सरगुन निर्गुण मन की छाया बड़े सयाने भटके

सुभाष चन्द्र

(शोध छात्र)

हिन्दी विभाग,

इलाहाबाद विश्वविद्यालय,

भारतीय इतिहास के प्रत्येक काल, परिस्थिति में कोई न कोई विषय विवाद का कारण बनता आया है। जैसे आदिकाल में विद्यापति को लेकर विद्वानों में काफी विवाद है कि वे भक्त कवि हैं या श्रंगारी कवि। इसी प्रकार भक्तिकाल में सगुण और निर्गुण धाराएं विवाद का विषय बनीं। इस पर आज तक विद्वान एक मत नहीं हो पाएं हैं कि सगुण मार्ग पर चलकर ईश्वर की प्राप्ति हो पाएगी या निर्गुण मार्ग पर चलकर। भक्तिकाल में कुछ संतों ने सगुण उपासना को अपनाया तो कुछ संतो ने निर्गुण मार्ग को।

भारत के इतिहास में मध्यकाल का विशेष उल्लेख रहता है। यह काल भारतीय समाज में काफी उथल – पुथल का रहा है। इस उथल – पुथल का मुख्य कारण इस्लाम के रूप में विदेशी प्रभाव था। इस्लाम धीरे – धीरे उस समय उत्तर भारत से चलकर सारे भारत को प्रभावित करता चला गया था। जब कोई भी ऐसा विदेशी असर, जिसे हमेशा राजनैतिक आक्रमण नहीं कहा जाना चाहिए, इस देश के समाज पर पड़ता है तो शूद्र और नारियों का समाज आगे आया करता है। तब ब्राह्मणी वर्ण व्यवस्था पर चोट पड़ने लगती है। ऐसा इस देश में पहले शक, हूण, कुषाण और यवनों के समय में हुआ था।

इस्लाम के प्रभाव से मध्यकाल की भारतीय भाषाओं में ज्यादातर संत साहित्य का प्रचलन रहा था। स्वयं हिन्दी भाषा जो उत्तर भारत के अधिकांश क्षेत्र को कवर किए रहती थी इस प्रभाव से खाली नहीं रही है। बल्कि कहा जा सकता है कि हिन्दी का यह प्रभाव कुछ अधिक उजागर हो कर सामने आया है। हिन्दी के भक्तिकाल की, जिसे कुछ लोगों द्वारा हिन्दी का स्वर्णकाल भी कहा जाता है, विशेषताएं इसके सगुण और निर्गुण काव्य धाराओं के अंतर की है। यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि सगुण पहले आता है या निर्गुण पहले आता है। भक्तिकाल से पहले सगुण और निर्गुण की प्राचीन परम्पराएं रहीं हैं। दलित जातियों में से मध्यकालीन इतिहास में निर्गुण संतों का जन्म लेना इस देश देश में विदेशी प्रभाव के कारण जन्मी क्रांति का हिस्सा है। दो समाजों के परस्पर संपर्क में आने की उठा – पटक में से तत्कालीन भारतीय समाज में दलित और गैर दलित समाज में अनेक संतों ने जन्म लिया था। तब सम्पूर्ण भारतीय समाज अपने बारे में सोचने को ऐतिहासिक रूप से मजबूर हो गया था। उस समय दलित जातियों के लिए समाज में धन, सम्मान और समानता की मनाही थी। इस मनाही का विस्तार अध्यात्म तक किया गया। इसका मतलब यह निकला कि दलित जातियों के लिए ईश्वर की भक्ति की मनाही की गई थी। ईश्वर, भक्ति और मंदिर – ये तीनों सवर्ण जातियों की प्रतिष्ठा के हिस्से थे। “दलित जातियों के संतों ने समाज और अध्यात्म दोनों स्तरों पर अपना चिंतन खड़ा किया। अध्यात्म के क्षेत्र में उन्होंने ईश्वर, भक्ति और मंदिर पर कब्जा करने चाहा था लेकिन उनके अध्यात्म का ईश्वर सगुण और निर्गुण में बंट गया। अध्यात्म की भक्ति पौराणिक और पारिवारिक भेदों में बंट गई, अध्यात्म मंदिर काशी के मंदिर और मन के मंदिर में बंट गया। अध्यात्म का दो फाड़ होना चिंतन की दृष्टि से भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है।”1

