शेख अब्दुल्लाह और अलीगढ़ कन्या स्कूल

अब्दुल अहद पीएच.डी. शोधार्थी

इंदिरा गाँधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी (IGNOU)

मोबाइल न. 9718617121

ईमेल : ahada9210@gmail.com

सारांश

इस पेपर में शेख अब्दुल्लाह के मुस्लिम लड़कियों के लिए किये गये शैक्षिक कार्यों का उल्लेख किया जायेगा। इन कार्यों में उनके द्वारा कई ऐसे मूर्त कदम उठाये जो अब से पहले भारत में मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा के लिए नहीं किये गये थे। इस पेपर में ऐसे ही मूर्त कार्यो व प्रयासों का उल्लेख किया जाएगा जिसने मुस्लिम समाज में लड़कियों की शिक्षा प्रदान करने के प्रति भी जागरूकता का विस्तार किया इसमें खातून मैगज़ीन की अहम भूमिका रही। साथ ही यह पेपर इस पहलू को भी सामना लाएगा कि मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों में मुस्लिम लड़कियों को आधुनिक शिक्षा प्रदान करने का चिन्तन तो स्प्ष्ट झलक रहा था लेकिन वह चिंतन उनके धार्मिक मसलों या विश्वासों को समाप्त नहीं कर रहा था बल्कि उनके साथ मुस्लिम महिलाओं की आधुनिक शिक्षा का सामंजस्य स्थापित कर रहा था।

बीज शब्द : शिक्षा, विधालय, पर्दा, मुस्लिम, मदरसा।

भूमिका

1857 के बाद की पीढ़ी ने महसूस किया कि महिलाओं की शिक्षा के बारे में कुछ करने की जरूरत है, न कि केवल काल्पनिक रूप में आदर्श महिला के प्रिंट में चित्रित[1] करने के लिए। इन पुरुषों ने चैंपियन महिलाओं की शिक्षा के लिए संघों (एसोसिएशन्स) और उन्होंने लड़कियों के लिए स्कूलों की स्थापना की। उन्होंने नव साक्षर महिलाओं को पढ़ने के लिए किताबें और पत्रिकाएँ भी प्रकाशित की। उनमें से अलीगढ़ के छात्रों की पहली पीढ़ी के सदस्य थे, जैसे शेख अब्दुल्ला, उनके कुछ शिक्षक और समकालीन भी।[2]

बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में अलीगढ़ कॉलेज में लड़कियों के लिए स्कूल की स्थापना शेख अब्दुल्ला द्वारा की गई। इस स्कूल की स्थापना में उनकी पत्नी वहीदा जहां बेगम ने भी उनकी मदद की।
महत्वपूर्ण बात यह है कि वह उस वक्त लड़कियों की शिक्षा की बात कर रहे थे वह भी मुस्लिम लड़कियों की जिनमें महिलाओं को लेकर तरह तरह की धारणायें और सामाजिक परम्परा विद्धमान थी जो महिलाओं को समाज में कुछ भी बदलाव करने से रोकती थी। और उनको समाज व धर्म के नाम पर सही ठहराते थे। इनमें सबसे बढ़ी एक चुनौती पर्दा प्रथा थी। इस प्रथा की वजह से मुस्लिम लड़कियाँ घर की चार दिवारी में ही रहने के लिए बाध्य होती थी। इसलिए जब अलीगढ़ में यह स्कूल खोला गया तो मुस्लिम समाज के लोगों को किस तरह मनाया गया और फिर मुस्लिम लड़कियों को स्कूल में किस तरह लाया जाता था इसकी भी चर्चा हम अपने इस पेपर में करेंगे।

इसके अलावा, अलीगढ़ कन्या विधालय की शैक्षिक प्रगति का भी उल्लेख किया जाएगा। इस प्रगति का मुल्यांकन शेख अब्दुल्लाह की पत्रिका खातून में लिखे गये अनेक लेखों के आधार पर किया गया है। इसके अंतर्गत हमने इस स्कूल के शुरू के 10 वर्षों में समय के साथ-साथ क्या परिवर्तन आये उनका मुल्यांकन करने का प्रयास किया गया है जैसे कक्षा में शिक्षक-छात्र अनुपात, स्कूल की इमारत का विस्तार, पर्दे का इन्तिज़ाम इत्यादि। साथ ही, यह भी देखा जाएगा कि स्कूल में लड़कियों के शिक्षा अर्जित करने की क्या सीमाएं थी अर्थात लड़कियों को किस तरह का पाठ्यक्रम पढ़ाया जा रहा था।

