और विडम्बनाओं का विशाल शब्दचित्र है। दूसरे शब्दों में उन्होंने तात्कालीन समाज का यथार्थ चित्र अंकित किया। संत साहित्य आत्मविश्वास, आशावाद और आस्था की भावना संस्थापित करने में सहायक साहित्य है । इसका प्रमुख प्रयोजन है – त्रस्त, संतप्त, उपेक्षित, उत्पीड़ित मानव को परिज्ञान प्रदान करना।

संक्षेप में निर्गुण संत साहित्य आचरण की पवित्रता एवं शुद्धता लेकर लोक के समक्ष आया। उसमें युगबोध एवं लोक चेतना का व्यापक स्वरूप प्रतिफलित है। मध्यकालीन सामाजिक, आर्थिक एवं साँस्कृतिक समस्याओं का संत साहित्य में स्वाभाविक चित्रण हुआ। संतों ने अपने समय के मानव समाज को दोषमुक्त कर परिष्कृत बनाने की चेष्टा की। उनकी साहित्य रचनाओं में मानव की क्षुद्रता, सीमाओं, स्वार्थपरतता, असत्यप्रियता, संकीर्णता, अर्थलोलुतपा, कामुकता आदि का चित्रण, विवेचन और विश्लेषण हुआ है। इसी प्रकार सामाजिक असंगतियों, धार्मिक विडम्बनाओं, बहुदेवोपासना, मूर्ति पूजा आदि समस्याओं की अभिव्यक्ति और निदान भी संत साहित्य में मिलता है। इसमें संदेह नहीं है की संत कवि समाज के सच्चे और सजग प्रहरी थे। संत कवियों ने जीवनदायिनी शक्तियों की ओर जनसामान्य को आकर्षित किया और समाज को सशक्त, निर्दोष एवं कल्याणकारी मार्ग पर अग्रसर करने की चेष्टा की।2 इस युग के सबसे प्रमुख संत कबीरदास थे। भक्ति कालीन ज्ञानाश्रयी भक्तों के साहित्य को संत साहित्य कहा गया।

संत शब्द: अर्थ एवं परिभाषा:-

वस्तुतः ‘भक्त’ और ‘संत’ शब्द समानार्थी है, लेकिन भक्ति कालीन साहित्य में ‘संत’ शब्द एक परिभाषित शब्द के रूप में प्रयुक्त होता है। निर्गुणोपासक के लिए ‘संत’ शब्द और सगुणोपासक के लिए ‘भक्त‘ शब्द व्यवहृत किया जाता है। ‘संत’ शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ विविध विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूपों में दिया है। जहाँ तक भक्तिकाल का सम्बंध है, यह साधक की एक अवस्था है। जैसे- नाथ पंथ में ‘नाथ’ उस अवस्था का नाम है, जहाँ साधक शून्य में लीन होकर ब्रह्म रूप हो जाता है। उसी प्रकार संत साधक की वह अवस्था है, जहाँ साधक माया से ऊपर उठकर ब्रह्म से तादात्म्य पाता है। संसार की अच्छाई एवं बुराइयों का उस पर कोई असर नहीं होता है। कबीर के काव्य में संतों का यही भाव प्रकट होता है। कबीर संतों में असंतन की एकरूपता स्पष्ट करते हुए कहते हैं:-

साध मिले साहिब मिले, अन्तर रही न रेख।

मनसा-वाचा-कर्मणा, साधु साहिब एक।।3

हिन्दी साहित्य कोश (भाग-1) के अनुसार:- संत शब्द का प्रयोग साधारणतः किसी भी पवित्र आत्मा और सदाचारी पुरुष के लिए किया जाता है। कभी-कभी यह साधु एवं महात्मा शब्दों का पर्याय भी समझ लिया जाता है, किन्तु संतमत शब्द में आ जाने पर इसका एक परिभाषिक शब्द भी हो सकता है, जिसके अनुसार यह उस व्यक्ति का बोध कराता है जिसने सत्रूपी परमतत्व का अनुभव कर लिया हो। अतएव विशिष्ट लक्षणों के अनुसार संत शब्द का व्यवहार केवल उन आदर्श, महापुरुषों के लिए ही किया जा सकता है। जो पूर्णतः आत्मनिष्ठ होने के अतिरिक्त समाज में रहते हुए, निःस्वार्थ भाव से विश्वकल्याण में प्रवृत्त रहा करते हैं। संतमत को ही कभी-कभी निर्गुण संतमत भी कह देते हैं।4

पंडित परशुराम चतुर्वेदी ने संत शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ‘’संत’’ शब्द का मौलिक अर्थ है- ‘’शुद्ध अस्तित्व‘’। इस प्रकार ‘संत’ शब्द का प्रयोग नित्य एकरस रहने वाले तत्व के लिए किया जाता है। बाद में इसका समान्यार्थक संत शब्द का अर्थ संकोच हुआ और केवल बारकरी संप्रदाय के प्रचारकों के लिए ही होने लगा।5

संत साहित्य का आविर्भाव:-

संत साहित्य का श्रीगणेश महात्मा कबीरदास जी की रचनाओं से माना जाता है। कबीरदास से पूर्व संत विचारधारा का प्रसार महाराष्ट्र में बारकरी (विट्ठल संप्रदाय) के अंतर्गत हुआ, लेकिन हिन्दी साहित्य का उससे कोई सम्बंध नहीं है, उनमें संत ज्ञानेश्वर-नामदेव ने उत्तर भारत का भ्रमण किया था और हिंदी की कुछ रचनाएँ भी की थी, परन्तु हिन्दी साहित्य में उनको कोई विशेष स्थान नहीं दिया गया है। संत कवियों में कबीरदास, रैदास, पीपा और धना ने साहित्य रचना की। कबीर की रचना साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। कबीरदास के बाद उनके शिष्य धर्मदास का नाम आता है और धर्मदास के पश्चात गुरु नानक देव ने संत संप्रदाय को विकसित किया।

संत साहित्य की दूसरी श्रेणी में दादूदयाल, मुलकदास इत्यादि के नाम आते हैं। दादूदयाल विद्वान संत थे। निरंजनी संप्रदाय के हरिदास भी इसी परम्परा में आते हैं। गुरु नानक देव के संप्रदाय में गुरु ग्रंथ साहिब की रचना प्रमुख है। शेख इब्राहिम के कुछ पद भी गुरु ग्रंथ साहिब में संग्रहित है।6

डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार:- 18 वीं शताब्दी के अंत तक संत परम्परा की क्रांतिकारी भावना नष्ट हो गई थी। संत लोग भी अन्य मठाधीशों के सामान अपने मठ बनाने में लगे थे। जिन लोगों ने माया को ललकारने का साहस किया था उनके अनुयायी माया के घरौदों में बंद हो गए। इसलिए वह साहित्य की सृष्टि न कर सके जो मनुष्य को नया आलोक देता और कठिनाइयों व विपत्तियों से जूझने की प्रेरणा देता।7

गुरु ग्रंथ साहिब में नानक देव के अतिरिक्त नामदेव, त्रिलोचन, परमानन्द, बेनी, रामानन्द, धना, पीपा, सेन, कबीर, रैदास, सूरदास, भीखन, फरीद तथा मीरा के पदों का भी संकलन है। अतः हम कह सकते हैं कि हिंदी साहित्य में संत साहित्य का आरम्भ संत कबीरदास की काल से माना जाता है और कबीरदास संत साहित्य के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं।

अनंतानन्द, कबीर ,सुखा, सुरसुरा, पद्यावति नरहरि।

पीपा, भावानन्द, रैदासु, धना, सेन, सुरसरि की धरहरि।।8

संत साहित्य का विभाजन:-

कबीर द्वारा परिवर्तित विचारधारा को मान्यता देने वाले साधु संतों की परम्परा आज भी जीवित है। गढ़वा घाट पर, काशी पर आज भी एक साधु की परम्परा जी रही है, जो कबीर विचारों से वृहत् जान पड़ती है। इसी प्रकार न जाने और कितने संप्रदाय होंगे। इन सभी द्वारा निर्मित साहित्य संत साहित्य है। इसके निर्माताओं को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- 1. रामानन्द के शिष्य मंडली 2. पंथ प्रवर्तक संत। पहला कबीर के समसामयिक है और दूसरा परवर्ती।9

संत दर्शन और संत साहित्य में सामाजिक चेतना

संत संप्रदाय का दर्शन किसी विशेष शास्त्र से नहीं लिया गया है क्योंकि शास्त्रों में संतो की आस्था प्रायः नहीं थी। शास्त्र एक विशेष दृष्टिकोण के लिए या कहा जा सकता है कि वे संप्रदायिकता के आधार पर टिके होते हैं। यह स्पष्ट है कि संतों ने धर्म और दर्शन को संप्रदाय की सम्पत्ति नहीं समझा क्योंकि वेद, धर्म व दर्शन में किसी प्रकार संकीर्णता नहीं लाना चाहते थे। दर्शन अनुभूति और विश्वास से सम्भव माना है। अतः संत संप्रदाय का दर्शन उपनिषद्, भारतीय षट्दर्शन, बौद्ध धर्म, सूफी संप्रदाय, नाथ संप्रदाय की विश्व जननी अनुभूतियों के तत्व को मिलाकर सुसंगठित हुआ है। जिसका प्रभाव संत साहित्य पर पड़ा और संतों के सामाजिक चेतना का आधार भी यही दर्शन ही है। दर्शन के चार तत्व माने जाते हैं- ब्रह्म, जीव, माया, जगत।10

संत साहित्य में समस्त संत काव्य को रख सकते हैं जो जनमानस की अभिव्यक्ति और सामाजिक, धार्मिक चेतना का काव्य है। इस साहित्य (काव्य) के सृष्टा संत जन भले ही शिक्षित और शास्त्रों के ज्ञाता न हो लेकिन अपने युग के सचेत एवं विवेकशील दृष्टा थे। इसीलिए इनका काव्य भक्तिकालीन अन्य काव्य से भिन्न विकसित हुआ।

लोक कल्याण की भावना:- सभी संतों ने लोक कल्याण की भावना से लोगों को जागरूक करने का प्रयास किया। उनका उपदेश अथवा उनकी प्रेरणा किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव कल्याण के लिए है। उन्होंने जो कुछ कहा समाज को पतन की ओर जाने से रोकने के लिए कहा। अब इन्हीं सामाजिक कल्याण के अन्तर्गत हम निम्न बिन्दु को रखेंगे जो इस प्रकार है –

(1) गुरु महत्ता:- संत कवियों ने गुरु को सबसे ऊँचा स्थान दिया है और गुरु को किसी ब्रह्म से कम नहीं बतलाया। संतों का मान्यता था कि गुरु बिना सिद्धि संभव नहीं और ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। एक सद्गुरु ही हमारे जीवन को संवार सकता है। संत साहित्य की पृष्ठभूमि अथवा प्रेरणा स्रोतों के रूप में जिन सिद्ध, नाथ, जैन साहित्य की चर्चा की जाती है, उसमें गुरु तत्व की महिमा है। हिन्दी संत साहित्य में गुरु महात्म्य की एक परम्परा रही है। कबीरदास गुरु की महिमा बताते हुए गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा बतलाया है। यथा:-

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय।

बलिहारी गुरु आपणै, जिन गोविंद दियो बताय।।

संत गुरु नानक देव जी कहते हैं:-

गुरु बिन कितै न पाइयो, केति कहै कहाये।

गुरु सागरो, रतन गुरु तितु रतन धणोरो राम।।

दादू दयाल की मान्यता है:-

घट घट रामरतन है, दादू लखै न कोय।

सतगुरु सबदा पाइये, सहज ही सिधि होय।।11

(2) रूढ़ियों व बाह्याडम्बरों का खण्डन:- संतों ने सामाजिक, धार्मिक, साँस्कृतिक क्षेत्र में व्याप्त रूढ़ियों और बाह्याडम्बरों का खुलकर विरोध किया। सामाजिक क्षेत्र में वर्ण व्यवस्था के आधार पर तथाकथित धर्म के ठेकेदार निम्न जातियों को उनके सामाजिक-धार्मिक अधिकारों से वंचित रखते थे। इसलिए उन्होंने वर्ण व्यवस्था, जाति-पाँति, छुआछूत को नहीं माना। अधिकांश संत निम्न जातियों के थे अतः वर्ण भेद के दुष्परिणामों को उन्होंने स्वयं अनुभव किया था और सभी ने समानता की कामना की थी।

कबीर दास ने कहा है:-

(क) जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार की पड़ा रहने दो म्यान।।

(ख) जाति-पाँति पूछै नहीं कोई, हरि भजे सो हरि का होई।12

संतों ने हिन्दुओं के जप, तप, संध्या वंदन, माला फेरना, तीर्थ, व्रत, बलि, तिलक आदि को और मुसलमानों के नमाज, रोजा, हलाल पर आघात किया।

मूर्ति पूजा के विरोध में हिन्दुओं को फटकार लगाते हुए कबीरदास जी कहते हैं:-

दुनिया कैसी बावरी, पाथर पूजै जाय।

घर की चकिया कोई न पूजै, जाका पिसा सब खाय।।

मुसलमानों को फटकारते हुए आगे कबीरदास कहते हैं:-

मुल्ला चढ़ी किलकारियां, अल्लाह न बहरा होय ।

जेही कारन तू बांग दे, दिल ही अंदर होय।।

माँस भक्षण का विरोध करते हुए कहते हैं:-

बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।

जे नर बकरी खात है, तिनको कौन हवाल।।

बलि प्रथा का खण्डन करते हुए कहते हैं:-

दिन को रोजा रखत है, राति हनत है गाय।

यह तो खून यहू बन्दगी, कैसे खुसी खुदाय।।13

(3) हिन्दु-मुस्लिम व राम-रहीम एकता पर बल:- सभी संतों ने हिन्दु-मुस्लिम एकता पर बल दिया, उन्होंने ईश्वर को एक मानकर राम और रहीम की एकता पर जोर दिया। कबीरदास ने हिन्दु-मुस्लिम की खाई को बड़ी कुशलता से पाटा। इस समय धर्म विभिन्न मत-मतान्तरों में बट चुका था, तब कबीरदास जैसे महान संतों ने राम-रहीम की एकता को बताकर सारे देश को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया।

उन्होंने हिन्दु व मुस्लिम दोनों को फटकारते हुए प्रश्न किया:-

जो तू बाम्हन, बाम्हनी आया, आन बाँट ही क्यों नहीं आया।

जो तू तुरकी, तुरकनी आया, भीतर खतना क्यों न कराया।।

राम-रहीम को एक बताते हुए कबीरदास कहते हैं:-

राम-रहीम एक है, नाम धराया दोय।

कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम परौ मति कोय।।

इसी प्रकार ईश्वर भेद के लिए कबीर कहते हैं:-

दुई जगदीश कहाँ से आया, कहुँ कौन भरमाया।।14

सुन्दरदास जी भी कहते हैं:-

और देवी-देवता उपसना अनैक करे, अंबन की होसै कैसे, अकडोडे ज्ञात है।

सुन्दर कहत रवि परकास बिन, जेंगना की जोति कहा, रजनी विलात है।।15

(4)समन्वित भक्ति भावना पर बल:- संत साहित्य में अभिव्यक्त भक्ति भावना पर नाथों की योग साधना, वैष्णवों की भक्ति महिमा, सूफियों के प्रेम तत्व का प्रभाव है। इसमें कर्म, ज्ञान और योग का समन्वय है। संतों की भक्ति साधना पर योग मार्ग का प्रभाव है, लेकिन उसका अंधानुकरण नहीं है। उनकी नजर में प्रेम के बिना ज्ञान और योग व्यर्थ है। इस संदर्भ में कबीरदास की मान्यता है:-

मैं जान्यौ पढ़िबौ भलौ, पढ़िबा तै भला जोग।

रामनाम सूँ प्रित करि, भल-भल नींदो लोग।।

इससे भी आगे आकर कबीरदास कहते हैं:-

प्रेम बराबर जोग नहीं, प्रेम बराबर ज्ञान।

प्रेम भगति बिन साधिबो, सब ही थोथा ज्ञान।।16

इस प्रकार संत साहित्य का काव्य भक्ति साधना एक प्रकार की प्रेम साधना ही है। प्रेम साधना में वासनाओं के लिए अनुमान का भी अवकाश नहीं।

(5) नाम-स्मरण की गरिमा:- नाम तत्व संत काव्य की रचना का एक विशेष अंग है। संत काव्य में वर्णित राम-नाम की साधना एक प्रकार की मंत्र साधना है, लेकिन केवल नाम उच्चारण या परंपरागत जाप राम-नाम साधक नहीं है। उसका सम्बंध जीवन की रागात्मक वृत्ति से है। जब तक राम-नाम का परमतत्व हमारी प्राण शक्ति के साथ घुल-मिल नहीं जाता है, तब तक वह शब्द ज्ञान मात्र ही बना रहता है। इसलिए नाम-स्मरण तन मन से एकाग्र होकर किया जा सकता है:-

सुमिरन ऐसा कीजिये, दूजा लखै न कोय।

होंठ न फरकत देखिए, प्रेम राखिये गोय।।

अनमने ढंग से किया गया नाम-स्मरण आडम्बर मात्र है। इसीलिए संतांे ने इसकी निंदा की है:-

माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहि।

मनुवा तो चुहदिस फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं।।17

(6) संसार की क्षणभंगुरता:- यह संसार और यहाँ के निवास करने वाले मानव पशु-पक्षी, जीव-जन्तु सभी नश्वर है। अतः जो पैदा हुआ है उसे एक दिन जाना ही होगा। चाहे वह राजा हो या रंक, अमीर हो या गरीब, चाहे धर्म, वर्ग, जाति का क्यों न हो उसका मृत्यु निश्चित है। अतः इसकी चिन्ता करने के बजाय बुद्धिमान व्यक्ति को अनहोनी को रोकने के बारे में सोचना चाहिए। सत्य के मार्ग को अपनाना चाहिए यही संत काव्य में सार है:-

होनी तो होके रहै, अनहोनी न होय।

इसी तरह कबीरदास संसार की क्षणभंगुरता को इस तरह बतलाते हैं:-

पानी केरा बुदबुदा, अस मानुष की जात।

देखत ही छिप जायेगा, ज्यो तारा परभात।।

मेरा-मेरा क्यों करता है, कुछ भी नहीं है तेरा।

ना घर तेरा ना घर मेरा, चिड़िया रैन बसेरा।।18

(7) रहस्य भावना:- डॉ0 गोविंद त्रिगुणायत के अनुसार:- ‘‘जब साधक भावना के सहारे आध्यात्मिक सत्ता की रहस्यमयी अनुभूतियों की वाणी के द्वारा शब्दमय चित्रों में सजाकर रखने लगता है, तभी साहित्य में रहस्यवाद की सृष्टि होती है।’’ संत साहित्य में भावात्मक, साधनात्मक और अभिव्यक्तिमुलक, रहस्याभिव्यक्ति के सुन्दर उदाहरण मिलते हैं। सभी संतों में कबीरदास की रहस्याभिव्यक्ति अद्वैत दर्शन, सूफी दर्शन और नाथों के योग से प्रभावित होकर भी मौलिक है। यथा:-

प्रेम मूलक:-

बहुत दिनव में प्रीतम आये, भाग बड़े धरि बैठे पार।

यौगिक रहस्याभिव्यक्ति:-

तलि कर शाखा ऊपरि करि मूल, बहुत भाँति जड़ लागे फूल।।

अभिव्यक्तिमुलक रहस्याभिव्यक्ति:-

फिलु खादी वलदु परवावज, कउआ ताल बजावै।

पहिन चोलना गद्हा चाचै, भैसा भगति करावै।।19

निष्कर्ष:-

प्रायः सभी निर्गुण संत साधक, विचारक, धार्मिक प्रवक्ता और सुधारक पहले थे, साहित्यकार बाद में। वास्तव में साहित्य रचना उनका उद्देश्य नहीं था। साहित्य उनके उद्देश्य पूर्ति का माध्यम था। उन्होंने शासक और शासित के भेदभाव को समाप्त कर उन्हें एक गुरु की सेवा में सम स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया। सामाजिक आडम्बरांे, रूढ़ीवादी परम्पराओं को दूर किया। राम-रहीम, हिन्दू-मुस्लिम को एक करने का प्रयास कबीर एवं समकालीन संतांे ने पूरा किया। नाम-स्मरण, भक्ति-भावना का समन्वय समाज में आडम्बरों को छोड़कर एक ऐसी भक्ति जो निःस्वार्थ हो, को आगे बढ़ाने का कार्य संतों ने किया। उन्होंने अंधविश्वास को तोड़कर समाज को पुनः संगठित किया, जिसमें ईष्र्या, द्वेष, भेदभाव का कोई भी स्थान नहीं है। संत संप्रदाय ने जो धार्मिक, सामाजिक उत्थान का कार्य किया, उसे भुलाया नहीं जा सकता। समाज को संगठित, आडम्बररहित, कुप्रथाओं से मुक्त कराने में संतों का योगदान अविस्मरणीय है। यही विशेषता इस युग को स्वर्ण युग बनाती है।

संदर्भ सूची:-

1. प्राचीन हिन्दी साहित्य- यज्ञदत्त, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 1975, पृष्ठ- 88

2. हिन्दी साहित्य का इतिहास- डॉ0 नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोएडा, 1973, पृष्ठ- 143

3. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ0 माधव सोनटक्के, विकास प्रकाशन, कानपुर, 2009, पृष्ठ-179

4. हिन्दी साहित्य कोश (भाग-2), वाराणसी ज्ञान लिमिटेड, धीरेंद्र वर्मा, ब्रजेश्वर वर्मा, धर्मवीर भारती, रामस्वरूप चतुर्वेदी, रघुवंश, 1985, पृष्ठ- 854

5. हिन्दी साहित्य का इतिहास – राममूर्ति त्रिपाठी, भूमिका लेखक आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, मानकचन्द बुक डिपो, उज्जैन, 1967, पृष्ठ- 69

6. प्राचीन हिन्दी साहित्य- यज्ञदत्त, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 1975, पृष्ठ- 90

7. वही पृष्ठ- 90,91

8. हिन्दी साहित्य (द्वितीय खण्ड) प्रारंभ से 1850 ई0 तक, भारतीय हिन्दी परिषद्, प्रयाग, सं0- धीरेंद्र वर्मा, ब्रजेश्वर वर्मा, पृष्ठ- 209

9. प्राचीन हिन्दी साहित्य- यज्ञदत्त, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 1975, पृष्ठ- 74

10. हिन्दी साहित्य (द्वितीय खण्ड) प्रारंभ से 1850 ई0 तक, भारतीय हिन्दी परिषद, प्रयाग, सं0 – धीरेंद्र वर्मा, ब्रजेश्वर वर्मा, पृष्ठ- 226

11. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ0 माधव सोनटक्के, विकास प्रकाशन, कानपुर, 2009, पृष्ठ- 191

12. वही पृष्ठ- 192

13. प्राचीन हिन्दी साहित्य- यज्ञदत्त, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 1975, पृष्ठ- 96

14. प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य- सालिगराम द्विवेदी ‘कवि’, भार्गव प्रकाशन, मध्यप्रदेश, पृष्ठ-24

15. वही पृष्ठ- 24,25

16. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ0 माधव सोनटक्के, विकास प्रकाशन, कानपुर, 2009, पृष्ठ- 191

17. वही पृष्ठ- 192

18. सतनाम दर्शन – डॉ. टी. आर. खूँटे, सतनाम कल्याण एवं गुरू घासीदास चेतना संस्थान, रायपुर, पृष्ठ- 134

19. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ0 माधव सोनटक्के, विकास प्रकाशन, कानपुर, 2009, पृष्ठ- 193

सूरजपाल चैहान की कहानियों में व्यक्त दलित चिंतन-अंजलि

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street vendor, selling, rural market

सूरजपाल चैहान की कहानियों में व्यक्त दलित चिंतन

अंजलि,

शोधार्थी, हिन्दी विभाग,

दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

ईमेल- angelduggal93@gmail.com

सारांश

सूरजपाल चैहान दलित कथाकारों में अग्रगण्य हैं जिनमें दलित चेतना की धारदार अभिव्यक्ति हुई है। उनकी कहानियां भारतीय समाज और विशेषकर हिंदू धर्म और समाज में व्याप्त ऊँच-नीच की भावना तथा जाति आधारित घृणा – हिंसा आदि को बेनकाब करनेवाली कहानियाँ हैं। उन्होंने अपने जीवन की घटनाओं एवं अनुभवों के माध्यम से समाज की निचली ऊपरी परतों में व्याप्त असलियत को उघाड़ा है।

बीज शब्द: दलित, चिंतन, समाज, चेतना, अभिव्यक्ति

शोध आलेख

विकासशील देशों और औपनिवेशिक साम्राज्यवादी शासकों के अधीन देशों में दलित मानव की स्थिति सामाजिक और आर्थिक यंत्रणाओं के कारण अधिक दारुण और असहनीय रही है। भारतीय सनातनी सामाजिक चातुर्वण्य व्यवस्था से लेकर आज तक की वर्गीय व्यवस्था में दलित समाज सांस्कृतिक विषमता, आर्थिक शोषण का शिकार और सामाजिक दृष्टि से उपेक्षित रहा है। विश्व में शोषितों और गुलामों का दूसरा वर्ग नीग्रो समाज रहा है। रंगभेद से पीड़ित नीग्रो साहित्यकारों ने ‘ब्लैक लिटरेचर’ के माध्यम से मानवीय अधिकारों की प्राप्ति हेतु संघर्ष किया। नीग्रो साहित्य के समान ही भारतीय दलित युवा पीढ़ी ने साहित्य सृजन के माध्यम से अपनी संवेदनहीन वाणी को संवेदनशील बनाया है। इस चेतना के विकास की पृष्ठभूमि सर्वप्रथम मराठी दलित साहित्य में मिलती है, जिसका प्रभाव समस्त भारतीय साहित्य पर पड़ा है।

आधुनिक हिंदी कहानियों में उपेक्षित दलित वर्ग के जीवन की आकांक्षाओं को सर्वप्रथम कथाकार प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में विभिन्न परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया। इस संदर्भ में उनकी ‘सद्गति’ कहानी में दुखी चमार की दर्दपूर्ण कथा है। यह ‘ठाकुर का कुआँ कहानी में स्वच्छ पानी के लिए तरसते अछूत जोखू की करुण गाथा है। पानी की जिस समस्या को प्रेमचंद्र ने आजादी के पहले उठाया था, वह समस्या आजादी के साठ साल बाद भी हल नहीं हो पाई है। दूध का दाम कहानी में भंगी, भंगिन और उसके पुत्र मंगल की अमानवीय दशा का यथार्थ चित्रण है। ‘कपन’ कहानी में भूख की पीड़ा से पिता पुत्र अमानवीय बन जाते हैं। वस्तुतः इन कहानियों का कथ्य भूख की पीड़ा से दलित मानव की विचारशून्यता है, संवेदनहीनता की कुरूप छवि है, मानवीय मूल्यों की टूटन है और शोषण पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह का रास्ता तैयार हुआ है। अतः इन कहानियों को हिन्दी में दलित चेतना के विकास के प्रेरक तत्व के रूप में देख सकते हैं।

इस प्रकार बीसवीं सदी के अंतिम दशक में दलित कहानी ने एक आंदोलन का रूप ले लिया। इस दशक में जिन दलित कथाकारों के कथा संग्रह आए, वे इस प्रकार हैं- ‘सुरंग’ – डा. दयानंद बटोही, चार इंच की कलम – डॉ. कुसुम वियोगी, ‘टूटता वहम’ – डॉ. सुशीला टाकभोरे, ‘साग’ – डॉ. टी पी राही, ‘आवाजें’ – मोहनदास नैमिशराय, ‘पुट्स के फूल’ प्रह्लादचंद्र दास, ‘द्रोणाचार्य एक नहीं’ – कावेरी, ‘हैरी कब आयेगा’ – सूरजपाल चैहान, ‘सलाम’ ओम प्रकाश वाल्मीकि के अतिरिक्त जिन कथाकारों के कथा संग्रह आने का उल्लेख है, उनमें ‘अपना मकान’, ‘पुनर्वास’ – विपिन बिहारी, ‘सत्य का सफरनामा’ – जियालाल आर्य, ‘चंद्रमौलि का रक्तबीज और सायरन’ सत्यप्रकाश, ‘तीन महाप्राणी – बुद्धशरण हंस आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

कहानियों में व्यक्त दलित चिंतन

‘हैरी कब आयेगा’ का प्रकाशन सन 1999 में और नया ब्राह्मण का प्रकाशन सन 2009 में हुआ। समस्त समाज के लोगों ने इन संग्रहों का स्वागत भी किया और खूब पढ़ा भी है। ‘हैरी कब आयेगा’ कहानी संग्रह के प्रथम संस्करण, 1999 के ‘पाठकीय दृष्टिकोण’ शीर्षक में लेखक के साहित्यिक मित्र प्रमोद सिंह ने अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा था

‘‘आवश्यकता है इस कहानी संग्रह को सामान्य दलित तक पहुँचाने की, तभी इसकी सार्थकता और लेखक का परिश्रम सफल होगा, अन्यथा जिस प्रयोजन से इस कृति का सृजन हुआ है, उसकी उपयोगिता धूमिल हो जाएगी………।’’

यही कारण है कि इस कहानी संग्रह का दूसरा संस्करण इतनी शीघ्रता (2003) से प्रकाशित हुआ।

‘नया ब्राह्मण’ कहानी संग्रह में ऐसी कई कहानियाँ हैं, जिनमें दलित समाज की कमजोरियों और अंतर्विरोधों की आलोचना की गई है।

1. सवर्ण समाज में छुआछूत की भावना एवं जातिवादी दंभ

सूरजपाल चैहान दलित कथाकारों में अग्रगण्य हैं जिनमें दलित चेतना की धारदार अभिव्यक्ति हुई है। उनकी कहानियां भारतीय समाज और विशेषकर हिंदू धर्म और समाज में व्याप्त ऊँच-नीच की भावना तथा जाति आधारित घृणा – हिंसा आदि को बेनकाब करनेवाली कहानियाँ हैं। उन्होंने अपने जीवन की घटनाओं एवं अनुभवों के माध्यम से समाज की निचली ऊपरी परतों में व्याप्त असलियत को उघाड़ा है।

वर्णव्यवस्था और पितृसत्ता के दो स्तंभों पर टिके ब्राह्मणवाद ने समाज की तीन चैथाई आबादी के विकास एवं मानवीय पहचान के लिए संकट पैदा किया है। जातिवाद ने हिंदू समाज से मानवीयता को छोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके फलस्वरूप जिन जातियों को निम्न माना जाता है, उन्हें मानवीय पहचान मिलती ही नहीं, दूसरी ओर ऊँची कही जानेवाली जातियों ने श्रेष्ठता के दंभ से ग्रस्त होकर मानवीयता की हत्या की है। ‘छूत कर दिया’ कहानी में सवर्ण समाज की मानसिकता का पदतिश हुआ है। गाँव के टीकाराम चमार का लड़का बिहारीलाल केन आई. ए. एस हो गया है। गाँव प्रधान लाला गुलाबचंद्र गाँव में हो रही रामलीला में उनसे बड़ी रकम हड़पना चाहता है। सवर्ण समाज दलित समाज के लोगों का अपने स्वार्थ के लिए उपयोग करता है और काम पूरा होते ही उसे अपमानित भी करता है, इस संदर्भ में एक नमूना द्रष्टव्य है ग्राम प्रधान बोला-

‘‘भाईयो, अब मैं बिहारीलाल जी से अनुरोध करता हूँ कि वह भगवान राम का तिलक कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करें।’’

बिहारी ने आरती का थाल उसके मुंह के सम्मुख घुमाकर उसकी आरती उतारी और थाली से रोली लेकर राम बने पात्र को तिलक करने के लिए अपना हाथ बढ़ाया कि तभी राम बना पात्र पीछे की ओर हटकर चिल्लाया –

‘‘अरे चमार के, क्या छूत करेगा?’’ दलितों ने ग्राम प्रधान को धिक्कारते हुए कहा- ‘‘क्यों ग्रामप्रधान, तुम्हें या रामलीला कमेटी के सदस्यों को बिहारीजी से रुपया लेते लाज न आई ? रुपया भी तो बिहारी ने अपनी जेब से निकालकर अपने हाथों से ही दिया था, तब तुम्हें छूत नहीं लगी?’’

