बिगड़ती हुई आबोहवा
समीक्षक- राहुल देव
समकालीन कविता की एक पीढ़ी वह भी है जो नई कविता आन्दोलन के बाद उभरी। उस पुरानी पीढ़ी के कुछ कवि आज भी कविताएँ लिख रहे हैं। इनकी कविताओं में बदलते हुए समय सन्दर्भों को भी सहज ही लक्षित किया जा सकता है। डॉ रणजीत उसी परम्परा के वरिष्ठ प्रगतिशील कवि हैं। ‘बिगड़ती हुई आबोहवा’ कवि रणजीत का 11वां कविता संग्रह है। जिसे उन्होंने सेल्फ पब्लिशिंग के तहत नोशन प्रेस, चेन्नई से प्रकाशित किया है। इस संग्रह में उनकी सन 2000 से 2020 के बीच लिखी गई कुल 59 कविताएं शामिल की गई हैं।
डॉ रणजीत एक जनपक्षधर कवि रहे हैं। कवि एक लंबे समय से कविता लिखता चला रहा है। उन्होंने प्रतिरोध की कुछ बेहतरीन कविताएं लिखी हैं। नई सदी के आने के बाद मनुष्य के जीवन में जिस तरह बाजार और उत्तरआधुनिकता की घुसपैठ हुई है, जिस तरह विकास के नाम पर सत्ता और पूंजी के गठजोड़ ने मनुष्यता के रास्ते में कांटे बिछाने का ही काम किया है। ऐसे तमाम विषयों की गहराई में जाकर कवि पाठक के सामने अपनी कविता के माध्यम से वैचारिक आधारभूमि निर्मित करता है। संग्रह की पहली कविता प्रश्न करते हुए मानो पूछती है कहां है असली आजादी- ‘विषम खेल है/ नियम उन्हीं के/ वह निर्णायक वही प्रतियोगी/ हैं वही भाग्य विधायक/ शुरू हुआ अब खुला खेल फर्रुखाबादी/ देखे कब तक बचती है अपनी आजादी’
समीक्षा के क्रम में संग्रह की ‘मिल्कियत’ शीर्षक कविता उल्लेखनीय है। यह कविता परंपरागत सामाजिक ताने-बाने की पड़ताल करती हैं। डॉ रणजीत की कविताओं का मुख्य स्वर आक्रोशजनित व्यंग्य प्रतीत होता है लेकिन इसे व्यक्त करते हुए कवि हमेशा विवेकी व संयत मुद्रा में रहे हैं। डॉ रणजीत अपनी छोटी कविताओं में ज्यादा सशक्त रूप से उभर कर सामने आए हैं। संग्रह की अपेक्षाकृत कुछ बड़ी कविताओं में शब्द व्यय के कारण कथ्य की काव्यात्मकता धूमिल सी प्रतीत होती है। संग्रह में कवि की कुछ साधारण कविताएं भी शामिल है जैसे ‘इंसानियत का पैगाम’, ‘दर्द का सम्मान’ तथा ‘परेशान मत करो बच्चों’ जैसी कविताएं। उम्र के इस पड़ाव पर ऐसी कविताओं को संग्रह में शामिल करने का तर्क समझ में नहीं आया। लंबी कविताओं पर भी थोड़ा और काम किया जा सकता था वे सपाटबयानी का शिकार मालूम होती हैं जैसे ‘किन्नरों की जीत पर’, ‘एक बेलाग बात’ तथा ‘अच्छी बातों की चर्चा’ शीर्षक कविताएं।
यह संग्रह थोड़ा जल्दबाजी में प्रकाशित किया गया है, ऐसा लगता है। प्रूफ रीडिंग की कुछ गलतियां अखरती हैं। जिन पर अगले संस्करण में ध्यान दिया जाना अपेक्षित होगा। इसी तरह भीतरी कंटेंट के फोंट को भी बेहतर रूप दिया जा सकता था। हालाँकि कतिपय त्रुटियों से संग्रह की कविताओं की महत्ता कम नहीं हो जाती। एक छोटी कविता ‘नई पीढ़ी से कवि का आह्वान’ है- ‘न चंट चालाक बनो/ न भोले ना दान बनो/ न रूढ़िवादी हिंदू बनो/ न बंद दिमाग मुसलमान बनो/ नई पीढ़ी के किशोरों और नौजवानों/ बन सकते हो तो/ थोड़े और बेहतर इंसान बनो।‘ कवि का यह मानववादी दृष्टिकोण संग्रह की मूल थीम है। संग्रह की एक और अच्छी कविता है ‘मेरे बस की बात’ जिसमें कवि बिगड़ चुके सामाजिक ताने-बाने को सुधारने के लिए सामूहिक सहयोग का आह्वान करता है। यह किसी एक व्यक्ति के बस की बात नहीं। इसी तरह ‘लोग’ शीर्षक कविता भी परिवेश की विसंगतियों पर भरसक प्रहार करती है। कवि की स्त्रीविषयक संवेदना ‘प्यार करती हुई स्त्री’ शीर्षक कविता में उमड़ पड़ी है। लेकिन कवि अपने सामाजिक उद्देश्य के प्रति सजग है और भावविगलित न होते हुए अगली कविता में वह ‘असली क्रांति’ की बात करता मिलता है। स्त्री को लेकर ‘एक दुविधाग्रस्त महिला का अंतर्द्वंद’ कविता भी अपने उद्दात्त भावों के कारण बेहद प्रभावी बन पड़ी है।
