शैली की उपयोगिता एवं महत्ता

  • श्रीमती अंजू श्रीवास्तव

किसी भी रचना में उसे लिखने वाले या रचना करने वाले का जब तक व्यक्तित्व समाहित न हो तब तक उस में वो अर्थ नहीं आ सकता जो उसे उसका उचित स्थान दिला सके। तात्पर्य यह है कि किसी भी उत्तम कोटि की रचना में उसकी रचना करने वाले का व्यक्तित्व झलकता ही है। उस रचना में अर्थों के प्रयोग ,भाषा वैशिष्ट्य आदि रचनाकार के व्यक्तित्व योग्यता कला आदि से ही समझा जा सकता है। इसी व्यक्तित्व के प्रस्फुटन को विद्वानों ने शैली नाम दिया है।

श्रेष्ठ और कालजयी रचना वही है जो बता दे कि यह अमुक व्यक्ति की रचना है। समाज पुस्तक के बजाय व्यक्ति को ज्यादा याद रखता है अतः व्यक्ति की छाप से पुस्तक भी अमर हो जाती है। रामचरितमानस यद्यपि प्रसिद्ध राम कथा पर आधारित है किंतु घर घर में रामायण के स्थान पर रामचरितमानस की पूजा होती है क्योंकि वह समन्वय के सम्राट तुलसीदास की रचना है।

प्रसाद की कामायनी, शुक्ल की चिंतामणि ,प्रेमचंद्र के कथा साहित्य, निराला की राम की शक्ति पूजा , आदि रचनायें स्पष्ट रूप से अपने रचनाकार को उजागर कर देती हैं यही विधा शैली कहलाती है।

शैली की परिभाषा

संस्कृत के विद्वानों ने शैली की स्वतंत्र रूप से कोई व्याख्या नहीं की है किंतु भाषा, अलंकार, शब्द-शक्ति , वक्रोक्ति, रीति, छंद, गुण, दोष आदि का तो विस्तार से विवेचन किया है, पर शैली के विषय में वे मौन रहे है। दरअसल संस्कृत साहित्य ने प्रत्येक रचनाकार को अपना व्यक्तित्व प्रस्तुत करने के लिये स्वतंत्र छोड़ दिया है और उसे किसी सिद्धांत के दायरे में नहीं बांधा है। उनकी दृष्टि में शैली प्रतिभा के अंतर्गत ही है। शैली को आधार बनाकर पाश्चात्य विद्वानों ने इस पर काफी विचार किया है और लिखा है।

प्रमुख पाश्चात्य विद्वानों की शैली परिभाषाऐं प्रस्तुत है-

  1. प्लेटो – जब विचार को रूप दिया जाता है,तभी शैली का जन्म होता है।
  2. MWk- tkWulu – हर व्यक्ति एक विशिष्ट शैली को अपनाता है।

3. शोयप हार्बर- किसी भी कृतिकार की शैली उसके मस्तिष्क की विश्वसनीय प्रतिलिपि होती है।

4. चेस्टरफील्ड – विचारों के परिधान को शैली कहते है।

5. न्यूमैन – भाषा के अंतर्गत संरचना ही शैली है।

6. एलिस – स्वयं विचार ही शैली है।

7. बूर्फो – विचार – क्रम तथा विचार-गति को शैली कहते है।

8. प्राउस्ट- शैली एक तकनीक का प्रश्न नहीं, अतितु यह दृष्टि का प्रश्न है।

9. स्वेन- शैली भाषा और विचार दोनों में ही विद्यमान रहती है।

10. शेरन – किसी भी कलात्मक अभिव्यक्ति में व्यक्तिव की विद्यमानता को शैली कहते है।

11. मरी – भाषा के उस वैशिष्टय को शैली कहते है, जो भावों और विचारों को उचित ढंग से प्रेषित करता है।

हिन्दी के समीक्षकों और विचारकों ने भी शैली की परिभाषाऐं प्रस्तुत की है, उनमें कुछ प्रमुख निम्न प्रकार है-

1. डॅा. श्यामसुन्दर दास – किसी कवि या लेखक की शब्द – योजना, वाक्यांशें का प्रयोग वाक्यों की बनावट और उनकी ध्वनि आदि का ही शैली है।