शेख अब्दुल्लाह का जीवन और अलीगढ़ कन्या स्कूल की स्थापना

शेख अब्दुल्लाह एक कश्मीरी ब्राह्मण थे, जिनका जन्म ठाकुर दास के नाम से 1874 में पूँछ के निकट एक गाँव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा पूँछ के एक मकतब में ही हुई जहाँ उन्होंने सादी की गुलिस्तानबुस्तान और फिरदौसी की शाहनामा का अध्ययन किया था। उनके परिवार ने उनको हकीम नूरुद्धीन से यूनानी चिकित्सा का अध्ययन करने के लिए मनाया। इसके अलावा, हकीम नूरुद्धीन एक अग्रगामी कादियानी थे और उनके ही सरंक्षण में ठाकुर दास का धर्मांतरण अहमदिया सम्प्रदाय में हुआ और उनका नाम शेख अब्दुल्लाह रखा गया। हकीम की सहायता से ही उन्होंने अपनी माध्यमिक शिक्षा के लिए लाहौर की यात्रा की और बाद में अलीगढ़ के कॉलेज और विधि स्कूल गये। अलीगढ़ में शेख अब्दुल्लाह एक सुन्नी मुस्लिम हो गये, इसी के फलस्वरूप उन्होंने स्वंय को अपने सरंक्षित से स्वतंत्र घोषित कर दिया। अपनी विधि की डिग्री लेने तक, वह अलीगढ़ में ही रहे और ओल्ड बॉयज’ एसोसिएशन और मोहम्मडन एजुकेशनल कांफ्रेंस में सक्रिय हो गये। यह बात ठीक है कि उन्होंने अपनी धार्मिक विरासत से नाता तोड़ लिया था, लेकिन उनके कश्मीरी प्रष्ठभूमि के साहित्यक और धर्मनिरपेक्ष मूल्य ऐसे ही थे जैसे कि अलीगढ़ में उनके मुस्लिम सहपाठियों की शरीफ संस्कृति में थे। शेख अब्दुल्लाह का जब हम मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा के चैंपियन के रूप में विश्लेष्ण करते है तो हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वह अपनी शरीफ संस्कृति के मूल्यों का समर्थन तो कर ही रहे थे बल्कि अपनी स्वतंत्र सोच को भी सामने ला रहे थे।[3]

अलीगढ़ में मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा के लिए आंदोलन मुख्य रूप से  शेख अब्दुल्ला के प्रयासों से जुड़ा हुआ है। वर्ष 1902 से ही महिला शिक्षा के मुद्दे पर लगातार कुछ -कुछ प्रयास उनके द्वारा दिल्ली के एक कुलीन परिवार में पढ़ी-लिखी लड़की वाहिद जहाँ से शादी के बाद दिखाई देने लग जाते है।[4] शेख अब्दुल्ला के अपने पूरे करियर के दौरान उनकी पत्नी वहीद बेगम ने उन्हें सहायता दी। उनकी पत्नी ने 1904 में पत्रिका खातुन के प्रकाशन में मदद की। अपने समुदाय की महिलाओं की प्रतिभा और शैक्षिक आवश्यकताओं पर ध्यान देने के तरीकों के रूप में 1905 में, मुहम्मडन शैक्षिक सम्मेलन की वार्षिक बैठक के सिलसिले में, उन्होंने और शेख अब्दुल्ला ने मुस्लिम महिलाओं द्वारा हस्तशिल्प की प्रदर्शनी का आयोजन किया और देश भर की शिक्षित मुस्लिम महिलाओं की एक बैठक आयोजित की । 1906 में दिल्ली में उनके परिवार ने अलीगढ़ शहर में मूल कन्या विद्यालय के लिए एक शिक्षक खोजने में मदद की। बेगम अब्दुल्ला और उसकी बहन भी स्कूल में पढ़ती । वहीद बेगम इसकी देखरेख करने में मदद करने के लिए रोज़ाना स्कूल जाती थी, और यह आश्वासन देतीथी कि पर्दा को ध्यान से देखा जाएगा, जिससे समुदाय में विरोध को दूर करने में मदद मिलेगी।[5]

