भारतीय साहित्येतिहास में नवजागरण

ज्ञान चन्द्र पाल

            भारत बहुभाषिक, बहुसांस्कृतिक तथा बहुभौगोलिक स्थितियों वाला देश रहा है। विविधता होते हुए भी कुछ घटनाएं समय विशेष में एक-सी होती दिखती है, यह इसकी विडम्बना है। घृणित जाति-विशिष्टता और छुआ-छूत उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक पूरे भारत को इस तरह से अपने साये में ढके हुए है, जैसे आकाश पृथ्वी को ढके हुए है। भारतीय साहित्य में नवजागरण के आने का मतलब है, उन बुराइयों के प्रति अपना विरोध दर्ज करना जो समाज को लंबे समय से घुन की तरह खा रही हैं। नवजागरण अपने आप में सामाजिक प्रतिरोध है- पाखंडों, आडंबरों तथा अंधविश्वासों से लड़ने का। यह प्रतिरोध उस समय होता है जब भारत में अंग्रेजों का शासन था। विद्वानों ने नवजागरण के समय तथा परिस्थितियों को अपनी-अपनी समझ के अनुसार विश्लेषित किया है। विद्वानों ने नवजागरण के मायने को भी अपने-अपने हिसाब से समझा है। कुछ इसे अंग्रेजी राज्य से मुक्ति की आकांक्षा मानते हैं तो कुछ साहित्य में लोक भाषा के प्रयोग को नवजागरण मानते हैं। डॉ. रामविलास शर्मा इसे राष्ट्रीय एकता के रूप में देखते हुए लिखते हैं- “हिंदी प्रदेश में नवजागरण 1857 ई॰ के स्वाधीनता संग्राम से शुरू होता है। इस स्वाधीनता संग्राम की पहली विशेषता है कि यह सारे देश की एकता को ध्यान में रखकर चलाया गया था।”[1] कुछ भारतीय विद्वान नवजागरण का श्रेय भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना को देते हैं। उनका यह मानना है कि अंग्रेजों के आधुनिकीकरण और भारतीयों के धार्मिक संस्कारों के टकराव के परिणामस्वरूप नवजागरण का जन्म होता है। डॉ. बच्चन सिंह ‘आधुनिक काल : पूर्व पीठिका’ में लिखते हैं- “ब्रिटिश राज्य की स्थापना के कारण भारत की अर्थनीति, शिक्षा पद्धति, यातायात के साधनों आदि में बुनियादी परिवर्तन हुए। इसके फलस्वरूप समाज का जो आधुनिकीकरण आरंभ हुआ, वह पुराने धार्मिक संस्कारों, रीति-नीतियों, संघटकों के मेल में नही था। नए यथार्थ और पुराने संस्कारों के बीच सामंजस्य की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। इसी सामंजस्य के साथ ही नए भारतीय समाज के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई।”[2]  

भारतीय नवजागरण का स्वरूप

भारतीय नवजागरण का स्वरूप एकरेखीय न होकर बहुरेखीय है। बंगाल में जहाँ वह अंग्रेजी शिक्षा के तर्कवाद से प्रेरित था, वहीं हिंदी प्रदेश में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता केंद्र में थी। महाराष्ट्र का नवजागरण जहाँ एक ओर फुले के नेतृत्व में होकर ब्राह्मणवाद का विरोध और दलितोत्थान था वहीं आंध्र प्रदेश और गुजरात में शिक्षा और धार्मिक सुधार था। सम्पूर्ण प्रदेश का आंदोलन स्वतन्त्रता, समानता और बंधुत्व के लिए कटिबद्ध था।