2. डॅा गुलाबराय – शैली शब्द के दो – तीन अर्थ है- एक तो वह अर्थ है, जिसमें कि यह कहा जाता है कि शैली ही मनुष्य है वहां इस अर्थ में शैली, अभिव्यक्ति का वैयक्तिक प्रकार है। दूसरे अर्थ में शैली अभिव्यक्ति के सामान्य प्रकारों को कहते है। भारतीय समीक्षाशास्त्र की रीतियां इसी अर्थ में शैलियां है । तीसरे अर्थ में शैली , वर्णन की उत्तमता को कहते हैं, जब हम किसी रचना के सम्बन्ध में कहते हैं – यह है शैली या किसी की अलोचना करते हुए कहते हैं कि यह क्या शैली है? वे क्या जानें कि शैली क्या है ?तब हम इसको इसी अर्थ में प्रयुक्त करते हैं। शैली में न तो इतना निजीपन हो कि वह सनक की हद तक पहुच जाये और न इतनी सामान्यता हों कि वह नीरस और निजींव हो जाये। शैली अभिव्यक्ति के कुछ गुणों को कहते हैं, जिन्हें लेखक का कवि अपने मन के प्रभाव को समान रूप में दूसरों तक पहुचाने के लिए अपनाता है।

3. रामदहिन मिश्र – किसी वर्णनीय विषय के स्वरूप को खडा़ करने के लिए उपयुक्त शब्दों के चुनाव और उनकी योजना को शैली कहते हैं ।

4. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भावों को प्रधानता दी है किंतु उन्होंने बिना शैली के किसी रचना को उत्तम कोटि का नहीं माना है। वस्तुतः शुक्ल जी ने शैली को विशेष रूप् से ही देखा है उनके अनुसार समय के अनुरूप् अपने उदात्त विचारों को इस प्रकार प्रस्तुत करना कि जो वह कहना चाहता है वह दूसरों तक पहुंच जाये अर्थात् विचारों का प्रभावी यथार्थ रूप् में दूसरों तक पहुंचाना ही शैली है।

5. डॅा.नगेन्द्र – साहित्य एवं साहित्यशास्त्र की प्रायः दृष्टि से शैली के तीन अर्थ होते हैं

1. शैली कृतिकार के व्यक्तित्व के वैशिष्ट्य का सहज गुण है।

2. शैली विषय प्रतिपादन की प्रविधि है, और

3. शैली कलात्मक अभिव्यक्ति है इस प्रकार यह साहित्य की चरम उपलब्धि है।

भाषा – वैज्ञानिकों के अनुसार शैली के चार अर्थ हैं

1. व्यक्ति – सापेक्ष भाषिक – चयन को शैली कहते है।

2. प्रासंगिक मानक भाषा से विपथन को शैली कहते हैं ।

3. प्रभावी अभिव्यंजना शैली कहलाती है, और

4. असामान्य, अतक्र्य भाषिक को शैली कहते हैं ।

क्ल मिलाकर शैली से तात्पर्य अपने व्यक्तित्व को काव्य तत्वों के दायरे में रहकर पूरी तरह प्रस्तुत करना कि रचना का प्रयोजन भी पूर्ण हो जाये वही शैली है।

इसी शैली के रहस्य समझने के लिये जिन सिद्धांतों का पालन किया जाता है उसे शैली विज्ञान कहा जाता है। शैली – विज्ञान का परिचय देते हुए डॅा. भोलानाथ तिवारी ने लिखा है- ‘‘एक भाषा – भाषी व्यक्तियों की भाषा, ध्वनि, शब्द, रूप तथा वाक्य -रचना आदि की दृष्टि से पूर्णतः समान नहीं होती । इसी प्रकार एक ही भाषा में लिखने वाले लेखकों एवं कवियों की भाषा में उनकी कुछ शैलीगत विशेषताए होती हैं, जिनके आधार पर बताया जा सकता हैं कि कौन किसकी रचना है। इन वैचारिक अन्तरों या शैलीगत विशेषताओं या काव्य- भाषा का अध्ययन शैली-विज्ञान का विषय है।

