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साहित्य संवाद द्वारा आयोजित काव्य गोष्ठी

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11 मार्च को स्त्री अधिकारों की प्रखर प्रवक्ता और भारत की पहली शिक्षिका, संवेदनशील कवियत्री, सामाजिक चिंतक और महान समाज सुधारक ,क्रांतिकारी सावित्रीबाई फुले की स्मृति दिवस( 10 मार्च) पर साहित्य संवाद द्वारा आयोजित काव्य गोष्ठी में आप सादर आमंत्रित हैं।

जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘लोकभाषा विशेषांक’ (अवधी प्रभाग): अतिथि सम्पादक शैलेन्द्र कुमार शुक्ल

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संपादकीय
जनकृति पत्रिका में लोकभाषा विशेषांक के अंतर्गत अवधी प्रभाग का सम्पादन करते हुए यह महसूस हुआ कि मातृभाषाओं के प्रति अभी हिंदी वालों का रुख आधुनिक संदर्भों में बहुत कुछ संकुचित है। लोकभाषा या मातृभाषा के हक की बात होते ही बहुत से कट्टर साम्राज्यवादी हिंदियों के पेट पिराने लगते हैं। उन्हें लगता है कि अवधी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, बघेली, कन्नौजी आदि तमाम भाषाएँ अगर अपने अस्तित्व की बात करने लगेंगी तो हिंदी का वर्चस्व टूट जाएगा, और हिंदी के भाषा-भाषी कम हो जाएंगे, इस तरह हिंदी संकट की स्थिति में बुरे फंस जाएगी। मुझे लगता है कि अगर हिंदी इतनी ही कमजोर और दयनीय भाषा है तो इसे चुक जाना ही जायज है। और अगर ऐसी बात है तो हिंदी आने वाले समय में संस्कृत की तरह देवलोक की नियति बन कर रह जाएगी। 
आज हमें यह फिर से सोचना चाहिए कि आखिर हिंदी है क्या! उसकी जमीनी ताकत कहाँ है , उसका संकोच और विस्तार कहाँ-कहाँ निहित है। इसके हितैसियों को कम-से-कम भावुक होकर नहीं घबराना चाहिए, कि हिंदी के नाम पर उनका जो धंधा चल रहा है वह बैठ जाएगा। हिंदी हमारी संपर्क भाषा है वह एक मानकीकृत व्याकरण से बाकायदा तैयार की हुई भाषा है। इस भाषा को मानक गद्य के लिए सोच-समझ कर तमाम हिंदियों के बीच से ठीक किया गया है। इसका काम सम्पूर्ण भारतवर्ष को एक सूत्र में बांधने की प्रतिबद्धता का था लेकिन जल्दबाज़ी में और अपनी कमजोरियों के चलते पूरे भारत में न सही कम-से-कम उत्तर भारत को तो जोड़ने का काम इसने प्रमुखता से किया ही है। और यह आगे भी यह काम करती रहेगी। 
सबसे पहले हमें हिंदियों और हिंदी के बीच फर्क समझ लेना चाहिए। हिंदी शब्द का प्राचीन प्रारूप आप यदि देखे तो समझ जाएंगे की कि हिंदी शब्द का प्रयोग बहुबचनात्मक रूप में होता था। प्रांत विशेष के लोगों के लिए। आज समझने के लिए हमारे पास और भी दूसरे उदाहरण हैं। जैसे पंजाब के लोगों को बाहर वाले आज भी पंजाबी कहते हैं। इसका मतलब वहाँ की जनता को हम पंजाबी कहते हैं यह उनकी ‘पहचान’ का शब्द है। उनके व्यवहार और साहित्य की भाषा भी पंजाबी जानी गई। यहाँ जो पंजाबी बनी वह कई पंजाबियों में से एक मानकीकृत है। इसे संस्कृत से भी समझ सकते हैं। संस्कृत अपने समय की एक मानकीकृत रूप में राजाश्रित हो कर प्रतिष्ठित हुई उस समय हम जानना चाहें तो जानेंगे की कई संस्कृतें मानुष व्यापार में थीं। फिराक साहब को याद करते हुये विश्वनाथ त्रिपाठी ने इस बात का जिक्र भी किया है। फिराक साहब यह मानते और जानते थे- 
“फिराक साहब केवल ऐसी ही बातें नहीं करते थे, दूसरी बातें भी करते थे जैसे एक बात पहले पहल उन्होंने ही मुझसे बताई है। एक दिन वे कहने लगे कि पाणिनी के जमाने में नब्बे संस्कृतियाँ चलती थीं और उसमें से एक को स्टैंडर्डाइज किया था पाणिनी ने। फिराक साहब संस्कृत को संस्कृतियाँ कहते थे। उनके कहने का मतलब था संस्कृतें। तो फिराक ने जब ये बात मुझे बताई तो मैं सुन रहा था लेकिन उनका चेहरा एकदम से बदल गया और बोले कि ‘तुम तो बिल्कुल इंसेन्सेटिव आदमी हो। इतनी बड़ी बात मैं कह गया और तुम्हारे चेहरे पर कोई इमोशन ही नहीं आया। जब मैंने पहले पहल ये बात डॉ. तारा चंद के मुँह से सुनी थी तो मैं तो तीन दिन तक रक्स करता घूमा था।’” 
यहाँ जो नब्बे संस्कृतियां (संस्कृतें) फिराक साहब कह रहे हैं इसका मतलब उस समय बहुत सी और भी भाषाएँ थी जो जीती-जागती थी। संस्कृत सत्ता और शासन के लिए तैयार की गई भाषा थी, यह मानक रूप में लाई गई थी, जैसे तमाम हिंदियों के बीच से एक खड़ी को मानकीकृत कर हिंदी के रूप में सरकारी कामकाज के लिए उपयोगी बनाई गई। यह सिर्फ भारत में संस्कृत और हिंदी के साथ घटित होने वाली घटना नहीं है यह दुनिया के तमाम देशों की पुरानी भाषाओं के साथ यही हुआ है। इसे शुद्धतावादी सुन कर अपवित्रता महसूस कर सकते हैं। जिस समय संस्कृत का मानकीकृत रूप सामने आया तो इसका मतलब यह कतई नहीं हो सकता की दूसरी संस्कृतें सभ्यता के ठेकेदारों ने मिटा दी होंगी, या उनके बलबूते यह संभव हो सका हो । वह भी जीवित रहीं। पाली और प्राकृत इसके प्रमाण हैं। आज जिन्हें मैं हिंदियाँ कह रहा हूँ इनके प्राचीन रूप कभी फिराक की भाषा में नब्बे संस्कृतों में मौजूद थे। 
आजकल मातृभाषाओं के संविधान की अष्टम अनुसूची में शामिल होने की बात लगातार उठ रही है, इनमें सबसे प्रमुख स्वर भोजपुरी का है। भोजपुरिए अपनी आवाज सत्ता तक लगातार पहुंचा रहे हैं और अपनी वाजिब मांग रख रहे हैं। वह जिस भाषा में जीते-जागते हैं उसके लिए उनका आवाज उठाना उनकी संस्कृति धर्मिता को पुष्ट करता है। यह काम सारी उपेक्षित मातृभाषा वालों को नितांत आवश्यक रूप में करना चाहिए। दरअसल ये मूल-भाषाएँ बचेंगी तो हिंदी भी बची रहेगी, इनमें ही हिंदी की ताकत निहित है, यह संपर्क-रूप में हिंदी को अपनाते हैं। इनकी पहली स्कूलिंग के तौर पर सीखी हुई भाषा हिंदी है। मातृभाषाओं को सम्मानित संवैधानिक दर्जा मिलने से हिंदी की संपर्क-भाषिक आवश्यकता ठीक तरीके समझी जा सकेगी। इससे हिंदी का कोई नुकसान नहीं होगा हाँ हिंदी के एकल वर्चस्ववादी मठाधीशों के सामने अन्य, इत्यादि या हासिए के लोग भी सम्मान का भाव अपने में जगा सकने में समर्थ होंगे। 
अवधी प्रभाग की संपादकीय अवधी में ही लिखने का मन मेरा मन था, लेकिन इधर उठे सवालों को ध्यान में रखते हुए, और उनके लिए भी जो सवाल धांगेने में तो माहिर हैं लेकिन अवधी आदि मातृभाषाओं की समझ नहीं। कहेंगे यह तो समझ में ही नहीं आता तब याद आते हैं लोकविद विजयादान देथा, आचार्य किशोरीदास वाजपेई जो यह कब से अपने पुष्ट तर्कों पर यह ख़ारिज करते आए हैं यह हिंदी से इतर भाषाएँ हैं। इस बोध के बावजूद हिंदी वर्चस्ववाद का झण्डा उठाने वालों को और मातृभाषाओं को बोली कह कर छुट्टी लेने वालों को शर्म नहीं आती। खैर राहुल सांकृत्यायन जी ने इन्हें खूब फटकारा था, काश उन्हें ही पढ़े होते यह। यह काम हिंदी में इन्हीं वीरों के लिए कर रहा हूँ। वैसे संपादकीय का काम पत्रिका के लिए नितांत आवश्यक नहीं होता, फिर भी अपने उद्देश्य बताने में क्या हर्ज। यह अवधी वाले तो समझेंगे ही बाकी जो हिंदी के शुद्धतावादी मानकीकृत पुरोहित हैं वह भी समझ सकेंगे। 
दो-तीन महीने पहले जब लोकभाषा विशेषांक निकालने की बात बनी तो यह बात फेसबुक के माध्यम से हमने लोगों तक पहुंचाई। इसकी सूचना लगते ही हिंदी को बचाने की पैरोकारी करते हुए एक पहला आलेख परम हिंदी भावुक प्रेमी डॉ. अमरनाथ जी का मिला, जिसमें उन्होंने यह आपत्ति जताई कि यह हिंदी विरोधी काम हो रहा है। वह बहुत आहत थे। मैं उस समय से यह सोच रहा हूँ कि 1857 से अब तक हिंदी वालों ने कितने अवधी, ब्रजभाषा, भोजपुरी, मगही, मैथिली, कन्नौजी, इत्यादि अनेकों मातृभाषा विरोधी काम किए हैं, उनके इतिहासों में आधुनिक युग का अवधी साहित्य कहाँ हैं, पढ़ीस का मूल्यांकन कहाँ किया हैं इन्होंने, वंशीधर शुक्ल पर कितनी बात की है हिंदी के आलोचकों ने, रमई काका को अब तक किस किताब में पूछे हो। अवधी यदि हिंदी की बोली थी तो इसकी कितनी परवाह आप ने की है। अमरनाथ जी से मैं यह पूछना चाहता हूँ कि रामचरितमानस और पद्मावत के बिना तो आप तो आप काल विशेष को स्वर्ण नहीं कर सकते लेकिन आधुनिकता में थोड़ा खड़ी देख आप सब के साथ ताला-बंद साजिश करने में क्यों मशगूल हुए ? आप ने कितनी परवाह की है मातृभाषाओं की ? आप की इस कायरता को हम क्या कहें कि अवधिये और भोजपुरिये या और सब जो अपनी मातृभाषा में सपना देखते हैं, अपने भाषिक सम्मान की बात करें, साहित्य लिखें, अपनी बात उठाएँ, पत्रिका निकालें, आठवीं अनुसूची में दर्जा मांगे तो आप जैसे हिंदी वालों का दम क्यों घुटने लगता है ? आप की हिंदी ‘चिंदी-चिंदी’ क्यों होने लगती है ? जब की आप की हजार साजिशें और अपमान का घूंट पीकर भी ये मातृभाषाएँ जीवित हैं। 
बाकी बातै फिर कबहूँ होंइहें। अभै बस एतना कि विशेषांक मा अवधी प्रभाग के सम्पादन का जोन काम मिला वहिते यहि बात केर पता चलत की अवधियन का अबही बहुत मेहनत की जरूरत आय। यह ई-पत्रिका आय और पूरेरूप ते अव्योसाइक आय, हम साहित्यिक सामाग्री टाइप करावे का खर्चा उठावे लिए सक्षम न हन, और हमार बहुत अवधिया साहित्यकार कंपूटर की तकनीक ते दूरि हैं, यहिव कारन ते कुछ-कुछ छूटि गा। कुछ पुरान अवधिया यहि कारन हियन न भेजि पाये कि यहि मा कोई नए आदमी लोड न लेय लागें । कुछ ते खूब खुशामद किएन लेकिन बाज न आए। लेकिन जौन कुछ अपने सुधी-बुधी-जन भेजिन और उत्साह देखाइन, औ ताकत दिहीन उनके हम आभारी हन। हम जस यहु अवधी अंक सोचे रहन, वैस न बन सका, यहि बात का हमका खेद है लेकिन यहिके एक कोशिश समझा जाय । हियाँ जौन मटेरियल टाइप मिला वाहिमा ते नीक-नीक छांटि के अविकल प्रस्तुत किन गा है। यहि विशेषांक निकारे मा बड़े भाई और प्रगतिशील अवधिया अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी का बड़ा योगदान रहा, उनके सहयोग के बिना यहु संभव न रहे। बाकी जिनका सहयोग रहा उनका आभार और जौन असहयोग करिन उनकौ धन्यबाद ।