बंगाल और भारतीय नवजागरण

            भारतीय नवजागरण में बंगाल का प्रथम स्थान है और इसका श्रेय राजा राममोहन राय को जाता है। राममोहन राय अंग्रेजी, संस्कृत के अलावा अरबी-फारसी के अच्छे विद्वान थे। बंगला उनकी मातृभाषा थी। वे अंग्रेजी शिक्षा से काफी प्रभावित थे। वे धर्म को तर्क की दृष्टि से देखने वाले व्यक्ति थे, परंतु धर्म उनकी तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता था। वे सतीप्रथा के घोर विरोधी थे। तत्कालीन धर्मानुष्ठान के अनुसार पति की मृत्यु होने पर उसकी पत्नी को भी पति के शव के साथ जला दिया जाता था। निरीह स्त्री की आवाज को ढ़ोल-ताशों के बीच दबा दिया जाता था। राममोहन राय ने सतीप्रथा के खिलाफ आंदोलन चलाया और अंग्रेजों से मिलकर सतीप्रथा को कानूनी अपराध घोषित कराया। इसके लिए उन्हें बंगाल के प्रसिद्ध ब्राह्मण राधकान्त देव से टक्कर लेनी पड़ी। आज भी राधकान्त के वंशज भारत में यत्र-तत्र बिखरें पड़े हैं, जो कभी-कभी अपनी पुरानी विषैली फुफकार से सतीप्रथा को महिमामंडित करते रहते हैं। हद तो तब हो जाती है जब कोई महिला भी उनके समर्थन में उतर जाती है।

            तत्कालीन समय भारत में स्त्री-शिक्षा का निषेध था। राधकान्त देव जहाँ एक ओर सतीप्रथा के प्रबल समर्थक थे, वहीं दूसरी ओर वो स्त्री-शिक्षा के हिमायती भी थे। उन्होंने स्त्री-शिक्षा पर पहली किताब ‘स्त्री-शिक्षा विधायक’ (1822) तैयार कराने और छपाने में बड़ी भूमिका अदा की थी। बंगाल के ही ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ‘बालविवाह’ के विरोधी और विधवा विवाह के पैरोकार थे। तत्कालीन मान्यतानुसार रजस्वला से पहले कन्या का विवाह करने पर माता-पिता पुष्य के भागीदार होते थे। इस अंधविश्वासी मान्यता के अनुसार कई बालिकाएँ कम उम्र में ही गर्भधारण कर लेती थीं और उचित देखभाल न होने के कारण काल कलवित हो जाती थीं। बहु-विवाह के अंतर्गत कई ऐसी कन्याएँ होती थीं जो अपने पति के बेटी की उम्र की होती थीं। पति की मृत्यु हो जाने पर ये विधवाएँ समाज में हेय की दृष्टि से देखी जाती थीं। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने इस घृणित प्रथा से समाज को जागरूक किया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, केशवचंद्र सेन, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद आदि बंगला नवजागरण के पैरोकार थे। सभी समाज सुधारक अपने-अपने ढंग से शिक्षा-प्रसार और सामाजिक जागरूकता का कार्य कर रहे थे।

            हिंदी नवजागरण के पैरोकारों में राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिंद’ भारतेन्दु हरिश्चंद्र, प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट आदि थे। वीरभारत तलवार ने अपनी पुस्तक ‘रस्साकशी’ में राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिंद’ और भारतेन्दु का नवजागरण में योगदान की विवेचना की है। भारतेन्दु के नवजागरण का संबंध बंगाल के नवजागरण से सीधे रूप में था। भारतेन्दु ने कई बंगला रचनाओं का हिंदी अनुवाद भी किया। अंग्रेजी राज का पर्दाफाश उन्होंने अपने प्रहसन ‘अंधेर नगरी’ में किया है। उस समय के साहित्यकार पश्चिमी ज्ञान के आलोक में अपने धर्म को देखने लगे थे। जिस धर्म में समुद्र पार करने पर, अछूत की परछाई पड़ने पर धर्म भ्रष्ट हो जाता था, और उसका पश्चाताप गोमूत्र और गाय का गोबर खाने से होता था। धर्म के खिलाफ बोलना तो दूर सोचना भी पाप समझा जाता था। ऐसे धर्म के खिलाफ भी लोग लिखने लगे थे और अपने पिछड़ेपन के लिए धर्म को जिम्मेदार ठहराने लगे थे। प्रताप नारायण मिश्र भी उनमें से एक थे। उन्होंने अपने लेख ‘संस्कृत की संकुचित दशा’ में लिखा है- “सच पूछो तो हिंदुस्तान की अधोगति का एक हेतु हमारा धर्म और मजहब भी हो रहा है जिससे हम ऐसे जकड़ दिये गए हैं कि आगे पैर फैला नहीं सकते। हमारे पंडित लोग निरे भोंदू दास बने रहते हैं, देश-काल को कुछ नहीं समझते। उसका कारण भी यही है कि जन्म-भर सिवाय संस्कृत के कुछ उन्होंने पढ़ा ही नहीं। अटल विश्वास जमा है कि जो कुछ है सब हमारे वेद और संस्कृत में हैं।”[3] हिंदी प्रदेश का नवजागरण सन् 1857 के गदर से भी विशेष रूप से प्रभावित था। समाज सुधार के साथ-साथ स्वतंत्रता और स्वराज की भावना भी जन के हृदय में उठने लगी थी। गणेश शंकर विद्यार्थी, राधामोहन गोकुल आदि ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से स्वतंत्रता और स्वराज की भावना लोगों के हृदय तक पहुंचाये।