इसके साथ-साथ ‘घमंड जाति’ का कहानी का संवाद मौजूद है। ‘‘अरे, चुप नालायक, एक तो भंगियों के बालक के संग खेलकर अपने आप कूं अपवित्र कर लीनौ और फिर पूछत है कि पानी के छींटे क्यों डारि रहे हो?’’- ठाकुर प्रताप ने वीर के मुंह पर एक थप्पड़ लगाते हुए कहा था।

इस प्रकार तथाकथित निम्न जाति का व्यक्ति शूद्र को नीच समझे और कथित उच्च जाति का व्यक्ति अपने को श्रेष्ठ समझे इसके लिए बचपन से ही सिखाया जाता है। बच्चों पर सामाजिक कायदों- बंधनों का उतना गहरा प्रभाव नहीं होता है, इसलिए उनका व्यवहार सहज एवं स्वाभाविक होता है।

यह सब देखने के बाद ऐसा लगता है कि सबसे पहले ब्राहमणत्व को नाश करने की आवश्यकता है। यह ब्राह्मणत्व हिंदू समाज में एक आपत्ति की चीज है। यह अच्छी दिलग्गी की बात है कि मूर्ख, पाखंडी, बदमाश, लुच्चे, लंपटी और कलंकी चाहे कैसा भी आदमी हो, लेकिन वह ब्राह्मण वंश में पैदा हुआ है तो वह अपने को सारे मनुष्यों से श्रेष्ठ मानता है और दलित जाति के पुरुष में सभी प्रकार के उत्तम गुण मौजूद हों, किसी भी हालत में अपने से श्रेष्ठ समझने से इंकार करता है। गैर-दलित समाज अपनी झूठी वाहवाही में बिना सोचे-समझे आज तक दलित समाज के महापुरूषों को कुंवारी ब्राह्मणियों से उत्पन्न होना बताते आए हैं। संत कबीर का उदाहरण सबके सम्मुख है। कितनी बेहूदी बात है कि एक ओर जानवरों की पूजा करना और दूसरी ओर सुजाक की बीमारी हो जाने पर उनके साथ संभोग करना। बी. एस. शर्मा एवं संजीव एक दूसरे के समर्थन में बताते हैं कि ये सारी जानकारी उन्हें विरासत में मिली है। इस प्रकार इन मित्रों की चर्चा से गैर-दलित समाज की विरोधाभासी कहावतों, मान्तयाओं के साथ-साथ उनकी पोल खोलने का काम किया है लेखक ने।

2. धर्म के नाम पर

प्रत्येक मानव समूह में जीवन के धार्मिक और व्यावहारिक दो रूप दिखते हैं। कोई भी समाज चाहे वह प्रगतिशील हो या पिछड़ा हुआ, विश्व में ऐसा कोई नहीं है जिसके मूल में धर्म न हो। जीवन के धार्मिक रूप अलौकिक तथा श्रद्धा पर आधारित होते हैं। ऐसी श्रद्धा से जो आचरण किए जाते हैं, उनमें रहस्यमय अलौकिक शक्ति, जादू की सामर्थ्य, पाप-पुण्य, भूत-प्रेत, राक्षस, पितर, गंधर्व, यक्ष, देवता आदि की कल्पना रहती है और उसका संबंध स्वर्ग, मोक्ष, परमार्थ और अध्यात्म मार्ग से होता है। धार्मिक जीवन व्यावहारिक जीवन से मिला जुला होता है। खेत जोतना, समय पर बीज डालना, गर्भाधान, पशु और शिशु पालन आदि बिल्कुल सांसारिक कार्य हैं, परंतु जब जल बरसाने के लिए, अतिवृष्टि और अनावृष्टि टालने के लिए जो चमत्कारी धर्मविधियां की जाती हैं, वे श्रद्धा, अंधविश्श्वास पर आधारित होती हैं।

अंधविश्वास धर्म की जान है, उस धर्म की जो पाखंड की भित्ति पर टिका है और जिसे आज लोग धर्म मानते हैं। इसी अंधविश्वास पर लोगों ने अत्यंत भयानक कार्य किए हैं। अंधविश्वास का दास कभी सत्य के तत्व को खोज ही नहीं सकता। यह बात आम तौर पर प्रसिद्ध है कि धर्म के काम में अक्ल की दखल नहीं है। अंध विश्वास के कारण धर्म नीति से फिसलकर रीति पर आ गिरा है, अब रूढ़ियों का दास है। कुसंस्कार अंधविश्वास का पुत्र है। जो अंधविशसी है उसमें कुसंस्कार की भावना भी है ही। अंधविश्वास और कुसंस्कारों ने ही करोड़ों हिंदुओं को मूर्तिपूजा के कुकर्म में फांस रखा है। पढ़ लिखकर भी, समझदार होकर भी वे उससे विमुख नहीं हो सकते। सूरजपाल चैहान रचित ‘हैरी कब आएगा’ कहानी संग्रह में ‘प्राण प्रतिष्ठा’ कहानी का सार पुजारी द्वारा धीमे स्वर में कही गई बात ‘‘उस मूर्ति को हम लोग दूध, गंगाजल आदि से इसलिए धोकर पवित्र करते हैं कि भगवान की उस मूर्ति को बनाने वाले अछूत व नीच जाति के लोग होते हैं। इसलिए उस मूर्ति को दूध और गंगाजल से धोकर पवित्र किया जाता है।’’ किस प्रकार प्राण प्रतिष्ठा के नाम पर धर्म के ठेकेदारों द्वारा लोगों को मूर्ख बनाया जा रहा है। तुम हो किस जाति से? यह प्रश्न सुनकर भारत का हरेक दलित आहत हो जाता है। दूसरी ओर आज चीख-चीख कर कहा जा रहा है कि कहाँ है देश में छुआछूत व ऊँच-नीच की भावना। तीर्थ, मंदिरयात्रा, अर्द्धकुंभी मेला आदि पाखंड है, इससे बचो यही संदेश इस कहानी से मिलता है।

आदि – अनादिकाल से ब्राह्मण या सवर्ण समाज ऐसा मानता आ रहा है कि पढ़ने-लिखने पर सिर्फ हमारा अधिकार है। उनकी सोच में कोई खास बदलाव नहीं आया है। दलित समाज शिक्षित होकर प्रगति करे यह उन्हें मंजूर नहीं है। ‘अपना अपना धर्म कहानी में लेखक ने सवर्ण समाज की पारंपरिक सोच का पदतिश किया है। दलितों को उस समय यह ज्ञान नहीं था कि जब दुश्मन प्यार दिखाए और मृदु भाषा का प्रयोग करे तो समझना चाहिए कि दुश्मन बहुत बड़ा अहित करने वाला है-

सवर्ण समाज अपने स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए कैसे-कैसे मनगढ़ंत धर्म और भगवान का भी उपयोग करता है इसका यह साक्ष्य है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि यह तो एक नमूना है, किंतु हमारे देश में हर जगह ही शायद ऐसा ही चलता होगा। भारतीय जनता भी भगवान के नाम पर बिना सोचे-समझे मूर्ख बनती रहती है और लोग मूर्ख बनाते रहते हैं। इस प्रकार दलित अधिकार चेतना और माध्यम के बीच ही ढूंढ़ है, क्योंकि माध्यम प्रभु वर्ग के हाथ में है। यहां माध्यम कभी आक्रामक हो जाता है तो कभी संवेदनहीन मशीन में बदल जाता है।

3. हिन्दू मानसिकता

शताब्दियों से सिर पर मैला ढोने, रास्तों की सफाई करने, गंदी नालियां धोने, मरे पशुओं की खाल उतारने, घृणास्पद जिंदगी जीने को बाध्य, रात दिन मेहनत करके भी सूखी रोटी के लिए बिलबिलाते, जूठन पर पलते, प्यास से तड़पते, मैला पानी पीते, छू जाने पर कठोर दंड के भागी बनते इस भंगी समाज को हिंदुत्ववादी मानसिकता और धर्म सम्मत वर्ण व्यवस्था ने जीते जी ही मुर्दा बना दिया। पूरे विश्व में जाति, वर्ण आधारित अमानुषिक अत्याचार और शोषण की ऐसी व्यवस्था नहीं मिलती जैसी कि भारत में मौजूद है। हिंदू धर्म के सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था के नियामकों ने अनेक धार्मिक और ईश्वरीय ग्रंथों को प्रस्तुत कर शूद्र वर्ग को नीच, अधम और सवर्णों को श्रेष्ठ और पूज्य बना दिया। ‘मनुस्मृति’ में उद्घोषित किया गया है-

‘‘ब्राह्मणोस्थ मुखमासीद् बाहु राजन्यः कृतः

उरुतदस्थ यद् वैश्यः पदाभ्याम् शूद्रो अजायत्।’’

उस विराट सत्ता के मुख से ब्राह्मण की उत्पत्ति हुई, भुजाओं से क्षत्रिय, जांघ से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ।

इस प्रकार हिंदुत्ववादी, मनुवादी संस्कारों ने नीचले तबके पर खड़े अछूतों को घृणास्पद और हेय बताकर गैर दलितों को हिकारत भरी दृष्टि झेलते हुए दुत्कार और अभावों से भरी अंधेरी दुनिया में धकेल दिया। इस निकृष्ट आचार संहिता वाली संस्कृति के अपरिवर्तनीय विधान के तहत जन्मना शूद्र बना व्यक्ति उच्च वर्णों द्वारा प्रदत्त अपनी बदबूदार सड़ी-गली जिंदगी को सिर झुकाकर बिना किसी हील हुज्जत जीने को मजबूर कर दिया गया। पाप-पुण्य, नसीब, पुनर्जन्म, कर्मफल आदि धर्मसम्मत बातों की प्रशंसा कर दलित जातियों के भीतर यह बात भली प्रकार बैठा दी गई कि वे अपनी त्रासद और नारकीय जीवन के लिए स्वयं जिम्मेवार हैं। उनकी नीची जाति में पैदा होना उनके पूर्वजन्म के पापकर्मों का परिणाम है। अपने इस प्रारब्ध से उनकी मुक्ति तभी संभव है जब वे मूक बने उच्च वर्णों के प्रति अपने ‘सेवाधर्म’ का निर्वहन करते रहें। थोपी गई वह मनुवादी वैचारिकी इस कदर उनके मनोविज्ञान का सहज अंग बन गई कि वे भय और अपराध बोध से घिर गए और सवर्णों के लात-घूसे और घृणित कर्म करने को अपना धर्म मानने लगे। सूरजपाल रचित ‘हैरी कब आएगा’, ‘नया ब्राह्मण’ कहानी संग्रह में ऐसी कई कहानियां संग्रहीत हैं जो हिंदू मानसिकता को उजागर करती हैं।

‘साजिश’ कहानी में बैंक मैनेजर राम सहाय ने नत्थू को समझाते हुए कहा- ‘‘ट्रांसपोर्ट के काम में कई प्रकार के लफ्ड़े हैं, फिर तुझे इस काम का अनुभव भी नहीं है। यह काम तो बड़े-बड़े व्यापारियों का है।’’

‘‘तो फिर साहब आप ही बताएं कि मैं क्या करूं?’’ नत्थू अनिर्णित था। पढ़ा लिखा नत्थू उस बैंक मैनेजर की साजिश को समझ न पाया। वह तो मन ही मन खुश था कि बैंक मैनेजर कितने भले आदमी हैं। किंतु बैंक मैनेजर शर्मा और हेड क्लर्क सतीश भारद्वाज दोनों अपनी सफलता पर खुश थे और ठहाका लगाते हुए चर्चा कर रहे थे-

‘‘भविष्य में ध्यान रखना कि कोई भी अछूत वर्ग का युवा अपना धंधा शुरु करने के लिए बैंक से कर्जा लेने के लिए प्रार्थना पत्र भरकर दे, तो उसे उसके पैतृक धंधे में ही लगाने के लिए प्रेरित करना है। उसे ऐसा विश्वास दिलाओ कि वह अपना पैतृक धंधा छोड़कर दूसरे धंधे की कल्पना भी न करे।’’

इस प्रकार ‘साजिश’ कहानी में लेखक ने हिंदू मानसिकता की साजिश का पर्दाफाश किया है जो दलितों को असम्मानजनक पैतृक पेशों में फंसाये रखना चाहते हैं, चाहे वे उच्च शिक्षा प्राप्त क्यों न हों? ‘साजिश’ का नत्थू सवर्ण बैंक मैनेजर राम सहाय द्वारा बार-बार पिगरी फार्म के लाभ बताकर पिगरी फार्म खोलने की सलाह दिए जाने के बावजूद पिगरी फार्म की बजाय ट्रांसपोर्ट के लिए लोन प्राप्त करता है। अब दलितों की अपनी सोच बनी है, वे अब गुमराह नहीं होंगे। ‘‘आदेश, उपदेश का धंधा बहुत हो चुका, अब यह सब बंद करो’’- की ललकार साथ ही ‘दलित अब सोते से जाग रहे हैं’ – तथ्य को उजागर कर रही है।

‘पांचवीं कन्या’ कहानी में हिंदुओं की वाणी और व्यवहार में भेद को लेखक ने बड़ी सफलता से प्रस्तुत किया है। उपर से छुआछूत न होने की बात करने वाले लोग किस प्रकार आकंठ जातिवादी हैं। पांचवीं कन्या के साथ किस प्रकार श्रीमती मिश्रा ने स्नेह जताया और जैसे ही उसे उसकी जाति का पता चला, 440 वोल्ट के करेंट का झटका खा गई। यह एक श्रीमती मिश्रा की ही बात नहीं, संपूर्ण हिंदू मानसिकता का ही परिचायक है। छुआछूत एवं उंच-नीच के कट्टर समर्थक को बताना ही इस कहानी का उद्देश्य है।

प्रशासन भी किस प्रकार सवर्ण महिलाओं को मदद करता है- यह भी स्पष्ट हो जाता है। सवर्ण समाज आज भी यह समझता रहा है कि गरीबों की, दलितों की कोई इज्जत नहीं होती, कोई स्वाभिमान नहीं होता, किंतु यह बात सरासर गलत है। अगर ऐसा भी होता तो चंपा बंसल साहब का विरोध नहीं करती और यह स्थिति उसे नहीं देखनी पड़ती। इस प्रकार सवर्ण समाज और साहित्यकारों को नये सिरे से सोचने की आवश्यकता है, तब जाकर उनकी आंखें खुल सकती हैं।

4. व्यवस्था विरुद्ध विद्रोह एवं अस्मिता रक्षा के लिए जागरूक दलित समाज

डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर ने मंत्र दिया शिक्षा, संगठन और संघर्ष का। उन्होंने स्वतंत्रता, समता और भाईचारा की मूल्याधारित संस्कृति दी। ‘अपना दीपक खुद बनो’ के लिए आह्वान किया। उन्होंने बताया कि दलितों की दुरावस्था के लिए पुनर्जन्म, भाग्यवाद, दैववाद, नियतिवाद अथवा पिछले जन्म के कर्म जिम्मेवार नहीं हैं यह तो एक साजिश है, क्योंकि दलितत्व की स्थितियाँ मानव निर्मित हैं। इसका जन्म दाता ब्राह्मणवाद है। बाबा साहब ने स्वसम्मान, स्वाभिमान और संचेतना का जागरण किया। सबसे बड़ी बात जो उन्होंने कही कि – ‘‘गुलाम को गुलामी का एहसास करा दो तो वह स्वयं विद्रोह करेगा।’’ ये अंबेडकर ही थे जिन्होंने पहली बार दलितों को मनुष्य होने की गरिमा का एहसास कराया।

दलित साहित्य लेखन पूरी प्रौढ़ता के साथ गति पकड़ता जा रहा है। दलित पात्रों की व्यवस्था के साथ लड़ाई, अन्याय के प्रति आकोश और विद्रोह हीनबोध से मुक्ति और स्वाभिमान के साथ जीने की ललक का जो स्वाभाविक, मनोवैज्ञानिक, सर्वथा विश्वसनीय चित्रण दलित लेखन में मिलता है, वह दलितेतर लेखन में गायब है। गैर दलित लेखन में दलित पात्र मात्र दया का पात्र या नपुंसक विद्रोह का वाहक नजर आता है। किसी पात्र में इतनी आग नहीं कि वह अमानवीय व्यवस्था के विरुद्ध ताल ठोंककर और तनकर खड़ा हो जाए। इस बात का ठोस प्रमाण उपस्थित करती है सूरजपाल चैहान रचित ‘परिवर्तन की बात’, ‘टिल्लू का पोता’, ‘अंगूरी’ आदि कहानियां। ये काहानियां जहां एक ओर दलित स्वाभिमान, आहत हृदय की कचोट, सामाजिक अपमान व अन्याय से पार पाने की तड़प और प्रगतिशील चिंतन का लिखित दस्तावेज हैं, वहीं दलित साहित्य ही नहीं, संपूर्ण हिन्दी साहित्य की उच्चतम कोटि की कहानियों में शीर्ष स्थान पाने की अधिकारिणी हैं। बस, सहृदयता से अवलोकन करने की आवश्यकता है।

‘परिवर्तन की बात’ कहानी में जहाँ एक ओर दलित उत्पीड़न के प्रचलित सभी उपायों को उजागर किया गया है, जैसे नाम बिगाड़कर पुकारना, चारपाई पर बैठना जैसे कोई अपराध हो, बेगार वह भी गंदे काम कराने में जोर-जबर्दश्ती, जाति के साथ गाली का प्रयोग, अत्याचार, बेगारी कराने के लिए प्रशासन की सहायता आदि का बखूबी चित्रांकन किया गया है। वहीं दूसरी ओर दलितों द्वारा बेगार करने को दृढ़ता से मना करना और व्यवस्था विरुद्ध विद्रोह और मरने-मारने को तैयार रहना, प्रशासन के आततायी के समर्थन में आने पर भी बेगार न करने के निर्णय पर अडिग रहना और बाद में सवर्णो द्वारा सामाजिक बहिष्कार का हथियार चलाने के दृश्य बड़े सफल ढंग से रेखांकित किए गए हैं। कहानी में नायक किशना और उसके सहयोगियों के माध्यम से समाज में आई जागृति को दर्शाया गया है और प्रशासन किस प्रकार दलित विरोधी है, उसकी भी पोल खोलकर लेखक ने यथार्थ का चित्रण किया है।

5. लेखक की आलोचनात्मक दृष्टि

आत्म आलोचक कथाकार सूरजपाल चैहान हिन्दी दलित साहित्य के बड़े चर्चित लेखक हैं। वैसे तो कई दलित लेखकों ने ऐसी रचनाएं लिखी हैं, जिन्हें लिखना एक गैरदलित के लिए मुमकिन नहीं, लेकिन वह क्या चीज है कि जिसे हिंदी के बाकी दलित रचनाकारों की तुलना में सूरजपाल की अपनी विशेषता कही जा सकती है? सूरजपाल उस बात को भी बेधड़क कह जाते हैं, जिसे दूसरे दलित रचनाकार नहीं कह पाते अथवा कहना नहीं चाहते। उनका नया कहानी संग्रह ‘नया ब्राह्मण’ इस बात का प्रमाण है। कौन सी बात है इस संग्रह में जो दूसरे दलित कहानीकारों में नहीं मिलती है? अपनी ही जाति समुदाय और समाज के प्रति एक तीखी आलोचनात्मक दृष्टि सूरजपाल को दूसरे दलित कहानीकारों से अलग करती है। इस संग्रह में एक नहीं, ऐसी कई कहानियाँ हैं, जिनमें दलित समाज के अंदर की, खासकर वाल्मीकि और जाटव जाति के अंदर की कमजोरियों, कमियों और अंतर्विरोधों की आलोचना की गई है। इस आलोचना के पीछे अपनी जाति और समाज की कमजोरियों और बुराइयों को दूर करके उनमें एक नई जागृति, एक नई क्रांतिकारी चेतना लाने का दृष्टिकोण झलकता है।

इस संग्रह की ‘बहुरूपिया’ कहानी से न सिर्फ वाल्मीकि और जाटों के बीच के जातिभेद का पता चलता है, बल्कि दलितों के नाम पर काम कर रही सरकारी अनुदान प्राप्त संस्थाओं के चरित्र का भी पता चलता है। कहानी में लेखक खुद एक पात्र है जो वाल्मीकि समाज के अंदर अंबेडकर की शिक्षाओं का प्रचार करना चाहता है तो उसकी जाति के अंदर से ही उसका विरोध होता है-’’तू किसी चमार का दीखै, तभी इतनी देर सू चमार राग अलापे जा रहो है, अरे महा मूरख, हमारे गुरु तो भगवान महर्षि वाल्मिकी स्वामी हैं, हमें अंबेडकर से का लेनो-देनो, बंद कर अपनी यूं बकवास।’’

समाज के अंदर वाल्मीकि की जयंती मनाने वाले लोग बजरंग दल और विश्व हिंदूपरिषद के नेताओं की भीड़ इकट्ठा करते हैं। वे लव-कुश को धनुर्विद्या सिखाते, महर्षि वाल्मीकि का कैलेंडर छपाते और स्मारिका में दलित साहित्य के नाम पर डॉ. हेडगेवार और हिंदू धर्म संबंधी लेख छपाते हैं। उसमें अंबेडकर की शिक्षाओं पर कोई लेख नहीं छपाया जाता। इसका विरोध करने पर वाल्मीकि समाज का नेता लेखक को जवाब देता है-

‘‘मैं प्रत्येक वर्ष वाल्मीकि जयंती मनाने व स्मारिका प्रकाशित कराने के कार्य में पच्चीस-तीस हजार रुपए विभिन्न सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं से कमा लेता हूं…….आप बताएं कि पूरे वर्ष लेखन कार्य में जुटे रहने पर कितना कमा लेते हैं?’’ ऐसा सिर्फ वाल्मीकि समाज में ही नहीं, दूसरी दलित जातियों में भी होता है। दलित जातियों के नाम पर बनी सरकारी- अर्द्धसरकारी संस्थाओं पर भ्रष्टाचारियों ने अपना कब्जा जमा रखा है जो इन संस्थाओं के नाम पर सरकारी अनुदान हड़पने का धंधा करते हैं और बी जे पी के नेतृत्व में बनी सरकार अब उन्हें अंबेडकर की विचारधारा के बजाय हिंदुत्व की विचारधारा फैलाने का माध्यम बनाती है। कितने दलित लेखक हैं जो दलितों के नाम पर चल रही संस्थाओं और होने वाले कार्य-कलापों का ऐसा पर्दाफाश करते हैं? सूरजपाल अपने समाज के अंदर की बुराइयों पर उंगली रखने का साहस दिखाते हैं और दलितों के नाम पर भ्रष्ट राजनीति करने वाले तत्वों के खिलाफ अपनी आवाज उठाते हैं।

इस नई चेतना की बात तो और दलित लेखक भी करते हैं। लेकिन इतनी ही बड़ी सच्चाई यह भी है कि स्वयं दलित जातियों के अंदर इस नई चेतना का विरोध भी कम व्यापक नहीं रहा है। इस विरोध की दलित लेखक अनदेखी कर जाते हैं और इस तरह वे सत्य का अधूरा साक्षात्कार करते हैं। सूरजपाल उस विरोध को देखते और दिखाते हैं। लेखक की सारी सहानुभूति अकेली और विवश लड़की के प्रतिरोध के साथ है जो शिक्षा के बल पर सदियों से चली आ रही इन जातिगत पेशों के खिलाफ संघर्ष करना चाहती है, किंतु जातियाँ भी वैसी ही परंपरावादी हैं जैसे उनका दलन करने वाली सवर्ण जातियाँ। उस अकेली लड़की को उसका भंगी समाज पारंपरिक पेशे में ढलने के लिए मजबूर कर देता है। इसके बावजूद लड़की का प्रतिरोध खत्म नहीं होता हालांकि वह अपना रूप बदल देता है। सामाजिक रूप से सफल नहीं होने पर वह प्रतिरोध कैसे मनोवैज्ञानिक धरातल पर प्रकट होने लगता है, इसकी पहचान करने वाली मर्मभेदी दृष्टि सूरजपाल के पास है जो उनकी कहानियों में स्पष्ट दिखती है।

6. दलित समाज की अज्ञानता और पारंपरिक सोच

देश की स्वतंत्रता के कितने वर्ष बीत गए हैं? डा. बाबा साहब अंबेडकर द्वारा निर्मित समतावादी संविधान लागू हुए कितने वर्ष बीत गए हैं, फिभी वह कौम आज भी वहीं है जहाँ पहले थी। वे कौन-सी अदृश्य बेड़ियाँ हैं जो इस दलित समाज के तन और मन को जकड़े हुई हैं- उन्हें मुक्त होने को रोकती हैं उन्हें प्रगति, परिवर्तन की राह पर चलने में बाधा डालती हैं। बेड़ियां कई प्रकार की हैं- सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, शैक्षणिक, राजनैतिक एवं नैतिक। हर क्षेत्र में दलित समाज को इतना भ्रमित और कुंठित करने का प्रयास किया जाता रहा है- आज भी किया जार हा है, जिसके कारण न तो वह समाज अपना भूतकाल देखता है, न वर्तमान और नहीं अपने आने वाले पीढ़ियों का भविष्य। इन लोगों को सामाजिक स्तर पर निम्न बने रहने में ही गौरव की अनुभूतियों का पाठ पढ़ाया जाता रहा है और इसका यह परिणाम है कि दलित समाज में कुछ पढ़े-लिखे लोग भी परंपरा में जी रहे हैं। वे उन पारंपरिक बेड़ियों को तोड़ना नहीं चाहते हैं, या उनमें नैतिक हिम्मत का अभाव है। कभी-कभी तो अपनी ही बिरादरी के द्वारा अपने जाति समुदाय के लोगों को गुमराह करके प्रगति की बजाय अवनति की ओर धकेलने का काम किया जाता है। नैतिक स्तर पर उन्हें नैतिक आदर्शों की शिक्षा इस तरह दी जाती है कि वे अपनी दुर्गति में ही खुश रहें और अपनी स्थिति को अपना भाग्य समझें ताकि वे अपने इस घृणित पेशे को अपना ही नहीं, मानव धर्म मानकर उसे लगनपूर्वक करते रहें- ऐसा हो भी रहा है। नैतिक आदर्शों के नाम पर इन्हें इतना अंधा- गूंगा, बहरा, तर्कहीन और विवेकहीन बना दिया गया है कि वे अपनी सही स्थिति पर कभी विचार ही नहीं करते।

इस संदर्भ में ध्यातव्य है कि आज तक सफाई कर्मियों की मनोदशा को समझने का प्रयास सशक्त रूप से नहीं किया गया है। अन्य समाज के बच्चों का रास्ता स्कूल की ओर जाता है, उन उपेक्षित बच्चों का रास्ता लोगों के घर के किसी पाखाने की ओर जाता है। उनके हाथ में कलम नहीं होती, होता है हाथों में लोहे का खपटा, तसला व झाडू। लोग यह गंदा काम मजबूरी वश तो करते ही हैं, लेकिन इससे कहीं ज्यादा बड़ा कारण है कि जातिगत सामाजिक व्यवस्था, परंपरागत व पुश्तैनी कार्य की लीक पर चलने की मानसिकता। इस मानसिकता ने अब ठेकेदारी का रूप ले लिया है। ‘अम्म्मा’ कहानी का एक उदाहरण यहाँ द्रष्टव्य है-

‘‘पिता साल भर बाद घर आए। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मैंने स्कूल जाना छोड़ दिया है तो वह अम्मा पर बहुत बिगड़े। अम्मा ने पिता को सफाई देते और मेरा पक्ष लेते हुए कहा कि छोरा सारे दिन गाय-भैंस, भेड़-बकरियों की देखभाल करता है और घर के छोटे-मोटे काम भी करता है।’’

इस प्रकार अनपढ़ दलित महिलाओं की मानसिकता का परिचय मिलता है, साथ ही साथ पिता जैसे व्यक्तित्व से पुत्र के भविष्य की चिंता करते हुए दिखाते हैं। ‘बस्ती के लोग’ कहानी में लेखक ने लिखा है कि बिरज किशोर जैसे पढ़े-लोग भी किस प्रकार परंपरावादी हैं, इसका एक उदाहरण ‘‘बस्ती में रहकर लोगों की बात माननी ही होगी, तूने इनकी बात न मानकर रार मोल ले ली है, तू तो नोएडा में रहने लगा है, इनके साथ बस्ती में तो मुझे ही रहना है।’’

बिरज किशोर के कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दलित समाज के पढ़े-लिखे लोग भी जाति-बिरादरी के लोग किस प्रकार विवशतावश हार मान लेते हैं। यह सब ढकोसला है – यह सब जानते हुए भी वे पाखंड का शिकार होते हैं। दलित समाज में ऐसे एक नहीं, अनेक बिरज किशोर मौजूद हैं जो सच्चाई को सामने लाने से भयभीत रहते हैं। जिसमे नैतिक हिम्मत का अभाव ही कहा जा सकता है। किंतु ऐसी कुप्रथाओं का पढ़ा-लिखा वर्ग विरोध नहीं करेगा, तो कौन करेगा? यह ज्वलंत प्रश्न आज भी हमारे सामने मौजूद है।

‘कारज’ आदि कहानियों में भी इस प्रकार के कई उदाहरण मौजूद हैं कि दलित समाज में जात-बिरादरी के लोग किसी न किसी प्रकार अपने भाई-भतीजे को दबाकर रखना चाहते हैं। वे अपने ही लोगों की प्रगति देख नहीं पाते, क्योंकि उनकी आंखों पर तो अज्ञानता का पर्दा पड़ा हुआ है।

7. उच्च, सामर्थ्यवान दलितों की मनोदशा का चित्रण

उच्च पदासीन, सुशिक्षित, समृद्धशाली और सामर्थ्यवान दलितों की मनोदशा का चित्रण ‘घाटे का सौदा’ कहानी में किया गया है। जो दलित पढ़-लिखकर अपनी जाति को छुपाकर रहते हैं, उनकी अलगाववादी प्रवृत्ति पर तीखा प्रहार है। समाज के प्रति उदासीन और अपने युगपुरुष बाबा साहब अंबेडकर के प्रति कृतघ्नता के लिए उन्हें लताड़ा भी गया है। बहुत से शिक्षित दलित सामर्थ्यवान होते हुए भी जाति खुलने के भय से कितने भयभीत हैं। हां, जब जाति खुल जाती है तब वे दलित समाज में उपहास के पात्र बन जाते हैं। वैसी स्थिति में न वे घर के रह जाते हैं, न घाट के ऊंचे-ऊंचे पदों पर बैठे ऐसे व्यक्तियों को दंभ आ जाता है या उन्हें समाज की दुर्दशा दिखाई ही नहीं पड़ती या जान-बूझकर वे जानी अनजानी करते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज के किसी काम के नहीं, बल्कि वे तो समाज के नाम पर कलंक हैं। ऐसे व्यक्ति अपने गैर-दलित पड़ोसियों की देखा-देखी अंधविश्वास और पाखंड से सराबोर हैं। वे बनने के चक्कर में अपने-अपने घरों में अखंड पाठ, हवन जैसे उन्मादी आयोजनों में धन और समय व्यर्थ नष्ट करते हैं। प्रस्तुत कहानी का पात्र डोरी लाल (डी लाल) हमारे समाज में एक नही अनेक है। एक नहीं, हजारों-लाखों की संख्या में मौजूद हैं। ऐसे डी. लालों की दुर्गात एक न एक दिन होकर ही रहती है। इस कहानी का प्रत्येक पाठक गण अपने-अपने नजरिये से अपने आस-पास में ही डी लालों को खोज सकते हैं, जिसकी हमारे देश में कमी नहीं है।

लेखक यह संकेत करना चाहते हैं कि जो दलित शिक्षा, संपत्ति में आगे बढ़ जाते हैं, उन्हें अपने समाज और समुदाय को भूलना नहीं चाहिए। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन हवन, पूजा जैसे अंधविश्वासों से अपने समुदाय को मुक्त करना है किंतु वे शिक्षित लोग भी उसी में क्यों फंस जाते हैं? एक तरह से वे पुरोहिती प्रथा को फिर से जिंदा करना चाहते हैं जिनका दलित साहित्य विरोध करता है। उनसे दलित वर्ग का क्या भला होगा यह एक प्रश्न है जिसे सूरजपाल चैहान उठाते हैं।

इस संदर्भ में एक ‘भद्दा मजाक’ कहानी की चर्चा करना उचित होगा। वकील साहिबा भावना ने अपनी जान पहचान वालों से अपनी इसाई होने की ही बात कही थी और नाम भी मेरी थोमस बताया था। विनय अपना माथा पीटते हुए सोच रहा था कि यह अकेली भावना की ही समस्या नहीं है। आज से दस-पंद्रह वर्ष पहले सभी पढ़े-लिखे दलित समाज के लोग अपनी जाति छिपाकर रहने में अपनी शान समझते थे। उनमें इतना आत्मसम्मान न था कि वे सच्चाई का सामना कर सकें। आज भी बहुत से पढ़े-लिखे दलित अपनी जाति छिपाने से बाज नहीं आते। जाने अनजाने वे आज भी दूसरों का धर्म ढोने में अपनी शान समझते हैं। अन्य महिलाओं की तरह भावना के साथ भी हादसा हुआ है। पंडित प्रदीप कौशिक जी ने उसके साथ प्यार का झूठा खेल खेला हो और बाद में उसे ठेंगा दिखा दिया हो।

शायद हो सकता है कि भावना फिर से गैर दलित बहुरूपिए की शिकार हुई हो। या ऐसा भी हो सकता है कि भावना पंडित प्रदीप कौशिक का बदला विनय से ले रही हो। किंतु इतना निश्चित है कि दलित महिलाओं के साथ गैर-दलित समाज के पुरुष प्यार के झूठे खेल खेलने में माहिर हैं यह कोई नई बात नहीं है और ऐसी एक नहीं, अनेक भावनाएं सवर्ण पुरुषों का शिकार होकर अपने जीवनपथ से भटक जाती हैं।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आवश्यकता है इन रचनाओं को सामान्य दलितों तक पहुंचाने की, तभी इसकी सार्थकता और लेखक का परिश्रम सफल होगा, अन्यथा जिस हेतु से इन रचनाओं का सृजन हुआ है, उसकी उपयोगिता धूमिल हो जाएगी।

संदर्भ सूची

  1. तिरस्कृत, सूरजपाल चैहान, पृष्ठ 17, 75, 84
  2. डॉ बाबा साहेब अंबेडकर, डॉ सूर्यनारायण रणसुभे, पृष्ठ 105
  3. सन्तप्त, सूरजपाल चैहान, पृष्ठ 22,
  4. सफाई देवता, ओम प्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 18
  5. दलित विमर्श रू साहित्य के आईने में, डॉ जयप्रकाश कर्दम, पृष्ठ 88
  6. चांद- अछूत अंक, सम्पादक पण्डित नन्दकिशोर तिवारी, पृष्ठ 8
  7. अंतिम दो दशकों का हिंदी दलित साहित्य, डॉ एन सिंह, पृष्ठ 51
  8. हैरी कब आएगा, सूरजपाल चैहान, पृष्ठ 6, 30, 31, 52, 59
  9. नया ब्राह्मण, सूरजपाल चैहान, पृष्ठ 74, 84, 91, 111, 123
  10. हिंदूवादी सोच और भंगी समाज, रामकली सराफ, पृष्ठ 157
  11. महान दलित क्रांतिकारी योद्धा माताद्दीन भंगी, सूरजपाल चैहान, पृष्ठ 76

हिंदी लघुकथा का समकालीन परिदृश्य वाया कमल चोपड़ा-चेतन विष्णु रवेलिया

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हिंदी लघुकथा का समकालीन परिदृश्य वाया कमल चोपड़ा

चेतन विष्णु रवेलिया

शोधार्थी, स्नातकोत्तर हिंदी विभाग,

न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त)

ईमेल : chetanraweliya4431@gmail.com

मो: 8788679877

सारांश

हिंदी साहित्य में सर्वथा नवीन कथा विधा लघुकथा रूप रचना की दृष्टी से है तो अदनी सी लेकिन अपने सूक्ष्म और प्रभावकारी कथ्यों, सीमित किंतु सटीक शब्दों, सारगर्भितता, प्रभावी और तीक्ष्ण संवादों के कारण आज साहित्य के केंद्र में आ गई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वर्तमान हिंदी लघुकथा को यह रूप बहुत मशक्कत के पश्चात ही हासिल हुआ जिसमें इसके पुरोधाओं का बड़ा हाथ रहा है। इसे कई विद्वान निम्न वर्ग का हथियार भी मानते हैं। हिंदी लघुकथा के समकालीन परिदृश्य में विभिन्न प्रदेशों, राज्यों और यहाँ तक कि देशों के रचनाकार संलग्न दृष्टिगोचर हो रहे हैं। ऐसी विशिष्ट कथा विधा में कमल चोपड़ा जैसे समर्पक, प्रतिबद्ध और विशिष्ट लघुकथाकार के योगदान को जानना, समझना और समझाना प्रस्तुत शोध आलेख का उद्देश्य है।

बीज शब्द : कमल चोपड़ा, लघुकथा, स्त्री विमर्श, बालमजदूरी, वृद्ध विमर्श।

शोध आलेख

हिंदी लघुकथा के उद्भव को लेकर लघुकथा समीक्षकों के दो खेमें स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। परंपरावादी आलोचक वैदिक युग की उपदेशात्मक, बोधात्मक और लोककथाओं की विकासात्मकता से इसका उत्स मानते रहे हैं जबकि आधुनिक आलोचकों ने इसे सर्वथा नवीन विधा मानते और मनवाते हुए सातवें दशक से उद्भूत माना। चाहे जो हो लेकिन इतना तो निश्चित है कि हिंदी लघुकथा ने हिंदी साहित्य की कक्षा को समृद्ध ही किया है। लघुकथा है तो कथा – साहित्य की ही विधा लेकिन कहानी की उपविधा नहीं है। इस संदर्भ में जगदीश कश्यप जी का कहना था कि “लघुकथा कहानी नहीं है परंतु इसका सीधा संबंध कहानी से उतना ही है जितना एकांकी का नाटक से है; लघुकथा कविता कहानी नहीं है, परंतु कविता की तीव्र संवेदना इसमें निहित है; लघुकथा एकांकी नहीं है, लेकिन इसके संवाद कथानक का विस्तार करके (कम शब्द संख्या होने के कारण) इसकी संप्रेषणीयता बढ़ाते हैं, लघुकथा रेखाचित्र नहीं है, परंतु इसमें पात्र की विवशता में कमजोरी और असफल पक्ष को भी उद्घाटित किया जाता है।”1 यहाँ एक तो लघुकथा की अपनी प्रकृति भी स्पष्ट हो जाती है और दूसरे, लघुकथा का इतर साहित्यिक विधाओं से रूप भिन्नता भी ! हिंदी लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य लघुकथा विधा के समूचे साहित्याकाश पर छाने का है। विभिन्न प्रदेशों से स्थापित लघुकथाकारों के साथ – साथ नई लेखनियाँ भी इस दिशा में सक्रीय दृष्टिगोचर होती हो रही हैं।

कमल चोपड़ा उन मूर्धन्य रचनाकारों में स्थान रखते हैं जिन्होंने लघुकथा विधा को लघुकथा लेखन, संपादन और पत्रिका प्रकाशन तीनों ही रूपों से पुष्पित और पल्लवित किया और कर रहे हैं। कमल जी केवल लघुकथाकार के रूप में ही नहीं अपितु कहानीकार और और बाल उपन्यासकार के रूप में भी ख्यातिप्राप्त हैं। सन १९७५ से इन्होंने लघुकथा लेखन का श्रीगणेश किया जो आज तक बदस्तूर जारी है। इस दृष्टि से देखा जाए तो कमल जी वरिष्ठ लघुकथाकार हैं और इन्होंने हिंदी लघुकथा का वह स्वर्णिम लघुकथा काल भी देखा है जिसमें रमेश बत्रा, जगदीश कश्यप जैसे मूर्धन्य लघुकथाकार इस विधा की स्थापना और विकास में अपने को पूरी तरह से झोंक चुके थे। अभिप्राय – 1990, फंगस – 1997, अन्यथा – 2001, अनर्थ – 2015, अकथ – 2018, कल की शक्ल – 2022 आदि लघुकथा संग्रहों में इनकी लघुकथा लेखन यात्रा का मानचित्र भी विकसित होता गया। लघुकथा के शिल्प और कथ्य को निखारने और सँवारने में इनकी भूमिका निश्चित ही महत्वपूर्ण है। एक प्रतिबद्ध रचनाकार के रूप में कमल चोपड़ा बराबर समादृत हैं।

भूमंडलीकरण के इस दौर में हमने जितनी प्रगति की है या कि करने का दंभ भरते हैं स्थितियाँ और वास्तविकता उससे कोसों भिन्न ही नजर आती हैं। आज सबसे अधिक विसंगतियाँ धर्म और राजनीति में ही देखी जा सकती हैं। सांप्रदायिकता और दंगों – दहशत की आँच, जाति – धर्मों का दलदल और मानवीयता के लोप से समूचा विश्व ही ग्रस्त नजर आ रहा है। सांप्रदायिकता का ज़हर आज समूची समाज रचना में अंतर्भुक्त होकर अपने डैने पसार चुका है। कमल जी की लघुकथाओं का अधिकांश भाग येन – केन प्रकारेण सांप्रदायिकता से जुड़ा हुआ है। सतीश दुबे इनकी लघुकथाओं के विषय में लिखते हैं “कमल चोपड़ा सांप्रदायिकता के नारकीय कुंड में सामाजिक सौहार्द्र की स्वर्गिक आहुति संपन्न करते मिलते हैं। यही कमल चोपड़ा की लघुकथाओं का उत्स है।”2