सगुण ईश्वर का मतलब मुख्य रूप से यही है कि ईश्वर अवतार लेता है। यह इस देश की परंपरा रही थी कि उच्च कुल में जन्म लेने वालों को ही ईश्वर तुल्य कहा जा सकता था। संस्कृत के महाकाव्यों की परंपरा यह रही थी कि उनका नायक शूद्र वर्ण में नहीं हो सकता था। सोचा जा सकता है जब महाकाव्य का नायक भी शूद्र कुल में जन्म नहीं ले सकता तो फिर यह कैसे सहन किया जा सकता कि स्वयं भगवान किसी शूद्र कुल में जन्म लेता ? यदि भगवान शूद्र कुल में जन्म लेता तो फिर शूद्र रूप में उसकी पूजा भी करनी पड़ती लेकिन सगुण भगवानों की उपासना का शूद्र का सामाजिक अधिकार चहे छीन लिया गया था। ऐसे समय ही शूद्र वर्ण को निर्गुण भगवान की जरूरत पड़ी होगी।

निर्गुण भगवान कि कोई भी अन्य दार्शनिक विशेषताएं बताईं गईं हों, उसकी एक सामाजिक व्याख्या यह है कि निर्गुण भगवान अजन्मा है। जब यह अजन्मा है तो इतने भर से ब्राह्मणों का अपने श्रेष्ठ वर्ण में जन्म लेले का घमंड चूर चूर हो जाता है। फिर यह बात समाप्त हो जाती है कि भगवान किसी उच्च कुल में जन्म लेता है। अजन्मा ब्राह्मण और शूद्र के लिए एक समान हो सकता है। कबीरदास जी ने भी कहा है कि –

एक बूंद,एकै माल मूतर, एक कहां, एक गूदा।

एक जोती से सब उतपना, को बामन को शूदा।|

निर्गुण भगवान, सगुण भगवानों कि तरह ब्राह्मणों का हित करने लिए धरती पर जन्म नहीं लेता। इसलिए निर्गुण के रूप में अजन्मा भगवान ब्राह्मणी वर्ण व्यवस्था को और उसकी श्रेष्ठता को चुनौती देता है। हिन्दू धर्म में सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार के भगवानों की भक्ति होती है। यदि यह भक्तों के चुनाव की बात है कि वे किस भक्ति को चुनते हैं तो इसमें कोई समस्या नहीं रह जाती। भक्तों के मन की बात है कि वे अपने मन की दार्शनिकता के आधार पर दोनों में से किसी की भक्ति पर जा सकते हैं। पर प्रश्न यह उठता है कि क्या भक्त लोग ऐसे चुनाव करने के लिए आपने – आप में स्वतंत्र हैं ? इसका उत्तर प्राप्त करने के पहले भक्तों को दो सामाजिक वर्गों में बांटना जरूरी है – एक द्विज जातियों में पैदा संत और दूसरे गैर द्विज जातियों में पैदा संत। अब प्रश्न यह उठता है —-

  1. क्या द्विज जातियों में जन्म लेने वाले भक्तों के सामने यह स्वतंत्रता थी कि वे चाहें तो सगुण कि भक्ति करें और चाहें तो निर्गुण कि भक्ति करें ?
  2. क्या गैर द्विज जातियों में जन्म लेने वाले भक्तों के सामने यह स्वतंत्रता थी कि वे चाहें तो सगुण कि भक्ति करें और चाहें तो निर्गुण की भक्ति करें ?

पहले प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि उन्हें यह स्वतंत्रता प्राप्त थी। उन पर कोई सामाजिक मनाही नहीं थी। दूसरे प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि उनके पास यह स्वतंत्रता नहीं थी। वे केवल निर्गुण की भक्ति में ही जा सकते थे और सगुण कि भक्ति नहीं कर सकते थे। यह दर्शन पर सामाजिक असर है – असर से भी अधिक यह सामाजिक बंधन अर्थात सोशल कन्डीशनिंग है। यहाँ यह बात गहराई से सोचने लायक है कि रामानद के सगुण उपासक होने के बावजूद उनके शिष्य रैदास और कबीर के निर्गुण के उपासक बने हैं। यह फिर आश्चर्य की बात है कि रैदास के निर्गुण उपासक होने बावजूद उनकी शिष्या मीराबाई पुनः सगुण उपासक बन गईं हैं। रामानद के शिष्य रैदास और रैदास की शिष्या मीराबाई हैं। रामानद उच्च कुल उत्पन्न हैं। दोनों उच्च कुल उत्पन्न संत सगुण के उपासक हैं और बीच का अकेला शूद्र कुल उत्पन्न संत निर्गुण उपासक है। दलित जातियों के संतों के लिए सगुण और निरगुन के चिंतन का भेद बहुत ही ऊपरी है। उनके निर्गुण की बात मान ली जाती यदि वे एक बार भी सगुण भक्ति करके दिखा सके होते।

