औपचारिक शिक्षा व्यवस्था पर अनियोजित शहरीकरण का प्रभाव: विश्व और भारतीय परिदृश्य
अश्विनी
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कार्ल मार्क्स ने दास कैपिटल में कहा था, “मजदूरों का कोई देश नहीं होता।” (Marx, 1848) इसका एक अर्थ यह भी है कि व्यक्ति की आजीविका ही उनका निवास स्थान तय करता है। औद्योगिक क्रांति के बाद आर्थिक संरचना में हुए तेजी से बदलाव एवं बढ़ते शहरीकरण ने इस बात को भली भांति प्रमाणित कर दिखाया। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) की रिपोर्ट ‘विश्व जनसंख्या की स्थिति 2007’ (‘The State of World Population 2007’ के अनुसार वर्ष 2008 विश्व जनसंख्या में संक्रमण (परिवर्तन) का एक ऐतिहासिक काल है। इस वर्ष, मानव इतिहास में पहली बार, दुनिया की आधी से अधिक आबादी (3.3 बिलियन) शहरी क्षेत्रों में रह रही थी। अब (2018में) यह 55% हो गयी थी और 2050 तक, इसके 68 % हो जाने की उम्मीद है। एशिया और अफ्रीका में शहरी आबादी 2000 से 2030 के बीच दोगुना हो जाने का अनुमान है। विकासशील दुनिया के कस्बों और शहरों में इसी अवधि के दौरान कुल वैश्विक शहरी जनसंख्या का 80% हिस्सा होगा। भारत भी इस विश्व परिदृश्य से अछूता नहीं रहा है। साल 2018 से 2050 के बीच शहरी आबादी में भारत 41.6 करोड़, चीन 25.5 करोड़ और नाइजीरिया 18.9 करोड़, के साथ सर्वाधिक योगदान करने वाला देश होगा। इस अवधि में टोक्यो को पीछे छोड़ते हुए दिल्ली सबसे बड़ी आबादी का नगर बन जायेगा। इस प्रकार 21वीं शताब्दी को हम शहरीकरण का युग भी कह सकते है। (Obaid, 2007)
1901 की जनगणना के अनुसार, भारत में शहरी क्षेत्रों में रहने वाली जनसंख्या 11.4% थी। जो 2001 की जनगणना के अनुसार 28.53% हो गई, और 2011 की जनगणना के अनुसार 31.16% हो चुकी है । 2007 में जारी संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी ‘राज्य जनसंख्या रिपोर्ट’ के एक सर्वेक्षण के अनुसार, 2030 तक, भारत की आबादी का 40.76%( 600 मिलियन) शहरी क्षेत्रों में रहने की उम्मीद है। विश्व बैंक के अनुसार, भारत, चीन, इंडोनेशिया, नाइजीरिया और संयुक्त राज्य अमेरिका को पछाड़, 2050 तक दुनिया की शहरी जनसंख्या का नेतृत्व करेगा और भारत की आबादी का 50% से अधिक हिस्से का शहरीकरण हो चुका होगा। इस प्रकार भारत इस शताब्दी के मध्य तक आते-आते अपनी कृषि प्रधानता और ग्राम प्रधानता की विशेषता को इतिहास के पन्नों में दफ़न कर शहर प्रधान देश बन चुका होगा। (Rizvi, 2013) (CHANDRAMOULI, 2011) अब एक चुनौती के रूप में भारत सहित तीसरी दुनिया के सभी देशों में ‘तीव्र शहरीकरण’ का विश्व परिदृश्य उभरा है।
1.2 नीतिगत कारणों की तलाश – आखिर निवेश कहाँ हुआ-
मानवीय संसाधनों मे या भौतिक संसाधनों में ? शहरी क्षेत्र में या ग्रामिण क्षेत्र में?
