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नक्सलवादी आन्दोलन और हिंदी की प्रमुख लघु पत्रिकाएं (1950 से 1980 के विशेष संदर्भ में) – डॉ. निकिता जैन

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Photo by Sam McGhee on Unsplash

नक्सलवादी आन्दोलन और हिंदी की प्रमुख लघु पत्रिकाएं (1950 से 1980 के विशेष संदर्भ में)

डॉ. निकिता जैन

अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में अध्यापन।

फ़ोन नंबर -9953058803

ईमेल-nkjn989@gmail.com

शोध सारांश

प्रस्तुत शोधालेखनक्सलवादी आन्दोलन और हिंदी की प्रमुख लघु पत्रिकाएं (1950 से 1980 के विशेष संदर्भ में)’ में मुख्य रूप से उन लघु पत्रिकाओं को शामिल किया गया है जिनको नक्सलवादी आन्दोलन को हिंदी जगत से रूबरू कराने का श्रेय जाता है। प्रस्तुत शोधालेख में ‘लघु पत्रिकाओं’ का ज़िक्र किया गया है अर्थात ऐसी पत्रिकाएं जो व्यक्तिगत साधनों के आधार पर निकाली जा रही थीं जो किसी सरकारी या गैर सरकारी संगठन से जुड़ी हुई नहीं थी और जिनका केवल एक ही उद्देश्य था समाज और सत्ता में व्याप्त अनीतियों के खिलाफ जमकर लिखना जो उस समय की बड़ी पत्रिकाएं (सरकारी या गैर सरकारी संगठन से जुड़ी पत्रिकाएं ) नहीं कर पा रहीं थीं। यह शोधालेख केवल लघु पत्रिका के आईने से ‘नक्सलवाद’ का छोटा सा चित्र प्रस्तुत करने की कोशिश करता है। न तो इसमें तत्कालीन समय में निकलने वाली नक्सलवादी सम्बन्धी सभी पत्रिकाओं का ज़िक्र है न ही ये दावा पेश किया जा रहा है कि यह शोधालेख ‘नक्सलवाद’ की नयी व्याख्या प्रस्तुत कर रहा है अपितु इस शोधालेख द्वारा लघु पत्रिकाओं की महत्ता का आंकलन प्रस्तुत करने की कोशिश की गयी है कि कैसे वह सीमित संसाधनों के दायरों में रहते हुए भी अपनी सामाजिक एवं राजनीतिक भूमिका का निर्वाह भलीभांति कर रहीं थीं। प्रस्तुत शोधालेख में ‘फिलहाल’, ‘आमुख’ एवं अन्य पत्रिकाओं  का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि ‘नक्सलवाद’ को साहित्यिक आईने से किस तरह देखा जा रहा था और लघु पत्रिकाओं की उसमें क्या भूमिका थी।

बीज शब्द

नक्सलवाद, सामाजिक, राजनीतिक, लघु पत्रिका, संग

आमुख

नक्सलवादी आन्दोलन पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के एक छोटे से गाँव ‘नक्सलबाड़ी’ से शुरू हुआ था। सन् 1967 में इस आन्दोलन की शुरुआत  किसानों और मजदूरों की मुक्ति के लिए की गयी थी। सामन्तवाद के खिलाफ किसानों और मजदूरों के इस विद्रोह ने धीरे-धीरे बुद्धजीवियों को अपनी ओर आकर्षित करना शुरू किया| धीरे-धीरे शिक्षित युवा-वर्ग का समर्थन भी इस आन्दोलन को प्राप्त होने लगा । एक तरफ बंगला साहित्य को इस आन्दोलन ने प्रभावित किया तो दूसरी तरफ हिंदी साहित्य भी इस आन्दोलन के प्रभाव से अछूता न रहा। डॉ. गोपाल प्रधान अपने आलेख ‘नक्सलवाद और हिंदी साहित्य’ में इस पहलू पर और रोशनी डालते हुए लिखते हैं कि –“नक्सलवाद को आमतौर पर राजनीतिक आन्दोलन की हिंसक धारा के साथ जोड़ा है लेकिन असल में यह स्वातन्त्र्योतर भारत में किसानों-मजदूरों की मुक्ति का उग्रपंथी आन्दोलन है|……पहले बंगाल के साहित्यिक जगत पर इसका प्रभाव पड़ा। फिर हिंदी साहित्य भी इसके प्रभाव में आया| हिंदी कवि धूमिल की एक कविता में इसका सबसे पहले उल्लेख मिलता है।”1.  भले ही नक्सलवादी आन्दोलन का प्रभाव हिंदी साहित्य पर थोड़ी देर से पड़ा हो लेकिन यहाँ के प्रगतिवादी लेखक, कवि हमेशा से इस आन्दोलन को लेकर सजग एवं सचेत रहे हैं।  कुछ  लघु पत्रिकाएँ तो केवल इस आन्दोलन के समर्थन के लिए ही निकाली गयीं ताकि जनता और साहित्य जगत के अन्य लोगों को यह बताया जा सके कि वास्तव में ‘नक्सलवादी आन्दोलन’ है क्या और  क्यों शुरू किया गया है, क्यों किसान और मजदूर को अपने हल, खेत और औजार छोड़कर हाथ में हथियार लेने पर मजबूर होना पड़ा , क्यों एक मुक्ति आन्दोलन सरकार ने हिसंक धारा का रूप दे दिया।  प्रशासन के चेहरे से नकाब उतारने के लिए और नक्सलवादी आन्दोलन के समर्थन के लिए उस समय कई लेखक और साहित्यकार आगे आये और उन्होंने पत्रिकाओं के ज़रिये साहित्य में एक नयी चेतना को जन्म देने का प्रयास किया जो मजदूर और किसान की आवाज़ बन सके। इनमें सबसे चर्चित पत्रिका वीर भारत तलवार द्वारा सम्पादित ‘फिलहाल’ है। ‘फिलहाल’ नक्सलवादी आन्दोलन केन्द्रित पत्रिका थी। आन्दोलन से जुड़ने के उद्देश्य से यह पत्रिका निकाली गयी थी ताकि मजदूरों और  किसानों की आन्दोलन में वास्तविक भूमिका का क्या है, इसका पता लगाया जा सके, सरकार द्वारा उनका जो दमन किया जा रहा है उसकी सच्चाई से लोगों को रूबरू कराया जा सके तथा अधिक से अधिक युवाओं और बुद्धिजीवी वर्ग के साथ संपर्क स्थापित किया जा सके। यहाँ हम ‘फिलहाल’ में नक्सलवाद के परिप्रेक्ष्य में जो साहित्य प्रकाशित किया गया है उसका मूल्यांकन प्रस्तुत करेंगे ताकि यह पता लगाया जा सके कि साहित्य से जुड़े विद्वान किस प्रकार अपनी कलम के द्वारा इस आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे| इसके अलावा अन्य साहित्यिक लघु पत्रिकाओं में ‘नक्सलवाद’ को लेकर कोई चर्चा की गयी है या नहीं, इसका भी आंकलन प्रस्तुत किया जाएगा|

फ़िलहाल –  फिलहाल पत्रिका का प्रकाशन सन् 1972 से वीर भारत तलवार के संपादन में शुरू हुआ था। यह वे  दौर था जब नक्सलवादी आन्दोलन बंगाल के अलावा देश के अन्य हिस्सों में धीरे-धीरे फ़ैल रहा था और सरकार इस आन्दोलन के दमन के लिए भरसक प्रयास कर रही थी। नक्सलवादी आन्दोलन को सही दिशा देने के लिए और सरकारी नीतियों को विफल करने के उद्देश्य से ही ‘फिलहाल’ जैसी पत्रिकाएँ आगे आयीं और इन्होंने अधिक से अधिक लोगों को अपने साथ जोड़ने की ज़िम्मेदारी उठायी ताकि लोगों को ‘नक्सलवाद’ के बारे में जो भ्रांतियां हैं उनसे दूर रखा जा सके और इस आन्दोलन को गलत राह पर भटकने से बचाया जा सके। वीरभारत तलवार नक्सलवादी आन्दोलन के तहस-नहस होने की वजह को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं – “चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने अगर उस वक़्त चारू मजुमदार की एम.एल. पार्टी को अपनी मान्यता न दी होती तो कई ग्रुपों के लोग उसकी ओर उस तरह न लपकते। चारू मजुमदार अपने पत्र में लिखते थे कि जब तक तुम जमींदार का सिर नहीं काटते, तुम क्रांतिकारी नहीं हो सकते,जो जितना अध्ययन करता है, वह उतना बड़ा ही गधा है …… हमारा ग्रुप इस विचारों का सख्त विरोध करता था…..इन्हीं विचारों के कारण नक्सलवादी आन्दोलन सही रास्ते से भटककर तहस-नहस हो रहा था।”2.  उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि नक्सलवादी आन्दोलन कहीं न कहीं अपनी राह भटक रहा था क्योंकि इस आन्दोलन का वास्तविक उद्देश्य यही था की उन नीतियों के खिलाफ लड़ना जो वर्षों से किसानों और मजदूरों का शोषण कर रही हैं। केवल जमींदार का गला काटने से यह समस्या हल नहीं होने वाली थी और हुई भी नहीं। लेकिन यह ज़रूर है कि 70 के दशक में किसानों और मजदूरों के इस सशस्त्र आन्दोलन का समर्थन करने वाली एक लेखकीय पीढ़ी ज़रूर तैयार हो गयी थी। डॉ. प्रधान के अनुसार सबसे पहले हिंदी में खासकर ‘गोली दागो पोस्टर’  कविता में किसान और मजदूर की सशस्त्र संघर्ष चेतना के दर्शन होते हैं।3.  यह कविता ‘फिलहाल’ में जुलाई 1972 में प्रकाशित हुई थी। इस कविता में किसान की उस संघर्ष यात्रा का वर्णन है जिस को न जाने वह कितनी सदियों से झेलता आ रहा है। लेकिन अब उसे ये एक तरफ़ा संघर्ष नहीं चाहिए। अब उसे उन लोगों को गोली मारने का अधिकार चाहिए जिन्होंने उससे उसकी आज़ादी, उसकी हंसी, उसका बचपन छीन लिया –

“बहन के पैरों के आसपास पीले रेंड़ के पौधों की तरह

उगा था जो मेरा बचपन-

उसे – दारोगा का भैंसा चर गया।

आदमियत को जीवित रखने के लिए अगर

एक दरोगा को गोली मारने दागने का अधिकार है

तो मुझे क्यों नहीं ?”4.

जो किसान दिन-रात एक करके जमींन में हल चला रहा है,बीज बो रहा है, अनाज पैदा कर रहा है उसी किसान की जमीन सूद के नाम पर जमींदार हड़प लें तो वो किसान कहाँ जाए क्या करे ? क्या अब भी सरकार और पुलिस की मिलीभगत के आगे घुटने टेक दे या फिर अपने हक़ के लिए  लड़े औए सशस्त्र विद्रोह करे –

“जिस जमींन पर मैं चलता हूँ,

जिस जमीन को मैं जोतता हूँ

जिस जमीन में मैं बीज बोता हूँ और

जिस जमीन से अन्न निकालकर मैं

गोदामों तक ढोता हूँ-

उस जमीन के लिए मुझे गोली दागने का अधिकार है या

दोगले जमींदारों को – जो इस पूरे देश को सूदखोर का कुत्ता बना चुके हैं ?”5.

पूरे देश को सूदखोर का कुत्ता बनाने के पीछे केवल जमींदार नहीं बल्कि वे नेता भी हैं जो अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए गरीब जनता का खून चूसते हैं और सामंतवादियों और जमींदारों के घर भरते हैं। शंकर शैलेन्द्र की कविता ‘नेता को न्यौता’ ऐसे ही ईमानदार नेताओं की पोल खोलती है जो खादी का कुर्ता पहनकर, हाथ जोड़कर किसानों और मजदूरों की बस्तियों में जाकर उनकी आज़ादी के नाम पर उनसे वोट मांगते हैं, लेकिन असलियत में किसानों और मजदूरों की आवाज़ को दबाने के लिए उन पर गोली भी यही चलवाते हैं –

“यह कैसी आज़ादी है,

वही ढाक के तीन पात हैं, बर्बादी है ;

तुम किसान मजदूरों पर गोली चलवाओ,

और पहन लो खद्दर, देश भक्त कहलाओ !

तुम सेठों के संग पेट जनता का काटो,

तिस पर आज़ादी की सौ-सौ बातें छांटो !

हमें न छल पाएगी यह कोरी आज़ादी,

उठ री, उठ; मजदूर किसानों की आबादी !”6..

दरअसल नक्सलवादी आन्दोलन गरीब मजदूर के भीतर वर्षों से पनप रहा वो आक्रोश है जो अब एक ज्वाला में तब्दील हो चुका है। यह आन्दोलन केवल ज़मींदारों के खिलाफ नहीं बल्कि उन सरकारी नीतियों और नेताओं के खिलाफ भी शुरू हुआ था जो किसानों मजदूरों को दो जून की रोटी तक मुहैया नहीं करवा पाते और जमीदारों का घर भरते जाते हैं। किसान-मजदूर नेताओं के झूठे वादों से, साहूकारों और जमीदारों के शोषण से तंग आ चुका था इसलिए उसने इस आन्दोलन की शुरुआत की ताकि वह यह बता सके कि उसे किसी की दया या रहम की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि यह दया और रहम दरअसल एक छलावा है, धोखा है किसान और मजदूर की आज़ादी को कैद करने का। लालसिंह दिल की कविता ‘शीशे की कैद’ में इस छलावे पर रोशनी डालते हुए एक साधारण मजदूर कहता है –

“किसी की दया पर

हमें कुछ भी स्वीकार नहीं

कोई स्वर्ग, किसी धर्मराज का राज्य

अथवा कोई ‘समाजवाद’

x-x-x

तुम्हें बहुत चिंता है

हमारे खून बहने की

तथा इस रक्त की सुरक्षा के लिए

जिस ‘मर्तबान’ का तुम संकेत करते हो

लोगों ने उन्हें ठोकरों से तोड़ देना है”7.

दरअसल किसान-मजदूर अब यह समझ चुके हैं कि उनकी चिंता न तो सरकार को है न ही समाज को। जिस झूठी आज़ादी के मर्तबान का लालच देकर उन्हें इस आन्दोलन से पीछे हटने को कहा जा रहा है वह भी एक चाल है। हथियार डालते ही उनसे शायद पहले से भी ज्यादा बदत्तर सलूक किया। पुलिस की गोली से मरना या जमींदार का क़र्ज़ चुकाते-चुकाते मरना अगर दोनों ही सूरतों में मरना है तो फिर आजीवन शोषण का शिकार होने ने क्या फायदा?

यह बात तय है कि किसानों और मजदूरों ने जिस आन्दोलन की शुरुआत की थी उसका उद्देश्य या लक्ष्य एक ही था अपने पर हो रहे ज़ुल्मों के खिलाफ विद्रोह ताकि उनकी आने वाली नस्लों को वो सब सहना न पड़े जो उनको सहना पड़ा। लेकिन आगे जाकर कुछेक लोगों ने अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए इस आन्दोलन का इस्तेमाल हिंसक रूप में करके पूरे विद्रोह के प्रारूप को ही बदल दिया। कोई भी आन्दोलन केवल हिंसा के आधार पर अपने उद्देश्य की प्राप्ति नहीं कर सकता, यही वजह है कि आज नक्सलवादी आन्दोलन अपने लक्ष्य से भटक चुका है और ऐसी अंधी गली में प्रवेश कर चुका है जहाँ से निकलने के लगभग सभी रास्ते बंद हैं। ‘फिलहाल’ पत्रिका में नक्सलवादी आन्दोलन के शुरू होने के पीछे जिन कारणों को स्पष्ट किया गया है उसे देखकर कहीं से भी यह एहसास तो नहीं होता कि इस आन्दोलन का मकसद गलत था। एक लोकतान्त्रिक देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता हर नागरिक का अधिकार है। लेकिन जब कुछेक एक वर्ग मिलकर दूसरे वर्गों की स्वतंत्रता को छिनने की कोशिश करें तो क्रांति होना लाज़मी है जो ‘नक्सलवाद’ के रूप में हुई। लेकिन इस क्रान्ति को कैसे सरकार के कुछ लोगों और जमींदारों ने मिलकर हिंसक आन्दोलन में परिवर्तित कर दिया इसका उदाहरण अरुण रंजन के नाटक ‘परदे के पीछे’ में प्रस्तुत किया गया है। दरअसल आम जनता के आगे तो नक्सलवादी आन्दोलन का आधा सच ही पाया है, आधा सच जो पूरे झूठ से अधिक खतरनाक होता है इसलिए नक्सलवाद का नाम सुनते ही आम जनता विद्रोह करने वालों को कसूरवार मानने लगती है लेकिन असल में परदे के पीछे की सच्चाई क्या है, कैसे जनता को सरकार गुमराह कर रही है और किसान-मजदूरों का खून चूस रही है यह नाटक इस सच्चाई से पाठकों को रूबरू करवाता है। प्रस्तुत नाटक में अकालग्रस्त राज्य की स्थिति का जायज़ा लेने के लिए प्रधानमंत्री पहुँचते हैं जहाँ उनके इंतज़ार में पहले से ही राज्य की मुख्यमंत्री, पुलिस फ़ोर्स और जमींदार स्वागत –सत्कार के लिए खड़े हैं। देश के प्रधानमंत्री जब मुख्यमंत्री से राज्य में अकाल की स्थिति के बारे में पूछते हैं तो मुख्यमंत्री का जवाब सरकार, पुलिस, सबकी पोल पट्टी खोलकर रख देता है – “ इधर भूखी जनता देशी-विदेशी विघटनकारियों के बहकावे में आकर विद्रोह करने पर उतारू है। (प्रधानमंत्री के कान के पास फुसफुसाकर) ‘डुमरी गाँव’ के वर्ग-संघर्ष को हमने बड़ी मुश्किल से पुलिस-नक्सलवादी भिड़ंत प्रचारित करके टाला है, लेकिन …..मालिक ! इन परिस्थितियों में मेरी गद्दी का क्या होगा ? सरकार ! मुझे बचा लीजिये। यह गद्दी आपकी दी हुई चीज़ है। इसकी हिफाज़त कीजिये हुजूर| मैं अभी की तरह आजन्म आपकी वफादार दासी बनी रहूंगी ! सबूत के तौर पर …….(फिर वह एक टांग पर उचक कर प्रधानमंत्री को नरमुंडों की एक माला पहना देती है|) गदगद स्वर में आई.जी. ने आपको किसानों की माला पहनाई। यह विद्यार्थियों की माला है ! खुशबूदार ! सूंघ कर देखिये।”8.  देश के आधे से अधिक नेताओं की सच्चाई यही है जो परदे के सामने कुछ और परदे के पीछे कुछ और हैं। नक्सलवाद को हिंसात्मक आन्दोलन का रूप देने में ऐसे ही राजनीतिज्ञों का हाथ है जो अपने स्वार्थ के लिए गरीब किसान का पेट और युवा विद्यार्थी की जुबान दोनों काट सकते हैं। देश में अकाल कैसे पड़ता है, अकाल के समय केवल गरीब जनता ही इसका शिकार क्यों बनती है, सारा अनाज कहाँ जाता है, अकाल के समय जमींदार, साहूकार और अमीर क्यों हो जाते हैं ? इन सब सवालों के जवाब प्रधानमंत्री और धन्ना सेठ के इन संवादों के द्वारा मिलते हैं –

“ प्रधानमंत्री : (धन्ना सेठ को गुरेर कर ) और कहो, खूब कमा रहे हो न धन्ना सेठ ! इस बार चुनाव-कोष में कितना दे रहे हैं आप लोग ? सुना है, राज्य में गेहूं, कोयला, डालडा, चीनी, किरासन तेल, बिजली, पानी, कुछ नहीं मिलता। आप लोग खूब कमा रहे हैं !

भयभीत धन्ना सेठ : आपकी कृपा रही तो क्या नहीं हो सकता माईबाप ? आप ज़रा एकांत में मुख्यमंत्री जी को समझा देंगे कि कम से कम एक साल यही स्थिति रहने दें ; तो हम पिछली बार से दुगना चुनाव फंड देंगे

मुख्यमंत्री : (उछल कर) बाप रे ! एक साल ? असंभव ! तब तक तो भूखी जनता हमें कच्चा खा जाएगी; वह भी बिना नमक लगाए ! फिर कहाँ चुनाव का खेला होगा। देखिये (आवाज़ दबाकर ) दो महीने में जो करना है, कर डालिए !

…………………..

धन्ना सेठ- (रोते हुए ) हमारा क्या होगा सरकार…. हमारा क्या होगा।

प्रधानमंत्री – (ऊब कर बीच-बचाव करते हुए ) चलिए ‘चार’ पर मामला पक्का रहा। चार महीने तक अकाल को जारी रहा जाएगा। बदले में नगरश्रेष्ठ दुगना नहीं, चार गुना चुनाव कोष देंगे।”9.

    सरकारी नेता जो अपने आपको जनता का सेवक कहते हैं असल में वह ही सबसे बड़े जनता के भक्षक हैं। चुनाव फंड के लिए राज्य में अकाल जैसी स्थिति उत्पन्न कर देना और गरीब जनता को भूखे मरने के लिए छोड़ देना, विद्रोह करने पर उसे पुलिस-नक्सलवादी भिड़ंत बताकर हिंसात्मक रूप देना यह सरकार की साजिश नहीं है तो और क्या है और ऐसी स्थिति में एक आम किसान हथियार न उठाये तो क्या करे ? सरकार की इन्हीं गैर-जिम्मेदाराना नीतियों का परिणाम हम सब के समक्ष नक्सलवादी आन्दोलन के रूप में प्रस्तुत है। दरअसल गौर से देखा जाए यह आन्दोलन केवल किसानों या मजदूरों पर हो रहे शोषण के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाता बल्कि यह उस ‘जनतंत्र’ पर भी सवाल उठाता है जिसका प्रयोग हम अपने देश के लिए बड़े गौरव के साथ करते हैं कि –‘यहाँ तो लोकतंत्र है, जनता जिसे अपना नेता चुनेगी वही जनता की सेवा के लिए आयेगा’ लेकिन क्या वाकई में जनता को पता भी है उसे किसे चुनना है और किसे नहीं चुनना ? और जनता द्वारा चुना हुआ नेता क्या वाकई में जनता की सेवा में लगा हुआ है या नहीं ? क्या वाकई में हम ‘जनतंत्र’ शब्द का वास्तविक अर्थ जानते हैं ? अज़गर वजाहत अपने लेख ‘चम्बल घाटी के डाकुओं से एक अपील’ में ‘जनतंत्र’ पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं कि – “आज़ादी के बाद एक विशेष प्रकार के हथियार का जन्म हुआ है जिसे जनतंत्र कहते हैं।…. मैं तुम्हें सच कहता हूँ कि मित्रों, यदि ‘जनतंत्र’ से मेरा सही परिचय न कराया गया होता तो मैं भी आज चम्बल घाटी में होता। तुमने परमाणु बम का नाम सुना होगा।…. ‘जनतंत्र’ और ‘परमाणु बम’ में अंतर केवल इतना है कि परमाणु बम से सभी  जीवित वस्तुएं समाप्त हो जाती हैं, जबकि ‘जनतंत्र’ का प्रभाव क्षेत्र केवल मनुष्य तक सीमित है। ‘जनतंत्र’जंगली जानवरों, पेड़-पौधों आदि पर अपना घातक प्रभाव छोड़ पाने में असमर्थ है।…. मैंने इस शस्त्र का यथासंभव और यथास्थान खूब प्रयोग किया है।”10.  अज़गर वजाहत यहाँ साफ़ तौर पर ‘लोकतंत्र’ पर कटाक्ष करते हुए यह कहने का प्रयास कर रहे हैं कि भारत में जिस जनतंत्र की बात की जाती है वास्तविकता में वह ‘जनतंत्र’ है ही नहीं बल्कि बड़े-बड़े नेता और अधिकारी अपनी मर्ज़ी से, अपनी सहूलियत के अनुसार इस जनतंत्र के हथियार का इस्तेमाल करके लाचार जनता को लूटने का काम करते हैं। और हैरानी की बात यह है कि उनकी यह लूट की प्रक्रिया सालों साल ऐसी ही चलती रहती ही। न कोई कानून, न कोई मुक़दमा। कभी-कभार फंस भी गए तो बीसियों साल लग जाते हैं अदालत को दोषी को सजा सुनाने में। डाकुओं को  ‘जनतंत्र’ के फायदे समझाते हुए अजगर वजाहत आगे लिखते हैं – “तुम लोग यदि चम्बल घाटी से निकल आओ तो मेरे साथ मिलकर आयात-नियात का कारोबार कर सकते हो……..यदि कुछ न हुआ तो निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव तो जीत ही सकते हो। डकैती का लम्बा अनुभव लड़ने में बहुत सहायक होगा। जिस तरह तुम लोग डकैती में गाँव को चारों ओर से घेर लेते हो, …… उसी तरह उम्मीदवार भी एक बड़े इलाके को चारों ओर से घेर लेता है। तुम लोग केवल सोना-चांदी लूटते हो, परन्तु उम्मीदवार इतना नादान नहीं होता। वह लोगों से उन पर शासन करने का अधिकार लूट ले जाता है और उम्मीदवार अपने क्षेत्र के वर्तमान और भविष्य को बांधकर अपने साथ ले जाता है।”11.  ज़ाहिर है कि यहाँ लेखक चम्बल घाटी के डाकुओं से अधिक देश के नेताओं को खतरनाक बता रहा है जो इंसान से उसकी स्वतंत्रता, उसके जीने का अधिकार, उसकी इंसानियत सब छीन लेता है और इसके बाद भी भारत विश्व का सबसे बड़ा ‘जनतांत्रिक’ देश कहलाता है। दरअसल लेखक ने चम्बल के डाकुओं से अपील के बहाने देश के युवा वर्ग को यह बताने का प्रयास किया है कि ‘जनतंत्र’ के नाम पर किस तरह देश के नेता, सरकारें आम जनता को बेवकूफ बना रहे हैं। असल डाकू तो वो हैं जिन्होंने इस पूरे देश को चम्बल घाटी में परिवर्तित कर दिया है। इसलिए लेखक अंत में चम्बल के डाकुओं से यह अपील करते हैं कि तुम्हें भी वहां रहने की कोई आवश्यकता नहीं है राजधानी आओ ‘जनतंत्र’ का इस्तेमाल करके संसार का सुख लूटो।