गुजरात में नवजागरण

             गुजरात प्रदेश में नवजागरण का श्रेय ‘आर्य समाज’ के संस्थाप्क स्वामी दयानन्द सरस्वती को जाता है। इन्होंने अपने उपदेशों में मूर्तिपूजा की कड़ी भर्त्सना की है। इनका विशेष महत्व इनकी पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को लेकर है जिसमें इन्होंने वेदों को आधुनिक ढंग से व्याख्यायित किया है। ये गुजरती होते हुए भी इसको हिंदी में लिखा ताकि अधिक लोगों तक इसका लाभ पहुंच सके। नवजागरण का एक पक्ष भाषा का परिवर्तन भी था। जहाँ भारतेन्दु युग में भी ब्रजभाषा में रचनाएं रची जा रही थीं, वहीं द्विवेदी युग में खड़ी बोली को महत्ता मिलने लगी। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के अथक प्रयत्न से गद्य और पद्य की भाषा एक हो सकी।

महाराष्ट्र में नवजागरण

            महाराष्ट्र में नवजागरण तथा समाज सुधार का ध्वज महात्मा ज्योतिबा फुले ने संहाला था। इन्होंने अपनी पुस्तक ‘गुलामगीरी’, ‘किसान का कोड़ा’ आदि में दलितों और किसानों की आवाज उठायी। उस समय महाराष्ट्र घोर अंधभक्ति और असमानता के गर्त में डूबा हुआ था। विधवा-विवाह निषेध था। समाज में दलितों और विधवाओं को हेय दृष्टि से देखा जाता था। दलितों की स्थिति तो अति चिंतनीय थी। लोग उनकी परछाई से भी धर्मभ्रष्ट हो जाते थे। दलितों को गले में हांडी और पीठ-पीछे झाड़ू बांधने के सख्त आदेश थे। ऐसे समय में ज्योतिबा फुले ने ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना करके अंग्रेज़ शासन के सामने दलितों और विधवाओं की समस्या को रखा। कर्मेन्दु शिविर ने उनके बारे में लिखा है- “आप फुले के महात्मा वाले कार्यों को देखे और उन पर निष्पक्ष होकर विचार तो करें। नवजागरण का एक नायक दलित आंदोलन चला रहा है और पुनर्विवाह की बंदिश और बाल विवाह की प्रथा से दमित ब्राह्मण कन्याओं की चिंता कर रहा है। इस प्रथा की मारी ब्राह्मण विधवाएँ गर्भवती हो जाती थीं और परित्यक्त होकर मर-खप जाती थीं ऐसी अनाथ विधवाओं की सुरक्षित जचकी के लिए उस महान आत्मा ने आश्रम खोले।”[4] बेशक फुले के कार्यों की प्रशंसा जितनी की जाय कम है। उन्होंने स्त्रियों के लिए सर्वप्रथम पाठशालाएँ खोली जिनमें उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले की सशक्त सहभागिता थी। इसके लिए उन पर रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने कंकड़-कीचड़ फेके।