अर्थशास्त्री डब्ल्यू आर्थर लुईस के बाद शहरीकरण को आर्थिक विकास की धुरी मानने वाले अर्थशास्त्री जॉन सी एच फाई एवं गुस्ताव रैनिस के अनुसार “यदि कृषि मजदूरों को औद्योगिक क्षेत्र में स्थानांतरित किया जाता है तो इससे उनकी आर्थिक उत्पादन क्षमता में वृद्धि होगी, जिसके फलस्वरूप आर्थिक विकास होगा।” (Thrilwall, 2006) गौरतलब बात यह है इन तीनों ही अर्थशास्त्रियों के विकास और/या संवृद्धि मॉडल के में निम्न बातों का न तो कोई समाधान प्रस्तुत किया न ही जिक्र ही हुआ –
- संवृद्धि के इन मॉडलों के नीतिगत कार्यान्वयन के फलस्वरूप शहरी क्षेत्र में बढ़ने वाली जनसंख्या के घनत्व का समाधान प्रस्तुत नहीं किया।
- शहरी क्षेत्र में बढ़ती जनसंख्या के लिए जन सुविधाओं की व्यवस्था का प्रावाधान भी नहीं दिया।
- गहन औद्योगिकीकरण और उच्च स्तर की सेवाओं को बढ़ावा देने में शिक्षा एवं तकनीकी ज्ञान की क्या भूमिका हो सकती है, इसकी भी चर्चा नहीं की ।
- शहरी व्यवस्था के सुचारू संचालन में शिक्षा के योगदान की चर्चा तक नहीं की।
- तकनीकी कौशल एवं शिक्षा का उत्पादकता से संबंध की चर्चा भी नहीं है।
जबकि, अंतर्जात संवृद्धि एवं विकास(Endogenous Growth and Development Modal ) मॉडल ने शिक्षा और अनुसंधान को आर्थिक एवं समाजिक विकास की धुरी माना है। “मानव पूंजी मॉडल का तात्पर्य है कि शिक्षा कौशल वाले व्यक्तियों को जन्म देती है।“ “मानव पूंजी मॉडल के अनुसार शिक्षा एक निवेश है जो भविष्य में लाभ पैदा करता है। इसलिए शिक्षा खर्च में हालिया कटौती भविष्य की राष्ट्रीय आय को कम कर देगी।“ (Quiggin, 1999) इस प्रकार शिक्षा और अनुसंधान में निवेश ही दीर्घकालीन संवृद्धि एवं विकास की धुरी है। आज, जापान, पूर्वी एशिया के नव विकसित देशों एवं पश्चिमी देशों के विकास का आधार शिक्षा ही है। गौरतलब है कि शिक्षा पर होने वाले खर्च से सीधे तौर पर लाभान्वित व्यक्ति को ही लाभ नहीं मिलता, बल्कि सभी को अधिक शिक्षित समाज और विकसित अर्थव्यवस्था का लाभ मिलता है। एक व्यक्ति के लिए शिक्षा साथ ही दूसरों को भी लाभ पहुंचती है। हर व्यक्ति के लिए शिक्षा सम्पूर्ण समाज को समग्र तौर पर लाभ पहुंचती है। । इन तरह में, “शिक्षा एक सकारात्मक बाह्यता है।“ “शिक्षा में निवेश करने वाली अर्थव्यवस्था अपनी बाजार प्रणाली को प्रोत्साहन देकर विश्व अर्थव्यवस्था का नेतृत्व करेगी।” (Parker, 2012) इस प्रकार मुफ्त और सर्वव्यापी शिक्षा की जरूरत को समाजवाद के साथ जोड़ कर देखना एक अधुरा सत्य है। पूर्ण सत्य तो यह है कि शिक्षा हर तरह की आधुनिक अर्थव्यवस्था और समाज के विकास की धुरी है।
1966 में अंतर्जात संवृद्धि एवं विकास के सिद्धांत पर कोठारी कमीशन की ‘राष्ट्रीय शिक्षा और विकास’ रिपोर्ट आयी थी। इस रिपोर्ट ने सकल घरेलू उत्पाद का 6 % शिक्षा पर व्यय करने का सुझाव दिया गया था। जिसे भविष्य में बढ़ाना भी था । पर, कोठारी कमीशन का यह सुझाव धरा का धरा रह गया। अभी तक हमारी सरकारें इसके आधे के बराबर भी शिक्षा पर खर्च नहीं कर रही है। पर, अर्थशास्त्री लुईस-फाई-रैनिस के आर्थिक विकास मॉडलों का नीतिगत प्रभाव यह पड़ा कि भारत में स्वतंत्रता के बाद योजना काल (Nehru-Mahalanobish Model, 1950-1990) और गैर योजना या उदारीकरण काल (Raw-Manmohan Model, 1991- Till), इन दोनों ही कालों में अपनायी गयी, आर्थिक नीतियों ने शहरीकरण को बढ़ावा दिया है। मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति की वजह से जहाँ शहरीकरण की प्रक्रिया में गति आयी और बोकारो, राउरकेला आदि नए-नए शहरों के साथ कई छोटे बड़े कस्बे उभरे। पर, 1991 में अपनायी गयी उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नई आर्थिक नीति ने शहरीकरण की प्रक्रिया को सिर्फ बड़े शहरों तक केन्द्रित करते हुए, शहरीकरण की इस प्रक्रिया में अनियंत्रित रूप से बाढ़ की स्थिति ला दी। 1991 के बाद के दौर में, राष्ट्रीय आबादी एव जनसंख्या धनत्व के मुकाबले महानगरों की आबादी एवं जन-घनत्व कई गुणा अधिक तेजी से बढ़ा है। कई क्षेत्रों में तो ग्रामिण एवं कस्बई जनसंख्या एवं जन घनत्व कम भी हुआ है। जिसका सीधा सा अर्थ है कि लोग गांवों कस्बों से महानगरों की तरफ पलायन कर रहे है।
