एक मुरझाई मुस्कान चेहरे पर आ कर सट जाती है । चेहरे की स्लेट से उसे पोंछ कर मैं खिड़की से बाहर झाँकता हूँ । एक और सिमसिमी शाम ढल चुकी है । रोशनी एक अंतिम कराह के साथ बुझ चुकी है । एक और पसीजी रात मटमैले आसमान की छत से उतर कर मेरे सलेटी कमरे में घुसपैठ कर चुकी है । उसी कमरे में जहाँ मैं हूँ , दीवारें हैं , छत है , सीलन है , घुटन है , सन्नाटा है और मेरा अंतहीन अकेलापन है । हाँ , अकेलापन । मेरा एकमात्र शत्रु-मित्र ।
दरअसल मुझे वह फूल बेहद सुंदर लगा और तब यह अहसास मुझ पर शिद्दत से हावी हुआ कि एक दिन मैं मर कर सदा के लिए ख़त्म हो जाने वाला था । वह फूल बेहद सुंदर था और भविष्य में आने वाले लोगों के लिए फूल हमेशा मौजूद होंगे और तभी मैं अनस्तित्व और नगण्यता के बारे में सब कुछ जान गया ।
वीरेंद्र से मेरी अन्तिम मुलाकात,उस दिन हुई थी जिस दिन मै ज्वाइनिंग के लिए निकल रहा था।हम काफी देर तक साथ थे पर उसने एक बार भी अपने फॉर्म के बारे मे नहीं पूछा।उसने मुझे ढेर सारी बधाइयां दीं और मेरे घर से निकलते वक़्त उसकी आँखें गीलीँ हो गई थीं।
बेटा तू बी.एड. क्यों नहीं कर लेता,बैठे बैठे कब तक किसी नौकरी का इंतजार करेगा,कोई काम धंधा करने के लिए न तो हमारे पास अनुभव है और न ही कोई बहुत ज्यादा पूँजी बची है। बी.एड. कर लेगा तो शायद शिक्षाकर्मी की ही नौकरी मिल जाए।
सूखी खुद एक किलोमीटर दूर नदी से पानी लाती है। अस्पताल भी आठ किलोमीटर दूरी पर है और उसी आठ किलोमीटर दूर में लगी बाजार को शाल पत्र, दातुन, जंगली चीजें आदि बैचने के लिए जाती है। इसलिए उसके लिए दो किलोमीटर की दूरी कुछ भी नहीं है। असल बात तो यह है कि वह रास्ता सही नहीं है। रास्ता जंगल से होते हुए बाजार तक जा पहुँचती है। इतना घना जंगल है कि उसमें भेड़ से लेकर शेर तक सभी की संख्या बहुत अधिक है। कभी-कभी तो हाथियों की झुंड अचानक से रास्ते पर आ पहुँचती है। वह चईना को एक-दो बार बताई है कि ---“चलो हम शहर को चले जाते हैं। यहाँ तो जंगल से कुछ खास जंगली चीजें नहीं मिल रही है।
अब उसके लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता था । वह ईस्टर के रविवार का दिन था और फ़ासिस्ट फ़ौजें एब्रो की ओर बढ़ रही थीं । वह बादलों से घिरा सलेटी दिन था । बादल बहुत नीचे तक छाए हुए थे जिसकी वजह से शत्रु के विमान उड़ान नहीं भर रहे थे । यह बात और यह तथ्य कि बिल्लियाँ अपनी देख-भाल खुद कर सकती थीं -- उस बूढ़े के पास अच्छी किस्मत के नाम पर केवल यही चीज़ें मौजूद
आज दिन भर भावों और शब्दों की खींचातानी होती रही थी, और होती भी क्यों न? आज बरसों बाद बचपन के बहुत सारे साथी मिले थे। वे सब जो संग खेला करते थे। गुड़ियों के साथी, घर-घर के खेल, गिट्टी, स्टापू, पोशमपा, गिट्टीफोड़, आइस-पाइस के साथी, बाल-कीर्तन मंडली बनाकर गर्मियों की छुट्टियों में बारी-बारी सबके घर कीर्तन करने वाले और जन्माष्टमी पर मिलकर झाँकी सजाने वाले साथी। स्मृतियों में अभी तक फ्रॉक और निक्करों में सजे साथी।