प्रत्येक व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व तथा अपनी कार्य-शैली होती है। कार्य-शैली से तात्पर्य काम करने के ढंग से है। सभी के काम करने अर्थात् बोलने चालने आदि का अपना ढंग होता है। इसी कारण कुछ लोगों का चेहरा देखे बिना उनकी चाल से अथवा उनकी बातचीत के ढंग पहचान लिया जाता है। लेखकों और कवियों में भी भाषा के प्रयोग का अपना अलग ढंग होता हैं, जिससे उनकी रचना पहचान ली जाती है। इसी आधार पर अंग्रेजी की कहावत – ‘‘ स्टाइल इज दी मैन हिमसैल्फ ’’ ( style is the man himself) अर्थात् मनुष्य स्वयं एक शैली है, प्रचलित हुई है। अंग्रेजी के स्टाइल style शब्द के बदले हिन्दी में शैली शब्द का प्रयोग उचित बताते हुए डॅा. द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने लिखा है कि, शैली विज्ञान मूलतः शैली का विज्ञान है, जिसमें शैली का वैज्ञानिक ढंग से अथवा व्यवस्थित रूप में अध्ययन किया जाता है। यह शैली शब्द अंगे्रजी के स्टाइल शब्द का अनुवाद है। कुछ विद्वानों ने अंग्रेजी में स्टाइल शब्द के लिए रीति कहना उपयुक्त माना है। परन्तु रीति शब्द रचना- विधि या गमन-विधि का वाचक होने के कारण स्टाइल के सम्पूर्ण अर्थ का द्योतक नहीं है, अपितु इसमें वक्ता वक्तृत्व -पद्धति लेखन की अभिव्यंजना पद्धति , उसकी वैयक्तिक विशेषता विषय -विवेचन की प्रविधि , व्यक्ति के आचार- व्यवहार का ढंग , बोलने या बातचीत करने का लहजा ,किसी कवि या लेखक के मस्तिष्क में उठने वाले भावों या विचारों के प्रतिरूप आदि का भी समावेश रहता है । अतः स्टाइल को रीति कहना कदापि सम्भव नहीं है। इसी कारण पं0 रामदहिन मि़त्र ने स्पष्ट लिखा है। कि शैली के लिए रीति शब्द का प्रयोग होता है। पर यह यथार्थ नहीं , शैली शब्द के लिए style शब्द का प्रयोग होना उपयुक्त माना जाता है। इसको भाषा-शैली भी कहते हैं । भाषा-शैली भावानुरूप होना चाहिए। भावनाए अपने आकार को प्रस्तुत करने के लिए काव्यांगों -गुण, रीति, अलंकार, वक्रोक्ति आदि को अपनाती है। इसमें रीति व भाषा-शैली लेखक के भावनात्मक शरीर को पहनाई हुई पोशाक ही नहीं है, बल्कि उसे उसकी चमड़ी समझना चाहिए। इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि कलाकार का व्यक्तित्व भाषा शैली से फूट पड़ता है।

शैली-विज्ञान को भाषा-विज्ञान के विभाग अथवा शाखा के रूप में प्रस्तावित करने के लिए चाल्र्स वेली का नाम लिया जाता है। चाल्र्स वेली को रैशनल स्टाईलिस्टिक्स (rational stylistics) का जन्मदाता स्वीकार माना जाता है। डॅा. द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने शैली – विज्ञान के पाच भेद किए हैं और प्रत्येक का परिचय संक्षेप में इस प्रकार दिया है-

1. ध्वनि-शैली -विज्ञान – इसके अंतर्गत ध्वनि-विचलन, ध्वनि,-चयन, ध्वनि-प्रकाश, ध्वनि- समानान्तरता, लय , ध्वन्य- अवस्था आदि का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है।

2. शब्द – शैली विज्ञान – इसके अंतर्गत शब्द विचलन , शब्द-चयन, शब्द-समानान्तरता, शब्दालंकारों में प्रयुक्त शब्दों के विचलन ,चयन आदि का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है।

3. रूप- शैली विज्ञान – इसके अन्तर्गत रूप-विचलन, रूप-चयन रूप-समानान्तरता आदि का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है।

4. वाक्य-शैली विज्ञान – इसके अन्तर्गत विविघ प्रकार के वाक्यों, मुहावरों लोकोक्तियों आदि में प्राप्त विचलन, चयन, समानान्तरता आदि का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है।

5. अर्थ-शैली-विज्ञान- इसके अन्तर्गत अर्थ विचलन, अर्थ-चयन, अर्थ समानान्तरता के साथ साथ अर्थालंकारों में प्राप्त विचलन, चयन एवं समानान्तरता का वैज्ञनिक अनुशीलन किया जाता है।