अधोसंरचना पर होने वाले कुल सार्वजनिक निवेश के एक बड़े हिस्से का निवेश (अनुमानतः 60-70%) शहरी, विशेषतः मैट्रोपोलिटेंट क्षेत्रों या उनकों केन्द्र में रख कर ही किया जा रहा है । औद्योगिक क्षेत्र के विकास के लिए आवश्यक अद्योसंरचना का विकास ग्रामिण एवं ग्रामिण क्षेत्र के साथ सटे कस्बाई क्षेत्रों में तुलनात्मक रूप में कम ही रहा है। निजी उपभोक्ताओं का भी प्रतिव्यक्ति व्यय एवं उपभोग प्रवृति भी शहरी क्षेत्र में अधिक है। इसलिए, सार्वजनिक निवेश हो या निजी निवेश या उपभोक्ता व्यय, हर तरह के व्यय का केन्द्र शहरी और वह भी महानगरों तक ही सीमित है। अतः ये सरकार की आर्थिक नीतियों का ही परिणाम है कि रोजगार का सृजन विशेषतः महानगरीय क्षेत्रों में ही हो रहा है। परिणामस्वरूप ‘रोजगार का सृजन एवं रोजगार गुणक’ भी शहरी क्षेत्र तक ही सीमित है या कहे कि महानगरीय क्षेत्रों में ही केन्द्रित है। रोजगार गुणक एवं आय गुणक ये बताते है कि निवेश की एक युनिट खर्च करने पर कितने गुणा रोजगार की युनिट और आय की युनिट में बढ़ौतरी होगी। इसलिए, महानगरीय क्षेत्रों में उच्च स्तर के रोजगार गुणक एवं आय गुणक होने की वजह से एक लम्बे अरसे से रोजगार की तलास में, बड़ी संख्या में लोगों का पलायन शहरी क्षेत्र की तरफ हो रहा है। अब, महानगरीय क्षेत्र में यदि किसी एक व्यक्ति के लिए रोजगार का सृजन होता है तो, उस व्यक्ति पर आश्रित उसका परिवार मतलब चार-पांच और लोग भी धीरे-धीरे शहर में ही आ कर बस जाते है। इन आश्रितों में एक बड़ी संख्या स्त्रियों और बच्चों की होती है। उस व्यक्ति के परिवार के विस्तार के साथ ही, आश्रित बच्चों की संख्या में और वृद्धि होती है। इस प्रकार, लगातार हो रहे पलायन की वजह शहरी क्षेत्र की जनसंख्या वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत वृद्धि से कई गुणा अधिक है। पर गौर करने वाली बात यह है कि ये शहर गांवों के आस-पास के कस्बे और छोटे शहर होते तो, शहरीकरण का प्रव्रजन(Migration) प्रभाव इतना चुनौतिपूर्ण न होता।
1.3 महानगरीय-शहरीकरण का स्वरूप
अब, जैसा कि ऊपर चर्चा की जा चुकी है कि इस शताब्दी के मध्य तक, विकासशील दुनिया के कस्बों और शहरों में कुल वैश्विक शहरी जनसंख्या का 80% हिस्सा निवास कर रहा होगा। अब इसके बाद जो सवाल उठता है वह यह है कि इन देशों के शहरीकरण की प्रकृति शहरी प्रभुत्व वाले यूरोपीय और अन्य पश्चिमी देशों के समान है या यह अलग होगा? अतः कुल मिला कर सवाल शहरीकरण के स्वरूप पर ही आ टिकता है? आम तौर पर शहरी क्षेत्र की पहचान चौड़ी सड़के और नियोजित एवं व्यवस्थित रूप से खड़ी गगनचुमंबी इमारतों, शिक्षा और स्वास्थ्य की जैसे नागरिक सुविधाओं की समूचित व्यवस्था से करायी जाती है। पर, भारत एवं अन्य विकासशील मूल्कों की हकीकत कुछ और भी है। इन देशों में, शहरी क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा फुटपाथों, स्लम और अनियोजित तंग कॉलोनियों में निवास करता है। इस प्रकार भारत एवं तीसरी दूनियाँ के देशों का शहरीकरण यूरोप में हुए शहरीकरण से भिन्न है। यूरोप एवं अन्य पश्चीमी देशों की अधिकतर आबादी शहरों में बसती है। वहां का शहरीकरण एक व्यवस्थित शहरीकरण है, जो एक योजनाबद्ध तरीके से हुआ है। भारत में भी नई दिल्ली का लुटियन जोन, चंडीगढ़, टाटानगर और बोकारो आदि शहरों को युरोपीय तर्ज पर ही विकसित किया गया है। पर, शहरीकरण की मांग और पूर्ति में असंतुलन की वजह से अधिकतर शहरों का एक बड़ा हिस्सा अनियोजित और अव्यवस्थित तौर पर बढ़ता जा रहा है। आज