शेख अब्दुल्ला ने सैयद सज्जाद हैदर और ग़ुलाम उस सक्लैन जैसे युवा पुरुषों की सराहना की, जिन्होंने अलीगढ़ कॉलेज में महिलाओं की शिक्षा के बारे में बात करने की पहल की, हालाँकि पुराने पुरुषों ने अलीगढ़ में एक कन्या विद्यालय के विचार का विरोध किया था।[6] जल्द ही शेख अब्दुल्ला ने भोपाल की बेगम का समर्थन प्राप्त कर लिया था। नवाब सुल्तान जहाँ ने नवाब मोहसिनुल मुल्क के अनुरोध पर विधालय के लिए वित्त प्रदान किया था। नवाब सुल्तान जहाँ ने भी स्वंय इस्लामिक अध्ययन, ऊर्दू, फारसी, अंग्रेजी और पश्तो में शिक्षा प्राप्त की थी। वह स्वंय में लड़कियों की शिक्षा की बढ़ी समर्थक थी, उन्होंने भोपाल में एक सुल्तानिया विद्यालय स्थापित किया था और इस विधालय को इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध करा दिया गया था। इसके अलावा, उन्होंने मौजूदा विक्टोरिया और बिल्किसया विधालय की भी स्थापना की थी। साथ ही उन्होंने अलीगढ़ में लड़कियों के विद्यालय को इसकी स्थापना के साथ ही सरंक्षण दिया था।[7]

हम घरों की लड़कियों की तालीम का इन्तिज़ाम कर सकते है नेज़ ऐसे मदरसे काईम कर सकते है जहाँ पर्दे का इन्तिज़ाम है औरतों को मौजूदा जरूरियात के मुताबिक तालीम दी जा सके।[8]

1906 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एक महिला स्कूल की शुरुआत एक छोटे स्कूल के रूप में की गयी थी। 1906 में जब यह बालिका विद्यालय शुरु हुआ तब स्कूल में केवल 17 छात्र थे जो उर्दू पढ़ने और लिखने, बुनियादी अंकगणित, कुरान और सुईवर्क का अध्ययन करती थी। छह महीने बाद 56 छात्रों का नाम स्कूल में दर्ज़ था। आगे हम देखते है कि 1909 तक स्कूल में लगभग 100 छात्र थे और जिनके लिए अब एक बड़ी इमारत की व्यवस्था करनी थी। शेख अब्दुल्ला ने तब एक बोर्डिंग स्कूल की योजना बनाना शुरू किया। एक शासन अनुदान और व्यक्तियों से प्राप्त योगदान के साथ, वह अब अलीगढ़ कॉलेज के पास जमीन खरीदने में सक्षम थे और एक छात्रावास इमारत का निर्माण शुरू हो गया जिसका उद्घाटन औपचारिक रूप से 1914 में भोपाल की बेगम ने किया।[9]

1912 में देखते है स्कूल में हेड मास्टर समीत 4 उस्तानियाँ जिनमें दो जवान लड़कियाँ आगरा में तालीम पायी हुई है यहाँ स्कूल में वह 5 वीं कक्षा को तालीम देती है। इस स्कूल में 5 वीं कक्षा तक ही शिक्षा दी जाती है अर्थात यह स्कूल एक प्राथमिक विधालय के रूप में स्थापित हुआ था जिसमें ऊर्दू, अरबी व हिसाब, भूगोल, कापी नवीसी आदि को पढ़ाया जाता है। 5 वीं कक्षा की लड़कियों को अंग्रेजी भी सिखाई जाती है। इसके अलावा, लड़कियों को सिलाई, ऊन का कुछ काम दस्तकारी आदि भी सिखाई जाती है। सभी लड़कियाँ पाबंदी के साथ वक्त पर नमाज पढ़ती है। लड़कियों की लगभग संख्या स्कूल में 100 है।[10] हम देखते है कि गेल मिनोल्ट ने लुबना काजिम की सम्पादित पुस्तक में लिखे एक फॉरवर्ड लेख में अलीगढ़ बालिका स्कूल में 1909 में कुल विधार्थियों की संख्या 100 बताई है वहीं खातून में स्कूल के हेड मास्टर ने 1912 में भी 100 ही बताई है। इसलिए किसकी बात पर विश्वास किया जाये यह कठिन है। जिस तरह स्कूल के आकार में बढ़ोतरी समय के साथ-साथ हुई तो इससे एक बात तो स्प्ष्ट है कि यह विधार्तियों की संख्या में इजाफे होने के परिणास्वरूप हो रही थी।