      ‘फिलहाल’ पत्रिका ने  कविताओं, नाटकों एवं लेखों के माध्यम से नक्सलवादी आन्दोलन की तत्कालीन तस्वीर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने के साथ-साथ उन गतिविधियों पर भी प्रकाश डालने का प्रयास किया जो इस आन्दोलन के दौरान चर्चा का विषय बनी हुईं थीं और जिन्होंने केवल साहित्य में ही नहीं बल्कि समाज में भी एक नयी बहस शुरू कर दी थी। नक्सलवादी आन्दोलन धीरे-धीरे शिक्षित युवा वर्ग पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ रहा था। स्कूल-कॉलेजों में पढ़ने वाले विद्यार्थी भी अब सड़कों पर आकर किसान-मजदूरों के अधिकारों के लिए प्रशासन से लोहा ले रहे थे। पढ़ाई का बहिष्कार, पुलिस, प्रशासन आदि से छात्रों की मुठभेड़ आम बात हो गयी थी। लेकिन छात्रों का आक्रोश दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। इसी आक्रोश में आकर एक दिन कुछ छात्रों ने जाकर रवीन्द्रनाथ की मूर्ति को तोड़ दिया। इसके बाद केवल साहित्यिक गलियारों में ही नहीं बल्कि पूरे भारत वर्ष में यह चर्चा का विषय बन गया कि छात्रों के द्वारा रवीन्द्रनाथ की मूर्ति को तोड़ना सही था या गलत। ‘फिलहाल’ में ‘रवीन्द्रनाथ की मूर्ति’ के सम्बन्ध में सबसे पहला लेख प्रसिद्ध अभिनेता उत्पल दत्त का प्रकाशित हुआ। हालांकि उत्पल दत्त का यह आलेख, आलेख कम कहानी अथवा नाटक के अधिक निकट जान पड़ता है क्योंकि उत्पल दत्त पात्रों के माध्यम से पूरी परिस्थिति का विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। इस कहानी/नाटक में तीन पात्र हैं पहला, स्वयं उत्पल दत्त जिन्होंने रवीन्द्रनाथ को ज्यादा नहीं पढ़ा इसलिए मूर्ति भंजन के सम्बन्ध में उनकी कोई स्पष्ट राय नहीं है, दूसरे जपेन दा जो रवीन्द्रनाथ की मूर्ति टूटने से अचंभित हैं और उन्हें दुःख है कि आज के विद्यार्थी रवीन्द्रनाथ को केवल एक सामन्तवादी लेखक/विचारक के रूप में देख रहे हैं और तीसरा,राजेन जो उस विद्यार्थी वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जिन्होंने उस मूर्ति को तोड़ा। राजेन जैसे विद्यार्थी वर्तमान शिक्षा प्रणाली से खुश नहीं हैं। उसे ऐसा लगता है किताबों में जो लिखा है वह झूठ है, शासन द्वारा हम पर थोपा हुआ है इसलिए वह शिक्षा प्रणाली को बदलना चाहता है। स्कूल-कॉलेज के आंगन में खड़ी रवीन्द्रनाथ या विद्यासागर की मूर्ति को विद्यार्थी केवल इसलिए नहीं तोड़ रहे क्योंकि वह पूंजीपति या जमींदार वर्ग से आ रहे हैं बल्कि वह पुराने आदर्शों और व्यवस्था को समाप्त करके नए का आह्वान करना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो राजेन रवीन्द्रनाथ की मूर्ति को तोड़कर उनके विचारों और सिद्धांतों से आज़ाद होना चाहता है जो उसे बरसों से कैद किये हुए हैं। इसलिए वो मूर्ति पर हुए आक्रमण को सही ठहराते हुए कहता है – “यह तो मार्क्सवाद में सत्य है कि साहित्य,दर्शन, कानून आदि उत्पादन के संबंधों की नींव पर ही खड़े हैं| अगर नींव बदलती है तो उस पर खड़े विचार भी बदलते हैं। नयी समाज-व्यवस्था में पुराने विचार नष्ट हो जाते हैं, इसलिए तो रवींद्रनाथ पर ऐसा आक्रमण है।”12.  लेकिन जपेन दा राजेन की बातों से सहमत नहीं हैं। वह राजेन को डांटते हुए कहते हैं कि –“नींव बदलने से पुराने विचारों की इमारत भी बदल जाती है ? भाषा विचारूपी इमारत का एक मुख्य खम्भा है। तो क्या क्रान्ति के बाद भाषा भी बदल जाती है? फ़्रांस की क्रांति के बाद क्या वहां भाषा बदल गयी ? अक्टूबर क्रांति के बाद क्या लेनिन रुसी भाषा में बात नहीं करते थे ? स्तालिन ने बताया था कि मनुष्य की रचना जो उस युग को प्रतिबिंबित करती है, हर युग के लिए होती है| इसलिए तो नींव बदलजाने पर भी शेक्सपीयर और होमर भुला नहीं दिए गए बल्कि और भी ज्यादा सामने आये|”13.  जपेन दा के द्वारा लेखक यहाँ यह कहना चाह रहा है कि नयी व्यवस्था की स्थापना के लिए यह आवश्यक नहीं कि पुरानी व्यवस्था को जड़ से मिटा दिया जाए। अर्थात रवीन्द्रनाथ के विचारों से लोगों का  व्यक्तिगत तौर पर विरोध हो सकता है यह भी हो सकता है कि समाज की बदलती हुई परिस्तिथियों के साथ उनके कुछ विचार मेल नहीं खाते हों या पुराने हो गए हों लेकिन इसका यह अर्थ तो नहीं कि रवीन्द्रनाथ की मूर्ति को तोड़कर या उन्हें जमींदार वर्ग का साहित्यकार घोषित करके आप उनके सम्पूर्ण साहित्य से मुंह मोड़ लेंगे। किसी भी विचारक या साहित्यकार का मूल्यांकन केवल इस आधार पर नहीं किया जा सकता कि वह किस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं बल्कि उनके सम्पूर्ण साहित्य का बारीकी से विश्लेषण करना भी आवश्यक है। रवीन्द्रनाथ की कुछ कविताओं का उदाहरण देते हुए जपेन दा राजेन से कहते हैं – “उनके लिखे हुए स्वदेशी गाने हमारी कीमती संपदा हैं : ऐसी सहज भाषा में जनता के दिल की बात क्रान्ति के लिए और कोई नहीं कह पाया।…..शान्ति और अहिंसा को भूलते हुए उन्होंने ही तो कहा –

भीषण प्रलय संगीत जगाओ

जगाओ रे, जगाओ इस भारत में

क्या तुम बहरे हो ? नहीं सुना तुमने ?

रिक्त है जो सर्वहारा

है विश्व में सर्वजयी,

गर्वमयी भाग्यदेवी के क्रीतदास नहीं।”14.

उत्पल दत्त ने अपनी इस नाटिका/ कहानी में रवीन्द्रनाथ की कविताओं के कई उदाहरण प्रस्तुत कर यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि  नक्सलवादी आन्दोलन के दौरान रवीन्द्रनाथ के लेखन और व्यक्तित्त्व पर जो आरोप लगाये गए हैं वो निराधार हैं। जो लोग यह कहते हैं कि रवींद्रनाथ ने अपने साहित्य में कभी किसानों की या उनकी क्रान्ति की बात नहीं की दरअसल वह सभी न तो रवीन्द्रनाथ को समझ पाए और न ही उनके विचारों का सही रूप में मूल्यांकन कर पाए। जहाँ तक बात शिक्षा प्रणाली की है तो रवीन्द्रनाथ तो स्वयं इस परम्परागत शिक्षा प्रणाली के विरुद्ध रहे हैं| उन्होंने कभी-भी किताबी ज्ञान को पूर्ण शिक्षा माना ही नहीं, वह बेसिक शिक्षा-प्रणाली के खिलाफ थे और इसलिए उन्होंने विश्वभारती जैसे संस्थान की स्थापना की ताकि भविष्य में विद्यार्थी केवल किताबों पर आश्रित न रहें बल्कि व्यावहारिक ज्ञान के बल पर अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें।

उत्पल दत्त के इस नाटिका/कहानी के सन्दर्भ में कुछ समीक्षाएं ‘फिलहाल’ में प्रकाशित हुईं थीं। इन समीक्षात्मक लेखों में लेखकों ने उत्पल दत्त के विचारों पर अपनी असहमति व्यक्त करते हुए रवीन्द्रनाथ के लेखन को और मूर्ति तोड़ने के आन्दोलन को एक अलग रूप में व्याख्यायित करने की कोशिश की है। एन. के. सेनगुप्ता अपने लेख ‘रवि ठाकुर की मूर्ति और उत्पल दत्त’ में मूर्ति तोड़ने के अभियान पर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं –“जो लोग इन जन-विरोधी मनीषियों के प्रति एक भक्तिमूलक दृष्टिकोण रखते हैं, मूर्ति तोड़ने के आन्दोलन से और उसके साथ ही सूक्ष्म विश्लेषण और आलोचना और उसके प्रचारकार्य से उनके भी मन में भी एक प्रश्नचिह्न खड़ा हो जाएगा।”15.  उक्त कथन से स्पष्ट है कि रवीन्द्रनाथ या अन्य व्यक्तियों की मूर्तियों के भंजन के पीछे केवल विद्यार्थियों का आक्रोश नहीं था बल्कि इस अभियान का अपना एक अलग ही लक्ष्य था। जो लोग इस आन्दोलन का समर्थन कर रहे थे उनका मानना था कि समाज ने जिन मनीषियों को बड़ी-बड़ी पदवी देकर समाज-सुधारक घोषित किया है असल में वे सभी जन-विरोधी हैं क्योंकि ऐसे समाज-सुधारकों ने कभी-भी किसानों को क्रान्ति के लिए प्रेरित नहीं किया। इसके अलावा मूर्तिभंजन अभियान को बढ़ावा इसलिए दिया गया ताकि जो लोग इन जन विरोधियों को समाज-सुधारक मानते भी हैं उनके मन में भी यह प्रश्न उत्पन्न हो कि आखिर क्यों रवीन्द्रनाथ, राजा राममोहन राय, विद्यासागर जैसे व्यक्तियों की मूर्ति को तोड़ा जा रहा है ? और वजह का पता लगाने के लिए  उनके द्वारा किये गए कार्यों का विश्लेषण किया जाए, उसे नए रूप में व्याख्यायित किया जाए  ताकि नए तथ्य उभरकर सामने आयें और उनपर विचार-विमर्श के नए रास्ते खुलें और जो अंधभक्त इन समाज-सुधारकों की प्रशंसा में लिप्त रहते हैं उनकी आँखें भी सच्चाई देख सकें। ए.के सेनगुप्ता अपने लेख में राजा राम मोहन राय तथा विद्यासागर जैसे व्यक्तियों की छवि एवं कार्य पर प्रश्नचिह्न खड़े करते हुए कहते हैं – “भारत के प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में, जिसे उपनिवेशवादियों ने सिपाही विद्रोह कहा, ….उसमें ‘राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग’ के इन प्रतिनिधियों की क्या भूमिका थी? उस समय का इतिहास गवाही देता है कि उस समय इनकी भूमिका चरम विश्वासघातक और देशद्रोहपूर्ण थी।….. जपेन दा (उत्पल दत्त की नाटिका/कहानी के पात्र) जिस राजा राममोहन राय को भुलाने के लिए राजेन की भर्त्सना करते हैं, उसी राजा राम मोहन राय की रचनाओं से एक-दो उदाहरण देना निश्चय ही अप्रसांगिक नहीं होगा –

राममोहन के अनुसार – ‘किसान और ग्रामीण लोग नितांत मूर्ख होते हैं।’ इसलिए हमारे देश के अभिजात और व्यवसायी वर्ग के लोगों को ‘क्षमता और गुणों के अनुसार ऊँचे पद देकर उन्हें मर्यादा प्रदान करने से ब्रिटिश सरकार के प्रति उन लोगों की भक्ति और बढ़ेगी’। – Ram Mohan Ray works, pp.300.

‘भारतवासियों का सौभाग्य है कि भगवतकृपा से अंग्रेज उनकी देखभाल कर रहे हैं’|”16.

 

           ए. के. सेनगुप्ता राजा राम मोहन राय की तरह ही रवीन्द्रनाथ को भी जमींदार वर्ग का साहित्यकार घोषित करते हुए कहते हैं – “हम लोग क्या रवीन्द्रनाथ की किसी ऐसी रचना से परिचित हैं जो गरीब किसानों से उनके परिचय को ज़ाहिर करती हो ? अथवा रवीन्द्रनाथ का यह दावा, ‘एक समय जब मैं बंगलादेश की नदियों पर घूमते हुए उनके प्राणों की लीला का अनुभव कर रहा था, तब मेरी आंतरिक अनुभूतियों ने अपने आनंद से उन सबके सुख-दुःख के विचित्र आभास को अपने अंतर में संगृहीत करके महीने के बाद महीने लगाकर बंगाल के जिन ग्रामीण चित्रों की रचना की, वैसी पहले किसी ने नहीं की थी|’ (साहित्य-विचार,पृष्ठ-61)

               बेशक, जमींदार रवीन्द्रनाथ के मुंह से हम क्रांतिकारी किसानों की बात सुनेंगे –यह उम्मीद ही गलत है। स्वयंघोषित मानवतावादी जो व्यक्ति नदी-नदी घूमकर ही एक इलाके के लोगों के प्राणों की लीला को अनुभव करने की धृष्टता भरी बात कहता हो उसके मन को क्रांतिकारियों की गतिविधियां कैसे स्पर्श करेंगी ? क्योंकि क्रांतिकारी तो नदियों पर नहीं रहते हैं, वे रहते हैं जनसाधारण के बीच में, गरीब वर्गों के बीच में। अपनी इन सब धारणाओं से ही रवीन्द्रनाथ यह प्रकट कर देते हैं कि विचारों के क्षेत्र में वे किस वर्ग के प्रतिनिधि थे।”17.  ए.के. सेनगुप्ता ने जिस रूप में राजा राम मोहन राय एवं रवीन्द्रनाथ को व्याख्यायित किया है उससे स्पष्ट है कि वह इन दोनों विचारकों को सामंतवादी वर्ग के प्रतिनिधि से अधिक कुछ और नहीं मानते। लेकिन यह यहाँ सवाल उठता है कि उत्पल दत्त ने अपनी कहानी/नाटिका में रवीन्द्रनाथ की जिन कविताओं के अंश उद्धृत किये हैं- उनके संदर्भ में ए.के. सेनगुप्ता ने कुछ क्यों नहीं लिखा या उन कविताओं के अंशों को भी क्यों  व्याख्यायित करके यह साबित नहीं किया कि रवींद्रनाथ द्वारा रचित यह कवितायें भी किसान विरोधी हैं या इनमें भी किसान क्रान्ति की कोई बात नहीं है। ए.के. सेनगुप्ता रवीन्द्रनाथ और राजा राम मोहन राय के जिन पंक्तियों को उद्धृत करके उन्हें सामन्तवादी वर्ग का प्रतिनिधि घोषित कर रहे हैं वह पंक्तियाँ किस संदर्भ में लिखी गयी हैं इसकी विवेचना सेनगुप्ता अपने लेख में नहीं करते। किसी भी व्यक्ति का दृष्टिकोण तब तक स्पष्ट नहीं हो सकता जब तक उसके द्वारा विवेचित विचारों का मूल्यांकन सही संदर्भ में न किया जाए और यहाँ तो सेनगुप्ता कुछेक पंक्तियों का सहारा लेकर दो विचारकों की मानसिकता पर ही प्रश्नचिह्न खड़े कर रहे हैं। यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि उत्पल दत्त ने जिस रूप में रवीन्द्रनाथ को प्रस्तुत किया है वह सही है और ए.के.सेनगुप्ता ने जिस तरह व्याख्यायित किया है वह गलत। यहाँ प्रश्न है स्पष्टता का। उत्पल दत्त की नाटिका/कहानी में रवीन्द्रनाथ को सीधे जनसाधारण का साहित्यकार घोषित नहीं कर दिया। लेखक ने स्वयं रवीन्द्रनाथ के विचारों को लेकर कई सवाल उठाये। उत्पल दत्त शुरुआत में रवीद्रनाथ को स्वयं एक बुर्जुवा कवि घोषित करते हैं उसके बाद बारी-बारी से रवीन्द्रनाथ की रचनाओं का उदाहरण देते हुए इस सच्चाई से पर्दा उठाते हैं । लेकिन सेनगुप्ता ने अपने समीक्षात्मक लेख की शुरुआत में ही रवीन्द्रनाथ और उन जैसे अन्य सामन्तवादी वर्ग से आने वाले विचारकों को सीधे-सीधे जन-विरोधी घोषित कर दिया जो किसी भी दृष्टि से सही इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि ‘जन’ में केवल मजदूर और किसान नहीं आते हैं। उनमें स्त्री.दलित हर वर्ग शामिल है। इसलिए यह कहना कि रवीन्द्रनाथ या राजा राम मोहन राय की मूर्ति इसलिए तोड़ी गयीं क्योंकि वह जन विरोधी थे या जन-साधारण के लेखक/विचारक नहीं थे, यह दृष्टिकोण पूरी तरह से एकांगी है। मूर्ति तोड़ो अभियान दो विचारधाराओं का आपसी टकराव है लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि इस टकराव में एक विचारधारा को पूरी तरह नष्ट करके उसे जन-विरोधी ही घोषित कर दिया जाए। टकराव कुछेक पहलुओं पर हो सकता है जो जायज़ है लेकिन कुछेक मुद्दों को लेकर पूरी विचारधारा या दृष्टिकोण को ही मिटा देना यह किसी भी से न्यायपूर्ण नहीं हो सकता।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिंदी साहित्य में नक्सलवादी आन्दोलन की सही एवं स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत करने में ‘फिलहाल’ पत्रिका का विशेष योगदान रहा है। ‘फिलहाल’ उन चुनिन्दा लघु पत्रिकाओं में से एक थी जिन्होंने पत्रिका को अपनी व्यक्तिगत उपलब्धि का साधन न बनाकर उसे जनमानस और साहित्य की सेवा के लिए उपयोग किया। जैसा कि विदित है ‘फिलहाल’ का उद्देश्य था अधिक से अधिक लोगों के साथ जुड़कर उनके सामने ‘नक्सलवादी आन्दोलन’ की वास्तविक तस्वीर पेश कर उन्हें जागरूक करना। जैसे ही ‘फिलहाल’ अपने इस लक्ष्य को साधने में सफल हुई उसका प्रकाशन बंद कर दिया गया।

अन्य लघु पत्रिकाओं में ‘नक्सलवादी आन्दोलन’ की तस्वीर –  ‘फिलहाल’ के अलावा हिंदी की कुछेक ऐसी पत्रिकाएं और थीं जो ‘नक्सलवादी आन्दोलन’ के परिप्रेक्ष्य में अपने विचारों को प्रस्तुत करने में पीछे नहीं थीं| इनमें से ही एक पत्रिका थी वाराणसी से कंचन कुमार के संपादन में निकलने वाली ‘आमुख’। आमुख की शुरुआत सन् 1965 में हुई थी। आमुख के पहले ही अंक में कंचन कुमार ने स्पष्ट तौर पर ज़ाहिर कर दिया था कि यह पत्रिका समाज, साहित्य एवं सभ्यता का अन्धानुकरण करने वाली पत्रिकाओं में से नहीं बल्कि उन प्रतिरोधी आवाज़ों का संकलन है जिनके स्वर को कभी समाज के नाम पर तो कभी सभ्यता के नाम पर हमेशा से कुचला गया है। ‘आमुख’ ने किसान-मजदूरों द्वारा शुरू की गयी क्रांति का पुरज़ोर समर्थन किया। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ‘आमुख’ ने नक्सलबाड़ी के किसान जन उभार के बाद मानो मकसद पा लिया था।18.   कंचन कुमार अपनी पत्रिका के ज़रिये ‘नक्सलवादी आन्दोलन’ का समर्थन करने वाली प्रतिरोधी आवाजों का चित्रण करके न केवल सरकार के खोखले जनतंत्र को बेनकाब कर रहे थे बल्कि  उनकी जनविरोधी नीतियों, आन्दोलन को दबाने के उनके प्रयासों का भी पर्दाफाश कर रहे थे। आमुख के सन् 1969 के अंक में सत्राजित मजुमदार का एक लम्बा नाटक प्रकाशित हुआ था जिसमें उन विद्यार्थियों और अध्यापकों की दशा का वर्णन किया गया जो ‘नक्सलवादी आन्दोलन’ का समर्थन कर रहे हैं। सरकार, विश्वविद्यालय प्रशासन तथा राज्य के पुलिस तीनों मिलकर किस प्रकार आन्दोलन का दमन कर रहे थे और बेकसूरों को गुंडों की संज्ञा देकर कैसे उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा था  इसका सशक्त चित्रण उप-कुलपति और अध्यापक के बीच हुए इन संवादों में हुआ है –

“अध्यापक : (उप-कुलपति से ) उस दिन उन्होंने (पुलिस ने) हमारे कॉलेज में घुसकर अध्यापकों को पीटते हुए बाहर निकाल दिया। उनमें से एक बूढ़े अध्यापक और अध्यापिका भी थीं।

पुलिस अधिकारी – आप भी कैसी बातें करते हैं। मेरी पुलिस कभी-भी इस तरह का काम नहीं कर सकती। भला, अध्यापक और गुंडों को नहीं पहचानते !

            (प्रॉक्टर ने उपकुलपति के कान में कुछ कहा )

अध्यापक – लेकिन वो बूढ़े अध्यापक और अध्यापिका अभी- भी अस्पताल में हैं।

उपकुलपति – देखो, यह मामला मैं अच्छी तरह समझ गया। ये अगर नहीं होते तो हमारा जाने क्या हाल होता ? मुझे विश्वस्तर-सूत्र से पता चला है कि वे सारे गुंडे लड़के पुलिस की वर्दी पहनकर तुम्हारे अध्यापकों को पीट आये हैं। यह बड़े दुःख की बात है, मगर क्या किया जाये ? इन गुंडों को मारने के लिए ही तो यह सब किया जा रहा है। और यह लोग इतना स्वार्थ त्याग कर रहे हैं। तुम लोग भी थोड़ा सा कर लो तो हर्ज़ क्या है।”19.

    स्पष्ट है कि ‘नक्सलवादी आन्दोलन’ की चिंगारी को दबाने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन और राज्य की पुलिस ने सच पर झूठ का मुखौटा चढ़ाकर सर्वप्रथम उन बेगुनाहों को अपना निशाना बनाया जिनका इस आन्दोलन से दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था ताकि लोगों के मन में इस आन्दोलन का समर्थन करने वालों के प्रति संदेह उत्पन्न हो जाए और वह इस आन्दोलन की वास्तविकता को जाने बिना इससे दूर हो जाएँ। और ऐसा हुआ भी लेकिन ‘आमुख’ जैसे प्रतिरोधी संकलनों ने शिक्षित युवा वर्ग को ‘नक्सलवादी आन्दोलन’ के वास्तविक परिदृश्य से परिचित कराकर उनके मन में उत्पन्न कई भ्रांतियों को दूर कर उन्हें नयी राह प्रदान की।

‘आमुख’ के अलावा कुछेक पत्रिकाएँ ऐसी भी थीं जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप से तो कभी ‘नक्सलवादी आन्दोलन’ के सम्बन्ध में अपने स्पष्ट विचार प्रस्तुत नहीं किये लेकिन साहित्य विशेषकर, कविताओ के ज़रिये नक्सल क्रांति को विवेचित करने का प्रयास किया है। इन पत्रिकाओं में प्रमुख हैं – युवा, लहर, नई धारा आदि। ‘युवा’ में प्रकाशित कविता का उदाहरण कुछ इस प्रकार है –

“कारागार में….

हथकड़ी पड़े हाथ आकाश में उठेंगे

अत्याचारी शासन के विरुद्ध

कारागार में

प्रकाश के गर्जन से तिमिर का होगा नाश

सबकी मुक्ति के लिए

कारागार में

अन्नहीन बच्चों के लिए

रोटी का युद्ध शुरू

भूख और रोग से ग्रस्त

बच्चों के लिए ….”20.

प्रस्तुत कविता जेलों में बंद उन आन्दोलनकारियों का आह्वान है जो अब मुक्ति के लिए एक नयी क्रांति की शुरुआत करने जा रहे हैं। दरअसल यह कविता एक क्रांतिकारी के उस संकल्प को दर्शा रही जो कभी प्रशासन के सामने घुटने नहीं टेकता बल्कि हर हालत में उसके खिलाफ लड़ने के लिए तैयार रहता है। यह कविता उन हजारों विद्यार्थियों, अध्यापकों के संघर्ष को प्रतिबिंबित कर रही है जिन्होंने जेल में रहते हुए प्रशासन के खिलाफ अपने आन्दोलन को जारी रखा।

 निष्कर्ष –  उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि नक्सलवादी आन्दोलन के प्रकृति से हिंदी पाठकों को अवगत कराने में हिंदी की कुछेक पत्रिकाओं (फिलहाल,आमुख, युवा) ने सराहनीय योगदान दिया है। लेकिन इस विश्लेषण के दौरान यह बात भी सामने आई कि लघु पत्रिका आन्दोलन के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली अधिकतर पत्रिकाओं (कल्पना, अणिमा, संचेतना आदि ) ने इस विषय पर अपनी चुप्पी को बनाये रखा। इस चुप्पी को बनाये रखने एक कारण यह हो सकता है कि यह पत्रिकाएं ‘नक्सल क्रान्ति’ के पीछे जो विचारधारा हो उससे सहमत न हों। लेकिन अगर यह पत्रिकाएं वाकई में ‘नक्सल क्रान्ति’ के किसी पहलू को लेकर आशंकित थीं या उससे असहमत थीं तो इन्हें उस असहमति से पाठकों को रूबरू कराना चाहिए था न कि उस पर चुप रहकर लघु पत्रिका आन्दोलन के विज़न पर सवालिया निशान खड़े करने चाहिए थे। कोई भी क्रान्ति या आन्दोलन एक विशेष वर्ग द्वारा शुरू अवश्य किया जाता है लेकिन उसकी चिंगारी पूरे देश को अपने में समेट लेती है इसलिए यह आवश्यक है कि पत्रिकाएँ खासकर लघु पत्रिकाएँ जो जनसाधारण के हित के लिए कार्य करने का दावा करती हैं वह अपनी भूमिका को निष्पक्ष तरीके से निभाएं। ज़ाहिर है कि समाज में होने वाली प्रत्येक गतिविधि की बात यहाँ नहीं की जा रही लेकिन जो गतिविधि पूरे राष्ट्र को प्रभावित कर रही है उन पर पत्रिकाओं में बात होना आवश्यक है|

संदर्भ

  1. http://gopalpradhan.blogspot.com/2016/03/blog-post.html
  2. तलवार,वीर भारत, ‘नक्सलबाड़ी के दौर में’, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण -2007, पृष्ठ संख्या – 15.
  3. http://gopalpradhan.blogspot.com/2016/03/blog-post.html
  4. तलवार,वीर भारत, ‘नक्सलबाड़ी के दौर में’, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण -2007, पृष्ठ संख्या – 564.
  5. वही.
  6. वही, पृष्ठ संख्या- 586.
  7. वही, पृष्ठ संख्या – 593.
  8. वही, पृष्ठ संख्या – 605.
  9. वही, पृष्ठ संख्या – 606-607.
  10. वही, पृष्ठ संख्या – 589-590.
  11. वही, पृष्ठ संख्या – 590.
  12. वही, पृष्ठ संख्या – 546.
  13. वही, पृष्ठ संख्या – 546-547.
  14. वही, पृष्ठ संख्या – 549-550.
  15. वही, पृष्ठ संख्या – 558.
  16. वही, पृष्ठ संख्या – 559.
  17. वही, पृष्ठ संख्या – 560-561.
  18. http://sanhati.com/wp-content/uploads/2015/08/aamukh_intro.pdf
  19. ‘आमुख’, संपा. कंचन कुमार, संकलन-6, वर्ष-1969, पृष्ठ संख्या – 8-9. (पत्रिका का लिंक-http://sanhati.com/wp-content/uploads/2015/10/vol006.pdf).
  20. उद्भ्रांत, ‘लघु पत्रिका आन्दोलन और युवा की भूमिका’, जवाहर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण -2009, पृष्ठ संख्या –285

आधुनिक युग के स्त्री-प्रश्न

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sketch of human hair
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आधुनिक युग के स्त्री-प्रश्न

अनुक्रम

अंजलि कुमारी 
शोधार्थी (पी.एचडी)
हिन्दी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय
ई-मेल- anju11091992@gmail.com

सारांश- प्रस्तुत आलेख में स्त्री-जीवन से संबन्धित उन समस्याओं की चर्चा की गयी है आधुनिक युग की स्त्रियों के समक्ष खड़ी हैं । आधुनिक स्त्री हमारे समाज में दोहरी भूमिकाओं में प्रस्तुत है । नयी स्त्री की ये समस्याएँ नए स्त्री प्रश्नों को जन्म देती हैं । अपनी प्रवृत्ति में ये प्रश्न प्राचीन स्त्री-प्रश्नों की ही भाँति गंभीर और उलझे हुये हैं । इनके सुलझने में केवल स्त्री नहीं वरन उसके आस-पास के पूरे परिवेश, स्त्री से जुड़े प्रत्येक स्तर एवं प्रत्येक व्यक्ति का सहयोग अपेक्षित है जो इसे एक जटिल प्रक्रिया बनाता है । यह आलेख उन्हीं सब मुद्दों व उनके समाधान के विभिन्न प्रस्तावों के एक प्रयास को समेटता है । स्त्री के व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक जीवन की विविध परिस्थियों के माध्यम से हम इन स्त्री-प्रश्नों को समझने का प्रयास करेंगे ।

की-वर्ड्स- आधुनिकता, स्त्री-प्रश्न, सेल्फ-आइडेंटिटी, स्त्री का नया अवतार (सुपर-वूमेन), विवाह का प्रश्न, स्त्री की दोहरी भूमिका, स्त्री स्वातंत्र्य और सामंजस्य