दिल्ली शहर की 80-85% आबादी अनियोजित रिहायशी क्षेत्रों में बसी हुई है। दिल्ली के कुल रिहायशी क्षेत्र का 24% हिस्सा ही नियोजित ढ़ग से विकसित है। मेरठ, पटना, कानपुर आदि-आदि शहरों की स्थिति तो और भी अधिक भयानक है । अनियोजित क्षेत्रों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि बिना जमीन के उपयोग की स्थिति को बदले ही राजनीतिक एवं प्रशासनिक मिली भगत से आर्थिक फायदे के लिए रातो-रात तंग बस्तियाँ बसा दी जाती है। इन कॉलोनियों में अलग से न तो सार्वजनिक स्कूलों के लिए कोई जगह होती है और न ही पार्कों और हस्पतालों आदि के लिए ही। (Madhuri, 2015) अतः अल्पविकसित देशों के शहरीकरण का एक बड़ा विरोधा भाष यह ही है कि एक तरफ मांग से पूर्णतः अपर्याप्त योजनाबध तरिके से “स्मार्ट सिटी”(व्यवस्थित शहर) बसाये जाते है, वही उस स्मार्ट सीटी के बाहर की पैरी-फैरी में घनी आबादी स्वतः बस जाती है। नियोजित शहर और इस क्षेत्रों की आबादी के घनत्व में जमीन आसमान का अंतर होता है। उदाहरण के लिए, दिल्ली के सभी क्षेत्रों की आबादी का न तो घनत्व (Density) ही समान है और न ही विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं हस्पतालों का आबंटन ही जनसंख्या-घनत्व के अनुरूप है। दिल्ली में नई दिल्ली, दक्षिण पश्चिम, दक्षिण दिल्ली की आबादी का घनत्व जहाँ क्रमशः 4000, 5446, 11000 हजार प्रति वर्ग किलोमीटर है। वहीं उत्तर पूर्व, पूर्वी दिल्ली की आबादी का घनत्व जहाँ क्रमशः 36,000, 27,000 हजार प्रति वर्ग किलोमीटर है। अब यदि तुलना अनियोजित और नियोजित आबादी में की जाए तो स्थिति और भी भयानक हो जाएगी।
1.4 शिक्षा प्रणाली पर अनियोजित शहरीकरण का प्रभाव
अब यदि शैक्षिक सुविधाओं की बात करे तो, वे इलाके जहाँ पर आबादी का घनत्व अधिक है, वहाँ आबादी के अनुपात में शैक्षिक संस्थाओं का नितांत अभाव है। वही इस शहर के अधिकतर गुणवतापूर्ण सरकारी एवं निजी शिक्षण संस्थान कम घनत्व वाले नियोजित इलाकों में ही स्थित है। एक अवलोकन के दौरान मैंने पाया कि शिक्षा स्वास्थ्य जैसी तमाम जनसुविधाओं से वंचित उत्तर पूर्व दिल्ली स्थित सोनिया विहार और उत्तरी पश्चीमी दिल्ली स्थित प्रेमनगर किराड़ी की आबादी नई दिल्ली (NDMC), भुसावल, सिरसा आदि शहरों से भी कही ज्यादा है, या बराबर है। इन रिहायसी क्षेत्रों की जनसंख्या की ताकत को इस तरह से समझा जा सकता है कि सोनिया विहार से इलाके से दो MCD के पार्षद चुने जाते है। किराड़ी गाँव के पास तो अपनी विधानसभा सीट भी है। पर दो MCD सीट देने वाले सोनिया विहार के पास एक ही प्राथमिक और एक ही माध्यमिक स्कूल बिल्डिंग है। जिसमें दो पाली में दो स्कूल चलते है। यही हाल किराड़ी का है। ये स्कूल 1990 की आबादी के हिसाब से प्रयाप्त है, पर प्रव्रजन की वजह से जिस अनुपात में जनसंख्या का घनत्व बढ़ा है, उस हिसाब से अब ये पूर्णतः अप्रयाप्त है।
इस प्रकार घनी आबादी की कच्ची कॉलोनियों में एक तरफ सरकारी स्कूलों का नितांत अभाव है। जिसकी वजह से सरकारी स्कूलों में विद्यार्थी शिक्षक अनुपात 100-150 या उस के भी अधिक हो जाता है। दूसरी तरफ, गली-गली में ‘कम लागत के निजी (तथाकथित) स्कूल’ खुल रहे है। इन स्कूलों में न तो अहर्तायुक्त सक्षम शिक्षक ही मौजूद है और न ही स्वस्थ और सुरक्षित शैक्षिक वातावरण ही। माता-पिता या तो, सही स्कूलों के अभाव में और/या आय के अभाव में और/या शिक्षाशास्त्र एवं शिक्षा अधिकार अधिनियम की समझ के आभाव में, इन खाना पूर्ति के निजी स्कूलों में ही अपने बच्चों का दाखिला दिलवाते है।
पर आश्चर्य तो तब होता है जब NUPAE जैसी संस्था इन स्कूलों में दाखिल 6-14 वर्ष के विद्यार्थियों को ‘शिक्षा अधिकार अधिनियम’ के तहत विद्यालयी शिक्षा प्राप्त करने वाले में गिनती शामिल कर लेती है।(DIAS Report) जबकी शिक्षक से लेकर तमाम तरह की शैक्षिक सुविधाओं तक से ये स्कूल नदा नद है?