इस क्रम में कमल जी की शताधिक लघुकथाएँ रखी जा सकती हैं। यथा – ‘फुहार’, ‘उल्टा आप’, ‘धर्म के अनुसार’, ‘बताया गया रास्ता’, ‘आपकी बारी’, ‘अपने मजहब के अपने’, ‘भगवान का घर’, ‘इंसान का जन्म’, ‘गहरा विश्वास’, ‘दहशत का नाम’, ‘अन्न का मजहब’ आदि लघुकथाएँ दंगों – धर्म और सांप्रदायिकता से एन – केन प्रकारेण जुड़ी हुई हैं। ‘फुहार’ दो भिन्न धर्मों के झगड़े को लेकर बुनी गई है लेकिन उसका अंत हृदयपरिवर्तन और स्कारात्मता से ओत – प्रोत है। ‘धर्म के अनुसार’ धर्म के सच्चे रूप का अनुसरण करनेवाली लघुकथा है जिसमें एक रोड एक्सिडेंट में हिंदू आदमी द्वारा जख्मी हिंदू और मुस्लिम व्यक्तियों में से मुस्लिम व्यक्ति को अस्पताल ले जाने की है। यह लघुकथा मानवीयता के दो पहलुओं को लेकर चलती है। एक तो पुलिस की तहकीकात से बिना डरे एक्सिडेंट से एक व्यक्ति को जान बचाकर अस्पताल पहुँचाना और दूसरे किसी और धर्म के व्यक्ति को। पुलिस के पूछने पर कि हिंदू व्यक्ति को क्यों नहीं बचाया ? वह कहता है कि वह मुहल्ला हिंदू है उस व्यक्ति को तो कोई भी बचा लेगा लेकिन अगर ये पड़ा – पड़ा मर जाता तो हमारे धर्म के खाते में एक खून का धब्बा और बढ़ जाता।

‘बताया गया रास्ता’ केवल कमल चोपड़ा की ही नहीँ अपितु समूचे हिंदी लघुकथाकाश की भी सशक्त लघुकथा है। दंगे के कारण बच्ची स्कूल में फँस जाती है। मम्मी अस्पताल में भर्ती है और पिता भी वहीं है। पिता पहचानवाले शैफू रिक्शा वाले को बच्ची को लाने भेजते हैं। किंतु दंगों के कारण वह यहाँ कुआँ वहाँ खाई के दोराहे पर आकर खड़ा हो जाता है। दाईं ओर हिंदू मुहल्ला और बाईं ओर मुस्लिम। और वह जो कुछ सोचता है उसे ज्यों का त्यों रख देने का मोह संवरण नहीं हो पा रहा “खुदा न करे इस नन्हे फ़रिश्ते को कुछ हो। इतने जान पहचान वलोक को नकारकर मुझ पर भरोसा किया। अगर इसे कुछ हो गया तो मेरे साथ मेरा मजहब भी बदनाम हो सकता है। वैसे भी मुझे मजहब के दिखाए रास्ते पर चलना है। और उसने अपने रिक्शे को दाईं ओर मोड़ दिया।”3 ‘बांह – बेली’, ‘दीन धर्म सरीखी’ लघुकथाएँ दो भिन्न धर्मों के लोगों के आपसी प्रेम, पारस्परिक सौहार्द्र को व्यक्त करती हैं। उपर्युक्त लघुकथाओं के संदर्भ से कहना यही है कि कमल जी भले सांप्रदायिकता और उसमें लहूलुहान मानवीयता का दिग्दर्शन कराते हैं लेकिन उनमें एक सकारात्मक और जिम्मेदार रचनाकार की जीवटता प्रचुर है जो अपने समय की सारी नकारात्मकता से दो हाथ करके सकारात्मक पहलूओं को बिन – फटकारकर अलग निकाल लेते हैं।

अस्मितामूलक विमर्शों की दृष्टी से नवाँ दशक महत्वपूर्ण है। कहना न होगा कि स्त्री विमर्श इसी दौर में और अधिक तीव्रता से अवतरित हुआ था विभिन्न नवीन प्रश्नों को लेकर ! स्त्रियाँ प्रत्येक क्षेत्र में हाशिए पर धकेली गईं। भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में चूँकि सत्ता पुरुष के ही हाथों में है और जिसके हाथों में सत्ता होती है निर्यायक भी वही होता है इसलिए बहुत जायज है कि स्त्रियाँ काबिल होते हुए भी दरकिनार ही की जाएँ तो सत्ता पर आँच नहीं आने पाएगी। क्षेत्र चाहे ज्ञान का हो, दर्शन का, साधना का, साहित्य का, राजनीति का, घर-परिवार का स्त्रियाँ दो अंगुल प्रज्ञा वाली ही मानी जाती रहीं। शुक्र है कि कमल जी की लघुकथाओं में उनकी नायिकाएँ उपरोक्त सभी बातों का विरोध करने में सक्षम हैं। प्राय: आँचल में दूध और आँखों में पानी वाला बिंब ही आज भी रचते रहे तो स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन आने से रहा। कमल जी यह बखूबी जानते हैं। इनकी स्त्री पात्र किसी एक तबके की भी नहीं हैं अपितु समाज की विभिन्न सरणियों से आती हैं। स्त्री विमर्श की दृष्टी से इनकी लघुकथाओं में प्राय: दहेज प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, स्त्रियों का दोयम दर्जा, भूमंडलीकरण और स्त्रियों के जटिलतर संबंध, सुरक्षितता का प्रश्न, बहनापे का जज़्बा देखे जा सकते हैं। इस संदर्भ में भी कमल जी की कईं लघुकथाएँ रखी जा सकती हैं। ‘ख्याल रखना’, ‘कैद बा मशक्कत’, ‘पत्नी’ तो ठेठ स्त्री विमर्श की लघुकथाएँ हैं। ‘कैद बा मशक्कत’ की नौकरानी का अपने मालिक को उत्तर देना काबिलेगौर है “जी मालिक ये चिकचिक मुझे भी पसंद नहीं। मैं तेरी बीवी नहीं हूँ जो इस तरह गाली – गलौज से बात करेगा। मुफ़्त में नहीं देते हो पैसा घर की बहू नहीं, जो थप्पड़ लात खा के भी पड़ी रहूँगी, वह भी दो रोटी के लिए। मुझे नहीं करना काम, ये पड़ी तेरी नौकरी।”4 यह स्त्री का अपना विद्रोह है। ‘छिपा हुआ दर्द’ न केवल कमल जी की अपितु वर्तमान समूचे हिंदी लघुकथा साहित्य की भी प्रतिनिधि लघुकथा है। विपन्नता में जीवन जी रहे, वृद्ध सास – ससुर से मिलने बेटा और बहू आए हैं। इसकी ख़बर उभयंतों को है और इसकी भी कि इनके माता – पिता इनकी आवभगत में कोई कमी न रह जाए इसलिए कितनी मशक्कत करत रहे हैं। लघुकथा की बहू का एक संवाद बड़ा महत्वपूर्ण है जिसमें वह कहती है कि “माँ जी, हम तो शहर से स्पेशली आपके हाथ की बनी मक्के की रोटी खाने आए हैं, साग अगर एक दिन का बासी हो तो अगले दिन और स्वादिष्ट लगता है पर हाँ उसमें घी – मक्खन मत डालना हमें डॉक्टर ने मना किया है और बाबूजी आप हमारे पास बैठिए न, हम तो आपकी तबियत का हालचाल पूछने आए हैं।”५ पितृसत्ता के विरोध के रूप में ‘हरगिज नहीं’ लघुकथा की नायिका का प्रतिकार भी उल्लेखनीय है जिसमें वह लूले – लँगड़े लड़के से शादी के लिए बिलकुल तैयार नहीं होती। कमल जी की लघुकथाओं की नायिकाओं में बहनापे के सूत्र भी जुड़ते देखे जा सकते हैं इस संदर्भ में कमल जी की ‘दुःख जोड़ेंगे’, ‘बिरादरी सरीखी’ लघुकथाएँ उल्लेखनीय हैं। इस आधार पर कह सकते हैं कि कमल जी की दृष्टी केवल समस्या पर दृष्टिपात करने तक सीमित नहीं अपितु समाधान पर भी केंद्रित रहती है।

समाज का एक महत्वपूर्ण आयाम जिस पर कल की बुनियाद टिकी हुई होती है वह बच्चे ही होते हैं। बालमजदूरी की समस्या हमारे देश में वर्षों से रही है। कठोर कानूनों के बनने के उपरांत भी इनकी स्थिति में कोई खास परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं होता। बालमजदूरी के दलदल में फँसकर बच्चों का बचपन तो नष्ट हो ही रहा है और सपनों का स्वाहा सो अलग ! विभिन्न कोणों से इस विषय को कमल जी ने उक्त समस्या को उठाया है। यदि बचपना ही न रहे तो क्या ख़ाक बच्चे। घर-परिवार की जिम्मेदारियाँ उठाकर बच्चों का समय से पहले ही वयस्क हो जाना गंभीर प्रश्न है। ‘परिपक्व’ इस दृष्टी से कमल जी की प्रतिनिधि रचना कही जा सकती है। जिसमेंबच्चे की उम्र मात्र तेरह वर्ष है लेकिन वह अपनी माँ को अपनी दीदी की शादी की चिंता न करने, पिता के लिए नए कपडे लेने, माँ और पिता के लिए दवाई की चिंता न करने की बातें कहता है। और लघुकथा का अंत कमल जी यों करते हैं “कल मुझे ढाबे से तनखा मिल जाएगी………..। माँ, तू चिंता मत किया कर मैं बच्चा थोड़े ही हूँ।”६

वर्तमान दौर में वृद्धों की स्थिति दयनीय और गति रुक सी गई प्रतीत होती है। बूढ़े बरगद के रूप में स्थापित हो जाना और टुकुर – टुकुर देखना इनकी नियति ! कमल चोपड़ा की लघुकथाओं के कथ्य का एक बड़ा भाग वृद्धों (स्त्री – पुरुष) दोनों से जुड़ा हुआ है। ‘इतनी दूर’, ‘हारना नहीं’, ‘ब्रेन स्ट्रोक’, ‘छत’, ‘अपना खून’ आदि लघुकथाएँ उपर्युक्त समस्याओं को ही वर्णित करती है, वहीं नई और पुरानी पीढ़ी का द्वंद्व भी ! वर्तमान दौर में संवेदनहीनता की कमी सर्वथा देखी और महसूस की जा सकती है। ‘इतनी दूर’ लघुकथा उस संवेदनहीनता को वर्णित करती है जिसमें नई पीढ़ी के लिए बाप एक फालतू सी चीज हो गया है। सोच पर हथौड़ा तो तब पड़ता है जब पाठक यह जान लेता है कि बेटे द्वारा पिता को अपनी ही बिल्डिंग के ग्राउंड फ्लोर पर रखा गया है तिसपर भी उनसे उसका मिलना कई – कई दिनों में ही हो पाता है। बेटा उस भूमंडलीकरणीय मानसिकता से ग्रस्त है जिसमें समूची दुनिया बड़ी पास आ गई है लेकिन हम सभी यह महसूस कर ही रहे हैं कि दुनिया भले ही कितनी ही सिमट गई हो लेकिन रिश्तों में ठंडापन और गर्माहट की कमी में भी इसी का हाथ है। दरवाजा अंदर से बंद था। पिता के फ्लोर पर लोगों की भीड़ जुटी देखकर वह जाता है। बेटी विदेश में रहती है। जब दो दिनों से फोन लगाकर भी पिता ने कोई उत्तर नहीं दिया तो वह घबराकर पड़ोसी को फोन करती है जाकर देखने की बात करती है। जब सभी के द्वारा बहुत प्रयत्न करने पर भी पिता दरवाजा नहीं खोलते तो दरवाजा तोड़ा जाता है। पिता कुर्सी पर अधमरे से पड़े दिखाई देते हैं। गूगल बाबा ने भले समस्याओं का समाधान चुटकी में हल करने का कार्य अपने हाथ में ले लिया हो और हमें सुविधाएँ पहुँचा रहा हो लेकिन वृद्धों की कमी और महत्व वह कभी पूरा नहीं कर सकता। ‘बेटे की इज्ज़त’ लघुकथा का पिता बेटे के होते हुए भी स्वयं काम कर अपना खर्च निकालने के लिए अभिशप्त है और वह भी इसलिए कि बिरादरी में बेटे की इज्ज़त बनी रहे।

हिंदी साहित्य का वर्तमान दौर समाज के उस वर्ग को जो बड़ी बर्बरता से मुख्यधारा से हाशिए पर धकेला जा रहा था उसे केंद्र में लाने का भी है। लगभग सभी विधाओं में आज हाशियाकृत समाज न केवल चित्रित हो रहा है अपितु बड़ी सशक्तता से अपने जीवन को उघाड़ भी रहा है। दलित, थर्ड जेंडर, स्त्री विमर्श, और अन्य निम्न वर्ग भी इसका प्रमाण हैं। आज सर्वहारा वर्ग और उसकी त्रासदियाँ साहित्य में अधिकाधिक स्थान पाने लगी हैं। पूँजीवादी वर्ग द्वारा इस सर्वहारा वर्ग के शोषण के उपाख्यान भी कमल चोपड़ा की लघुकथाओं में हैं। ‘चोर’, ‘नहीं’, ‘काटे कोई और’, ‘छिपे हुए’, ‘हिसाब’ जैसी लघुकथाएँ इस वर्ग की सच्चाईयाँ बयाँ करती हैं। ‘छिपे हुए’ मालिकों के द्वारा छिपकर रहने और श्रमिक वर्ग को आपस में लड़वाने से संबंधित है। ‘चोर’ और ‘हिसाब’ शीर्षक लघुकथाएँ एक तो बालश्रम और दूसरे पूँजीवादी वर्ग द्वारा इस वर्ग के शोषण की हकीकत लेकर उपस्थित है। ‘काटे कोई और’ का बालक अपने पिता से कहता है “बापू लोग तो कहते हैं जो बोता है वही काटता है, लेकिन बोता मजदूर है और काटकर खाता है लाला। बापू ऐसा क्यों नहीं होता, जो बोए वही काटे वही खाए।”७ और यहीं लघुकथा का अंत हो जाता है। समूची लघुकथा का सार तत्व इसी संवाद में निहित है।

उपरोक्त के अलावा कमल जी ने विभिन्न विसंगतियों, समस्याओं को भी अपनी लघुकथाओं में उठाया है। वर्तमान समय और समाज का प्रत्येक ही क्षण उनकी लघुकथाओं में अभिव्यक्त हुआ है क्योंकि लघुकथा क्षण विशेष की कथा होती है। शहर में अफसोस, कत्ल में शामिल, कुएं में छलाँग, सिर ऊँचा, प्लान, निशानी आदि लघुकथाएँ वर्तमान समाज में आ रहे बदलावों को लेकर उपस्थित हैं। जिसमें संवेदनहीनता (शहर में अफसोस), नशा और ड्रग्स माफिया (कत्ल में शामिल, कुएं में छलाँग) , भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र (कत्ल में शामिल), धोखाधड़ी (निशानी), एबॉर्शन (प्लान), वहीं आयातित विचारों (लिव इन) जैसी आधुनिक समस्याओं को लेकर बुनी गई हैं।

कमल चोपड़ा की लघुकथाओं का शिल्प सरल, सुस्पष्ट और सपाट, संवेदनात्मक और सामयिक है। बिना लागलपेट के वें उस यथार्थ को वर्णित करत हैं जिसके साक्षी हम सभी हैं। इस दृष्टि से उनकी लघुकथाएँ अपने समाज से गहरे जुड़ी हुई है। निसंदेह कहा जा सकता है कि वें युगबोध को लेकर चले हैं। वर्णन – विश्लेषण की प्रधानता और संप्रेषणीयता का गुण उनकी लघुकथाओं की प्रमुख विशेषताएँ हैं। भाषा की सीधी – सरलता, आँचलिकता, संकेतात्मकता भी उल्लेखनीय है जो उनके हृदयस्थ भावों को ज्यों का त्यों अभिव्यक्त कर देती है।

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि विवेच्य संग्रहों की लघुकथाएँ कमल चोपड़ा की गहरी सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि और एक स्वस्थ समाज के निर्माण की चेतना से संवलित है। इनकी लघुकथाओं के केंद्र में वर्तमान समाज और उसकी विसंगतियाँ अपने पूर्ण रूप में चित्रित हुई हैं। कमल चोपड़ा की दृष्टि के केंद्र में स्त्रियाँ, बच्चे और वृद्ध हमेशा रहते हैं। समसामयिक सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं का यथार्थ चित्र खींचने में कमल चोपड़ा सफल रहे है इसमें संदेह नहीं। वास्तविकता तो यह है कि कमल जी समाज की जटिल सामाजिक संरचना को जान – समझकर प्रत्येक समस्या की तह तक जाते हैं। वें एक प्रतिबद्ध रचनाकार के रूप में हिंदी साहित्याकाश में अपनी सकारात्मक जीवन दृष्टी और विशिष्ट सृजन, कथा – कौशल के लिए अवश्य ही साधुवाद के पात्र हैं।

संदर्भ सूची :

  1. शकुंतला किरण, २००९, हिंदी लघुकथा, साहित्य संस्थान, गाज़ियाबाद, पृष्ठ – ४३
  2. मधुदीप (संपादक), २०१६, पड़ाव और पड़ताल खंड २०, दिशा प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ – १६२
  3. कमल चोपड़ा, २०१८, अकथ, अयन प्रकाशन, महरौली नई दिल्ली, पृष्ठ – ८२
  4. उपरोक्त, पृष्ठ – ५१
  5. कमल चोपड़ा, २०१०, अन्यथा, अयन प्रकाशन, महरौली नई दिल्ली, पृष्ठ – ३१
  6. कमल चोपड़ा, २०२२, कल की शक्ल, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ – १२९
  7. कमल चोपड़ा, २०१८, अकथ, अयन प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ – १२७

स्वदेशी संस्कृति और विरासत- ज्योति कुमारी

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स्वदेशी संस्कृति और विरासत 

ज्योति कुमारी

शोधार्थी, ईग्नू (नई दिल्ली)

सारांश

भारत हमारा अत्यंत प्राचीन देश है और भारतीय संस्कृति भी अत्यंत प्राचीन है। इस भिन्न भिन्न संस्कृतियों से भरे देश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ व्यक्ति अपनी इच्छा अनुसार किसी भी क्षेत्र की संस्कृति को अपना सकता है। इन सभी संस्कृतियों के मूल में भारतीयता है, स्वदेशीपन है। आर्यों की इस संस्कृति का विस्तार हमें सनातन धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म आदि में देखने को मिलता है। हर धर्म की संस्कृति का एक अपना महत्व है। इस बहुआयामी संस्कृति से भरे भारत देश का स्वर्णिम अतीत रहा है। और अतीत से ही हमें अपनी संस्कृति को जानने व उसे अपनाने का अवसर मिला है। इस देश की विविध संस्कृति में कई तरह के बदलाव आए। कुछ सांस्कृतिक परंपराओं में भी परिवर्तन आए और कुछ परंपराएँ तो रूढ होती चली गई है। क्या इस बदलाव, इस परिवर्तन से मानव जीवन प्रभावित होता है? तो इसका उत्तर है बेशक हाँ, ये देश की संस्कृति व सभ्यता ही है जिसने मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मनुष्य के आचार-व्यवहार, वेश-भूषा, खान-पान की शैली में ही उसकी संस्कृति ही झलकती है। विवेकानंद का कहना है कि हमें अपने भारतीय होने पर गर्व महसूस करना चाहिए। यहाँ की सभ्यता और संस्कृति हमें विरासत के तौर पर मिली है। इस पर प्रत्येक भारतीय को गर्व करना चाहिए।

बीज शब्द: भारत, संस्कृति, स्वदेश, विरासत, प्राचीन, धर्म

शोध आलेख

भारत हमारा अत्यंत प्राचीन देश है और भारतीय संस्कृति भी अत्यंत प्राचीन है। इस भिन्न भिन्न संस्कृतियों से भरे देश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ व्यक्ति अपनी इच्छा अनुसार किसी भी क्षेत्र की संस्कृति को अपना सकता है। इन सभी संस्कृतियों के मूल में भारतीयता है, स्वदेशीपन है। आर्यों की इस संस्कृति का विस्तार हमें सनातन धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म आदि में देखने को मिलता है। हर धर्म की संस्कृति का एक अपना महत्व है। इस बहुआयामी संस्कृति से भरे भारत देश का स्वर्णिम अतीत रहा है। और अतीत से ही हमें अपनी संस्कृति को जानने व उसे अपनाने का अवसर मिला है। इस देश की विविध संस्कृति में कई तरह के बदलाव आए। कुछ सांस्कृतिक परंपराओं में भी परिवर्तन आए और कुछ परंपराएँ तो रूढ होती चली गई है। क्या इस बदलाव, इस परिवर्तन से मानव जीवन प्रभावित होता है? तो इसका उत्तर है बेशक हाँ, ये देश की संस्कृति व सभ्यता ही है जिसने मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मनुष्य के आचार-व्यवहार, वेश-भूषा, खान-पान की शैली में ही उसकी संस्कृति ही झलकती है। विवेकानंद का कहना है कि हमें अपने भारतीय होने पर गर्व महसूस करना चाहिए। यहाँ की सभ्यता और संस्कृति हमें विरासत के तौर पर मिली है। इस पर प्रत्येक भारतीय को गर्व करना चाहिए।

भारतीय अतीत को जानने पर पता लगता है कि यहाँ कई देश की संस्कृति का प्रभाव पड़ा था, इन प्रभावों के बावजूद हमारी भारतीय संस्कृति अक्षुण्ण बनी रही। संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर ने लिखा है – “भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रांतियाँ हुई है और हमारी संस्कृति का इतिहास उन्हीं चार क्रांतियों का इतिहास है।’’1 आगे वे लिखते है – “भारत की संस्कृति, आरंभ से ही सामसिक रही है। उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम देश में जहां भी जो हिन्दू बसते है, उनकी संस्कृति एक है एवं भारत की प्रत्येक क्षेत्रीय विशेषता हमारी इसी सामसिक संस्कृति की विशेषता है।’’2 किसी भी देश की संस्कृति एक सतत प्रवहमान धारा के समान है, इसमें नए संदर्भों से टकराव भी है, पर इस टकराव के बावजूद भी उन संदर्भों को अनुकूलित कर वह स्वयं को चिकनाती हुई चलती है।

सभ्यता और संस्कृति में व्यापकता और गहराई का अंतर है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में – “सभ्यता मनुष्य के बाह्य प्रयोजनों को सहजलभ्य करने का विधान है और संस्कृति प्रयोजनातीत अंतर आनंद की अभिव्यक्ति।’’3 और यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में खुलेपन की वृत्ति अधिक है। हमारे आदि धर्म ‘सनातन धर्म’ में भी परम तत्व के किसी निश्चित स्वरूप की व्याख्या नहीं की गयी है और ना ही किसी पवित्र ग्रंथ की मान्यता पर बल दिया है। इतनी विविधताओं को बीच आज भारतीय संस्कृति पाश्चात्य विचारों से प्रभावित होती रहती है। भारतीय संस्कृति का सामना पश्चिमी संस्कृति से नहीं अमेरिकी सभ्यता से प्रभावित हो रही है। हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास में लिखा है – “संस्कृतियों के संघर्ष में, जिस का नवीनतम उदाहरण उन्नीसवीं शती का पुनर्जागरण है,उसने विरूद्धों का सामंजस्य किया। वहाँ संघर्ष चैतन्य शक्ति से था। अब इस नई टकराहट में पश्चिम की यांत्रिक सभ्यता सामने है जो अपनी प्रकृति में जड़ है। शायद यहाँ बचाव की मुद्रा में समन्वय-साधना की शैली अधिक फलप्रद होगी।’’4

भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक संस्कृति है जिसमें विनय और शक्ति का समावेश है। अन्य संस्कृतियां इस पर प्रभावित होती जा रही है। “हम इन संस्कृतियों से अछूते नहीं रह सकते है। इन संस्कृतियों से कितना लें और कितना छोड़ें, यह हमारे सामने बड़ी समस्या है। अपनी भारतीय संस्कृति को तिलांजलि देकर इनको अपनाना आत्महत्या होगी। भारतीय संस्कृति की समन्वयशीलता यहाँ भी अपेक्षित है, किन्तु समन्वय में अपना ना खो बैठना चाहिए। इसी संस्कृतियों के जो अंग हमारी संस्कृति में अविरोध रूप में अपनाए जा सकें,उनके द्वारा अपनी संस्कृति को सम्पन्न बनाना आपत्तिजनक नहीं है। अपनी संस्कृति चाहे अच्छी हो या बुरी, चाहे दूसरों की संस्कृति से मेल खाती हो या ना खाती हो, उससे लज्जित होने की कोई बात नहीं।’’ 5

जब हम सांस्कृतिक विरासत की बात करते है तो हमें इसे संपूर्णता में देखने की आवश्यकता है। विरासत का अर्थ केवल पौराणिक स्थल ओर स्मारक तक ही सीमित नहीं है। ‘यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साइट्स’ से भी बढ़कर अगर हमारे पास कोई सांस्कृतिक विरासत है तो वह है हमारा- ‘भारतीय साहित्य’। प्रत्येक भाषा के साहित्य के माध्यम से हम अपनी सांस्कृतिक विरासत से परिचित होते है। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं को शामिल किए जाने से विविध संस्कृति को एक सूत्र में पिरोने का उपक्रम किया जा रहा है। यह हमारे लिए गर्व की बात है। भारतीय विरासत को समृद्ध बनाने में भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य की ऐतिहासिक भूमिका रही है। आज व्यक्ति हिन्दी की अपेक्षा अंग्रेजी बोलना पसंद करते है, उन्हें अपनी भाषा की गरिमा को समझना होगा। अपनी भाषा के अतीत को समझना होगा। हिन्दी के आदि कवि अमीर खुसरों को हिन्दी से बेहद लगाव था। वे दीवान ‘गुर्रतुलकमाल’ में कहते है-

तुर्क-ए-हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयं जवाब,

चु मन तूती-ए-हिंदम अज़ रास्त पुरसी।

जे मन हिंदवी पुरस ता नग्ज़ गोयम,

शकर मिस्त्री न दारम कज़ अरब गोयं सुखन।।

कहने का तात्पर्य यही है की तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी की जिस हिन्दी की वे बात कर रहे है वो आज की खड़ी बोली हिन्दी है, जिसकी जड़ें संस्कृत में थी। पर आज हम इस सांस्कृतिक गौरव को त्याग रहे है। आधुनिक शिक्षा व्यवस्था को फिर से मजबूत करने की आवश्यकता है। महादेवी वर्मा संस्कृति और शिक्षा के विषय में लिखती है- “संस्कृति और साहित्य के साथ शिक्षा का संबंध अटूट है। विदेशी शासकों ने हमारे शिक्षालयों को ऐसा कारखाना बना डाला था जिसमें निर्जीव क्लर्क मात्र गढे जाते थे। उन्हें अपना शासन यंत्र चलाने के लिए ऐसे ही पुतलों की आवश्यकता थी जिनमें ना अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं का ज्ञान होता था, ना अपने चरित्र का बल होता था।’’6 भारतीय साहित्य में स्वदेश का गौरवगान किया गया है। मैथिली शरण गुप्त व रामधारी सिंह दिनकर का साहित्य इसका उदाहरण है। गुप्त जी ने भारत-भारती में ना केवल अतीत का गौरवगान किया है अपितु वे वर्तमान और भविष्य के सुधार की बात करते है। वे भारतीय विरासत की गौरवगाथा इस रूप में करते है-

“भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहाँ?

फैला मनोहर गिरी हिमालय और गंगाजल जहां।

सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है?

उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन? भारतवर्ष है।।’’

सिर्फ साहित्यिक पुस्तकें ही नहीं आध्यात्मिक पुस्तकें भी हमारी सांस्कृतिक विरासत है, इन पुस्तकों में स्वदेश के प्रति प्रेम, आदर व कर्तव्यनिष्ठ होने का संदेश है। वेद, उपनिषद, पुराण आदि हमारी धरोहर है जिन्हें, ना केवल अध्ययन करने की आवश्यकता है अपितु उन सूत्र वाक्यों को व्यवहार में लाने की भी जरूरत है। भारत की सांस्कृतिक विरासत समस्त विश्व के लिए किसी अजूबे से कम नहीं है। यहाँ की विविधताओं में भी एकता है, यह सच में गौरव की बात है। डॉ ए.एल.वाशम ने ‘भारत की सांस्कृतिक विरासत’ नामक अपनी प्रामाणिक पुस्तक में नोट किया है कि ‘हालांकि सभ्यता के चार मुख्य उद्गम होते है जो पूरब से पश्चिम की ओर प्रस्थान करने वाले चीन, भारत फर्टाइल क्रिसेंट तथा भू मध्य रेखा विशेष रूप से ग्रीक और इटली है, परंतु भारत अधिक श्रेय का हकदार है क्योंकि भारत में अधिकांश एशिया के धर्म जीवन को गहन रूप से प्रभावित किया है। भारत ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विश्व के अन्य भागों पर भी अपना प्रभाव छोड़ा है।’

भारतीय संस्कृति हमें निरंतर उन्नति की ओर अग्रसर करती है। इतनी समृद्ध परंपरा को चिरकाल तक स्मरणीय बनाए रखने के लिए प्रत्येक मनुष्य को योगदान थोड़ा-थोड़ा देना चाहिए। अपनी संस्कृति सभ्यता को बचाए रखने के लिए उन्हें जीवित रखना होगा, थोड़े बहुत परिवर्तित रूप में ही सही उन्हें विलुप्त होने से बचाना होगा। महादेवी जी लिखती है- “निरंतर प्रवाह का नाम नदी है, जब शिलाओं से घेरकर उसका बहना रोक दिया गया, तब उसे हम चाहे पोखर कहे चाहे झील, किन्तु नदी के नाम पर उसका कोई अधिकार नहीं रहा। संस्कृति के संबंध में यह और भी अधिक सत्य है, क्योंकि वह ऐसी नदी है जिसकी गति अनंत है। वह विशेष देश, काल, जलवायु में विकसित मानव-समूह की व्यक्त और अव्यक्त प्रवृतियों का परिष्कार करती है और उस परिवार से उत्पन्न विशेषताओं को सुरक्षित रखती है।’’7

संस्कृति में एक समन्वयात्मक समष्टि है जो विकास के विविध रूपों को आपस में जोड़ती है और हमारी भारतीय संस्कृति तो विविध संस्कृतियों की समन्वयात्मक समष्टि है। इसके समझने के लिए हमें अत्यधिक उदार, निष्पक्ष और व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इस बहुमूल्य विरासत के महत्व को समझना जरूरी है जिससे आने वाली पीढ़ी के लिए इसे संरक्षित कर सकें। आज पूरा विश्व भारतीय संस्कृति के रंग में रंग रहा है, यहाँ के दर्शन को अपना रहा है। इस विशाल संस्कृति के हम उत्तराधिकारी है, इसकी रक्षा की जिम्मेदारी भी हमारी है।

संदर्भ सूची

  1. रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-2009, पृष्ठ- 13
  2. वही
  3. रामस्वरुप चतुर्वेदी, भारत और पश्चिम संस्कृति के अस्थिर संदर्भ, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण-2010, पृष्ठ- 46
  4. वही
  5. बाबू गुलाब राय, भारतीय संस्कृति की रूपरेखा, ज्ञानगंगा, दिल्ली, संस्करण- 2008, पृष्ठ-19
  6. महादेवी वर्मा, भारतीय संस्कृति के स्वर, राजपाल एण्ड सन्स्, संस्करण- 1994, पृष्ठ-54
  7. वही, पृष्ठ-20

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षक शिक्षा अपेक्षा, चुनौतियाँ एवं समाधान-डॉ. दिनेश कुमार गुप्ता

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राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षक शिक्षा अपेक्षा, चुनौतियाँ एवं समाधान

डॉ. दिनेश कुमार गुप्ता

प्रवक्ता, अग्रवाल महिला शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय, गंगापुर सिटी

जिला- सवाई माधोपुर (राजस्थान) 322201

दूरभाष: 9462607259

ईमेल: dineshg.gupta397@gmail.com

सारांश

इक्कीसवीं सदी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाई गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है जो भारत की वर्तमान चनुौतियों, समस्याओं और भविष्य की ज़रूरतों की पूर्ति में सहायक होगा। शिक्षा की प्रक्रिया में कई कारक शामिल होते हैं, जिनमें शिक्षक की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। इक्कीसवीं सदी के भारत की शिक्षा नीति के स्वरूप को दर्शाने वाली इस शिक्षा नीति में कुल 27 प्रमुख बिंदुओं की विस्तार से चर्चा की गई है| इन 27 बिंदुओं में से बिंदु संख्या 15 में शिक्षक शिक्षा से संबंधित महत्वपूर्ण सिफ़ारिशें शामिल हैं। वर्तमान शिक्षा नीति का शुभ परिणाम, इसे अमल में लाने के लिए तैयार की जाने वाली कार्य-योजना की उत्कृष्टता, संबंधित कार्य योजना पर अमल करने की दृढ़ इच्छाशक्ति और शिक्षा प्रक्रिया में शामिल व्यक्तियों की प्रतिबद्धता पर निर्भर होगा। इस लेख में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के आलोक में शिक्षक शिक्षा से संबंधित समस्याओं वर्तमान चुनौतियों तथा उनके संभावित समाधान की चर्चा की गई है|

बीज शब्द: शिक्षा, नीति, भविष्य, कार्य, योजना, प्रक्रिया

शोध आलेख

इक्कीसवीं सदी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाई गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है जो भारत की वर्तमान चनुौतियों, समस्याओं और भविष्य की ज़रूरतों की पूर्ति में सहायक होगा। शिक्षा की प्रक्रिया में कई कारक शामिल होते हैं, जिनमें शिक्षक की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। इक्कीसवीं सदी के भारत की शिक्षा नीति के स्वरूप को दर्शाने वाली इस शिक्षा नीति में कुल 27 प्रमुख बिंदुओं की विस्तार से चर्चा की गई है| इन 27 बिंदुओं में से बिंदु संख्या 15 में शिक्षक शिक्षा से संबंधित महत्वपूर्ण सिफ़ारिशें शामिल हैं। वर्तमान शिक्षा नीति का शुभ परिणाम, इसे अमल में लाने के लिए तैयार की जाने वाली कार्य-योजना की उत्कृष्टता, संबंधित कार्य योजना पर अमल करने की दृढ़ इच्छाशक्ति और शिक्षा प्रक्रिया में शामिल व्यक्तियों की प्रतिबद्धता पर निर्भर होगा। इस लेख में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के आलोक में शिक्षक शिक्षा से संबंधित समस्याओं वर्तमान चुनौतियों तथा उनके संभावित समाधान की चर्चा की गई है|

शिक्षा प्रत्येक राष्ट्र की एक अनिवार्य आवश्यकता है। मानव की उपलब्धियों में शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए प्रत्येक देश अपनी सांस्कृतिक, सामाजिक, भौगोलिक और ऐतिहासिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा व्यवस्था में समयानुसार सुधारात्मक परिवर्तन करता है। यह बात भारत पर भी लागू होती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ डॉ. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में 1948 में विश्वविद्यालय आयोग, लक्ष्मी शंकर मुदालियर की अध्यक्षता में माध्यमिक शिक्षा पर माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952) और सन् 1964 में दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में पहले राष्ट्रीय शिक्षा आयोग की स्थापना, इस संबंध में शिक्षा के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को व्यक्त करती है। सन् 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति और राममूर्ति की अध्यक्षता में समीक्षा समिति (1992) की सिफ़ारिशों ने भारतीय शिक्षा की दशा और दिशा को सुधारने और आधुनिक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति शिक्षा प्रणाली के लिए एक ऐतिहासिक घटना है। इक्कीसवीं सदी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाई गई यह शिक्षा नीति एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है जो भारत की वर्तमान चुनौतियों, समस्याओं और भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होगा। वास्तव में, वर्तमान शिक्षा नीति कितनी प्रभावी होगी, यह तैयार की जाने वाली कार्य योजना, संबंधित कानून और शिक्षा प्रक्रिया में शामिल व्यक्तियों की प्रतिबद्धता पर निर्भर करेगा। शिक्षा की प्रक्रिया में कई कारक शामिल होते हैं, जिनमें शिक्षक की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। इक्कीसवीं सदी के भारत की शिक्षा नीति के स्वरूप को दर्शाने वाली, इस शिक्षा नीति में कुल 27 प्रमुख बिंदुओं की विस्तार से चर्चा की गई है जिसमें बिंदु क्रमांक 15 में शिक्षक शिक्षा से संबंधित महत्वपूर्ण सिफ़ारिशें शामिल हैं। इसके साथ ही इस शिक्षा नीति के विद्यालयी शिक्षा से संबंधित बिंदुओं पर अनुसंधान में भी शिक्षक और शिक्षक शिक्षा से संबंधित मामलों पर चर्चा की गई है। इस लेख में शिक्षक शिक्षा के सम्प्रत्यय एवं आवश्यकता पर चर्चा की गई है। इसके साथ ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में दिए गए महत्वपूर्ण सुझाव एवं अमल के दौरान आने वाली चुनौतियों तथा उसके संभावित समाधानों पर भी चर्चा की गई है।