 -शैलेन्द्र कुमार शुक्ल

वर्धा, महाराष्ट्र

[अंक प्राप्त करने हेतु लिंक पर जाएँ- http://jankritipatrika.com/]

विश्वहिंदीजन (हिंदी भाषा सामग्री का ई संग्राहलय एवं हिंदी रचनात्मकता के प्रचार-प्रसार का मंच) से जुडें एवं अपने रचनात्मक कार्यों को अत्याधिक पाठकों तक पहुंचाएं

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जनकृति के उपक्रम विश्वहिंदीजन (हिंदी भाषा सामग्री का ई संग्राहलय एवं हिंदी रचनात्मकता के प्रचार-प्रसार का मंच) को सितम्बर 2016 में प्रारंभ किया गया. आज 120 से अधिक देशों से विश्वहिंदीजन को 1 लाख से अधिक बार देखा जा चुका है. हम निरंतर प्रयास कर रहे हैं कि आपके समक्ष सृजन के प्रत्येक क्षेत्र से हिंदी भाषा में सामग्री उपलब्ध करवा सके. प्रतिदिन नवीन जानकारियों के साथ-साथ संकलन का कार्य भी किया जा रहा है, जिसमें आपके सहयोग की भी आवश्यकता है. यदि आप अपनी रचना, लेख, पत्रिका, पुस्तक इत्यादि की जानकारी अत्याधिक पाठकों तक पहुंचाना चाहते हैं तो vishwahindiajan@gmail.com पर मेल करें. सामग्री के साथ चित्र अवश्य भेजें. 


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हिंदी टाईप करने हेतु फॉण्ट एवं सॉफ्टवेयर की जानकारी हिंदी में यहाँ प्राप्त करें-

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आज हिंदी टायपिंग को लेकर तरह-तरह के टूल्स इन्टरनेट पर मोजूद है. आप हिंदी में भी आकर्षक दिखने वाले फॉण्ट प्राप्त कर सकते हैं. हम यहाँ आपको कुछ ऐसे ही हिंदी फॉण्ट प्राप्त करने हेतु वेबसाईट की जानकारी दे रहे हैं. फॉण्ट प्राप्त करने हेतु नीचे दिए वेबसाईट लिंक पर जाएँ-
http://lawmin.nic.in/lawhindi.htm
http://yemista.com/creative-hindi-fonts-for-free-download/
http://indiatyping.com/index.php/download/hindi-fonts
http://hindi-fonts.com/
http://www.easynepalityping.com/download-hindi-fonts
http://www.lipikaar.com/support/download-unicode-fonts-for-hindi-marathi-sanskrit-nepali
http://www.ffonts.net/Hindi.html
http://fonts.webtoolhub.com/?prefix=kruti+dev+hindi+40+or+windows+7+free+download
http://villagranderesort.com/resume-in-hindi-font

यदि आप हिंदी सरल रूप में टाईप करना चाहते हैं तो गूगल इनपुट टूलबार डाउनलोड कर सकते हैं. इस टूलबार को नीचे दिए लिंक से प्राप्त करें. कंप्यूटर में सॉफ्टवेयर इंस्टाल होने के पश्चात शिफ्ट+ऑल्ट का बटन दबाएँ और हिंदी टाईपिंग शुरू करें. यूनिकोड में हिंदी टायपिंग हेतु आप जिस तरह किबोर्ड में टाईप करेंगे वैसे ही हिंदी में टाईप होगा. उदाहरण के लिए कुमार टाईप करने के लिए आप KUMAR लिखें.

सोफ्टवेयर लिंक-
http://www.google.co.in/inputtools/windows/ 

समीक्षा की दहलीज पर उपेक्षित रचनाएं: कौशलेंद्र प्रपन्न

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समीक्षा की दहलीज पर उपेक्षित रचनाएं

कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा एवं भाषा विशेषज्ञ
टेक महिन्द्रा फाउंडेशन
दिल्ली
आज साहित्य की विभिन्न विधाओं में हजारों की तदाद में रचनाएं हो रही हैं। यदि साहित्यिक वैश्विक पटल पर देखें तो रोजदिन साहित्य की रचना विभिन्न माध्यमों में हो रही हैं। वह माध्यम चाहे मुद्रित हो व गैर पारंपरिक हर माध्यम में रचनाएं की जा रही हैं। तकनीक के विकास के साथ ही लेखन की चैहद्दी टूट गई है। अब सोशल मीडिया में भी साहित्यिक रचनाएं लगातार हो रही हैं। लेखक अब किसी भी संपादक, पत्र-पत्रिका आदि का मुंहताज नहीं रहा। जो लिखता है वो प्रकाशित व वेबकास्ट करता है। वेबकाटिंग और अभिव्यक्त करने में आज कई सारी बाधाएं खत्म हो चुकी हैं। जो लिखेगा वो छपेगा। जो छपेगा वेा लिखेगा। इस सिद्धांत पर लोग लिख और छप रहे हैं। वह छपना चाहे आपके फेसबुक पेज हो, ब्लॉग पर हो या फिर लिंगडेन आदि वेब पन्नों पर हो, कुल मिलाकर लोग लिख रहे हैं। धड़ाधड़ लिखना और बाजार में फेंकना जारी है। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि जो चीजें लिखी जा रही हैं क्या उन्हें हम साहित्य मानें यानी त्वरित टिप्पणियों की श्रेणी में रखें। सवाल यह भी उठता है कि वर्तमान समय में लिखी जा रही कविताएं, कहानियां, व्यंग्य, टिप्पणियां क्या साहित्य में गिनें या महज गद्य की विधाओं की रचनाओं के खांचे में डालें। अब एक अहम सवाल यह भी उठता है कि जो लिखा जा रहा है क्या उसका मूल्यांकन,समीक्षाएं,जांच पड़ताल जैसी कोई चीज हो भी रही है या नहीं। क्योंकि जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसकी महत्ता और औचित्य का निरीक्षण करना भी आवश्यक है। दूसरे शब्दों में उपरोक्त माध्यमों में लिखी जा रही रचनाओं का समुचित मूल्यांकन और समीक्षा होना जरूरी है। 
एक ओर पारंपरिक प्रकाशन घराने हैं जहां किताबों को प्रकाशित करने से पूर्व संपादक मंडल यदि है तो, में रखा जाता है। जब संपादक मंडल किसी भी पांडुलिपि को छपने योग्य समझती है तब वह अनुमोदन देती है। लेकिन आज जिस तेजी से प्रकाशन घरानों में इजाफा हुआ है उसी रफ्तार से संपादक मंडल सिमटते गए हैं। अब वहां संपादक नाम का जीव अव्वल तो रहा नहीं और यदि है भी तो उसकी हैसियत दंत विहीन कर दी गई है। ऐसे में किताबें छापना एक अन्य व्यवसाय की भांति ही उत्पाद वस्तु में तब्दील हो चुकी है। जहां कंटेंट से ज्यादा मुद्रा अहम हो चुका है। यह किसी से भी दबा छुपा तथ्य नहीं रहा है कि ले देकर किताबें छापी जा रही हैं। ऐसे में क्या लिख गया है, कैसे लिखा गया है, आदि की जांच करने वाला कोई नहीं हैं। तुर्रा यह कि लेक्चरर व्यवसाय में किताबें छपीं हों जिसपर प्वांइंट मिला करती हैं इस नियम के बाद जहां कहीं से भी जैसे भी हो कुछ भी छपा लो साथ ही पीएचडी थिसिस भी छपा कर अंक लेने में लगे हैं। 
आज लेखक बिना इंतजार किए तुरत फुरत में छप जाना चाहता है। जिस आनन-फानन में छपता है उसी जल्दबाजी में पुस्तक लोकार्पण कराना भी उसकी सूची में शामिल होता है। दस बीस कॉपी लेकर अपने स्वजन परिजनों में बांट कर शांत हो जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में एक अहम बिंदु कहीं पीछे छूट जाती है किताब व रचना का मूल्यांकन। यहां भी बड़ा झोल है। अपने परिचितों से समीक्षा करा कर किसी पत्रिका में भेज देना भी खासा आम परिघटना है। यदि समीक्षा नहीं छपी तो रात की नींद खराब हो जाती है। इसलिए अपनों से आग्रह कर समीक्षाएं भी लिखा ली जाती हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि किताब की समीक्षा की जा रही है या पुस्तक परिचय लिखा जा रहा है क्योंकि अमूमन समाचार पत्रों में छपने वाली समीक्षाएं दरअसल पुस्तक परिचय हुआ करती हैं। क्या समीक्षा छह सौ से हजार शब्दों में संभव है? इस हकीकत से भी हम नहीं बच सकते कि विभिन्न पत्रों में छपने वाली पुस्तक समीक्षाएं आज सिर्फ परिचयात्मक लेख में परिवर्तित हो चुकी हैं। उसमें समीक्षा के छौंक लगा कर बेचे जा रहे हैं। 
यह एक चिंता का विषय है कि समाचार पत्रों में बहुत तेजी से साहित्यिक पन्ने सिमटते चले गए। उसमें भी भाषायी समाचार पत्रों में अंग्रेजी के एक दो अखबारों में साहित्य के लिए पर्याप्त जगह दी जाती है। उसमें भी साक्षात्कार, समीक्षाएं, आलेख आदि मिल जाती है। इस दृष्टि से हिन्दी के समाचार पत्रों में सूखा नजर आता है। एक पन्ने पर समीक्षा, किताब परिचय, लेख सबका एक आस्वाद परोस दिया जाता है। यूं तो एक ही पन्ने पर साहित्य की विविध छटाओं का आस्वाद मिल जाता है लेकिन समस्या यह है कि किसी एक विधा का पूरा विस्तार नहीं हो पाता। ऐसे में जरूरी है कि हमें साहित्य के लिए समाचार पत्रों,पत्रिकों में समुचित स्थान मुहैया कराया जाए ताकि खुल कर समीक्षा किया जा सके। 
कहानी,कविता, व्यंग्य एवं उपन्यास विधा में प्रचूर मात्रा में लिखी जा रही हैं। हर साल कम से कम हिन्दी में हजारों पुस्तकें इन विधाओं में छपती हैं। लेकिन जब हम समीक्षा, आलोचना, निबंध की बारी आती है तब यह संख्या सौ के अंदर सिमट जाती है। समीक्षा और आलोचना विधा में न तो पर्याप्त प्रमाणिक किताबें हैं और न समीक्षक ही जो पूर्वग्रह रहित समीक्षाकर्म में लगे हैं। यहां इन पंक्तियों का अन्यथा अर्थ न लिया जाए बल्कि यहां सिर्फ यह कहने की कोशिश की जा रही है कि समीक्षा विधा में भी गंभीर काम होना अभी बाकी है। यूं तो साहित्य की तमाम विधाओं श्रमसाध्य कर्म हैं। लेकिन इससे किसे गुरेज होगा कि समीक्षा, मूल्यांकन उससे भी ज्यादा गंभीरता की मांग करता है। पहला शर्त तो यही कि वह साहित्य प्रेमी हो। साहित्य की समझ रखता हो। और उसमें विभिन्न वादों और वैचारिक प्रतिबद्धताओं से विलग होकर रचना को परखने की दृष्टि हो। दूसरा उसके पास समुचित समय हो ताकि पढ़कर समीक्षा लिख पाएं। क्योंकि देखा तो यह भी गया है कि कई बार समयाभाव में महज फ्लैप पढ़कर या दस बीस पन्ने पलट कर समीक्षाएं लिख दी जाती हैं। 
दरअसल समीक्षा व आलोचना की गंभीरता आज छिजती जा रही है। यदि एक नजर लेखकीय सत्ता पर डालें तो वहां केवल और केवल लेखन पर ध्यान दिया जा रहा है। वह रचना कैसी है? किस स्तर की है? उससे कौन सा वर्ग लाभान्वित होने वाला है इसपर भी कोई खास तवज्जो नहीं दिया जाता। पुस्तक लिखने के पीछे व काव्य, कथा सृजन का उद्देश्य क्या है और वह अपने उद्देश्य किस स्तर तक सफल हुआ इसे जांचने परखने वाले बहुत कम हैं। कायदे से इस विधा को और समृद्ध करने के लिए कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। होता तो यह चाहिए कि जिस तरह से तमाम दक्षता विकास के लिए कार्यशालाएं होती हैं। इसी तर्ज पर हमें ऐसी कार्यशालाओं आयोजन समय समय पर करना चाहिए जिसका उद्देश्य प्रतिभागियों में रचना समीक्षा एवं आलोचना के कौशल प्रदान किया जा सके। दूसरे शब्दों में जिस तरह से काव्य पाठ, कथा लेखन कार्यशालाएं होती हैं उसी तरह समीक्षा-आलोचना प्रशिक्षु कार्यशालाओं की योजना बनाई जा सकती है। इसमें न केवल विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग बल्कि अन्य साहित्यिक संस्थाएं भी अपनी कार्ययोजना में इसे स्थान दे सकती हैं। हर वर्ष शोध पत्रों, सेमिनार, बैठकों आदि का आयोजन तो होता ही है कितना अच्छा हो कि इस विषय पर भी गंभीरता से विमर्श किया जाए। हमारे पास साहित्य अकादमी, हिन्दी अकादमी, आईसीसीआर आदि शैक्षिक और अकादमिक संस्थाएं हैं जो चाहे तो इस कार्य को आगे बढ़ा सकते हैं। क्योंकि इन संस्थाओं के मार्फत एक ओर से साहित्य समाज को मजबूती मिलती है वहीं दूसरी ओर साहित्यकारों की नई पौध भी रोशनी में आती हैं। इन संस्थाओं का कार्य सिर्फ साहित्य छापना ही नहीं होना चाहिए बल्कि साहित्य की परंपरा को भी अग्रसारित करने वाले घटकों को सुदृढता प्रदाना करना भी है। 