1.5 शिक्षा का अधिकार
अब ‘शिक्षा के अधिकार’ का कदापि अर्थ ‘विद्यालयों की कैद’ तो, नहीं ही हो सकता। अब, जब यहाँ विद्यालयों की तुलना ‘जेलों’ से की जा रही है तो, इसका सीधा सा अर्थ है ‘शिक्षा के अधिकार’ का दायरा निशुल्क और अनिवार्य विद्यालयी दाखिले (शिक्षा) से कहीं आगे का है। “बच्चों का निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम यह अधिकथित करता है कि पाठ्यक्रम में कार्यकलाप ,अन्वेषण और खोज के माध्यम से शिक्षा प्राप्ति का प्रावधान होना चाहिए।” इसमें सभी के लिए गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा शामिल है न कि सिर्फ स्कूलों में होने वाले दाखिला भर। यदि शिक्षा प्रक्रिया में गुणवत्ता का अभाव है तो इसका सीधा सा अर्थ है कि बच्चों को उनके शैक्षिक अधिकार से वंचित किया जा रहा है।
1.6 छिपा शैक्षिक अपव्यय एवं ठहराव
शिक्षा का दायरा, लिखने पढ़ने की योग्यता से कही आगे है। प्रारंभिक कक्षाओं में तो प्रोन्नति (Promote) के बावजूद भी यदि विद्यार्थी माध्यमिक कक्षा में सुचारू रूप से शिक्षा ग्रहण करने की योग्यता से वंचित है, यहाँ तक कि प्रारंभिक कक्षा पास विद्यार्थी यदि आधारभूत लेखन कौशल भी हासिल नहीं कर पाता एवं ‘विवेचनात्मक कौशल’ की जगह सिर्फ जानकारियों का पुलिंदा ही हासिल कर पाता है। ऐसी शिक्षा उन विद्यार्थियों के जीवन और समाज के आर्थिक एवं सांस्कृतिक उत्थान में स्थाई ‘ठहराव’ ही पैदा ही नहीं करेगी, अपितु अवनति लाएगी।
प्रारंभिक कक्षा के विद्यार्थियों को भी NCF-2005 में वर्णित एवं RTE-2009 में अधिनियमित बालकेन्द्रित विधि से सीखने का वातावरण नहीं मिला तो, वे ‘शिक्षा के मौलिक अधिकार(अनुच्छेद 21A)’ से वंचित ही है। प्रारंभिक कक्षा पास करने वाले ये विद्यार्थी ‘छद्म रूप से ही शिक्षितों’ में गिने जाएंगे। पर हकीकत में ये सभी विद्यार्थी ‘सीखने के आभाव (Learning Deficit)’ से ग्रसित है। ऐसी विद्यालयी व्यवस्था धन, उर्जा और समय का अपव्यय कर, उनके जीवन में स्थाई ठहराव लाएगी। हकीकत में ऐसे विद्यार्थियों ने अपने जीवन के आठ सालों को विद्यालय में व्यर्थ ही गंवाता है।
ऐसे सरकारी या निजी स्कूल, जो किसी भी तरह से रचनात्मक एवं विवेचनात्मक शिक्षण के लिए उपर्युक्त नहीं है। पर आश्चर्य तो तब होता है जब NIEPA जैसी संस्था द्वारा तैयार DIAS Report(NIEPA) में ऐसे ‘Learning Deficiency’ वाले स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को RTE-2009 के अनुरूप शिक्षा का अधिकार प्राप्त करने वालों में गिना लिया जाए। अब या तो RTE में ही खामी है या NIEPA जैसी संस्था के अनुसंधान प्रक्रिया में कि ‘Learning Deficiency’ से ग्रस्त बच्चों को RTE के तहत शिक्षा अधिकार प्राप्त बच्चों के दायरे में गिना जाता है।
1.7 छिपे अपव्यय एवं ठहराव पर रोकने हेतू ‘क्रांतिक न्यूनतम प्रयत्न’ अनिवार्यता
किसी भी समाजिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आर्थिक संसाधनों को जुटाने की भी जरूरत होती है। अतः हर रिहायसी क्षेत्र के, हर विद्यालय में गुणवतापूर्ण शिक्षा के न्यूनतम स्तर के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ‘वास्तविक क्रांतिक निवेश’ का एक न्यूनतम स्तर अनिवार्य है। यदि संसाधनों को न्यूनतम क्रांतिक स्तर से कम जुटाया जाए तो, निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करना संभव नहीं होगा।
“पिछड़ेपन की स्थिति से अधिक विकसित स्थिति में संक्रमण करने के लिए, जहां से हम स्थिर समान वृद्धि दर की उम्मीद कर सकते हैं, यह आवश्यक है, हालांकि हमेशा पर्याप्त स्थिति नहीं है, उसी बिंदु पर या इसी अवधि के दौरान, अर्थव्यवस्था को विकास के लिए एक प्रोत्साहन प्राप्त करना चाहिए जो एक निश्चित क्रांतिक न्यूनतम आकार का हो “– लाइबेनस्टीन