“निर्गुण और सगुण का अंतर श्रमिक संस्कृति और गैर श्रमिक संस्कृति का अन्तर भी है। यह पूछने की बात है कि किस सगुण भक्त ने कमा कर खाया है और किस निर्गुण उपासक संत ने कमा कर नहीं खाया ? सगुण उपासक कमा कर नहीं खाते थे। उन्हें मंदिरों में खाने को मिल जाता था। वे भिक्षा से भी उदरपूर्ति करते थे। निर्गुणियों के पास ऐसा कोई मंदिर नहीं था जिसकी नियमित आय होती। इन्होंने कमा कर ही नहीं खाया बल्कि कमा कर खाने को अपना जीवन दर्शन घोषित किया है। संत रैदास कहते भी हैं –

  1. जिह्वा सो ओंकार जेपी, हत्थन सों कर कार;

राम मिलहिं घर आई कर, कहे रविदास विचार।

  1. करम बंधन मंह रमी रह्यो, फल को तज्यो न आस;

करम मनुष्य को धर्म है, सात सात भाषे रविदास।

  1. जिह्वा भजै हरिनाम नित, हथ करहिं निम काम;

रैदास भए निहचिंत हम, मम चिन्त करेंगे राम।

  1. रविदास श्रम करि खाइए, ज्यों लों पार बसाय;

नेक कमाई जउ करई, कबहुँ न निहफल जाए।

  1. श्रम कउ ईसर जानि कै, जउ पूजहिं दिन – रैन;

रैदास तिन्हहि संसार महं, सदा मिलहि सुख चैन।”2

“सगुण और निर्गुण में मुख्य भेद सामाजिक है। ये दोनों मार्ग ऊपर से ऐसे दीखते है कि भक्ति से संबंधित हों परंतु इनका संबंध मूल समाज में गहरा जुड़ा है। यह कहा जा सकता है कि भक्ति के ये दोनों पौधे समाज की मिट्टी और उसके खाद पानी में उगे हैं। इस सामाजिक भेद सगुण भक्त वर्णाश्रम की समाज को मानता है और निर्गुण भक्त मानव प्रेम को आधार बनाता है। ऐसा कोई सगुण भक्त नहीं मिलेगा जिसने वर्णों की बड़ाई न की हो और ऐसा कोई निर्गुण भक्त नहीं मिलेगा जिसने वर्णों का विरोध न किया हो। संत रैदास ने भी कहा है कि निर्गुण भक्ति का रास्ता मनुष्य से प्रेम का रास्ता है –

वन खोजों पी न मिला, वन में प्रीतम नाहिं।

रविदास पी हम भासे, रहियों मानव प्रेम माहिं।|”3

जो सगुण ईश्वर का भक्त है उसकी कथनी और करनी में अंतर आ जाता है। जिसने शास्त्र की व्याख्या करनी चाही है वह हिप्पोकेट हो जाता है। रैदास सगुण के इस मर्म को समझ गए थे। यदि सूरदास ने निर्गुणियों से ‘निर्गुण कौन देश को वासी ?’4 का प्रश्न किया है तो रैदास ने सगुणोंपासकों से पूछा है—-