भारतीय भाषाओं में लिखी जाने वाली रचनाओं को प्रकाशित कर पाठक समाज को सौंपने का काम तो कई सारी संस्थाएं, प्रकाशन संस्थान आदि कर रही हैं। लेकिन रचना समीक्षा-आलोचना की नई पौध तमाम आलोचकीय संसाधनों से लैस हो इसके लिए बहुत कम प्रयास हो रहे हैं। इसका जीता जागता उदाहरण हम छपने वाली विधाओं की किताबों यानी कविता, कहानी, उपन्यास, डायरी, यात्रा वृत्तांत आदि तो बहुतायत मात्रा में मिलेंगी लेकिन उस अनुपात में यदि समीक्षा, आलोचना एवं निबंध आदि विधाओं में किताबों की खासा कमी महसूस होती है। एक ओर हिन्दी और भारतीय भाषाओं में कविता,कहानी आदि विधाओं को ध्यान में रखते हुए तमाम पत्रिकाएं छप रही हैं। कथा, कथादेश, अवां,पाखी, हंस, वागार्थ,तद्भव,पुस्तक वर्ता, समीक्षा, आलोचना, संदर्भ, आधुनिक साहित्य, समकालीन साहित्य, तीसरी दुनिया, भाषा,आजकल,लमही, साहित्य अमृत,समयांतर आदि। जितनी पत्रिकाएं कविता कहानी आदि विधाओं के लिए छप रही हैं उस दृष्टि से देखें तो आलोचना, समीक्षा की पत्रिकाएं बेहद कम हैं। ये तो कुछ वे पत्रिकाएं हैं जो मुद्रित रूप में नियमित छपा करती हैं। वहीं दूसरी ओर इन्हीं के समानांतर सोशल मीडिया के आंगन में झांकें तो पाएंगे कि हजार से भी ज्यादा वेब पत्रिकाओं की भरमार है। हर ई पत्रिका अपने आप को अंतरराष्टीय शोध एवं साहित्य की पत्रिका होने का दावा करती हैं। यदि उन ई पत्रिकाओं के कंटेंट पर नजर डालें तो एक बारगी खुशी तो होती है कि कम से कम लोग लिख पढ़ रहे हैं। कुछ पत्रिकाओं में अच्छी पठनीय सामग्री भी छापी जा रही हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ पत्रिकाओं में महज कविताओं,लंबी कहानियों से कागजों के पेट ही भरे जा रहे हैं। 
ई पत्रिकाओं के अलावा कुछ वेब ब्लाॅग भी काफी सक्रिय हैं जहां हमें साहित्य मिल जाया करता है। लेकिन उनके पास आर्थिक मजबूरी ही होगी कि वे मुद्रित रूप में पत्रिका निकाल पाने में सक्षम नहीं हैं। ब्लाॅग, ई पत्रिका, फेसबुक पेज आदि पर रोज दिन कहानियां, कविताएं, व्यंग्य आदि लिखी और वेबकास्ट हो रही हैं। देखना यह है कि जब हिन्दी और साहित्य की करवटों का इतिहास लिखा जाएगा तब क्या इन आभासीय साहित्यों की कहीं कोई चर्चा होगी। क्या इस साहित्य को दस्तावेजित किया जाएगा। सवाल यह भी है कि कविता कहानी,उपन्यास के इस बाढ़ में क्या कोई समीक्षा-आलोचना को भी पार उतारेगा। इस नाव का खेवनहार कौन और कब आएगा?
वर्तमान साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में यह देखना भी दिलचस्प होगा कि इन पत्रिकाओं में किस तरह की समीक्षाएं छप व छापी जा रही हैं। इन विषयों पर भी ठहर कर विमर्श करने की आवश्यकता है। किताब की समीक्षा हो न कि महज पुस्तक परिचय छापा जाए। हालांकि पुस्तक परिचय भी गलत नहीं है क्योंकि इस किस्म की पुस्तकीय परिचय कम समय में यह जानने के लिए अच्छा साधन हो सकता है कि फलां किताब किस विषय पर है। लेकिन यदि कोई सम्यक समीक्षा पढ़ना चाहे तो उसके लिए उस तरह के लेख भी प्रकाशित किए जाएं। समीक्षा कैसे की जाए इसकी तालीम यानी कौशल विकास कार्यशालाओं के दौरान नए लेखकों व जिनकी इसमें रूचि है उन्हें इस विधा की बारीक समझ विकसित करने की आवश्यकता है। 
सचपूछा जाए तो किसी भी रचना की समीक्षा, आलोचना या समालोचना करने भी एक कला और कौशल है। इस दक्षता को स्वाध्याय, अध्यवसाय से हासिल किया जा सकता है। लेकिन चुनौती यही है कि आज की तारीख में पढ़ने की आदत लगभग जाती रही। लेखक भी कम ही बचे हैं जो स्वयं के लिखे को छोड़ बहुपठ हों। महज पत्रिकाओं, किताबों को उलट पलट लेना संभव है पढ़ने की श्रेणी में न आए। पढ़ने की उदासीनता के दौर ने केवल लेखक गुजर रहे हैं बल्कि बच्चे और शिक्षक वर्ग भी पढ़ना तकरीबन भूल चुके हैं। सिर्फ वही पढ़ते हैं जिससे परीक्षा पास हो सके। वही पढ़ना जो नितांत जरूरी हो। यह धारणा गहरे पैठती जा रही है। जबकि एक समय था जब लोग स्वांतः सुखाय के लिए पढ़ा करते थे। आनंद प्राप्ति के लिए पढ़ा करते थे। मनोरंजन के लिए पढ़ा करते थे। जब हम इन्हीं बिंदुओं को आज की तारीख में निकष पर कसते हैं तो स्थितियां काफी बदली सी नजर आती हैं। अब लोग मोबाईल में पढ़ते हैं। टेब्लेट्स पर पढ़ते हैं। फेसबुक ट्विटर आदि सोशल साईटों पर लिखा पढ़ते हैं। पढ़ तो यहां भी रहे हैं बस माध्यमों में बदलाव आए हैं। लेकिन अभी भी हमारे समाज में बड़ी संख्या में शिक्षक वर्ग हैं जिन्हें साहित्य न पढ़े हुए एक लंबा वक्त गुजर चुका। जब वे छात्र हुआ करते थे तब उन्होंने निर्मला, गोदान, आधे-अधूरे, गुनाहों के देवता, चीड़ों पर चांदनी आदि साहित्य पढ़े थे। लेकिन वे स्वयं ही बताते हैं कि उस पढ़ने में वो आनंद नहीं था, क्योंकि उस पढ़ने के पीछे परीक्षा पास करने का दबाव था। ऐसे ही कम से कम 2000 शिक्षकों से बातचीत के आधार पर यह कह सकता हूं कि हमारे शिक्षक पढ़ने से दूर हैं। उन्हें पढ़ने का आनंद और पढ़ने में रूचि कैसे पैदा की जाए इस ओर हमें काम करने की आवश्यकता है। 
अंत में रचनाएं हजारों की संख्या में हो रही हैं जिसमें छपने वाले पन्नों और बाइट की संख्या गेगा बाइट और टेरा बाइट में हैं। लाखों और करोड़ों पन्नों में छपने वाले साहित्य को छानने और जांचने के लिए कोई न कोई तो उपकरण हमारे पास होने ही चाहिए। ऐसे में पाठकों के लिए यह जानना कितना मुश्किल हो जाता है कि कविता,कहानी,उपन्यास,आलोचना,निबंध आदि में किस किताब में किस मुद्दे को उठाया गया है। कौन सी किताब किस कंटेंट को विमर्श के घेरे में लेती है आदि। क्या पाठक जो किताब खरीद रहा है वह उसकी जरूरतों को पूरा भी करता है या नहीं? यानी पाठकीय अपेक्षा पर रचना खरी है या नहीं इसके लिए काफी हद तक पाठकों को किताब तो पढ़नी ही पड़ेगी। लेकिन यदि कोई पाठक बिना ज्यादा समय गवाए यदि किसी भी किताब के बारे में जानकारी हासिल करना चाहता है तो उसे समीक्षा व पुस्तकीय परिचय पढ़ कर मिल सकती है। किन्तु अफसोस की बात है कि आज पुस्तकों की गंभीर समीक्षाएं पाठकों को नहीं मिल पा रही हैं। लेखक समुदाय को इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