इन सभी भेदों में विचलन, चयन और समानान्तरता आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। इनका अर्थ समझना आवश्यक है, जो निम्न प्रकार है-

1. विचलन – सामान्य भाषा के नियम को छोड़कर नये मार्ग पर गमन करना अथवा नवीन मार्ग पर चलना विचलन है। विचलन शब्द का अर्थ विशेष प्रकार प्रभाव को डालने में समर्थ गमन समझना चाहिए ।

2. चयन – अनेक समानार्थक शब्दों, ध्वनियों, वाक्यों आदि में से अपने मनोवांछित प्रभाव को डालने में समर्थ ध्वनि,शब्द या वाक्य आदि का निश्चय करना चयन है।

3. समानान्तरता -समान ध्वनिया शब्दों, वाक्यों, रूपों एवं अर्था का प्रयोग करना,समानान्तरता कहलाता है। समानान्तरता का लाभ यह है कि इसके कारण रचना में संगीतात्मकता, तथा नाद- सौन्दर्य का समावेश किया जा सकता है।

शैली की उपादेयता

शैली का साहित्य निर्माण में अपरिहार्य योगदान है। साहित्य किसी विषय पर लेखन ही नहीं है। प्रायः संसार में किसी भी विषय को एक व्यक्ति द्वारा ही नहीं समझा जा सकता है। कई बार हर विषय पर अलग अलग लोगों द्वारा अलग अलग दृष्टिकोण से ही उसे ठीक तरह से समझा जा सकता है। साहित्य यही कार्य करता है और विभिन्न रचनाकार ही अपने मत द्वारा सही प्रस्तुतीकरण कर सकते हैं। रचनाकार का अनुभव ही सही दृष्टि रख सकता है। क्या किसानों का यथार्थ चित्रण प्रेमचंद्र जैसा कोई कर सकता है? क्या राम जैसे मर्यादा पुरूषोत्तम का दर्शन तुलसी के अतिरिक्त करा सकता है? क्या विचारों का ऐसा संगुंफन डॅा. रामचंद्र शुक्ल के अतिरिक्त कोई कर सकता है? अर्थात् मानव मन के असीम भावों को एक रचनाकार नहीं समा सकता है अतः यह विविधता शैली के द्वारा ही आ सकती है।

शैली काव्य या रचना की सबसे बड़ी प्रेरणा है। प्रायः साहित्यकार किसी भाव के प्रति उसकी क्या सोच है यह दर्शाने के लिये ही वह रचना करने को प्रेरित होता है उसे अपने ही अंदाज में नये तरीके से प्रस्तुत करता है। हर घटना का परिणाम उसके अनुसार क्या होना चाहिये वह अपनी शैली में ही प्रस्तुत करता है। इस प्रेरणा के कारण ही साहित्य का असीम विस्तार हो जाता है और फिर भी उसके नवीन विस्तार के लिये गुंजाइश बनी रहती है।

न सिर्फ साहित्य वल्कि भाषा के विस्तार में भी शैली का अहम योगदान होता है क्योंकि कलापक्ष या भाषा ही उस भाव को प्रस्तुत करती है। भाव तो सभी में ऐक जैसे ही विद्यमान रहते हैं किंतु उनका साहित्य में प्रस्तुतीकरण भिन्न भिन्न होता है और उसको प्रस्तुत करने के लिये वह नये तरीके अपनाता है जिसके लिये वह भाषा में नये प्रयोग भी करता है और उसे विचित्र तरीके से परिवर्तित भी करता है। इस प्रयास में भाषा के भंडार का भी विस्तार हो जाता है।

ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में भी शिक्षक की शैली से काफी फर्क पड़ता है। विद्यार्थी के मानसिक स्तर के अनुरूप ही शिक्षक को स्वयं को बदलना होता है ताकि वह ठीक तरीके से विद्यार्थी को संतुष्ट कर सके।

उपरोक्त सभी परिस्थितियों में शैली का विशिष्ट स्थान होता है। अतः कहा जा सकता है कि साहित्य भाषा और ज्ञान एवं शिक्षा के क्षेत्र में शैली का अपरिहार्य स्थान है।

लेखिका

श्रीमती अंजू श्रीवास्तव

हिन्दी अध्ययनशाला विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन म-प्र-

C/O LIG/53 शिवानगर शिवपुरी म-प्र- 473551 7566605253