क्रांतिक न्यूनतम प्रयत्न के इस सिद्धान्त को यदि मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में देखे तो शिक्षा के क्षेत्र में न्यायौचित स्तर पर, समतामूलक तरिके से न्यूनतम क्रांतिक निवेश की ही आवश्यकता नहीं, उस निवेश का प्रभावपूर्ण प्रतिफल प्राप्त करने के लिए संस्थागत एवं व्यवस्थागत ढांचे मे भी परिवर्तन अनिवार्य है। अब यदि उस क्रांतिक न्यूनतम स्तर से कम का निवेश होगा और लक्ष्य के अनुरूप संस्थागत ढ़ांचे में परिवर्तन नहीं होगा, तो कभी भी निर्धारित लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकेगा। उदाहरण के तौर पर, शिक्षा पर पैसा खर्च तो हो रहा हो, पर वह किसी भी तरह से शिक्षा अधिकार अधिनियम या इस विषय पर गठित आयोगों के द्वारा सुझाई स्थिती को प्राप्त करने के अनुकूल नहीं है तो, हम जहां से चले थे, वही पर लुढ़क कर पहुंच जाएंगे। अर्थात किया गया सब निवेश सब पूर्णतः व्यर्थ । इस प्रकार हम शिक्षा के क्षेत्र में ‘ठहराव’ की स्थिति में ही होंगे और शिक्षा के क्षेत्र में जो भी निवेश होगा वह सब का सब व्यर्थ ‘अपव्यय’ होगा। यह तो स्थिर जनसंख्या की स्थिति का वर्णन था।
1.8. अब बढ़ती जनसंख्या की स्थिति में
तेजी से बढ़ती शहरी आबादी की वृद्धि दर के मुकाबले, यदि शिक्षा में होने वाले निवेश की वृद्धि दर अधिक नहीं तो, एक समय में क्रांतिक न्यूनतम स्तर से ऊपर का इलाका भी क्रांतिक न्यूनतम स्तर से नीचे आ जाएगा। अतः किसी भी रिहायसी क्षेत्र में किया जाने वाला शिक्षा पर निवेश, उस क्षेत्र की जनसंख्या वृद्धि (जन्मदर-मृत्यु दर+ पलायन) दर(विशेषः बाल जनसंख्या वृद्धि दर) से अधिक होना चाहिए। नहीं तो, उस क्षेत्र विशेष के लोगों की जीवन गुणवता में विकास के स्थान पर, ह्रास होने लगेगा।
- इस विश्लेषण के आधार पर हम कह सकते है कि शहरीकरण की प्रक्रिया को व्यवस्थित किये बिना क्या शिक्षा के अधिकार का कार्यान्वयन संभव नहीं है?
- तंग गलियों में, तंग दरवाजे के साथ तंग इमारत वाला एक निजी स्कूल बच्चों के जीवन के साथ खेल रहा है। परसवाल यह है कि सरकार ऐसे स्कूल चलाने की अनुमति ही क्यों और कैसे देती है? जहाँ न तो कोई फायर ब्रिगेड और न ही कोई अन्य सहायता दल पहुंच सकता है।
- अब यदि अनियोजित क्षेत्र में बच्चों के समग्र विकास के लक्ष्य के अनुरूप विद्यालय संभव ही नहीं, तो यह भी छात्रों की शिक्षा के अधिकार का हनन ही है?
- बच्चों को उनका शिक्षा अधिकार उपलब्ध कराने के लिए विद्यालयी व्यवस्था के नियोजन के साथ, अनियंत्रित शहरीकरण को नियंत्रित कर शहरीकरण के नियोजन की भी आवश्यकता है।
क्या अनियोजित शहरीकरण बच्चों के जीने के अधिकार का अतिक्रमण नहीं ?
1.9. गरीबी का दुष्चक्र बनाम विषमता का दुष्चक्र
अर्थशास्त्री प्रो. रागनर नर्क्से द्वारा प्रतिपादित ‘गरीबी के दुष्चक्र’ की अवधारणा के अनुसार अल्पविकसित देश गरीबी के दुष्चक्र में फंसे होते है। यह दुष्चक्र अनेक शक्तियों का ऐसा घेरा होता है। जो एक दूसरे के साथ ऐसी क्रिया-प्रतिक्रिया करता है। जिसकी वजह से निर्धन-निर्धन बना रहता है। प्रो. नर्क्से ने गरीबी को ही गरीबी का मुख्य कारण माना है। जबकि शिक्षाविद पाउलो फ्रेरे के शिक्षाशास्त्र के अनुसार इस (गरीबी) विभीषिका का राज विषमता में छिपा है। विषमता का प्रकट रूप गरीबी में दिखाई देता है। समस्या को गरीबी कहना ही एक गलत प्रस्थान बिन्दु है। गरीबी उत्पीडन का एक सुविधाजनक और भ्रामक नाम है। उत्पीडित को गरीब बता कर उत्पीडक वर्ग उसकी स्थिति और हैसियत को वैध ठहराने में समर्थ होता है। अतः उत्पीड़न का परिणाम, गरीबी की अमानवीय स्थिती पूंजी के अभाव के कारण नहीं है। यह उत्पीडक वर्ग द्वारा लगातार उत्पीडित वर्ग अर्थात आर्थिक एवं समाजिक रूप से कमजोर वर्ग का शोषण किये जाने की वजह से है। पाउलो फ्रेरे आगे कहते है, ‘‘शोषक और शोषित दोनों का अमानुषीकरण मानवीय विडंबना है। इस दो तरफा अमानवीकरण से इंसानी नियति को बचाने की क्षमता एवं जिम्मेदारी शोषक के पास न होकर शोषित की ही है।“ स्पष्ट है शोषक यथास्थिती के बनाए रखने से लाभ की स्थिती में है। वह भला क्यों इस स्थिती में बदलाव लाना चाहेगा? अतः यथास्थिती में बदलाव लाने का जिम्मेदारी उत्पीडित की ही है। पर क्या शिक्षातंत्र के स्तरीकरण के माध्यम से उत्पीड़न तंत्र को चलाए रखने की चेतना उत्पीडित वर्ग (जनसामान्य) की है?