वर्तमान जीवन-परिप्रेक्ष्य का सन्दर्भ और काशीनाथ सिंह का उपन्यास: संतोष कुमार गुप्ता

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वर्तमान जीवन-परिप्रेक्ष्य का सन्दर्भ और काशीनाथ सिंह का उपन्यास 

संतोष कुमार गुप्ता 
शोध-छात्र, हिन्दी-विभाग 
उत्तरबंग विश्वविद्यालय 
मोबाईल: +91 9851140555 
यूँ तो हर रचनाकार अपनी रचना के माध्यम से अपने समाज के विभिन्न पहलुओं को अपनी रचना में उकेरने की कोशिश करता है और अपने सामाजिक सरोकारों को साबित करता है, जिसे हम समकालीन शब्द से अभिहित करते हैं। वैसे ‘समकालीन’ शब्द को परिभाषित करना इतना सरल भी नही है। इसे लेकर विभिन्न तर्क बरकरार है। एक तरफ यह समय विशेष की ओर इंगित करता है तो दुसरी ओर अपने समय के सरोकार को। ‘समकालीन’ शब्द अंग्रेजी के ‘contemporary’ का समानार्थी है, जिसका अर्थ है- ‘अपने समय का’ अर्थात समसामयिक डा.एन. मोहनन के शब्दों में- “समय के सच को तटस्थता के साथ परखने की क्षमता किसी को समकालीन बनाती है” 1 कहा जाता है कि रचनाकार दुरदर्शी होता है और भविष्य में उतपन्न होनेवाली असंगतियों को पहले ही भाँप लेता है और समय के साथ जंग छेड़ते हुए वर्तमान समय की जटिलताओं को सुक्ष्मता के साथ व्याख्यायित करता है और एक जागरुक चेतना के निर्माण का कारक बनता है जिसमें मानव कल्याण की भावना होती है। इस संदर्भ में हिन्दी उपन्यासों का खासा महत्व रहा है और समकालीन हिन्दी उपन्यासों ने तो अपनी समय की सच्चाई को पूरी निष्ठा के साथ व्यक्त करने में काफ़ी सफ़ल रहे हैं। 
इस सन्दर्भ में कथाकार काशीनाथ सिंह के उपन्यासों की बात न की जाए तो बात पूरी नही होती और इसकी शुरुआत ‘काशी का अस्सी’ से न की जाए तो भी बहुत कुछ अधूरा रह जाएगा। समकालीन उपन्यास सही मायने में अपने समय और समाज के यथार्थ की सही समझ है और ये समझ काशीनाथ सिंह के उपन्यासकार में खूब देखने को मिलती है। 
‘काशी का अस्सी’ की कथा सन 1962 के भारत-चीन युद्ध से लेकर अयोध्या-कांड से टकराती हुइ भुमंडलीकरण की हर सीमा को छुती है। बनारस केवल भारतीय संस्कृति की ही नही, बल्कि साहित्य की भी राजधानी रही है। उपरोक्त उपन्यास पाँच अलग-अलग कहानियों को अपने में समेटे हुए है, जो एक दूसरे के पूरक हैं। काशीनाथ सिंह के ही शब्दों में- “तो सबसे पहले इस मुहल्ले का मुख्तर-सा बायोडाटा- कमर में गमछा, कंधे पर लंगोट और बदन पर जनेऊ यह युनिफ़र्म है काशी का। ” 2 और “हर-हर महादेव के साथ भोसरी के का नारा सार्वजनिक अभिवादन है।” 3 परन्तु इस भूमंडलीकरण के दौर में संस्कृति, सभ्यता और संबंध अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। बनारस को धार्मिक और साहित्यिक केन्द्र की जगह ‘डिजीटल सिटी’ बनाने का लालच दिया जा रहा है, जो कि वहाँ की जनता को कतई बर्दाश्त नही। उनकी संस्कृति और सभ्यता पर किसी की बूरी नजर पड़े ये तो बर्दाश्त के बाहर की चीज है। 
डा.एन. मोहनन के ही शब्दों में- “काशीनाथ सिंह का ‘काशी का अस्सी’ बनारस का शोक-गीत है।” 4 काशीनाथ सिंह ने इस उपन्यास के माध्यम से भूमंडलीकरण, उपभोक्तावाद, उपनिवेशवाद और विस्थापन के प्रभाव को को अस्सी की संस्कृति पर पड़ते हुए दिखाया है। यूँ कहें कि यह प्रभाव पूरे देश पर पड़ रहा है तो अतिश्योक्ति न होगी। काशी का अस्सी समय का साक्ष्य है। काशी इतनी तेजी से बदलाव की तरफ़ अग्रसर होगा वहाँ की जनता के लिए अकल्पनिय है। इनके खिलाफ़ षड्यंत्र रचा गया है भूमंडलीकरण का, बजारवाद का। और ऐसे बजारवाद के चक्कर में पं. धर्मनाथ शास्त्री जैसे लोग भी फँस जाते है, और ‘पेइंग गेस्ट’ रखने का मन बनाते हैं। इसलिए ‘शिवालय’ को तोड़ वहाँ आधुनिक शौचालय का निर्माण करवाते हैं। जिससे मादलिन जो कि पं. धर्मनाथ शास्त्री के यहाँ पेइंग गेस्ट के तौर पर रहनेवाली है, उसे कोई असुविधा न हो और उन्हे मोटी कमाई हो सके। ध्यान देने की बात है कि जहाँ कभी शिवलिंग रहा होगा आज वहाँ ‘कमोड’ अर्थात मल-विसर्जन पात्र शोभायमान है और यह बदलाव है हमारे समाज का, हमारी संस्कृति का, काशी का ही नही पूरे देश का। 
एक और उपन्यास ‘रेहन पर रग्घू’ जो समकालीन जीवन का महाकाव्यात्मक आख्यान है। संबंधो में ठंडापन तो भारत-चीन युध्द के बाद ही पड़ने लगता है। परिवार टूटने-बिखड़ने लगते है। लोगों क पलायन गाँव से नगरों की तरफ़ होने लगता है। रही सही कसर सन 1965 और सन 1971 का भारत-पाक युद्ध, 1975 का आपातकाल, 1984 का भोपाल गैस-त्रासदी और 90 के दौर में नरसिंह राव के शासन-काल में अमेरिकी नीति के तहत उदारीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत पूरी कर देती है। भारत जैसा विकासोन्मुख राष्ट्र के बाजार विकसित राष्ट्रों के लिए खुला मंच बन जाते हैं और साथ ही नवउपनिवेशी शक्तियाँ अपनी जड़ें मजबूत करने लगती हैं और ये बाजारवाद और उपनिवेशी शक्तियाँ हमारे संबंधो को खोखला करने में अपनी भूमिका बखूबी निभाने लगते हैं। ‘रेहन पर रग्घू’ उपन्यास में प्रो. रघुनाथ सपत्नी अपने दो बेटों और एक बेटी सहित कुल पाँच लोगों के परिवार के साथ रहते हैं और ये कह देना कि सुखी रहते हैं ये उनके साथ इंसाफ़ न होगा। बाकि सदस्य भले ही सुखी हो लेकिन प्रो. रघुनाथ के संदर्भ में ये बात लागू नही होती। छोटा बेटा धनंजय नई अर्थव्यवस्था के चकाचौंध में जीनेवाला व्यक्ति है। वहीं दूसरा और बड़ा बेटा संजय विदेश में करियर के लोभ में प्रोफ़ेसर सक्सेना की बेटी सोनल से शादी कर लेता है और बेटी भी एक नीच वर्ग के व्यक्ति से प्रेम करती है जो कि एक सरकारी आधिकारी है। और इस तरह रघुनाथ के सारे सपने बिखर जाते है। रेहन पर रग्घू व्यक्ति की ही नही, समकालीन समाज के बदलते हुए स्वरूप को चित्रित करती है। नामवर सिंह के शब्दों में – “बताने की जरूरत नही कि इस कथा में, बदलते यथार्थ की इस प्रस्तुति में, इसका प्रतिरोध भी छुपा हुआ है और इस तरह, इस व्यवस्था को चुनौती भी दी गई है।” 5 यह कथा विस्थापन एवं मरती हुई संवेदना की करूण कथा कहती है और साथ ही समाज के हर एक वृद्ध की भी जो अपनों के ही रेहन पर पलने के लिए मजबूर हैं। 