संग्रह की एक और बेहतरीन कविता का जिक्र करना चाहूंगा जिसका शीर्षक है ‘लोग हैं बेशर्म’। इस कविता में कवि लिखता है- ‘लोग हैं बेशर्म, बोलो क्या करें/ कुटिल इनके कर्म, बोलो क्या करें/ द्वेष इनका देश है और घृणा इन की जाति है/ ढोंग इनका धर्म, बोलो क्या करें/ जीतकर मासूम हिरणों को अरे ये भेड़िए/ ओढ़ते मृगचर्म, बोलो क्या करें/ जुल्म का भांडा लबालब भर चुका/ और लोहा गर्म, बोलो क्या करें?’ जिसे पढ़ने के बाद पाठक के मुंह से यही निकलता है कि शायद यही समय सही है उस गर्म लोहे पर चोट देने का।
कुछ और महत्वपूर्ण कविताएँ को रेखांकित करूँ तो उनमे संग्रह की ‘मौत’ शीर्षक एक छोटी सी कविता दृष्टव्य है- ‘मौत जिंदगी की मंजिल है/ मौत से तो फिर डरना क्यों/ मौत आए तब बैठ कर मरना/ कतरा-कतरा मरना क्यों’। कवि कविता की तथाकथित मुख्यधारा का निर्धारण करने वाले अशोक बाजपेई स्कूल के कलावादियों पर पर भी तंज करता है। कवि के इस संग्रह में जो कविता मुझे सबसे ज्यादा पसंद आई वह है ‘हो सारा संसार बराबर’ कुछ पंक्तियां देख ले- ‘आर बराबर, पार बराबर/ हो सारा संसार बराबर/ मालिक और मंजूर बराबर/ बामन और चमार बराबर/ एक-एक को दस-दस बंगले/ यह अन्य अपार बराबर/ रोटी, कपड़ा, घर, इलाज पर/ सबका हो अधिकार बराबर’। इसी टक्कर की ‘बयान’ शीर्षक कविता भी है जिसकी अंतिम कुछ पंक्तियां देखते चलें, ‘कैसी विडंबनापूर्ण स्थिति है कि/ सबसे बुरे लोग सबसे ज्यादा संगठित हैं/ कम बुरे कम संगठित/ और अच्छे लोग सबसे कम संगठित’। ‘लष्टम-पस्टम’ शीर्षक कविता और उधृत करने का लोभ संवरण नही हो रहा, इसे भी देखें- ‘सब कुछ लष्टम-पस्टम है/ बिगड़ा पूरा सिस्टम है/ कमजोरों को गोली मारो/ यही यहां का कस्टम है/ सत्य, न्याय, ईमान, अहिंसा/ मूल्य मान सब नष्टम है/ जनसेवा व्यवसाय सियासत/ मुजरिम सब में रुस्तम है/ चोर-लुटेरे प्रथम पंक्ति में/ भले आदमी अष्टम है’। पीढ़ियों के टकराव को सामने रखती कविता ‘अगर आपको’, सत्ता पक्ष के लिए प्रश्न पूछती ‘संसद में कैसे घुस आए’ शीर्षक कविता और ‘लेट जा, भई लेट जा’ शीर्षक जैसी कुछ अन्य रोचक कविताएं भी इस संकलन की उपलब्धि है।
कुल मिलाकर यहां एक महत्वपूर्ण कविता संग्रह है जिसकी कविताएँ आपको भाव और विचार दोनों स्तरों पर उद्वेलित करती हैं। कवि ने अपने समय-समाज के कड़वे सच को कहने से कहीं भी गुरेज नही किया है। वह अपने देश और देश के लोगों से बहुत प्रेम करता है। उसे किसी सर्टिफिकेट की जरुरत नही है, उसकी कविताएँ ही उसका अंतिम बयान हैं; उसका अपना पक्ष हैं। यह कविताएं परिवेश में व्याप्त हर तरह के आडंबर का विरोध करती हैं तथा हमें दिनों दिन कम होते जा रहे हैं इंसानियत का पाठ पढ़ाती हैं।
बिगड़ती हुई आबोहवा/ कविता संग्रह/ डॉ रणजीत/ नोशन प्रेस, चेन्नई/ 2021/ पृष्ठ 99/ मूल्य 150/-