शिक्षक शिक्षा— शिक्षक शिक्षा, दो शब्दों, शिक्षक एवं शिक्षा का समेकित रूप है, जिसमें शिक्षक शब्द का अर्थ सीखने एवं सिखाने वाले के रूप में तथा शिक्षा शब्द का अर्थ अध्यापन एवं ज्ञानाभिग्रहण के रूप में किया गया है। यहाँ दोनों ही शब्दों की उत्पत्ति संस्कृत के ‘शिक्ष्’ धातु से हुई है, जिसका शब्दकोशीय अर्थ है, सीखना, अध्ययन करना तथा ज्ञानार्जन करना (आप्टे, 1999, पृष्ठ संख्या 1015)। इस प्रकार शिक्षक शिक्षा का सामान्य अर्थ उस व्यक्ति की शिक्षा से है, जो सीखने एवं सिखाने का कार्य करता है। शिक्षक का समानार्थी शब्द गुरु है, जो प्राचीन और वर्तमान भारत में अध्यापन करने वाले व्यक्तियों के लिए उपयोग किया जाता है। प्राचीन भारत में शिक्षकों का प्रशिक्षण गुरुकुलों में स्वाभाविक रूप से अध्ययन-अध्यापन के दीर्घकालिक अनुभव के आधार पर होता था, जिसमें प्रज्ञा के साथ ही साथ उत्तम चरित्र का होना अनिवार्य शर्त थी। समयांतर में समाज में औपचारिक शिक्षा की बढ़ती माँग ने पेशेवर शिक्षकों के विकास की अवधारणा को बल दिया और शिक्षक शिक्षा की औपचारिक शुरुआत के लिए शिक्षक संस्थानों की स्थापना हुई। शिक्षक शिक्षा, शिक्षाशास्त्रीय प्रक्रम में उन युवाओं हेतु एक व्यावसायिक तैयारी है जो शिक्षण व्यवसाय में प्रवेश करना चाहते हैं। यह व्यावसायिक तैयारी अनेक प्रकार की हो सकती है, परंपरागत अथवा वस्तुनिष्ठता से युक्त एवं आबद्ध, जिसका लक्ष्य है— विद्वता एवं खुलेपन के लिए समर्पित प्रगतिशील शिक्षक वर्ग की उपलब्धि, जो विद्यार्थियों की व्यक्तिपरकता अथवा आत्मनिष्ठा के प्रति अभिमुख हो (शर्मा एवं शर्मा, 2015, पृष्ठ संख्या 4)। शिक्षक शिक्षा की व्यापक परिभाषा देते हुए कुमार (2016, पृष्ठ संख्या 1) लिखते हैं कि, “अध्यापक शिक्षा एक शैक्षिक आयोजन है जिसमें विभिन्न स्तरीय एवं वर्गीय अध्यापकों को इस तरह से शिक्षित करने का प्रयत्न किया जाता है कि वे आने वाली पीढ़ी को ज्ञान एवं विकासात्मक दायित्वों को ग्रहण तथा वहन करने में सक्षम हो सकें । उनमें तकनीकी कुशलता, वैज्ञानिक चेतना, संसाधन सम्पन्नता तथा नवाचारिता के साथ सांस्कृतिक उद्दीपन एवं मानवता बोध का समन्वयात्मक विकास करना संभव हो सके ।”

शिक्षक शिक्षा की आवश्यकता- प्राचीन काल से ही शिक्षक का समाज में महत्वपूर्ण स्थान है, जो उसके समाज के प्रति निर्वहन किए जाने वाले महत्वपूर्ण कर्तव्यों के संदर्भ में देखा जाता है। प्राचीन कालीन शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक के कर्तव्य को इंगित करते हुए अलतेकर (2014, पृष्ठ संख्या 41) लिखते हैं कि, “अध्यापन के अतिरिक्त आचार्य के और भी कर्तव्य होते हैं। उसे शिष्य का मानस पिता माना गया था । अतः नैतिक दृष्टि से शिष्य के समस्त दोषों का उत्तरदायित्व उस पर था । शिष्य के चरित्र का सर्वदा ध्यान रखना उसका कर्तव्य था” राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में शिक्षक को समाज की स्थिति का मानदंड मानते हुए स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि समाज में शिक्षक की स्थिति समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की परिचायक है, क्योंकि कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति अपने शिक्षक से अधिक विकसित नहीं हो सकता है। (मानव संसाधन विकास मंत्रालय, 1998, पृष्ठ संख्या 31) इसलिए ज़रूरी है कि शिक्षक शिक्षा के प्रति ध्यान दिया जाए तथा ज्ञानी, कुशल, दक्ष, संवेदनशील एवं चरित्रवान शिक्षकों का विकास किया जाए।

सीखना एवं सिखाना यद्यपि एक-दूसरे के निकट है, किंतु दोनों में प्रक्रियागत एक महत्वपूर्ण भेद है, जहाँ सीखने की प्रक्रिया भूल-सुधार एवं सतत अभ्यास के सिद्धांत का अनुगम करती है, वहीं सिखाने की प्रक्रिया में भूल एवं सुधार के सिद्धांत को लागू करना एक गंभीर परिणाम को जन्म दे सकता है। इसलिए इसमें गहन शिक्षण एवं प्रशिक्षण प्राप्त अध्यापक की आवश्यकता है। शिक्षार्थी की शिक्षा की गुणवत्ता और उसकी शैक्षिक उपलब्धि का स्तर शिक्षक की दक्षता, संवेदनशीलता और प्रेरणा से निर्धारित होता है। साथ ही यह सर्वमान्य धारणा है कि शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शिक्षक के पढ़ाए जाने वाले विषय की समझ एवं व्यावसायिक क्षमता, सीखने के आवश्यक वातावरण का निर्माण करती है (नेशनल काउंसिल फ़ॉर टीचर एजुकेश‍न, 2009, पृष्ठ संख्या 1)। इसलिए शिक्षक शिक्षा को आवश्यक माना जाता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षक को राष्ट्र निर्माता के रूप में स्वीकार करते हुए कहा गया है कि, ‘शिक्षक वास्तव में बच्चों के भविष्य को आकार देते हैं इसलिए वे हमारे राष्ट्र के भविष्य के निर्माता हैं इस महान योगदान के कारण शिक्षक भारतीय समाज के सबसे सम्मानित सदस्यों में से एक थे और केवल सर्वश्रेष्ठ विद्वान ही शिक्षक बनते थे (शिक्षा मंत्रालय, 2020, पृष्ठ संख्या 30)। वर्तमान शिक्षा नीति जहाँ शिक्षकों में प्राचीन भारतीय मूल्यों एवं सांस्कृतिक गौरव को जीवंत रखना चाहती है वहीं इस नीति में शिक्षक को आधुनिक शैक्षिक तकनीकी एवं संसाधनों के उपयोग में भी दक्ष बनाने की बात पर बल दिया गया है वास्तव में कोई भी शैक्षिक उद्देश्य तब तक प्राप्त नहीं किया जा सकता, जब तक कि इन उद्देश्यों को प्राप्त कराने वाला प्रेरक स्वयं दक्ष न हो। इसलिए यह ज़रूरी है कि शिक्षकत्व के पूर्ण विकास के लिए एक सुनियोजित शिक्षा की योजना निर्धारित हो। शिक्षक शिक्षा की आवश्यकता को सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में तेज़ी से आ रहे परिवर्तन के साथ कदम-ताल मिलाने, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति, कौशलयुक्त मार्गदर्शन, तकनीकी ज्ञान की प्राप्ति एवं आंतरिक अभिप्रेरणा के विकास के संदर्भ में देखे जा सकते हैं (कुमार, 2016, पृष्ठ संख्या 3)।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षक की परिकल्पना- राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षक की एक आदर्श अवधारणा प्रस्तुत की गई है, जो प्राचीन भारतीय शिक्षकों की तरह विद्वता, नैतिक आचरण, कर्तव्यपरायणता और विश्व के कल्याण के लिए सतत प्रयत्नशील शिक्षक की कार्य प्रणाली की याद दिलाती है। इसके साथ ही यह नीति मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों, सूचना-संचार की तकनीकों और अत्याधुनिक उपकरणों का कुशलतापूर्वक उपयोग करने में समर्थ तथा आधुनिक नवाचारों एवं ज्ञान-विज्ञान में दक्ष शिक्षकों की अवधारणा प्रस्तुत करती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के बिंदु क्रमांक 15.1 में कहा गया है कि, “अगली पीढ़ी को आकार देने वाले शिक्षकों की एक टीम के निर्माण में अध्यापक शिक्षा की भूमिका महत्वपूर्ण है। शिक्षकों को तैयार करना एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके लिए बहु-विषयक दृष्टिकोण और ज्ञान की आवश्यकता के साथ बेहतरीन मेंटरों के निर्देशन में मान्यताओं और मूल्यों के निर्माण तथा उनके अभ्यास की भी आवश्यकता होती है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अध्यापक शिक्षा और शिक्षण प्रक्रियाओं से संबंधित अद्यति‍त प्रगति के साथ भारतीय मूल्यों, भाषाओं ज्ञान, लोकाचार और परंपराओं (जनजातीय परंपराओं सहित) के प्रति भी जागरूक रहें।” इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए इक्कीसवीं सदी की शिक्षक शिक्षा से अपेक्षा की गई है कि ये शिक्षक शिक्षा संस्थान ऐसे शिक्षकों को विकसित करें, जिनमें निम्नलिखित अपेक्षाओं को पूर्ण करने की दक्षता हो —

1. शिक्षक को अपने विषय की विशेषज्ञता के साथ-साथ अन्य विषयों का सामान्य ज्ञान होना चाहिए ताकि वह समग्र शिक्षण की अवधारणा को मूर्तरूप दे सकें ।

2. शिक्षक को अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया की समझ होनी चाहिए।

3. शिक्षक, आजीवन सीखने वाले की भूमिका में होना चाहिए ताकि वह लगातार स्वयं को विकसित कर सके।

4. अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण और रुचि होनी चाहिए।

5. भारतीय संस्कृति और विरासत को समझें और इसके प्रति गौरव की भावना रखें।

6. आधुनिक सूचना-संचार प्रौद्योगिकी और शैक्षिक नवाचारों के साथ-साथ इन्हें उपयोग करने की क्षमता की भी समझ होनी चाहिए।

7. अध्ययन, शिक्षण, अनुभव और अनुसंधान के माध्यम से स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखने एवं कौशलात्मक सुधार के लिए उत्सुक होना चाहिए।

8. कम से कम तीन भाषाओं में दक्ष होना चाहिए ताकि वे विश्वासपूर्वक और लगन से त्रिभाषा नीति के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकें ।

9. संवैधानिक एवं नैतिक मूल्यों के पालन को जीवन का अंग बनाने वाला होना चाहिए।

10. अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में नवाचारों की खोज एवं तदनुरूप स्व-अध्ययन शैली में परिवर्तन के प्रति तत्पर होना चाहिए।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की शिक्षक शिक्षा के संबंध में दिए गए महत्वपूर्ण सुझाव

इक्कीसवीं सदी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए तैयार इस शिक्षा नीति में शिक्षक शिक्षा में सुधार लाने के लिए कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए हैं, जिनके अनुपालन से न केवल शिक्षक शिक्षा में गुणात्मक बदलाव लाया जा सकता है, बल्कि इसके साथ ही विद्यालयी शिक्षा में गुणात्मक सुधार को गति दी जा सकती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षा से संबंधित प्रत्येक पहलू पर विचार किया गया है इसमें शिक्षक-प्रशिक्षण की चर्चा भी शामिल है शिक्षक शिक्षा पर न्यायमूर्ति वर्मा आयोग (2012) की चिंताओं एवं शिक्षक-प्रशिक्षण के क्षेत्र की समस्याओं तथा उपरोक्त शिक्षक शिक्षा संबंधी अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित महत्वपर्णू सुझाव दिए गए हैं —

1. शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम केवल बहु-विषयक शैक्षिक संस्थानों में ही आयोजित किए जाएँ।

2. वर्ष 2030 तक केवल शैक्षिक रूप से सुदृढ़, बहु-विषयक और एकीकृत अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम ही कार्यान्वित हों।

3. वर्ष 2030 से एकीकृत बी.एड. का अध्ययन केवल बहु-विषयक, गुणवत्ता युक्त एवं निर्धारित मानकों के आधार पर संचालित संस्थानों में ही किया जा सकता है।

4. एकल विषय आधारित शैक्षणिक संस्थानों का वर्ष 2030 तक बहु-विषयक संस्थानों के रूप में उन्नयन करना, जो संस्थान ऐसा करने में असफल होंगे उन्हें बंद कर दिया जाए।

5. चार वर्षीय शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम, दो वर्षीय शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम और एकवर्षीय शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम को स्वीकृति, लेकिन केवल उन्हीं बहु-विषयी संस्थान को दो वर्षीय शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम और एक वर्षीय शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम चलाने की स्वीकृति मिले, जो सफलतापूर्वक चार साल के शिक्षक शिक्षा के कार्यक्रम को चला रहे हों।

6. जिनके पास स्नातक की डिग्री है, उनके लिए दो वर्षीय शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम एवं जिनके पास विशिष्ट विषय के साथ चार वर्षीय स्नातक की डिग्री है, उनके लिए एकवर्षीय शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम चलाया जा सकता है।

7. समाज की आवश्यकताओं को साकार करने वाली नई माँग आधारित शिक्षण संस्थानों की स्थापना की जानी चाहिए।

8. प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को आकर्षित करने के लिए विद्यार्थीवृत्ति की व्यवस्था के साथ ही साथ ज़रूरतमन्द प्रशिक्षुओं की मदद करना।

9. गुणवत्ता की प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय परीक्षण संस्थान द्वारा आयोजित विषय और शिक्षक योग्यता परीक्षा के आधार पर शिक्षक शिक्षा संस्थानों में प्रवेश।

10. पीएच.डी. कार्यक्रम में नए नामांकित विद्यार्थियों को अपने शोध (शिक्षाशास्त्र या अध्ययन अथवा पाठ्यक्रम विकास) के लिए प्रासंगिक विषय में क्रेडिट आधारित अध्ययन करना होगा।

11. शिक्षकों के रूप में काम करने वाले सभी शिक्षकों को अपने व्यावसायिक विकास को जारी रखने के लिए प्रेरणा और सुविधाएँ दी जाएँ।

12. स्वयं और दीक्षा जैसे प्रौद्योगिकी आधारित शिक्षक शिक्षा पाठ्यक्रमों से जुड़कर आत्म-विकास के अवसर पैदा करना।

सुझावों के कार्यान्वयन से संबंधित चुनौतियां और समाधान

किसी भी नीति की सफलता इसके कुशल और व्यावहारिक कार्यान्वयन में निहित है। नीति या योजना कितनी व्यावहारिक और फलदायी होती है, यह कार्यान्वयन की योजना और निष्पादक के साथ-साथ कार्यकर्ता पर निर्भर करता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षक शिक्षा के स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन की तैयारी की गई है, परंतु यह नीति प्रस्तावित सुधारों के कार्यान्वयन की स्पष्ट योजना या कानूनी प्रावधानों को स्पष्ट रूप से दिशा-निर्देशित नहीं करती है। नीति, केवल इस बात पर चर्चा करती है कि क्या किया जाएगा या क्या होने की उम्मीद है, लेकिन इस नीति को अमल में कैसे लाया जाएगा, का कोई उल्लेख नहीं है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में उल्लि‍खित शिक्षक शिक्षा से संबंधित सिफ़ारिशों के कार्यान्वयन में आने वाली प्रमुख चुनौतियाँ और इसके समाधान निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर समझे जा सकते हैं —

1. संरचनात्मक अस्थिरता संबंधित चुनौती- शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में की गई सिफ़ारिशों में संरचनात्मक परिवर्तन सबसे महत्वपूर्ण है। इस सिफ़ारिश को लागू करने से कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। पिछले 10 वर्षों में, शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में इतने प्रयोग हुए हैं, जितने पूरी शिक्षा प्रणाली में नहीं हुए। एकवर्षीय बी.एड. कार्यक्रम को परिवर्तित कर दो वर्षीय बी.एड. कार्यक्रम बना दिया गया। बदलाव इतनी जल्दबाजी में किए गए कि कोई भी शोधार्थी या संस्थान इस संरचनात्मक परिवर्तन की सफलता या विफलता को माप नहीं पाया। अभी यह परिवर्तन सही से ‍‍क्रियान्वित भी नहीं हुआ था कि सेमेस्टर सिस्टम लागू कर दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप फिर से आनन-फानन में नए पाठ्यक्रमों की संरचना की गई। अभी इस योजना पर अमल हो ही रहा था कि अब इस नीति के माध्यम से चार वर्षीय एकीकृत शिक्षक शिक्षा की बात लागू कर दी गई है। इस क्षेत्र में इन लगातार बदलावों का पूरी शिक्षक शिक्षा पर गहरा नकारात्मक असर पड़ा है। ये परिवर्तन अपने-आप में एक चुनौती है। यदि शिक्षक शिक्षा को गुणवत्ता युक्त बनाना है तो सर्वप्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में किए गए ये परिवर्तन स्थायी होने चाहिए और कम से कम 10 साल तक चलते रहना नितांत आवश्यक है, अन्यथा इस परिवर्तन का भी शिक्षक शिक्षा की गुणवत्ता में कोई खास योगदान नहीं होगा। मात्र सत्ता के परिवर्तन अथवा सरकार के मनस्वी विचार के आधार पर नहीं, बल्कि होने वाला कोई भी परिवर्तन शोध आधारित होना चाहिए।

2. स्वरूपगत परिवर्तन से संबंधित चुनौती- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, चार वर्षीय बी.एड. कार्यक्रम पर बल देती है, लेकिन इसके साथ ही दो वर्षीय और एकवर्षीय बी.एड. कार्यक्रम को फिर से स्थापित करने की पहल की गई है। अंतर यह है कि ये सभी कार्यक्रम अब केवल बहु-विषयक स्वायत्त कॉलेजों या विश्वविद्यालयों में चलाए जा सकते हैं। वर्तमान स्थिति में शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में एकल पाठ्यक्रम आधारित कॉलेजों की संख्या बहुत बड़ी है। इसमें भी निजी संस्थानों की संख्या बहुत अधिक है। ऐसी स्थिति में बहुत बड़ी संख्या में बहु-विषयक संस्थानों की आवश्यकता होगी। ऐसे में नवीन संस्थानों की स्थापना एवं अपग्रेडेशन का कार्य कैसे होगा? आवश्यक पूँजी कहाँ से आएगी जैसे प्रश्न अपने आप में बहुत बड़ी समस्या है। वित्तीय, भौतिक और मानवीय सुविधाओं के अभाव में एकल सरकारी या निजी संस्थान के लिए खुद को बहु-विषयक संस्थान में बदलना एक बड़ी समस्या होगी। यदि आज के निजी संस्थान स्वयं को बहु-विषयक संस्थानों में विकसित नहीं कर पाएँगे तो, शायद यह संस्थान बंद हो जाएँगे। इन चुनौतियों को पूरा करने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकार समय-समय पर समाज की ज़रूरतों की जाँच करे और आनुपातिक रूप से नए संस्थान खोलने की पहल करने के साथ ही अच्छी तरह से कार्य कर रहे निजी संस्थानों को भी अनुदान प्रदान कर उन्हें बहु-विषयक संस्थान के रूप में विकसित करने में मदद करें। यदि निजी क्षेत्र के संस्थान इस क्षेत्र में काम करना चाहते हैं तो उन्हें इस शर्त के साथ अनुमति दी जानी चाहिए कि वे, इस कार्य से मुनाफ़ा कमाने की न सोचें और शिक्षक शिक्षा से संबंधित नीतियों का सख्ती से पालन करें। साथ ही स्वरूपगत परिवर्तनों से संबंधित चुनौतियों का सामना करने के लिए स्पष्ट नीति बने। सरकार वित्तीय एवं संसाधनों की उपलब्धता के प्रति अपनी जवाबदेही को निभाए तथा निजी क्षेत्र के संस्थान इसे सेवा कार्य मानते हुए आर्थिक उपार्जन की क्षुद्र भावना से ऊपर उठते हुए नीति -नियमों का पालन कर शिक्षक शिक्षा की गुणवत्ता को बनाए रखें।

3. संसाधनों की कमी- राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में सुझाई गई गुणवत्ता की प्राप्ति के लिए आवश्यक भौतिक संसाधनों की भारी कमी दिखाई देती है प्रत्येक संगठन को सुविधाओं के मामले में एक आदर्श संगठन के रूप में विकसित किया जाना है। शैक्षिक संसाधनों की उपलब्धता शिक्षण प्रक्रिया को आसान, सुविधाजनक और प्रभावी बनाती है। बच्चों के चहुँमुखी, समन्वित और पूर्ण विकास के लिए व्यक्तित्व के हर पहलू का विकास आवश्यक है भावी शिक्षक के मानसिक विकास के लिए कक्षा, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, गतिविधि कक्ष एवं समिति कक्ष के साथ-साथ शारीरिक विकास के लिए एक खेल का मैदान और व्यायामशाला की आवश्यकता होगी। वर्तमान परिदृश्य में, अधिकांश सरकारी और निजी संस्थानों में इन सुविधाओं का अभाव है अगर सभी सुविधाओं की पूर्ति करनी है तो अधिकांश निजी संस्थानों को ट्यूशन फ़ीस बढ़ानी होगी, जिससे पहले से ही महँगी निजी शिक्षा और अधिक महँगी हो जाएगी। इसलिए यह आवश्यक है कि सरकार शिक्षक शिक्षा को एक आवश्यक सेवा माने तथा प्रत्येक शिक्षक शिक्षा संस्थान को इन सभी सुविधाओं को निःशुल्क स्थापित करने में मदद करे। शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का लगभग चार प्रतिशत खर्च करके इन सुविधाओं को उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है। ऐसी स्थिति में मज़बूत इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए, सरकार को अगले तीन वर्षों में शिक्षा पर व्यय का प्रतिशत बढ़ा कर छह प्रतिशत करना होगा और इसे 2035 में अमल में लाने के बजाय आज से ही ‍क्रियान्वित करना चाहिए। सभी शिक्षक शिक्षा की संस्थाओं चाहे वे सरकारी हों या निजी, दोनों के लिए समान नीति नियम लागू हों। इसके साथ ही भौतिक और मानव संसाधन संबंधी खर्चों को सरकार स्वयं वहन करें।

4. शिक्षक-प्रशिक्षकों के प्रशिक्षण के संबंध में अस्पष्टताराष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षकों को तैयार करने के बारे में चर्चा की गई है, लेकिन यह नहीं बताया गया है कि ऐसे शिक्षकों को तैयार करने वाले शिक्षक-प्रशिक्षक कैसे प्रशिक्षित होंगे। नीति में एम.एड. (शिक्षक-प्रशिक्षक तैयार करने वाले पाठ्यक्रम) के बारे में कोई उल्लेख नहीं है। शिक्षक-प्रशिक्षकों की दक्षता पर भविष्य के शिक्षकों के प्रशिक्षण का दायित्व होता है जो शिक्षक की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। शिक्षक-प्रशिक्षण, वस्तुतः एक समग्र और जटिल प्रक्रिया है, जिसमें विद्यार्थी और शिक्षक एवं उन्हें प्रशिक्षित करने वाले शिक्षक-प्रशिक्षक एक बढ़ते क्रम में योजनाबद्ध रूप से आपस में जुड़े होते हैं। शिक्षक शिक्षा में गुणवत्ता स्थापित करने के लिए पहली आवश्यकता प्रशिक्षकों (जो एम.एड. में पढ़ा सकते हैं।) की तैयारी है, जो शिक्षक-प्रशिक्षकों को प्रशिक्षित कर सकते हैं, क्योंकि शिक्षक, केवल प्रशिक्षक की क्षमता और ज्ञान के अनुसार तैयार किए जा सकते हैं। इन शिक्षक-प्रशिक्षकों की दक्षता भविष्य के प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षकों की क्षमता को प्रभावित करेगी, जो अंततोगत्वा विद्यार्थियों के समग्र विकास को प्रभावित करेगी। क्या और कैसे सिखाना है? की तैयारी के लिए विद्यार्थी से लेकर शिक्षक-प्रशिक्षक स्तर के सभी संबंधित व्यक्तियों को विचार करना होगा। शिक्षक-प्रशिक्षक की तैयारी के लिए सुविधाएँ, पाठ्यक्रम और योजनाएँ तत्काल तैयार की जानी चाहिए। इसी तरह वर्तमान में प्रशिक्षण कार्य में लगे व्यक्तियों को भी सेवाकालीन प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी। इस चुनौती के निस्तारण के लिए तत्काल शिक्षक-प्रशिक्षक पाठ्यक्रम का निर्माण एवं कार्यान्वयन इस योजना की ज़रूरत है।

5. शिक्षाशास्त्र में अप्रशिक्षित व्यक्ति से गुणवत्तायुक्त प्रशिक्षण संबंधी अपेक्षा — राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुसार सभी एकल शिक्षक शिक्षा संस्थानों को बहु-विषयक संस्थानों के रूप में विकसित करना है। इसके लिए उन विषय-विशेषज्ञों को भी नियुक्त करने की सिफारिश की गई है, जिन्होंने शिक्षक-प्रशिक्षकों के रूप में प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया है। जबकि शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम एक विशेषीकृत कार्यक्रम है, जिसमें बाल-व्यवहार एवं मनोविज्ञान, अध्ययन-अध्यापन की तकनीक एवं शिक्षणशास्त्र, आकलन अथवा मूल्यांकन तथा मार्गदर्शन एवं निर्देशन जैसे अनेक विषयों से संबं‍धित विशेषज्ञीय सेवा की आवश्यकता होती है। शिक्षाशास्त्र मात्र विषयों को ही पढ़ाने का नाम नहीं है। ऐसे में सवाल यह है कि ये अप्रशिक्षित एवं मात्र अपने विषय (गणित, अंग्रेज़ी, दर्शनशास्त्र, कला इत्यादि ) में विशेषज्ञता रखने वाले व्यक्ति भावी शिक्षकों को कैसे प्रशिक्षण दे सकते हैं, क्योंकि शिक्षक-प्रशिक्षण का कार्य, क्या सीखना है, से ज़्यादा कैसे सिखाना है, पर ज़ोर देता है। वर्तमान स्थिति में ऐसे शिक्षक केवल विषय ज्ञान प्रदान कर पाएँगे, जो सूचना क्रांति के समय में इंटरनेट से भी आसानी से खोजा जा सकता है। वास्तव में, आदर्श स्थिति यह है कि जो कोई भी इस क्षेत्र से जुड़े, उसे विषय के साथ ही अध्ययन-अध्यापन से संबंधित तीनों शिक्षणशास्त्रों (पेडागॉजी अर्थात् बाल-शिक्षणशास्त्र, एंड्रागॉजी अर्थात् प्रौढ़-शिक्षणशास्त्र एवं हेट्रागॉजी अर्थात् स्व-निर्देशित शिक्षणशास्त्र) की समझ एवं प्रशिक्षण अपरिहार्य है, जहाँ विषय-विशेषज्ञों को प्रशिक्षण के बिना शिक्षक शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण कार्य कराने की अनुमति दी गई है, वहीं राष्ट्रीय शिक्षा नीति में पीएच.डी. करने वाले शोधार्थियों से यह अपेक्षा की गई है कि वे अपने विषय से संबंधित शिक्षणशास्त्र से संबंधित कोर्स भी करें, जिससे आगे चलकर उन्हें पढ़ाने में कठिनाई न हो, जो एक अच्छी पहल है। अगर पीएच.डी. करने वाले शोधार्धी से यह अपेक्षा रखी जाती है, तो शिक्षक शिक्षा जैसे विशेषीकृत कार्यक्रम में मात्र अपने विषय का ज्ञान रखने वाले व्यक्ति भविष्य के शिक्षक कैसे तैयार करेंगे, यह एक व्यावहारिक समस्या है। इसलिए शिक्षक शिक्षा संस्थान में शामिल होने वाले व्यक्ति के लिए शिक्षाशास्त्र में कुशल होना आवश्यक किया जाए और यह महत्वपूर्ण निर्णय, बनाई जाने वाली कार्ययोजना में अवश्य शामिल किया जाए।

6. प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को आकर्षित करने की चुनौती- राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अपेक्षा की गई है कि प्रतिभाशाली या उच्च श्रेणी प्राप्त करने वाले विद्यार्थी-शिक्षक बनने के प्रति आकर्षित हों। प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को आकर्षित करने के लिए विद्यार्थीवृत्ति की व्यवस्था की गई है (अंक संख्या 15.5, पृष्ठ सं. 70)। यद्यपि विद्यार्थीवृत्ति का सुझाव प्रशंसनीय कदम है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। वास्तव में, प्रतिभा संपन्न व्यक्तियों को किसी भी व्यवसाय में आकर्षित करने के लिए उस क्षेत्र में शामिल होने के समान अवसर, सम्मानजनक वेतनमान, समाज में प्रतिष्ठा और उस व्यवसाय में काम करने के तरीके के साथ-साथ आगे बढ़ने के अवसर की अनुकूलता आवश्यक है। वर्तमान में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो किसी व्यक्ति को (केवल सरकारी या सरकारी सहायता प्राप्त संस्थानों में मिलने वाले वेतनमान को छोड़कर) शिक्षक बनने के लिए प्रेरित करता हो। सरकारी विद्यालयों में अध्यापन के साथ-साथ शिक्षक से जिस तरह का काम लिया जाता है, वह व्यवसाय की गरिमा और समाज में इसकी प्रतिष्ठा को गंभीर रूप से नुकसान तो पहुँचाता ही है, इसके साथ ही साथ उसके विद्यालयी कार्यों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। शिक्षकों का शैक्षणिक कार्यों से इतर कार्य करने के कारण सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की शैक्षिक प्रगति प्रभावित होती है वहीं निजी संस्थाओं में शिक्षकों का वेतनमान इतना कम है कि इस तरह कोई भी प्रतिभाशाली विद्यार्थी मात्र मजबूरी में ही शिक्षक बनने की सोच सकता है। दूसरी बात माँग एवं आपूर्ति के नियमों की अवहेलना कर जिस तरह से पिछले दशक में बी.एड. एवं डी.एल.एड. की निजी संस्थाओं को खोला गया, वह एक गंभीर चिंता का विषय है। कम गुणवत्ता वाले प्रशिक्षण (केवल कागज़ पर) प्रदान करे या वितरण के कारण दोयम दर्जे के शिक्षकों की फौज खड़ी हो गई है, जिसके परिणामस्वरूप डिग्री होने के बावजूद काम करने का अवसर न मिलने तथा मनरेगा की तुलना से भी कम (यहाँ तक कि 2500 से 4000 प्रतिमाह) वेतन पर शिक्षक बनने के लिए कोई भी प्रतिभाशाली व्यक्ति आकर्षित नहीं होगा। अतः अगर हम वास्तव में इस क्षेत्र में प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को आकर्षित करना चाहते हैं, तो हमें इस क्षेत्र में शामिल होने के लिए समान अवसर, सम्मानजनक वेतनमान, समाज में क्षेत्र की प्रतिष्ठा और उस व्यवसाय में काम करने के तरीके के साथ-साथ आगे बढ़ने के अवसर को भी सुनिश्चित करना होगा। अनावश्यक गैर-शैक्षणिक कार्यों से मुक्त कर शिक्षकों को शिक्षण का सम्मानजनक वातावरण प्रदान करना होगा।

7. नए पाठ्यक्रम को डिज़ाइन करने की चुनौती- राष्ट्रीय शिक्षा नीति में विद्यालय की शिक्षा संरचना को 5 + 3 + 3 + 4 (तीन से 18 साल के विद्यार्थियों के लिए) में बदल दिया गया है। मनोविज्ञान के अनुसार, मानव विकास के सात मुख्य चरण हैं— (शैशवावस्था, बाल्यावस्था, उत्तर बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था) इन चरणों में युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था के चरण का संबंध जीवन के लगभग 82 वर्ष (18 वर्ष से 100 वर्ष ) से है, जिसमें वैचारिक और शारीरिक परिपक्वता को छोड़कर कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं होता है, जबकि जन्म से लेकर 18 वर्ष की आयु तक मानव व्यक्तित्व में एक तेज़ और बहुआयामी परिवर्तन होता है, जो बच्चे की शारीरिक वृद्धि तथा मानसिक, सांवेगिक एवं सामाजिक विकास को प्रभावित करता है। इस काल को ही सीखने का सर्वोत्तम काल माना जाता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा की संरचना मनोविज्ञान के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर की गई है, लेकिन पाठ्यक्रम के प्रारूप के संबंध में कोई विशेष दिशा निर्देश नहीं है। बाल्यावस्था में बच्चे के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्तर (3 से 8 वर्ष ), उत्तर बाल्यावस्था (9 से 12) और किशोरावस्था (13 से 18) में होने वाले शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक परिवर्तनों के मद्देनज़र पाठ्यक्रम संरचना के लिए स्पष्ट मार्गदर्शन का अभाव अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को तुरंत लागू करने के लिए आवश्यक है कि नए पाठ्यक्रम का निर्माण तुरंत किया जाए। शिक्षक की भूमिका में एक बड़ी तब्दीली आई है, उसे अब तक ज्ञान के स्रोत के केंद्र रूप में स्थान मिलता रहा है और वही समूची सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का संरक्षक एवं प्रबंधक रहा है। अब उसकी भूमिका ज्ञान के स्रोत के बदले एक सहायक की होगी, जो सूचना को ज्ञान अथवा बोध में बदलने की प्रक्रिया में विविध उपायों से शिक्षार्थियों को उनके शैक्षणिक लक्ष्यों की पूर्ति में मदद करे (एन.सी.एफ़. 2005, पृष्ठ सं. 122)। इस चुनौती से निपटने के लिए रचनात्मक अधिगम पर आधारित शिक्षक-प्रशिक्षण पाठ्यक्रम की आवश्यकता होगी, जिसके लिए विशेषज्ञों की टीम गठित की जानी चाहिए तथा सी.बी.एस.ई., एन.सी.ई.आर.टी. एवं एस.सी.ई.आर.टी. आदि संस्थानों का सहयोग लेकर पाठ्यक्रम निर्माण की प्रक्रिया को अभियान की तरह निश्चित समय सीमा में पूर्ण किया जाना चाहिए, जिसमें नीति के साथ ही साथ विद्यार्थियों के विकास एवं वृद्धि के विभिन्न चरणों में होने वाले परिवर्तन, उनकी अभिक्षमता एवं उनके हितों के साथ -साथ समाज की ज़रूरतों और सांस्कृतिक विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम को निर्मित किया जाए।

8. शिक्षक शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता को बनाए रखने की चुनौती- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अनुसार माध्यमिक स्तर तक ड्रॉप आउट दर को शून्य प्रतिशत पर ला देना, उच्च शिक्षा में विद्यार्थियों का नामांकन 50 प्रतिशत तक बढ़ाना तथा प्रत्येक एकल शिक्षक शिक्षा की संस्थाओं को बहु-विषयी संस्था के रूप में विकसित करना है वर्ष 2030 तक सभी एकल संस्थाओं को बहु-विषयी संस्था के रूप में परिवर्तित करने का लक्ष्य रखा गया है। वर्ष 2030 के बाद मात्र बहु-अनुशासनात्मक संस्थानों में ही शिक्षक शिक्षा से संबंधित पाठ्यक्रम चलाए जा सकते हैं वर्तमान में भौतिक एवं मानवीय संसाधनों की उपलब्धता को देखते हुए यह लक्ष्य अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। स्वाभाविक रूप से इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, बड़ी संख्या में माध्यमिक विद्यालयों के साथ-साथ उच्च शिक्षा संस्थानों को खोलना होगा, जिसमें प्रशिक्षित शिक्षकों की आवश्यकता होगी। इसमें शिक्षकों के साथ -साथ भौतिक सुविधाओं की आवश्यकता होगी, जिसकी पूर्ति के लिए अधिक धन की आवश्यकता होगी। केंद्र सरकार आज सकल घरेलू उत्पाद का लगभग चार प्रतिशत ही खर्च कर रही है, जो उपरोक्त लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बहुत कम है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में इस समस्या को समाप्त करने के लिए बजट का छह प्रतिशत खर्च करने का सुझाव दिया गया है, जिस पर अमल करने की समय सीमा 2035 रखी गई है। साथ ही निजी क्षेत्र से धन के प्रबंधन के साथ -साथ संसाधनों के प्रबंधन की बात भी की गई है। वास्तव में केवल छह प्रतिशत के साथ उपरोक्त लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव है। अगर निजी क्षेत्र को आज की तरह ही शैक्षिक संस्थाओं के संचालन की अनुमति दी जाती है, तो गुणवत्ता पर प्रश्न-चिह्न लग जाएगा। शिक्षक शिक्षा की वर्तमान स्थिति के पीछे विभिन्न कारणों में अधिकांश निजी संस्थानों में व्याप्त भ्रष्टाचार और मुनाफ़ाखोरी सबसे अधिक ज़िम्मेदार है। बेशक, कुछ निजी शैक्षणिक संस्थान अच्छा काम कर रहे हैं। ऐसे में निजी क्षेत्र से पूंजी की प्राप्ति, बड़ी मात्रा में वित्तीय प्रबंधन, गुणवत्ता का सुनिश्चितीकरण और निजी संस्थाओं पर नियंत्रण एक बड़ी चुनौती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के कार्यान्वयन के लिए तैयार की जाने वाली योजना को उपरोक्त चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाना चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी नियामक संस्थाएँ निडर होकर काम करती हैं, तो इस चुनौती को पार करने में कोई विशेष बाधा नहीं होगी। मज़बूत इच्छाशक्ति, स्पष्ट कार्य योजना और पर्याप्त वित्तीय सहायता की आवश्यकता की पूर्ति के लिए सरकार, शिक्षक, प्रबंधन समिति एवं समाज सबकी निश्चित भूमिकाओं के निर्वाह की ज़रूरत है।

निष्कर्ष- शिक्षा, शिक्षार्थी और शिक्षक सभी का एक-दूसरे के साथ बहुत गहरा संबंध है, जहाँ शिक्षा, विकास की एक प्रक्रिया है, सीखने वाला उस विकास का लाभार्थी है तो शिक्षक इस पूरी प्रक्रिया का समन्वयक, निर्माता और प्रशासक है। इसीलिए शिक्षा की प्रक्रिया को गुणात्मक और प्रभावी बनाने के लिए इक्कीसवीं सदी की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 तैयार की गई है, जिसने शिक्षक शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया है। शिक्षक शिक्षा को एक नई दिशा देने के लिए जो सिफ़ारिशें और अपेक्षाएँ की गई हैं, उन्हें पूरा करने में कई चुनौतियाँ होंगी, जिनकी ऊपर चर्चा की जा चुकी है। यदि शिक्षा प्रक्रिया में शामिल सभी लोग पूरी ईमानदारी के साथ काम करते हैं, तो उपरोक्त चुनौतियों का हल ढूँढकर भारतीय शिक्षा प्रणाली को फिर से विश्वस्तरीय बनाया जा सकता है। इसके लिए सिर्फ़ सरकार, समाज, शिक्षक, प्रबंध समिति एवं विद्यार्थियों के प्रयासों की ज़रूरत है।

सन्दर्भ सूची-

  1. अलतेकर, ए. एस. 2014. प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति. अनुराग प्रकाशन, वाराणसी.
  2. आप्टे , वी. एस. 1999. संस्कृत-हिंदी कोश. भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली.
  3. कुमार, एन. 2016. अध्यापक शिक्षा. अर्जुन पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली.
  4. नेशनल काउंसिल फ़ॉर टीचर एजुकेशन. 2009. नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क फ़ॉर टीचर एजुकेशन. एन.सी.टी.ई., नयी दिल्ली.
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  6. 1998. नेशनल एजुकेशन पॉलिसी (ऐज मोडिफ़ाईड 1992). 12 दिसंबर, 2020 को https://www.education.gov.in/sites/upload_files/mhrd/files/document-reports/NPE86-mod92.pdf से प्राप्त किया गया.
  7. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्. 2006. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005. रा.शै.अ.प्र.प., नयी दिल्ली.
  8. 2010. पर्सपेक्टिव ऑन नई तालीम. रा.शै.अ.प्र.प., नयी दिल्ली.
  9. शर्मा , वी.पी और आर. शर्मा. 2015. अध्यापक प्रशिक्षण तकनीक. अर्जुन पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली.
  10. शिक्षा मंत्रालय. 2020. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020. भारत सरकार, नयी दिल्ली. 12 दिसंबर, 2020 को https://www.mhrd.gov.in/sites/upload_files/mhrd/files/NEP_final_HINDI_0.pdf से प्राप्‍त किया गया.