शोध विस्तार

आधुनिक युग के आगमन के साथ ही ‘मनुष्य’ केंद्र में आता है । इस ‘मनुष्य’ शब्द में केवल ‘पुरुष’ अंतर्निहित नहीं है, अब ‘स्त्री’ भी इस धारा में शामिल है । ‘सेल्फ आइडेंटिटी’ की अवधारणा ने इस दौर में अपनी जगह बनायी और पारंपरिक युग में जो दहलीज़ के पीछे, दरवाज़े की ओट में, पर्दे के भीतर छिपी खड़ी थी, वह स्त्री अब कदम बढ़ाकर चौखट के बाहर आयी है । दो गज़ का घूँघट अब उठ चुका है, ओट अब ‘नेतृत्व’ में परिवर्तित हो चुका है । घर की लक्ष्मी अब धनर्जन हेतु घर से बाहर आकर काम करने लगी है । ऐसे में भारतीय समाज में सदियों से पैठ जमाये संकुचित परिवेश और मानसिकता, रूढ़ियों एवं कुरीतियों से स्त्री कुछ उबर पायी है और अपना अस्तित्व स्थापित करने के नवीन अवसर उसे प्राप्त हुये हैं । अब उसका कार्यक्षेत्र विस्तृत है और इसके विस्तार के साथ ही स्त्री हेतु उत्तरदायित्वों ने भी विस्तार पाया है, उनका कार्यभार बढ़ गया है । आज स्त्रियाँ घर और बाहर की दोहरी भूमिकाओं में नज़र आती हैं । स्त्री आज अपने नए अवतार में ‘सुपर वूमेन’ के रूप में प्रस्तुत है जिसे आजकल ‘पावर वूमेन’ भी कहा जा रहा है । “यह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर, अपनी उपलब्धियों पर गर्व करने वाली, आत्मविश्वास, अधिकार और समृद्धि से भरी ‘पावर वूमेन’ है जो पुरुषों की बॉस भी हो सकती है ।”1 यह स्त्री अपनी और परिवार की आवश्यकताओं हेतु सदैव तत्पर है । किन्तु नए दायित्व नयी चुनौतियों को जन्म देते हैं, इससे आज की स्त्री अछूती नहीं है । हम स्त्री-जीवन की कुछ स्थितियों के आधार पर इसकी चर्चा करेंगे ।

लड़की जब अपने मता-पिता के संरक्षण में है माँ-बाप उसकी प्रतिभा को पहचानते हुये उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं । अच्छा परिणाम प्राप्त होने पर सभी उसकी सराहना करते हैं । एक रोज़ वह होनहार लड़की अपनी मेहनत से अच्छी नौकरी प्राप्त कर लेती है । वह परिवार की आर्थिक व्यवस्था में अपना योगदान देना आरंभ करती है । वह अब अपने लिए भौतिक संसाधन जुटाने में सक्षम है । ऐसे में उसे पुरुष की कुछ खास आवश्यकता अपने जीवन में महसूस नहीं होती । अब विवाह और संतति से वह कतराने लगी है क्योंकि यह उसके जीवन की स्वच्छंदता में बाधक हो सकते हैं । विवाह के बाद उसे परवश हो जाने का भय सताता है ।

“जिस असुरक्षा के कारण औरत पति के घर को छोड़ नहीं पाती थी, उस आर्थिक सुरक्षा को आज औरत ने पा लिया है और जब उसे लागने लगा है कि यदि पति उसका आदर नहीं करता और उसे घर और बाहर कि ज़िम्मेदारी स्वयं पूरी करनी है, बच्चे पैदा करने के बाद उनका लालन-पालन स्वयं करना है, तो फिर पति नाम के रिश्ते कि ज़रूरत क्या है? तनख्वाह वह लाती है । समाज में उसे कुर्सी के चलते सम्मान मिला हुआ है । वह अपने मातहतों पर हुक्म चलती लेती है । सहकर्मियों से समय पड़ने पर सहायता मिल जाती है, फिर यह विवाह किसलिए? पिटने, जलने, लड़ने, या फिर तलाक़ के लिए ? इससे बेहतर है, शादी की ही न जाए । उसकी जगह भौतिक सुखों को अपनी मेहनत से प्राप्त कर चैन-भरी ज़िंदगी गुज़ारी जाए ।”2

यह उन्हें अधिक सहज प्रतीत होता है । अब जब स्त्रियाँ सुशिक्षित, आत्मनिर्भर और स्वच्छंद हैं तब माँ-बाप कि पसंद से शादी करने का दबाव भी उन पर नहीं रह गया है । हाँ, यह ज़रूर है कि उन्हें अब जीवन में ‘पति’ के रूप में ऐसे पुरुष की आवश्यकता है जो उनको समझ सकें, उनके अस्तित्व और उनके काम की कद्र करें, कार्यस्थल पर स्त्री के पुरुष सहयोगियों को लेकर मन में कोई शंका न रखें, स्त्री के पारिवारिक-व्यावसायिक जीवन के भार को हल्का बनाने में उन्हें सहयोग दें, दोहरे काम के बोझ तले उनकी स्थिति को समझते हुये उनके साथ खड़े रह सकें । विवाह को आपसी सहयोग से केवल स्त्री के लिए संकट का कारण बनने से बचायें । अन्यथा ‘विवाह’ कामकाजी स्त्रियों हेतु ‘सिर पर लदा भारी बोझ’ मात्र बनकर रह जाएगा । समस्या यह है की सभी स्त्रियों को ऐसा साथी मिल पाना मुश्किल है, चाहे वह उन्हें स्वेच्छा से ही क्यों न चुनें । पुरुष दंभ को त्याग स्त्री का सहचर बन सकने वाले साथी का समाज में अभाव है । इसके लिए पुरुष-मानसिकता में परिवर्तन अपेक्षित है ।

दूसरी स्थिति वह है जहाँ नौकरीपेशा स्त्री का विवाह हो गया और वह संयुक्त परिवार वाले ससुराल में चली गयी । नयी पीढ़ी तो आधुनिक है किन्तु पुरानी पीढ़ी के लोग जो घर के ‘गार्जियन’ हैं, वे पारंपरिक और रूढ़िवादी मूल्यों-मान्यताओं का अनुसरण करने वाले होते हैं । ऐसे में ‘सास’ के रूप में जो स्त्री वहाँ मौजूद है वह अपने जीवन की परिस्थितियों द्वारा ही नयी पढ़ी-लिखी बहू का मूल्यांकन करेगी । बहू से की जाने वाली अपेक्षाओं का पतिगृह में कोई अंत नहीं होता । प्राचीन और नवीन मूल्यों की टकराहट से सम्बन्धों में बिखराव का खतरा बढ़ जाता है । पुरानी पीढ़ी तो लकीर का फकीर बनी अपनी मानसिकता पर अडिग अटल रहेगी । समंजस्य स्थापित कर सकने का सम्पूर्ण दायित्व नयी पीढ़ी का ही होगा और वो भी केवल बहू रूपी स्त्री पर । इस स्थिति में स्त्री सबसे ज़्यादा ‘एडजस्टमेंट’ करती है । पति के घर वालों को बहू के धन कमाने का तो सुख महसूस होगा किन्तु साथ ही घर के काम में तनिक भी ढील वे बर्दाश्त नहीं कर सकते । नौकरी के लिए जाने से पहले और नौकरी से लौटकर स्त्री घर के सभी काम समय से पूर्ण करने को विवश है, अन्यथा वह घरेलू आलोचना का शिकार बनती है । कार्यस्थल के निश्चित समय या अत्यधिक कार्यभार के कारण यदि स्त्री घरेलू कामकाज में कुछ अक्षमता महसूस करे तो उस पर चारों ओर से अपना काम ठीक तरह से करने का दबाव बना रहता है और यदि कार्य संभाला नहीं जा रहा तो पति या उसके घरवालों की ओर से उसे नौकरी छोड़ने तक की सलाह दे दी जाती है । इन परिस्थितियों से कुशलतापूर्वक निपटने के लिए पतिगृह के लोगों का घरेलू कार्यों में सहयोग एवं ‘मौरल सपोर्ट’ अपेक्षित है । ऐसा न होने पर स्त्री हर प्रकार के कार्यभार से त्रस्त मानसिक यंत्रणा, चिड़चिड़ापन व ‘स्ट्रैस एवं फ्रस्ट्रेशन’ का शिकार हो सकती है ।

“पारंपरिक विवाहिता और स्वावलम्बी बने रहने में स्त्री पर जिम्मेवारियों में वृद्धि होती है, बदले में उसे तनाव व थकान मिलती है । पुरुष प्रधान परिवेश में परवरिश स्त्री से ‘अधिकारों का त्याग’ मांगता है और स्वावलंबन ‘अधिकारों की चाह’, इन दोनों के बीच बँटी हुयी स्त्री निरंतर तनाव झेलती है और टुकड़ा-टुकड़ा जीती है ।”3

इस प्रकार बाहरी श्रम में तो स्त्रियाँ भागीदार बन चुकी हैं किन्तु घरेलू श्रम में पति या पतिगृह के लोग स्त्री के साथ वह श्रम बाँटना नहीं चाहते । पितृसत्तात्मक दंभ इसके आड़े आता है ।

आधुनिक युग में एकल परिवारों की संकल्पना बढ़ रही है, किन्तु संयुक्त परिवार अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुये हैं । और एकल परिवारों में पति-पत्नी यदि आपसी सहयोग-सामंजस्य से घर चला भी लेते हैं तो वहाँ फिर दूसरी तरह की समस्यायें सामने आती हैं ।

तीसरी स्थिति में स्त्री के समक्ष चुनौती है उसके ‘मातृत्व का प्रश्न’ । इसे भी हम संयुक्त एवं एकल परिवार के आलोक में समझेंगे ।

“विवाह के परंपरागत एवं मुख्य उद्देश्यों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य संतानोत्पत्ति है । स्त्री के मातृत्व को उसकी पूर्णता और गरिमा से जोड़ा जाता है । स्त्री का समस्त अभिनंदन उसके मातृ रूप में संस्थित होने का अर्चन है ।”4

संयुक्त परिवारों में कामकाजी स्त्रियाँ यदि अपने करियर पर ध्यान देना चाहती हैं तब भी संतानोत्पत्ति हेतु उन पर पारिवारिक दबाव बना रहता है । परिवार की वंशावली में वृद्धि विवाह के बाद स्त्री का मूल कार्य समझा जाता है ।

“मातृत्व स्त्री पर अतिरिक्त भार डालता है एवं उसके कार्य को लगभग तिगुना कर देता है । यह अतिरिक्त कार्य स्त्री के कामकाजी होने पर समस्या को बढ़ा देता है । कैरिअर और आत्म-विकास की दृष्टि से जो वर्ष महत्वपूर्ण होते हैं उन्हीं वर्षों को वैज्ञानिक दृष्टि से माँ बनने के लिए उपयुक्त माना जाता है । मानव-शिशु के परनिर्भरता की अवधि लंबी होती है ।”5

एकल परिवार में यदि स्त्री कामकाजी है तो मातृत्व-सुख के लिए पूरी योजना के साथ पति-पत्नी को तैयार होना आवश्यक है । स्त्री और पुरुष दोनों के नौकरीपेशा होने के साथ संतान के दायित्व का प्रश्न चिंता का विषय हो जाता है । किसी पारिवारिक देखभाल करने वाले के अभाव में स्त्री को अपनी संतान को बहुत छोटी उम्र में ही या तो किसी ‘बेबी डे केयर सेंटर’ में ‘बेबी-सिटर’ के पास छोड़ना होगा या किसी आया के भरोसे । ऐसे में बच्चे की सही देखभाल और सुरक्षा का प्रश्न बड़ा प्रश्न साबित होता है । कार्यस्थल पर कार्यरत स्त्री का अधिकतर ध्यान अपनी संतान पर केन्द्रित होता है और वह अपने काम से लगातार ‘डिस्ट्रेक्ट’ रहती है । कोई विकल्प न होने पर स्त्री बच्चे की अच्छी परवरिश के लिए अपनी नौकरी छोड़ने पर विवश होती है । इस प्रकार की परिस्थितियों में संतानोत्पत्ति स्त्री के लिए एक अतिरिक्त कार्यभार बन जाता है । करियर और मातृत्व में से किसी एक का चुनाव नवीन स्त्री-प्रश्नों में शामिल है ।

सदियों से मुक्ति की आकांक्षा में छटपटाती स्त्री आधुनिक युग में पिछली शताब्दियों की तुलना में स्वतंत्र हो चुकी है । अब उसके समक्ष किसी के अधिकार-क्षेत्र की वस्तु बन कर जबरन जीवन-यापन करने की कोई विवशता नहीं है । जो वर्षों से अपने जीवन में समझौतावादी रुख अपनाती आयी थी, आज वह घर और बाहर की बागडोर अपने हाथों में संभाले एक अधिक ज़िम्मेवार स्त्री के रूप में खड़ी है ।

चौथी स्थिति में स्त्री के व्यक्तिगत जीवन में समझौता न कर अपने अनुसार जीने की कला को उसके आत्मकेंद्रित होने का परिचायक समझा जाता है । जिन मुद्दों पर पहले परिवार में स्त्री के झुकने-दबने की शर्त पर सुलह हो जाया करती थी आज वह स्त्री के आत्म-सम्मान का प्रश्न बन चुके हैं और स्त्री उन प्रश्नों पर बोलने का साहस करना और दृढ़ता से खड़े होना अब जानती है । ऐसे में स्त्री के न दबने का एवं उसके प्रतिरोध का परिणाम पारिवारिक विघटन के रूप में सामने आ जाता है । तलाक़शुदा एकाकी जीवन सम्बन्धों की आत्मीयता एवं विश्वास को तो ठेस पहुँचाता ही है, साथ ही, कुंठा, संत्रास, अवसाद आदि मानसिक विकारों का कारण भी बनता है ।

निष्कर्षतः हम देखते हैं कि आधुनिक युग स्त्री-स्वातंत्र्य का युग है । अपनी इच्छानुसार जीने की चाह स्त्री के भीतर पनपी है और वह इस दिशा में अग्रसर है । इस दौर में पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलने का हुनर स्त्री ने सीखा है । वह सपने देखती है, उन्हें अपने दम पर, अपनी मेहनत से पूरा करती है । किन्तु युग-परवर्तन और स्त्री की स्थिति में बदलाव के साथ उसके समक्ष नयी चुनौतियाँ भी प्रस्तुत हुयी हैं । स्त्री के जीवन में आज नवीन भूमिकायें शामिल तो हुयी हैं किन्तु प्राचीन भूमिकाओं के स्थानापन्न के साथ नहीं अपितु उनके साथ जुड़ कर । इन नूतन भूमिकाओं के साथ उत्पन्न हुयी हैं कुछ ऐसी समस्याएँ जो स्त्री के व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक जीवन में द्वंद्व की स्थिति पैदा करती हैं । इन्हीं समस्याओं से जन्म होता है नए स्त्री-प्रश्नों का । बदलते युग के स्त्री-प्रश्न भी प्राचीन युग की ही भाँति विकट एवं जटिल हैं । ऐसे में अपने जीवन में सामंजस्य की स्थिति को स्थापित कर पाना आज की स्त्री के समक्ष एक बड़ा सवाल है ।

संदर्भ ग्रंथ सूची :-

  1. ‘स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ’ – रेखा कस्तवार, पृष्ठ-92, दूसरा संस्करण-2016, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली-110002
  2. ‘औरत के लिए औरत’ – नासिरा शर्मा, पृष्ठ-137, संस्करण-2014, सामयिक प्रकाशन, नयी दिल्ली-110002
  3. ‘स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ’ – रेखा कस्तवार, पृष्ठ-93 (द्वितीयक स्त्रोत)
  4. वही ” , पृष्ठ-141 (द्वितीयक स्त्रोत)
  5. वही ” , पृष्ठ-142

नव वैश्विक युवाओं की संघर्ष गाथा ‘डार्क हार्स’ – धर्मेन्द्र प्रताप सिंह

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नव वैश्विक युवाओं की संघर्ष गाथाडार्क हार्स

धर्मेन्द्र प्रताप सिंह
कक्ष संख्या-214, सिंधु ब्लॉक
केरल केन्द्रीय विश्वविद्यालय
dpsingh777@gmail.com

सारांश : 
नीलोत्पल मृणाल का यह उपन्यास आज के युवाओं की अंतरगाथा है। पारिवारिक और सामाजिक दबाव में युवा किस तरह जकड़ा है, यह उपन्यास में बखूबी स्पष्ट किया गया है।  आज वैश्वीकरण के युग में आने वाली पीढ़ी की जरूरतें रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित न रहकर एक एलीट वर्ग की जीवन शैली अपना रही है जिसे उपन्यास में दिखाया गया है। एक नौकरी की आकांक्षा में आज का युवा अपने परिवार सहित सर्वस्व कुर्बान करने के लिए तत्पर है। इन्हीं समस्याओं को विवेच्य उपन्यास स्वर प्रदान करता है। 
   बीज शब्द: किस्सागोई, ग्लोबलाइजेशल, लोकलाइजेशन, अजनिबियत, चिरंजीवी, अप्रत्याशित, जोजिला दर्रे। 

‘डार्क हार्स’ नीलोत्पल मृणाल का लघु उपन्यास है जिसमें आज की प्रतियोगी परीक्षा यू0पी0एस0सी देने वाले संघर्षरत पीढ़ी की जीवंत तस्वीर उकेरी गई है। यह कृति अपने कथ्य में देश के उन 60 फीसदी युवाओं को समेट लेती है जो पढ़ाई पूरी करने के बाद माँ-बाप के सपने आँखों में संजोकर स्वयं की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार हैं। उक्त कृति की महत्ता इससे भी सिद्ध होती है कि इसे साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार 2016 से सम्मानित किया जा चुका है। इस उपन्यास में रचनाकार ने सिविल परीक्षाओं की तैयारी करने वाले जितने भी सकारात्मक और नकारात्मक चरित्र हो सकते हैं, सभी को अपनी लेखनी द्वारा मूर्त रूप प्रदान कर पाठकों के सम्मुख उपस्थित किया है। कथानायक संतोष, मनोहर, रायसाहब, जावेद, विमलेन्द्र, पायल, विदिशा, मयूराक्षी, श्यामल, इलियास मियां, गोरेलाल यादव, भरत, प्रफुल्ल बटोहिया, गुरूराज सिंह, विरंची पाण्डे, दशरथ बाबू रितुपर्णो महापात्रा, गणपति महापात्रा आदि चरित्रों के माध्यम से कथा को आधार प्रदान किया गया है। कहानी के अंत में संतोष और विमलेन्द्र मनोहर जो कि बिहार का रहने वाला था, सिविल परीक्षाओं में असफलता के बाद मोतीहारी में सीमेंट व्यवसायी के रूप में प्रतिष्ठा पाता है।

उपन्यास के प्रारंभ में ही बिहार कैडर के आई0ए0एस0 मिथिलेश मिश्रा उपन्यास के संदर्भ में अपनी सटीक राय रखते हैं जिससे मैं सौ फीसदी पूरी तरह सहमत हूँ कि- ‘‘डार्क हार्स का कथानक मात्र एक कल्पना न होकर सिविल सेवा की तैयारी कर रहे छात्रों में हर एक की आत्मकथा है, जिसमें तैयारी से जुड़ा हर एक पहलू चाहे कोचिंग हो या अखबार या टिफिन का डिब्बा या नेहरू विहार, सब कुछ अपने को बेबाक तरीके से हमारे सपने की पृष्ठभूमि में खोलकर रख देता है।’’ (डार्क हार्स, पृष्ठ-9)

उपन्यास में यदि कथानायक की बात की जाय तो संतोष का चरित्र भले ही आगे आता है लेकिन दिल्ली का मुखर्जी नगर ही विवेच्य उपन्यास का नायक है जो अपने अतःस्थल में कच्चामाल लेकर देश के सर्वोच्च पद को संभालने वाले कैडर तैयार करता है। विनायक सिन्हा संतोष के पिता हैं जो मध्यवर्गीय ग्रामीण परिवार के हैं और उन अभिभावकों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपने बच्चों को आज के भूमण्डलीय समाज में एक सम्मानजनक नौकरी पाने का सपना अपनी आँखों में संजोकर रखते हैं। इसके साथ ही गाँवों में रहकर खेती-किसानी से आजीविका चलाने वाले को अपने परिवार का पालन-पोषण करने वाले अभिभावकों का संघर्ष भी परिलक्षित होता है। हमारे देश में विशेषकर हिंदी पट्टी क्षेत्र में पिता तब तक अपने बेटे को गले नहीं लगाता जब तक कि वह खुद कमाने न लगे। उपन्यासकार बाप-बेटे के इस रिश्ते के संदर्भ में लिखता है कि- ‘‘असल में एक सिविल अभ्यर्थी और बेटे और बाप के बीच रिश्ते का आधार इन्हीं दो परम सत्य के आस-पास मंडराता है। पिता पैसे को लेकर निश्चिन्त करता है और बेटा परिणाम को लेके। बेटे को खर्च चाहिए और पिता को परिणाम।’’ (डार्क हार्स, पृष्ठ-15)

संतोष की माँ का चरित्र विनायक बाबू की भांति ही मध्यवर्गीय परिवार की माँ का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी पलके बेटे के सपने के साथ खुलती और बंद होती हैं। वह अपने बेटे के खर्च के लिए अपने जेवर तक गिरवी रखकर पति से लड़ने को सदैव तैयार रहती है- ‘‘देखना उदास मत होना, खूब पढ़ना बढ़िया से, यहाँ का चिन्ता एकदम नहीं करना, खर्चा के भी मत सोचना, सब भेजेंगे पापा, तुम बस जल्दिए खुशखबरी देना।… माँ का गला भर आया और आँसुओं की धार फूट पड़ी, जो माँ ने घंटों से रोके रखा था और इन आंसुओं में भी एक खुशी थी, एक उम्मीद थी। आखिर बेटे के भविष्य का सवाल था। कलेजे पर पत्थर रखना ही था।’’ (डार्क हार्स, पृष्ठ- 14) इसी प्रकार जावेद की माँ का चरित्र भी उपन्यास में महत्त्वपूर्ण है जो पति के न होते हुए भी बेटे की तैयारी के लिए अपनी जमीन बेचती चली जाती है और बीमारी में अपना इलाज तक नहीं करवाती। किसी भी बेटे के लिए इससे बुरा और क्या हो सकता है कि वह अपनी माँ के अन्तिम दर्शन भी नहीं कर पाता। जावेद जैसे चरित्र को गढ़कर उपन्यासकार ने युवाओं के सामाजिक और पारिवारिक संघर्ष को जीवन्तता प्रदान की है। कथाकार ने अपने चरित्रों को इतने सलीके से गढ़ा है कि वे सीधे पाठकों के अंतःकरण में प्रवेश कर जाते हैं। जावेद के माध्यम से एक उदाहरण देखिए- ‘‘जावेद खान मूलतः बिहार के छपरा जिले के एक गाँव महादेवपुर का रहने वाला था। पढ़ाई में बचपन से अव्वल था। जब इंटर में था तब पिता चल बसे। बचपन में ही पिता चल बसे। कुछ खेती लायक जमीन थी। उसी के भरोसे पहले छपरा से स्नातक किया और फिर सिविल की तैयारी के लिए जिन्दगी का एक जुआ खेलने दिल्ली आ गया।’’ (डार्क हार्स, पृष्ठ-106) गोरलाल यादव आजमगढ़ का रहने वाला था। कभी न छूटने वाला गहरा पक्कका रंग, पांच फीट पांच इंच की लम्बाई, आँखों में रेगिस्तान वाली प्यास, होठों से लगतार टपकती चाहत, काम भर सर पर बाल, सामने दो दाँत के बीच जोजिला दर्रे जैसा फासला, कुल मिलकर उसका व्यक्तित्व लोगों को एक नज़र में आकर्षित जरूर करता था कि आखिर ये आदमी कौन है। (डार्क हार्स, पृष्ठ- 116)

प्रतियोगी परक्षाओं की तैयारी करने वाला छात्र समाज के पढ़े-लिखे वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है लेकिन जी-तोड़ मेहनत के बावजूद जब उसे सफलता नहीं मिलती तो वह तनाव में आ जाता है। इस तनाव के संदर्भ में न वह अपने परिवार से कह पाता है और न ही गुरूजनों से। लेकिन उसका यह तनाव संतोष के इस कथन में साफ-साफ दिखाई देता है- ‘‘बहुत चूतिया फील्ड है यूपीएससी, पढ़ कर मर गये साला पर पीटी नहीं हुआ।’’ (डार्क हार्स, पृष्ठ- 147) इसी प्रकार यूपी में ‘झटुआना’ आदमी के खिन्न होने की चरम अवस्था को कहते हैं। यह शब्द अवसाद के समय में प्रयुक्त किया जाता है। शब्दों को लेकर थोड़ी अपत्ति जरूर की जा सकती है लेकिन आज भूमण्डलीकरण के युग में जब हम ग्लोबलाइजेशल से लोकलाइजेशन की ओर बढ़ कर अपनी छोटी-छोटी अस्मिताओं के लिए जूझ रहे हैं तो हमें इन शब्दों को किसी न किसी रूप में स्वीकार करना पडे़गा क्योंकि युवा पीढ़ी में ऐसे शब्द स्वीकार किए जा चुके हैं।

लेखक द्वारा उठाई गई पृष्ठभूमि देश के ऐसे सभी स्थानों पर देखी जा सकती हैं जहाँ प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्र रहते हैं। कथा को मुखर्जी नगर या दिल्ली तक समेट देना रचना का दायरा सीमित कर देगा। युवा कथाकार नीलोत्पल मृणाल ने इस उपन्यास में भाषा बड़ी ही चुटीले और सहज अंदाज में प्रस्तुत की है जिसे इस उदाहरण के माध्यम से देखा जा सकता है- ‘‘पीटी के प्रेशर से पूरा मुखर्जी नगर उबल रहा था। हर कान से भांप निकल रही थी और हर दिमाग की सीटी बजी हुई थी। आखिर वो दिन आ गया, जिसके लिए लाखों विद्यार्थी देश के कोने-कोने से यहाँ आते थे। आज पीटी का एग्जाम था। किसी के लिए कयामत का दिन तो किसी के लिए जिंदगी को बदलने के लिए शुरूआत का दिन। छह बजे सुबह ही बत्रा पर अपने-अपने सेंटर पर जाने वालों की इतनी भीड़ थी मानो माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने रामलीला मैदान में मजदूरों की रैली रखी हो। (डार्क हार्स, पृष्ठ-114)

युवाओं पर पड़ने वाला पारिवारिक और सामाजिक दबाव उन्हें अवसादग्रस्त बना देता है। हमारी युवा पीढ़ी किस तनाव और दबाव में जीवनयापन करती है, रायसाहब के चरित्र के माध्यम से देखा जा सकता है। उन पर घर वापसी के साथ-साथ शादी का दबाव भी बढ़ रहा था। गुरु ने संतोष के संदर्भ में कहा कि ‘‘डार्क हार्स मतलब, रेस में दौड़ता ऐसा घोड़ा जिस पर किसी ने भी दांव नहीं लगाया, जिससे किसी ने जीतने की उम्मीद न की हो और वही घोड़ी सबको पीछे छोड़ आगे निकल जाए। वही ‘डार्क हार्स’ है मेरे दोस्त। संतोष एक अप्रत्याशित विजेता है। मैंने तुम्हारे आने से पहले श्यामल सर और हर्षवर्द्धन सर दोनों को काल लगाया था। संतोष लगातार इन दोनों के संपर्क में था। पीटी हाने के बाद ही उसने अपना कमरा संत नगर की ओर ले लिया था। उसने सर स अनुरोध किया था कि उसके बारे में किसी को कुछ न बतायें। जो भी हो किस्मत पलट दी उसने, भाग्य को ठेंगा दिखा कर अपनी मेहनत से अपनी तकदीर खुद गढ़ ली इसने भाई।’’ (डार्क हार्स, पृष्ठ-159)