इस तरह देखा जा सकता है वर्ष 1912 में कुल 4 शिक्षक थे जो कि 100 विधार्थियों को शिक्षा प्रदान करते थे। शिक्षक व विधार्थी का अनुपात 1:25 था। 1906 से 1912 तक स्कूल में शिक्षकों व विधार्थियों की संख्या में हुई वृद्धि से हम इसके विकास का अनुमान लगा सकते है क्योंकि इस काल के दौरान शिक्षकों व विधार्थियों की संख्या में कई गुणा वृद्धि हुई।

अब स्कूलों के महत्व को भी समझा जा रहा था जैसे शेख अब्दुल्लाह ने अपनी पत्रिका खातून में लिखा है कि[11]

घरों में रहकर बच्चियाँ तालीम कभी नहीं हासिल कर सकती। मेरे मखदूम दोस्त खान साहब मीर विलायत हुसैन साहब की दो बच्चियाँ हमारे मदरसे में तालीम पाई है। उनको मदरसे में दाखिल हुए चार माह का अरसा हुआ था के मीर साहब ने मदरसे को एक मन्स्फाना आअतराफ बढ़ा सर्टिफिकेट दिया था। मीर साहब की लड़कियाँ घर पर पहले से पढ़ती थी मगर उन्होंने फरमाया के न वो शोक था न वो तरक्की थी चार माह के अर्से में लड़कियों ने इस कदर तरक्की की है और उनका शोक इस कदर बढ़ा है कि जिससे मदरसे की और घर की तालीम में एक बीन फर्क का अंदाज़ा हो गया।

मुस्लिम लड़कियों की हिन्दू लड़कियों से तुलना

19 वीं शताब्दी के अंत व 20 वीं की शुरुआत में शेख अब्दुल्ला जैसे शैक्षिक सुधारकों को यह मालूम था कि देश में हिन्दू समुदाय की लड़कियां स्कूल जाने में ज्यादा तवज्जो मुस्लिम लड़कियों के मुकाबले देती है। एक यह भी कारण निश्चित रूप से मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा प्रदान करने की मुहिम में रहा होगा कि जब हिन्दू समुदाय की लड़कियां स्कूल में जाकर तालीम प्राप्त कर सकती है तो मुस्लिम समुदाय की लड़कियाँ क्यों नहीं प्राप्त कर सकती। खातून मैगज़ीन में लिखा है कि किस तरह हिन्दू लड़कियाँ तालीम पा रही है और मुस्लिम लड़कियों को इनका पता भी नहीं है[12]

‘ग्वालियर, जयपुर, मैसूर, ट्रेवन्कोर व बड़ोदा और बहुत सी हिन्दू रियासतों में लड़कियों की तालीम पर खास तवज्जो दी जा रही है। हैदराबाद के लड़कियों के स्कूलों से भी मुसलमानों को तौफीक (योग्यता) नहीं, हिन्दू ही लड़कियाँ फायदा उठा रही है। आगरा और पंजाब में जितने सरकारी, गैर-सरकारी और मशजी स्कूल लड़कियों के लिए है उनमें भी हिन्दू लड़कियाँ पढ़ती है। बंगाली व मद्रासी हिन्दू बहनों में तो आअला तालीम (उच्च शिक्षा) एक मामूली बात हो गयी है और ऐसी ऐसी हिन्दू महिलाएं मौजूद है जो इंडियन लेडीज मैगज़ीन में अंग्रेजी में मुज़ामीन (विषय) लिखती है इसी मैगज़ीन की सम्पादिका भी एक मद्रासी हिन्दू महिला है जो एम.ए. का दर्जा फज़ीलत हासिल कर चुकी है।’