“आपा पर चीन्हे नहीं और कू उपदेश,

कहाँ तै तुम आयो रे, जाहूगे किस देश ?”5

यह बात सौ प्रतिशत सही मानी जानी चाहिए कि उस समय दलित चाहे लाख प्रयत्न करते लेकिन फिर भी उन्हें राम और कृष्ण के हिन्दू मंदिरों में प्रवेश नहीं दिया जाता। फिर क्या दलित राम और कृष्ण के हिन्दू मंदिरों में प्रवेश नहीं दिया जाता। फिर क्या दलित राम और कृष्ण के अपने अलग मंदिर बनाना चाहते ? फिर क्या हिन्दू धर्म में एक ही देवता के जातियों के हिसाब से दो अलग – अलग मंदिर नहीं होते ? असल बात यह कि संभव नहीं था। दलितों को राम और कृष्ण के अलग – अलग मंदिर बनाने की भी अनुमति नहीं मिल सकती थी। इस युग में डॉ. अंबेडकर ने ‘काला राम मंदिर’ में प्रवेश करने की कोशिश की थी और वह संघर्ष कई वर्षों तक चला था। यदि डॉक्टर अंबेडकर को हिन्दू धर्म गले लगाता तो उन्हें बौद्ध धर्म की शरण में जाने की जरूरत नहीं पड़ती। डॉ. अंबेडकर ने अपने आरंभिक चिंतन और आंदोलनों से हिन्दू धर्म में बने रहने कि हजार कोशिशें की थीं। यही मध्यकालीन दलित जातियों के संतों के बारे में सच है। उन्होंने राम और कृष्ण के रूप में सगुण ईश्वर की मंदिरों में जा कर पूजा करनी चाही थी लेकिन उन्हें यह पूजा करने की सामाजिक मंजूरी नहीं मिली थी। जिस मजबूरी को लेकर इस सदी में डॉ. अंबेडकर हिन्दू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म की शरण में गए थे उसी मजबूरी के कारण दलित जातियों के मध्यकालीन संत सगुण ईश्वर को छोड़कर निर्गुण ईश्वर की शरण में गए थे। उनकी यह चाहत और खुशी नहीं बल्कि उनकी सामाजिक मजबूरी थी। यह सिध्दांत बाद में बना है कि सगुण ईश्वर से निर्गुण ईश्वर श्रेष्ठ है। वे पहले ही निर्गुण ईश्वर को श्रेष्ठ मानकर सगुण के विरोध में नहीं गए थे। वास्तव में उन्हें उपनिषदों की पुरानी भूमिका समेत निर्गुण का पहले पता नहीं था। सगुण के बाद ही निर्गुण आता है और सगुण से निर्गुण तक आने में सामाजिक कारण होते हैं।

निर्गुण और सगुण के आध्यात्मिक भेद को सामाजिक रूप में समझने का सही तरीका क्या है ? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि राम का नाम लेना सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रश्न था। गहने एक हैं परंतु धातुओं के रूप में सावर्णों के लिए सोने – चांदी का और शूद्रों के लिए गिलठ और कांसे का भेद किया गया। बारात एक है परंतु उसमें घोड़ी वाली बारात और बिना घोड़ी वाली बारात का अंतर किया गया। वस्त्र एक है परंतु उनमें घुटनों से नीचे की और घुटनों से ऊपर की धोती का फरक किया गया। अभिवादन एक है परंतु उसमें सामाजिक पहचान के लिए ‘राम – राम’ और ‘जुहारू’ का अंतर किया गया। इसी प्रकार ईश्वर एक है परंतु उसमें सगुण और निर्गुण का अंतर किया गया है। “ऐसा नहीं है कि इस देश में केवल सगुण और निर्गुण का एकमात्र चिंतन हो। लेकिन दार्शनिक, आध्यात्मिक दृष्टि से सगुण और निर्गुण का अंतर ही ज्यादा दीखता है। सगुण और निर्गुण एक दूसरे से दार्शनिक बहस में तुलकर सामने आते हैं। यदि दार्शनिक बहस रोकी जाए तो एक और तस्वीर सामने आती है। यह तस्वीर धार्मिक दृष्टिकोण की हैं।”6 लेकिन अब समाजशास्त्र के विद्यार्थियों को सगुण और निर्गुण को दार्शनिक आधार पर देखने का तरीका छोड़ देना चाहिए। जरूरत इस बात की है कि सगुण को इस समाज कि संपत्ति समझा जाए। सगुण को इस समाज की संपत्ति समझा जाए। सगुण के नृत्य है, गायन है, मूर्तिकला है, संगीत है और मंदिर है। मानव स्वभाव और मनुष्य जाति के लिए इनमें से एक भी चीज अनुपयोगी नहीं है। इन मंदिरों को तोड़ने कि जरूरत नहीं है। इससे देश का नुकसान होगा। एक भी मूर्ति को खंडित करने की जरूरत नहीं है इससे कला का नाश हो जाएगा। जरूरत इस बात की है कि इन मंदिरों को निर्गुण की दृष्टि से मनुष्य की सेवा के महान प्रयोजनों से अस्पतालों और कॉलेजों में बदल दिया जाए। आज देश के पास डॉक्टरों, इंजीनियरों की जो कमी है वह इनसे पूरी हो जाएगी। इस प्रथा को बंद किया जाना चाहिए कि अभी इस देश में पुरोहितगिरी में स्नातक बनाने के लिए हजारों की में योग आश्रमों में विद्यार्थी दिया जाता है। इस पुरोहितगिरी में वैदिक स्नातक के प्रवेश के लिए जो विज्ञापन दिए जाते हैं उनमें केवल उच्च ब्राह्मण कुल में उत्पन्न विद्यार्थियों को ही प्रवेश दिया जाता है। फिर प्रत्येक विद्यार्थी पर उससे ज्यादा खर्च आता है जो एक व्यक्ति पर मेडिकल या इंजीनियरी पढ़नें में काम आता है। यह देश के राष्ट्रीय धन का दुरुपयोग है।

