किसी शहर में । Kisi Shahar Mein

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    किसी शहर में । Kisi Shahar Mein
    ‘किसी शहर में’ वरिष्ठ लेखक अश्विनी कुमार दुबे का नया व्यंग्य उपन्यास है जिसे नेशनल पेपरबैक्स, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। दुबे जी एक मंझे हुए उपन्यासकार हैं। प्रकाशन के क्रम में देखा जाय तो यह उनका चौथा उपन्यास है। परसाई के अनुसार, ‘सार्थक व्यंग्य करुणा से उपजता है।’ इस उपन्यास की अंतर्धारा भी इसी मूलभाव की कथात्मक अभिव्यक्ति है।

    कस्बाई जीवन की अकथ कहानी

    • राहुल देव

    ‘किसी शहर में’ वरिष्ठ लेखक अश्विनी कुमार दुबे का नया व्यंग्य उपन्यास है जिसे नेशनल पेपरबैक्स, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। दुबे जी एक मंझे हुए उपन्यासकार हैं। प्रकाशन के क्रम में देखा जाय तो यह उनका चौथा उपन्यास है। परसाई के अनुसार, ‘सार्थक व्यंग्य करुणा से उपजता है।’ इस उपन्यास की अंतर्धारा भी इसी मूलभाव की कथात्मक अभिव्यक्ति है। लेखक ने यथासंभव कथा के साथ व्यंग्य को साधने का प्रयास किया है। कथावस्तु के प्रवाह में यद्यपि व्यंग्य की भाषा का खिलंदड़ापन कहीं कहीं छूटता दिखता है। जिसकी स्वीकारोक्ति वह ‘अपनी बात’ में भी करते हैं, ‘सत्य की राह में जगह-जगह नुकीले पत्थर बिछे हुए हैं जिन पर चलते हुए आदमी लहूलुहान हो जाता है। इसके बावजूद उस पर चलना और निरंतर चलते रहने का साहस कुछ लोगों में कभी नहीं झुकता। ऐसे गिरते-उठते और चलते लोगों की कहानी है यह उपन्यास ‘किसी शहर में’।’

    इस उपन्यास को पढ़कर आप पाते हैं कि व्यंग्य के प्रचलित मुहावरों से हटकर यह उपन्यास पाठक को सोचने पर विवश करते हुए अपनी एक अलग राह बनाता है। हमारे देश में छोटे कस्बों की वही स्थिति है जोकि समाज में एक मध्यमवर्गीय परिवार की है। वह त्रिशंकु की तरह निम्न और उच्च वर्ग के बीच सामंजस्य बिठाने के लिए जीवन भर अटका रहता है। उसी तरह एक कस्बा भी शहर और गांव के बीच अभिशप्त होकर मानो लटका रहता है। वह न पूरी तरह गांव हो पाता है और न पूरी तरह शहर। उपन्यास का मुख्य चरित्र देवदत्त है जो कि पेशे से अध्यापक है। वह स्वभाव से जुझारु है, संघर्षशील है। लेखक ने अपनी इस कृति में सामाजिक राजनीतिक और प्रशासनिक सिस्टम की विसंगतियों की जमकर खबर ली है।