            ज्योतिबा फुले का कार्य समाज के दबे कुचले शोषित-पीड़ित,  दलित और किसानों को समर्पित था। किसानों, दलितों, के शोषण का एक कारण वे अशिक्षा को भी मानते हैं। ‘किसान का कोड़ा’ की प्रस्ताविका में वे लिखते हैं- “विद्या के न होने से बुद्धि नहीं, बुद्धि के न होने से नैतिकता न रही, नैतिकता के न होने से गतिमानता न आई, गतिमानता के न होने से धन-दौलत न मिली, धन-दौलत न होने से शूद्रों का पतन हुआ। इतना अनर्थ एक अविद्या से हुआ।”[5] उपर्युक्त वाक्य से यह पता चलता है कि समाज के पिछड़ेपन के लिए वे अशिक्षा को कितना जिम्मेदार ठहराते हैं। ज्योतिबा फुले अच्छी तरह जानते थे कि दलितों के सामाजिक पिछड़ेपन का कारण ये पाखंडी ‘ब्राह्मण’ और उनके स्वार्थहित के लिए बनाया गया ‘ब्राह्मणग्रंथ’ है। अपनी पुस्तक ‘गुलामगीरी’ की प्रस्ताविका  में वे लिखते हैं- “जिस ईश्वर ने शूद्रादि- अतिशूद्रों को और अन्य लोगों को अपने द्वारा निर्मित इस सृष्टि की सभी वस्तुओं को समान रूप से उपभोग करने की पूरी आजादी दी है, उस ईश्वर के नाम पर ब्राह्मण-पंडा-पुरोहित एकदम झूठ-मूठ ग्रन्थों की रचना करके, उन ग्रंथों में सभी के (मानवी) हक को नकारते हुए स्वयं मालिक हो गए।”[6] महात्मा फुले के सामाजिक कार्यों का ही प्रतिफलन आगे चलकर ‘महार आंदोलन’ के रूप में परिणत होता है, जिसके अगुआ भारतीय संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर थे। अंबेडकर ने फुले से ही प्रेरणा लेकर ‘मनुस्मृति’ की प्रतियां जलाई और तालाब का पानी जो शूद्रों के निषेध था, सबके लिए खुलवाया।

तमिल नवजागरण

            तमिल नवजागरण का केंद्रीय सार तत्व ब्राह्मणवाद-विरोध और द्रविण चेतना है। इसी तरह केरल नवजागरण का केंद्रीय सारतत्व दलित चेतना है। तमिलनाडु के निवासी पेरियार ई. वी. रामास्वामी ने धर्म में छिपे व्यक्तिवाद को भली-भांति परख लिया था। उन्होंने अपने लेख ‘दुनिया में अन्याय का कारण धर्म है’, ‘मैं हिन्दुत्व का विरोधी क्यों हूँ?’ तथा ‘सच्ची रामायण’ आदि के द्वारा धर्म की पोल खोल रहे थे। अपने लेख ‘दुनिया में अन्याय का कारण धर्म है’ में लिखते हैं- “मेरा यह मानना है कि बिना किसी दूसरे को कष्ट दिए यदि कोई मनुष्य समाज की सेवा करना चाहता है तो उसे किसी भी धर्म की आवश्यकता नहीं है और न ही उसे किसी ईश्वर-पुत्र, नबी, ऐजवार, आचार्य, नायनमार आदि  की पवित्रता और उनके चमत्कारों की जरूरत है। मैं नहीं जानता, आज कोई ऐसा धर्म भी है जो समाज सेवा का समर्थन करता है।”[7] पेरियार में ब्राह्मण धर्म के प्रति तीव्र विद्रोह है। वे दलितों के हक की लड़ाई में ब्राह्मण और ब्राह्मण ग्रंथ को आड़े हाथों लेते हैं।

            नारायण गुरु केरल प्रदेश के प्रसिद्ध समाज सुधारक और जातिप्रथा के जबर्दस्त विरोधी थे। एक जाति, एक धर्म और एक ईश्वर में उनका विश्वास था। वे विवाह आदि के फिजूल खर्च और कर्मकांडों के तीव्र विरोधी थे। केरल प्रदेश में उस समय छुआ-छूत अपने चरम पर था।  देवेन्द्र कुमार बेसंतरी के अनुसार, “नंबुदरी ब्राह्मण नायर जैसे सवर्णों से 32 फुट की दूरी से, नायर इढ़वा लोगों से, जो अगम्य तो थे पर  जिनका स्थान सामाजिक ढांचे में बहुत ऊंचा था, 64 फुट की दूरी से और इढ़वा जाति के लोग अछूतों-पुलया, परेया से 100 फुट की दूरी से ही अपवित्र हो जाते थे।”[8] नारायण गुरु ने मंदिर में अछूतों के प्रवेश निषेध के फलस्वरूप अछूतों के लिए अलग से मंदिर का निर्माण करवाया तथा इनके पुजारी भी अब्राह्मण वर्ग से रखे गये। इन मंदिरों की पूजा विधि भी आगे चलकर परंपरागत पूजा के तौर-तरीकों से भिन्न हो गयी थी। इन मंदिरों में अछूतों के पिछड़ेपन का कारण बताना तथा शिक्षा की जानकारी दी जाती थी।