कठौतिया के शैलचित्र – पाषाण कालीन मानव सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक

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कठौतिया के शैलचित्र – पाषाण कालीन मानव सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक

योगेन्द्र सिंह चंदेल

शोधार्थी इतिहास

बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल

yschandel24@gmail.com

डा.बी.सी. जोशी

शोध निर्देशक प्राध्यापक

शा. नर्मदा महाविद्यालय, नर्मदापुरम

सारांश

मध्य प्रदेश का सीहोर जिला पाषाण कालीन मानव सभ्यता और संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रहा हैं। इस क्षेत्र में पाषाण काल के मानव ने अपने जीवन का बहुत लम्बा समय व्यतीत किया है। मानव सभ्यता की अनमोल घरोहर शैलचित्र यहाँ पर आज भी सुरक्षित है, जिनको हम देख सकते है। सीहोर जिले की इच्छावर तहसील के कठौतिया क्षेत्र में प्राकृतिक चट्टानों, गुफाओं एवं कंदराओं में पाषाण कालीन शैलचित्र उकेरे गये है। पाषाण काल के मानव ने अपनी सभ्यता, संस्कृति, भाव तथा विचारों को शैलचित्रों के माध्यम से व्यक्त किया है। यहाँ से प्राप्त शैलचित्र पाषाण कालीन मानव के रहन-सहन तथा उनकी दैनिक जीवन शैली को प्रदर्शित करते हैं। शैलचित्रों में आकृतियों का निर्माण ज्यामितिय रेखाओं तथा आकारों की सहायता से किया गया हैं। यह शैलचित्र प्राकृतिक खनिज रंगो की सहायता से पाषाण की चट्टानों पर बनाये गये है। यहाँ से प्राप्त शैलचित्रों का विषय आखेट, पशु, पक्षी, मानव आकृति, सर्प आकृति आदि हैं। भारत में सबसे ज्यादा शैलचित्र मध्य प्रदेश से प्राप्त हुए हैं और मध्य प्रदेश में सबसे अधिक पाषाण कालीन शैलचित्र सीहोर जिला और उसके आस-पास के क्षेत्रों से ही मिले हैं।

बीज शब्द:- कठौतिया, पाषाण मानव, पाषाण कालीन, शैलचित्र, आखेट, पशुचित्रण, मानव, आकृति।

शोध आलेख:-

मध्य प्रदेश का सीहोर जिला प्राचीन मानव सभ्यता और संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रहा हैं। यहाँ पर पुरापाषाण काल, मध्य पाषाण काल और नवपाषाण काल के मानव ने अपने जीवन का बहुत लम्बा समय व्यतीत किया है। मानव सभ्यता की अनमोल धरोहर यहाँ पर आज भी सुरक्षित है, जिसको हम देख सकते हैं। सीहोर जिले की इच्छावर तहसील के कठौतिया गाँव में पाषाण शिलाओं पर शैलचित्र उकेरे हैं। प्राचीन युग के मानव ने शैलचित्रों के निर्माण में सफेद खड़िया मिट्टी, गेरू और मुरम पावडर का उपयोग इन शैलचित्रों को बनाने में किया होगा, ऐसा अनुमान इनको देखने पर लगता हैं। समय के साथ ही यह रंग इतने गहरे हो गये हैं कि हजारों साल गुजरने के पश्चात भी यह रंग खत्म नहीं हुए हैं।

सीहोर जिले के कठौतिया गाँव के शैलचित्रों का अध्ययन कर पुरातत्ववेताओं द्वारा यह प्रमाणित किया गया कि शैलचित्रों पाषाणकालीन मानव के निवास स्थल थे। अवकाश के समय मानव द्वारा अपनी कल्पना को साकार करने का कार्य किया गया है। सीहोर जिले के कठोतिया में सुन्दर कलात्मक और सृजनात्मक शैलचित्रों की पुरा सम्पदा आज भी पर्यटकों को अपनी और आकृषित करती हैं।

कठौतिया में पाषण की गुफाओं औंर पहाड़ी चट्टानों पर विभिन्न विषयों का चित्राकंन देखने को मिलता है। इन चित्रों को देखकर पाषाणकाल के मानव की कल्पनाशक्ति, विचारशीलता तथा रचनात्मकता का पता चलता है। कठौतिया में प्राप्त शैलचित्रों को उनकी विषयवस्तु के आधार पर निम्न प्रकार से विभाजित करके गहन अध्ययन किया गया है:-

  1. पशुचित्रण शैलचित्र।
  2. आखेट शैलचित्र।
  3. पक्षी शैलचित्र।
  4. सर्पाकन शैलचित्र।
  5. मानव आकृति शैलचित्र।

1 पशुचित्रण शैलचित्र: –

पाषाणकालीन मानव ने कठौतिया क्षेत्र में स्थित चट्टानों, शिलाओं पर पशुओं के शैलचित्र बनाये हैं। इन चित्रों में पशुओं का आखेट चित्रण कुशलता के साथ किया गया है। इन आकृतियों के साथ ही यहाँ के शैलचित्रों में अनेक रूपों में पशुचित्रण देखने को मिलता हैं। इन पशुओं में गाय, वृषभ, हिरण, बारहसिंगा आदि पशु यहाँ पर अकेले तथा समूह के रूप में भी चित्रित किये गये हैं। इस क्षेत्र में अश्व का चित्रण अकेले तथा आरोहियों के साथ में देखा जा सकता है। पाषाण कालीन मानव ने पशु शैलचित्र में उनके यथार्थ रूप को चित्रित करने के साथ ही मानव ने पशुओं की विशेषताओं व गुणों की व्यजंना भी कुशलतापूर्वक कर अपने कला कौशल का सुन्दर परिचय दिया हैं। यहाँ से प्राप्त पशुओं के शैलचित्रों को देखकर प्रतीत होता हैं कि इनमें पशुओं की गति, शक्ति तथा फूर्ति को अत्यन्त कलात्मक रूप में प्रस्तुत किया हैं।

यहाँ का अवलोकन करने से पता चलता हैं कि इस क्षेत्र में पशु चित्रण से सम्बन्धित शैलचित्र अधिक संख्या में हैं। नवपाषाण काल के सन्दर्भ में ज्ञात होता हैं कि मानव पशुपालन तथा खेती बाडी करने लगा था। इस प्रकार यह अनुमान लगाया जा सकता हैं कि मानव इस काल में पशुओं के निरन्तर सम्पर्क में रहा और दैनिक जीवन में पशुओं से प्राप्त होने वाले सहयोग के कारण पशुओं के प्रति मानव का स्नेहभाव पशुचित्रण शैलचित्र के लिए प्रेरणादायक बना।

कठौतिया क्षेत्र से प्राप्त एक शैलचित्र में पशु का समूह के रूप में चित्रण किया गया है। यह शैलचित्र देखने में अत्यंत आर्कषण प्रतीत होता है। लाल तथा सफेद रंग से इसका सुन्दर निर्माण किया गया है। इसको देखकर ऐसा लगता हैं कि पशु साथ-साथ पक्तिबद्ध होकर विचरण कर रहे है। शैलचित्र में सबसे ऊपर गाय के समान एक बड़ा पशु चित्रित किया गया हैं। इसमें नीचे पक्ति के रूप में संयोजित अन्य पशु हिरण तथा बारहसिंगा जैसे दिख रहे हैं, जिनमें से कुछ पूरक शैली तथा अन्य अंलकृत शैली में बनाये गये हैं। यह शैलचित्र अपने रूप संयोजन तथा शैलीभेद से अत्यन्त कलात्मक दिखाई देता है। पाषाण काल के मानव की कलात्मक अभिव्यक्ति का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता हैं ।

कठौतिया के शिलाखण्ड पर उत्कीर्ण एक अन्य विचित्र प्रकार के पशु का चित्रांकन देखने को मिलता है, जो वृषभ के समान तथा सींग बारहसिंगा के जैसे बनाए गये हैं। यह चित्र पूरक शैली में गेरूए रंग से बना हुआ हैं। इसकी पूछ में केश दिखाने के लिए प्रयुक्त छोटी रेखाएँ तथा श्रृंग में विस्तार प्रदर्शित करने हेतु प्रयोग की गई रेखाओं से संगति का प्रभाव दृष्टिगत हो रहा है। इस शैलचित्र में मानव द्वारा विचित्र पशु की कल्पना करके उसको कलात्मक रूप में प्रदर्शित किया गया हैं।

पुरासम्पदा की दृष्टि से प्रसिद्ध सीहोर जिले के कठौतिया क्षेत्र में एक गर्भस्थ पशु का चित्रण भी यहाँ के शैलचित्रों में मिला है। गेरूए रंग से बना यह पशु गाय जैसा लगता है। इस चित्रांकन में पशु के शरीर के मध्य भाग में लम्बवत् रेखा में गर्भ स्थान को अलग किया गया हैं। इस शैलचित्र में गर्भ में बच्चे का चित्रांकन विपरीत स्थिति में किया गया दिखाई दे रहा हैं। बच्चे का मुख गाय के सदृश्य एक ही दिशा में बनाया गया हैं। गेरूए रंग से बने इस रेखीय चित्र में सींग पूरक शैली में बने है। मुख गर्दन तथा पैरों में बारीक रेखाओं का प्रयोग किया गया हैं। शैलचित्र का अवलोकन करने से ज्ञात होता हैं कि पशु के गर्भस्थ स्वरूप का चित्रांकन पाषाण युग के मानव की बौद्धिकता और उसकी कल्पनाशक्ति का प्रतीक हैं। गर्भ में बच्चे का चित्रांकन कर पाषाणकालीन मानव ने जीवन के सृजन को प्रस्तुत किया है। इस शैलचित्र में मातृत्व भाव की अभिव्यंजना इस चित्र की विशेषता तथा कलात्मकता प्रदर्शित करती हैं ।

2-आखेट शैलचित्र:-

पाषाणकाल का मानव जानवरों का शिकार करके अपने जीवन के लिए भोजन की आवश्यकता की पूर्ति करता था। अवकाश के क्षणों में पुरा मानव द्वारा अपने आश्रय स्थलों पर इस विषय से सम्बन्धित चित्रांकन किया जाता था। कठौतिया से आखेट सम्बन्धी शैलचित्र भी प्राप्त हुए हैं। पुरातत्ववेताओं के अनुसार आखेट सम्बन्धी शैलचित्र सर्वाधिक प्राचीन माने गये हैं। इन चित्रों को देखकर लगता है कि प्राचीन मानव ने जंगली पशुओं से अपनी रक्षा करने तथा उस समय की विषय परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने की भावना को चित्रांकन के माध्यम से व्यक्त किया हैं। सीहोर जिले के पाषाणकालीन स्थल कठौतिया में आखेट सम्बन्धी अनेक शैलचित्रों को देखा जा सकता हैं।

कठौतिया क्षेत्र से आखेट सम्बन्धी जो शैलचित्र मिले हैं उनमें हिरन, शेर, सुअर, बैल आदि पशुओं का आखेट दिखाई देता है। यहाँ पर शेर के शिकार का शैलचित्र प्राप्त हुआ है, जिसमें शेर के आगे तथा पीछे दो-दो मानव आकृतियां धनुष लिए चित्रित की गई हैं। इस शैलचित्र में एक मानव आकृति नीचे की तरफ चित्रित है जिसका अंकन आखेट दृश्य से अलग दिखाई पड़ रहा है। इसमें शेर का चित्रण रेखा शैली किया गया हैं मुख तथा कान पूरक शैली में बने हैं। शरीर का जो भाग है वह भी रेखाओं के माध्यम से बनाया गया है। शेर का सम्पूर्ण चित्रांकन रेखांकन शैली में कलात्मक दिखाई देता है। शेर के मुख के पास रक्त की बून्दे भी चित्रित हैं। मानव की मुद्रा इस क्षेत्र से प्राप्त एक अन्य शैलचित्र में जंगली सुअर के आखेट का चित्रांकन देखने को मिलता है, जिसमें मानव आकृतियाँ भाले से सुअर पर वार कर रही हैं। इस शैलचित्र में सुअर का चित्रण अर्द्धपूरक शैली में किया गया है। उदर भाग में कोणिय रेखाओं का प्रयोग किया गया है। शेष शरीर में रंग भरा गया हैं। इस चित्रांकन में पशु का खुला मुख उसकी पीडा व करूणा के भाव को दिखा रहा है। इस शैलचित्र में सुअर के समीप एक अन्य पशु भी अंकित है। इस शैलचित्र में पशु तथा आखेटक दोनों के पैर की रचना से गति का आभास होता हैं। इन शैलचित्रों को देखने से प्रतीत होता हैं कि पाषाण काल के मानव की रचनात्मक कुशलता तथा रूप ज्ञान की समझ से आखेट की स्थिति का यथार्थ तथा सजीव चित्रांकन कितनी कुशलता से किया गया है। दोनो शैलचित्र लाल रंग से निर्मित है। पुरातत्ववेताओं के अनुसार यह शैलचित्र संभवतः मध्य पाषाण कालीन हैं।

पक्षी शैलचित्र:-

यहाँ पर एक शैलचित्र में सारस पक्षी का विशाल तथा आर्कषक अंकन प्राप्त हुआ है। इस चित्रण में एक बडा सारस पक्षी अपने छोटे बच्चों को दाना (आहार) देता प्रतीत हो रहा है। सारस की लम्बी गर्दन सामने नीचे की और झुकी हुई दिखाई दे रही है। पुरातत्ववेताओं के द्वारा सारस पक्षी की माप चोंच से पंजे तक सात फीट ज्ञात की गई है। सारस पक्षी का यह विशाल शैलचित्र माना जा सकता है। यह गेरूए रंग से बना हुआ है। इसका चित्रण अर्द्धपूरक तथा अंलकृत शैली में किया गया है। सारस पक्षी के शैलचित्र को देखकर लगता हैं कि इसके अंकन में अत्यन्त कुशलता और परिश्रम से इसका निर्माण किया गया है। इस शैलचित्र में रूप-संयोजन तथा भाव-भगिंमा इसको विशिष्ट बनाती हैं। पाषाणकालीन मानव ने इसमें वात्सल्य भावना का कलात्मक चित्रण प्रस्तुत किया है। पुरातत्ववेताओं के अनुसार यह शैलचित्र मध्यपाषाण काल का हो सकता हैं।

सर्पाकन शैलचित्र:-

सीहोर जिले की इच्छावर तहसील के कठौतिया गाँव में शैलाश्रय क्षेत्र में अंलकृत शैली में लाल तथा सफेद रंग से बना सर्प का विशिष्ट चित्रांकन मिला है। यह शैलचित्र लगभग 06 फीट लम्बा है। यह शैलचित्र द्विवर्णीय सुन्दर रंग-संयोजन में चित्रित किया गया है। सर्प चित्रांकन की आकृति को आयताकार खानों में विभाजित करके कुछ खानों को रंग से भरा गया है तथा कुछ आयात में तंरग के समान रेखा से सुन्दर अंलकरण दिखाई देता है। सर्प के मुख भाग में लाल रंग का प्रयोग किया गया हैं। इस शैलचित्र का रूपाकंन बहुत ही अद्भूत तथा कलात्मक प्रतीत होता हैं। यह सुन्दर रंग-संयोजन के साथ ही आर्कषक अंलकरण से परिपूर्ण प्रतीत होता हैं। यह शैलचित्र पाषाणकालीन मानव की कला के प्रति अभिरूचि तथा सृजनात्मकता का प्रतीक हैं।

पुरातत्ववेताओं के अनुसार सर्पाकृति का स्पष्ट शैलचित्र अभी तक सभवतः कहीं से भी प्राप्त नहीं हुआ है। शैलचित्रों के सम्बन्ध में अभी तक की गई खोजों के आधार पर इतिहासकारों का कहना हैं कि इतने दीर्धस्वरूप तथा अंलकृत सर्प शैलचित्र का चित्रण संभवता विश्व में किसी भी क्षेत्र में प्राप्त नहीं हुआ है। इस प्रकार कह सकते हैं कि कठौतिया का सर्प शैलचित्र पाषाण कालीन मानव की चित्रकला का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता हैं।

मानव आकृति शैलचित्र:-

पाषाण कालीन पुरातात्विक स्थल कठौतिया में शैलचित्रों का अध्ययन करने से पता चलता हैं कि यहॉ से अनेक ऐसे शैलचित्र प्राप्त हुए है जिनमें मानव को अनेक प्रकार के क्रियाकलापों में प्रदर्शित किया गया है। शिकार करते हुए मानव का चित्रण तो अधिकांश किया ही गया है, इसके साथ ही मानव नृत्य करते हुए, धार्मिक क्रियाकलाप करते हुए, बजन उठाते हुए तथा युद्ध के दृश्यों में मानव का चित्रण यहाँ के शैलचित्रों में देखने को मिलता है। कठौतिया के शैलचित्रों में पुरूष आकृतियों के साथ ही स्त्री की आकृतियाँ भी चित्रित की गई हैं। स्त्री आकृति का चित्रण अनाज संग्रहण करते हुए, कूटते तथा पीसते हुए, बच्चे को स्तनपान कराते हुए किया गया हैं।

एक शैलचित्र में नृत्य करते हुए मानव समूह का अत्यन्त मनमोहक चित्रण किया गया है। यह चित्र लाल तथा सफेद रंगों से बना है। नृत्यरत् मानव की आकृतियाँ ज्यामितिक आकारों तथा अलंकृत शैली में चित्रित की गई है। शैलचित्र में नीचे दिखाई दे रहे मानव समूहों का हाथों का रेखांकन सयुंक्त रूप से इस प्रकार से किया गया हैं कि समस्त एक-दूसरे का हाथ पकड़कर नृत्य करते हुए दिखाई दे रहे हैं। इस चित्रण में कुछ मानव आकृतियों के एक पैर का रेखांकन नहीं किया गया है, शायद एक पैर को मोड़कर नृत्य करने की मुद्रा को दिखाने के लिए ऐसा चित्रण किया गया होगा। नृत्य मुद्राओं में मानव आकृति का इतनी कलात्मकता के साथ चित्रांकन करना पाषाणकालीन मानव की चित्रण-निपुणता को दिखाता है। इतिहासकारों के अनुसार यह शैलचित्र मध्य पाषाण काल का प्रतीत होता हैं।

कठौतिया की पाषाण निर्मित शिलाओं पर गायन तथा नृत्य करते हुए मानव आकृतियों का चित्रण प्राप्त होता है। यह चित्रण गेरूए रग से किया गया है, इस चित्रण में मध्य भाग में अंकित एक बड़ी मानव आकृति संभवता कोई वाद्य यन्त्र बजा रही है, जिसकी धुन पर अन्य मानव आकृतियाँ नृत्य करती हुई दिखाई दे रही हैं। चित्रण के दाहिनी तरफ विभिन्न क्रियाओं में रत सूक्ष्म मानव रूप दिखाई देते हैं। इसमें कुछ मानव स्वरूप एक-दूसरे के कन्धे पर बैठकर नृत्य करते दिखाये गये हैं। इस चित्रण में मानव आकृतियों का चित्रण पूरक तथा रेखीय विधि से किया गया है। यह शैलचित्र प्राचीन मानव की खुशी तथा उत्साह को प्रकट करता है। यह चित्र उनकी सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रकट करता है। इस चित्रण में रूपसंयोजन आकर्षक तथा भावना प्रद्यान है। शैलचित्र में गति के साथ लयात्मकता भी पता चलती है। मानव की मुद्राओं का अत्यन्त कलात्मकता के साथ चित्रण किया गया है। पुरातत्ववेताओं के अनुसार यह शैलचित्र प्राचीन ताम्रकालीन समय का प्रतीत होता हैं।

एक शैलचित्र स्त्री मानव आकृति का है। यह स्त्री खाद्य प्रदार्थ को कूटते हुए दिखाई दे रही है। यह सम्पूर्ण चित्रण रेखीय विधि से बना हुआ है। इसको देखकर लगता हैं कि अल्प रेखाओं से समस्त आकृति में मुद्रा तथा भाव का सुन्दर चित्रण किया है। अन्य मानव आकृतियों के शैलचित्र भी यहाँ से प्राप्त हुए हैं।

निष्कर्ष:-

सीहोर जिले के कठौतिया में जो पाषाणकालीन शैलचित्र प्राप्त हुए है उनका विश्लेषण करने से ज्ञात होता हैं कि पाषाण कालीन मानव द्वारा अत्यन्त निपुणता से शैलचित्रों में रेखांकन किया गया है। उकेरे गये चित्रों में विषय वस्तु की विविधता दिखाई देती हैं। शैलचित्रों में उत्तम रूप रचना तथा संयोजन तथा कलात्मकता स्पष्ट दिखाई देती हैं। चित्रांकन में भावों की अभिव्यक्ति इनकी विशेषता है, जिसमें हर्ष, उत्साह, शौर्य और वात्सल्य आदि भाव दृष्टिगत होते हैं।

शैलचित्रों में विभिन्न भावों के साथ ही चित्रांकन में लय, गति, संतुलन, कल्पनाशीलता का सुन्दर समावेश दिखाई देता हैं।

पाषाण कालीन मानव की सभ्यता और संस्कृति के सम्बन्ध में यह शैलचित्र महत्वपूर्ण हैं।

सन्दर्भ सूची :-

  1. जगदीश गुप्ता-प्रागैतिहासिक भारतीय चित्रकला, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1967 पृष्ठ 101-102
  2. शंकर तिवारी-रॉक आर्ट ऑफ इण्डिया, अर्नाल्ड हायनमैन, दिल्ली, 1984 पृष्ठ 228-238
  3. के.के. मुहम्मद-रॉक आर्ट एण्ड आर्कियोलॉजी ऑफ इण्डिया, आगम कला प्रकाशन, दिल्ली, 2008 पृष्ठ 45-52
  4. एस.के. पाण्डेय-इण्डियन रॉक आर्ट, आर्यन बुक्स इंटरनेशनल, दिल्ली पृष्ठ 1-2
  5. डा. रामकुमार अहिरवार -मध्य प्रदेश के सीहोर जिले में बोद्ध धर्म पाठक पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, 2020, पृष्ठ-2
  6. डा.एस.एल.वरे -मध्य प्रदेश का इतिहास एवं संस्कृति, कैलाश पुस्तक सदन, भोपाल, 2021, पृष्ठ-9
  7. आर.आर. सिंह-रॉक आर्ट एण्ड आर्कियोलाजी ऑफ इण्डिया, 2008, पुष्ठ 41-42
  8. शंकर तिवारी-प्राच्टा प्रतिभा, वाल्यूम न. 2 भोपाल, 1976, पृष्ठ 62-80
  9. शिव अनुराग पटैरया-मध्य प्रदेश अतीत और आज म.प्र. हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल, 2021 पृष्ठ-5
  10. आयुक्त, पुरातत्व, अभिलेखागार एवं संग्रहालय, म.प्र. भोपाल – इतिहास पुरातत्व संस्कृति एवं पर्यटन, 2010, पृष्ठ-23
  11. डा. किशौर अग्रवाल-आधुनिक भारतीय चित्रकला, किताब घर, दिल्ली 1994
  12. डा. दिनेश चन्द्र गुप्ता -भारत की चित्रकला, धर्मा प्रकाशन, इलाहाबाद 2005

प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय रचित ‘जयशंकर प्रसाद: महानता के आयाम’ की विश्वमानवता की भूमिका रचती सूक्तियाँ- डॉ. सुशीलकुमार पाण्डेय ‘साहित्येन्दु’

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पुस्तक समीक्षा

प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय रचित ‘जयशंकर प्रसाद: महानता के आयाम’ की विश्वमानवता की भूमिका रचती सूक्तियाँ

-डॉ. सुशीलकुमार पाण्डेय ‘साहित्येन्दु’

ग्रन्थ-जयशंकर प्रसाद: महानता के आयाम

ग्रन्थकार-प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय

प्रकाशक-राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।

संस्करण-प्रथम, 2022

मूल्य– रु0 1495/-

पृष्ठ-463 (सजिल्द)

सूक्ति का आशय है अच्छी उक्ति, बढ़िया बात। अच्छी उक्ति प्रसन्नता प्रदायक होती है, बढ़िया बात दिल में घर कर जाती है। सूक्तियाँ ‘रस’ का स्रोत तथा ‘आनन्द’ की स्रोतस्विनी होती हैं। किसी ग्रन्थ की उत्तमता और लोकप्रियता में उसकी सूक्तियों का विशेष योगदान होता है। कालिदास तुलसीदास और जयशंकर प्रसाद की सूक्तियों ने ही उन्हें जन-जन का कण्ठहार बना दिया है। मुम्बई विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो0 करुणाशंकर उपाध्याय ने एकतीस वर्षों तक निरन्तर प्रसाद साहित्य सागर का तपोनिष्ठ आलोडन विलोडन कर ‘‘जयशंकर प्रसाद: महानता के आयाम’’ नामक 463 पृष्ठों का ग्रन्थ रचा है, जिसकी सूक्तिसुधा में ज्ञान का उन्मेष, प्रज्ञा का प्रकाश तथा मेधा का माहात्म्य समाहित है। इन सूक्तियों के पारायण से चिन्तन के नवीन गवाक्ष और मनन के नूतन परिसर परिलक्षित होते हैं। भारतीय साहित्य में सूक्तियों की महत्ता प्राचीनकाल से ही रही है। योगवाशिष्ठ का कथन है कि-‘महान व्यक्तियों की सूक्तियां अपूर्व आनन्द को देने वाली, उत्कृष्टतर पद पर पहुँचाने वाली और मोह को पूर्णतया दूर करने वाली होती हैं।1’’

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            प्रो0 उपाध्याय के पास शब्दसम्पदा तथा अर्थगौरव का अमेय भण्डार है। वे बहुश्रुत तथा बहुपठित हैं। उनका स्वाध्याय संसार विपुल है। वे लिखते हैं कि- ‘यदि जयशंकर प्रसाद का संवेदनात्मक व्यक्तित्व कालिदास, भारवि और भवभूति का समन्वित रूप है तो उनका बौद्धिक व्यक्तित्व बृहस्पति की मेधा, शुक्राचार्य की कुशाग्रता, बुद्ध की करुणा, चाणक्य की तेजस्विता, शंकराचार्य की तर्कशक्ति एवं दार्शनिकता का संश्लेषण है’ (पृ0-99)। इस वाक्य में भारतीय सांस्कृतिक, साहित्यिक तथा ऐतिहासिक जगत् का लेखा-जोखा है। इस कथन में वर्णित विषय अपूर्व आनन्ददायक, ज्ञानपिपासा को तीव्र करने वाला तथा व्यर्थ के सांसारिक प्रपंचों के मोह से मुक्ति दिलाने वाला है। सूक्तियों का रस पान करने के लिए सहृदयता की आवश्यकता होती है। विष्णु के समान हृदय को कोमल एवं विशाल बनाना पड़ता है। बाणभट्ट ने कहा है कि-‘‘जैसे अमृत भी राहु के कंठ से नीचे नहीं उतर पाता, वैसे ही निर्मल मनोहर सूक्तियाँ भी दुष्टों के गले नहीं उतर पाती, किन्तु हृदय पर निर्मल कौस्तुभमणि धारण करने वाले भगवान विष्णु के समान सज्जन उन्हें ही अपने हृदय में धारण कर लेते हैं।2

            प्रो0 उपाध्याय ने प्रसादसाहित्यसागर में डूब उतरा कर उसके सूक्तिरत्नों का अन्वेषण किया है। प्रसाद का साहित्य तो स्वयं में सूक्तियों का  अनन्त आकाश है पर प्रो0 उपाध्याय की लेखनी जब प्रसाद साहित्य की समीक्षा करती है तो वह स्वयं सूक्तिपरक हो जाती है। यह सूक्ति प्रसादसाहित्य के लिए उपयोगी परन्तु ग्रन्थ की महत्ता संवर्धन में परम उपयोगी हैं। कुछ सूक्तियाँ तो सीधे हृदय में उतर जाती है जैसे- ‘प्रतिभाएँ विरल होती हैं। और प्रतिभा को सराहना सबसे कठिन कार्य है’ (पृ0-1)। प्रतिभा को पहचानने वाला भी विरल होता है। मणि विरल होता है पर पारखी जौहरी भी अति विरल होते हैं। प्रसाद की बहुज्ञता पर प्रो0 उपाध्याय लिखते हैं कि ‘इनका (प्रसाद का) सृजन और चिन्तन, दोनों ही बृहदफलकीय और गहनस्तरीय है’ (पृ0-19)। यहाँ सृजन और चिन्तन शब्द अपने साधारण अर्थों से आगे के अर्थ, अर्थात उनकी विलक्षणता के द्योतक हैं। प्रो0 उपाध्याय की मान्यता है कि ‘स्वप्न देखना बड़े मनुष्य और व्यक्तित्व का लक्षण है’। (पृ0-21) ‘जयशंकर प्रसाद भारतीय मनीषा के रससिद्ध मनीषी हैं’। (पृ0-22)

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            स्वप्न को यथार्थ में बदलने वाला ही ‘पुरुष’ है। मनीषा से युक्त को मनीषी कहते हैं। प्रो0 उपाध्याय ने मनीषा और मनीषी के माध्यम से ज्ञान और ऋषि तत्व में नूतन गरिमा का संचार किया है। सूक्तियों से रचना का स्थायीत्व संवर्धित होता है। सूक्तियाँ पाठक पर जादू का असर डालती हैं, सम्मोहित कर लेती है। नीलकंठ दीक्षित ने लिखा है कि- ‘जिस प्रकार बालू में पड़ा हुआ पानी वहीं सूख जाता है, उसी प्रकार संगीत भी केवल कान तक पहुँच कर सूख जाता है। परन्तु कवि की सूक्ति में ही ऐसी शक्ति है कि वह सुगन्धयुक्त अमृत के समान हृदय के अन्तस्तल तक पहुँच कर मन को सदैव आनन्दित करती रहती है।’3

            प्रो0 उपाध्याय ने प्रसाद साहित्य का मनोयोग पूर्वक पारायण, भक्तिपूर्वक पाठ, विवेकपूर्वक नीरक्षीर विवेचन तथा गहन समीक्षण किया है। यही कारण है कि उनकी सूक्तियाँ सीधे पाठक के हृदय में उतर जाती हैं। वे लिखते हैं कि ‘प्रसाद का व्यक्तित्व निरन्तर विकासमान-सुसंगठित और गत्यात्मक है’ (पृ0 103)। ‘प्रसाद जी अन्तर्दृष्टि और विश्व संदृष्टि सम्पन्न कवि हैं जिनका काव्य-विकास समूचे आधुनिक हिन्दी काव्य की विकास-यात्रा का सार-संक्षेप जैसा है’ (पृ0 113)। प्रसाद की संवेदना इतनी तीव्र थी कि वह स्वयं उनके लिए एक समस्या हो उठती थी’ (पृ0-119)।

            इन वाक्यों में आचार्य का चिन्तन है, जिज्ञासु की जिज्ञासा का समाधान है। ‘गत्यात्मक’, ‘अन्तर्दृष्टि’ तथा ‘संवेदना’ ऐसे शब्द हैं जो सरस्वती की वीणाध्वनि की ओर संकेत करते हैं। नपे-तुले शब्दों में अथाह भावभरित सूक्तियों की रचना करना प्रो0 उपाध्याय की मेधा की पहचान है। सूक्तियाँ एक ओर ज्ञान गरिमा गागर हैं तो दूसरी ओर आनन्द का अगाध सागर भी। चाणक्य का कथन है कि – संसार रूपी कटु वृक्ष के यह दो फल अमृत के समान हैं-एक तो सुभाषित का रसास्वादन और दूसरा सज्जनों का समागम।4 आचार्य उपाध्याय ने जब इस ग्रन्थ को लिखने को सोचा होगा तब उन्हें प्रसाद साहित्य परिसर के अगाध विस्तार का अनुमान हुआ ही होगा पर प्रशंसनीय है उनका धैर्य जो उन्हें निरन्तर बल संबल देता रहा और पथ विचलन से बचाता रहा। जब लेखक समर्पित भाव से ‘तदाकाराकारित’ होकर लिखता है तब उसकी लेखनी कालजयी बन जाती है। इतिहास की समीक्षा और वर्तमान की परीक्षा कर स्वर्णिम भविष्य की पृष्ठभूमि रचती है।

प्रो0 उपाध्याय लिखते हैं कि- ‘प्रसाद की विश्वदृष्टि अपने वैश्विक परिदृश्य के प्रति अतिशय सचेष्ट थी’ (पृ0-26)। ‘प्रसाद का सम्पूर्ण साहित्य गहन सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार और अंग्रेजी सत्ता के प्रति दाहक विद्रोह का समुच्चय है’ (पृ0-31)। जयशंकर प्रसाद का संपूर्ण साहित्य-भारतीयता के संधान और निर्माणक तत्त्वों से परिपूर्ण है (पृ0-39)। विश्व दृष्टि वैश्विक परिदृश्य’ ‘दाहक विद्रोह’ आदि शब्द सूक्तियों को प्राणवंत कर देते हैं। ये वाक्य प्रसाद के साहित्यप्रसाद के आधार स्तम्भ है।

सूक्तियों की रसवत्ता से लोकमन सिचिंत हो जाता है। एक परम्परागत कथन है कि- ‘सुभाषित के रस के आगे द्राक्षा म्लानमुखी हो गई, शर्करा सूख कर पत्थर जैसी या किरकिरी हो गई और सुधा भयभीत होकर स्वर्ग को चली गयी’।5 भले ही उक्त कथन में किसी को अतिरंजना लगे परन्तु उसमें यथार्थता का पूर्ण समावेश है। सूक्तियों से जो परमानन्द की अनुभूति होती हैं, वह अवर्णनीय है। इसी परिप्रेक्ष्य में काव्य के उद्देश्य के प्रकरण में आचार्य मम्मट ने ‘‘सद्यः परनिर्वृत्तये’’ शब्द का प्रयोग किया है। काव्य तत्काल आनन्द देने वाला होता है। अंगूर और शर्करा की मधुरता तात्कालिक होती है। सुधा कब मिले, न मिले कौन जानता है ? सुधा प्राप्ति के लिए सागर मंथन करना पड़ेगा पर सूक्ति तो तत्काल आनंद देती है। प्रो0 उपाध्याय के शब्दों में ‘इनके (प्रसाद के) काव्य के सभी रूपों में उसके अन्तरंग और बहिरंग का जो सर्वांगपूर्ण ऐश्वर्य प्रस्तुत हुआ है वह हिन्दी साहित्य की अनमोल निधि है’ (पृ0-43)। ‘प्रसाद का संपूर्ण लेखन विश्वस्तरीय एवं सार्वभौम शाश्वत महत्त्व का है’ (पृ0-44)। ‘प्रसाद जी राष्ट्र प्रेम, मानवीय प्रेम, नारी सौन्दर्य और पलपल परिवर्तित प्रकृति वेश के अप्रतिम चित्रकार हैं’ (पृ0-48)।