प्रतिष्ठित महिला कथाकार चित्रा मुद्गल इस उपन्यास पर अपनी राय रखते हुए कहती हैं कि- ‘‘अपने पहले ही उपन्यास में नीलोत्पल ने बड़ा साहस दिखाते हुए बेबाकी से यथार्थ की तलछत को कुदेरते हुए एक ऐसी दुनिया का सच लिखा है, जिस पर पहले कभी इतना नहीं लिखा गया। ये भोगे गये यथार्थ का दस्तावेज है। एक ऐसी रोचक और बौद्धिक दुनिया की गर्म भट्टी का सच लिखा, जिसमें कई लोग तप कर सोना हो जाते हैं तो कई जल कर खाक। ‘डार्क हार्स’ अंधेरे रास्ते से हो कर उजाले तक का सफर है। नीलोत्पल की भाषा में रवानगी है, व्यंग्य में धार है, संवादों में संवेदना के गहरे उतार-चढ़ाव हैं। किस्सागोई का अपना अलग अंदाज है, जो पाठकों को पढ़ाने के लिए मजबूर करता है।’’ (डार्क हार्स- फ्लैप)।

रचनाकार ने देश की परंपरागत शिक्षा प्रणाली की नाकामियों को उजागर करता है। संतोष ऐसी ही शिक्षण पद्धति में अध्ययन कर सिविल परीक्षाओं की तैयारी करने दिल्ली पहुँचता है जिसमें उसे आधारभूत ज्ञान ही नहीं दिया जाता- ‘‘आज के समय जब देश में आयोजित किसी भी क्षेत्र की प्रतियोगिता परीक्षा में विज्ञान, तकनीक, गणित और अंग्रेजी का महत्त्व बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाने लगा था ऐसे में इन विश्वविद्यालयों से इतिहास, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र जैसे विषयों को लेकर पढ़े छात्रों की डिग्री बस शादी के कार्ड में जिक्र करने के काम आती है। अन्यत्र कहीं नहीं। जैसे चिरंजीवी फलना, बीए, एमए, एमफिल, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी।’’ (डार्क हार्स, पृष्ठ-151) हमारे देश की शिक्षा प्रणाली हमेशा से ही प्रश्नों के घेरे में रही है। प्रसिद्ध कहानीकार उदय प्रकाश अपनी कहानी ‘मैंगांेसिल’ में शिक्षा की खामियों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि इस देश में ज्यादा पढ़े-लिखे लोग कम पढ़े-लिखे लोगों के नौकर या गुलाम होते हैं औ हमारे स्कूल और कालेज नौकर पैदा करने के कारखाने हैं। अमेरिका, जापान, फ्रांस जैसे देशों हम उन सिद्धांतों की नकल कर रहें हैं जो हमारे अनुकूल नहीं हैं लेकिन वहाँ की शिक्षा पद्धति को हम नहीं उठा पा रहे हैं। हमारे युवाओं को दक्षतापूर्ण शिक्षा की आवश्यकता है जिससे वे अपने लिए रोजगार और आजीविका चला सकें। हमारे देश के युवाओं की अधिकतर ऊर्जा और उम्र पुस्तकीय ज्ञान में ही निकल जाती है और जब उनका ज्ञान और अनुभव समाज को फायदा पहुचाने लायक होता है तो उनमें नया करने का उत्साह खत्म हो जाता है। शिक्षा पद्धति की एक खामी यह भी है कि हमारे देश में विद्यार्थी का सम्पूर्ण अध्ययन जिस क्षेत्र का होता है प्रायः नौकरी उससे इतर किसी अन्य क्षेत्र में मिल जाने से सेवा क्षेत्र में कुशलता नहीं मिल पाती। छात्रों की आधरभूत शिक्षा ही कमजोर होती है जिसे रायसाहब के इस कथन में देखा जा सकता है- ‘‘अभी छह महीने खुद से कमरे पर एनसीआरटी की किताबे पढ़ लें फिर कोई कोंचिंग ज्वाइन करें।’’ (डार्क हार्स, पृष्ठ-40)

आज के समय में कोचिंग सेंटरों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है जो हमारी शिक्षण व्यवस्था की खामियों की ओर इशारा करती है। देश में अधिकतर प्रतियोगी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम स्नातक स्तर के ही होते हैं। यह बात सोचनीय है कि छात्र स्नातक करने के बावजूद उसी स्तर की परीक्षाओं में सफलता के लिए कोचिंग सेंटर का सहारा लेता है और माँ-बाप की कठिन कमाई लुटाता है। रायसाहब का आईएएस का प्रयास खतम हो चुका था, पीसीएस भी नहीं हो पा रहा था। घर से वापसी के साथ-साथ शादी का दबाव भी अब बढ़ने लगा था। रायसाहब ने बीएड कर रखा था और मास्टरी का फार्म डाल आये थे।

कथाकार ने उपन्यास में यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि आज के युवाओं में संवदेनाएँ किस तरीके से मर चुकी हैं। लड़के-लड़की के बीच विकसित होने वाले सम्बन्ध उपयोगिता पर ही केन्द्रित होकर रह गये हैं। लड़कियाँ उन्हीं को पसन्द करती हैं जो उनके लिए परीक्षा सम्बन्धी नोट्स तैयार कर दे सकें और नोट्स मिलने के बाद वे दूध में पड़ी मक्खी की भांति लड़कियों द्वारा बाहर कर दिए जाते हैं। लड़के भी इसके लिए पूरी तरह तैयार रहते हैं। गुरू और मयूराक्षी के बीच कुछ इसी तरह का सम्बन्ध विकसित होता है जहाँ न तो प्रेम है न ही दोस्ती जैसा कोई रिश्ता।

निष्कर्ष :

1991 में भारत द्वारा अपनाई गई उदारीकरण की नीति को वैश्विक परिवर्तन का मूल आधार माना जाता है और समय उससे काफी आगे निकल चुका है। आज के नव-वैश्विक युग में समस्याओं का अंबार दिखाई दे रहा है। हमारे देश की युवा जनसंख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। लेकिन पर्याप्य संसाधन, दिशा-निर्देश और रोजगार के अभाव में हम अपनी युवा शक्ति का सम्यक उपयोग नहीं कर पा रहे हैं जिससे बेरोजगारों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है और बिना काम के युवा अवसादग्रस्त हो रहे हैं। वे पारिवारिक और सामाजिक जीवन में अजनिबियत के शिकार हो रहे हैं। विवेच्य कृति में इसी बिन्दु को युवा रचनाकार नीलोत्पल मृणाल ने स्वर प्रदान करने का प्रयास किया है।

संदर्भ :

डार्क हार्स- नीलोत्पल मृणाल, शब्दारंभ प्रकाशन, संस्करण- 2015

[जनकृति के जुलाई 2020 अंक में प्रकाशित]

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डॉ. रामविलास शर्मा के पत्रों में विविध सामाजिक पक्ष -राहुल श्रीवास्तव

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डॉ. रामविलास शर्मा के पत्रों में विविध सामाजिक पक्ष

राहुल श्रीवास्तव 
शोधार्थी (हिन्दी)
यूजीसी नेट, जे.आर.एफ.,
जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर (म.प्र.)
ई-मेल- rahul.shrivastava93@gmail.com
+91-9617425975

ramvilas harma

शोध-सार

 हिन्दी साहित्य के विकास की एक समृद्ध परम्परा रही है, जिसमें विविध विधाओं का विकास समयानुसार होता रहा है और उन साहित्यिक विधाओं में विभिन्न सामाजिक पक्षों का वर्णन किया गया है, जो साहित्यकार की लेखनी को सामाजिक दृष्टि से समृद्ध करता है। इसी क्रम में पत्र विधा भी हिन्दी साहित्य जगत में अपना विशिष्ट स्थान रखती है, जिसमें लेखक और उसके मित्रों के मध्य हुऐ सम्वाद जो विभिन्न विषयों से सम्बन्धित होते हैं, समाहित रहते हैं। हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत डॉ. रामविलास शर्मा का पत्र-साहित्य अपना एक विशेष स्थान रखता है। उनके पत्रों में वे अपने मित्रों के साथ विभिन्न साहित्यिक विषयों के साथ-साथ सामाजिक और समसामयिक विषयों पर भी मंत्रणाएँ करते नजर आते हैं और इस आलेख के माध्यम से उन सामाजिक विषयों पर डॉ. रामविलास शर्मा की दृष्टि को समझने और उस विषय के सम्बन्ध में उनके सरोकार को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर डॉ. रामविलास शर्मा की बेबाक राय उनके पत्र-साहित्य में देखने को मिलती है।

 बीज शब्द- पत्र, सामाजिक, मुद्दे, साहित्य, पक्ष।

 शोध विस्तार-

हिन्दी साहित्य विभिन्न विधाओं के माध्यम से समृद्ध हुआ है। हिन्दी के साहित्यकारों ने विविध विधाओं के माध्यम से साहित्य सृजन के क्रम में अपनी लेखनी चलाकर हिन्दी साहित्य जगत को समृद्ध किया है। विविध विधाओं के माध्यम से विभिन्न सामाजिक पक्षों और मूल्यों को उजागर करने का प्रयास हिन्दी साहित्यकारों द्वारा किया  गया है। साहित्य समाज का दर्पण हैं यह बात अक्षरशः सत्य है, किन्तु जब हम पत्र-साहित्य की चर्चा करते हैं तो यह बात और भी पुष्ट हो जाती है क्योंकि साहित्य की अन्य विधाओं में साहित्यकार समाज के पक्षों पर अकेले ही दृष्टि डालता है और उसे समझ पाता है एवम् उसे लेखनीबद्ध कर देता है, किन्तु पत्र-साहित्य में इसका दूसरा स्वरूप उभरकर सामने आता है, क्योंकि पत्रों में विविध सामाजिक पक्षों पर, दो मित्रों के मध्य सहज सम्वाद होता है, जिसमें शब्दों का तालमेल और भावों की बनावट जैसा कोई पक्ष नहीं होता है वह तो सहज सम्वाद होता है, जिससे सामाजिक पक्ष स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आता है। इस दृष्टि से सामाजिक पक्षों के क्रम में पत्र-साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा के रूप में सामने आता है।

डॉ. रामविलास शर्मा के पत्र-साहित्य की अगर बात की जाए तो इन सब दृष्टियों से उनका पत्र-साहित्य हिन्दी साहित्य जगत में अपना एक विशेष स्थान रखता है क्योंकि वे जितने उच्च कोटि के विद्वान साहित्यकार थे, अपने सामाजिक जीवन में वे उतने ही सरल, सहज प्रकृति के थे और जब उनके पत्रों पर दृष्टि जाती है तो उनकी सामाजिक विषयों से सम्बन्धित उसी सरल सहज समझ जो हर व्यक्ति से सरोकार रखती है, दिखाई देती है। आज के समय में सामाजिक समरसता और सामाजिक विषयों के सम्बन्ध में मूल्यों का जो ह्रास हुआ है वह बहुत विचारणीय है। चूँकि साहित्य समाज में घटित होने वाली घटनाओं को तो दिखाता ही है, इसके साथ ही समाज को राह दिखाने का कार्य भी करता है। साहित्य की अन्य विधाओं में यह कल्पना के सहारे दिखाया जाता है, जबकि पत्र-साहित्य में यह सब सामाजिक समरसता और पारिवारिक मूल्य स्वयं लेखन और मित्रों के व्यक्तित्व और किसी पारिवारिक या मित्र के सम्बन्ध में उनके व्यवहार से दिखाई देता है और प्रेरणा देने का कार्य करता है। इसी तरह का सामाजिक समरसता और मित्रों के दुःख-दर्द बांटने वाला पक्ष डॉ. रामविलास शर्मा के पत्रों में देखने को मिलता है। वे केदारनाथ अग्रवाल को लिखे एक पत्र में इस विषय में लिखते है-

‘‘यहाँ एक बहुत दुःखद घटना हो गई। 8 जनवरी की रात को स्वर्गीय बलभद्र दीक्षित जी के लड़के बुद्धिभद्र का भी देहान्त हो गया। खेतों में सर्दी लग जाने से निमोनिया हो गया था। केवल पांच दिन बीमार रहे। बीमारी की खबर पाकर में गया, लेकिन विलम्ब से पहुँचा भेंट न हो सकी। मौखिक सहानुभूति के बदले में चाहता हूँ कि उनके मित्र उनके परिवार के लिए कुछ मासिक बचाया करें, परन्तु इसका विज्ञापन न होना चाहिए। यह अपने मित्रों तक ही रहे।’’1

इस तरह के सामाजिक सहयोग के उदाहरण रामविलास शर्मा के पत्र-साहित्य में अनेक स्थान पर मिलते हैं। इस तरह की सामाजिक समरसता और सद्भाव की भावना जिसका कि आज के समय में मिलना दुर्लभ हो गया है। वह डॉ. रामविलास शर्मा के पत्रों में दिखती है। सामाजिक ताने-बाने के विविध पहलू होते हैं, जो समाज को जोड़कर रखते हैं। परिवार उनमें से सबसे महत्वपूर्ण पहलू के रूप में होता है। पारिवारिक सम्बन्ध ही वह आवश्यक अंग होते हैं। जो समाज को जोड़े रखने का कार्य करते हैं। डॉ. रामविलास शर्मा अपने पत्र-साहित्य में इस तरह के अनेक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जो पारिवारिक सम्बन्धों की सुदृढ़ता के माध्यम से समाज को जोड़ने का कार्य करते हैं। परिवार में होने वाले हर प्रसंग से अपने मित्रों को अवगत कराना और उनमें उनकी सहभागिता सुनिश्चित करना जैसे सुकृत्य सामाजिक और पारिवारिक समरसता के श्रेष्ठ उदाहरण के रूप में हमारे सामने आते हैं, जो वर्तमान समाज को एक स्वस्थ समाज के रूप में विकसित होने की ओर ले जाने का कार्य करते हैं। इसी तारतम्य में एक सन्दर्भ डॉ. रामवलिास शर्मा के पत्रों से उल्लेखनीय है, जिसमें डॉ. रामविलास शर्मा अपने मित्र केदारनाथ अग्रवाल को लिखते हैं-

‘‘13/5 को सेवा का ब्याह है, सबसे पहले तुम्हें इस पत्र द्वारा सपरिवार आने के लिए निमंत्रण दे रहे हैं’’2

इस तरह का पारिवारिक सौहार्द विरले ही देखने को मिलता है। इसी तरह का एक और पारिवारिक प्रसंग देखने को मिलता है, जो रामविलास शर्मा के द्वारा सामाजिक और पारिवारिक सौहार्द और आपसी प्रेम के सम्बन्ध में दिखाने का कार्य करता हे। आज जहाँ समाज में सम्बन्धों में औपचारिकता का भाव आ गया है वहीं डॉ. रामविलास शर्मा जी अपने पत्रों के माध्यम से सम्बन्धों में औपचारिकता के भाव को समाप्त कर उसे नई ऊँचाईयाँ देने का कार्य करते हें, वे इस प्रसंग में केदारनाथ अग्रवाल को लिखते हैं ‘‘तुम्हारी बहन के विवाह में आने की कोशिश करूँगा। यद्यपि उस समय तुम्हें फुर्सत तो क्या होगी।’’3

इस तरह के सामाजिक और पारिवारिक सुदृढ़ता के सम्बन्ध डॉ. रामविलास शर्मा के पत्र-साहित्य में देखने को मिलते हैं।

राजनीति भी समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती है और दोनों ही एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। या कहा जाए कि एक-दूसरे के पूरक होते हैं, तो ठीक ही होगा। डॉ. रामविलास शर्मा के पत्रों में कई जगहों पर राजनीतिक परिचर्चाएँ देखने को मिलती हैं, जो समाज में राजनीति के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव के सम्बन्ध में उनकी समझ को बताने का कार्य करते हैं। साहित्य जो कि समाज का एक महत्वपूर्ण अंग है। समाज के इसी अंग और दूसरे अंग राजनीति के सम्बन्ध में वे इस प्रकार लिखते हैं।

‘‘मैंने सोचा है ‘हिन्दी साहित्य और राजनीति’ पर बोला जाए- ‘हिन्दुस्तानी राजनीति की कमजोरियाँ, क्या साहित्य उससे सहानुभूति रख सकता है ? और हिन्दी राजनीति के घातक प्रभाव से अपनी रक्षा कर साहित्य ने राजनीतिज्ञों के चलने के लिए एक स्वतंत्र और आत्म-सम्मान युक्त मार्ग छोड़ दिया है।’’4

राजनीति के सम्बन्ध में उसके अनेक पहलुओं के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश उनके पत्रों में डाला गया है। वे इस समय के राजनीतिक परिदृश्य को अपने पत्रों में चर्चाओं के माध्यम से स्पष्ट रूप से उजागर करते हैं और अगर उस समय राजनीतिक परिदृश्य और आज के परिदृश्य को समझने का प्रयास किया जाए तो बहुत हद तक सफलता मिलती दिखाई देगी। रामविलास शर्मा के मित्र केदारनाथ अग्रवाल अपने पत्र में इन्दिरा गांधी के सम्बन्ध में लिखते हैं जो उनके राजनीतिक चिन्तन को व्यक्त करता है।

‘‘इन्दिरा गांधी को अभी जनता से पूरी वाकफियत नहीं है। वरना वह भी अपना विचार बदलतीं। देश की राजनीति और अर्थ नीति दोनों ही साधारण जन के लिए संकटमय हैं। भविष्य भयंकर लग रहा है।’’5

समाज में राजनीति के प्रभाव और सामाजिक तथा न्याय व्यवस्था पर उसके गलत प्रभाव के सम्बन्ध में भी डॉ. रामविलास शर्मा अपने मित्रों से विचार विमर्श करते नजर आते हैं। भृष्टाचार जो कि किसी भी समाज के लिए दीमक का कार्य करता है और वह उसकी जड़ों को खोखला कर देता है। इस विषय के सम्बन्ध में भी प्रकाश डाला गया है केदारनाथ अग्रवाल जो कि एक साहित्यकार के साथ ही बान्दा में वकील थे, वे राजनीति के दुष्प्रभाव के सम्बन्ध में लिखते हैं-

‘‘मुकदमें में जैसी दृष्टि से तहकीकात करनी चाहिए वैसी तहकीकात दारोगा नहीं करते। इससे सफलता नहीं मिलती और अधिकतर अभियुक्त छूट जाते हैं, जो दोषी भी होते हैं। गवाहान् भी वैसे होते हैं, और झूठ का अम्बार लगा देते हैं। यहाँ भी कातिल आल्हा-ऊदल की परम्परा में अब भी काम करते हैं। अदालत में न्याय न पाकर लोग बाहर स्वयं न्याय कर लेते हैं। हत्याएँ होती रहती हैं। अदालत तो एक विशिष्ट प्रणाली और सिद्धान्त से काम करती है। इससे वह विवश होकर छोड़ती है।’’6

राजनीति के सम्बन्ध में इस तरह की धारणाएँ और विचार रामविलास शर्मा के पत्र-साहित्य में देखने को मिलती है, आर्थिक विषय भी समाज का एक महत्वपूर्ण पक्ष होता है और समाज के लिए इसकी भी अन्य विषयों के समान उतनी ही प्रासंगिता होती है। आर्थिक गतिविधियाँ समाज को ठीक उसी प्रकार प्रभावित करती हैं, जिस प्रकार अन्य। समाज लोगों से मिलकर बनता है और लोगों के जीविकोपार्जन के लिए आर्थिक पक्ष का मजबूत होना आवश्यक हो जाता है। डॉ. रामविलास शर्मा और उनके मित्रों के मध्य इस सम्बन्ध में कई तरह के विचार देखने को मिलते हैं। रोटी जीवन का एक आवश्यक अंग है और बिना रोटी के जीवन सम्भव नहीं है। अगर देखा जाए तो सारी आर्थिक गतिविधियाँ रोटी के लिए ही की जाती हैं। रामविलास शर्म के मित्र केदारनाथ अग्रवाल रोटी के महत्व को प्रतिपादित करते हुए लिखते हैं-

‘‘रोटी के पैदा होते ही

बुझी आँख में जुगनू चमके

और थका दिल फिर से हुलसा

जी हाथों में आया

और होंठ मुसकाये

घर में मेरा वीरान वीरान पड़ा

आबाद हो गया।’’7

महँगाई भी आर्थिक पक्ष को उजागर करने का ही एक माध्यम है। महँगाई ही आम जन को सर्वाधिक प्रभावित करती है। अगर महँगाई के अनुपात में आय के स्त्रोतों में वृद्धि न हो तो आम जन किस तरह संघर्ष करता है, उसकी वानगी भी उनके पत्रों में देखने को मिलती है। राजनीति और अर्थनीति जब सुचारू रूप से नहीं चलती है तब ऐसी स्थिति में देश की हालत किस तरह की होती है इस सम्बन्ध में उनके पत्रों का यह सन्दर्भ अवश्य विचारणीय है, जिसमें डॉ. रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल को लिखते हैं-

‘‘बाँदा में भी लोग गेहूँ, दाल-चावल के भाव की बातें करते होंगे। गल्ले की कमी हो सकती है, लेकिन माल होते हुए भी मिलता नहीं है, चोरी छिपे भले ही लोग ले आएँ दिन पर दिन हालत खराब होती जाती है। लड़ाई के जमाने से हमारा अर्थ तंत्र हर झटके के बाद कुछ सम्भलता है और उसके बाद दूसरा झटका पहले से तगड़ा लगता है। श्रीमती इन्दिरा गांधी लोगों को समझा रही हैं कि देश की उन्नति करने में ऐसा होता ही है। काँग्रेस से गाड़ी सम्भल नहीं रही है। राजनीतिक और आर्थिक संकट दोनों हैं। क्रान्तिकारी परिस्थिति में जब क्रान्ति नहीं होती तब क्रान्ति होती है। भविष्य कुछ ऐसा ही है।’’8

जिस प्रकार उस समय में भी महँगाई समाज का एक मुख्य आर्थिक विषय था उसी तरह आज भी बना हुआ है और उस समय भी इस विषय पर उसी प्रकार चर्चाएँ देखने को मिलती हैं, जिस प्रकार आज। रामविलास शर्मा के एक और अभिन्न मित्र अमृतलाल नागर के एक पत्र में भी इस गम्भीर आर्थिक पक्ष पर प्रकाश डालने का सार्थक प्रयास किया गया है।

‘‘बड़ी महँगाई है रामविलास, हमें महाकाल याद आ रहा है। उसके चित्र चारों ओर डोल रहे हैं। महँगाई एक प्रश्न बन गई है।’’9

आर्थिक पक्ष समाज को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है और उसके प्रभाव के नकारात्मक प्रभाव हमें समाज में सहज ही देखने में सुलभ हो जाते हैं। जहाँ समाज का एक वर्ग आर्थिक रूप से बहुत ही सम्पन्न और सक्षम है वहीं दूसरा वर्ग आर्थिक रूप से बहुत ही विपन्न है और दो वक्त का खाना भी नहीं जुटा पाता है। ऐसी स्थिति में सम्पन्न वर्ग किस तरह से अपने आयोजनों में भोजन का अपव्यय करता है, जिससे रामविलास शर्मा और उनके मित्रों को जो पीड़ा होती है उसकी स्पष्ट झलक उनके पत्रों में देखने को मिलती है, जो उनके पत्रों के आर्थिक पक्ष को बहुत ही सुस्पष्ट रूप से हमारे सम्मुख रख देता है। वे इस तरह के फिजूलखर्ची के सम्बन्ध में एक पत्र में अपनी पीड़ा को दर्शाते हुए लिखते हैं-

‘‘ब्याज बारात में जाने पर सभ्यता की नुमाईश देखने को मिलती हे। जी घिनाता है, हम पैसे वाले हैं, हमारे ठाठ देखो, महिलाओं की चमकदार साड़ियाँ देखो, दाल्दा में सना पकवान चखो, भीतर से सब खोखले।‘‘10

जिस प्रकार कहा गया है कि दरिद्रता सबसे बड़ा दुःख है। यह सर्वथा उचित है। अर्थ के अभाव में समाज की स्थिति बड़ी ही गम्भीर हो जाती है। इसी सन्दर्भ में डॉ. रामविलास शर्मा के पत्रो में पर्याप्त उदाहरण देखने को मिलते हैं जिनमें वे आर्थिक विपन्नता के दुष्प्रभावों से अवगत कराते प्रतीत होते हैं, जो आर्थिक पक्ष को समाज के प्रमुख पक्ष के रूप में प्रस्तुत करते हुए नजर आते हैं। अर्थ के अभाव में एक व्यक्ति की स्थिति किस तरह की हो जाती है, जिसकी झलक हमें निराला जी के सम्बन्ध में उनके एक पत्र में की गई चर्चा से पता चलता है।

‘‘निराला जी की हालत पहले से बहुत खराब है, राशन वगैरह का प्रबन्ध करते नहीं हैं, साग उबालकर जब तब खा लेते हैं। बिना एक आदमी के उनके पास रहे उनका प्रबन्ध ठीक से नहीं हो सकता। मैंने रामकृष्ण को लिखा है कि वहीं रहें और उनकी देखभाल वही करें। रामकृष्ण अपने संगीत से कुछ कमा लेंगे लेकिन आरम्भ में उन्हें हमीं लोगों पर निर्भर रहना होगा। मैं चाहता हूँ कि तुम इस मद में मदद करो। पैसा यहीं भेजना।’’11

इस तरह की आर्थिक परिस्थितियों के सम्बन्ध में अनेक चर्चाएँ रामविलास शर्मा के पत्र-साहित्य में मिलती हैं, जो आर्थिक विषमता या परेशानी के समय में अपने लोगों की मदद के लिए प्रेरित करने हेतु प्रोत्साहित करते हैं।

लोक कलाएँ वर्तमान समाज को अपने समृद्ध अतीत से परिचित कराने का एक श्रेष्ठ माध्यम है जो विविध वर्गों को आपस में जोड़े रखती हैं और युवा पीढ़ी को अपने पूर्वजों द्वारा संग्रहित और संरक्षित श्रेष्ठ परम्परा से परिचित कराने का कार्य करती हैं। इसी श्रेष्ठ परम्परा के समाज के साथ जुड़ाव की व्याख्या रामविलास शर्मा के पत्र-साहित्य में कई स्थानों पर देखने को मिलती है, जो समाज को अपने अतीत पर गर्व महसूस कराने के पल प्रदान करती है और सामाजिक सद्भाव के ताने-बाने को बुनकर एक श्रेष्ठ समाज का निर्माण करते हैं। इसी सन्दर्भ में डॉ. रामविलास शर्मा केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं को लोक कला का स्वरूप मानते हुए लिखते हैं।

‘‘तुम्हारी कविताओं में सबसे बड़ा गुण यह है कि वह लोक कला के इतने नजदीक है कि उसका एक अंग सा बन गई है। वह जनता द्वारा तुरन्त अपनाई जा सकती हैं और उसके जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन ला सकती है। इसलिए तुम बाबू लोगों की राय की चिन्ता न करके उन्हीं भूमिसुतों के लिए लिखो जिनके तुमने गीत गाए हैं।’’12

प्रकृति जिसकी गोद में समाज विकसित होता है और उससे सिर्फ लेता ही लेता है, भी समाज का एक प्रमुख पक्ष है, जिसकी रक्षा करना हम सभी की नैतिक जिम्मेदारी है ताकि एक स्वस्थ प्रकृति की गोद में एक स्वस्थ समाज निर्मित हो सके। सुन्दर प्रकृति हमेशा से ही समाज को हर्षित करने वाली रही है। इसी सम्बन्ध में प्रकृति की सुन्दरता को व्यक्त करते हुए रामविलास शर्मा ने लिखा है-

‘‘तुम यह भूल गए हो कि इस समय जमुना और जलधर दोनों ही आपा खोए एक तीसरे ही आनन्द में मग्न हैं। यह वही आनन्द है, जिसने धेनु, गोपी, ग्वाल, अंकुरित पुष्प, मदन और मनोज सभी को एक डोर में बांध दिया है। उसी डोर में जमुना और जलधर भी बन्धे हैं। फिर जलधरों को क्या पड़ी है, जो जमुना पर झुके वहां तो जमुना ही रात्रि की लैम्प बुझाती हुई कवि पत्नी की तरह उमंग रही है। जमुना और जलधरों की श्यामता के साथ पुंजों की हरीतिमा कैसी मिल गई है।’’13