विष्मता (गरीबी) के दुष्चक्र को तोड़ने के लिए रचनात्मक-विवेचनातमक शिक्षा महत्वपूर्ण औजार हो सकता है। पाउलो फ्रेरे के अनुसार शिक्षा भी राजनीति है। जिस तरह राजनीति वर्गीय होती है, उसी तरह शिक्षा भी वर्गीय होती है। शिक्षा के वर्गीय होने का सीधा सा अर्थ शिक्षा के पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या एवं प्रावाधानों का किसी वर्ग विशेष के हितों के अनुरूप होना। शिक्षा के ढर्रे को कक्षाओं ‘समाजिक पूंजी’ के विविध पायादानों पर बैठे व्यक्तियों का भविष्य उनकी ‘स्कूलिंग’ की प्रक्रिया ही तय कर रही है। अब जरा विजय रैना द्वारा हिन्दी में रूपांतरित पुस्तक खतरा स्कूल के “जैसा बाप – वैसा बेटा” अध्याय में चित्र के माध्यम से जो सवाल उठाया गया है। उस सवाल को यदि हम भारतीय स्कूली ढांचे के संदर्भ में देखें तो, सवाल उठता है कि एक जैसे पाठ्यक्रम वाली, विविध समाजिक-आर्थिक हैसियत वाले स्कूली व्यवस्था में पाठ्यचर्या को लागू करने के तरिकों में अंतर की वजह से एक स्तर की कक्षा पास विद्यार्थियों की शैक्षिक उपलब्धियों में संभवतः एक सार्थक अंतर है। यह अंतर स्कूलों के स्तर की विविधता का या विद्यार्थियो की अपनी क्षमता का। इस पर सवालीया निशान है? उच्च शिक्षा में श्रेष्ट इलाकों के श्रेष्ट माने जाने वाले विद्यालयों के विद्यार्थियों का ही प्रवेश देखा गया है। क्यों? हर क्षेत्र के सर्वोच्च पदों जैसे नौकरशाह, प्रोफेसर, प्रबंधक, डॉक्टर, इंजिनियर, सैन्य अधिकारी, यहाँ तक कि लोकप्रिय एवं धनअर्जन करने वाले खेलों के खिलाड़ी तक सभी इसी श्रेष्ट माने जाने वाले स्कूलों के रास्ते आते है या सभी स्तर के स्कूलों की इसमें समान भागीदारी होती है? सिक्यूरिटी गार्ड, हेल्पर आदि की स्कूलिंग किस ढर्रे के स्कूलों में हुई है? निम्न आय वर्ग एवं निम्न स्तर के विद्यालयों के विद्यार्थी कामचलाऊ तौर पर ही साक्षर हो पाते है? अपवाद समाज विज्ञान की वास्तविकता ही नहीं, यथास्थिती को बनाए रखने का सेफ्टीवॉल भी होता है। पर क्या समाजिक यथार्थ यह नहीं कि किसी बच्चे का भविष्य काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस तरह की पृष्ठभूमि से संबंधित है? क्या गली नुक्कड़ के स्कूलों और बढ़ती आबादी की जरूरत के हिसाब से नाकाफी सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों और उन्हीं के समकक्ष उच्च स्तर के निजी और सरकारी स्कूलों(प्रतिभा, केन्द्रीय स्कूलों) में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की शैक्षिक गुणवता में अंतर उनके स्कूलों के स्तर में अंतर की वजह से है? यदि हाँ, तो क्या उनकी शिक्षा पर होने वाला अपर्याप्त व्यय एक अपव्यय नहीं और उन विद्यार्थियों के जीवन में स्थाई ठहराव पैदा करने वाला नहीं?