स्कूल में पर्दे का प्रबंध

मुस्लिम समुदाय में औरतों के बीच पर्दे का पालन जरूरी था तो इस बिन्दू पर बराबर ध्यान दिया गया कि न केवल स्कूल में उनके अध्ययन के दौरान बल्कि लड़कियों के लाने व भेजने में पर्दे का एह्त्माम हो। स्कूल ने समय-समय पर ऐसे कई उपाय किये जैसे कि, लड़कियों के लिए स्कूल से डोलियाँ जाती थी जिनके हमराह एक मुलाज़िमा औरत भेजी जाती थी वापसी में भी यही औरत उन्हें घरों को पहुँचाती थी। उस्तानियाँ मदरसे से लड़कियों को अपने-अपने घर भेजकर आप जाती थी।[13]

आगे हम देखते है कि लड़कियों की शिक्षा के लिए एक अनुकूल विधालय में उन्होंने इसके आवासीय (बोर्डिंग) चरित्र को भी समाहित किया। क्योंकि लड़कियों को रोजाना दूर के स्थानों से पर्दे का पालन करते हुए आना बहुत मुश्किल था। इसलिए स्कूल में ही रहने की व्यवस्था करने से उनको बहुत सहूलियत हुई और दूर के बच्चों के अभिभावक भी स्कूल भेजने के लिए अब रजामंद हुए।[14]

वास्तव में, जैसे कि शेख अब्दुल्लाह ने कहा, एक आवासीय सुविधा में पर्दे की सीमा लड़कियों के घरों में रहने से भी ज्यादा थी। घरों में, लड़कियां को कुछ पुरुष सम्बंधियों को देखने की अनुमति थी, यहाँ तक के अपने चचेरों भाईयों को भी जिनसे उनकी शादी हो सकती है, जबकी स्कूल में, पूर्णत: महिलाएं ही होती थी बेगम अब्दुल्लाह की कड़ी निगरानी के अंतर्गत।[15]

अब इस तरह के स्कूल की स्थापना के बाद अर्थात एक स्कूल में होस्टल बनाने के बाद वहाँ कई तब्दीलियाँ आई अब लड़कियाँ भारत के अलग-अलग क्षेत्रों से आ सकती थी, जिसका विस्तार अलीगढ़ क्षेत्र के स्कूल से भारत के सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय तक हुआ।[16]

शेख अब्दुल्लाह द्वारा किये गये महिलाओं की शिक्षा के लिए उनके प्रयासों का समर्थन उनकी पत्नी वाहिद जहाँ बेगम द्वारा किया गया। वाहिद जहाँ बेगम ने स्कूल के बोर्डिंग हाउस में गृह अधीक्षक के रूप में 1907 से अपनी मृत्यु 1939 तक कार्य किया । वह व्यक्तिगत रूप से मुस्लिम परिवारों की माताओं को अपनी लड़कियों को विधालय भेजने को लेकर उनको मनाती थी। वाहिद जहाँ ने स्कूल जाने के दौरान पर्दा के एह्त्माम और बोर्डिंग हाउस में लड़कियों की देखभाल का यकीन भी उनकी माताओं को दिलाया था। वह विधालय के प्राथमिक सेक्शन को पढ़ाती थी।[17]

मुस्लिम लड़कियों की तालीम की सीमा

शेख अब्दुल्ला चाहते थे कि लड़कियों को भी शिक्षा दी जाए और उनको भी आधुनिक प्रगतिशील समाज में आत्मसात किया जाए लेकिन लड़कियों को क्या पढ़ाया जाने वाला था उसकी भी एक सीमा थी क्योंकि जिस तरह पुरुषों को एक पेशेवर समूह के रूप में देखा जाता था वैसे महिलाओं को नहीं देखा जाता था। इसलिए उनकी शिक्षा का स्वरूप या उस में पढ़ाए जाने वाले विषय अलग थे समाज में उनकी भूमिका को अभी भी सीमित नजरिए से देखा जा रहा था। खातून में लिखा है कि[18]

‘मेरा मतलब यह नहीं है कि औरतें अंग्रेजी सीखे या पढ़ा करें या इल्म मौसिकी में कमाल पैदा करें। लेकिन अपने काम में किसी की मोहताज़ (अन्य पर निर्भर होना) न रहे। इसके अलावा, दीन के हिसाब, भूगोल, इतिहास आदि को किस तरह पढ़े। दस्तकारी वगैरह को सीखे और अपने शोहरों को खानदारी (हाउसहोल्ड) की जेहमतों से बचा सकें और शुरू से ही अपने बच्चों की तालीम का एह्त्माम करें।’