डॉ. रामविलास शर्मा के मित्रों साथ सम्बन्ध अपने जीवन के अन्तिम वर्षों तक रहे और उन अन्तिम वर्षों तक हुए सम्वाद में अनेक सामाजिक सन्दर्भ से जुड़े परिवर्तनों को उन्होंने नजदीक से देखा। उसी की चर्चाएँ उनके पत्रों में विस्तृत रूप से अपने मित्रों के साथ साझा की गई है।ं समाज से सम्बन्धित हर पहलू पर चाहे वह आर्थिक हो, पारिवारिक हो, राजनीतिक हो, सभी पर नजदीक से दृष्टिपात किया गया है, उन्होंने समाज से सम्बन्धित हर विषय को छुआ और उस विषय पर अपने मित्रों के साथ विचारों का आदान-प्रदान किया। जो एक अमूल्य निधि के रूप में साहित्य में स्थापित हुआ और समाज के विविध पक्षों से अवगत कराया।

सन्दर्भ- 
1-सं. रामविलास शर्मा, सन् 2010, मित्र संवाद, भाग-1, साहित्य भण्डार, इलाहाबाद, पृ.सं. 58, पत्र दि. 11.01.1943
2- सं. रामविलास शर्मा, सन् 2010, मित्र संवाद, भाग-2, साहित्य भण्डार, इलाहाबाद, पृ.सं. 137, पत्र दि. 17.04.1975
3-सं. रामविलास शर्मा, सन् 2010, मित्र संवाद, भाग-1, साहित्य भण्डार, इलाहाबाद, पृ.सं. 53, पत्र दि. 21.02.1940
4-सं. रामविलास शर्मा, सन् 2010, मित्र संवाद, भाग-1, साहित्य भण्डार, इलाहाबाद, पृ.सं. 52, पत्र दि. सितम्बर 1939
5-सं. रामविलास शर्मा, सन् 2010, मित्र संवाद, भाग-2, साहित्य भण्डार, इलाहाबाद, पृ.सं. 52, पत्र दि. 19.10.1964
6-सं. रामविलास शर्मा, सन् 2010, मित्र संवाद, भाग-2, साहित्य भण्डार, इलाहाबाद, पृ.सं. 49, पत्र दि. 22.07.1964
7- सं. रामविलास शर्मा, सन् 2010, मित्र संवाद, भाग-1, साहित्य भण्डार, इलाहाबाद, पृ.सं. 202, पत्र दि. 11.04.1958
8- सं. रामविलास शर्मा, सन् 2010, मित्र संवाद, भाग-2, साहित्य भण्डार, इलाहाबाद, पृ.सं. 52, पत्र दि. 07.10.1964
9- सं.डॉ. विजय मोहन शर्मा, डॉ. शरद नागर, सन् 2013, अत्र कुशलं तत्रास्तु, किताब घर प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं. 110-111, पत्र दि. 09.09.1958
10- सं. रामविलास शर्मा, सन् 2010, मित्र संवाद, भाग-2, साहित्य भण्डार, इलाहाबाद, पृ.सं. 262, पत्र दि. 12.12.1988
11-सं.डॉ. विजय मोहन शर्मा, डॉ. शरद नागर, सन् 2013, अत्र कुशलं तत्रास्तु, किताब घर प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं. 63, पत्र दि.    13.03.1946
12- सं. रामविलास शर्मा, सन् 2010, मित्र संवाद, भाग-1, साहित्य भण्डार, इलाहाबाद, पृ.सं. 128, पत्र दि. 17.01.1955
13- सं. रामविलास शर्मा, सन् 2010, मित्र संवाद, भाग-1, साहित्य भण्डार, इलाहाबाद, पृ.सं. 191, पत्र दि. 12.09.1957


[जनकृति के जुलाई 2020 अंक में प्रकाशित]

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महामृत्युंजयी कविताएं

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हिमकर श्याम की कविताएं /लक्ष्मीकांत मुकुल

“युद्धरत हूँ मैं” युवा कवि हिमकर श्याम का एक बहुरंगी कविता संकलन है, जिसमें कविता लेखन की विविध शैलियों प्रयुक्त हुई हैं – गीत, गजल, छंदबद्धता, अलंकारिकता, मुक्तक, दोहे एवं गद्य कविताएँ। ये सभी कविताएँ कवि के अवसाद ग्रस्त मन के विभिन्न कोणों में उत्पन्न मनोगत द्वंद, जीवन के संघर्ष एवं सामाजिक यथार्थ से टकराती हुई मानसिक संवेदनाओं को कविता के माध्यम से प्रकट करती हैं। कवि तमाम शारीरिक-मानसिक-सामाजिक पीड़ाओं को आत्मसात करता हुआ दुनिया को और अधिक खुशहाल, समृद्धि और संवेदनशील होने की कामना करता है। कविता के माध्यम से कवि अपनी अर्जित ज्ञानात्मक पूंजी को समाज में बांटना चाहता है। अपनी कठिनाइयों, अपने दुखों, अपने अभावों को अपने स्वत्व में समेटत हुआ अपने सर्वोच्च उत्स को दुनिया के साथ साझा करना चाहता है। यही इन कविताओं का प्रेरक संदर्भ है।

शमशेर अपनी एक कविता में कहते हैं कि – ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’। कवि हिमकर श्याम अपनी कविताओं के द्वारा अपराजित योद्धा की तरह कविता- कथनों को इसी प्रकार प्रकट करते हैं। पेशे से पत्रकार, स्वभाव से कवि और शारीरिक रूप से कैंसर जैसे विषाक्त रूप से लड़ती उनकी काया और हृदय में पसरा उनका कवि मन कविता सृजन, कविता वाचन को एक औषधि के रूप में अपनाता है। हिंदी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने अपनी एक कविता में कहा है कि – ‘पंछियों के उड़ान में शामिल होते हैं पेड़, क्या मुसीबत में भी कविताएँ होंगी हमारे साथ?’ परंतु सच तो यह है कि हिमकर श्याम की कविताएँ फलीभूत हुई हैं, उनका आत्मबल बढ़ा है, उनकी जिजीविषा विस्तार पायी है और उनके तन-मन पर इसका सार्थक एवं सकारात्मक प्रभाव पड़ा है।

हिंदू धर्म शास्त्रों में एक कथा आती है कि कि कभी मारकंडेय नामक एक ऋषि हुए थे, जिन्होंने मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिए महामृत्युंजय नामक एक मंत्र कविता का सृजन किया था, जिसके अद्भुत वाचन से वे स्वयं मरण क्रिया पर जीत ही नहीं हासिल किए थे, अपितु ब्रह्मापुत्र राजा दक्ष के शाप से शापित चंद्रमा को भी मृत्यु की सेज से जिंदा कर पाए थे, दूसरी ओर दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य के पास ऐसी संजीवनी विद्या थी, जिससे वे मर चुके अपने शिष्यों को जीवित कर चंगा कर देते थे। पुराण वर्णित ये कथाएँ हमें सुनने में भले ही अतिशयोक्ति पूर्ण लगे, परंतु हिमकर श्याम की कविताओं से गुजरते हुए वे पूरी कथाएँ सच के करीब प्रतीत होती हैं। कवि की ये कविताएँ महामृत्युंजयी बोध की कविताएँ हैं -अपने को सार्थक मनुष्य बनाने और दुनिया को सर्वथा जीवंत, गतिशील और उदार बनाए रखने को संकल्पित…! तो वहीं ये कविताएँ संजीवनी का कार्य भी करती हैं, पाठकों के मर्म को और ज्यादा उद्वेलित एवं उसे झकझोरती हुई।

विश्व कविता के प्रमुख नाम पाब्लो नेरुदा भी कैंसर की रोग से पीड़ित थे, परंतु अपने जुझारूपना में उन्होंने कभी कमी आने न दी। ठीक ऐसी ही स्थिति कवि हिमकर श्याम की है। कवि ने अपनी किताब का नाम भी वैसा ही रखा है। मैदान जंग में जूझ रहे साहसिक योद्धा की तरह, उत्ताल समुद्री लहरों से मुकाबला कर रहे अविचल नाविक की तरह और गर्मी लू के थपेड़े झेलते अनजान राहों की खोज में निकले पग – यात्री की मानिंद ! कवि का मत है –

यह तो फिरता है मारा – मारा
पल भर का है साथ हमारा
आज यहाँ कल और कहीं
मत बांधो यह दिल बंजारा

यह संग्रह पांच भागों में श्रेणीबद्ध हैं, जिनमें ‘’कहनी है कुछ बातें मन की”, ” झड़ते पारिजात” एवं “सबकी अपनी पीर” छंदबद्ध रचनाएं हैं। छंदबंध गेय के लिए आवश्यक उपकरण होता है, जिसमें आंतरिक संघटन, रचना प्रक्रिया में संयम और रूपबद्धता अनिवार्य होती है। गीत कविता के स्वभाव उसकी बनावट और बुनावट की बुनियादी विधानों से प्रकट होते हैं। इसमें सरलता, गेयता, गणितीय कलात्मकता और संगीत के बोध का समायोजन होता है। गीत काव्य में जब समाजार्थिक तत्व शामिल हैं, तो नए प्रतीकों और मिथकों का वर्तमान में कवि उपयोग करते हैं तो वे सूक्ष्म सौंदर्यानुभूति पर बल देते हैं, जिसे आलोचकों ने नवगीत कहा है। हिमकर श्याम की आरंभिक कविताएँ इन्हीं भावभूमि पर आधारित है। संग्रह का प्रारंभ ईश वंदना से होता है, परंतु वह वहीं तक सीमित नहीं रहता। कवि प्रकृति, मौसम, परिवेश, समुदाय एवं व्यवस्था से गुजरता हुआ समय की विडंबनाओं की से पड़ताल भी करता है। वह इस युग की आपाधापी, छीजती मनुष्यता का बोध और पसरते अंधकार पर कुपित होता है, परंतु अपने दिलो दिमाग में वह सब कुछ अच्छा हो जाने की चाहत को भी जगाए रखता है। “समय की नदी” शीर्षक कविता में कवि अपने मनोभावों को इस प्रकार प्रकट करता है –

बीतेगा जब निष्ठुर पतझड़
छाँव लुटायेगा फिर अम्बर
मरुस्थल में बरसेगी बदली

रात ढलेगी, दिन बदलेगा
सघन अंधेरा छंट जाएगा
भोर सुनहरी अब द्वार खड़ी

“सबकी अपनी पीर” स्तंभ में कवि ने दोहा शैली में अपने कथनों को व्यक्त किया है । दोहा हिंदी कविता की परंपरागत शैली है। मध्यकलीन कवियों ने इस पर अपनी कलम की नोक चलाई है, परंतु आधुनिक कवियों ने अपने युग की जटिलता और धुंधले पड़ते जा रहे जीवन मूल्यों को धारदार स्वर देने के लिए इस विधा को अपनाया है। कवि हिमकर श्याम हमारे दौर के एक नामी गजलकार भी हैं और छंद विधान और शब्द सामर्थ्य के सजग अधिकारी भी। इनके प्रस्तुत दोहे समय के गंभीर और अनसुलझे सवालों से टकराते हैं और व्यंग्य बोध का सहारा लेकर हमारे युग की स्थितियों को प्रश्नांकित भी करते हैं। इनके दोहे मखान के कांटों की तरह चुभते हैं तो बनबेर की कटीली टहनियों की तरह सवालों के बीच में समझ को स्थिर करने के लिए फांसते भी हैं –

अपनी-अपनी चाकरी, उलझे सब दिन रात ।
बूढी आंखें खोजतीं, अब अपनों का साथ ।।

उजड़ गई सब बस्तियाँ, घाव बना नासूर ।
विस्थापन का दंश हम, सहने को मजबूर ।।

संग्रह के भाग “आखिर कब तक” में कवि द्वारा लिखित आधुनिकता के बोध से संपृक्ति समकालीन कविताएँ संग्रहित हैं, जिसमें उन्होंने समकाल के उभरते सवालों को बड़ी ही शिद्दत के साथ उठाया है। आधुनिक विकास के नाम पर खंडित होती मनुष्यता, जल -जीवन- जंगल से विस्थापित समाज, बेहाल बहुसंख्यक आबादी, पूंजीवाद का पसारता पांव, लोकतांत्रिक शक्तियों द्वारा जन सामान्य को दिया जा रहा छलावा, प्रशासनिक तंत्र का संवेदनहीन रवैया और बाजार तंत्र का बढ़ता प्रभाव इन कविताओं में बहुलता से मुखरित है। कवि ने एक ऐसी युग में अपनी कविताओं का संवेदनात्मक ताना-बाना बुना है जहाँ चारों ओर भयंकर अंधकार है। उजियाला फैलाने वाले नायकों की भूमिका परिदृश्य से गायब है। सामाजिक वैमनस्य, जातीय भेद की प्रभाव और धार्मिक कट्टरता के फैले जाल से पूरा देश एवं समूचा ढांचा ही दम तोड़ रहा है। ऐसी स्थिति में कवि अपनी कविता के माध्यम से समाज और समुदाय में मानसिक संवेदना के भाव- बोध को बचाना चाहता है। कवि की कामना है कि मनुष्यता के बोध से भरा विश्वास समाज में कायम रहे-

सामर्थ्य हीन
उस दिन भी छिड़ी थी
एक जंग
हालात के विरुद्ध आत्मा की।
पर आज –
जब आत्मा की विरुद्ध हालात
ने छेड़ी है जंग, तो
मेरी मुट्ठी में जादू बन
आ गई है जीने की सामर्थ्य।

इस संग्रह की कुछ कविताएँ “तुम आए तो”, “हमसफर सपने”, ” चांदनी’, आदि प्रेम कविताएं हैं। “मृगतृष्णा जाल”, “खानाबदोशी का रंग” अपने परिवेश को अभिव्यक्त करती कविताएँ हैं तो “नदी की व्यथा” प्रकृति पर बरसते मानव की क्रूरता पर आधारित है। प्रेम मनुष्य का आदिम स्वभाव रहा है। प्रेम की दायरे विस्तृत हैं। समय के द्वंद और समाज की अंधी भागमभाग के विकल्प में व्यक्ति प्रेम और प्रकृति में ही विराम पाता है। प्रेम की निष्छलता और प्रकृति की रमणीयता में मनुष्य स्वच्छता, निर्मलता और एकांत प्रियता पाता है। इस आधुनिक जमाने में जहां रिश्तो में बाजार घुस गया हो और प्राकृतिक उपादान के सारे अवयव सौदागर की हवस में जाने को विवश हों, वहां कोमलता, लालित्य, सौंदर्य, सहजता के बोध को बचाए रखना कितना मुश्किल हो गया है। बावजूद इसके, कवि इस सीमित हो जा रहे संबंधों के दायरे में प्रेम – तत्व को बचा लेने को आतुर दिखता है –

जैसी आते हैं
वसंत में शाखों पर पत्ते
तुम आए तो
कुसमित हो उठा चौखट -आंगन

जैसे आती है
चंदनवन से गुजर कर हवा
तुम आए तो
सुभाषित हो उठा सारा घर

अपना वजूद खोती नदी और उसके साथ सहचर रहा मानव सभ्यता के वर्तमान की दुखती नस पर कवि अपनी उंगली इस प्रकार रखता है –

भूल गए हैं लोग
नदी से अपने रिश्ते
जिसके किनारों पर
मिलता था मोक्ष
बांटा करती थी जो नदी
छोटी-छोटी परेशानियां
क्षणभंगुर लालसाओं की
बन गई है शिकार।

इस संग्रह के “युद्धरत हूँ मैं” भाग की कविताएँ पढ़ते समय कवि के भयंकर अवसाद और असहज पीड़ा और क्रूरतम जीवनानुभवों से गुजरना पड़ता है। मेडिकल साइंस की दृष्टि से कैंसर एक जानलेवा रोग है, जो धीरे-धीरे रोगी की सभी प्रतिरोधी शक्तियों को क्षीण कर देता है। लोक मिथक के शब्दों का सहारा लें, तो यह एक भयंकर पिचाश है, जो किसी भी व्यक्ति को पकड़ लेता है तो उसे गलाकर ही छोड़ता है। कवि जो इस रोग से लंबे समय से पीड़ित है, वह इस रोग की अवस्था, उससे उभरते शारीरिक-मानसिक तनाव और चिकित्सा क्रम में प्राप्त अनुभवों को कविता के माध्यम से पाठकों से साझा करना चाहता है। इन कविताओं को पढ़ना तपती आग में अंगारों के ऊपर नंगे पांव चलना है। इन कविताओं को समझना किसी वर्फीली अंधड़ में अपने आप को तड़पते हुए महसूस करना है। कवि ने अपनी कुछ कविताओं की पंक्तियों में ऐसा भाव बोध व्यक्त किया है, जिसे पढ़कर आपका हृदय तड़पने लगेगा और आंखें भर आएंगी –

जम रहा है थक्का
खून के भीतर
बचे खुचे खून में भर
रहा है जहर

कतरा कतरा मर रहा
कतरा कतरा जी रहा
किस्तों की मौत है
किस्तों की जिंदगी।

“जिद्दी- सी धुन” में जहाँ कवि मन जीवन के पतझड़ से आकुल है, वहीं “काला सूरज” कविता में अपनी असहज पीड़ा को व्यक्त करता हुआ वह जीवन जीने की तमन्ना से आश्वस्त भी होता है। कवि अस्पताल में पड़े रोगी के रूप में ही केवल अपने हाले हालात को वर्णित ही नहीं करता, वरन् वह उपचारिकाओं के दुखद जीवन की विभिन्न परतों को भी अभिव्यक्त करता है। इस पुस्तक की शीर्षक कविता “युद्धरत हूँ मैं” कवि मन अपनी रोग ग्रसित देह पर अपनी मानसिकता जिजीविषा व अपने धैर्य बल को एक विशिष्ट प्रतिरोध के रूप में इस्तेमाल करता है, जो मानव जीत की विजय गाथा के रूप में प्रकट होती है-

डरता नहीं हूँ छणिक आतंक से
झुकूँगा नहीं जुल्म -अत्याचार से
आबद्ध हूँ, कटिबद्ध हूँ
डटा हुआ हूँ योद्धा बन महासमर में
भेद कर रहूँगा चक्रव्यूह
हार नहीं मानी है
जंग अभी जारी है
हौसला है, हिम्मत है
लड़ने की ताकत है
युद्धरत हूँ मैं
कैंसर के साथ, कैंसर के खिलाफ।

इनकी कविता “विष पुरुष” रोग ग्रस्त कवि की करुण व्यथा का एकालाप है, तो “शेष है स्वप्न” उस भयंकर अंधकार में भी दिखती रोशनी की एक लकीर है। “पुनर्जन्म” शीर्षक कविताएं कवि की उम्मीद और विश्वास से भरी जीवन की उद्दात अग्निशिखाएँ हैं। कवि अपने को उस फिनिक्स पक्षी की तरह पाता है जो आग में जलकर /भयंकर रोग से ग्रसित होकर भी बार-बार आपकी जीवन को बचा पाता है। हिमकर श्याम की ये कविताएँ महामृत्युंजयी कविताएँ हैं, जो कवि के स्वजीवन की असीम पीड़ाओं से उत्पन्न हुई हैं, जिसके बल पर कवि अपनी जीत के प्रति आश्वस्त है। जिसका एक अनूठा उदाहरण उनकी इस कविता में प्राप्त होता है –

मुश्किलों को हौसलों से पार कर
जिंदगी दुश्वार लेकिन प्यार कर
एक दुश्मन जो छुपा अंदर तेरे
डर नहीं, जिंदादिली से वार कर।

हिमकर श्याम का यह कविता संकलन जिसमें 154 छोटी -बड़ी कविताएँ और अनेक दोहे शामिल हैं। वह कवि के जीवन- बोध के प्रति अदम्य जिजीविषा की अकथ गाथाएं है। मृत्यु शैया से सकुशल लौट तो आया है पर कैंसर से युद्ध जारी है। कवि अपनी दुखद क्षणों में भी सुखद दुनिया के कविता संसार को अपनी लेखनी से रचता रहा। कवि के रचना कौशल, अप्रतिम लेखकीय जीवटता और बर्बर युग में बची हुई मनुष्यता के संवेदनात्मक स्वर को बहुत सहायता से महसूस किया जा सकता है।


युद्धरत हूं मैं (कविता संकलन)
कवि – हिमकर श्याम
प्रकाशक – नवजागरण प्रकाशन , दिल्ली
प्रकाशन वर्ष – 2018
मूल्य – ₹ 275


संपर्क :-
ग्राम – मैरा, पोस्ट – सैसड,
भाया – धनसोई ,
बक्सर,
(बिहार) – 802117

ईमेल – kvimukul12111@gmail.com
मोबाइल नंबर-
6202077236

वैश्विक महामारी कोरोना के संदर्भ में: साहित्य की भूमिका- सारिका ठाकुर

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वैश्विक महामारी कोरोना के संदर्भ में: साहित्य की भूमिका

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सारिका ठाकुर शोधार्थी,
विनोबा भावे विश्वविद्यालय
हजारीबाग,झारखंड
Sarikathakur406@gmail.com
मो.नं.-9403758576
स्थायी पता - आदर्श नगर, हीरापुर,
धनबाद, झारखण्ड 826001

शोध सार

वर्तमान समय में फैली वैश्विक महामारी(कोरोना) ने न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य को भी प्रभावित किया है,  इसके प्रभाव का ही परिणाम है कि आज देश-विदेश की आर्थिक,  सामाजिक,  राजनीतिक,  धार्मिक,  पारिवारिक व शैक्षिक स्थिति चरमरा गई है| दो कदम आगे बढ़ने की बजाय दो सौ कदम पीछे जा चुके हैं हम| ऐसे में जब हर वर्ग, हर समुदाय अपने स्तर पर इस समस्या के समाधान हेतु निरंतर प्रयासरत हैं, ऐसे में साहित्य भी  प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहा है।

बीज शब्द: कोरोना, महामारी, भविष्य, साहित्य

शोध विस्तार:

         “शक्ति के विद्युत्तकण  जो व्यस्त

विकल बिखरे  हैं, हो निरूपाय,

समन्वय उसका करें समस्त

विजयिनी मानवता हो जाए ”

(कामायनी – जयशंकर प्रसाद)

इस प्रकार सदैव ही मानवता के,  मानक समूह के विजय व विकास हेतु साहित्य ने अग्रिम भूमिका निभाई हैं| मानव की संवेदना को बचाए रखने का कार्य साहित्य ही  करती आई है| वह साहित्यकार ही है जो दूसरों के दु:ख से दु:खी और दूसरों की प्रसन्नता से पुलकित हो उठता है| यथा; “इन दिनों हिंदी साहित्य में ‘हा हा हा हा’ की आवाजें खूब सुनाई देती है,  जैसे कोई हंसने की कोशिश कर रहा हो और पूरी तरह हंस ना पाकर आधे मन से हंस रहा हो”

सुधीर पचौरी, हिंदुस्तान दैनिक अखबार| आम व्यक्ति की पीड़ा और विषमता को अपना मान उसकी वेदनामय अभिव्यक्ति करता है, समाज में व्याप्त विद्रूपताओं, अंधविश्वासो व विषमताओं पर प्रहार करता है, समाज में नूतन परिवर्तन हेतु अपना समस्त जीवन होम कर देता है और मैं शैली को अपनाता हैं| जो काम तोप और तलवार नहीं कर सकती वह साहित्य द्वारा संभव है और इसके लिए एक साहित्यकार कलम  को अपना हथियार बनाते हैं| समाजोचित दिशा एवं दशा हेतु सदैव प्रयासरत रहते हैं| साहित्य मानव,  समाज और संस्कृति को न केवल जिलाये रखती है अपितु उसका संरक्षण एवं संवर्धन भी करती है और गढ़ती  है एक नई संस्कृति जो मानवकल्याण के लिए हो|

वर्तमान समय में फैली वैश्विक महामारी(कोरोना) ने न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य को भी प्रभावित किया है,  इसके प्रभाव का ही परिणाम है कि आज देश-विदेश की आर्थिक,  सामाजिक,  राजनीतिक,  धार्मिक,  पारिवारिक व शैक्षिक स्थिति चरमरा गई है| दो कदम आगे बढ़ने की बजाय दो सौ कदम पीछे जा चुके हैं हम| ऐसे में जब हर वर्ग, हर समुदाय अपने स्तर पर इस समस्या के समाधान हेतु निरंतर प्रयासरत हैं, ऐसे में साहित्य भी  प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहा है उदाहरणस्वरूप:-

फंसी हुई दुनिया कैसे

अपने ही पांसो में

एक वायरस टहल रहा

आदम की सांसों में

अवरोध लग गए

पांव में आवाजाही के

कितने खौफनाक मंजर है यह तबाही के

( अज्ञात कवि )

हिंदी साहित्य के कई साहित्यकार प्रकृति के अनुरागी रहे हैं, जिसका प्रमाण हम हिन्दी साहित्य विशेषकर छायावाद में देख सकते हैं, कि प्रकृति उनके लिए सर्वस्व है|  हमारी परंपरा में भी प्रकृति पूजनीय  रही है, किंतु उसका दोहन व दुरुपयोग भी आज इस महामारी के प्रमुख कारणों में संभवत सम्मिलित है| ऐसे में एक साहित्यकार अपनी रचना के किसी भी विधा द्वारा प्रकृति के साथ किए अन्याय के लिए न केवल चेताते हैं, अपितु मनुष्य को प्रकृति के प्रति प्रेम और अनुराग का भाव जगाकर  नतमस्तक होने को भी अभिप्रेरित करते हैं| आज रचनाकार को पुनः मानव और प्रकृति के अटूट संबंध को नवीन रूप में व्यख्यायित करने की आवश्यकता है|

यह सत्य है कि हम आज बहुत आगे बढ़ चुके हैं|  हमारा रहन-सहन, बात-व्यवहार व जीवन शैली आदि  सब कुछ आधुनिकता के रंग में रंग चुकी है और बाह्य वातावरण इंद्रधनुष के रंग की भांति सतरंगी हो चुका  है| किंतु हमारा मानवतावादी दृष्टिकोण बहुत पीछे छूट चुका है, जो अंतःकरण के अंधेरे में उसे टटोल रहा है| आम जन की पीड़ा, त्रासदी से पूर्व हम अपनी  आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के पीछे अविराम दौड़ लगा रहे हैं| ऐसे में आमजन, मजदूर वर्ग, कृषक वर्ग के प्रति हमारा व्यवहार व हमारा विचार बिल्कुल संकुचित सा है| उनकी वेदना,  उनकी करुणा,  उनकी टीस, उनकी बेबसी,  उनकी लाचारी, उनके जीवन की भयावहता को प्रकट करने में साहित्य विशेष रूप से अपनी भूमिका का निर्वहन कर सकता है| सबके हृदय में प्रेम का, सहयोग का,  अपनत्व का,  मानवता का आलोक साहित्य ही जगा सकता है| एक रचनाकार मात्र रचनाकार नहीं अपितु दूरद्रष्टा भी होता है| इसका प्रमाण हम मुक्तिबोध के रूप में देख सकते हैं,  जो अंधेरे में लंबी कविता के माध्यम से प्रकट होती है| लगभग 50 वर्ष पूर्व की दूरदर्शिता सत्य में परिवर्तित होती नजर आती है, ऐसे में दूरदर्शितापूर्ण  दृष्टिकोण द्वारा वह आगामी समय की ओर जनसमुदाय को जागरुक कर साहित्य में योगदान दे सकते हैं|

अपनी साहित्यिक कृतियों के माध्यम से महामारी की भयावहता का चित्रण, समाज की परिस्थितियों का रेखांकन,  के साथ व्याप्त विसंगतियों गड़बड़ियों और सामाजिक संघर्षों का चित्रण कर समाज की विद्रुपताओं को समाप्त भी कर सकते हैं साथ ही पर्दे की आड़ में चल रही षडयंत्रों का पर्दाफाश करते हुए जन को जागरूक करने का प्रयास भी कर सकते  है| यही रचनाएं साहस,  उत्साह और स्फूर्ति  का स्रोत बन इस महामारी से लड़ने की आत्मबल प्रदान कर सकती है|

आज बहुत ही रचनाएं देखने को मिल रही है विशेषकर, सोशल मीडिया में अधिकांश कविताएं लिखी  लिखी जा रही है जो कि कृषकों की दशा,  मजदूरों की स्थिति, सामान्य जन की आर्थिक व पारिवारिक संघर्ष,  वैश्विक संबंधों व आगामी भविष्य से संबंधित है;