            भारतीय नवजागरण के मूल में सामंतवाद और धार्मिक सत्ता के कठोर नियंत्रण से मुक्ति, वैयक्तिकता की पहचान, मोक्ष की धारणाओं से मुक्ति, स्वराज की कामना, भौतिक दुनिया के महत्व की समझ, वैज्ञानिक जिज्ञासा, आडंबरों-पाखंडों का विरोध, सचेत ढंग से समाज सुधार, भाषा सुधार, स्त्री-शिक्षा, नारी उद्धार, मानवीय समानता आदि निहित है। यह सामाजिक सुधार उत्तर से दक्षिण तथा पूरब से पश्चिम तक विभिन्न समाज सुधारकों के प्रतिबद्ध और अथक परिश्रम के फलस्वरूप सम्पन्न हुआ। परंतु विडम्बना यह है कि आज भी जातीय दंभ और विशिष्टता बोध के अहं के फलस्वरूप दलित दूल्हा घोड़े पर बैठने के उपरांत ‘हेलमेट लगाने को बाध्य है। स्त्रियाँ आज भी सतीप्रथा के नाम पर महिमामंडित की जाती हैं। आज भी सती मैया के मंदिर को बनाने वालों का मामला अदालत में लंबित है। आज भी तथाकथित बाबा अपने सिद्धि और मंत्रों के जाल में फंसाकर जनता का शोषण करने के लिए तत्पर हैं। हद तब हो जाती है जब जनता द्वारा निर्वाचित जनता के प्रतिनिधि भी इनके दरबार में मत्था टेकते देखे जाते हैं। नवजागरण का समय कभी रुकता नहीं है। आज भी हम समाज में आए नए बदलाव के लिए  संघर्ष करते हुए लोगों को देख सकते हैं। वर्तमान समय में आई दो फिल्मों ‘टॉइलेट एक प्रेमकथा तथा ‘पैडमैन’ इसी बदलाव की सूचक हैं। 

संदर्भ ग्रंथ सूची:

  1. संपादक शम्भूनाथ (2006): सामाजिक क्रांति के दस्तावेज़: वाणी प्रकाशन नई दिल्ली-110002
  2. शर्मा, रामविलास (2008). महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण. नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन
  3. शिशिर, कर्मेन्दु (2003). राधामोहन गोकुल और हिंदी नवजागरण. हापुड़ : संभावन प्रकाशन
  4. शिशिर, कर्मेन्दु (2008). हिंदी नवजागरण और जातीय गद्य परंपरा. पंचकूला हरियाणा : आधार प्रकाशन
  5. शम्भूनाथ (2008). हिंदी नवजागरण और संस्कृति. कोलकाता : आनंद प्रकाशन
  6. मेश्राम, एल. जी. और विमल कीर्ति. ( सं.).  (2009). ‘महात्मा ज्योतिबा फुले रचनावली’ (भाग 1, 2). नई दिल्ली :  राधा कृष्ण प्रकाशन –
  7. बेसंतरी, देवेंद्र कुमार (2004). भारत के सामाजिक क्रांतिकारी. नई दिल्ली : दलित साहित्य प्रकाशन
  8. डॉ. नगेंद्र (सं.). (2013). हिंदी साहित्य का इतिहास. नई दिल्ली : मयूर पेपर बैक्स

[1] शर्मा, रामविलास- महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, पृष्ठ- 45   

[2] डॉ. बच्चन सिंह, ‘आधुनिक काल: पूर्व पत्रिका’, सम्पा. डॉ. नगेंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास’, पृष्ठ-409

[3] शम्भूनाथ- हिंदी नवजागरण और संस्कृति, पृष्ठ-103

[4] कर्मेन्दु शिशिर, ‘हिंदी नवजागरण और जातीय गद्य परंपरा, पृष्ठ- 18

[5] जोतीराव गोविंदराव फुले- ‘किसान का कोड़ा’, पृष्ठ-289

[6] जोतीराव गोविंदराव फुले- ‘गुलामगीरी’ पृष्ठ-136

[7] शम्भूनाथ, सामाजिक क्रांति के दस्तावेज़ (भाग-2), पृष्ठ 1213

[8] देवेंद्र कुमार बेसंतरी- भारत के सामाजिक क्रांतिकारी, पृष्ठ- 136

पी-एच. डी. शोधार्थी

मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई

ई. मेल.- gyan.mgahv@gmail.com