यहाँ दूसरी समस्या 1905 में किताबों की थी खातून में लिखा है कि-

एक शिकायत यह है कि ऊर्दू में लड़कियों के पढ़ने लायक किताबें मोजूद नहीं अगरचे 20 वर्ष में बहुत किताबें ऊर्दू में लिखी गयी मगर कोम की हालत तब्दीली में और ये कायदा कलीरे है कि तब्दीली की हालत में लोग सिर्फ उन्हें तस्तंफियात और तर्ज़ुमों से खुश होते है जिसमें ज्यादा गोर न करना पड़े।[19]

तो यहाँ हम समझ सकते है कि ऐसी किताबों की संख्या कम थी या लोग ऐसी किताबें जिनमें मुस्लिम समुदाय की परिस्थितियों में बदलाव का वर्णन होता था उनको मूल भाषा में पढ़ना कम ही पसंद करते थे। इसलिए जब उन पुस्तकों का ऊर्दू में अनुवाद हो जाता था तब वह इन किताबों को पढ़ते थे। इससे हम अनुमान लगा सकते है कि ऊर्दू जानने वालों की संख्या अधिक थी।

निष्कर्ष

सभी पहलूओं के अध्ययन से पता चलता है कि अलीगढ़ कन्या स्कूल में समय के साथ-साथ कई परिवर्तन घटित हुए। यह परिवर्तन स्कूल के अपने कार्यों में स्पष्ट रूप से दिखाई देते है। हालाँकि ऐसा तो नहीं है कि इसने मुस्लिम समाज में आमूल-चूल बदलावों को अंजाम दिया। लेकिन इसकी स्थापना अपने आप में बहुत अहम है। क्योंकि यह स्कूल न केवल उत्तर प्रदेश में बल्कि उत्तरी भारत में एक मुस्लिम लड़कियों की आधुनिक प्रकार की शिक्षा के लिए एक ‘आइस ब्रेकर’ बना अर्थात शेख अब्दुल्लाह के इस कदम ने व्याप्त चुप्पी को तोड़ दिया और मुस्लिम समाज में नए ट्रेंड को बढ़ावा दिया।

इस लेख में हमारे द्वारा यह भी देखा गया कि पर्दा जो शेख अब्दुल्लाह व उनकी पत्नी वाहिद जहाँ बेगम के लिए एक चुनौती के रूप में सामने खड़ा था उसका मुकाबला उन्होंने कैसे किया और उन्होंने किस तरह मुस्लिम लड़कियों को आकर्षित करने के लिए एक सामान्य स्कूल को एक बोर्डिंग स्कूल में तब्दील कर दिया।

हालाँकि इस पर अभी शोध की आवश्यकता है कि इस स्कूल ने मुस्लिम समाज की पितृसत्ता व जेंडर पर किस तरह का प्रभाव डाला अर्थात इससे शिक्षित लड़कियों ने किस तरह का अंतर्संबंध पितृसत्ता व जेंडर के साथ परिभाषित किया।

सन्दर्भ

प्राथमिक स्रोत

  1. https://www.rekhta.org शेख अब्दुल्ला (सम्पादक) खातून मैगज़ीन, अलीगढ़ फरवरी-मार्च, 1905,

https://www.rekhta.org जियाउद्दीन अहमद, तालीम उन निस्वा के नाम से लिखा लेख, शेख अब्दुल्ला (सम्पादक) खातून मैगज़ीन, अलीगढ़ अप्रैल, 1905.

https://www.rekhta.org शेख अब्दुल्ला (सम्पादक) खातून मैगज़ीन, अलीगढ़ सितम्बर, 1905,

https://www.rekhta.org राबिया सुल्तान बेगम के द्वारा जनाना स्कूल अलीगढ़ के नाम से लिखा लेख शेख अब्दुल्ला (सम्पादक) खातून मैगज़ीन, अलीगढ़, मई 1912.

https://www.rekhta.org राबिया सुल्तानिया बेगम के द्वारा लिखे एक लेख, शेख अब्दुल्ला (सम्पादक) खातून मैगज़ीन, अलीगढ़ 5 वाँ अंक, 1912,

https://www.rekhta.org शेख अब्दुल्ला (सम्पादक) खातून मैगज़ीन, अलीगढ़ सितम्बर-अक्टूबर, 1914.