उपन्यासों की अगली कड़ी में नाम लिया जा सकता है- ‘अपना मोर्चा’ का जिसमें व्यवस्था से संघर्ष करके समाजिक बदलाव लाने का शंखनाद है। समूची व्यवस्था सड़-गल चुकी है और सब-कुछ भगवान भरोसे चल रहा है जिसको मानने के लिए आज की पीढी कतई तैयार नही है। आज की पीढी उस पंगु हो चुकी व्यवस्था से निजात पाना चाहती है। इसके लिए वो कमर भी कस चुकी है इसके लिए व्यवस्था के भीतर जाकर उसे पूरी तरह से परखना चाहती है। उपन्यासकार के ही शब्दों में- “मुझे बार-बार लगा है कि अगर हम कुछ कर सकते हैं तो बाहर से नही, बल्कि भीतर से; उसमें धँसकर, बीच में अपने को फँसाकर, दूसरों को तोड़ने या शर्मिन्दा होने का मौका निकालकर।” 6 
‘महुआ-चरित’ काशीनाथ सिंह के उपन्यासों में अगला सोपान है। यह एक लघु उपन्यास है और इस उपन्यास में समकालीन समाज के परिवेश को खास करके अस्मिता-बोध को पूरे निष्ठा से दर्शाया गया है। उपर्युक्त उपन्यास में ‘महुआ’ के माध्यम से ये देखा जा सकता है कि आज के समाज में एक इंसान अपनी अस्मिता की खोज में किस तरह बेचैन है। अपनी कल्पना में उड़ान भरने के लिए किस तरह से तत्पर है और अपने अस्तित्व की खोज में किस तरह वह भटकता रहता है। वह उन्मुक्त और स्वतंत्र जीवन जीना चाहता है। उसे अपने जीवन में किसी की दखलअंदाजी पसंद नही। भौतिक सुख के साथ-साथ शारीरिक सुख जीवन का अनिवार्य तत्व है, ये महुआ के माध्यम से आसानी से देखा जा सकता है। निम्न पंक्तियों के माध्यम से उपर्युक्त बातें आसानी से समझी जा सकती है- “मैं जब भी बाथरूम में नहाने जाती, कपड़े अलग करती और अपने बदन को बड़े गौर से देखती। हो सकता है गलत हो यह लेकिन जाने क्यों मुझे लगता कि यह शरीर गमले में पड़े गुलाब के उस पौधे की तरह हो गया है जिसे अगर तुरन्त पानी न मिला तो सुखते देर न लगेगी! इसे पानी चाहिए, कोई पानी दो। लेकिन कौन देगा पानी?” 7 
आज के समय में एक-दूसरे पर विश्वास बनाये रखना टेढी-खीर है। महुआ की देहाशक्ति से विवाह तक की यात्रा के बाद जब उसका पति हर्षुल उससे छल करता है तब उसमें अस्मिता-बोध की भावना जागृत होती है और वह हर्षुल से रिश्ता तोड़ हमेशा के लिए चल पड़ती है। अपने अस्मिता-बोध के सहारे अपने अस्तित्व की तलाश में। महुआ कहती है- “हर्षुल, मैनें तुमसे कभी नही पूछा कि पिछले तीन साल से ही नही, आज भी तुम वर्तिका बनर्जी के साथ क्या कर रहे हो? क्या कर रहे हो जानती हूँ, लेकिन नही पूछूँगी। इतना याद रखना।“ 8 स्त्री विमर्श के अनुगूँज के बावजूद यह प्रश्न आकार लेता है, ‘ऐसा क्या है देह में कि उसका तो कुछ नही बिगड़ता, लेकिन मन का सारा रिश्ता-नाता तहस-नहस हो जाता है। 
‘उपसंहार’ काशीनाथ सिंह का नवीनतम उपन्यास है, जिसमें महाभारत की उत्तरकथा है और 18 दिनों के नरसंहार के बाद धर्मराज युधिष्ठिर को राजगद्दी की प्राप्ति होती है। परन्तु क्या जिस राजसिंहासन के लिये महाभारत जैसा युद्ध हुआ, उस पर बैठकर क्या धर्मराज सुखी है? नही, बिल्कुल नही। धर्मराज अब स्थिल पड़ चुके हैं। पूरे राज्य में महामारी फ़ैली है। जमीनें बंजर पड़ चुकी है। प्रजा त्राहि-त्राहि कर रही है और धर्मराज लाचार पड़े हुए है। चारो ओर भ्रष्टाचार का दानव मुँह फ़ैलाये घुम रहा है। वहीं दूसरी तरफ़ कृष्ण की करूण कथा का भी वर्णन मिलता है कि किस तरह कृष्ण बूढे हो चुके हैं, दाढी पक चुकी है। उनका शरीर अब पहले की तरह साथ नही देता। उनकी सुननेवाला अब कोई नही है, जो समुद्र कल को कृष्ण का पाँव पखारने उमड़ा हुआ आता था आज उनके सामने सीना ताने दूर खड़ा है। उनके नाती-पोते भी मनमानी करने लगे हैं। पूरी की पूरी व्यवस्था गड़बड़ हो चुकी है। प्राग्ज्योतिषपुर से जिन सोलह हजार कन्याओं का उद्धार कर कृष्ण ने जो बस्तियाँ बसाई थी, उनका बेटा भद्रकार उनमें से तीन को लेकर भाग चुका है जो कृष्ण और उनकी पत्नी सत्या का पुत्र है। इस तरह के बूरी खबर और विपत्तियों के सुनने का आदि हो चुके थे कृष्ण, परन्तु कुछ कर सकने में असमर्थ थे। एक दिन ऐसे ही उनका पुत्र साम्ब ऋषि मुनियों से पूरे यादव वंश के विनाश का शाप ले आया और उन ऋषि मुनियों, जिनमें महर्षि कश्यप, विश्वामित्र, नारद के अलावा कण्व ऋषि भी थे जिनके शाप के फ़लस्वरूप साम्ब नें मूसल पैदा किया और अन्तत: उसी मूसल के द्वारा कृष्ण के हाथों ही पूरे यादवों का विनाश हो गया। 
उपर्युक्त उपन्यासों के माध्यम से हम यह देख पाते हैं कि काशीनाथ सिंह का उपन्यासकार अपने उपन्यासों का विभिन्न कलेवर रखते हुए भी समाज के तमाम विडंबनाओं को खंगालने की कोशिश करता है। समकालीन समाज में घटित तमाम घटनाओं एवं विडंबनाओं को हम इन उपन्यासों में लक्षित कर सकते हैं। समय तेजी से बदल रहा है और इस बदलाव के चपेट में हमारी तमाम संस्कृतियाँ डाँवाडोल हो रही है और इसके साथ ही हमारी संवेदनाएँ दिन-ब-दिन मरती जा रही है। इस भूमंडलीकरण, बाजारवाद, उपभोक्तावाद और नवउपनिवेशिक शक्तियों के बीच हम अपना सब कुछ पीछे छोड़ते जा रहे हैं। 
संदर्भ ग्रन्थ-सूची
1. डा. एन. मोहनन, समकालीन हिन्दी उपन्यास, वाणी प्रकशन, प्रथम संस्करण-2013, पृ. संख्या-20.
2. काशीनाथ सिंह, काशी का अस्सी, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2006, पृ. संख्या-11.
3. वही, पृ. संख्या-11.
4. डा. एन. मोहनन, समकालीन हिन्दी उपन्यास, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2013, पृ. संख्या-46.
5. डा. नामवर सिंह, चौपाल, अंक-1, वर्ष-1, 2014, पृ. संख्या- 29.
6. काशीनाथ सिंह, अपना मोर्चा, राजकमल प्रकाशन, दूसरा संस्करण- 2007, पृ. संख्या- 46.
7. काशीनाथ सिंह, महुआचरित, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण-2012, पृ. संख्या- 12.
8. काशीनाथ सिंह, महुआचरित, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण-2012, पृ. संख्या- 100.