    उपन्यास की भाषा व शैली सरल व सहज है। उसमे कोई कृत्रिमता नही है। घटनाओं के नरेशन में भी लेखक को पर्याप्त सफलता मिली है। जिस तरह ‘राग दरबारी’ में श्रीलाल शुक्ल ग्रामीण अंचल की विसंगतियों पर प्रहार करते हैं वही काम इस उपन्यास में अश्विनी कुमार दुबे हरबोंगपुर नामक कस्बे को लेकर करते हैं। परिवेश की लगभग हर विडंबना पर लेखक की दृष्टि गई है, “सड़कों में गड्ढे हैं। नालियां चोक हैं। जगह-जगह कचरे के ढेर लगे हुए हैं। जलापूर्ति हो नहीं पाती। 24 घंटों में सिर्फ 1 घंटे बमुश्किल जल प्रदाय हो पाता है। अप्रैल से जून तक पानी की बहुत किल्लत रहती है। दो-तीन दिन के अंतराल में नल खुलते हैं। पानी का यहां भीषण संकट है। इसके बावजूद भी जनता में कोई हलचल नहीं। कोई समस्याओं का जिक्र ही नहीं करता। मानो यही उनकी नियति है जिसे सब ने सहर्ष स्वीकार कर लिया है।” देवदत्त को यह सब देखते हुए गुस्सा आता है। उसका मन बेचैन हो उठता है। यहां पड़ोसी भी बगैर मतलब आपसे बात नहीं करता जैसे देवदत्त के पड़ोसी गुप्ता जी, “गुप्ता जी सहजता से हर ऐरे-गैरे आदमी को नजदीक नहीं आने देते। वह उसी से मधुर संबंध बनाना पसंद करते हैं जो भविष्य में उनके काम आए। हरबोंगपुर का यह दृश्य चित्रण देखें, “हरबोंगपुर में सड़कें गलियां और पुलिया देखने लायक हैं। लोग कहते हैं कि किसी भी महानगर में वाहन चलाना बहुत सरल है। परंतु हरबोंगपुर में उतना ही कठिन। पहली बात तो यह किस शहर की मुख्य सड़क पर ट्रक, ट्रैक्टर, बस, कार, जीप, रिक्शा, बैलगाड़ी, हाथठेला, साइकिल और पैदल यात्रियों की बेतरतीब भीड़ चारों तरफ बिखरी दिखाई देती है। इसी भीड़ के बीच में कहीं कोई भैंस या साड़ आपको पसरा हुआ मिल जाएगा। जानवर आदमी और मशीन एक साथ इस सड़क पर रुक-रुक कर आगे बढ़ते रहते हैं। गोबर,  फलों के छिलके, प्लास्टिक का टूटा-फूटा सामान और विभिन्न प्रकार का कचरा कहीं सड़क के बीचो-बीच तो कहीं दोनों किनारों पर बिखरा हुआ आपको अवश्य दिखाई देगा। कहीं भी पान खाकर थूकना। यूं ही थूकते रहना या फिर तंबाकू खा कर अगल-बगल पिच करते रहना, यहां के नागरिकों का प्रिय शौक है।” यानी आप देखें तो यहाँ हर जिम्मेदार गैर जिम्मेदारी के नशे में सिर से पैर तक डूबा हुआ है। क्या सरकार और क्या नागरिक हर कोई, हर विभाग अपना काम नहीं करना चाहता। वह अपना काम दूसरों के सिर मढ़कर मजे लेता है। भ्रष्टाचार उनकी रगों में गहरे तक प्रवेश कर गया है।

    उपन्यास ज्यादा बड़ा नहीं है। पूरे ही कथानक को 20 छोटे-छोटे खंडों में विभाजित किया गया है। कथा प्रवाह के कारण इसकी पठनीयता प्रारंभ से अंत कायम रही है। इसके जरिए लेखक देश के किसी भी आम कस्बे/छोटे शहरों, वहां के लोगों, वहां की जर्जर व्यवस्था की पड़ताल करते हैं। एक ऐसी व्यवस्था जिसके लिए ईमानदारी और नैतिकता जैसे शब्द अपने अर्थ खो चुके हैं। धन-बल ही जिसका मूल्य बन गए हो। उपन्यास को पढ़ते हुए धीरे-धीरे यह पूरा अनुभव एक त्रासद और मार्मिक राष्ट्रीय बयान बन जाता है। व्यंग्य चलताऊ व्यवस्था पर प्रहार करता है। व्यंग उपन्यास इन्हीं कारणों से साहित्य में अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। अश्विनी जी का यह उपन्यास भी उसी परम्परा का अनुसरण करता है।

     

    किसी शहर में/ उपन्यास/ अश्विनी कुमार दुबे/ नेशनल पेपरबैक्स, नई दिल्ली/ वर्ष 2019/ पृष्ठ  187/ मूल्य 450/-

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    राहुल देव
    युवा आलोचक, संपादक व कवि | प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । विधाएँ : व्यंग्य, कविता, आलोचना, कहानी, संपादन। मुख्य कृतियाँ- कविता संग्रह : उधेड़बुन, हम रच रहे हैं आलोचना- हिंदी कविता का समकालीन परिदृश्य, समीक्षा और सृजन कहानी संग्रह : अनाहत एवं अन्य कहानियां संपादन : कविता प्रसंग, नए-नवेले व्यंग्य, चयन और चिंतन, आलोचना का आईना, सुशील से सिद्धार्थ तक आदि। अन्य : डॉ ज्ञान चतुर्वेदी के साथ साक्षात्कार पुस्तक 'साक्षी है संवाद', ब्लॉग पत्रिका 'अभिप्राय' का संचालन। सम्मान : प्रताप नारायण मिश्र युवा साहित्यकार सम्मान। आलोचना के लिए ‘अवध ज्योति’ सम्मान। हिंदी सभा का नवलेखन सम्मान आदि। सम्प्रति- अध्ययन-अध्यापन।