इस प्रकार एक रचनाकार कवि, लेखक, नाटककार व उपन्यासकार समय-समय पर लेखन कार्य करते हैं| इनमें से कुछ रचनाएं तत्काल हमारे समक्ष आ जाती है और कुछ बाद में,  क्योंकि तुरंत प्रतिक्रिया या विचार को कृति में लिखना संभव नहीं,  उसके लिए विचारों को संजोना  पड़ता है, उन्हें तर्क के आधार पर पुष्ट  करना पड़ता है,  पात्रों व भूमिकाओं का निर्धारण करना पड़ता है, कथानक की निर्मिति करनी पड़ती है और एक विधा के रूप में अभिव्यक्ति देनी पड़ती है और यह कार्य आज साहित्य के क्षेत्र में चल रही है और इसके लिए निरंतर प्रयास करने की आवश्यकता है| इस प्रकार नवीन परिस्थितियां, नवीन समस्याएं समाज के साथ साहित्य में भी परिवर्तन की ओर बढ़ता है और एक सशक्त रचनाकार का दायित्व है कि वह इस परिवर्तन के लिए समाज को, व्यक्ति को तैयार करें|

आज “सोशल डिस्टेंस”  की बात जोरों से चल रही  हैं और उसका पालन किया जा रहा हैं या प्रशासन द्वारा करवाया जा रहा है,  जो अत्यंत ही आवश्यक है इस महामारी को फैलने से रोकने के लिए| जिस प्रतिस्पर्धा के दौर में हम जी रहे हैं, जहां ज्ञान नहीं अपितु सूचनाओं का जंजाल फैला है| उसने बहुत पहले संबंधों को प्रभावित कर दिया है| जिसे हम मोहन राकेश के आधे अधूरे या उपेंद्र नाथ अश्क रचित अंजों  दीदी आदि तमाम कृतियों के माध्यम से देख व समझ सकते हैं| संबंधों का विच्छेद, पारिवारिक बिखरन,  संयुक्त परिवार का टूटन आदि ने भारतीय समाज और संस्कृति को एक अरसे से प्रभावित किया है जिसकी मार हम अब भी झेल रहे हैं,  जो एक गंभीर समस्या बन चुकी है परिवार से, पास पड़ोस से, मित्र-सहयोगी से,  कार्यस्थल के कर्मियों से,  अपने गांव से, अपने देश से वह आत्मीयता  समाप्त हो चुकी है| ऐसे में साहित्य इन दु:ख-दर्दों को पहले से कृतिमय अभिव्यक्ति द्वारा आगामी भविष्य की ओर संकेत करता आया है| ऐसे में संक्रमण के भय  ने और भी अग्रिम भूमिका निभाई है| लोगों का  मेल-मिलाप,  सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियां बंद हो चुकी है| सबकुछ ठहर सा गया है और यह ठहरना क्षणिक नहीं अपितु लंबे समय का है,  ऐसे में आवश्यक है कि साहित्य द्वारा संवेदना के तार को पुनः झकझोरी जाए और संवेदनात्मक दूरी को पाटने का कार्य किया जाए| यह उदाहरण प्रस्तुत किया जाए कि नियमों का पालन करते हुए,  सावधानियों को बरतते हुए भी अपनत्व और सहयोगात्मक दृष्टिकोण को अपनाकर हम एक हो इस संघर्ष में,  इस युद्ध में विजय का पताका लहरा सकते हैं| यही वह वक्त है जो हमारे लिए  जब हम वैश्विक रूप से एक दूसरे का सहयोग कर,  एक दूसरे से साझा कर पृथ्वी को कोरोना के मार  से मुक्त कर सकते हैं और अगर ऐसा करने में हम  असफल रहे तो, अंततः सब समाप्त हो जाएगा| बचेगी तो केवल हाड़,  संवेदनाओं की भांति मांस और प्राण भी समाप्त हो जाएंगे| इसलिए उसे पुनः जगाने की आवश्यकता है|

साहित्य के क्षेत्र में कार्यरत साहित्यकारों व साहित्य प्रेमियों का एक दायित्व यह भी रहा है कि वह साहित्य के अध्येताओं ,  साहित्य के पुरोधाओं  को साहित्य क्षेत्रों हेतु तैयार करें,  उन्हें निपुण बनाएं, उनका मार्गदर्शन करें उन्हें साहित्य की विभिन्न विधाओं,  विभिन्न रचनाओं तथा  विभिन्न रचनाकारों के  विभिन्न दृष्टिकोणों,  विभिन्न वादों को जानने समझने,  उनका विवेचन -विश्लेषण करने व अनुसंधान हेतु सहयोग करें| विभिन्न संस्थाओं द्वारा इसके लिए समय-समय पर कार्यक्रम जैसे कवि सम्मेलन,  गोष्ठी और सेमिनार का आयोजन करती आई हैं| व्यवस्थित रूप से  संस्थाओं में विधिवत सेमिनार ओर कार्यशाला न संचालित होने पर वेबीनार, ऑनलाइन कार्यशाला आदि एक विकल्प के रूप में प्रयोग किया जाना सराहनीय कार्य है| तमाम साहित्यिक व सामाजिक विषयों पर प्रसिद्ध साहित्यकारों का वेबीआर द्वारा विद्यार्थियों से जुड़ना,  एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में मूल्यों  के हस्तांतरण  द्वारा भी साहित्यकार  साहित्य की भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं, ताकि साहित्यकर्म  बाधित ना हो| इसे और भी व्यापक फलक पर देखने और नित्य नूतन रूप से देकर साहित्यकर्म  को फलीभूत किये  जाने की आवश्यकता हैं| साथ ही यह भी प्रयास करने की आवश्यकता हैं की  हिंदी का स्वरूप इससे पहले जो था वह स्वरूप आने वाले समय में भी बना रहे, क्योंकि खतरा यह भी बनता है कि तकनीकी संदर्भों को व्यक्ति जैसे ही जोड़ता है किसी विषय के साथ तो,  कहीं ना कहीं तकनीकी अपनी भाषा विकसित करती चली जाती है,  तो उस विषय विशेष में, जैसे:- हम हिंदी साहित्य की बात करें तो बहुत बार शब्दों के अपभ्रष्ट हो जाने का खतरा बना रहता है| बहुत बार अंग्रेजी शब्दों के  अधिक युक्त हो जाने से  हम पाश्चात्य विचारधारा की ओर चले जाते हैं और पाश्चात्य विचार धारा हमारी भारतीय विचारधारा पर हावी हो जाती है| ऐसे में इस पर भी कार्य करने की आवश्यकता है भारतीकारण  भी साहित्य का ध्येय था,  है और आने वाले समय में भी पूर्णरूपेण उसको साहित्य के केंद्र में रखने की आवश्यकता है|

साहित्य का दायित्व स्वस्थ समाज के साथ-साथ मनुष्य को भी स्वस्थ बनाना है| इस महामारी में शारीरिक उपचार  जितना आवश्यक है,  उससे कहीं ज्यादा मानसिक स्वास्थ्य| अपनी रचनात्मक कृतियों  एवं आलेखों  द्वारा वर्तमान परिस्थितियों का चित्रण व  विश्लेषण करने के साथ-ही-साथ आज व्यक्ति के मस्तिष्क को स्वस्थ रखना,  चिंता-अवसाद मुक्त करना भी साहित्य का कार्य होना चाहिए| निश्चित दिनचर्या,  मनोरंजन,  परिवार के साथ व्यतीत क्षणों की सुखद अनुभूति के साथ-साथ सकारात्मक दृष्टिकोण के विकास हेतु भी साहित्य को पहल करने की आवश्यकता है| इसके लिए साहित्यकार प्रयासरत हैं और निरंतर प्रयासरत रहने की आवश्यकता है| जनमत को  नवीन संदर्भों को जोड़ने की आवश्यकता है,  नवीन संभावनाओं की ओर उन्मुख करने की आवश्यकता है,  शोध में नवाचारों को जोड़ने की आवश्यकता है और शोध जनमानस को आधार मानकर अर्थात सामाजिक संदर्भों को आधार मानकर शोध को बढ़ावा देने की आवश्यकता है| इस महामारी के दौर में जीवन यापन कैसे करें इस पर भी अपनी व्यापक और गहरी दृष्टि का परिचय देने की आवश्यकता है,  गहराई से इस पर मनन और विश्लेषण की आवश्यकता है| आज के समसामयिक समस्याओं को फलीभूत और चरितार्थ करने में, स्वयं को पुनः  प्रतिस्थापित करने हेतु सफलतापूर्वक साहित्य को अपना योगदान करना होगा ताकि एक नवीन युग का सूत्रपात हो सके|

 

सन्दर्भ ग्रन्थ :-

  1. अशोक वाजपेयी -साहित्य आज तक
  2. https://youtu.be/QLeyrt56NZ4
  3. प्रसून जोशी – साहित्य आज तक
  4. https://youtu.be/MocfOYnJHes
  5. असगर वजाहत-साहित्य आज tak
  6. https://youtu.be/nyY8_9hsnaM
  7. महामारी में साहित्य – डॉयचे वेले में शिवप्रसाद जोशी
  8. हिंदुस्तान दैनिक अख़बार, पृष्ठ सं.-8/23/05/2020
  9. हंसी ही काट हैं – सुधीर पचौरी
  10. हिंदुस्तान दैनिक अख़बार, पृष्ठ सं.-8/24/05/2020

जनकृति के जुलाई 2020 अंक में प्रकाशित शोध आलेख

वर्तमान पता - सारिका ठाकुर, ℅-मनीष सिंह
आकांशा धर्म कांटा, पटना रोड, पटेल नगर
दाउदनगर, औरंगाबाद, बिहार 824143

लेखन और साहित्य

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 लिखना और पढ़ना दोनों एक ही सिक्का के दो भाग है

एक ही पन्ना के दो पेज है, अगर एक भाग कमजोर हुआ तो निःसंदेह दूसरा भाग भी अपने आप कमजोर हो जाएगा,इसलिए जो लोग लिखते हैं उनको पढ़ना भी चाहिए
यह बात मैं केवल लेखक वर्ग के लिए नहीं लिख रहा हूँ, बल्कि हर वर्ग जो अध्ययन शील हैं उनपर भी यह लागू होती हैं और वैसे भी लिखना और पढ़ना अध्ययन का हिस्सा है
लेकिन अक्सर देखा गया है की ज्यादातर लोग मोटी-मोटी किताबें खरीद लेते हैं, लेकिन उसे पढ़ने के लिए अवकाश नहीं निकाल पाते हैं, हाँ इतना तो जरूर करते हैं की अपने स्तर से पढ़ने की कोशिश करते हैं
ऐसी बात नहीं है की हमारा समाज साहित्य में रुचि नहीं रखता हैं अगर ऐसा होता तो स्थापित या नवांकुर लेखकों की
रचनाओं को कौन पढ़ता?अथवा इनकी किताबें कैसे बिकती?इससे साफ जाहिर होता है की साहित्य को पढ़ने वाले आज भी हैं, और लेखकों के लिए पाठक वर्ग ही समीक्षक और आलोचक होता हैं, क्योंकि पाठक ही तो लेखकों की कमियों को बताते हैं लेखक हर कोई नहीं होता है,बल्कि पाठक तो हर कोई होता हैं और एक पाठक लेखक नहीं हो सकता है,लेकिन एक लेखक पाठक जरूर हो सकता है, इसलिए हर लेखक अगर साहित्य सृजन करता है,तो वह दूसरी रचनाओं को पढ़ता जरूर है
लिखने के लिए जरूरी है की हमें भाषा पर पकड़ होनी चाहिए, रचनात्मक शक्ति होनी चाहिए, व्याकरण अच्छी होनी चाहिए और जिस विषय-वस्तु पर हम लिख रहे हैं उसकी ज्ञान होनी चाहिए, लेकिन हम ज्यादातर लिखने में गलतियां करते हैं और यह गलतियां ज्यादातर हिंदी साहित्य में होती हैं अगर मैं इसके कारण की बात करूँ तो यही लिखूंगा की हम बचपन से ही हिन्दी साहित्य पर ध्यान नहीं देते हैं अगर हिंदी साहित्य पर बाल्यकाल से ही ध्यान दिया जाता तो इस कमी को दूर किया जा सकता है
:कुमार किशन कीर्ति
हिंदी लेखक, बिहार

तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों का विशिष्ट एवं नवीन अनुभव संसार

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  तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों का
विशिष्ट एवं नवीन अनुभव संसार
भूमिका : समकालीन हिन्दी लेखको में तेजेन्द्र
शर्मा अपनी अलग पहचान बनाने में सफल रहे है। उनकी कहानियों की विशिष्टता का कारण सिर्फ
उनका प्रवासी परिवेश से युक्त होना ही नहीं
, बल्कि विदेश प्रवासरत आम लोगों के जीवन को नए दृष्टिकोण से देखना है।
मसलन उनकी कहानियों में अन्य प्रवासी रचनाकारों के विपरीत नोस्टेल्जिया की प्रवृति
नहीं के बराबर है
, बल्कि इसके के स्थान पर उनकी कहानियों का
मुख्य स्वर विदेशों में बस रहे या बसने की इच्छा लिए संघर्षरत भारतीयों का जीवन सफर
है। उनकी कहानियाँ प्रवासी भारतीयों को आम आदमी के नजरिया से देखकर उनके रोजमर्रा
की समस्याओं एवं मानसिक अंतर्द्वंद्व को रचनात्मक स्वर प्रदान करती हैं
| तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों में आर्थिक, सामाजिक, भावात्मक एवं सांस्कृतिक आदि अनेक स्तर पर आंतरिक एवं  बाह्य संघर्ष झेल रहे पहली पीढ़ी के आम प्रवासी
भारतीयों का जीवन अभिव्यक्त हुआ है
|
शोध विस्तार : तेजेन्द्र शर्मा की कई कहानियाँ हिन्दी कथा-जगत में सर्वथा नवीन वातवरण, देशकाल एवं परिघटना लिए अवतरित हुई है। मसलन चरमराहट कहानी खाड़ी देश सऊदी अरब के जेद्दाह शहर
में रह रहे एक आम किन्तु दिलचस्प भारतीय आई. एम. तिवारी की कहानी है। छोटी सी उम्र
में  सांप्रदायिक दंगे की अमानवीयता देखने
के बाद तिवारी को धर्म द्वारा संचालित नाम से चिढ़ हो जाती है और वह फक्र से अपना
नाम बदलकर आई. एम. हिदुस्तानी कर लेता है । अपनी प्रकृति से नास्तिक होने के
बावजूद नौकरी पाने के लिए उसे जन्मना धर्म हिन्दू धर्म का सहारा लेना पढ़ता है।
हिंदुस्तानी के आत्मसंघर्ष को व्यक्त करते हुए तेजेन्द्र शर्मा लिखते है-
वह केवल हिंदुस्तानी बना रहना चाहता था किंतु नौकरी ने उसे हिन्दू बनाकर
ही दम लिया।”

[i]

नौकरी
भी हिंदुस्तानी को धार्मिक नियमों के 
शिंकाजे में कसे जेद्दाह में मिली जहाँ धार्मिक पुलिस
मुतव्वा आम नागरिकों के रोज़मर्रा के जीवन को
नियंत्रित करते हैं। विभेदीकरण एवं स्तरीकरण के नए रूप मुस्लिम – गैर-मुस्लिम विभेद
, सउदी – गैर-सउदी विभेद, गैर-मुस्लिम में रंग आधारित
विभेद आदि से हिंदुस्तानी का परिचय होता है। मुसलमानों के लिए आरक्षित सड़के
, धर्म के आधार पर इकामा का रंग, डीपोर्टी कैम्प आदि विभेदीकरण
के विशिष्ट स्वरूप से उसे गुजरना पड़ता है। सउदी अरब में मुतव्वा के कठोर शासन से प्रवासियों
के रोजमर्रा के जीवन का तनाव  सर्वथा अलग
अनुभव बोध है। धर्म को तार्किक रूप के अस्वीकृत करनेवाला हिंदुस्तानी धार्मिकता की
आँधी से संचालित घटनाओं के भंवर में घसीट लिया जाता है। बाबरी विध्वंस से फैले
तनाव की तरंगें सीमा पार कर पूरी दुनिया के भारतीयों को अपने दायरे में समेट लेती
है। अफवाह और अविश्वास के माहौल में हिंदुस्तानी का इकामा रद्द कर भारत डीपोर्ट कर
दिया जाता है। भारत आने के बाद उसे एहसास होता है कि हिंदुस्तानी नाम को हिन्दू
सांप्रदायिक तत्वों ने धार्मिक के रंग से सराबोर कर दिया है
| ‘हिंदुस्तानी शब्द भारतीयता
के स्थान पर हिन्दू धर्म और हिन्दू सभ्यता का प्रतीक बना दिया गया है। हिंदुस्तानी
की अपने नाम को धर्म से संपृक्त रखने  की
जीवन भर की साधना धूल-धूसरित हो जाती है- “सारे माहौल को देखकर हिंदुस्तानी
को महसूस हुआ कि केवल एक ढांचा नहीं चरमराया बल्कि उसके साथ बहुत कुछ चरमरा गया
है। लोगों का विश्वास
, प्यार भाईचारा,
समाज की नींव सब चरमरा गया है।”

[ii]

यह कहानी प्रवासी भारतीयों  के जीवन में घरेलू संप्रदायिक तनाव के
परिणामस्वरूप उपजे संघर्ष और उससे भी अधिक भावनात्मक टूटन को संवेदनात्मक
अभिव्यक्त प्रदान करती है
|

     तेजेन्द्र शर्मा की कहानी कैंसर ब्रेस्ट कैंसर से जूझ रही महिला
एवं उसके पति के मानसिक तनाव एवं अंतर्द्वंद्व 
की कहानी है। रेडिकल मैक्सोटोमी अर्थात स्तन काटकर निकालना एक सर्जिकल
प्रक्रिया भर नहीं है
| अपनी पत्नी से बेइन्तहा मुहब्बत करने
के बाद भी नरेन का मन भी इस दुविधा में जूझता रहता है कि एक छाती न रहने के बाद क्या
वह पूनम को उतना प्यार कर पाएगा। वहीं दूसरी ओर पूनम इस ग्लानिबोध में पिसती है कि
उसके पति की प्रिय वस्तु  उसका गोलदार स्तन
उससे सदा के लिए बिछड़ जाएगी। स्पष्ट है की अगर कैंसर इलाज योग्य भी हो तब भी कैंसर
पीड़ित व्यक्ति को जीवन एवं संबंधों में फैल रहे तनाव
,घुटन और
बेबसी के कैंसर से लड़ना पड़ता है। डाक्टरी इलाज पूनम की छाती सपाट कर देते हैं और
आपरेशन की लम्बी प्रक्रिया से गुजरते – गुजरते नरेन और पूनम की तार्किकता और
आत्मविश्वास घिस – घिसकर चिथड़े हो जाते हैं
| प्यार को खाने
का डर व्यक्ति की तर्कशक्ति को पंगु बना देता है। देवी
देवताओं
में विश्वास नहीं रखने के बावजूद नरेन पूरी श्रद्धा से ताबीज बांधता है
, किसी सिर हिलाती देवी के सामने घुटने टेकता है,
बर्न अगेन ईसाइयों के साथ
प्रार्थना करता है। इन सब के पीछे उसकी एक ही ख्वाहिश है की कहीं कोई चमत्कार हो
जाए और डॉक्टरी रिपोर्ट झूठ निकल जाए। इस प्रकार कैंसर से लड़ने की प्रक्रिया में
लोग नए तरह के कैंसर का शिकार होते चले जाते हैं
, जिससे उन्हें जीवन भर जूझना पड़ता है।
विमान दुर्घटना पर आधारित कहानी
काला सागर अनेक
परस्पर विरोधी संवेदनाओं को समेटे हुए हैं। एक ओर आतंकवादी हमले से अपनों को खोए
लोगों की संतप्त व्यथा व्यथा है तो दूसरी ओर भावना विहीन रिश्तेदार भी हैं
, जो अपनों की मौत का भी यथासंभव फायदा उठाने में लगे हुए हैं। लाशों की
पहचान के लिए लंदन पहुंचे रिश्तेदारों में कोई इंपोर्टेड की टीवी खरीदने की धुन
में है तो कोई मुफ्त की शराब उड़ाने में। इस कहानी में रिश्तों एवं भावनाओं का बिखराव
सामान्य पारिवारिक कलह से कई गुना अधिक विषादमय
, नग्न और
विद्रूप है।
यहाँ अपनों
की मौत का दुख भी भौतिकता एवं लोभ के संवरण से दब चुका है। इसी कड़ी में
देह की कीमत कहानी को रखा जा सकता है, जहां जापान के अवैध प्रवास के दौरान मृत बेटे को मिले तीन लाख के चेक पर
सगे रिश्तेदार आँखें गड़ाए रहते हैं।
काला सागर कहानी में जो रिश्तों की भावनाहीनता अनेक परिवारों के माध्यम से व्यक्त
की गई है वही
देह की कीमत में एक परिवार की कहानी बन गई
है।लेखक के विमान परिचालन के वास्तविक अनुभव ने कहानी के वातावरण की बिलकुल संजीदा
और जीवंत कर दिया है।
काला
सागर
, देह की कीमत, कैंसर
आदि कहानियों की तरह कहानी
कब्र का मुनाफा
मृत्युबोध को केंद्र में रखकर लिखी
गई है। पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था ने आंखों पर भौतिकता का आवरण डालकर जीवन के
अनिवार्य एवं अवश्यंभावी सत्य मृत्यु को बाजार के लिए एक प्रॉडक्ट बना दिया है।
हमारी मानसिकता ने लाश को भी बुर्जुआ और गैर
 बुर्जुआ में
बांट दिया है। अमीर लोग गरीबों के साथ दफन नहीं होना चाहते बल्कि अपने लिए फाइव
स्टार कब्र की बुकिंग कर रहे हैं।  लाशों
को सजाने
, संवारने एवं दफनाने की प्रक्रिया पैकेज के
मुताबिक बंट गई है। खलील और नजीम मियां भी खुद के और अपने बेगमों के लिए कब्रें
बूक करवाकर निश्चिंत हो जाते हैं कि मरने के बाद उनकी लाशें फाइव स्टार कब्रों में
दफनाई जाएगी। अपनी बेगमों के विरोध के बाद जब वे बूकिंग रद्द करते हैं तो उन्हें
पता चलता है कि बाजार के उतार- चढ़ाव के साथ कब्र की कीमतें बढ़ती- घटती है। मनुष्य
के आदरपूर्वक अंतिम संस्कार के लिए पूर्वजों द्वारा ईजाद की गई प्रथाएँ प्रॉपर्टी डीलरों
के लिए रियल स्टेट का धंधा बन गई है। हर संभव तरीके से धन बटोरने की लालसा में
खलील और नजीम मियां जीवन के आखिरी दिनों में भी मृत्यु की वास्तविकता एवं
अवश्यंभावित को स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
विदेशों में आर्थिक रूप से
सक्षम और सफल पारिवारिक जीवन गुजार रहे भारतीयों के लिए भी सांस्कृतिक और नस्लीय
अलगाव के अंतर को पाट पाना आसान नहीं होता।
हाथ से फिसलती जमीन… कहानी एक ऐसे प्रवासी भारतीय
 नरेन की कहानी है जो जैकी से प्रेम-विवाह
कर अपना भरा-पूरा परिवार बसा चुका है
, परंतु इसके बावजूद
अपनी चमड़ी का रंग अलग होने के कारण वह अपने ही बच्चों से भावनात्मक रूप से जुड़
नहीं पता। भारत में जातीय शोषण का शिकार नरेन जब ब्रिटेन में प्रेम विवाह करता है
तो उसे लगता है की उसे जन्म आधारित भेदभाव का शिकार ब्रिटेन में नहीं बनना पड़ेगा।
लेकिन नस्लीय भेदभाव वहाँ भी उसका पीछा नहीं छोडते। परिवार में वह धीरे-धीरे अपनी
गोरी पत्नी और गोरे बच्चों से अलग होता चला जाता है। नरेन का पाकी रंग जो कभी जैकी
के लिए आकर्षण का कारण था
, वही रंग उसे बार- बार याद
दिलाते  हैं की वह अपने परिवार से अलग
दिखता है। यही चमड़ी का रंग जीवन के लंबे सफर के बाद उसे परिवारविहीन कर  देते हैं।
निष्कर्ष:  तेजेंद्र शर्मा की कहानियों
की विशिष्टता का कारण है -उनका नवीन अनुभव संसार
और उसे समझने की उनकी अपनी व्यक्तिगत दृष्टि। विमान परिचालन
की व्यवसायिक सेवा
, लंदन प्रवास, लंदन में रेलवे की नौकरी, कैंसर पीड़ित पत्नी का
जीवन संघर्ष आदि व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक अनुभवों ने न सिर्फ नई कथावस्तु प्रदान
की है
,
बल्कि
कहानियों के वातावरण को अत्यंत जीवंत बना दिया है। उनकी कहानियों में लेखकीय
कल्पना के समावेश के बावजूद वे सहज और आपबीती गाथा जैसी लगती है। उनकी कहानी इस रूप
में भी विशिष्ट है कि लंदन प्रवास के बावजूद उनकी कहानियों में नॉस्टैल्जिया बहुत
कम है। बीते दिनों की यादों के स्थान पर प्रवासी भारतीयों के जीवनसंघर्ष को
उन्होने अपनी कहानियों का आधार बनाया है। हालांकि
हाथ से निकलती जमीन कहानी
में जो कुंठा और व्यर्थताबोध है वह नोस्टेलिजीया की ओर ले जाने वाला प्रतीत होता
है
, जहां लंदन में घर बसा लेने के बावजूद पाकी रंग के कारण व्यक्ति
अपने ही परिवार के सदस्यों से जुड़ नहीं पाता है।  संक्षिप्ततः तेजेंद्र शर्मा अपने जीवन के अनुभव
संसार से हिंदी कहानी को समृद्ध करते हैं और पाठकों को संवेदनात्मक धरातल
पर नितांत नूतन अनुभव लोक से परिचित कराते हैं।

1.तेजेन्द्र शर्मा, देह की कीमत, वाणी
प्रकाशन
, दिल्ली, 2007, पृ. सं. 121.

2.तेजेन्द्र शर्मा, देह की
कीमत
, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृ. सं. 121.

संदर्भ ग्रंथ सूची:
1। बृज नारायण शर्मा भटनागर(सं०),
तेजेंद्र शर्मा वक्त के आईने मे
,रचना समय, भोपाल 2009।
2। शर्मा तेजेंद्र, काला सागर, वाणी
प्रकाशन
, नई दिल्ली, 1990।
3। शर्मा तेजेन्द्र, बेघर आँखें, अरु
प्रकाशन
, 2007।
4।शर्मा तेजेन्द्र, दीवार में रास्ता,
वाणी प्रकाशन
, दिल्ली, 2012।
5। शर्मा तेजेन्द्र, दस प्रतिनिधि कहानियाँ, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली,
प्रथम संस्कारण
, 2014।
6। शर्मा तेजेन्द्र, देह की कीमत, वाणी
प्रकाशन
, दिल्ली, तीसरा संस्करण, 2007।
7।शर्मा तेजेंद्र, ढिबरी लाइट, वाणी
प्रकाशन
, दिल्ली, 1994।
8।आर्या सुषमा, नावरिया अजय, प्रवासी
हिन्दी कहानी एक अंतर्यात्रा
, शिल्पायन  प्रकाशन, दिल्ली 2013।
9। सक्सेना, उषा राजे,ब्रिटेन में
हिन्दी कहानी
, मेधा बुक्स,दिल्ली, 2006।
10।संधु मधु, हिन्दी का भारतीय एवं प्रवासी कथा लेखन, वामन प्रकाशन, दिल्ली, 2013।
Research paper written by:
अभिनव कुमार
शोधार्थी, कर्नाटक केन्द्रीय विश्वविद्यालय
Mob: 9555751870

 

लोकप्रिय साहित्‍य की अवधारणा- सुशील कुमार

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लोकप्रिय साहित्‍य की अवधारणा

सुशील कुमार
 शोधार्थी
हिन्दी विभाग ,हैदराबाद विश्वविद्यालय
हैदराबाद -500046 .
मोबाइल न॰-8789484808

साहित्‍य के दो रूप मिलते हैं- एक, लोकप्रिय साहित्‍य और दूसरा, कलात्‍मक साहित्‍य। कलात्‍मक साहित्‍य को गंभीर साहित्‍य माना जाता है, जबकि लोकप्रिय साहित्‍य को सतही साहित्‍य। साधारणत: माना जाता है कि जो साहित्‍य व्‍यापक जनसमुदाय के बीच सहज रूप में स्‍वीकृत और ग्राह्य हो, वह लोकप्रिय साहित्‍य है। सहजता, सरलता और सुबोधता ऐसे साहित्‍य के अनिवार्य गुण माने जाते हैं। लेकिन कोई साहित्‍य व्‍यापक जनसमुदाय के बीच सिर्फ सहजता, सरलता और सुबोधता के कारण लोकप्रिय नहीं होता। वह साहित्‍य व्‍यापक जनसमुदाय के बीच लोकप्रिय तभी होगा, जब उसका जुड़ाव आम जन से होगा। जब आम जन-जीवन की वास्‍तविकताएँ और आकांक्षाएँ उस साहित्‍य में सहज, सरल रूप में अभिव्‍यक्‍त हो, तभी वह साहित्‍य लोकप्रिय साहित्‍य होगा। वहीं कलात्‍मक साहित्‍य को गंभीर लेखन बताकर आमजन से दूर किया जाता रहा है। कलात्‍मक साहित्‍य भी व्यापक जनसमुदाय से जुड़ा हो सकता है तथा वह भी लोकप्रिय साहित्‍य हो सकता है।

लोकप्रिय साहित्‍य में लोकप्रिय है क्‍या? लोकप्रिय का अर्थ है- जो लोग को प्रिय हो। लेकिन यहाँ लोक का अर्थ क्‍या है? 