            प्रो0 उपाध्याय ने ‘अनमोल निधि’ कह कर प्रसाद साहित्य की जो गुरुता स्थापित कर दी वह बस अनुभव के योग्य है। ‘विश्वस्तरीय’ तथा ‘अप्रतिम चित्रकार’ शब्द तो सूक्ति सागर के मोती हैं। प्रो0 उपाध्याय जब समालोचना लिखते हैं तब अनुकूल शब्द स्वयमेव उपस्थित जाते हैं, यही भावयित्री प्रतिभा का चरमोत्कर्ष है। अमेय शब्दसम्पदा लेखक को तपोनिष्ठ सतत सारस्वत श्रम से मिलती है। लोकोक्ति है कि ‘‘इहे मुँह पान खिलावे और इहे पनही’’ अर्थात यदि वाणी में मधुरता है, सूक्ति है तो पान (सम्मान) मिलेगा और यदि नहीं तो पनही (जूता-अपमान) मिलेगा। सूक्तियों के आनंद को रेखांकित करते हुए लोककथन है कि‘ मधुर सूक्तियाँ प्रिया के अधर-सुधा-रस के समान आस्वाद में मधुर होती हैं। आम्रमंजरी का आस्वाद लिये बिना कोयल मधुर ध्वनि में नहीं गाती।6

प्रसादसाहित्य आम्रमंजरी है और प्रो0 उपाध्याय की लेखनी कोकिल की मधुर ध्वनि। यहाँ कुमारसंभव का एक श्लोक उद्धरणीय है ‘आम की मंजरियाँ खा लेने से जिस कोकिल का कंठ स्वर मीठा हो गया था, जब वह मीठे स्वर में कूकता था तो उसे सुनकर रूठी हुई स्त्रियों को रूठना भूल जाता था।’ कामायनी के स्वप्न स्वर्ग में ‘कोकिल की काकली’ का प्रयोग किया गया है। प्रो0 उपाध्याय की सूक्तियों में अधर-सुधा-रस इस तरह व्याप्त है कि वे पाठकों के अधरों पर मानों छायी रहती है। कुछ उदाहरण है- ‘मानव के भौतिक विकास के साथ साथ उसके हृदय का विकास नहीं हो सका’ (पृ0-189)। ‘कामायनी में आह्लादक लीला भाव समारोह पूर्वक उपस्थित है’ (पृ0-206)। कामायनी भावनात्मक गहराई और संवेदनात्मक औदात्य की दृष्टि से महाकाव्य माना जा सकता है। ‘आह्लादक लीला’ में कोकिल की काकली का रस है, अधरसुधारस की ध्वनि है, सौन्दर्य की मीमांसा और आकर्षण का मनोविज्ञान है।

किसी के पास शब्द है तो भाव नहीं। किसी के पास भाव है पर उसे व्यक्त करने को उपयुक्त शब्द नहीं है। जिनके पास शब्द और अर्थ का भण्डार हो, विवेक तथा हृदय का उचित समन्वय हो उन्हीं की उक्तियाँ सूक्तियाँ बनती हैं कहा जाता है कि ‘किन्हीं लोगों की वाणी में सूक्तियाँ तोते की तरह रटी हुई होती हैं और किन्हीं का हृदय सूक्तिमय होता है किन्तु उनकी वाणी प्रस्फुटित नहीं होती। ऐसे कोई विरले ही होते हैं जिनके हृदय से वाणी तक सरस सूक्तियों की परम्परा प्रवाहित होती है’।7

जिस प्रकार प्रसाद जी ने गम्भीर स्वाध्याय किया था कुछ उसी प्रकार प्रो0 उपाध्याय जी ने भी किया है। साथ ही उनकी मेधा में चमत्कृति और प्रतिभा में अलंकृति है। यही कारण है कि प्रो0 उपाध्याय की भाषा शैली में उसकी सूक्तियों ने चारचाँद लगा दिये हैं। उदाहरण के लिए ‘प्रसाद जी प्रेम, सौन्दर्य और प्रकृति के अनन्त रमणीय चित्रकार बनकर उभरते हैं’ (पृ0-50)। ‘प्रसाद जी का प्रेम-दर्शन अत्यन्त व्यापक है’ (पृ0-48)। ‘प्रसाद के सम्पूर्ण साहित्य में आन्तरिक सामंजस्य और एकाग्रचित्त मस्तिष्क की तीव्र संवेदनात्मक प्रतिक्रिया दिखायी पड़ती है’ (पृ0-62) आदि।

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प्रसाद के प्रेम की मीमांसा, सौन्दर्य का विश्लेषण और प्रकृति की अतुलित शोभा का उपस्थापन सरल नहीं है। प्रसाद ने जिस मनायोग से साहित्य सर्जना की है, उसी मनोयोग और निष्ठा से प्रो0 उपाध्याय ने उसकी अन्तरात्मा के दर्शन का सफल प्रयत्न भी किया है। सूक्तियाँ मात्र सुन्दर शब्दों का संजाल नहीं होती है प्रत्युत् उनमें ज्ञान का भण्डार भरा होता है। हमारी परम्परा कहती है कि- ‘सूक्तियाँ उचित विचार से सुन्दर बनती हैं जैसे जानने योग्य तत्त्व के ज्ञान से मनीषियों की विद्या’।8

प्रकृत पुस्तक की सूक्तियों की गुणवत्ता का अनुमान निम्न सूक्तियों से सरलता से किया जा सकता है- ‘प्रसाद इतिहास के माध्यम से भारतीय अस्मिता और जीवन मूल्यों का अन्वेषण करते हैं’ (पृ0-321)। ‘प्रसाद जी अतीन्द्रिय जगत् के द्रष्टा कलाकार हैं’ (पृ0-349)। ‘प्रसाद का लेखन अपने दार्शनिक विचारों के कारण विशेष महत्त्व का अधिकारी हैं’ (पृ0-353)। भारतीय अस्मिता का अन्वेषण मनीषी से ही सम्भव है। अतीन्द्रिय जगत् के द्रष्टा की कला को कोई पराप्रतिभा सम्पन्न महाप्राण ही समझ सकता है। सुभाषित ज्ञान के, नूतन क्षितिजों के सुप्रकाशक होते हैं। सृष्टि के रहस्यों के उद्गाता होते हैं। सुत्तनिपात का मत है कि ‘सुभाषित ज्ञान का सार होते हैं।’9

जब हम विवेच्य ग्रन्थ की सूक्तियों के रहस्यों का अनावरण करते हैं तब उसमें दर्शन की मीमांसा, सौन्दर्य का सार और प्रेम की पराकाष्ठा के दर्शन होते हैं, जैसा कि प्रसाद ने कामायनी के लज्जा और काम सर्ग में किया है। अग्रलिखित पंक्तियाँ मात्र सूक्तियाँ नहीं है ये ज्ञान के समास की रूपरेखाएँ हैं। कामायनी दार्शनिक गरिमा, भावनात्मक गहराई और संवेदनात्मक औदात्य की दृष्टि से भी अप्रतिम कलाकृति है’ (पृ0-247)। ‘कामायनी स्वर-लिपियों का अभिसार करने वाला महाकाव्य है’ (पृ0-253)। ‘प्रसाद का सम्पूर्ण साहित्य भारत-भूमि, यहाँ की सभ्यता, गौरव, मर्यादा और भारतीय मनुष्यता की पहचान कराने वाला एक व्यापक प्रलेख है’ (पृ0-383)। ‘प्रसाद की कथा-भाषा अपनी बिम्बधर्मी काव्यात्मकता के कारण अपना प्रतिमान आप ही है’ (पृ0-378)।

भावनात्मक गहराई, संवेदनात्मक औदात्य स्वर ‘लिपियों का अभिसार’ ‘भारतीय मनुष्यता’ आदि शब्द संयोजन वाणी की पराभावभूमि को व्यक्त करते हैं जहाँ गोस्वामी जी के शब्दों में ‘‘गिरा अनयन नयन बिनु बानी’’10 चरितार्थ होने लगती है। जब कालिदास पार्वती की सुन्दरता का वर्णन कर चुके तब भी उनका मन नहीं भरा तो वे लिखते हैं कि ‘मानो विधाता ने सारे उपमानों को एक साथ देखने के लिए ही पार्वती का निर्माण किया है।’11 उपमानों की दुनियाँ कितनी अनन्त है कौन कह सकता है ? जो पाठक ग्रन्थ को मनोयोग से पढ़ता है और आत्मसात् करता है उसे सूक्तियाँ स्मरण हो जाती है। वह ग्रन्थ को बारबार पढ़ना चाहता है। जातक में ठीक कहा गया है कि- जिस प्रकार अग्नि तृण-काष्ठ को जलाती हुई कभी सुप्त नहीं होती और सागर नदियों को पाकर कभी तृप्त नहीं होता, उसी प्रकार हे राजश्रेष्ठ! पंडितजन सुभाषितों से कभी तृप्त नहीं होते।12

‘आँसू कवि संवेदनाओं की आत्यंतिक तीव्रता का काव्य है’ (पृ0-120)। ‘जयशंकर प्रसाद राष्ट्रीय सांस्कृतिक जागरण के कवि हैं’ (पृ0-137)। ‘प्रसाद जी का यह अनन्त रमणीय सौन्दर्य बोध उनके सम्पूर्ण कृतित्व का मेरुदण्ड है’ (पृ0-152 उर्वशी)। ‘कामायनी का प्रलयवर्णन प्रकृति के भीषण रुप का स्तवन है’ (पृ0-164)। ‘प्रसादजी नारी मनोविज्ञान के गहन अध्येता रहे हैं’ (पृ0-179)। ‘प्रसादजी रुपकों में सोचने वाले कवि हैं’ (पृ0-180)।

इन सूक्तियों की गुणवत्ता की इयत्ता पर कौन सारस्वत मुग्ध नहीं होगा ? किस विद्वान् को ये पंक्तियाँ आनन्द नहीं देंगी ? कौन विद्यार्थी इन्हें बार बार पढ़ना नहीं चाहेगा ? ये वाक्य तृप्त ही नहीं करते, इस ग्रन्थ को बार बार पढ़ने की इच्छा जाग्रत करते रहते हैं। सूक्तियों का संसार वाक् सौन्दर्य का समास होता है। सुभाषितों की गुणवत्ता के विषय में मुंशी प्रेमचन्द लिखते हैं कि-‘सैकड़ों दलीलें एक तरफ और एक चुटैल सुभाषित एक तरफ। वह प्रतिद्वन्द्वी को निरुत्तर कर देता है, उसके जबाब में उसकी जबान नहीं खुलती। उसका पक्ष कितना ही प्रबल हो, पर सुभाषितों में कुछ ऐसा जादू होता है कि मानो वह एक फूँक से दलीलों को उड़ा देता है।13 

प्रसाद साहित्य की मीमांसा अनेक दृष्टियों से विद्वानों ने की है। कुछ को प्रसादजी का साहित्य ‘गड़े मुर्दे का उत्खनन’ प्रतीत होता है तो किसी को ‘ब्राह्मणवाद’ का पोषक और किसी को वे सांसारिक दायित्व से विलग होते हुए प्रतीत होते हैं। इन प्रकरणों का उत्तर प्रकृत व ग्रन्थ की ये सूक्तियाँ देती हैं। ‘कहानीकार जयशंकर प्रसाद हिन्दी कहानी के आकाशदीप हैं’ (पृ0-71)। ‘कामायनी महाकाव्य यूनेस्को के विश्वविरासत की सूची में सम्मिलित है’ (पृ0-80)। ‘कामायनी अपने जटिल अन्तर्विधान और बहुस्तरीय गतिशील अर्थवत्ता के कारण अपने युग का ही नहीं युग-युगान्तर का महाकाव्य है’ (पृ0-89)।

‘आकाशदीप’ सबके लिए होता है। सूर्य, चंद्र तथा नक्षत्रादि सबका मार्ग दर्शन करते हैं। आकाश सबको समान रूप से लाभान्वित करता है। जब कामायनी यूनेस्को की विश्वविरासत में सम्मिलित है तब वह ‘विश्वनिधि’ बन गयी है। इस बहाने यूनेस्को ने प्रसाद को विश्वकवि स्वीकार ही कर लिया। बाकी रही कोर कसर तो प्रो0 उपाध्याय ने अपने सटीक तर्कों से सिद्ध कर दिया है कि प्रसाद विश्व कवि के रूप में अग्रगण्य हैं।

सूक्तियों की अर्थवत्ता पर विचार करते हुए माधव स0 गोलवलकर लिखते हैं कि- ‘लालित्य, चमत्कृति तथा शब्द एवं अर्थ के अलंकारों से रुचिपूर्ण और साथ ही जीवन में मार्गदर्शन करने वाले तत्त्व को व्यक्त करने से ‘सुभाषित’ कहना उचित होगा’।14 विवेचनीय ग्रन्थ की सूक्तियों में अक्षर लालित्य, विचित्रचमत्कृति तथा अलंकार आकर्षण का समन्वित रूप दर्शनीय है। ये मात्र बुद्वि को ही संतुष्ट नहीं करते प्रत्युत् हृदय को तृप्त करते हैं। यथा ‘प्रसाद भारतीय-ज्ञान परम्परा के सबल प्रतीकों को उभारकर उसे पाश्चात्य सिद्धान्तों की समकक्षता में उपस्थित करते हैं। इस कार्य में भारत का स्वर्णिम इतिहास उनका सहयोगी था’ (पृ0-359)। ‘कामायनी का जीवन-दर्शन प्रसाद को कवि से ऋषि बना देता है’ (पृ0-385)। ‘प्रसादजी ऐसे विरले रचनाकारों में से एक हैं, जिन्होंने कारयित्री प्रतिभा सम्पन्न होने के साथ-साथ भावयित्री प्रतिभा के क्षेत्र में भी अपनी विलक्षण गति का परिचय दिया है’ (पृ0-387)।

इन सूक्तियों में भारतीय ज्ञान परम्परा का संतुलित निदर्शन है, भारत के स्वर्णिम इतिहास पुनरावतरण है, जीवन दर्शन के कवि की ऋषि कोटि में स्थापना की मान्यता है। ये पंक्तियाँ अनायास ही नहीं जन्म लेती है जब किसी पराशक्ति की कृपा होती है तभी ऐसी पंक्तियाँ मानस को सूझती हैं। सूक्तियाँ अनुभव कोश तथा ज्ञान का आकर होती हैं। ये सांस्कृतिक इतिहास की धरोहर होती हैं। काका कालेलकर ने ठीक ही कहा है कि ‘शास्त्र-वचनों के पीछे ऋषि-मुनियों के धर्मानुभव का प्रभाव होता है। सुभाषितोें के पीछे जातीय हृदय की मान्यता होती है।’15

प्रो0 उपाध्याय जब प्रसाद साहित्य का पठन करते हैं तब उनमें विद्यार्थी भाव और जब पाठन करते हैं तब उनमें गुरुत्व भाव अनायास आ ही जाता है पर जब वे प्रसाद साहित्य की समीक्षा-टीका करते हैं तब उनमें मल्लिनाथ, सायण आदि की समीक्षात्मा प्रवेश कर जाती है जिससे वे अमूल लिखते नहीं और मूल छोड़ते नहीं। इन पंक्तियों की अर्थवत्ता मौलिक चिन्तन आयामों की सर्जना करती हैं। ‘कामायनी भी आधुनिक भारतीय एवं विश्व सभ्यता का सांस्कृतिक महाकाव्य है’ (पृ0-455)। ‘कामायनी विश्व का ऐसा कलात्मक और आलंकारिक महाकाव्य है जो महाकाव्यात्मक उदात्तता और भव्यता के साथ उसे सर्वोच्च कला के चरम उत्कर्ष तक ले जाता है। (पृ0-455)। ‘प्रसाद का सम्पूर्ण साहित्य भारत भूमि, यहाँ की सभ्यता, संस्कृति, गौरव, मर्यादा और भारतीय मनुष्यता की पहचान कराने वाला एक व्यापक प्रलेख है’ (पृ0-415)।

‘विश्वसभ्यता का सांस्कृतिक महाकाव्य’, ‘सर्वोच्च कला का चरम उत्कर्ष’ आदि शब्द सूक्तिकार के ऋषित्व के प्रमाण हैं। उसके हस्तलेख सारस्वत काल के भाल के शिलालेख हैं। सूक्तियों से नूतन ज्ञान की जानकारी मिलती है। इसलिए विंस्टन चर्चिल का विचार है कि-‘अशिक्षित व्यक्ति के लिए सूक्तियों का अध्ययन अच्छी बात है।’16

प्रकृत ग्रन्थ की सूक्तियों के विषय में यह कहना पर्याप्त है कि जिन्हे अभी प्रसादसाहित्य का अध्ययन प्रारम्भ करना है उनके लिए पथ प्रदर्शिकाएँ हैं और बहुपठित के लिए चिन्तन के नवीन आयामों की सर्जिकाएँ हैं। ‘प्रसाद ने कालिदास को आत्मसात कर लिया है’ (पृ0-436)। ‘यदि कवितापन को भी कसौटी माना जाय तो जो स्थान संस्कृत साहित्य में कालिदास का है, हिन्दी साहित्य में वही स्थान प्रसादजी का हो जाएगा’ (पृ0-417)।

कालिदास और प्रसाद की काव्यात्मा भारतीय साहित्य चिन्तन परम्परा का सत्यं शिवं सुन्दरम् है तथा ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ और ‘‘सर्वेभवन्तु सुखिनः’’ का प्रमाणपत्र है। मेरी पुस्तक है ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम् एवं कामायनी के तुलनात्मक संदर्भ’। इसकी भूमिका प्रो0 उपाध्याय ने लिखी है। मैंने इन दोनों ग्रन्थों के अनेक संदर्भों की तुलना कर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि दोनों महाकवियों की मेधा प्रतिभा, योग्यता एवं क्षमता में विलक्षण समता है।

निष्कर्ष रुप में कहा जा सकता है कि प्रो0 उपाध्याय की सुदीर्घ विलक्षण सारस्वत तपस्या का सुफल ‘जयशंकर प्रसाद: महानता के आयाम’ की सूक्तियों में ऋषिवत् संस्कार झलकता है जो प्रसाद को महान् विश्वकवि की पंक्ति में अग्रगण्य प्रमाणित करते                    हैं साथ ही मानव जीवन को सुसंस्कृत बनाने के गुणसूत्र परिलक्षित होते हैं। ये सूक्तियाँ प्रसाद साहित्य पर पुनर्चिन्तन की रुपरेखा प्रस्तुत करती हैं तथा विश्वमानवता की भूमिका रचती हैं।

निवास-पटेलनगर, कादीपुर, सुलतानपुर उ0प्र0-228145

पूर्व संस्कृत विभागाध्यक्ष

संत तुलसीदास स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कादीपुर, सुलतानपुर उ0प्र0-228145

मो0-9532006900

सन्दर्भ सूची

  1. योगवाशिष्ठ 5-45।
  2. बाणभट्ट-कादम्बरी कथामुख।
  3. नीलकंठ दीक्षित-शिवलीलापर्व।
  4. चाणक्य नीति।
  5. अज्ञात।
  6. अज्ञात।
  7. अज्ञात।
  8. अज्ञात।
  9. सूत्रनिपात -21-6 (पालि)।
  10. रामचरितमानस।
  11. सर्वोपमाद्रव्यसमुच्चयेन। कुमारसंभव प्रथम सर्ग।
  12. जातक (महासुत सोम जातक पालि)।
  13. प्रेमचन्द विविध प्रसंग पृ0-487।
  14. माधव स0 गोलवलकर (पत्र रुप श्री गुरुजी पृ0-320।
  15. काका कलेलकर मंगल देव शास्त्री कृत सुभाषित सप्तशती की भूमिका।
  16. It is a good thing for an uneducated to read books of quotations विंस्टन चर्चिल (माई अर्ली लाइफ, अध्याय-2)

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कलमवीर धर्मवीर भारती- डॉ. उपेंद्र कुमार ‘सत्यार्थी’

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कलमवीर धर्मवीर भारती

डॉ. उपेंद्र कुमार ‘सत्यार्थी’,

सहायक प्रोफेसर,

हिंदी विभाग, झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय

कुछ लेखक ऐसे होते हैं जो सबकुछ लिखकर भी किसी एक विधा में सिद्धहस्त नहीं हो पाते, तो कुछ लेखक बस एक ही विधा को साध पाते हैं या सिर्फ़ एक रचना से शोहरत हासिल कर लेते हैं. परन्तु, वैसे लेखक विरले होते हैं, जिनका सबकुछ अतिउत्तम हो, उत्कृष्ट हो, या हर रचना नई बुलंदियों को छूकर आए. कलमवीर धर्मवीर भारती का नाम ऐसे ही रचनाकरों की सूची में शामिल है, जहाँ से भी उनको देखिये, उनके साहित्यिक कद की ऊंचाई एक समान ही दिखाई पड़ती है. यही बात उनके पत्रकारीय लेखन में भी दिखाई पड़ेगी.

सबसे बड़ी विचित्र बात यह है कि स्वयं धर्मवीर भारती अपनी जिस लोकप्रिय उपन्यास ‘गुनाहों के देवता’ को ‘कलात्मक रूप से कमजोर’ मानते थे, वही बरसों तक हिंदी की सबसे अधिक बिकनेवाली पुस्तकों की सूची में शामिल रही. अब तक इसके सौ से अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं. जब ‘गुनाहों के देवता’ उपन्यास प्रकाशित हुआ था तब हिंदी के ही प्रसिद्ध साहित्याकर उपेन्द्रनाथ अश्क ने इसकी खूब आलोचना की थी. उन्होंने इस रचना को ‘बकवास’ और ‘कोरा भावोच्छवास’ तक बताया था. लेकिन, कुछ दिन ही बाद उन्हें भी मानना पड़ा कि ‘इत्ती मोटी यह किताब एक साँस में खुद को पढ़ा ले जाती है. यह भी कम बड़ी उपलब्धि नहीं.’

धर्मवीर भारती सिद्धहस्त उपन्यासकार तो थे ही साथ ही प्रसिद्ध कवि, नाटककार, संपादक, पत्रकार, लेखक और लोकप्रिय अध्यापक भी थे. इलाहबाद विश्वविद्यालय में रहते हुए हरिवंश राय बच्चन, फ़िराक गोरखपुरी, इलाचंद्र जोशी, रामकुमार वर्मा, धीरेन्द्र वर्मा, विजयदेव नारायण साही, मैथिली शरण गुप्त आदि साहित्यकारों की शोहबत में रहकर खूब नाम कमाया. यहाँ तक कि इन्हें प्रेम और रोमांस का लेखक माना जाने लगा. धर्मवीर भारती विशुद्ध रूप से ‘हिंदी’ के थे. उन्होंने अपनी बी.ए से लेकर पीएचडी की पढ़ाई ‘हिंदी साहित्य’ में की थी. उनकी पीएचडी ‘सिद्ध साहित्य’ पर है.

‘गुनाहों के देवता’ के अलावा ‘सूरज का सातवां घोडा’ (उपन्यास), ‘अंधायुग’(नाटक), ‘कनुप्रिया’(काव्य-संग्रह), ‘ठेले पर हिमालय’(निबंध संग्रह’), ‘नदी प्यासी थी’(एकांकी), ‘मानव मूल्य और साहित्य’(आलोचना), ‘गुलकी बन्नो’(कहानी) आदि रचनाएँ उच्चकोटि की हैं. उपन्यास ‘सूरज का सातवां घोडा’ को कहानी कहने का अनुपम प्रयोग माना जाता है, जिस पर श्याम बेनेगल ने इसी नाम से फ़िल्म बनाई. ‘अंधायुग’ नाटक को अबतक सैकड़ों भारतीय रंगमंच निर्देशकों द्वारा मंचन किया जा चूका है, जिनमें इब्राहीम अलकाजी, रामगोपाल बजाज, अरविन्द गौड़, रतन थियम, एम.के रैना, मोहन महर्षि, सुरेंद्र शर्मा आदि प्रमुख हैं.

धर्मवीर भारती ख्यातिलब्ध साहित्यकार के साथ ही अवलदर्जे के सफल संपादक भी थे. उनके यश और कीर्ति का आधार ‘धर्मयुग’ जैसी अवलदर्जे की बेहतरीन हिंदी साप्ताहिक पत्रिका थी. 1960ई. में ‘धर्मयुग’ के प्रधान संपादक बनते ही इस पत्रिका में आमूलचूल परिवर्तन किया. अपने संपादन काल में वे सिर्फ नई प्रतिभाओं को ही नहीं गढ़ा, हर एक विषय को अपनी पत्रिका के सांचे में ढाला, जैसे- धर्म, राजनीति, साहित्य, सिनेमा, कला, फैशन, समीक्षा, ज्योतिष, मनोरंजन,विज्ञान आदि कोई भी विषय उनसे अछूता नहीं था. घरेलू स्त्रियों, बुजुर्गों और बच्चों के लिए भी धर्मयुग में बहुत कुछ रहता था. मतलब यह कि धर्मयुग में उस वक़्त परिवार के हर सदस्य के लिए कुछ न कुछ होता था. संयुक्त परिवारों में इस पत्रिका को खूब पसंद किया जाता था. यही कारण है कि कुछ ही समय में कुछ हज़ार से बढ़कर इसकी प्रतियाँ लाखों में छपने लगी. उस ज़माने किसी भी पत्रिका के लिए चार लाख प्रतियों का छपना बहुत बड़ी बात थी। इस प्रकार  माना यह जाता था कि धर्मयुग के लगभग चालीस लाख पाठक रहे होंगे। प्रसिद्ध संपादक हरिवंश नारायण के अनुसार, ‘यह एक ऐसी पत्रिका थी जिसे हर कोई पढ़ता था, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, गुजरात से लेकर पूर्वोत्तर तक।’

धर्मवीर भारती ने ‘कार्टून’ जैसी सी विधा को भी इतना सम्मान दिया कि 25 वर्षों तक धर्मयुग में लगातार छपने के बाद आबिद सुरती द्वारा रचा गया कार्टून कोना ‘ढब्बूजी’ अमर हो गया. और आबिद सुरति जी कथाकार, व्यंग्यकार, नाटककार आदि से प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट बन गये. इससे पता चलता है कि किस तरह धर्मयुग उस समय साहित्य की विधाओं के साथ रचनाकारों को स्थापित कर रही थी.

हालांकि बतौर प्रधान संपादक धर्मवीर भारती ने धर्मयुग से जो चाहा उन्हें सब मिला लेकिन, उनकी आलोचना भी कम नहीं हुई. उन्हें शीघ्र ही एक तानाशाह संपादक माना जाने लगा. एक ऐसा संपादक जो न तो अपने सहकर्मियों के साथ उठता-बैठता था और न ही उनसे आसानी से मिल सकता था. जिससे मिलने के लिए पर्ची भेजनी पड़ती थी और उनके बुलाने पर ही कोई भीतर जा सकता था. रचना के लिए मौलिकता के स्वीकृति पत्र को संलग्न करने का नियम और न जाने कितने नियम पत्रिका प्रकाशन जगत में उनके द्वारा प्रचलित किये गए हैं. हालांकि ये सभी नियम धर्मयुग को उच्चकोटि की पत्रिका बनाने के लिए गढ़े गए थे. परन्तु, इसने सबसे ज्यादा नुकसान धर्मवीर भारती की लोकतांत्रिक छवि का ही किया. हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और संपादक रहे रवीन्द्र कालिया ने तो धर्मवीर भारती को केंद्र में रखते हुए एक बेहतरीन कहानी भी लिखी थी- ‘काला रजिस्टर’. यह कहानी संपादक धर्मवीर भारती और उनके बनाए नए तौर-तरीकों का मखौल उड़ाती थी. उनकी इस छवि ने उनकी पुरानी इलाहाबादी मौजमस्ती वाली छवि को लोगों के दिल से उतर दिया था. मजाकिया, खुशमिजाज़ और सबसे घुलमिलकर रहने वाले भारती अब कहीं नहीं थे. कार्यालय में हाजिरी दर्ज करने के लिए एक काला मोटा रजिस्टर घूमता रहता था और समय से न आने वाले का नाम लाल रजिस्टर दर्ज हो जाता था.

संपादक के रूप में भारती जी की आलोचना चाहे जितनी हो रही हो लेकिन पाठक समाज में उनका जलवा तब भी कायम था. भारती जी अपने पाठक समाज के मनोविज्ञान से जितना वाकिफ थे उतना शायद ही कोई और. उनके ऊपर उस दौर की अन्य पत्रिकाएं, जैसे-कल्पना, दिनमान, रविवार, सारिका आदि से भी अधिक उच्चकोटि की सामग्री रखने का दबाव था. इस प्रकार उन्होंने हिंदी समाज को बेहतरीन रचनाओं के साथ बेहतरीन रचनाकार भी दिए. रवीन्द्र कालिया, कमलेश्वर, गणेश मंत्री, कन्हैया लाल नंदन, एस.पी. सिंह, दुष्यंत कुमार, अखिलेश, राजेश जोशी, शिवानी, मृणाल पाण्डेय, हरिवंश आदि न जाने कितने लेखक-संपादक-पत्रकार धर्मयुग ने दिये. धर्मयुग का होली, दीपावली और आजादी विशेषांक को आज भी उस दौर के पाठक समाज नहीं भूलता.

धर्मयुग में उस दौर के सभी प्रमुख कवियों, कहानीकारों, उपन्यासकारों एवं नाटककारों की रचनाओं को स्थान दिया गया. इसका दायरा हिंदी तक ही सीमित नहीं था. हिंदी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं की कहानियां भी अनूदित कर इसमें प्रकाशित की जाती थीं. अनुवाद के बावजूद उसकी भाषा में सहजता थी. कहीं-कहीं भाषा को व्याकरण के बोझिल बंधन से भी मुक्त किया जाता था. रोचक, सरस और कौतूहलमयी शैलियों के प्रयोग ने भाषा को सुगम बनाया. नए मुहावरें, लोकोक्तियों, उर्दू और अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्दों के प्रयोग ने ‘धर्मयुग’ को संप्रेषण के स्तर पर सशक्त बनाया. भारती के काल में धर्मयुग ने हिंदी के प्रचार-प्रसार, उसकी अस्मिता और गौरव की रक्षा के संघर्ष में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. 70 और 80 के दशक में धर्मयुग ने एक ओर जहाँ दक्षिण में शुरू हुए हिंदी विरोधी आन्दोलन के विरुद्ध हिंदी भाषियों की ओर से लड़ाई लड़ी, वहीं विश्व हिंदी सम्मेलनों को नैतिक और वैचारिक रूप से सहयोग देकर विश्व भर के हिंदी भाषी और हिंदी प्रेमियों को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया.

आलेख संकलन- विश्वहिंदीजन

स्रोत- जनकृति

भाषा-क्षेत्र तथा हिन्दी भाषा के विविध रूप-प्रोफेसर महावीर सरन जैन

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भाषा-क्षेत्र तथा हिन्दी भाषा के विविध रूप

प्रोफेसर महावीर सरन जैन

सारांश

स्वाधीनता के लिए जब जब आन्दोलन तेज़ हुआ तब तब हिन्दी की प्रगति का रथ भी तेज़ गति से आगे बढ़ा। हिन्दी राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक बन गई। स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व जिन नेताओं के हाथों में था, उन्होंने यह पहचान लिया था कि विगत 600 – 700 वर्षों से हिन्दी सम्पूर्ण भारत की एकता का कारक रही है; यह संतों, फकीरों, व्यापारियों, तीर्थ यात्रियों, सैनिकों आदि के द्वारा देश के एक भाग से दूसरे भाग तक प्रयुक्त होती रही है।

बीज शब्द: स्वाधीनता, भाषा, आंदोलन, हिन्दी, प्रगति

शोध आलेख

स्वाधीनता के लिए जब जब आन्दोलन तेज़ हुआ तब तब हिन्दी की प्रगति का रथ भी तेज़ गति से आगे बढ़ा। हिन्दी राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक बन गई। स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व जिन नेताओं के हाथों में था, उन्होंने यह पहचान लिया था कि विगत 600 – 700 वर्षों से हिन्दी सम्पूर्ण भारत की एकता का कारक रही है; यह संतों, फकीरों, व्यापारियों, तीर्थ यात्रियों, सैनिकों आदि के द्वारा देश के एक भाग से दूसरे भाग तक प्रयुक्त होती रही है।

मैं यह बात जोर देकर कहना चाहता हूँ कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा की मान्यता  उन नेताओं के कारण प्राप्त हुई जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी। बंगाल के केशवचन्द्र सेन, राजा राम मोहन राय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस; पंजाब के बिपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपत राय; गुजरात के स्वामी दयानन्द, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी; महाराष्ट के लोकमान्य तिलक तथा दक्षिण भारत के सुब्रह्मण्यम भारती, मोटूरि सत्यनारायण आदि नेताओं के राष्ट्रभाषा हिन्दी के सम्बंध में व्यक्त विचारों से मेरे मत की संपुष्टि होती है। हिन्दी भारतीय स्वाभिमान और स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई। हिन्दी राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक हो गई। इसके प्रचार प्रसार में सामाजिक, धार्मिक तथा राष्ट्रीय नेताओं ने सार्थक भूमिका का निर्वाह किया।

स्वाधीनता के बाद हमारे राजनेताओं ने हिन्दी की घोर उपेक्षा की। पहले यह  तर्क दिया गया कि हिन्दी में वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली का अभाव है। इसके लिए वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग बना दिया गया। काम सौंप दिया गया कि शब्द बनाओ। शब्द गढ़ो। शब्द बनाए नहीं जाते। गढ़े नहीं जाते। लोक के प्रचलन एवं व्यवहार से विकसित होते हैं। आयोग ने जिन शब्दों का निर्माण किया, उनमें से अधिकतर शब्द जटिल, क्लिष्ट एवं अप्रचलित थे। प्रशासन के क्षेत्र में शब्दावली बनाने के लिए अलिखित आदेश दिए गए कि प्रत्येक शब्द की स्वीकार्यता के लिए मंत्रालय के अधिकारियों की मंजूरी ली जाए। अधिकारियों की कोशिश रही कि जिन शब्दों का निर्माण हो, वे बाजारू न हो। सरकारी भाषा बाजारू भाषा से अलग दिखनी चाहिए। चूँकि शब्द गढ़ते समय यह ध्यान नहीं रखा गया कि वे सामान्य आदमी को समझ में आ सकें, इस कारण आयोग के द्वारा बनाए गए 80 प्रतिशत शब्द कोशों की शोभा बनकर रह गए हैं।

जब से विश्व के प्रामाणिक संदर्भ ग्रंथों ने यह स्वीकार किया है कि चीनी भाषा के बाद हिन्दी के मातृभाषियों की संख्या सर्वाधिक है, कुछ ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का कुचक्र एवं षड़यंत्र रच रही हैं। यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि हिन्दी का मतलब केवल खड़ी बोली है। सामान्य व्यक्ति ही नहीं, हिन्दी के तथाकथित विद्वान भी हिन्दी का अर्थ खड़ी बोली मानने की भूल कर रहे हैं। हिन्दी साहित्य को जिंदगी भर पढ़ाने वाले, हिन्दी की रोजी-रोटी खाने वाले, हिन्दी की कक्षाओं में हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों को विद्यापति, जायसी, तुलसीदास, सूरदास जैसे हिन्दी के महान साहित्यकारों की रचनाओं पढ़ाने वाले अध्यापक तथा इन पर शोध एवं अनुसंधान करने एवं कराने वाले आलोचक भी न जाने किस लालच में या आँखों पर पट्टी बाँधकर यह घोषणा कर रहे हैं कि हिन्दी का अर्थ तो केवल खड़ी बोली है। भाषा-विज्ञान के भाषा-भूगोल एवं बोली-विज्ञान के सिद्धांतों से अनभिज्ञ ये लोग ऐसे वक्तव्य देते हैं जैसे वे भाषा-विज्ञान के भी पंडित हों।

क्षेत्रीय भावनाओं को उभारकर एवं भड़काकर ये लोग हिन्दी की संश्लिष्ट परम्परा को छिन्न-भिन्न करने का पाप कर रहे हैं। ऐसे ही लोगों को उत्तर देने तथा हिन्दी के विद्वानों को वस्तुस्थिति से अवगत कराने के लिए यह लेख प्रस्तुत है। हिन्दी दिवस मनाने की सार्थकता इसमें है कि प्रत्येक हिन्दी प्रेमी इस बात का संकल्प करे कि जो ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने की साजिश रच रही हैं, उनका पूरी ताकत से प्रतिकार किया जाए।1