द्वितीयक स्रोत

  1. काजिम लुबना (सम्पादित व संकलित), ए वुमन ऑफ़ सब्सटांस, दी मेमोइर ऑफ़ बेगम खुर्शीद मिर्ज़ा (1918-1989 ) जुबान नई दिल्ली, 2005.
  2. मिनोल्ट, गेल, शेख अब्दुल्लाह, बेगम अब्दुल्लाह, एंड शरीफ एजुकेशन फॉर गर्ल्स अट अलीगढ़, का लेख अहमद, इम्तियाज (सम्पादित) मोडरनाईज़ेशन एंड सोशल चेंज अमंग मुस्लिम्स इन इंडिया, मनोहर नई दिल्ली, प्रथम प्रकाशित,1983, पेपरबेक संस्करण, 2020.
  3. प्रोफेसर तलत अज़ीज़, एजुकेशन ऑफ़ मुस्लिम गर्ल्स इन इंडिया, एस. एम. अजीजुद्दीन हुसैन (सम्पादित), मदरसा एजुकेशन इन इंडिया, इलेवेंथ टू ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी, कनिष्का पब्लिशर्स, डिस्ट्रीब्यूतरस, नई दिल्ली, 2005.
  4. https://www.amu.ac.in
  5. बानो, शादाब, रिफोर्म एंड आइडेंटिटी : पर्दा इन मुस्लिम वीमेन’स एजुकेशन इन अलीगढ़ इन दी अर्ली ट्वेंटिएथ सेंचुरी, आई एच सी , 2012.
  6. ऊषा नायर, एन एनालिटिकल स्टडी ऑफ़ एजुकेशन ऑफ़ मुस्लिम वीमेन एंड गर्ल्स इन इंडिया, मिनिस्टरी ऑफ़ वीमेन एंड चाइल्ड देवेलोप्मेंट, भारत सरकार, 2007.
  7. अब्दुल राशिद खान, दी आल इंडिया मुस्लिम एजुकेशनल कांफ्रेंस: इट्स कॉन्ट्रिब्यूशन टू दी कल्चरल डेवलपमेंट ऑफ़ इंडियन मुस्लिम्स 1886-1947, ओ. यू. पी., कराची, 2001.
  1. जिस तरह अल्ताफ हुसैन हाली, नज़ीर अहमद, सैयद मुमताज़ अली, मौलाना अशरफ अली थानवी आदि अपने लेखों में मुस्लिम समाज में महिलाओं का केवल एक आदर्श चित्र प्रस्तुत कर रहे थे उनकी स्थिति में सुधार का कोई मूर्त कदम नहीं उठा रहे थे |
  2. काजिम लुबना (सम्पादित व संकलित), ए वुमन ऑफ़ सब्सटांस, दी मेमोइर ऑफ़ बेगम खुर्शीद मिर्ज़ा (1918-1989 ) जुबान नई दिल्ली, 2005.पेज न. xvi.
  3. मिनोल्ट, गेल, शेख अब्दुल्लाह, बेगम अब्दुल्लाह, एंड शरीफ एजुकेशन फॉर गर्ल्स अट अलीगढ़, का लेख अहमद, इम्तियाज (सम्पादित) मोडरनाईज़ेशन एंड सोशल चेंज अमंग मुस्लिम्स इन इंडिया, मनोहर नई दिल्ली, प्रथम प्रकाशित,1983, पेपरबेक संस्करण, 2020, पेज न. 210-212.
  4. बानो, शादाब, रिफोर्म एंड आइडेंटिटी : पर्दा इन मुस्लिम वीमेन’स एजुकेशन इन अलीगढ़ इन दी अर्ली ट्वेंटिएथ सेंचुरी, आई एच सी , 2012. पेज न. 607.
  5. काजिम लुबना (सम्पादित व संग्रहित), ए वुमन ऑफ़ सब्सटांस, दी मेमोइर ऑफ़ बेगम खुर्शीद मिर्ज़ा (1918-1989 ) जुबान नई दिल्ली, 2005.पेज न. xxii.
  6. वही ( शादाब बानो), पेज न. 608-609.
  7. प्रोफेसर तलत अज़ीज़, एजुकेशन ऑफ़ मुस्लिम गर्ल्स इन इंडिया, एस. एम. अजीजुद्दीन हुसैन (सम्पादित), मदरसा एजुकेशन इन इंडिया, इलेवेंथ टू ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी, कनिष्का पब्लिशर्स, डिस्ट्रीब्यूतरस, नई दिल्ली, 2005. पेज न.115.