हिन्‍दी साहित्य कोश, भाग-1 में ‘लोक’ के संबंध में लिखा गया है कि- ‘‘शब्‍दकोशों में लोक शब्‍द के कितने ही अर्थ मिलेंगे, जिनमें से साधारणत: दो अर्थ विशेष प्रचलित हैं। एक तो वह जिससे इहलोक, परलोक अथवा त्रिलोक का ज्ञान होता है। वर्तमान प्रसंग में यह अर्थ अभिप्रेत नहीं। दूसरा अर्थ लोक का होता है- जनसामान्‍य- इसी का हिन्‍दी रूप लोग है। इसी अर्थ का वाचक ‘लोक’ शब्‍द साहित्‍य का विशेषण है।’’ लोकप्रिय साहित्‍य में लोकप्रिय में लोक का अर्थ सर्वजन, सर्ववर्ण, सब लोग से ही है।

हिन्‍दी का ‘लोक’ शब्‍द ‘फोक’ का पर्याय है। इस फोक के विषय में इन्‍साइक्‍लोपीडिया ब्रिटानिका ने बताया है कि आदिम समाज में तो उसके समस्‍त सदस्‍य ही लोक (फोक) होते हैं और विस्‍तृत अर्थ में तो इस शब्‍द से सभ्‍य राष्‍ट्र की समस्‍त जनसंख्‍या को भी अभिहित किया जा सकता है कि सामान्‍य प्रयोग में पाश्‍चात्‍य प्रणाली की सभ्‍यता के लिए ऐसे प्रयुक्‍त शब्‍दों में, जैसे लोकवार्ता (फोक लोर), लोक संगीत (फोक म्‍यूजिक) आदि में इसका अर्थ संकुचित होकर केवल उन्‍हीं का ज्ञान कराता है, जो नागरिक संस्‍कृति और सविधि शिक्षा के प्रवाहों से मुख्‍यत: परे हैं, जो निरक्षर भट्टाचार्य हैं अथवा जिन्‍हें मामूली सा अक्षर ज्ञान है, ग्रामीण और गँवार।’’ यहाँ लोक को दो अर्थों में प्रयोग किया गया है- एक का अर्थ है साधारण जन, जिसमें सभी लोग सम्मिलित हैं, दूसरा अर्थ इसका संकुचित है जो नागरिक संस्‍कृति और सविधि शिक्षा के प्रवाह से परे है अर्थात् जो ग्रामीण है, गँवार है, देहाती है। लेकिन लोकप्रिय साहित्‍य में लोक का अर्थ साधारण जन से ही है। इसलिए हमें इसका अर्थ साधारण जन ही स्‍वीकार्य होगा।

हिन्‍दी साहित्‍य कोश, भाग-1 में ही लोक को इस रूप में परिभाषित किया गया है- ‘‘लोक मनुष्‍य समाज का वह वर्ग है, जो अभिजात्‍य संस्‍कार, शास्‍त्रीयता और पाण्डित्‍य की चेतना और पाण्डित्‍य के अहंकार से शून्‍य है और जो एक परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है।’’ यहाँ ‘लोक’ का अर्थ उन लोगों से है जो अभिजात्‍य संस्‍कार, शास्‍त्रीयता और पांडित्‍य की चेतना और पांडित्‍य ने अहंकार से शून्‍य है अर्थात् जो गँवार है, अनगढ़ है, देहाती है।        

साधारण शब्‍दों में ‘लोक’ का अर्थ है- सभी लोग, आम जन, साधारण जन। और इस अर्थ में ‘लोक’ में सभी लोग शामिल हो जाते हैं। लेकिन विशेष अर्थ में ‘‘यह ‘विशेष’ से अलग होता है। कला के क्षेत्र में हम लोक और शास्‍त्रीयता का विभाजन देखते हैं, जिसमें शास्‍त्रीयता का मतलब ही परिष्‍कृत और व्‍याकरणिक होता है, जबकि लोक का मतलब अनगढ़ होता है।’’ 

लोकप्रिय का अर्थ है – जो लोक को प्रिय हो अर्थात् जो जनसामान्‍य को प्रिय हो अर्थात् पसंद हो, रुचिकर हो। अंग्रेजी में लोकप्रिय का पर्याय है – ‘पोपुलर’। पोपुलर अच्‍छी तरह से पसंद किये जाने की सामाजिक स्थिति है, जिसका प्रसार व्‍यापक होता है। अर्थात् जन समुदाय द्वारा अच्‍छी तरह से जानी पहचानी गई और अच्‍छी तरह से पसंद की गई चीज पोपुलर होती है। लोक में प्रसिद्धि से ही लोकप्रियता का पता चलता है।

‘लोकप्रिय साहित्‍य’ क्‍या है? लोकप्रिय साहित्‍य किसको कहेंगे? लोकप्रिय साहित्‍य के स्‍वरूप को स्‍पष्‍ट करते हुए मैनेजर पाण्‍डेय ने लिखा है- ‘‘आम तौर पर माना जाता है कि जो साहित्‍य और कला व्‍यापक जनसमुदाय के बीच सहज रूप में ग्राह्य और स्‍वीकार्य हो, वह लोकप्रिय है।’’ यहाँ मैनेजर पाण्‍डेय कहते हैं कि वही साहित्‍य और कला लोकप्रिय होगा, जो व्‍यापक जनसमुदाय को ग्राह्य और स्‍वीकार्य हो और व्‍यापक जनसमुदाय के बीच उनकी स्‍वीकृति और ग्रहण भी सहज रूप में हो। आगे वे लोकप्रिय साहित्‍य के गुणों की चर्चा करते हैं। वे कहते हैं- ‘‘सरलता, सहजता और सुबोधता आदि ऐसे साहित्‍य के अनिवार्य गुण हैं।’’ अर्थात् वही साहित्‍य लोकप्रिय होगा, जो सरल, सहज और सुबोध हो। वे सरलता, सहजता और सुबोधता को लोकप्रिय साहित्‍य के लिए अनिवार्य गुण तो बतलाते हैं, लेकिन वे यह भी कहते हैं कि – ‘‘व्‍यापक जनसमुदाय के बीच कोई साहित्‍य केवल सरलता और सुबोधता के कारण लोकप्रिय नहीं होता। लोकप्रियता कला या साहित्‍य के रूप की ही विशेषता नहीं है। वही साहित्‍य व्‍यापक जनता के बीच लोकप्रिय होताहै जिसमें जनजीवन की वास्‍तविकताएँ और आकांक्षाएँ सहज-सुबोध रूप में व्‍यक्‍त होती है। इसलिए लोकप्रियता का संबंध साहित्‍य के रूप के साथ-साथ उसकी अंतर्वस्‍तु, उस अंतर्वस्‍तु में मौजूद यथार्थ चेतना और उस यथार्थ चेतना में निहित विश्‍व दृष्टि से भी होता है। केवल रूप संबंधी लोकप्रियता सतही होती है और रचना वर्ग भी सतही बनाती है।’’ 

वे लोकप्रियता का संबंध सिर्फ रूप से नहीं जोड़ते वे उसे जोड़ते हैं रूप के साथ, उसकी अंतर्वस्‍तु से, अंतर्वस्‍तु में मौजूद यथार्थ चेतना से और यथार्थ चेतना में मौजूद विश्‍व दृष्टि से। जिस साहित्‍य में ये गुण मौजूद होगा, वह लोकप्रिय साहित्‍य तो होगा ही, गंभीर भी होगा और कालजयी भी। वे स्‍पष्‍ट कहते हैं कि सरलता और सुबोधता के कारण ही कोई साहित्‍य लोकप्रिय नहीं होता तथा केवल रूप संबंधी लोकप्रियता उस साहित्‍य को सतही ही बनाएगा, गंभीर और कालजयी नहीं।

लोकप्रिय साहित्‍य को चवन्‍नी छाप साहित्‍य सस्‍ता साहित्‍य, सतही साहित्‍य, फुटपाथी साहित्य, घटिया साहित्‍य, घासलेटी साहित्‍य, व्‍यावसायिक साहित्‍य, बाजारू साहित्‍य, भीड़ का साहित्‍य, लुगदी साहित्‍य आदि कहा जाता है। लेकिन साहित्‍य के समाजशास्‍त्र में इसे लोकप्रिय साहित्‍य के नाम से ही जाना जाता है।

संदर्भ  

हिन्‍दी साहित्‍य कोश, भाग-1 – प्रधान संपादक धीरेन्‍द्र वर्मा, पृ.सं. 747

  हिन्‍दी साहित्‍य कोश, भाग-1 – प्रधान संपादक धीरेन्‍द्र वर्मा, पृ.सं. 747

  हिन्‍दी साहित्‍य कोश, भाग-1 – प्रधान संपादक धीरेन्‍द्र वर्मा, पृ.सं. 747

  लोकप्रिय शब्‍द सुनते ही बौद्धिक वर्ग के कान खड़े हो जाते हैं – प्रभात रंजन, दिनांक 28 मई 2012, जानकीपुल.कॉम   

  साहित्‍य और समाजशास्‍त्रीय दृष्टि – मैनेजर पाण्‍डे, पृ.सं. 330

  साहित्‍य और समाजशास्‍त्रीय दृष्टि – मैनेजर पाण्‍डे, पृ.सं. 330

  साहित्‍य और समाजशास्‍त्रीय दृष्टि – मैनेजर पाण्‍डे, पृ.सं. 330

हिंदी कहानी का नाट्य रूपांतरण – कथानक के स्तर पर: चंदन कुमार

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people standing on stage with lights turned on during nighttime
Photo by Erik Mclean on Unsplash

हिंदी कहानी का नाट्य रूपांतरण – कथानक के स्तर पर

चंदन कुमार

शोधार्थी

हिंदी विभाग

गोवा विश्वविद्यालय

संपर्क: 8390122193

ईमेल: chandankumar3491@gmail.com

सारांश

कहानियों में भाव बोध को अपनी भाव भंगिमा के साथ प्रस्तुत करना उसका नाट्य रूपांतरण है । विभिन्न प्रकार से घटना, कथा अथवा कहानी कहने की शैली रूपांतरण की जननी है । वर्तमान समय में रूपांतरण एक अनूठी कला की तरह है जो वर्तमान समय में खूब हो रहा है । कविताओं और कहानी का नाटक में, कहानी और नाटक का फिल्मों में रूपांतरण तेज़ी से हो रहा है । अभिव्यक्ति और कथानक को नए रूप में परिवर्तित कर के मंच पर लाया जा रहा है । ध्यातव्य हो कि एक विधा से दूसरी विधा में परिवर्तित होने पर भाषा, काल, दृश्य, संवाद भी बदल जाते हैं । यह बदलने के साथ मर्म को उसी अभिव्यक्ति से साथ प्रस्तुत करना ही नाट्य रूपांतरण को सही अर्थ देता है ।

बीज शब्द

कहानी, रूपांतरण, भाव, भंगिमा

आमुख

हिंदी कहानी का इतिहास साहित्य की दृष्टी से लगभग दो सौ पचास का है किन्तु कहानी कहने और सुनने की प्रथा अति प्राचीन है । किस्सागोई की परम्परा प्रायः बैठकों में होती ही रहती है । किसी घटना या बात को कहने की शैली से बात का महत्व और अधिक हो जाता है । जितना अधिक प्रभावशाली वक्तव्य होता है उसे उतनी अधिक रुचि से सुना जाता है । “कहानी सुनाने की एक सुदीर्घ परम्परा हमारे देश में रही है लेकिन आज जब एक प्रशिक्षित अभिनेता मंच पर कहानी करना चाहता है तो कई सवाल उठ खड़े होते हैं क्या रंगमंच पर लाने के कहानी के अपने अस्तित्व को बदलना होगा…”[1] कहानियों में भाव बोध को अपनी भाव भंगिमा के साथ प्रस्तुत करना उसका नाट्य रूपांतरण है । विभिन्न प्रकार से घटना, कथा अथवा कहानी कहने की शैली रूपांतरण की जननी है । विश्व साहित्य की अनेक विधाओं का अलग-अलग स्वरूप होता है, न केवल उनकी रचना प्रक्रिया अलग होती है बल्कि उनके तत्व भी एक दूसरे से बिल्कुल पृथक होते हैं । उनके भीतर संवेदना का स्तर भी अलग होता है । किसी विधा में रची गई रचना के मर्म को अभिव्यक्त करना रूपांतरण के लिए सबसे जरूरी अंग है । इसके साथ-साथ यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि साहित्यिक विधाओं का स्वरूप, समय और आवश्यकता के अनुसार बदलता रहता है । वर्तमान समय में रूपांतरण एक अनूठी कला की तरह है जो वर्तमान समय में खूब हो रहा है । कविताओं और कहानी का नाटक में, कहानी और नाटक का फिल्मों में रूपांतरण तेज़ी से हो रहा है । अभिव्यक्ति और कथानक को नए रूप में परिवर्तित कर के मंच पर लाया जा रहा है । ध्यातव्य हो कि एक विधा से दूसरी विधा में परिवर्तित होने पर भाषा, काल, दृश्य, संवाद भी बदल जाते हैं । यह बदलने के साथ मर्म को उसी अभिव्यक्ति से साथ प्रस्तुत करना ही नाट्य रूपांतरण को सही अर्थ देता है ।

कहानी का नाटक में रूपांतरण करने के लिए सबसे पहले कहानी और नाटक में वैविध्य तथा समानताओं को समझना आवश्यक है । जहाँ कहानी का संबंध लेखक और पाठक से जुड़ता है वहीं नाटक का नाटककार, निर्देशक, पात्र, दर्शक, श्रोता एवं अन्य लोगों को एक दूसरे से जोड़ता है । सुनने से अधिक दृश्य का स्मृतियों से गहरा संबंध होता है इसलिए नाटक एवं फिल्म को लोग देर तक याद रखते हैं । कथा साहित्य से जितना रंगमंच ने लिया है उससे कहीं ज्यादा सिनेमा से कथा साहित्य से रचनाएँ ली हैं और उसे नए आयाम दिए हैं । सिनेमा के पास मंच से अतिरिक्त अवकाश होता है यही कारण है कि गोदान, पंचलाइट, तीसरी कसम, देवदास, उसने कहा था, चीफ की दावत, दोपहर का भोजन, चंद्रकांता, सद्गति आदि के रूपांतरण कई बार और कई तरह से हुए हैं । ‘कथा’ अंतर्गत कार्यव्यापार की योजना को ‘कथानक’ (P।ot) कहते हैं । अंग्रेजी में ‘कथावस्तु’ को ‘प्लाट’ कहा जाता है । ‘प्लाट’ अरस्तु के ‘माइथास’ का अंग्रेजी रूपान्तरण है ।”[2] ‘कथानक’ और ‘कथा’ दोनों ही शब्द संस्कृत ‘कथ’ धातु से उत्पन्न हैं । संस्कृत साहित्यशास्त्र में ‘कथा’ शब्द का प्रयोग एक निश्चित काव्यरूप के अर्थ में किया जाता रहा है किंतु “कथा शब्द का सामान्य अर्थ है- वह जो कहा जाए ।”[3] यहाँ कहने वाले के साथ-साथ सुनने वाले की उपस्थिति भी अंतर्भुक्त है कयोंकि ‘कहना’ शब्द तभी सार्थक होता है जब उसे सुनने वाला भी कोई हो । श्रोता के अभाव में केवल ‘बोलने’ या ‘बड़बड़ाने’ की कल्पना की जा सकती है, कहने की नहीं । इसके साथ ही, वह सभी कुछ जो कहा जाए कथा की सीमाओं में नहीं सिमट पाता है । साधारणतः कथा का तात्पर्य किसी ऐसी कथित घटना के कहने या वर्णन करने से होता है जिसका एक निश्चित क्रम एवं परिणाम सामने नजर आ रहे हों । “घटनाओं के कालानुक्रमिक वर्णन को कथा (स्टोरी) की संज्ञा दी है जैसे ‘नाश्ते के बाद मध्याह्न का भोजन’, ‘सोमवार के बाद मंगलवार’, यौवन के बाद वृद्धावस्था आदि ।”[4] कहानी कही जाती है या पढ़ी जाती है । वर्तमान दौर में कहानी और उपन्यास की गिनती नाटकों की अपेक्षा अधिक है कारण स्पष्ट है कि आज के लगातार जटिल होते यथार्थ को पूरी गहराई, सूक्ष्मता और तीव्रता से व्यक्त करने में अपने ख़ास फार्म के कारण नाटक समर्थ नहीं हो पा रहे हैं । उसके मर्म को दिखाने के लिए कहानी के रूपांतरण को छोटे-छोटे संवादों, संगीत, प्रकाश के सहयोग से दिखाया जाता है । कहानी को मंच पर प्रस्तुत करने के लिए दो प्रक्रियाओं का सहारा लिया जाता है, अव्वल कहानी को भावों के साथ संवादों के उतार-चढ़ाव के साथ पढ़ दी जाए जिससे वह बोरियत सी न लगे ।  दूसरा उसे नाटक में परिवर्तित कर के अनेक पात्रों की सहायता से विधिवत प्रस्तुत किया जाए । भारतीय रंगमंच ‘भरत’ के ‘नाट्यशास्त्र’ पर आधारित है लेकिन नाट्य रूपांतरण ने उस शास्त्रीयता को लाँघ कर अपनी अस्मिता बनाई है । मंचन के रूप में कहानी का रूप परिवर्तित होता है किन्तु संवेदना के साथ किसी तरह का कोई समझौता नहीं होता है, किसी कारण ऐसा होता है तो वह कहानी के मर्म की हत्या होती है । नाटक में किसी भी पात्र, पात्र के संवाद और दृश्य की कटौती करने से पूरे नाटक का संतुलन बिगड़ सकता है किन्तु कहानी के मंचन में यह सुविधा रहती है कि सूत्रधार की सहायता से पात्रों की संख्या घटाई जा सकती है, मंच पर कम से कम चीज़ों से काम चलाया जा सकता है और इस तरह करने से नाटक की प्रोडक्शन लागत बहुत कम हो जाती है । किसी नाटक के मंचन के लिए अभिनय, मंच सज्जा, संगीत, प्रकाश व्यवस्था होती है । नाटकीयता साहित्य की अधिकतर विधाओं में विधमान रहती है । कविता और कहानी में नाटकीयता अन्य विधाओं के मुकाबले अधिक होती है । कहानी और नाटक दोनों में एक कहानी होती है, पात्र होते हैं, परिवेश होता है, कहानी का क्रमिक विकास होता है, संवाद होते हैं, द्वंद्व होता है, चरम उत्कर्ष होता है । इस तरह हम देखते हैं कि नाटक और कहानी की आत्मा के कुछ मूल तत्व एक ही हैं । यह अवश्य है कि कुछ मूल तत्व जैसे ‘द्वंद्व’ नाटक में जितना और जिस मात्रा में आवश्यक है उतना संभवतः कहानी में नहीं है ।

कहानी को नाटक में रूपांतरित करने के लिए सबसे पहले कहानी की विस्तृत कथावस्तु को समय और स्थान के आधार पर विभाजित किया जाता है । कथावस्तु उन घटनाओं का लेखा-जोखा है जो कहानी में घटती है । प्रत्येक घटना किसी स्थान पर किसी समय में घटती है । ऐसा भी संभव है कि घटना स्थान तथा समय विहीन हो । “कहानी किसी घटना या स्थिति का किया गया वर्णन है । जिसमें वह वर्मान में अतीत की सूचना बनती है इसके विपरीत नाटक घटित हो रही या होते रहने की क्रिया की दृश्यात्मक प्रस्तुति है ।”[5] ऐसा हो सकता है कि कुछ ऐसे दृश्य बनते हों जिन में लेखक ने केवल विवरण दिया हो और उसमें कोई संवाद न हो । ऐसे दृश्यों का भी पूरा खाका तैयार किया जाता है । दृश्य निर्धारित करने के बाद दृश्यों और मूल कहानी को पढ़ने से यह अनुमान लग सकता है कि मूल कहानी में ऐसा क्या है जो दृश्यों में नहीं आया है । ऐसे समय में नाट्य रूपांतरणकर्ता पर बड़ी जिम्मेदारी होती है कि कथा अथवा कहानी को किसी प्रकार से हानि न हो । लेखक द्वारा परिवेश का विवरण या परिस्थितियों पर टिप्पणियाँ प्रायः दृश्यों में नहीं ढल पाती है । कई ऐसे कथाकार हैं जिनकी कहानियों में कई-कई पैराग्राफ दृश्य संयोजन और वस्तुस्थिति बताने में निकल जाते हैं जिन्हें मंचित करना संभव नहीं हो पाता है । यह देखना आवश्यक है कि परिस्थिति, परिवेश, पात्र, कथानक इत्यादि से संबंधित विवरणात्मक टिप्पणियाँ किस प्रकार की हैं । विभिन्न प्रकार के विवरणों को नाटक में स्थान देने के अलग-अलग तरीके होते हैं । कथा को सामान्य भाषा में लिख दी गई हैं किन्तु कथानक में उसके पूरे विवरणात्मक रूप को दिखाया जाता है ।

साहित्य में विधाओं का आदान प्रदान होता रहता है किन्तु विधा बदलने से काव्य प्रभाव और आस्वाद में भी बदलाव आता है । कहानी के नाट्य रूपांतरण का एक दृश्य की कथावस्तु, कथानकद्ध को सामने रखकर एक-एक घटना को चुन-चुनकर निकाला जाता है और उसके आधार पर दृश्य बनता है तात्पर्य यह कि यदि एक घटना, एक स्थान और एक समय में घट रही है तो वह एक दृश्य होगा । स्थान और समय के आधार पर कहानी का विभाजन करके दृश्यों को लिखा जाता है । यह देखना आवश्यक है कि प्रत्येक दृश्य का कथानक के अनुसार औचित्य हो और  प्रत्येक दृश्य का कथानुसार तार्किक विकास हो रहा है या नहीं । यह सुनिश्चित करने के लिए दृश्य विशेष के उद्देश्य और उसकी संरचना पर विचार आवश्यक है । प्रत्येक दृश्य एक बिंदु से प्रारंभ होता है कथानुसार अपनी आवश्यकताएँ पूरी करता है और उसका ऐसा अंत होता है जो उसे अगले दृश्य से जोड़ता है । इसलिए दृश्य का पूरा विवरण तैयार किया जाता है । कहीं ऐसा न हो कि दृश्य में कोई आवश्यक जानकारी छूट जाए या उसका क्रम बिगड़ जाए । नाटक ही में नहीं बल्कि नाटक के प्रत्येक दृश्य में प्रारंभ, मध्य और अंत होता है स्पष्ट है एक दृश्य कई काम एक साथ करता है ।

कथानक की गतिशीलता सीधी रेखा में नहीं चलती उसमें उतार चढ़ाव आते हैं । कथानक में जीवन की इसी गतिमान संघर्षशील रूप की अवतारणा की जाती है । एक ओर वह कथानक को आगे बढ़ाता है तो दूसरी ओर पात्रों और परिवेश को संवादों के माध्यम से स्थापित करता है । इसके साथ-साथ दृश्य अगले दृश्य के लिए भूमिका भी तैयार करता है । कहानी में छपे लंबे संवाद को पाठक पढ़ सकता है लेकिन मंच पर बोले गए लंबे संवाद से तारतम्य बनाए रख पाना कठिन होता है । एक कहानी को मंच पर लाना और साथ ही उसके भाव बोध का सही सम्प्रेषण कथाकार को रोमांचित कर देता है । “यह निर्णय दर्शकों और आलोचकों पर ही छोड़ना होगा । स्वयं मेरे लिए यह बात कि कहानियों को सुनने पढ़ने के अलावा देखा भी जा सकता है, एक विस्मयकारी अनुभव था । जिन कहानियों को अरसा पहले मैंने अपने अकेले कमरे में लिखा था उन्हें खुले मंच पर दर्शकों के बीच देखना कुछ वैसा ही था जैसे टेपरिकॉर्डर पर अपनी आवाज़ सुनना जो अपनी होने पर भी अपनी नहीं जान पड़ती ।”[6] कहानी में चरित्र-चित्रण अलग प्रकार से किया जाता है और नाटक में उसकी विधि कुछ बदल जाती है । रूपांतरण करते समय कहानी के पात्रों की दृश्यात्मकता और नाटक के पात्रों में उसका प्रयोग किया जाता है । संवाद को नाटक में प्रभावशाली बनाने का अगला तरीका अभिनय है जो प्रायः निर्देशक का काम है पर लेखक भी इस ओर संकेत करता है । पात्र की भाव भंगिमाओं, तौर तरीको और उसके मैनरिस्म से प्रभाव उत्पन्न किया जाता है । कहानी के लंबे संवादों को छोटा-छोटा कर के उन्हें अधिक नाटकीय बनाया जाता है । लम्बे संवाद मंच पर अधिक कारगर नहीं हो पाते कभी कभी वो बोझिल से लगने लगते हैं । दो पात्रों के संवाद को इस तरह लिखा जाता है जिससे वह कटे हुए न लगे अपितु कहानी के उस हिस्से को भरे जिनमें केवल दृश्य और वातावरण का जिक्र है ।

जब कभी कहानी के रंगमंच की चर्चा होती है तब देवेन्द्र राज अंकुर का नाम सर्वोपरि आता है । “इस दिशा में देवेन्द्र राज अंकुर ने बहुत पहले 1975 में ‘तीन एकांत’ के शीर्षक से निर्मल वर्मा की तीन कहानियों ‘डेढ़ इंच ऊपर’, ‘धूप का एक टुकड़ा’, ‘वीक एंड’ को मंचित करके जो नया मुहावरा अर्जित किया था, उसमें रंगमंच की एक नई ऊर्जा से साक्षात्कार हुआ था अभीनय और वाचन की नई चुनौतियों और आयामों की ओर संकेत करने वाला यह प्रयोग बाद में ‘कहानी का रंगमंच’ नाम से चर्चित हुआ ।”[7] कहानी का रंगमंच और कहानी का नाट्य रूपांतरण दोनों में एक महीन रेखा खिंची हुई है । कथा और कथानक की दृष्टी से दोनों में परिवर्तन संभव हैं इन दोनों ही में भाव-बोध की समझ अतिआवश्यक है । हिंदी कहानी के नाट्य रूपांतरण की वास्तविक जड़ें ‘तीन एकांत’ के प्रदर्शन से लेकर वर्तमान तक हैं और निश्चित रूप से भविष्य में इसी तरह फूलेंगी । कहानी के मंचन में रचना और अभिव्यक्ति की जितनी शैलियाँ दिखाई पड़ती है, उन्हें पारम्परिक किस्सागोई की हल्की झलक के साथ आधुनिक रंगशैली के कलात्मक संयोजन द्वारा मंचित करते हुए दृश्यात्मक सम्प्रेषण की नई दिशाओं को उकेरा गया है । कहानियों के टेक्स्ट को सुरक्षित रखने के लिए निर्देशक ने अपनी ओर से कुछ भी कहने का प्रयास न करके उसे मूल रूप में ही स्वीकार किया है । “आज के लेखन में इस तरह की बुनावट को छोड़ा जा रहा है । झटके वाली कहानी आज कल कम लिखी जाती है इस तरह आलोचकों का कहना है कि कहानी लेखन पत्रकारिता के निकट आया है । जिस भांति पत्रकार किसी घटना का ब्यौरा सहज स्वाभाविक ढंग से, अपनी ओर से कुछ भी जोड़े या ओढ़ाए बिना पाठक के सामने रख देता है वैसे ही लेखक भी रखने लगा है ।”[8] कुछ वाक्यों को आगे पीछे करने या कहानी के दोहराव को छोड़ने के अतिरिक्त कुछ भी सम्पादित या बदलने की कोशिश नहीं की । ये भी उन स्थानों पर हुआ है, जहाँ कहानी के पात्रों का तनाव, गुस्सा, अकेलापन या संघर्ष आदि है और जिन्हें कार्य व्यापार से व्यंजित किया जाता था । इस रंग प्रयोग की अधिसंख्य प्रस्तुतियों को देखने के बाद कहानी-रंगमंच की दृष्टि से अभिनय शैली की नवीनता पर बातचीत करना दिलचस्प और सार्थक लगता है । कहानी पढ़ते समय पाठक जिस अनुभूति का साक्षत्कार करता है और सूक्ष्म रूप से छिपा हुआ, जो दृश्य संसार उसके सामने बनता संवरता है, उन दृश्यों को रचना के भीतर से तलाश करके मंच पर प्रदर्शित करने से ही ‘कहानी के रंगमंच’ का रूप बनता है ।  एक पाठक जब कहानी को पढ़ता या सुनता है, उसी समय, कहानी के पाठक के समांतर वह कहानी को दृश्यताम्क रूप से भी देखता चलता है ।