                                       

नुक्कड़ नाटक की अध्येता और आलोचक डॉ.प्रज्ञा से शोधार्थी मोनिका नांदल की बातचीत

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नुक्कड़ नाटक की अध्येता और आलोचक डॉ.प्रज्ञा से बातचीत

(नुक्कड़ नाटक की वर्तमान स्थिति और भविष्य में उसके अस्तित्व के संदर्भ में नुक्कड़ नाटक की अध्येता और आलोचक डॉ. प्रज्ञा से शोधार्थी मोनिका नांदल की बातचीत) 

मोनिका: डॉ. प्रज्ञा आप लंबे अर्से से नुक्कड़ नाटक के शोध, अध्ययन, अध्यापन, निर्देशन से जुड़ी रही हैं , मैं जानना चाहती हूं कि नुक्कड़ नाटक की पहचान एक जनपक्षीय कला के रूप में रही है। आपके अनुसार आज के समय में यह अपनी इस पहचान को कायम रखने में कहां तक सफल है? 
डॉ. प्रज्ञा: देखिए मोनिका, नुक्कड़ नाटक जनांदोलनों से उपजी विधा है । जनता के आंदोलनों और उसकी बेहतरी की दिशा से ही नुक्कड़ नाटक की जनपक्षीय भूमिका तय होती है । आप अगर इसके इतिहास पर दृष्टि डालें तो आरंभिक नुक्कड़ नाटकों को ही देखिए मसलन ‘गिरगिट’,‘कुकड़ूं कूं’, ‘जनता पागल हो गयी है’ फिर ‘मशीन’ आदि सभी आम जनता के संघर्ष समस्याओं की कहानियां ही हैं । चाहे जन विरोधी सत्ता की अनीति हो, सत्ता का बेहतर विकल्प हो, श्रमशील जनता , मजदूरों का शोषण और उनकी मजदूरी से जुड़ा हुआ मुद्दा ही क्यों न हो । इस तरह नुक्कड़ नाटक एक राजनीतिक नाटक है और जनपक्षधर होना इसका मूल स्वभाव है । जहां तक आज के संदर्भ में हम इस नाटक की बात करते हैं तो आज लगभग चौवालीस साल की अपनी यात्रा पूरी करने के बाद इसकी छवि जनपक्षीय ही है । इसे आप नाटकों के कथ्य और रूप दोनों ही स्तरों पर देख सकती हैं । सामंती-पूंजीवादी चक्की में पिसती औरत के संघर्ष की बात हो, उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण के दुष्चक्र में पीसते लोगों की कहानी हो, बंधुआ मजदूरी का सवाल हो या फिर आम जनता से नफरत करने वाली शासन व्यवस्था का ही सवाल क्यूं न हो । यही नहीं हमारी रोजमर्रा की तकलीफों-स्वास्थ्य, पानी, बिजली, पोषण और मंहगाई सभी मुद्दों पर नुक्कड़ नाटक लिखे-खेले जा रहे हैं । आठवें दशक से आरंभ हुई नुक्कड़ नाटक की यात्रा से लेकर आज भी इसकी पहचान आंदोलनधर्मिता से ही जुड़ी हुई है ।
मोनिका: आलोचना की किताब ‘नुक्कड़ नाटकः रचना और प्रस्तुति’ के बाद आपका संग्रह ‘जनता के बीचःजनता की बात’ नुक्कड़ नाटकों के स्क्रिप्ट के अभाव को दूर करता है । आज के समय में ऐसे संग्रहों की आवश्यकता को आप कितना ज़रूरी मानती हैं?
डॉ. प्रज्ञा: ‘जनता के बीचः जनता की बात’ बारह नुक्कड़ नाटकों का संग्रह है जिसे मैंने संपादित किया और जो वाणी प्रकाशन से 2008 में प्रकाशित हुआ । पर इससे पहले सन् 2006 के विश्व पुस्तक मेले में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से मेरी पहली किताब ‘नुक्कड़ नाटकः रचना और प्रस्तुति’ प्रकाशित हुई थी । किताब का लोकार्पण करते हुए आदरणीय नामवर जी ने नुक्कड़ नाटक के संग्रहों की बेहद कमी की ओर इशारा किया । फिर नाट्यालोचक देवेंद्रराज अंकुर ने भी इस विषय में चिंता जाहिर की । दिल्ली विश्वविद्यालय से ‘हिंदी के नुक्कड़ नाटकों में जनवादी चेतना’ विषय पर शोध करते हुए भी मैंने इस कमी को महसूस किया था । हालांकि चंद्रंश जी की ‘नुक्कड़ नाटक’ नाम से 1983 में चार नुक्कड़ नाटकों पर आधारित किताब प्रकाशित हुई थी और 1982 में सव्यसाची के संपादन में निकलने वाली ‘उत्तरा़र्द्ध’ पत्रिका का नुक्कड़ नाटक अंक भी प्रकाशित हुआ था और बाद में कई पत्रिकाएं नाटक प्रकाशित करती रहीं । पर किताब के रूप में नाटक संग्रहों की कमी थी । इस कमी ने ही मुझे प्रेरित किया और किताब की योजना को कार्यरूप मैंने दिया। पर अभी भी ऐसे संग्रहों की बेहद ज़रूरत है । न केवल इसलिए कि नुक्कड़ नाटक करने वाली मंडलियों को सशक्त स्क्रिप्ट मिले बल्कि इनमें से कई इम्प्रोवाइजेशन की तकनीक से निकले नाटकों का समयानुसार दस्तावेजी़करण हो और ऐतिहासिक रचना के तौर पर संरक्षण भी । ‘जनता के बीचः जनता की बात’ के बावजूद ऐसे बहुत सारे संग्रहों की जरूरत है और बनी रहेगी ।
मोनिका: नुक्कड़ नाटक संग्रह ‘जनता के बीचः जनता की बात’ के नाटकों के चयन में आपने क्या रणनीति अपनाई ?
डॉ. प्रज्ञा : मोनिका, 2007 में इस किताब की योजना मैंने बनाई तब एक बात बिल्कुल साफ थी मेरे जे़हन में कि मुझे न सिर्फ महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक नाटकों को इस किताब में शामिल करना है बल्कि एक ऐसी सूची भी बनानी है जिसमें आरंभ से लेकर एकदम नये नुक्कड़ नाटक जगह पा सकें । एक विचार यह भी जन्मा कि नुक्कड़ नाटक लिखने वाले लेखकों के साथ नुक्कड़ नाटक मंडलियों के नाटक भी शामिल किए जाएं और तीसरी सबसे बड़ी बात ये थी कि मैं उन नाटकों का चुनाव करूं जो जनता के बीच वैश्विक राजनीति से लेकर घरों में सामंती शोषण तक के विविध पहलुओं को सामने लाते हों । संग्रह के सभी नाटक सामाजिक सरोकारेां, समस्याओं से सीधे तौर पर जुड़े हैं । ये हमारे समय के शोषित,उत्पीड़ित और हाशिये में डाल दिए गए तबकों की आवाजें हैं । सवाल दलित जातियों के अपमान का हो, धर्म और मज़हब के नाम पर फैलाए जा रहे साम्प्रदायिक वैमनस्य का हो, जातिवादी राजनीति का या मानवीय समाज का (रमेश उपाध्याय का ‘हरिजन दहन’ और ‘राजा की रसोई’ असगर वजाहत का ‘सबसे सस्ता गोश्त’ और ‘देखो वोट बटोरे अंधा’, स्वयं प्रकाश का ‘नयी बिरादरी’) बाज़ारवादी नवसाम्राज्य के कसते शिकंजे के विरूद्ध आवाज़ और श्रमिको के मौलिक हितों को छीनने का विरोध हो ( जन नाट्य मंच का ‘संघर्ष करेंगे जीतेंगे और निशांत का ‘अंग्रेजी की गुलामी हमें मंजूर नहीं) आधी आबादी की समानता का हो, न्याय का हो ( शिवराम का ‘दुलारी की मां और जनम का ‘वो बोल उठी’)स्थानीय बाज़ार को नियंत्रित करने वाले व्यापारी वर्ग की कालाबाज़ारी और भ्रष्टाचार को उजागर करना हो (स्वयं प्रकाश का ‘ सबका दुश्मन’) । इस तरह ‘जनता के बीचः जनता की बात’ संग्रह तैयार हुआ जिसमें असगर वजाहत, रमेश उपाध्याय, स्वयं प्रकाश और शिवराम जी के दो-दो नाटकों के साथ ‘जन नाट्य मंच’ ऑैर ‘निशांत नाट्य मंच’ के दो-दो नाटकों को मैंने शामिल किया । सबसे बड़ी बात कि सबकी सहर्ष सहमति मुझे मिली और सबसे अधिक प्रोत्साहन आदरणीय अंकुर जी से मिला जिन्हें ये संग्रह समर्पित है ।
मोनिका: आपकी पहली किताब है – ‘नुक्कड़ नाटकः रचना और प्रस्तुति’ तो आपके अनुसार नुक्कड़ नाटक की रचना और प्रस्तुति में क्या नए प्रयोग किए जाने चाहिए जिससे इनकी प्रासंगिकता बनी रहे ।
डॉ. प्रज्ञा : मोनिका, नुक्कड़ नाटक एक प्रयोगधर्मी विधा है इसलिए इसकी रचना और प्रस्तुति में निरंतर प्रयोगशीलता अपेक्षित है । अपनी किताब:‘नुक्कड़ नाटकः रचना और प्रस्तुति’ में मैं इस बात से जूझी हूं । जहां तक रचना का सवाल है तो समसामयिक मुद्दों और तात्कालिक मुद्दों के आधार पर नाटकों की रचना होगी । आपात्काल के गर्भ से निकले इन नाटकों ने भारतीय समाज में सक्रिय साम्प्रदायिकता, जातिवाद, अशिक्षा, असमानता, शोषण, बेरोजगारी,युद्धऔर हिंसा जैसी अनेक मानवविरोधी ताकतों का जमकर विरोध किया है । फासीवादी संस्कृति और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य में गुजरात के दंगों को लेकर कई नाटक लिखे-खेले गए । ‘प्रेरणा’ पटना के ‘चेहरे पर चेहरा’ के 80 से अधिक शो हुए। जनम का इसी विषय पर ‘ये दिल मांगें मोर गुरूजी’ बाल यौन शोषण पर ‘आर्त्तनाद’, खाप पंचायतों की अमानवीयता पर जनम का ही ‘जब चले खाप पर लट्ठ’ और निजीकरण पर ‘प्राइवेट पानी’ जैसे नाटक हैं । एक जनवादी कला माध्यम के रूप में इसने अपनी सशक्त पहचान बनाई है । दूसरे विषय की विविधता के अतिरिक्त रचना के स्तर पर कई प्रयोग किए गए हैं और किए जा रहे हैं मसलन नाटक शोधपरक ढंग से विभिन्न तथ्यों की रौशनी में लिखे जाएं । ये नाटक इम्प्रोवाइजेशन की पद्धति से पूरी मंडली द्वारा तैयार किए जाएं या फिर गीतों पर आधारित हों, असमानता या युद्ध के मुद्दे पर देशी-विदेशी कवियों की कविताओं को आधार बनाकर तैयार किए जाएं । विश्वप्रसिद्ध कहानियों के नाट्य रूपांतर हों और भी बहुत कुछ । दूसरे जहां तक प्रस्तुति का पक्ष है तो वह कथ्य के अनुरूप आएगी ही । अपने एक लेख ‘नुक्कड़ नाटकः गतिशील सौंदर्य के तकाजे’ मे मैंने साफ तौर पर लिखा है – कला समाज के लिए सिद्धांत को लेकर चलने वाले ये नाटक कलात्मक भी हैं । कला के स्तर पर इनमें विविध प्रयोग देखने को मिलते हैं । गीत, नृत्य, दृश्य संयोजन, फैंटसीपरकता, किस्सागोई, नट-नटी संवाद,मदारी-जमूरा संवाद, कव्वाली का अंदाज, फिल्मी धुनों का प्रयोग, लोक गीतों का प्रयोग, कोरस, कविताएं, शेरों-शायरी से भरपूर । हास्य-व्यंग्य की धार, नयी-पुरानी कहानियों के कोलॉज की शक्ल, प्ले कार्ड, नकाब, मुखौटों की सहायता से नवीनता लाना, मुहावरेदारी, प्रॉपर्टी के विविध प्रयोग। कितना ही कुछ है जिसे किया भी जा चुका है और नित नया करने की संभावना बरकरार है । नुक्कड़ नाटक एक स्थाई सौंदर्यशास्त्र का विषय नहीं है ये गतिशील सौंदर्यशास्त्र का विषय है तो प्रयोग निरंतर होंगे ही । हां दुहरावों से बचना भी जरूरी है ।