“सगुण और निर्गुण के भेद से एक तिराहे की कल्पना की जा सकती है। जनता अपने अपने रास्ते से एक तिराहे पर आती है। उसे तिराहे के बीच में टोपी लगाए और सीटी बजाता हुआ एक सिपाही खड़ा हुआ है। उससे आगे सगुण और निर्गुण के दो रास्ते जाते हैं। यह समझ लीजिए कि दोनों रास्ते राजमहल के पास हैं। उनमें से एक राजमार्ग है और दूसरा जनपथ। यह सिपाही लोगों को दो तरह के अलग – अलग रास्ते बताता है जो द्विजों क्व जन्म लिए हुए हैं उन्हें राजमार्ग की ओर चलाया जाता है और जो दलित जातियों में जन्में हैं उनके लिए जनपथ का रास्ता है। यह राजमार्ग सगुण का है और जनपथ निर्गुण का है। इसमें इससे ज्यादा खोजबीन और माथा – पच्ची करने कि जरूरत नहीं है।”7

सगुण और निर्गुण दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। इन पर वाद – विवाद निरंतर होता है और होता रहेगा। स्वयं कबीरदास जी ने कहा है —-

‘सरगुन निरगुण मन की छाया, बड़े सयाने भटके’8

संदर्भ सूची –

  1. डॉ. धर्मवीर – गुरु रविदास, कंचन प्रकाशन, 30/80, गली नं. 8, शाहदरा, दिल्ली -110032, प्रथम संस्करण 2012, पृष्ठ 6 – 7.
  2. डॉ. धर्मवीर – गुरु रविदास, कंचन प्रकाशन, 30/80, गली नं. 8, शाहदरा, दिल्ली -110032, प्रथम संस्करण 2012, पृष्ठ 16.
  3. डॉ. धर्मवीर – गुरु रविदास, कंचन प्रकाशन, 30/80, गली नं. 8, शाहदरा, दिल्ली -110032, प्रथम संस्करण 2012, पृष्ठ – 20.
  4. डॉ. किशोरी लाल – सूरदास और भ्रमरगीत सार, अभिव्यक्ति प्रकाशन, बी – 31, गोविंदपुर कॉलोनी, इलाहाबाद – 211004, पुनर्मूद्रित संस्करण 2002.
  5. डॉ. धर्मवीर – गुरु रविदास, कंचन प्रकाशन, 30/80, गली नं. 8, शाहदरा, दिल्ली -110032, प्रथम संस्करण 2012, पृष्ठ – 21.
  6. डॉ. धर्मवीर – गुरु रविदास, कंचन प्रकाशन, 30/80, गली नं. 8, शाहदरा, दिल्ली -110032, प्रथम संस्करण 2012, पृष्ठ – 30
  7. डॉ. धर्मवीर – गुरु रविदास, कंचन प्रकाशन, 30/80, गली नं. 8, शाहदरा, दिल्ली -110032, प्रथम संस्करण 2012, पृष्ठ – 13.
  8. पारसनाथ तिवारी – कबीर वाणी, राका प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 2010.

प्रयागराज – 211002.

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