  8. https://www.rekhta.org ( विजिट ऑन 11/04/2021) जियाउद्दीन अहमद, तालीम उन निस्वा के नाम से लिखा लेख, शेख अब्दुल्ला (सम्पादक) खातून मैगज़ीन, अलीगढ़ अप्रैल, 1905, पेज न. 175.
  9. काजिम लुबना (सम्पादित व संकलित), ए वुमन ऑफ़ सब्सटांस, दी मेमोइर ऑफ़ बेगम खुर्शीद मिर्ज़ा (1918-1989 ) जुबान नई दिल्ली, 2005.पेज न. xxii.
  10. https://www.rekhta.org ( विजिट ऑन 11/04/2021) राबिया सुल्तान बेगम के द्वारा जनाना स्कूल अलीगढ़ के नाम से लिखा लेख शेख अब्दुल्ला (सम्पादक) खातून मैगज़ीन, अलीगढ़, मई 1912, पेज न. 36-37. ( इस लेख की लेखिका सुल्तान बेगम ने जब स्कूल देखने के लिए गयी तो इन सभी बातों से हेड मास्टर ने सुल्तान बेगम को अवगत कराया तथा हेड मास्टर द्वारा दी गयी जानकारी के आधार पर ही उन्होंने खातून में यह लेख लिखा ) |
  11. https://www.rekhta.org ( विजिट ऑन 04/04/2021) शेख अब्दुल्ला (सम्पादक) खातून मैगज़ीन, अलीगढ़ सितम्बर-अक्टूबर, 1914, पेज न. 59.
  12. https://www.rekhta.org ( विजिट ऑन 04/04/2021) शेख अब्दुल्ला (सम्पादक) खातून मैगज़ीन, अलीगढ़ सितम्बर, 1905, पेज न. 404.
  13. https://www.rekhta.org ( विजिट ऑन 11/04/2021) राबिया सुल्तानिया बेगम के द्वारा लिखे एक लेख, शेख अब्दुल्ला (सम्पादक) खातून मैगज़ीन, अलीगढ़ 5 वाँ अंक, 1912, पेज न. 36.
  14. https://www.amu.ac.in
  15. मिनोल्ट, गेल, शेख अब्दुल्लाह, बेगम अब्दुल्लाह, एंड शरीफ एजुकेशन फॉर गर्ल्स अट अलीगढ़, का लेख अहमद, इम्तियाज (सम्पादित) मोडरनाईज़ेशन एंड सोशल चेंज अमंग मुस्लिम्स इन इंडिया, मनोहर नई दिल्ली, प्रथम प्रकाशित,1983, पेपरबेक संस्करण, 2020, पेज न. 224.
  16. मिनोल्ट, गेल, शेख अब्दुल्लाह, बेगम अब्दुल्लाह, एंड शरीफ एजुकेशन फॉर गर्ल्स अट अलीगढ़, का लेख अहमद, इम्तियाज (सम्पादित) मोडरनाईज़ेशन एंड सोशल चेंज अमंग मुस्लिम्स इन इंडिया, मनोहर नई दिल्ली, प्रथम प्रकाशित,1983, पेपरबेक संस्करण, 2020, पेज न. 224.
  17. प्रोफेसर तलत अज़ीज़, एजुकेशन ऑफ़ मुस्लिम गर्ल्स इन इंडिया, एस. एम. अजीजुद्दीन हुसैन (सम्पादित), मदरसा एजुकेशन इन इंडिया, इलेवेंथ टू ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी, कनिष्का पब्लिशर्स, डिस्ट्रीब्यूतरस, नई दिल्ली, 2005. पेज न. 114-115.
  18. https://www.rekhta.org ( विजिट ऑन 10/04/2021) शेख अब्दुल्ला (सम्पादक) खातून मैगज़ीन, अलीगढ़ फरवरी-मार्च, 1905, पेज न. 101.
  19. https://www.rekhta.org ( विजिट ऑन 11/04/2021) जियाउद्दीन अहमद, तालीम उन निस्वा के नाम से लिखा लेख, शेख अब्दुल्ला (सम्पादक) खातून मैगज़ीन, अलीगढ़ अप्रैल, 1905, पेज न. 175.