1 भाषा-क्षेत्र (Language-area)

प्रत्येक भाषा के अनेक भेद होते हैं। किसी भी भाषा-क्षेत्र में एक ओर भाषा-क्षेत्र की क्षेत्रगत भिन्नताओं के आधार पर अनेक भेद  होते हैं (यथा – बोली और भाषा) तो दूसरी ओर सामाजिक भिन्नताओं के आधार पर भाषा की वर्गगत बोलियाँ होती हैं।  भाषा-व्यवहार अथवा भाषा-प्रकार्य की दृष्टि से भी भाषा के अनेक भेद होते हैं। (यथा- मानक भाषा, उपमानक भाषा अथवा शिष्टेतर भाषा, अपभाषा, विशिष्ट वाग्व्यवहार की शैलियाँ, साहित्यिक भाषा आदि)। विशिष्ट प्रयोजनों की सिद्धि के लिए प्रयोजनमूलक भाषा के अनेक रूप होते हैं जिनकी चर्चा लेखक ने प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान के संदर्भ में की है।2

जब भिन्न भाषाओं के बोलने वाले एक ही क्षेत्र में निवास करने लगते हैं तो भाषाओं के संसर्ग से विशिष्ट भाषा प्रकार विकसित हो जाते हैं। (यथा -पिजिन, क्रिओल)। भाषा के  असामान्य रूपों के उदाहरण गुप्त भाषा एवं कृत्रिम भाषा आदि हैं।

इस आलेख का उद्देश्य भाषा-क्षेत्र की अवधारणा को स्पष्ट करना तथा हिन्दी भाषा-क्षेत्र के विविध क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के सम्बंध में विवेचना करना है। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि इस सम्बंध में न केवल सामान्य व्यक्ति के मन में अनेक भ्रामक धारणाएँ बनी हुई हैं प्रत्युत हिन्दी भाषा के कतिपय अध्येताओं,  विद्वानों तथा प्रतिष्ठित आलोचकों का मन भी तत्सम्बंधित भ्रांतियों से मुक्त नहीं है।

2. भाषा क्षेत्र में भाषा के विविध भेद एवं रूप

एक भाषा का जन-समुदाय अपनी भाषा के विविध भेदों एवं रूपों के माध्यम से एक भाषिक इकाई का निर्माण करता है। विविध भाषिक भेदों के मध्य सम्भाषण की सम्भाव्यता से भाषिक एकता का निर्माण होता है। एक भाषा के समस्त भाषिक-रूप जिस क्षेत्र में प्रयुक्त होते हैं उसे उस भाषा का ‘भाषा-क्षेत्र’ कहते हैं। प्रत्येक ‘भाषा क्षेत्र में भाषिक भिन्नताएँ प्राप्त होती हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भाषा की भिन्नताओं का आधार प्रायः वर्णगत एवं धर्मगत नहीं होता। एक वर्ण या एक धर्म के व्यक्ति यदि भिन्न भाषा क्षेत्रों में निवास करते हैं तो वे भिन्न भाषाओं का प्रयोग करते हैं। हिन्दू मुसलमान आदि सभी धर्मावलम्बी तमिलनाडु में तमिल बोलते हैं तथा केरल में मलयालम। इसके विपरीत यदि दो भिन्न वर्णों या दो धर्मां के व्यक्ति एक भाषा क्षेत्र मे रहते हैं तो उनके एक ही भाषा को बोलने की सम्भावनाएँ अधिक होती हैं। हिन्दी भाषा क्षेत्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्व आदि सभा वर्णों के व्यक्ति हिन्दी का प्रयोग करते हैं। यह बात अवश्य है कि विशिष्ट स्थितियों में वर्ण या धर्म के आधार पर भाषा में बोलीगत अथवा शैलगत प्रभेद हो जाते हैं। कभी-कभी ऐसी भी स्थितियाँ विकसित हो जाती हैं जिनके कारण एक भाषा के दो रूपों को दो भिन्न भाषाएँ समझा जाने लगता है।3

प्रश्न यह उपस्थित होता है कि हम यह किस प्रकार निर्धारित करें कि उच्चारण के कोई दो रूप एक ही भाषा के भिन्न रूप हैं अथवा अलग-अलग भाषाएँ हैं ? इसका एक प्रमुख कारण यह है कि भाषिक भिन्नताएँ सापेक्षिक होती हैं तथा दो भिन्न भाषा क्षेत्रों के मध्य कोई सीधी एवं सरल विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। यही कारण है कि भाषिक-भूगोल पर कार्य करते समय बहुधा कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। भारत का भाषा-सर्वेक्षण करते समय इसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव ग्रियर्सन को हुआ था। उन्होंने लिखा है कि ‘‘ सर्वेक्षण का कार्य करते समय यह निश्चित करने में कठिनाई पड़ी कि वास्तव में एक कथित भाषा स्वतंत्र भाषा है, अथवा अन्य किसी भाषा की बोली है। इस सम्बन्ध में इस प्रकार का निर्णय देना जिसे सब लोग स्वीकार कर लेंगे, कठिन है। भाषा और बोली मे प्रायः वही सम्बन्ध है जो पहाड़ तथा पहाड़ी में है। यह निःसंकोच रूप से कहा जा सकता है कि एवरेस्ट पहाड़ है और हालबर्न एक पहाड़ी, किन्तु इन दोनों के बीच की विभाजक रेखा को निश्चित रूप से बताना कठिन है।– – – सच तो यह है कि दो बोलियों अथवा भाषाओं में भेदीकरण केवल पारस्परिक वार्ता सम्बन्ध पर ही निर्भर नहीं करता। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस सम्बन्ध में विचार करने के लिए अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों को भी दृष्टि में रखना आवश्यक है।4

व्यावहारिक दृष्टि से जिस क्षेत्र में भाषा के विभिन्न भेदों में पारस्परिक बोधगम्यता होती है, वह क्षेत्र उस भाषा के विभिन्न भेदों का ‘भाषा-क्षेत्र’ कहलाता है। भिन्न भाषा-भाषी व्यक्ति परस्पर विचारों का आदान-प्रदान नहीं कर पाते। इस प्रकार जब एक व्यक्ति अपनी भाषा के माध्यम से दूसरे भाषा-भाषी को भाषा के स्तर पर अपने विचारों, भावनाओं, कल्पनाओं, संवेदनाओं का बोध नहीं करा पाता, तब ऐसी स्थिति में उन दो व्यक्तियों के भाषा रूपों को अलग-अलग भाषाओं के नाम से अभिहित किया जाता है। इस बात इस तथ्य से समझा जा सकता है कि जब कोई ऐसा तमिल-भाषी व्यक्ति जो पहले से हिन्दी नहीं जानता, हिन्दी-भाषी व्यक्ति से बात करता है, तो वह हिन्दी-भाषा व्यक्ति द्वारा कही गई बात को भाषा के माध्यम से नहीं समझ पाता, भले ही वह कही गई बात का आशय संकेतो, मुख मुद्राओं, भाव-भंगिमाओं के माध्यम से समझ जाए। इसके विपरीत यदि कन्नौजी बोलने वाला व्यक्ति अवधी बोलने वाले से बातें करता है, तो दोनों को विचारों के आदान-प्रदान करने में कठिनाइयाँ तो होती हैं, किन्तु फिर भी वे किसी न किसी मात्रा में विचारों का आदान-प्रदान कर लेते हैं। भाषा रूपों की भिन्नता अथवा एकता का यह व्यावहारिक आधार है।भिन्न भाषा रूपों को एक ही भाषा के रूप में अथवा अलग अलग भाषाओं के रूप में मान्यता दिलाने में ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक एवं उन भाषिक रूपों की संरचना एवं व्यवस्था आदि कारण एवं तथ्य अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं, तथा कभी-कभी ‘पारस्परिक बोधगम्यता’ अथवा ‘एक तरफा बोधगम्यता’ के व्यावहारिक सिद्धांत की अपेक्षा अधिक निर्णायक हो जाते हैं। इस दृष्टि से कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं।ऐतिहासिक कारणों से वैनिशन (Venetian) तथा सिसिली (Sicily) को इटाली भाषा की बोलियाँ माना जाता है, यद्यपि इनमें पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत बहुत कम है। इसी प्रकार लैपिश (Lappish) को एक ही भाषा माना जाता है। इसके अन्तर्गत परस्पर अबोधगम्य भाषिक रूप समाहित हैं। इसके विपरीत राजनैतिक कारणों से डेनिश, नार्वेजियन एवं स्वेडिश को अलग-अलग भाषाएँ माना जाता है। इनमें पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत वैनिशन (Venetian) तथा सिसिली (Sicily) के पारस्परिक बोधगम्यता के प्रतिशत से कम नहीं है।  भारतवर्ष के संदर्भ में हिन्दी भाषा के पश्चिमी वर्ग की उप-भाषाओं तथा बिहारी वर्ग की उप-भाषाओं के मध्य बोधगम्यता का प्रतिशत कम है। ‘बिहारी वर्ग’ की उप-भाषाओं पर कार्य करने वाले भाषा-वैज्ञानिकों ने उनमें संरचनात्मक भिन्नताएँ भी पर्याप्त मानी हैं। इतना होने पर भी सांस्कृतिक, राष्ट्रीय एवं ऐतिहासिक कारणों से भोजपुरी एवं मगही बोलने वाले अपने को हिन्दी भाषा-भाषी मानते हैं। ये भाषिक रूप हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्तर्गत समाहित हैं। इसके विपरीत यद्यपि असमिया एवं बांग्ला में पारस्परिक बोधगम्यता एवं संरचनात्मक साम्यता का प्रतिशत कम नहीं है तथापि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक कारणों से इनके बोलने वाले इन भाषा रूपों को भिन्न भाषाएँ मानते हैं। इसी कारण कुछ विद्वानों का मत है कि भाषा-क्षेत्र उस क्षेत्र के प्रयोक्ताओं की मानसिक अवधारणा है। भाषा-क्षेत्र में बोली जाने वाली विभिन्न बोलियों के प्रयोक्ता अपने अपने भाषिक-रूप की पहचान उस भाषा के रूप में करते हैं। विशेष रूप से जब वे किसी भिन्न भाषा-भाषी-क्षेत्र में रहते हैं तो वे अपनी अस्मिता की पहचान उस भाषा के प्रयोक्ता के रूप में करते हैं। 

यदि दो भाषा-क्षेत्रों के मध्य कोई पर्वत या सागर जैसी बड़ी प्राकृतिक सीमा नहीं होती अथवा उन क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्तियों के अलग अलग क्षेत्रों में उनके सामाजिक सम्पर्क को बाधित करने वाली राजनैतिक सीमा नहीं होती तो उन भाषा क्षेत्रों के मध्य कोई निश्चित एवं सरल रेखा नहीं खींची जा सकती। प्रत्येक दो भाषाओं के मध्य प्रायः ऐसा ‘क्षेत्र’ होता है जिसमें निवास करने वाले व्यक्ति उन दोनों भाषाओं को किसी न किसी रूप में समझ लेते हैं। ऐसे क्षेत्र को उन भाषाओं का ‘संक्रमण-क्षेत्र कहते हैं।

जिस प्रकार अपभ्रंश और हिन्दी के बीच किसी एक वर्ष की ‘काल रेखा’ निर्धारित नहीं की जा सकती, फिर भी एक युग ‘अपभ्रंश-युग’ कहलाता है और दूसरा हिन्दी, मराठी, गुजराती आदि ‘नव्यतर भारतीय आर्य भाषाओं का युग’ कहलाता है उसी प्रकार यद्यपि हिन्दी और मराठी के बीच (अथवा अन्य किन्हीं दो भाषाओं के बीच) हम किलोमीटर या मील की कोई रेखा नहीं खींच सकते फिर भी एक क्षेत्र हिन्दी का कहलाता है और दूसरा मराठी का। ऐतिहासिक दृष्टि से  अपभ्रंश और हिन्दी के बीच एव ‘सन्धि-युग’ है जो इन दो भाषाओं के काल-निर्धारण का काम करता है। संकालिक दृष्टि से दो भाषाओं के बीच ‘संक्रमण-क्षेत्र’ होता है जो उन भाषाओं के क्षेत्र को निर्धारित करता है।

प्रत्येक भाषा-क्षेत्र में भाषिक भेद होते हैं। हम किसी ऐसे भाषा क्षेत्र की कल्पना नहीं कर सकते जिसके समस्त भाषा-भाषी भाषा के एक ही रूप के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान करते हों। यदि हम वर्तमानकाल में किसी ऐसे भाषा-क्षेत्र का निर्माण कर भी लें जिसकी भाषा में एक ही बोली हो तब भी कालान्तर में उस क्षेत्र में विभिन्नताएँ विकसित हो जाती हैं। इसका कारण यह है कि किसी भाषा का विकास सम्पूर्ण क्षेत्र में समरूप नहीं होता। परिवर्तन की गति क्षेत्र के अलग-अलग भागों में भिन्न होती है। विश्व के भाषा-इतिहास में ऐसा कोई भी उदाहरण प्राप्त नहीं है जिसमें कोई भाषा अपने सम्पूर्ण क्षेत्र में समान रूप से परिवर्तित हुई हो।

भाषा और बोली के युग्म पर विचार करना सामान्य धारणा है। सामान्य व्यक्ति भाषा को विकसित और बोली को अविकसित मानता है। सामान्य व्यक्ति भाषा को शिक्षित,शिष्ट, विद्वान एवं सुजान प्रयोक्ताओं से जोड़ता है और बोली को अशिक्षित, अशिष्ट, मूर्ख एवं गँवार प्रयोक्ताओं से जोड़ता है। भाषाविज्ञान इस धारणा को अतार्किक और अवैज्ञानिक मानता है। भाषाविज्ञान भाषा को निम्न रूप से परिभाषित करता है –  “भाषा अपने भाषा-क्षेत्र में बोली जाने वाली समस्त बोलियों की समष्टि का नाम है”5।

हम आगे भाषा-क्षेत्र के समस्त सम्भावित भेद-प्रभेदों की विवेचना करेंगे।

व्यक्ति बोलियाँ

एक भाषा क्षेत्र में ‘एकत्व’ की दृष्टि से एक ही भाषा होती है, किन्तु ‘भिन्नत्व’ की दृष्टि से उस भाषा क्षेत्र में जितने बोलने वाले निवास करते हैं उसमें उतनी ही भिन्न व्यक्ति-बोलियाँ होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति भाषा के द्वारा समाज के व्यक्तियों से सम्प्रेषण-व्यवहार करता है। भाषा के द्वारा अपने निजी व्यक्त्वि का विकास एवं विचार की अभिव्यक्ति करता है। प्रत्येक व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व का प्रभाव उसके अभिव्यक्तिकरण व्यवहार पर भी पड़ता है।

प्रत्येक व्यक्ति के अनुभवों, विचारों, आचरण पद्धतियों, जीवन व्यवहारों एवं कार्यकलापों की निजी विशेषताएँ होती हैं। समाज के सदस्यों के व्यक्तित्व की भेदक भिन्नताओं का प्रभाव उनके व्यक्ति-भाषा-रूपों पर पड़ता है और इस कारण प्रत्येक व्यक्ति बोली (idiolect) में निजी भिन्नताएँ अवश्य होती हैं। व्यक्ति बोली के धरातल पर एक व्यक्ति जिस प्रकार बोलता है, ठीक उसी प्रकार दूसरा कोई व्यक्ति नहीं बोलता। यही कारण है कि हम किसी व्यक्ति भले ही न देखें मगर मात्र उसकी आवाज़ को सुनकर उसको पहचान लेते हैं।

यदि भिन्नताओं को और सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो यह बात कही जा सकती है कि स्वनिक स्तर पर कोई भी व्यक्ति एक ध्वनि को उसी प्रकार दोबारा उच्चारित नहीं कर सकता। यदि एक व्यक्ति ‘प’, ध्वनि का सौ बार उच्चारण करता है तो वे ‘प्’ ध्वनि के सौ स्वन होते हैं। इन स्वनों की भिन्नताओं को हमारे कान नहीं पहचान पाते। जब भौतिक ध्वनि विज्ञान के अन्तर्गत ध्वनि-यन्त्रों की सहायता से इसका अध्ययन किया जाता है तो ध्वनि यन्त्र इनके सूक्ष्म अन्तरों को पकड़ पाने की क्षमता रखते हैं। ‘स्वनिक स्तर’ पर प्रत्येक ध्वनि का प्रत्येक उच्चारण एक अलग स्वन होता है।

जिस प्रकार दार्शनिक धरातल पर बौद्ध दर्शन के अनुसार इस संसार के प्रत्येक पदार्थ में प्रतिक्षण परिवर्तन होता है उसी प्रकार भाषा के प्रत्येक व्यक्ति की प्रत्येक ध्वनि का प्रत्येक उच्चार यत्किंचित भिन्नताएँ लिए होता है तथा जिस प्रकार अद्वैतवादी के अनुसार इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक ही परमात्म-तत्त्व की सत्ता है उसी प्रकार एक भाषा क्षेत्र में व्यवहृत होने वाले समस्त भाषिक रूपों को एक ही भाषा के नाम से पुकारा जाता है।

यदि उच्चारण की स्वनिक भिन्नताओं को छोड़ दें तो एक भाषा-क्षेत्र में उस भाषा-जन-समुदाय के जितने सदस्य होते हैं उतनी ही उसमें व्यक्ति-बोलियाँ होती हैं। उन समस्त व्यक्ति-बोलियों के समूह का नाम भाषा है।

बोली

भाषा-क्षेत्र की समस्त व्यक्ति-बोलियों एवं उस क्षेत्र की भाषा के मध्य प्रायः बोली का स्तर होता है। भाषा की क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्नताओं को क्रमशः क्षेत्रगत एवं वर्गगत बोलियों के नाम से पुकारा जाता है। इसको इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि भाषा की संरचक बोलियाँ होती हैं, तथा बोली की संरचक व्यक्ति बोलियाँ।

इस प्रकार तत्त्वतः बोलियों की समष्टि का नाम भाषा है। ‘भाषा क्षेत्र’ की क्षेत्रगत भिन्नताओं एवं वर्गगत भिन्नताओं पर आधारित भाषा के भिन्न रूप उसकी बोलियाँ हैं। बोलियाँ से ही भाषा का अस्तित्व है। इस प्रसंग में, यह सवाल उठाया जा सकता है कि सामान्य व्यक्ति अपने भाषा-क्षेत्र में प्रयुक्त बोलियों से इतर जिस भाषिक रूप को सामान्यतः ‘भाषा’ समझता है वह फिर क्या है। वह असल में उस भाषा क्षेत्र की किसी क्षेत्रीय बोली के आधार पर विकसित ‘उस भाषा का मानक भाषा रूप’ होता है।

इस दृष्टि के कारण ऐसे व्यक्ति ‘मानक भाषा’ या ‘परिनिष्ठित भाषा’ को मात्र ‘भाषा’ नाम से पुकारते हैं तथा अपने इस दृष्टिकोण के कारण ‘बोली’ को भाषा का भ्रष्ट रूप, अपभ्रंश रूप तथा ‘गँवारू भाषा’ जैसे नामों से पुकारते हैं। वस्तुतः बोलियाँ अनौपचारिक एवं सहज अवस्था में अलग-अलग क्षेत्रों में उच्चारित होने वाले रूप हैं जिन्हें संस्कृत में ‘देश भाषा’ तथा अपभ्रंश में ‘देसी भाषा’ कहा गया है।  भाषा का ‘मानक’ रूप समस्त बोलियों के मध्य सम्पर्क सूत्र का काम करता है। भाषा की क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्नताएँ उसे बोलियों के स्तरों में विभाजित कर देती हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बोलियों के स्तर पर विभाजित भाषा के रूप निश्चित क्षेत्र अथवा वर्ग में व्यवहृत होते हैं जबकि प्रकार्यात्मक धरातल पर विकसित भाषा के मानक रूप, उपमानक रूप, विशिष्ट रूप (अपभाषा, गुप्त भाषा आदि) पूरे भाषा क्षेत्र में प्रयुक्त होते हैं, भले ही इनके बोलने वालों की संख्या न्यूनाधिक हो।

प्रत्येक उच्चारित एवं व्यवहृत भाषा की बोलियाँ होती हैं। किसी भाषा में बोलियों की संख्या दो या तीन होती है तो किसी में बीस-तीस भी होती है। कुछ भाषाओं में बोलियों का अन्तर केवल कुछ विशिष्ट ध्वनियों के उच्चारण की भिन्नताओं तथा बोलने के लहजे मात्र का होता है जबकि कुछ भाषाओं में बोलियों की भिन्नताएँ भाषा के समस्त स्तरों पर प्राप्त हो सकती हैं। दूसरे शब्दों में, बोलियों में  ध्वन्यात्मक, ध्वनिग्रामिक, रूपग्रामिक, वाक्यविन्यासीय, शब्दकोषीय एवं अर्थ सभी स्तरों पर अन्तर हो सकते हैं। कहीं-कहीं ये भिन्नताएँ इतनी अधिक होती हैं कि एक सामान्य व्यक्ति यह बता देता है कि अमुक भाषिक रूप का बोलने वाला व्यक्ति अमुक बोली क्षेत्र का है।

किसी-किसी भाषा में क्षेत्रगत भिन्नताएँ इतनी व्यापक होती हैं तथा उन भिन्न भाषिक-रूपों के क्षेत्र इतने विस्तृत होते हैं कि उन्हें सामान्यतः भाषाएँ माना जा सकता है। इसका उदाहरण चीन देश की मंदारिन भाषा है, जिसकी बोलियों के क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत हैं तथा उनमें से बहुत-सी परस्पर अबोधगम्य भी हैं। जब तक यूगोस्लाविया एक देश था तब तक क्रोएशियाई और सर्बियाई को एक भाषा की दो बोलियाँ माना जाता था। यूगोस्लाव के विघटन के बाद से इन्हें भिन्न भाषाएँ माना जाने लगा है। ये उदाहरण इस तथ्य को प्रतिपादित करते हैं कि पारस्परिक बोधगम्यता के सिद्धांत की अपेक्षा कभी-कभी सांस्कृतिक एवं राजनैतिक कारण अधिक निर्णायक भूमिका अदा करते हैं।

हिन्दी भाषा क्षेत्र में भी ‘राजस्थानी’ एवं ‘भोजपुरी’ के क्षेत्र एवं उनके बोलने वालों की संख्या संसार की बहुत सी भाषाओं के क्षेत्र एवं बोलने वालों की संख्या से अधिक है। ´हिन्दी भाषा-क्षेत्र’ में, सामाजिक-सांस्कृतिक समन्वय के प्रतिमान के रूप में मानक अथवा व्यावहारिक हिन्दी सामाजिक जीवन में परस्पर आश्रित सहसम्बन्धों की स्थापना करती है। सम्पूर्ण हिन्दी भाषा क्षेत्र में मानक अथवा व्यावहारिक हिन्दी के उच्च प्रकार्यात्मक सामाजिक मूल्य के कारण ये भाषिक रूप ‘हिन्दी भाषा’ के अन्तर्गत माने जाते हैं। इस सम्बंध में आगे विस्तार से चर्चा की जाएगी।

3.भाषा-क्षेत्र की क्षेत्रगत भिन्नताओं के सम्भावित स्तर –

अभी तक हमने किसी भाषा-क्षेत्र में तीन भाषिक स्तरों की विवेचना की है:-

            (1.)       व्यक्ति-बोली

            (2.)       बोली

            (3.)       भाषा

व्यक्ति-बोलियों के समूह को ‘बोली’ तथा बोलियों के समूह को ‘भाषा’ कहा गया है। जिस प्रकार किसी भाषा के व्याकरण में शब्द एवं वाक्य के बीच अनेक व्याकरणिक स्तर हो सकते हैं उसी प्रकार भाषा एवं बोली एवं व्यक्ति-बोली के बीच अनेक भाषा स्तर हो सकते हैं। इन अनेक स्तरों के निम्न में से कोई एक अथवा अनेक  आधार हो सकते हैं –

I.          भाषा क्षेत्र का विस्तार एवं फैलाव

II.         उस भाषा क्षेत्र के विविध उपक्षेत्रों की भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक स्थितियाँ

III.       भाषा-क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों के पारस्परिक सामाजिक और भावात्मक सम्बन्ध

उपभाषा

यदि किसी भाषा में बोलियों की संख्या बहुत अधिक होती है तथा उस भाषा का क्षेत्र बहुत विशाल होता है तो पारस्परिक बोधगम्यता अथवा अन्य भाषेतर कारणों से बोलियों के वर्ग बन जाते हैं। इनको ‘उप भाषा’ के स्तर के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।

उपबोली

यदि एक बोली का क्षेत्र बहुत विशाल होता है तो उसमें क्षेत्रगत अथवा वर्गगत भिन्नताएँ स्पष्ट दिखाई देती हैं। इनको बोली एवं व्यक्ति-बोली के बीच ‘उपबोली’ का स्तर माना जाता है। उपबोली को कुछ भाषा वैज्ञानिकों ने पेटवा, जनपदीय बोली अथवा स्थान-विशेष की बोली के नाम से पुकारना अधिक संगत माना हैं।

इसको इस प्रकार भी व्यक्त किया जा सकता है कि किसी भाषा क्षेत्र में भाषा की संरचक उपभाषाएँ, उपभाषा के संरचक बोलियाँ, बोली के संरचक उपबोलियाँ तथा उपबोली के संरचक व्यक्ति बोलियाँ हो सकती हैं। व्यक्ति-बोली से लेकर भाषा तक अनेक वर्गीकृत स्तरों का अधिक्रम हो सकता है।

4. हिन्दी की समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा

 हिन्दी कभी अपने भाषा-क्षेत्र की सीमाओं में नहीं सिमटी। यह हिमालय से लेकर कन्याकुमारी और द्वारका से लेकर कटक तक भारतीय लोक चेतना की संवाहिका रही। सम्पर्क भाषा हिन्दी की एक अन्य विशिष्टता यह रही कि यह किसी बँधे बँधाए मानक रूप की सीमाओं में नहीं जकड़ी। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि केवल बोलचाल की भाषा में ही यह प्रवृत्ति नहीं है; साहित्य में प्रयुक्त हिन्दी में भी यह प्रवृत्ति मिलती है।

हिन्दी साहित्य की समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा रही है, हिन्दी साहित्य के इतिहास की समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा रही है और हिन्दी साहित्य के अध्ययन और अध्यापन की भी समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा रही है। जो पाठक इस परम्परा को विस्तार से जानना चाहते हैं, वे मेरे “हिन्दी काव्यभाषा का उद् गम कालीन स्वरूप” शीर्षक लेख का अध्ययन कर सकते हैं।6 हिन्दी की इस समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा को जानना बहुत जरूरी है तथा इसे आत्मसात करना भी बहुत जरूरी है तभी हिन्दी क्षेत्र की अवधारणा को जाना जा सकता है और जो ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का कुचक्र रच रही हैं तथा हिन्दी की ताकत को समाप्त करने के षड़यंत्र कर रही हैं उन ताकतों के षड़यंत्रों को बेनकाब किया जा सकता है तथा उनके कुचक्रों को ध्वस्त किया जा सकता है। 

वर्तमान में हम हिन्दी भाषा के इतिहास के बहुत महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़े हुए हैं। आज बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है। आज हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के जो प्रयत्न हो रहे हैं सबसे पहले उन्हे जानना और पहचानना जरूरी है और इसके बाद उनका प्रतिकार करने की जरूरत है। यदि आज हम इससे चूक गए तो इसके भयंकर परिणाम होंगे। मुझे सन् 1993 के एक प्रसंग का स्मरण आ रहा है। मध्य प्रदेश के तत्कालीन शिक्षा मंत्री ने भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्री को मध्य प्रदेश में ‘मालवी भाषा शोध संस्थान’ खोलने तथा उसके लिए अनुदान का प्रस्ताव भेजा था। उस समय भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्री श्री अर्जुन सिंह थे जिनके प्रस्तावक से निकट के सम्बंध थे। मंत्रालय ने उक्त प्रस्ताव केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक होने के नाते लेखक के पास टिप्पण देने के लिए भेजा। लेखक ने सोच समझकर टिप्पण लिखा: “भारत सरकार को पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मध्य प्रदेश हिन्दी भाषी राज्य है अथवा बुन्देली, बघेली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी आदि भाषाओं का राज्य है”। मुझे पता चला कि उक्त टिप्पण के बाद प्रस्ताव को ठंढे बस्ते में डाल दिया गया। 

एक ओर हिन्दीतर राज्यों के विश्वविद्यालयों और विदेशों के लगभग 176 विश्वविद्यालयों एवं संस्थाओं में हजारों की संख्या में शिक्षार्थी हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन और शोध कार्य में समर्पण-भावना तथा पूरी निष्ठा से प्रवृत्त तथा संलग्न हैं वहीं दूसरी ओर हिन्दी भाषा-क्षेत्र में ही अनेक लोग हिन्दी के विरुद्ध साजिश रच रहे हैं। सामान्य व्यक्ति ही नहीं, हिन्दी के तथाकथित विद्वान भी हिन्दी का अर्थ खड़ी बोली मानने की भूल कर रहे हैं।

जब लेखक जबलपुर के विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी एवं भाषाविज्ञान विभाग का प्रोफेसर था, उसके पास विभिन्न विश्वविद्यालयों से हिन्दी की उपभाषाओं / बोलियों पर पी-एच. डी. एवं डी. लिट्. उपाधियों के लिए प्रस्तुत शोध प्रबंध जाँचने के लिए आते थे। लेखक ने ऐसे अनेक शोध प्रबंध देखें जिनमें एक ही पृष्ठ पर एक पैरा में विवेच्य बोली को उपबोली का दर्जा दिया दिया गया, दूसरे पैरा में उसको हिन्दी की बोली निरुपित किया गया तथा तीसरे पैरा में उसे भारत की प्रमुख भाषा के अभिधान से महिमामंडित कर दिया गया।

इससे यह स्पष्ट है कि शोध छात्रों अथवा शोध छात्राओं को तो जाने ही दीजिए उन शोध छात्रों अथवा शोध छात्राओं के निर्देशक महोदय भी भाषा-भूगोल एवं बोली विज्ञान (Linguistic Geography and Dialectology) के सिद्धांतों से अनभिज्ञ थे।

सन् 2009 में, लेखक ने नामवर सिंह का यह वक्तव्य पढ़ाः

 “हिंदी समूचे देश की भाषा नहीं है वरन वह तो अब एक प्रदेश की भाषा भी नहीं है। उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों की भाषा भी हिंदी नहीं है। वहाँ की क्षेत्रीय भाषाएँ यथा अवधी, भोजपुरी, मैथिल आदि हैं”। इसको पढ़कर मैंने नामवर सिंह के इस वक्तव्य पर असहमति के तीव्र स्वर दर्ज कराने तथा हिन्दी के विद्वानों को वस्तुस्थिति से अवगत कराने के लिए लेख लिखा। हिन्दी के प्रेमियों से लेखक का यह अनुरोध है कि इस लेख का अध्ययन करने की अनुकंपा करें जिससे हिन्दी के कथित बड़े विद्वान एवं आलोचक डॉ. नामवर सिंह जैसे लोगों के हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ डालने के मंसूबे ध्वस्त हो सकें तथा ऐसी ताकतें बेनकाब हो सकें। जो व्यक्ति मेरे इस कथन को विस्तार से समझना चाहते हैं, वे मेरे ‘क्या उत्तर प्रदेश एवं बिहार हिन्दी भाषी राज्य नहीं हैं’ शीर्षक लेख का अध्ययन कर सकते हैं।7

5.हिन्दी भाषा-क्षेत्र के क्षेत्रीय भाषिक-रूप

हिन्दी भाषा के संदर्भ में विचारणीय है कि अवधी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, ब्रज, कन्नौजी, खड़ी बोली को बोलियाँ माने या उपभाषाएँ ?