निर्मल वर्मा की तीन कहानियों ‘धूप का एक टुकड़ा’, ‘डेढ़ इंच ऊपर’ और ‘वीकएंड’ की मंच-प्रस्तुति ‘तीन एकांत’ शीर्षक से 1975 में देवेंद्र राज अंकुर के निर्देशन में की गई थी । तीनों कहानियों की भावभूमि और शैली लगभग एक-जैसी है । तीनों कहानियों में एक-एक पात्र है जो शुरू से लेकर अन्त तक एक लम्बा संवाद बोलता है, पूरा संवाद एक कथा के रूप में है । कहानी का मंचन इस प्रकार से किया गया है कि एक अहसास भी बना रहता है कि संवाद की शुरूआत किसी दूसरे पात्र के साथ होती है लेकिन यहाँ उसकी स्थिति का कोई अर्थ नहीं रहता है क्योंकि न जाने कब यह संवाद मात्र स्व-केन्द्रित होकर रह जाता है । उपस्थित पात्र इस प्रकार से संवादों को सुपुर्द करता है जैसे उसकी बात को सुनकर कोई उसे उत्तर देगा । कहानियों के रूप कई तरह के होते हैं ऐतिहासिक, पौराणिक, सामाजिक, मोनोलॉग इत्यादि । “मध्ययुगीन लोकनाट्य परम्परा में प्रचलित नाट्य रूपों के साथ-साथ किस्सागोई की परम्परा रही है…मुग़ल बादशाह जहाँगीर के समय क़िस्साख़्वाब का वर्णन मिलता है । आज भी आल्हा, पंडवानी या पाबूजी की पड़ आदि पारम्परिक वाचन शैली के नाटकीय तत्वों से इनकार नहीं किया जा सकता मगर समकलीन कहानी रंगमंच किस्सागोई के इन रूपों से अलग अपना स्वतंत्र रूप बना रहा है…उन्हें तोड़कर या बदलकर प्रस्तुत करने से वह मूल रचना की प्रस्तुति नहीं रहती ।”[9] मोनोलॉग से सम्बंधित प्रकार की कहानियां भारत में विदेशी प्रभाव के कारण आई हैं, मोनोलॉग एक प्रकार से एकालाप होता है जिसमें एक आदमी बोलता रहता है जैसे नाटकों में स्वगत कथन होता है । इस प्रकार ये कहानियाँ अकेलेपन के कुछ क्षणों में पात्रों के स्वयं अपने से साक्षात्कार की कहानियाँ हैं ।

निर्मल वर्मा की कहानियों में विदेशी प्रभाव अधिक है । कहानी का परिवेश, पात्रों की मानसिक स्थिति, उनके संवाद इत्यादि । ‘धूप का एक टुकड़ा’ कहानी का दृश्य एक पब्लिक पार्क से शुरू होता है जहाँ कई बेंचें हैं, पृष्ठभूमि में एक चर्च है और जहाँ-तहाँ फैले धूप के कुछ टुकड़े हैं । एक बूढ़ा है जो एक पैरेम्बुलेटर के सामने बैठा है और संयोग से उसी बेंच पर आकर बैठ जाता है जहाँ एक औरत (नायिका) रोज़ाना आकर बैठती है । इस प्रकार एक मौन, बूढ़े और अपने में ही व्यस्त पात्र की उपस्थिति ने इस औरत के अकेलेपन को भी ज़्यादा रेखांकित करती है । एक पार्क से शुरू होकर भी कहानी का दृश्य-जगत औरत के लम्बे संवाद में उसके अतीत के प्रसंगानुसार बदलता रहता है । उन दोनों बेंचों में किसी तरह का चेंज किए बिना ही मात्र प्रकाश द्वारा रेखांकित कुछ विशेष क्षेत्रों अथवा संगीत और अन्ततः एकल अभिनेत्री द्वारा ही कहानी की पूरी यात्रा को पकड़ने की कोशिश की गई है । नायिका के सम्वादानुसार दृश्य बदलते रहते हैं कभी प्रकाश द्वारा कभी संगीत द्वारा तो कभी नायिका के ‘मूव्स’ द्वारा दृश्यों के संकेत दिए गए हैं । कहानी के मूल फॉर्म को बिगड़ने नहीं दिया गया वहां मूलतः अंतर्द्वंद का चित्रण हैं । जैसा निर्मल वर्मा ने लिखा वैसा ही मंचित किया गया । इस संदर्भ में ‘तीन एकांत’ के निर्देशक देवेन्द्र राज अंकुर ने कहा “एक निर्देशक के नाते यह बात शुरू से ही मेरे सामने थी कि मुझे कहानियों के नाटकीय रुपान्तरण की ओर नहीं बढ़ना है वरन कहानी के अपने मूल फॉर्म में निहित कथ्य शब्द और दृश्य को ही मंच पर स्थापित करना है ।”[10] अर्थात कहानी के मूल रूप को बिना कोई ठेस पहुंचाएं उसे मंच पर प्रस्तुत किया गया । कहानी में घटित घटनाओं को नायिका अपने अतीत को बताती रहती है कहानी पढ़ने पर पाठक उसे समझ सकता है कि ये कहानी उसके अतीत की हैं । एक कहानी में कितने भी दृश्य हो सकते हैं और पाठक उन्हें अपनी दृष्टी से दृश्य की कल्पना कर सकता है किन्तु दर्शक के पास केवल एक दृश्य है और उसी पर कई तरह की क्रिया हो रही है । वैसे मूलतः इस कहानी में पब्लिक पार्क का एक ही दृश्य है किन्तु नायिका के संवादों में एक दर्जन दृश्य हैं जिनमे गिरजाघर से लेकर मोहल्ला, सड़क, पब, सारा शहर इत्यादि । कहानी इन्हीं दृश्यों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है फिर भी इसका केंद्र पब्लिक पार्क है जहाँ नायिका बेंच पर बैठी हुई है और अपने संवादों से सभी दृश्यों का वर्णन कर रही है ।

प्रत्येक घटना के वर्णन में संवादों की अहम भूमिका होती है । संवाद में भी एक क्रम है कहानी के पहले संवाद में सुबह का दृश्य है नायिका का एकालाप शाम तक चलता है । ऐसा मंच पर प्रकाश व्यवस्था से संभव है, ऐसे ही संवादों का क्रम जारी रहता है । एक संवाद के बाद दूसरे संवाद के बीच अधिक समय नहीं है जैसा अधिकतर फ़्लैशबैक की शैली में होता है । चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ में एक संवाद से दूसरे संवाद में जाने में पच्चीस वर्ष का समय बीत गया “…कल देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ…राम राम यह भी लड़ाई है…”[11] कहानी को पढ़ते समय एक पंक्ति में ये वर्ष निकल जाते हैं किन्तु मंच पर इसे दिखाने में अभिनेता और निर्देशक को अधिक परिश्रम करना पड़ता है । नाट्य रूपांतरण और कहानी के मंचन में संवादों का क्रम चलता रहता है । इस क्रम में कहानी की संवेदना को किसी प्रकार की ठेस नहीं पहुंचती । संवादों को थोडा परिवर्तित भी किया गया है “…यह पत्ता मेरा है और वह उसका…”[12] मंचन में यही संवाद “…यह पत्ता आपका है दूसरा किसी दूसरे का…”[13] है । ऐसा करने से संवाद को और अधिक बल मिलता है और ‘कहानी की थीम’ पर किसी प्रकार से कोई हानि नहीं पहुँचती है । अपवाद रूप में एक स्थान पर दो शब्दों को मात्र बदला गया है । दृश्यों को मंचित करने के लिए रंगमंच में कई संकेत दिए गए हैं । मंच पर अँधेरा, प्रकाश की योजना, मंच सज्जा इत्यादि का भी विस्तृत वर्णन है । “कहानी को तोड़कर, शब्दों को बदलकर, फॉर्म को चोट पहुंचाकर…नाट्य मंचन से वह कहानी के बहाने नए नाटक का मंचन होगा । इसकी अपेक्षा अभिनेता कहानी का हाव-भाव, स्वर के उतार चढ़ाव तथा संकेतों को नाटकीय ढंग से पढ़े तो वह ठीक होगा ।”[14] नई भाव भंगिमा और नए कलेवर के साथ कहानी का मंचन नए काव्य स्वाद को जन्म देता है । संस्कृत काव्यशास्त्रों में नाटक को ‘काव्य’ ही कहा जाता है । कहानी के मंचन के संदर्भ में निर्मल वर्मा भी कहते हैं कि “कहानी के मूल स्वभाव को विकृत किए बिना उसे मंच पर प्रस्तुत किया जाए, जहाँ एक ही समय में नाटक का ‘इल्यूजन’ दे सके और दूसरी ओर कहानी का आंतरिक फॉर्म और लय को अक्षुण्ण रख सके ।”[15] कहानी के मंचन द्वारा उसके नाटकीय तत्वों को उजागर करना है । वास्तव में कहानी रंगमंच की अभिनय प्रक्रिया एक पात्र से दूसरे पात्र को प्रतिबिंबित करने की यात्रा जैसी है । जिसमें अभिनेता कभी एक पात्र को मूर्त करता है और फिर उसे छोड़ कर दूसरे या तीसरे पात्रं की तलाश में चल पड़ता है । पात्रों की नाटकीय गतियों, कहानी-वाचन अभिनय, दृश्य परिकल्पना और प्रकाश संयोजन परस्पर घुलती मिलती हुई कहानी को नया रूप देती हैं । ऐसे मंचन में दूसरे उपकरण मौजूद नहीं होते इसीलिए अभिनेता अपनी वाणी और अपने शारीरिक हाव-भाव से दर्शकों को बांधे रखता है ।

निर्मल वर्मा की तीनों कहानियों का मूल विषय अकेलापन है । इन कहानियों के पात्र वर्तमान में रहते हुए अतीत की घटनाओं को जीते हैं । ‘डेढ़ इंच ऊपर’, ‘धूप का एक टुकड़ा’ जैसे फ्रेम की कहानी होते हुए भी अपने अन्तिम स्वरूप में यह उससे बिल्कुल ही अलग होती गई । इसमें भी दो पात्र हैं- एक बोलने वाला और दूसरा सुनने वाला । शुरू में पहली कहानी की तरह यहाँ भी सुनने वाले पात्र की परिकल्पना की गई लेकिन ज्यों-ज्यों कहानी आगे बढ़ती गई, सुनने वाला पात्र बिलकुल ही अनुपस्थित हो जाता है । कहानी का बूढ़ा पात्र बियर पीते हुए खुद ब खुद ही खुलता चलता है । कहानी का स्थान ‘पब’ है किंतु संवादों से कई स्थानों का भ्रमण किया गया है । प्रस्तुतिकरण के बीच-बीच में उसे बीयर ‘सर्व’ करने के लिए एक बेयरा है जो मुख्य पात्र की आवाज़ पर जब-जब बीयर का मग रखने को आता तो अनायास ही कहानी के दृश्य को पुनः ‘पब’ से जोड़ देता है । कहानी में जो घटना है अर्थात ‘पब’ की उस घटना को वैसे ही प्रस्तुत किया है इस कहानी में भी ‘फ़्लैशबैक’ की सहायता नहीं ली गई । मंच पर नीचे ऊपर दो विभिन्न कोनों पर दो मेजें और चार कुर्सियां मात्र है । कहानी में दृश्यों का आरम्भ ‘पब’ से होता है, अन्य दृश्यों को दिखाने के लिए प्रकाश व्यवस्था है जो उसकी रौशनी में बनते मिटते रहते हैं, इनमें कुल मिलकर नौ दृश्य हैं । कहानी के मंचन के आरम्भ में इस प्रकार के दृश्य निर्मित किए गए हैं जिससे स्थिति का पता चलता है । कहानी में दो पात्र हैं मंचन में केवल एक पात्र लिया गया है उस पात्र की उपस्थिति दर्ज कराने के लिए कुछ बातें कही जा रही है । “अपुस्थित श्रोता मानो उसके सामने वाली कुर्सी पर आकर बैठ गया है ।”[16] यहाँ श्रोता से अर्थ कहानी के दूसरे पात्र से है जिसे यहाँ दर्शाया नहीं गया सिर्फ उसके होने का अहसास कराया जा रहा है । दृश्यों में नाटकीयता के लिए तरह-तरह की क्रियाएं कर रहे हैं, ओवरकोट उतार कर रखना, कुर्सी से उठाना फिर बैठ जाना, सिगार जलाना इत्यादि कहानी में इस तरह की कोई क्रिया नहीं है । कहानी को नाटक से जोड़ने की कोशिश की जा रही है । अतिरिक्त पात्र रखा गया है जो बीयर ‘सर्व’ कर रहा है इस पात्र का कहानी से कोई सरोकार नहीं है किन्तु उसके होने से मंच पर चहल-कदमी हो रही है और मंचन की दृष्टी से अतिआवश्यक क्रिया है । कहानी को मंचित करने के लिए निर्देशक ने अपनी ओर से पात्र रखा और अपनी ओर से हटा भी दिया । देवेन्द्र राज अंकुर ने दो पात्र रखें जबकि शिवलकर ने एक ही पात्र से प्रस्तुति दी । इससे प्रयोग से कहानी के मर्म की कोई हानि नहीं हुई । इसी कहानी को अभिनेता राजेश विवेक द्वारा अभिनीत बूढ़ा व्यक्ति एक पात्र भी है और वाचक की भूमिका में वह खुद है । कभी वह स्वयं से बात करता है और कभी सीधे दर्शकों से संबोधित होता है । इसी प्रक्रिया में कभी खाली कुर्सी से मुखातिब होकर अपने एकालाप को संवाद में बदल देता है । यह मंचन करने वाले की खूबी है की वह वर्णनों को व्यावधान न बनाते हुए स्थितियों और बिखड़ी हुई कड़ियों को जोड़ता है ।

निर्मल वर्मा की तीसरी कहानी वीकएंड भी पूरी की पूरी नायिका के ‘स्वचिन्तन’ से सम्बन्धित दिखाई गई है । नायिका का एकालाप होता है किन्तु उससे पहले शारीरिक क्रिया है जिससे दर्शक उसकी ओर आकर्षित हो जाएँ और उसके संवाद से जुड़े । कहानी की शुरूआत सुबह के भूरे आलोक में नायिका की ‘टेपरिकॉर्डर ’ पर आती आवाज़ से की गई ‘‘यह में याद रखूँगी, ये चिनार के पेड़, यह सुबह का भूरा आलोक और क्या याद रहेगा ? पेड़ों के बाद बदन में भागता यह हिरन, आइसक्रीम का कोन, घास पर धूप में चमकता हुआ एक साफ़ धुली पीड़ा की फाँक, जैसा मानो अकेला अपने को टोह रहा हो ।’’[17] मंचन में प्रकाश की व्यवस्था से अँधेरे से शुरू होकर उजाले की तरफ जाना । फिर मुँह अँधेरे में अलार्म की आवाज़ सुनकर ही उसके मुँह से पहले संवाद निकलते हैं । कहानी में संवाद हैं किन्तु उनका कोई उतार-चढ़ाव नहीं है लेकिन मंचन के समय नायिका की चीख, उसका विषाद, उसका अकेलापन सब उसके अभिनय से उसके चरित्र में नज़र आने लगते हैं । नायिका एक ‘वीकएंड’ की समाप्ति पर सुबह-सुबह अपने कमरे पर जाने के लिए तैयार हो रही है, उसका प्रेमी अभी तक पलंग पर सोया हुआ है । इसी बीच पिछले दिन की घटनाओं पर पुनर्विचार करने लगती है और कहानी कमरे से निकलकर एक पार्क में पहुँच जाती है । उस कमरे में कोई नहीं है लेकिन उसकी भाव भंगिमा से यह आभास होता है कि उसके साथ कोई है जिससे वह मिलती है । यह कहानी भी अकेलेपन का एक रूप है नायिका का एकालाप अतीत के पन्नो को फिर से जिन्दा कर देता है । संगीत नायिका के जागने से लेकर उसके प्रस्थान तक धीमी आवाज़ में चलता रहता है । उसके चीखने पर संगीत तेज़ और शांत होने पर मद्धम गति में चलता है । यह संगीत कर्णप्रिय रहता है ताकि दर्शक उससे खुद को जोड़ पाए । इस प्रकार देवेन्द्र राज अंकुर ने निर्मल वर्मा की कहानियों के साथ ऐसा सृजनात्मक परिवेश रचते हैं जिससे अभिनेता मुक्त होकर क्रियाशील हो सकें ।

तीन एकांत की कहानियों को बहुत से रंगकर्म के विद्वानों ने कहानी का रंगमंच कहा है क्योंकि इन कहानियों में सूत्रधार या संवादों का आदान प्रदान नहीं है वह इसीलिए मोनोलॉग है । महत्वपूर्ण बात यह है कि “इस रंग प्रयोग में देखी सुनी जा रही कहानी अपने उप-पाठ की आंतरिक ले की पुनर्रचना बनती है । दरअसल इस प्रयोग में कहानी के उस अदृश्य मर्म को पकड़ने की कोशिश है जो कहीं एक दो शब्दों या वाक्यों के बीच उपस्थित रहता है । इस प्रक्रिया में कहानी की दुनिया छोटी होती हुई भी उन कई अर्थ छायाओं को उजागर करनी है जिनको केवल पढ़ने से अनुभव नहीं किया जा सकता ।”[18] कह सकते हैं की कहानी की प्रस्तुति सम्पूर्ण कहानी को संवाद बनाते हुए उसके कथ्य, निजी रूप, शब्द और उनसे उभरते संगीत एवं ध्वनियों के माध्यम से उसके श्रव्य की अभिव्यंजना होती है । कहानी के मंचन की अभियक्ति इस प्रकार से होती है जिससे दर्शक उन हिस्सों को भी जीता है जो कहानी में लिखी हुई नहीं होती है । कहानी की कई अमूर्त घटनाओं को भी मंचन से नाटक में शामिल कर लिया जाता है जिससे कहानी और भी प्रभावशाली हो जाती है ।

कहानी के रंगमंच से जब हम कहानी के नाट्य रूपांतरण की तरफ बढ़ते हैं तब मंच और भी सक्रीय हो जाता है । जहाँ एकालाप था वह अब पूर्ण रूप से संवाद स्थापित होने लगा है । कथानक, पात्र योजना, संवाद, दृश्यों का संयोजन, प्रकाश व्यवस्था, वेशभूषा में तब्दीली, मुख सज्जा, मंच सज्जा, प्रवेश-प्रस्थान इत्यादि सब बदल जाता है । कहानी के दृश्यकाव्य में संवाद होते हैं लेकिन ठीक उसी तरह नहीं होते जैसे नाटकों में होते हैं । संवाद कहानी से ही प्राप्त होते हैं लेकिन क्रमानुसार नहीं होते है उन्हें अन्वेषित करना पड़ता है । हिंदी साहित्य की प्रारंभिक कहानियों में संवाद काफी संख्या में हुआ करते थे बल्कि बहुत सी कहानियां नाटक की तरह संवादों में ही आगे बढ़ती थी । प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, भीष्म साहनी, फणीश्वरनाथ रेणु, भगवतीचरण वर्मा इत्यादि कथाकारों की कहानियों में अच्छे संवाद की कोई कमी नहीं होती है । नाट्य क्रियाओं की दृष्टी से कुछ कहानियां सम्पन्न होती हैं । ज्यादातर कहानियों में नाट्य क्रिया सीधे साफ़ दिखाई नहीं देती पर उनमें जरुर रहती हैं । प्रेमचंद की सौ कहानियों से अधिक का नाट्य रूपांतरण और मंचन हुआ है । उनकी प्रसिद्द कहानी ‘ईदगाह’ को बहुत सी संस्थाओं ने मंच पर उतारा है । इस कहानी में संवाद, दृश्य, समय, भाव, परिवेश सब मौजूद है फिर भी प्रेमचंद ने ईदगाह में मेला जाते समय हामिद के कपड़ों का जिक्र नहीं किया है और न ही अन्य लड़को के बारे में कुछ लिखा है परंतु मंचन करने वाले को यह स्वयं अनुमान लगाना होगा कि हामिद नंगे पैर होगा, उस के कुरते में पैबंद लगे होंगे जबकि अन्य लड़कों के अच्छे कपड़े उनकी अच्छी आर्थिक स्थिति के सूचक होंगे । ईदगाह का वह हिस्सा जहाँ हामिद इस द्वंद्व में है कि क्या-क्या खरीदे या जहाँ वह यह सोचता है कि अम्मा का हाथ जल जाता है उसका रूपांतरण कठिन है । रूपांतरण में इस तरह के विवरण प्रस्तुत करने के लिए ‘स्वगत’ कथन का प्रयोग किया जाता है जिसमें अभिनेता मंच के कोने में जाकर अपने आप से यह संवाद बोलता है लेकिन आजकल ‘वायस ओवर’ अर्थात ऐसी ध्वनि जो दर्शकों को सुनाई देती है पर पात्र नहीं बोलता के माध्यम से संभव है । अम्मा वाले अंश के लिए फ़्लैशबैक शैली का उपयोग किया गया है । इसी प्रकार हामिद की ललचाई आँखो, होठों पर जीभ फेरते और बाद में भारी कदमों से दुकान से दूर जाने का दृश्य बनाया जाता है । यही दूसरी ओर रामायण कथा का ‘नाट्य रूपांतरण (रामलीला)’ स्थानीय रंग में संवादों को रंग कर चरित्र-चित्रण को परिमार्जित किया जाता है । जहाँ भाषा का रूप परिवर्तित हो जाता है । ध्वनि और प्रकाश भी चरित्र-चित्रण करने तथा संवेदनात्मक प्रभाव उत्पन्न करने में कारगर सिद्ध होते हैं । रूपांतरण में एक समस्या पात्रों के मनोभावों को कहानीकार द्वारा विवरण के रूप में व्यक्त किए प्रसंगों या मानसिक द्वंद्व के दृश्यों की नाटकीय प्रस्तुति में आती है ।

निष्कर्ष

            स्पष्ट है कि कहानी के मंचन में कथानक की अभिव्यक्ति अभिनेता और निर्देशक के ऊपर निर्भर है । वह उसकी मार्मिकता को किस स्तर पर ले जाना चाहता है । लिखित कथा को मंच पर प्रस्तुत करने पर कथा की भावभूमि और उसका प्रभाव दोनों ही में सामंजस्य बैठाना ही नाट्य रूपांतरण का मूल आधार है ।

सहायक ग्रन्थ सूची

  • मेरी प्रिय कहानियां – निर्मल वर्मा,  राजकमल प्रकाशन
  • तीन एकांत (धूप का एक टुकड़ा, डेढ़ इंच ऊपर और वीक एन्ड कहानियों का नाट्य रूपांतरण) – निर्मल वर्मा, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 1990
  • नाटक और रंगमंच – सम्पादक – ललित कुमार शर्मा ‘ललित’, डॉ भानु शंकर मेहता  प्रभा प्रकाशन, संस्करण 1985
  • कथा कोलाज़ (भाग 1-2) – दिनेश खन्ना, राष्टीय नाट्य विद्यालय, संस्करण 1994
  • रंग दर्शन – नेमिचंद्र जैन, राधाकृष्ण प्रकाशन, संस्करण 1983
  • समकालीन हिंदी नाटक और रंगमंच – संपादक डॉ. विनय, भारतीय भाषा प्रकाशन, संस्करण 1981
  • अभिव्यक्ति और माध्यम – एन. सी. ई. आर. टी. दिल्ली (कक्षा 11-12) संस्करण 2006
  • कहानी का रंगमंच – संपादन – महेश आनंद, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2001
  • कहानी का रंगमंच और नाट्य रूपांतरण – डॉ. करन सिंह उत्वाल, गोविन्द पचौरी जवाहर पुस्तकालय मथुरा, संस्करण 2008
  • रंग प्रक्रिया के विविध आयाम – संपादक – प्रेम सिंह, सुषमा आर्य, राधाकृष्ण प्रकाशन, संस्करण 2007

पत्रिकाएं

  • वागर्थ – मई 2013, संपादक – एकान्त श्रीवास्तव, कुसुम खेमानी
  • समकलीन भारतीय साहित्य – वर्ष 40अंक 204 जुलाई अगस्त 2019 संपादक मंडल – चंद्रशेखर कंबार, माधव कौशिक, के श्रीनिवासराव, अतिथि संपादक ब्रजेन्द्र त्रिपाठी
  • इन्द्रप्रथ भारती – संपादक – जीतराम भट्ट, नवम्बर दिसम्बर 2018
  • समीक्षा – संपादक – सत्यकाम, अंक जनवरी मार्च 2018, वर्ष 50 अंक 4
  • बहुवचन – प्रधान संपादक गिरीश्वर मिश्र, संपादक अशोक मिश्र महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
  • अनभै सांचा – जनवरी जून 2018, सम्पादक – द्वारका प्रसाद चारुमित्र

[1] कहानी का रंगमंच : संपादन – महेश आनंद, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 45

[2] हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली – डॉ अमरनाथ, पृष्ठ संख्या 110

[3] हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली – डॉ अमरनाथ, पृष्ठ संख्या 109

[4] ई.एम. फ़ार्स्टर – एस्पेक्ट्स ऑव द नावेल, पृष्ठ संख्या 29

[5] कहानी का रंगमंच : संपादन – महेश आनंद, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 15                                                                           

[6] तीन एकान्त की भूमिका –  निर्मल वर्मा, पृष्ठ संख्या 03

[7] कहानी का रंगमंच – महेश आनंद, पृष्ठ संख्या 14

[8] कहानी-रंगमंच का अनुभव – भीष्म साहनी,  कहानी का रंगमंच – महेश आनंद, पृष्ठ संख्या 31

[9] नया मुहावरा – कहानी का रंगमंच – महेश आनंद, पृष्ठ संख्या 124 

[10] तीन एकांत – निमल वर्मा, पृष्ठ संख्या 11

[11] उसने कहा था – चंद्रधर शर्मा गुलेरी, पृष्ठ संख्या 65

[12] धूप का एक टुकड़ा – निर्मल वर्मा, पृष्ठ संख्या 31

[13] धूप का एक टुकड़ा –  तीन एकांत, निमल वर्मा, पृष्ठ संख्या 12

[14] कहानी का रंगमंच और नाट्य रुपान्तरण – करण सिंह उत्वल, पृष्ठ संख्या 67

[15] तीन एकांत – निर्मल वर्मा, पृष्ठ संख्या 08

[16] डेढ़ इंच ऊपर- तीन एकांत, निर्मल वर्मा, पृष्ठ संख्या 39

[17] वीक एंड- तीन एकांत, निर्मल वर्मा, पृष्ठ संख्या 55

[18] रंग प्रक्रिया के विविध आयाम – संपादक प्रेम सिंह, सुषमा आर्य, पृष्ठ संख्या 134