मोनिका: नुक्कड़ नाटक के सौंदर्यशास्त्र के बारे में आपका क्या कहना है ? 
डॉ. प्रज्ञा : सौंदर्यशास्त्र को लेकर मैं अपनी बात साफ कह ही चुकी हूं कि नुक्कड़ नाटक जागृत सौंदर्यबोध की विधा है । इसके राजनीति आदर्श कलात्मक आर्दश भी हैं । ये कोरे प्रचार का या नारेबाज़ी का नाटक नहीं है और दूसरे ये कलाविहीन नाटक भी नहीं है जैसाकि इस पर आरोप लगाए गए। समय ने खुद इन आरोपों को बेबुनियाद सिद्ध किया है । एक बात ये भी है कि नुक्कड़ नाटक गतिशील सौदंर्यशास्त्र की विधा है । इसका कोई परंपरागत या निर्धारित तय रूप नहीं है । इसका सौंदर्यशास्त्र किसी बंधे-बंधाए ढर्रे या तयशुदा ढांचे का सौंदर्यशास्त्र नहीं है । पिछले चार दशक से अधिक की यात्रा में कथ्य और रूप के स्तर पर इन नाटकों में विविध प्रयोग देखने को मिलते हैं जिनका ज़िक्र मैं पहले कर ही चुकी हूं । बदलाव की ओर अग्रसर विधा है यह जो सामाजिक प्रतिबद्धता और राजनीतिक समझ से लैस है । व्यापक सामाजिक, राजनीतिक सांस्कृतिक बदलाव इसके कथ्य और रूप को परिवर्तित करते चलेंगे । 
मोनिका: व्यावसायिकता के दौर में नुक्कड़ नाटक की जन-जागरूक छवि धुंधली पड़ती जा रही है, इसे केवल प्रचार का साधन माना जा रहा है । आपका इस बारे में क्या कहना है ? 
डॉ. प्रज्ञा : देखिए मोनिका, नुक्कड़ नाटक जागरूकता के साथ बेहतर विकल्प की दिशा में भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । अपनी आरंभिक यात्रा में नाटक के क्षेत्र में कड़ी आलोचना का शिकार होने के बाद आज नुक्कड़ नाटक अपनी सशक्त पहचान बना चुका है । इस सकारात्मक प्रभाव के साथ नकारात्मक असर भी हुआ है । राजनीतिक रूप से जनवादी उद्देश्य को लेकर चलने वाले इस कला आंदोलन की लोकप्रियता को लोगों ने प्रभावित किया है । स्कूलों -कॉलेजों में इसकी ख्याति दिनोंदिन बढ़ रही है और अब व्यावसायिक हितों के लिए इसका इस्तेमाल हो रहा है । कई कंपनियां अपने सामान की बिक्री और प्रोमोशन के लिए नुक्कड़ नाटकों का इस्तेमाल कर रही हैं पर इस तरह के कथ्यरहित, राजनीति और जनपक्षधरता रहित नाटक भीड़ को आकृष्ट करने के गुलगपाड़े, फूहड़ नृत्य, शोरप्रधान संगीत और फिल्मी पैरोड़ी के भद्दे कलाहीन प्रयोग हैं जो नुक्कड़ नाटक के केवल खोल का इस्तेमाल कर रहे हैं । ये न केवल नुक्कड़ नाटक के लिए घातक और खतरा हैं बल्कि जनता के बीच इस विधा के उद्देश्य को लेकर एक बड़ा घाल-मेल पैदा करता है । कई एन. जी. ओ. भी यही काम कर रहे हैं । आप जरा उनके नाटक देखें और पढ़ें । कलाहीन किस्म के खोखले कथ्य के नाटक हैं वे । मसलन यदि महिलाओं के अल्प पोषण पर नाटक है तो ये कहकर समाप्त हो जाता है कि पौष्टिक खाना खाओ,दवाई खाओ पर ये समस्या की तह में कभी नहीं जाएगा कि आधी आबादी को कितने पूर्वाग्रहों की वजह से पूरा भोजन मयस्सर नहीं, बेरोज़गारी, अशिक्षा, निजी क्षेत्र में असमान वेतन और शोषण की दास्ताने, यहां तक कि शौचालयों और साफ पानी की कमी । इन समस्याओं को ये नाटक कभी नहीं उठाएंगे । उठा ही नहीं सकते क्योंकि ये सीधे-सीधे संघर्ष और चुनौतियों की बातें हैं जबकि व्यावसायिकता विशुद्ध मनोरंजन की मुद्दारहित बात करेगी ।
मोनिका: दिल्ली विश्वविद्यालय में डेढ़ दशक से अधिक का अनुभव होने और नाट्य कार्यशालाओं तथा रंगमंच पढ़ाने का तर्जुबा होने के साथ आपने कुछ समय पूर्व ‘आह्वान’ नाम की नाट्य संस्था की शुरूआत की है जो कॉलेज के विद्यार्थियों को नाटक से व्यावहारिक तौर पर जोड़ती है । इन विद्यार्थियों की नुक्कड़ नाटक से क्या अपेक्षाएं होती हैं ?
डॉ. प्रज्ञा : 2010 में किरोड़ीमल कॉलेज, जहां मैं पढ़ाती हूं वहां मैंने हिंदी साहित्य पढ़ने वाले बच्चों के सहयोग से ‘आह्वान’ नाट्य संस्था शुरू की थी जो आज भी सक्रिय है । इस संस्था में बी.ए. प्रथम वर्ष से लेकर एम.ए. और कई पासआउट लोग भी शामिल हैं । स्कूल और कॉलेज के स्तर पर ऐसी अधिकांश संस्थाएं प्रदर्शनकारी विधा के तौर पर ही सक्रिय रहती हैं। वहां बच्चा नाटक से जुड़ने का सपना लेकर आता है । और चूंकि नुक्कड़ नाटक सीमित साधनों की लोकप्रिय विधा है तो वह इससे जुड़ना पसंद करता है । हमारी संस्था में कई बच्चों की शुरूआत में कुछ अलग -सी अपेक्षाएं थीं । बहुत से नए लोग आज भी थियेटर को मुंबई की पहली सीढ़ी मानते हैं। फिर कई को बड़े नाट्य संस्थानों में प्रवेश के लिए नाट्य प्रस्तुति के प्रमाणपत्र भी चाहिए होते हैं । बहुत से इसकी राजनीतिक मांग को नहीं समझते । ऐसे में सवालों से जूझते टकराते हम कुछ बातों पर सहमत हैं किे साहित्य पढ़ते हुए नाटक जैसी दृश्य विधा को उसकी सम्पूर्णता में समझने के लिए नाटक करना जरूरी है । फिर अभिव्यक्ति की आजादी, साहित्य से जुड़ाव, नए प्रयोग और नए-पुराने नाटकों का मंचन, निर्देशन और एक ट्रेनिंग । इन सबके साथ हम सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों पर भी बात करते हैं ।
मोनिका: आज प्रतियोगिता के दौर में नाटक से जुड़े विद्यार्थियों का भविष्य आप किस रूप में देखती हैं ?
डॉ. प्रज्ञा : मोनिका जी, जब मैंने तीसरी कक्षा में जीवन का पहला किरदार निभाया था तो मेरे मन में यही था कि बस एक्टिंग करनी है । आज भी स्कूल-कॉलेज के बच्चे की सहज और पहली प्रतिक्रिया यही है कि एक्टिंग करनी है । पर नाटक तो एक सम्पूर्ण विधा है । यहां बात केवल अभिनय तक सीमित नहीं । आप नाटककार बन सकते है, अच्छे स्क्रिप्ट राइटरभी बन सकते हैं, निर्देशक, गीतकार इसके अलावा बैक स्टेज के ढेर सारे काम हैं जिनके लिए देश में कई प्रशिक्षण केंद्र भी हैं । जहां से प्रशिक्षण लिया जा सकता है। संगीत, प्रकाश, कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग बहुत से पक्ष हैं जिनसे जुड़ा जा सकता है । दूरदर्शन और आकाशवाणी के कई कार्यक्रमों में भागीदारी कर सकते हैं । वॉयस ओवर भी एक विकल्प हैं । नाटक की विधिवत् शिक्षा के बाद नाटक पढ़ाना और सिखाना भी एक बेहतर विकल्प है । आज कल शिक्षण संस्थानों में पर्फोमिंग आर्ट के तहत इसकी बड़ी मांग है । ग्रीष्मकालीन नाट्य शिविरों से लेकर साल भर चलने वाली कार्यशालाओं की भी बड़ी मांग है । फिर शोध का मंच भी है । इन सबके अलावा अगर दूर के भविष्य की जगह पास के वर्तमान को देखें तो मुझे एक बातचीत के दौरान हबीब साहब( रंगकर्मी हबीब तनवीर) की बात याद आती है ‘‘ नाटक हमें जीवन की सलाहियत और आजादी देता है ।’’ मेरे ख्याल से यही सबसे ज्यादा ज़रूरी हैं ।
मोनिका: वर्तमान संदर्भ में नुक्कड़ नाटक के औचित्य को आप किस रूप में देखती हैं ?
डॉ. प्रज्ञा : आज नुक्कड़ नाटक ने वह मकाम हासिल कर लिया है कि नाटक का कोई भी अघ्येता या विश्लेषक इसके अस्तित्व को नकार नहीं सकता । दूसरे जब पूंजीवादी नव साम्राज्यवाद को विकल्पहीन बताया जा रहा है तब विकल्पों की खोज अनिवार्य बन जाती है।देखिए मोनिका जैसे-जैसे जनसंघर्ष तीव्र होंगे नुक्कड़ नाटकों की जरूरत बढ़ती जाएगी । दरअसल नुक्कड़ नाटक वैकल्पिक राजनीति का सांस्कृतिक हथियार है। इतिहास गवाह है चाहे रूस का ब्लू ब्लाउज थियेटर हो, योरोप का यूनिटि थियेटर या हमारे यहांइप्टा ओदोलन और आपात्काल का समय । जब भी परिर्वन और वैकल्पिक राजनीति की जरूरत सामने आएगी नुक्कड़ नाटक एक कला माध्यम के रूप में परवान चढ़ेगा । 
साक्षात्कारकर्ता

मोनिका नांदल 
शोधार्थी
मो. (9555245086)