यहाँ यह द्रष्टव्य है कि इनके क्षेत्र तथा इनके बोलने वालों की संख्या काफी विशाल है तथा इनमें बहुत अधिक भिन्नताएँ हैं जिनके कारण इनको बोली की अपेक्षा उपभाषा मानना अधिक संगत है। उदाहरण के रूप में यदि बुन्देली को उपभाषा के रूप में स्वीकार किया जाता है तो पंवारी , लोधान्ती, खटोला, भदावरी, सहेरिया तथा ‘छिन्दवाड़ा बुन्देली’ आदि रूपों को बुन्देली उपभाषा की बोलियाँ माना जा सकता है। इन बोलियों में एक या एक से अधिक बोलियों की अपनी उपबोलियाँ हैं। उदाहरण के रूप में बुन्देली उपभाषा की ‘छिन्दवाड़ा बुन्देली’ बोली की पोवारी, गाओंली, राघोबंसी, किरारी आदि उपबोलियाँ है। इस प्रकार बुन्देली के संदर्भ में व्यक्तिगत बोली, उपबोली, बोली, एवं उपभाषा रूप प्राप्त हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार बुन्देली में बोलियाँ एवं उनकी उपबोलियाँ मिलती हैं उसी प्रकार कन्नौजी की बोलियाँ एवं उनकी उपबोलियाँ अथवा हरियाणवी की बोलियाँ एवं उपबोलियाँ प्राप्त नहीं होती। किन्तु हरियाणवी एवं कन्नौजी को भी वही दर्जा देना पड़ेगा जो हम बुन्देली को देंगे। यदि हम बुन्देली को हिन्दी की एक उपभाषा के रूप में स्वीकार करते हैं तो कन्नौजी एवं हरियाणवी भी हिन्दी की उपभाषाएँ हैं। इस दृष्टि से हिन्दी के क्षेत्रगत रूपों के स्तर वर्गीकरण में कहीं उपभाषा एवं बोली के अलग-अलग स्तर हैं तथा कहीं उपभाषा एवं बोली का एक ही स्तर हैं। यह बहुत कुछ इसी प्रकार है जिस प्रकार मिश्र एवं संयुक्त वाक्यों में वाक्य एवं उपवाक्य के स्तर अलग-अलग होते हैं किन्तु सरल वाक्य में एक ही उपवाक्य होता है।

हिन्दी भाषा के संदर्भ में विचारणीय है कि क्या उपभाषा एवं भाषा के बीच भी कोई स्तर स्थापित किया जाना चाहिए अथवा नहीं।इसका कारण यह है कि जिन भाषा रूपों को हमने उपभाषाएँ कहा है उन उपभाषाओं को ग्रियर्सन ने भाषा-सर्वेक्षण में ऐतिहासिक सम्बंधों के आधार पर 05 वर्गों में बाँटा है तथा प्रत्येक वर्ग में एकाधिक उपभाषाओं को समाहित किया है। ये पाँच वर्ग निम्नलिखित है:-

            (1.)       पश्चिमी हिन्दी

            (2.)       पूर्वी हिन्दी

            (3.)       राजस्थानी

            (4.)       बिहारी

            (5.)       पहाड़ी

इस सम्बंध में लेखक का मत है कि संकालिक भाषावैज्ञानिक दृष्टि से इस प्रकार के वर्गीकरण की आवश्यकता नहीं है। जो विद्वान ग्रियर्सन के ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से इन वर्गों को कोई नाम देना ही चाहते हैं तो वे हिन्दी के सन्दर्भ में उपभाषा एवं भाषा के बीच उपभाषा की समूह गत इकाइयों को अन्य किसी नाम के अभाव में ‘उपभाषावर्ग’ के नाम से पुकार सकते हैं।

इस प्रकार जिस भाषा का क्षेत्र अपेक्षाकृत छोटा होता है वहाँ भाषा के केवल 3 क्षेत्रगत स्तर होते हैं:-

1.व्यक्ति बोली

2.बोली

3.भाषा

हिन्दी जैसे विस्तृत भाषा-क्षेत्र में निम्नलिखित क्षेत्रगत स्तर हो सकते हैं:-

व्यक्ति बोली

उपबोली

बोली

उपभाषा

उपभाषावर्ग

भाषा

जो विद्वान हिन्दी भाषा की कुछ उपभाषाओं को हिन्दी भाषा से भिन्न भाषाएँ मानने के मत एवं विचार प्रस्तुत कर रहे हैं उनके निराकरण के लिए तथा जिज्ञासु पाठकों के अवलोकनार्थ एवं विचारार्थ निम्न टिप्पण प्रस्तुत हैं –

‘हिन्दी भाषा क्षेत्र’ के अन्‍तर्गत भारत के निम्‍नलिखित राज्‍य एवं केन्‍द्र शासित प्रदेश समाहित हैं –

उत्‍तर प्रदेश

उत्‍तराखंड

बिहार

 झारखंड

मध्‍यप्रदेश

छत्‍तीसगढ़

राजस्‍थान

हिमाचल प्रदेश

हरियाणा

दिल्ली

चण्डीगढ़।

भारत के संविधान की दृष्‍टि से यही स्‍थिति है।भाषाविज्ञान का प्रत्‍येक विद्‌यार्थी जानता है कि प्रत्‍येक भाषा क्षेत्र में भाषिक भिन्‍नताएँ होती हैं। हम यह प्रतिपादित कर चुके हैं कि प्रत्येक ‘भाषा क्षेत्र’ में क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्‍नताएँ होती हैं तथा बोलियों की समष्‍टि का नाम ही भाषा है। किसी भाषा की बोलियों से इतर व्‍यवहार में सामान्‍य व्‍यक्‍ति भाषा के जिस रूप को ‘भाषा’ के नाम से अभिहित करते हैं वह तत्‍वतः भाषा नहीं होती। भाषा का यह रूप उस भाषा क्षेत्र के किसी बोली अथवा बोलियों के आधार पर विकसित उस भाषा का ‘मानक भाषा रूप’/’व्‍यावहारिक भाषा रूप’ होता है। भाषा विज्ञान से अनभिज्ञ व्‍यक्‍ति इसी को ‘भाषा’ कहने लगते हैं तथा ‘भाषा क्षेत्र’ की बोलियों को अविकसित, हीन एवं गँवारू कहने, मानने एवं समझने लगते हैं।

हम इस संदर्भ में, इस तथ्य को रेखांकित करना चाहते हैं कि भारतीय भाषिक परम्‍परा इस दृष्‍टि से अधिक वैज्ञानिक रही है। भारतीय परम्‍परा ने भाषा के अलग अलग क्षेत्रों में बोले जाने वाले भाषिक रूपों को ‘देस भाखा’ अथवा ‘देसी भाषा’ के नाम से पुकारा तथा घोषणा की कि देसी वचन सबको मीठे लगते हैं – ‘ देसिल बअना सब जन मिट्‌ठा।’8

हिन्‍दी भाषा क्षेत्र में हिन्‍दी की मुख्‍यतः 20 बोलियाँ अथवा उपभाषाएँ बोली जाती हैं। इन 20 बोलियों अथवा उपभाषाओं को ऐतिहासिक परम्‍परा से पाँच वर्गों में विभक्‍त किया जाता है – पश्‍चिमी हिन्‍दी, पूर्वी हिन्‍दी, राजस्‍थानी हिन्‍दी, बिहारी हिन्‍दी और पहाड़ी हिन्‍दी।

पश्चिमी हिन्‍दी – 1. खड़ी बोली 2. ब्रजभाषा 3. हरियाणवी 4. बुन्‍देली 5. कन्‍नौजी

पूर्वी हिन्‍दी – 1. अवधी 2. बघेली 3. छत्‍तीसगढ़ी

राजस्‍थानी – 1. मारवाड़ी 2. मेवाती 3. जयपुरी 4.मालवी

बिहारी – 1. भोजपुरी 2. मैथिली 3. मगही 4. अंगिका 5. बज्जिका

पहाड़ी –  1. कूमाऊँनी 2. गढ़वाली 3. हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली हिन्‍दी की अनेक बोलियाँ जिन्‍हें आम बोलचाल में ‘ पहाड़ी ‘ नाम से पुकारा जाता है।

टिप्पण –

मैथिली –

मैथिली  को अलग भाषा का दर्जा दे दिया गया है हॉलाकि हिन्‍दी साहित्‍य के पाठ्‌यक्रम में अभी भी मैथिली कवि विद्‌यापति पढ़ाए जाते हैं तथा जब नेपाल में मैथिली आदि भाषिक रूपों के बोलने वाले मधेसी लोगों पर दमनात्‍मक कार्रवाई होती है तो वे अपनी पहचान ‘हिन्‍दी भाषी’ के रूप में उसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार मुम्‍बई में रहने वाले भोजपुरी, मगही, मैथिली एवं अवधी आदि बोलने वाले अपनी पहचान ‘हिन्‍दी भाषी’ के रूप में करते हैं।

छत्तीसगढ़ी एवं भोजपुरी –

जबसे मैथिली एवं छत्तीसगढ़ी को अलग भाषाओं का दर्जा मिला है तब से भोजपुरी को भी अलग भाषा का दर्जा दिए जाने की माँग प्रबल हो गई है। हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का सिलसिला मैथिली एवं छत्तीसगढ़ी से आरम्भ हो गया है। मैथिली पर टिप्पण लिखा जा चुका है। छत्तीसगढ़ी एवं भोजपुरी के सम्बंध में कुछ विचार प्रस्तुत हैं। जब तक छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश का हिस्सा था तब तक छत्तीसगढ़ी को हिन्दी की बोली माना जाता था। रायपुर विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा का सन् 1976 में एक आलेख रायपुर से भाषिकी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ जिसमें हिन्दी की 22 बोलियों के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी समाहित है।9

लेखक भोजपुरी के सम्बंध में भी कुछ निवेदन करना चाहता है। लेखक को जबलपुर के विश्वविद्यालय में डॉ. उदय नारायण तिवारी जी के साथ काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भोजपुरी की भाषिक स्थिति को लेकर अकसर हमारे बीच विचार विमर्श होता था। उनके जामाता डॉ. शिव गोपाल मिश्र उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष व्याख्यानमाला आयोजित करते हैं। दिनांक 26 जून, 2013 को मुझे हिन्दुस्तानी एकाडमी, इलाहाबाद के श्री बृजेशचन्द्र का ‘डॉ. उदय नारायण तिवारी व्याख्यानमाला’ निमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ। व्याख्यान का विषय था – ‘भोजपुरी भाषा’। लेखक ने उसी दिन व्याख्यान के सम्बंध में डॉ. शिव गोपाल मिश्र को जो पत्र लिखा उसका व्याख्यान के विषय से सम्बंधित अंश पाठको के अवलोकनार्थ अविकल प्रस्तुत हैं –

डॉ. उदय नारायण तिवारी जी ने भोजपुरी का भाषावैज्ञानिक अध्ययन किया। उनके अध्ययन का वही महत्व है जो सुनीति कुमार चटर्जी के बांग्ला पर सम्पन्न कार्य का है। इस विषय पर हमारे बीच अनेक बार संवाद हुए। कई बार मत भिन्नता भी हुई। जब लेखक भाषा-भूगोल एवं बोली-विज्ञान के सिद्धांतों के आलोक में हिन्दी भाषा-क्षेत्र की विवेचना करता था तो डॉ. तिवारी जी इस मत से सहमत हो जाते थे कि हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अंतर्गत भारत के जितने राज्य एवं केन्द्र शासित प्रदेश समाहित हैं, उन समस्त क्षेत्रों में जो भाषिक रूप बोले जाते हैं, उनकी समष्टि का नाम हिन्दी है। खड़ी बोली ही हिन्दी नहीं है अपितु यह भी हिन्दी भाषा-क्षेत्र का उसी प्रकार एक क्षेत्रीय भेद है जिस प्रकार हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्य अनेक क्षेत्रीय भेद हैं। मगर कभी-कभी उनका तर्क होता था कि खड़ी बोली बोलने वाले और भोजपुरी बोलने वालों के बीच बोधगम्यता बहुत कम होती है। इस कारण भोजपुरी को यदि अलग भाषा माना जाता है तो इसमें क्या हानि है। जब लेखक कहता था कि भाषाविज्ञान का सिद्धांत है कि संसार की प्रत्येक भाषा के ‘भाषा-क्षेत्र’ में भाषिक भिन्नताएँ होती हैं। हम ऐसी किसी भाषा की कल्पना नहीं कर सकते जिसके भाषा-क्षेत्र में क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्नताएँ न हों। इस पर डॉ. तिवारी जी असमंजस में पड़ जाते थे। अनेक वर्षों के संवाद के अनन्तर एक दिन डॉ. तिवारी जी ने मुझे अपने मन के रहस्य से अवगत कराया। उनके शब्द थेः

“जब मैं ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के अपने अध्ययन के आधार पर विचार करता हूँ तो मुझे भोजपुरी की स्थिति हिन्दी से अलग भिन्न भाषा की लगती है मगर जब मैं संकालिक भाषाविज्ञान के सिद्धांतों की दृष्टि से सोचता हूँ तो पाता हूँ कि भोजपुरी भी हिन्दी भाषा-क्षेत्र का एक क्षेत्रीय रूप है”।10

बहुत से विद्वान यह तर्क देते हैं कि डॉ. उदय नारायण तिवारी ने “भोजपुरी भाषा और साहित्य” शीर्षक ग्रंथ में “भोजपुरी” को भाषा माना है। इस सम्बंध में, लेखक विद्वानों को इस तथ्य से अवगत करना चाहता है कि हिन्दी में प्रकाशित उक्त ग्रंथ उनके डी. लिट्. उपाधि के लिए स्वीकृत अंग्रेजी भाषा में लिखे गए शोध-प्रबंध का हिन्दी रूपांतर है। डॉ. उदय नारायण तिवारी ने कलकत्ता में सन् 1941 ईस्वी में पहले ‘तुलनात्मक भाषाविज्ञान’ में एम. ए. की परीक्षा पास की तथा सन् 1942 ईस्वी में डी. लिट्. उपाधि के लिए शोध-प्रबंध पूरा करके इलाहाबाद लौट आए तथा उसे परीक्षण के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जमा कर दिया। आपने अपना शोध-प्रबंध अंग्रेजी भाषा में डॉ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या के निर्देशन में सम्पन्न किया तथा डी. लिट्. की उपाधि प्राप्त होने के बाद इसका प्रकाशन ‘एशियाटिक सोसाइटी’ से हुआ। इस शोध-प्रबंध का शीर्षक है – ‘ए डाइलेक्ट ऑफ भोजपुरी’। डॉ. उदय नारायण तिवारी ने इस तथ्य को स्वयं अपने एक लेख अभिव्यक्त किया है।11

राजस्थानी –

“श्रीमद्जवाहराचार्य स्मृति व्याख्यानमाला” के अन्तर्गत “विश्व शान्ति एवं अहिंसा” विषय पर व्याख्यान देने सन् 1987 ईस्वी में लेखक का कलकत्ता (कोलकोता) जाना हुआ था। वहाँ श्री सरदारमल जी कांकरिया के निवास पर लेखक का संवाद राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए आन्दोलन चलाने वाले तथा राजस्थानी में “धरती धौरां री” एवं “पातल और पीथल” जैसी कृतियों की रचना करने वाले कन्हैया लाल सेठिया जी से हुआ। उनका आग्रह था कि राजस्थानी को स्वतंत्र भाषा का दर्जा मिलना चाहिए। लेखक ने उनसे अपने आग्रह पर पुनर्विचार करने की कामना व्यक्त की और मुख्यतः निम्न मुद्दों पर विचार करने का अनुरोध किया –

(1) ग्रियर्सन ने ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया है। स्वाधीनता आन्दोलन में हमारे राष्ट्रीय नेताओं के कारण हिन्दी का जितना प्रचार प्रसार हुआ उसके कारण हमें ग्रियर्सन की दृष्टि से नहीं अपितु डॉ. धीरेन्द्र वर्मा आदि भाषाविदों की दृष्टि से विचार करना चाहिए।

(2) राजस्थानी भाषा जैसी कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है। राजस्थान में निम्न क्षेत्रीय भाषिक-रूप बोले जाते हैं –

1. मारवाड़ी

2.मेवाती

3.जयपुरी

4. मालवी (राजस्थान के साथ-साथ मध्य-प्रदेश में भी)

राजस्थानी जैसी स्वतंत्र भाषा नहीं है। इन विविध भाषिक रूपों को हिन्दी के रूप मानने में क्या आपत्ति हो सकती है।

(3) यदि आप राजस्थानी का मतलब केवल मारवाड़ी से लेंगे तो क्या मेवाती, जयपुरी, मालवी, हाड़ौती, शेखावाटी आदि अन्य भाषिक रूपों के बोलने वाले अपने अपने भाषिक रूपों के लिए आवाज़ नहीं उठायेंगे।

(4) भारत की भाषिक परम्परा रही है कि एक भाषा के हजारों भूरि भेद माने गए हैं मगर अंतरक्षेत्रीय सम्पर्क के लिए एक भाषा की मान्यता रही है।

(5) हिन्दी साहित्य की संश्लिष्ट परम्परा रही है। इसी कारण हिन्दी साहित्य के अंतर्गत रास एवं रासो साहित्य की रचनाओं का भी अध्ययन किया जाता है।

(6) राजस्थान की पृष्ठभूमि  पर आधारित हिन्दी कथा साहित्य एवं हिन्दी फिल्मों में जिस राजस्थानी मिश्रित हिन्दी का प्रयोग होता है उसे हिन्दी भाषा क्षेत्र के प्रत्येक भाग का रहने वाला समझ लेता है।

(7) मारवाड़ी लोग व्यापार के कारण भारत के प्रत्येक राज्य में निवास करते हैं तथा अपनी पहचान हिन्दी भाषी के रूप में करते हैं। यदि आप राजस्थानी को हिन्दी से अलग मान्यता दिलाने का प्रयास करेंगे तो राजस्थान के बाहर रहने वाले मारवाड़ी व्यापारियों के हित प्रभावित हो सकते हैं।

(8) भारतीय भाषाओं के अस्तित्व एवं महत्व को अंग्रेजी से खतरा है। संसार में अंग्रेजी भाषियों की जितनी संख्या है उससे अधिक संख्या केवल हिन्दी भाषियों की है। यदि हिन्दी के उपभाषिक रूपों को हिन्दी से अलग मान लिया जाएगा तो भारत की कोई भाषा अंग्रेजी से टक्कर नहीं ले सकेगी और धीरे धीरे भारतीय भाषाओं के अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा।12

पहाड़ी –

डॉ. सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने ‘पहाड़ी’ समुदाय के अन्‍तर्गत बोले जाने वाले भाषिक रूपों को तीन शाखाओं में बाँटा –

(अ) पूर्वी पहाड़ी अथवा नेपाली

(आ)  मध्‍य या केन्‍द्रीय पहाड़ी

(इ)पश्‍चिमी पहाड़ी।

हिन्‍दी भाषा के संदर्भ में वर्तमान स्‍थिति यह है कि हिन्‍दी भाषा के अन्‍तर्गत मध्‍य या केन्‍द्रीय पहाड़ी की उत्‍तराखंड में बोली जाने वाली 1.  कूमाऊँनी 2. गढ़वाली तथा पश्‍चिमी पहाड़ी की हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली हिन्‍दी की अनेक बोलियाँ हैं जिन्‍हें आम बोलचाल में ‘ पहाड़ी ‘ नाम से पुकारा जाता है।

हिन्‍दी भाषा के संदर्भ में विचारणीय है कि अवधी, बुन्‍देली, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली आदि को हिन्‍दी भाषा की बोलियाँ माना जाए अथवा उपभाषाएँ माना जाए। सामान्‍य रूप से इन्‍हें बोलियों के नाम से अभिहित किया जाता है किन्‍तु लेखक ने अपने ग्रन्‍थ ‘ भाषा एवं भाषाविज्ञान’ में इन्‍हें उपभाषा मानने का प्रस्‍ताव किया है। ‘ – – क्षेत्र, बोलने वालों की संख्‍या तथा परस्‍पर भिन्‍नताओं के कारण इनको बोली की अपेक्षा उपभाषा मानना अधिक संगत है। इसी ग्रन्‍थ में लेखक ने पाठकों का ध्‍यान इस ओर भी आकर्षित किया कि हिन्‍दी की कुछ उपभाषाओं के भी क्षेत्रगत भेद हैं जिन्‍हें उन उपभाषाओं की बोलियों अथवा उपबोलियों के नाम से पुकारा जा सकता है। 13

यहाँ यह भी उल्‍लेखनीय है कि इन उपभाषाओं के बीच कोई स्‍पष्‍ट विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है। प्रत्‍येक दो उपभाषाओं के मध्‍य संक्रमण क्षेत्र विद्‌यमान है।

6. हिन्दी भाषा-क्षेत्र की मानक भाषा

विश्‍व की प्रत्‍येक भाषा के विविध बोली अथवा उपभाषा क्षेत्रों में से विभिन्न सांस्‍कृतिक कारणों से जब कोई एक क्षेत्र अपेक्षाकृत अधिक महत्‍वपूर्ण हो जाता है तो उस क्षेत्र के भाषा रूप का सम्‍पूर्ण भाषा क्षेत्र में प्रसारण होने लगता है। इस क्षेत्र के भाषारूप के आधार पर पूरे भाषाक्षेत्र की ‘मानक भाषा’ का विकास होना आरम्‍भ हो जाता है। भाषा के प्रत्‍येक क्षेत्र के निवासी इस भाषारूप को ‘मानक भाषा’ मानने लगते हैं। इसको मानक मानने के कारण यह मानक भाषा रूप ‘भाषा क्षेत्र’ के लिए सांस्‍कृतिक मूल्‍यों का प्रतीक बन जाता है। मानक भाषा रूप की शब्‍दावली, व्‍याकरण एवं उच्‍चारण का स्‍वरूप अधिक निश्चित एवं स्‍थिर होता है एवं इसका प्रचार, प्रसार एवं विस्‍तार पूरे भाषा क्षेत्र में होने लगता है। कलात्‍मक एवं सांस्‍कृतिक अभिव्‍यक्‍ति का माध्‍यम एवं शिक्षा का माध्‍यम यही मानक भाषा रूप हो जाता है। इस प्रकार भाषा के ‘मानक भाषा रूप’ का आधार उस भाषाक्षेत्र की क्षेत्रीय बोली अथवा उपभाषा ही होती है, किन्‍तु मानक भाषा होने के कारण चूँकि इसका प्रसार अन्‍य बोली क्षेत्रों अथवा उपभाषा क्षेत्रों में होता है इस कारण इस भाषारूप पर ‘भाषा क्षेत्र’ की सभी बोलियों का प्रभाव पड़ता है तथा यह भी सभी बोलियों अथवा उपभाषाओं को प्रभावित करता है। उस भाषा क्षेत्र के शिक्षित व्‍यक्‍ति औपचारिक अवसरों पर इसका प्रयोग करते हैं। भाषा के मानक भाषा रूप को सामान्‍य व्‍यक्‍ति अपने भाषा क्षेत्र की ‘मूल भाषा’, केन्‍द्रक भाषा’, ‘मानक भाषा’ के नाम से पुकारते हैं। यदि किसी भाषा का क्षेत्र हिन्‍दी भाषा की तरह विस्‍तृत होता है तथा यदि उसमें ‘हिन्‍दी भाषा क्षेत्र’ की भाँति उपभाषाओं एवं बोलियों की अनेक परतें एवं स्‍तर होते हैं तो ‘मानक भाषा’ के द्वारा समस्‍त भाषा क्षेत्र में विचारों का आदान प्रदान सम्‍भव हो पाता है। भाषा क्षेत्र के यदि आंशिक अबोधगम्‍य उपभाषी अथवा बोली बोलने वाले परस्‍पर अपनी उपभाषा अथवा बोली के माध्‍यम से विचारों का समुचित आदान प्रदान नहीं कर पाते तो इसी मानक भाषा के द्वारा संप्रेषण करते हैं। भाषा विज्ञान में इस प्रकार की बोधगम्‍यता को ‘पारस्‍परिक बोधगम्‍यता’ न कहकर ‘एकतरफ़ा बोधगम्‍यता’ कहते हैं। ऐसी स्‍थिति में अपने क्षेत्र के व्‍यक्‍ति से क्षेत्रीय बोली में बातें होती हैं किन्‍तु दूसरे उपभाषा क्षेत्र अथवा बोली क्षेत्र के व्‍यक्‍ति से अथवा औपचारिक अवसरों पर मानक भाषा के द्वारा बातचीत होती हैं। इस प्रकार की भाषिक स्‍थिति को फर्गुसन ने बोलियों की परत पर मानक भाषा का अध्‍यारोपण कहा है।14 गम्‍पर्ज़ ने इसे ‘बाइलेक्‍टल’ के नाम से पुकारा है।15

7. हिन्दी भाषा-क्षेत्र एवं सामाजिक संप्रेषण 

हिन्‍दी भाषा क्षेत्र में अनेक क्षेत्रगत भेद एवं उपभेद तो है हीं; प्रत्‍येक क्षेत्र के प्रायः प्रत्‍येक गाँव में सामाजिक भाषिक रूपों के विविध स्‍तरीकृत तथा जटिल स्‍तर विद्‌यमान हैं और यह हिन्दी भाषा-क्षेत्र के सामाजिक संप्रेषण का यथार्थ है जिसको जाने बिना कोई व्यक्ति हिन्दी भाषा के क्षेत्र की विवेचना के साथ न्याय नहीं कर सकता। ये हिन्‍दी पट्‌टी के अन्दर सामाजिक संप्रेषण के विभिन्‍न नेटवर्कों के बीच संवाद के कारक हैं। इस हिन्‍दी भाषा क्षेत्र अथवा पट्‌टी के गावों के रहनेवालों के वाग्‍व्‍यवहारों का गहराई से अध्‍ययन करने पर पता चलता है कि ये भाषिक स्‍थितियाँ इतनी विविध, विभिन्‍न एवं मिश्र हैं कि भाषा व्‍यवहार के स्‍केल के एक छोर पर हमें ऐसा व्‍यक्‍ति मिलता है जो केवल स्‍थानीय बोली बोलना जानता है तथा जिसकी बातचीत में स्‍थानीयेतर कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता वहीं दूसरे छोर पर हमें ऐसा व्‍यक्‍ति मिलता है जो ठेठ मानक हिन्‍दी का प्रयोग करता है तथा जिसकी बातचीत में कोई स्‍थानीय भाषिक प्रभाव परिलक्षित नहीं होता। स्‍केल के इन दो दूरतम छोरों के बीच बोलचाल के इतने विविध रूप मिल जाते हैं कि उन सबका लेखा जोखा प्रस्‍तुत करना असाध्‍य हो जाता है। हमें ऐसे भी व्‍यक्‍ति मिल जाते हैं जो एकाधिक भाषिक रूपों में दक्ष होते हैं जिसका व्‍यवहार तथा चयन वे संदर्भ, व्‍यक्‍ति, परिस्‍थियों को ध्‍यान में रखकर करते हैं। सामान्‍य रूप से हम पाते हैं कि अपने घर के लोगों से तथा स्‍थानीय रोजाना मिलने जुलने वाले घनिष्‍ठ मित्रों से व्‍यक्‍ति जिस भाषा रूप में बातचीत करता है उससे भिन्‍न भाषा रूप का प्रयोग वह उनसे भिन्‍न व्‍यक्‍तियों एवं परिस्‍थितियों में करता है। सामाजिक संप्रेषण के अपने प्रतिमान हैं। व्‍यक्‍ति प्रायः वाग्‍व्‍यवहारों के अवसरानुकूल प्रतिमानों को ध्‍यान में रखकर बातचीत करता है।

हम यह कह चुके हैं कि किसी भाषा क्षेत्र की मानक भाषा का आधार कोई बोली अथवा उपभाषा ही होती है किन्‍तु कालान्‍तर में उक्‍त बोली एवं मानक भाषा के स्‍वरूप में पर्याप्‍त अन्‍तर आ जाता है। सम्‍पूर्ण भाषा क्षेत्र के शिष्‍ट एवं शिक्षित व्‍यक्‍तियों द्वारा औपचारिक अवसरों पर मानक भाषा का प्रयोग किए जाने के कारण तथा साहित्‍य का माध्‍यम बन जाने के कारण स्‍वरूपगत परिवर्तन स्‍वाभाविक है। प्रत्‍येक भाषा क्षेत्र में किसी क्षेत्र विशेष के भाषिक रूप के आधार पर उस भाषा का मानक रूप विकसित होता है, जिसका उस भाषा-क्षेत्र के सभी क्षेत्रों के पढ़े-लिखे व्‍यक्‍ति औपचारिक अवसरों पर प्रयोग करते हैं। हम पाते हैं कि इस मानक हिन्‍दी अथवा व्‍यावहारिक हिन्‍दी का प्रयोग सम्‍पूर्ण हिन्‍दी भाषा क्षेत्र में बढ़ रहा है तथा प्रत्‍येक हिन्‍दी भाषी व्‍यक्‍ति शिक्षित, सामाजिक दृष्‍टि से प्रतिष्‍ठित तथा स्‍थानीय क्षेत्र से इतर अन्‍य क्षेत्रों के व्‍यक्‍तियों से वार्तालाप करने के लिए इसी को आदर्श, श्रेष्‍ठ एवं मानक मानता है। गाँव में रहने वाला एक सामान्‍य एवं बिना पढ़ा लिखा व्‍यक्‍ति भले ही इसका प्रयोग करने में समर्थ तथा सक्षम न हो फिर भी वह इसके प्रकार्यात्‍मक मूल्‍य को पहचानता है तथा वह भी अपने भाषिक रूप को इसके अनुरूप ढालने की जुगाड़ करता रहता है। जो मजदूर शहर में काम करने आते हैं वे किस प्रकार अपने भाषा रूप को बदलने का प्रयास करते हैं – इसको देखा परखा जा सकता है।

सन् 1960 में लेखक ने बुलन्द शहर एवं खुर्जा तहसीलों (ब्रज एवं खड़ी बोली का संक्रमण क्षेत्र) के भाषिक रूपों का संकालिक अथवा एककालिक भाषावैज्ञानिक अध्ययन करना आरम्भ किया।16  सामग्री संकलन के लिए जब लेखक गाँवों में जाता था तथा वहाँ रहने वालों से बातचीत करता था तबके उनके भाषिक रूपों एवं आज लगभग 55 वर्षों के बाद के भाषिक रूपों में बहुत अन्तर आ गया है। अब इनके भाषिक-रूपों पर मानक हिन्दी अथवा व्यावहारिक हिन्दी का प्रभाव आसानी से पहचाना जा सकता है। इनके भाषिक-रूपों में अंग्रेजी शब्दों का चलन भी बढ़ा है। यह कहना अप्रासंगिक होगा कि उनकी जिन्दगी में और व्यवहार में भी बहुत बदलाव आया है।

मानक हिन्दी अथवा व्यावहारिक हिन्दी का सम्पूर्ण हिन्दी भाषा क्षेत्र में व्‍यवहार होने तथा इसके प्रकार्यात्‍मक प्रचार-प्रसार के कारण, यह हिन्दी भाषा-क्षेत्र में प्रयुक्त समस्‍त भाषिक रूपों के बीच सम्पर्क सेतु की भूमिका का निर्वाह कर रहा है। 

हिन्‍दी भाषा का क्षेत्र बहुत विस्‍तृत है। इस कारण इसकी क्षेत्रगत भिन्‍नताएँ भी बहुत अधिक हैं।‘खड़ी बोली’ हिन्दी भाषा क्षेत्र का उसी प्रकार एक भेद है ; जिस प्रकार हिन्‍दी भाषा के अन्‍य बहुत से क्षेत्रगत भेद हैं। हिन्‍दी भाषा क्षेत्र में ऐसी बहुत सी उपभाषाएँ हैं जिनमें पारस्‍परिक बोधगम्‍यता का प्रतिशत बहुत कम है किन्‍तु ऐतिहासिक एवं सांस्‍कृतिक दृष्‍टि से सम्‍पूर्ण भाषा क्षेत्र एक भाषिक इकाई है तथा इस भाषा-भाषी क्षेत्र के बहुमत भाषा-भाषी अपने-अपने क्षेत्रगत भेदों को हिन्‍दी भाषा के रूप में मानते एवं स्‍वीकारते आए हैं। कुछ विद्वानों ने इस भाषा क्षेत्र को ‘हिन्‍दी पट्‌टी’ के नाम से पुकारा है तथा कुछ ने इस हिन्‍दी भाषी क्षेत्र के निवासियों के लिए ‘हिन्‍दी जाति’ का अभिधान दिया है।

वस्‍तु स्‍थिति यह है कि हिन्‍दी, चीनी एवं रूसी जैसी भाषाओं के क्षेत्रगत प्रभेदों की विवेचना यूरोप की भाषाओं के आधार पर विकसित पाश्‍चात्‍य भाषाविज्ञान के प्रतिमानों के आधार पर नहीं की जा सकती।

जिस प्रकार अपने 29 राज्‍यों एवं 07 केन्‍द्र शासित प्रदेशों को मिलाकर भारतदेश है, उसी प्रकार भारत के जिन राज्‍यों एवं शासित प्रदेशों को मिलाकर हिन्‍दी भाषा क्षेत्र है, उस हिन्‍दी भाषा-क्षेत्र के अन्‍तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उनकी समाष्‍टि का नाम हिन्‍दी भाषा है। हिन्‍दी भाषा क्षेत्र के प्रत्‍येक भाग में व्‍यक्‍ति स्‍थानीय स्‍तर पर क्षेत्रीय भाषा रूप में बात करता है। औपचारिक अवसरों पर तथा अन्‍तर-क्षेत्रीय, राष्‍ट्रीय एवं सार्वदेशिक स्‍तरों पर भाषा के मानक रूप अथवा व्‍यावहारिक हिन्‍दी का प्रयोग होता है। आप विचार करें कि उत्तर प्रदेश हिन्‍दी भाषी राज्‍य है अथवा खड़ी बोली, ब्रजभाषा, कन्‍नौजी, अवधी, बुन्‍देली आदि भाषाओं का राज्‍य है। इसी प्रकार मध्‍य प्रदेश हिन्‍दी भाषी राज्‍य है अथवा बुन्‍देली, बघेली, मालवी, निमाड़ी आदि भाषाओं का राज्‍य है। जब संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका की बात करते हैं तब संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका के अन्‍तर्गत जितने राज्‍य हैं उन सबकी समष्‍टि का नाम ही तो संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका है। विदेश सेवा में कार्यरत अधिकारी जानते हैं कि कभी देश के नाम से तथा कभी उस देश की राजधानी के नाम से देश की चर्चा होती है। वे ये भी जानते हैं कि देश की राजधानी के नाम से देश की चर्चा भले ही होती है, मगर राजधानी ही देश नहीं होता। इसी प्रकार किसी भाषा के मानक रूप के आधार पर उस भाषा की पहचान की जाती है मगर मानक भाषा, भाषा का एक रूप होता है ः मानक भाषा ही भाषा नहीं होती। इसी प्रकार खड़ी बोली के आधार पर मानक हिन्‍दी का विकास अवश्‍य हुआ है किन्‍तु खड़ी बोली ही हिन्‍दी नहीं है। तत्‍वतः हिन्‍दी भाषा क्षेत्र के अन्‍तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उन सबकी समष्‍टि का नाम हिन्दी है। हिन्‍दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के षडयंत्र को विफल करने की आवश्‍कता है तथा इस तथ्‍य को बलपूर्वक रेखांकित, प्रचारित एवं प्रसारित करने की आवश्‍यकता है कि सन् 1991 की भारतीय जनगणना के अन्तर्गत भारतीय भाषाओं के विश्‍लेषण का जो ग्रन्‍थ प्रकाशित हुआ है उसमें मातृभाषा के रूप में हिन्‍दी को स्‍वीकार करने वालों की संख्‍या का प्रतिशत उत्‍तर प्रदेश (उत्‍तराखंड राज्‍य सहित) में 90.11, बिहार (झारखण्‍ड राज्‍य सहित) में 80.86, मध्‍य प्रदेश (छत्‍तीसगढ़ राज्‍य सहित) में 85.55, राजस्‍थान में 89.56, हिमाचल प्रदेश में 88.88, हरियाणा में 91.00, दिल्‍ली में 81.64, तथा चण्‍डीगढ़ में 61.06 है।17

8.हिन्दी भाषा-क्षेत्र एवं मंदारिन भाषा-क्षेत्र –

जिस प्रकार चीन में मंदारिन भाषा की स्थिति है उसी प्रकार भारत में हिन्दी भाषा की स्थिति है। जिस प्रकार हिन्दी भाषा-क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं, वैसे ही मंदारिन भाषा-क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक-रूप बोले जाते हैं। हिन्दी भाषा-क्षेत्र के दो चरम छोर पर बोले जाने वाले क्षेत्रीय भाषिक रूपों के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत बहुत कम है। मगर मंदारिन भाषा के दो चरम छोर पर बोले जाने वाले क्षेत्रीय भाषिक रूपों के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता बिल्कुल नहीं है। उदाहरण के लिए मंदारिन के एक छोर पर बोली जाने वाली हार्बिन और मंदारिन के दूसरे छोर पर बोली जाने वाली शिआनीज़ के वक्ता एक दूसरे से संवाद करने में सक्षम नहीं हो पाते। उनमें पारस्परिक बोधगम्यता का अभाव है। वे आपस में मंदारिन के मानक भाषा रूप के माध्यम से बातचीत कर पाते हैं। मंदारिन के इस क्षेत्रीय भाषिक रूपों को लेकर वहाँ कोई विवाद नहीं है। पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक मंदारिन को लेकर कभी विवाद पैदा करने का साहस नहीं कर पाते। मंदारिन की अपेक्षा हिन्दी के भाषा-क्षेत्र में बोले जाने वाले भाषिक-रूपों में पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत अधिक है। यही नहीं सम्पूर्ण हिन्दी भाषा-क्षेत्र में पारस्परिक बोधगम्यता का सातत्य मिलता है। इसका अभिप्राय यह है कि यदि हम हिन्दी भाषा-क्षेत्र में एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा करे तो निकटवर्ती क्षेत्रीय भाषिक-रूपों में बोधगम्यता का सातत्य मिलता है। हिन्दी भाषा-क्षेत्र के दो चरम छोर के क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के वक्ताओं को अपने अपने क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के माध्यम से संवाद करने में कठिनाई होती है। कठिनाई तो होती है मगर इसके बावजूद वे परस्पर संवाद कर पाते हैं। यह स्थिति मंदारिन से अलग है जिसके चरम छोर के क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के वक्ता अपने अपने क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के माध्यम से कोई संवाद नहीं कर पाते। मंदारिन के एक छोर पर बोली जाने वाली हार्बिन और मंदारिन के दूसरे छोर पर बोली जाने वाली शिआनीज़ के वक्ता एक दूसरे से संवाद करने में सक्षम नहीं हैं मगर हिन्दी के एक छोर पर बोली जाने वाली भोजपुरी और मैथिली तथा दूसरे छोर पर बोली जाने वाली मारवाड़ी के वक्ता एक दूसरे के अभिप्राय को किसी न किसी मात्रा में समझ लेते हैं।

यदि चीन में मंदारिन भाषा-क्षेत्र के समस्त क्षेत्रीय भाषिक-रूप मंदारिन भाषा के ही अंतर्गत स्वीकृत है तो उपर्युक्त विवेचन के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्तर्गत समाविष्ट क्षेत्रीय भाषिक-रूपों को भिन्न-भिन्न भाषाएँ मानने का विचार नितान्त अतार्किक और अवैज्ञानिक है। लेखक का स्पष्ट एवं निर्भ्रांत मत है कि हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के षड़यंत्रों को बेनकाब करने और उनको निर्मूल करने की आवश्यकता असंदिग्ध है। हिन्दी देश को जोड़ने वाली भाषा है। उसे उसके ही घर में तोड़ने का अपराध किसी को नहीं करना चाहिए।

संदर्भ सूची

  1. ; इसे उसके अपने ही घर में मत तोड़ो http://www.pravakta.com/hindi-is-the-language-of-hindustan
  2. Functional Linguistics) (हैलिडे के व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) के विशेष संदर्भ में) http://www.rachanakar.org/2015/03/functional-linguistics-sfl.html#ixzz3U41DdhAX
  3. , अनुवादक – डॉ. उदयनारायण तिवारी, पृष्ठ 42-44 (1959)
    1. , क्षितिज, (भाषा-संस्कृति विशेषांक), अंक -8, पृष्ठ 15-19, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बम्बई (मुम्बई) (1996)
    1. , अक्षर पर्व, अंक -6, (पूर्णांक –23), वर्ष -2, पृष्ठ 15-16, देशबंधु प्रकाशन, रायपुर (दिसम्बर, 1999)
  4. , वर्ष 4, अंक 1, पृष्ठ 56-60, नई दिल्ली (जनवरी, 2015)
  5. ? (नामवर सिंह ने हाल ही में यह वक्तव्य दिया – “हिंदी समूचे देश की भाषा नहीं है वरन वह तो अब एक प्रदेश की भाषा भी नहीं है। उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों की भाषा भी हिंदी नहीं है। वहाँ की क्षेत्रीय भाषाएँ यथा अवधी, भोजपुरी, मैथिल आदि हैं।“ क्या सचमुच? नामवर के इस वक्तव्य पर असहमति के तीव्र स्वर दर्ज कर रहे हैं केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के पूर्व निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन)
  6. ? http://www.rachanakar.org/2009/09/blog-post_08.html#ixzz3WJTL8oNS
  7. , अध्याय 4 – भाषा के विविधरूप एवं प्रकार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद (1985)
  8. Distance among Twenty-Two Dialects of Hindi depending on the parallel forms of the most frequent sixty-two words of Hindi” भाषिकी प्रकाशन, रायपुर (1976)
  9. 26 जून, 2013 को विज्ञान परिषद्, प्रयाग (इलाहाबाद) के प्रधान मंत्री  डॉ. शिव गोपाल मिश्र को लिखा पत्र
  10. , सरस्वती, पृष्ठ 169-171 (अप्रैल, 1977)
  11. http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/M/MahavirSaranJain/bharat_mein_Bhartiya_bhashaon_ka_samman_vikaas_Alekh.htm)
  12. , पृष्‍ठ 60, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद (1985)
  13. , 15, पृष्ठ 325 – 340.
  14. , अमेरिकन एनथ्रोपोलोजिस्ट, खण्ड 63,पृष्ठ 976- 988.
  15. , हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद (1967)