1.10 ‘क्रांतिक न्यूनतम प्रयत्न’ का ‘सामूहिक क्रांतिक न्यूनतम चेतना’ से संबंध
इवान इलिच भी जब डिस्कूलिंग सोसायटी में स्कूलों को भंग करने की बात करते है तो वे वहाँ स्कूल के माध्यम से से एक खास तरह के सांचे में ढ़ालने की प्रक्रिया अर्थात ‘स्कूलड’ पर अंकुश लगाने की बात कर रहे है। वे कहते है, “स्कूल रूपी संस्था इस सिद्धांत पर स्थापित है कि सीखना (स्कूली) शिक्षण का परिणाम है।” और “जिसे हम आजकल ‘शिक्षा’ कहते हैं, वह उपभोक्ता माल है, जिसका उत्पादन ‘स्कूल’ नाम की संस्था द्वारा होता है। इसलिए कोई व्यक्ति जितना अधिक तथाकथित श्रेष्ट विद्यालयों की शिक्षा का उपभोग करता है, उसका अपना भविष्य उसे उतना ही अधिक सुरक्षित महसूस होता है। साथ ही साथ, ज्ञान के पूँजीवादी तंत्र में अपना दर्ज़ा वह उतना ज़्यादा ऊँचा उठाने में सफल रहता है। इस तरह शिक्षा समाज के पिरामिड में एक नया वर्ग बनाती है और जो शिक्षा का उपयोग करते हैं, वे यह दलील पेश करते हैं कि उन्हीं से समाज को ज़्यादा फायदा होगा।” जैसा देखा गया है कि नियोजित क्षेत्र की तुलना में, तो अनियोजित क्षेत्र के निजी और सरकारी स्कूलों की स्थिति बदतर हैं। निजी और सरकारी स्कूलों के भी अलग-अलग स्तर हैं। इन स्कूलों में विद्यार्थियों का दाखिला पूर्णतः उनके माता पिता की समाजिक एवं आर्थिक हैसियत का प्रतिफल है। तो क्या हम यह माने कि नियोजित और अनियोजित क्षेत्र के स्कूलों के बीच का अन्तर लोगों के सामाजिक हैसियत के अंतर का प्रतिफल है और उसी को बनाए रखने के लिए है?
माइकल ऐप्पल ‘आधिकारिक ज्ञान’ पुस्तक में कहते है कि शिक्षा की व्यवस्था पर निजी क्षेत्र का दबदबा दक्षिण पंथी सांस्कृतिक वर्चस्व की रणनीतियों का हिस्सा है। स्कूल के भीतर की गतिविधियाँ इस प्रकार से संचालित की जाती है कि वे निजी और व्यावसायिक क्षेत्र के आर्थिक आधार को कायम रखने वाली समाजिक अद्योसंरचना को मजबूत बनाने में सहायक हो।
- अब उनकी इस बात को भारतीय संदर्भ में देखने का प्रयास करें,
- भारतीय संविधान सभा द्वारा शिक्षा को मौलिक अधिकार के खंड से निकाल कर नीति निर्देशक सिद्धान्तों के खंड मे डालना,
- संविधान के लागू होने के दस वर्ष के भीतर 0-14 साल के बच्चों की हर भरसक प्रयत्न(न्यूनतम क्रांतिक प्रयत्न) करने के संविधानिक वादे के वावजूद शिक्षाव्यवस्था का जस का तस बना रहना।
- कोठारी आयोग(1964-66) की समान विद्यालयी व्यवस्था की अनुशंसा के बावजूद भी, विद्यालयी व्यवस्था का असमान रहना,
- 1993 के मोहिनी जैन और उन्नीकृष्णन्न वाद के फैसलों से शिक्षा के मौलिक अधिकार बनने के बाद, अनुच्छेद 45 की भाषा को 86वें संशोधन में संकुचित कर 21A लाना
- 21A में शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के बावजूद भी विद्यालयों के विविध स्तर का बने रहना,
1.11 निष्कर्ष बिन्दु
किसी भी राष्ट्र की समृद्धि एवं सुव्यवस्था का स्तर सुशिक्षित जनसंख्या का समानुपातिक होता है। आज वे ही देश तरक्की कर रहें है जो वैज्ञानिक(रचनात्मक एवं विवेचनात्मक) एवं तकनीकी रूप से सुशिक्षित है। शहरी गैर नियोजित क्षेत्रों में उन सामाजिक, संथागत एवं व्यवस्थागत बाधाओं के बने रहना चिंता का विषय है, जो वंचित वर्ग के बच्चों की मानवीय क्षमता को सीमित करती है। जो लोग अपने बच्चों को शिक्षक और शैक्षिक सुविधाओं से अभाव ग्रस्त स्कूलों में दाखिला करा रहे है, क्यों नहीं वे लोग समान विद्यालयी व्यवस्था की मांग कर रहे है? दूसरा बड़ा सवाल क्या इतनी घनी अबादी में, अबादी के अनुपात में स्कूल संभव भी है? यदि नहीं, तो लोगों के शैक्षिक अधिकारों की रक्षा के लिए, शिक्षा का अधिकार अधिनियम और शहरी नियोजन अधिनियम कानून के बीच समन्वय की आवश्यकता है। ऐसी स्थिति में सिद्धांतिक रूप से ‘शिक्षा अधिकार अघिनियम 2009’ के लागू होने के बावजूद भी बच्चों को ‘गुणवतापूर्ण शिक्षा’ के अधिकार से वंचित स्थिती में देख कर व्याग्रित है।
लोगों में सामूहिक ‘क्रांतिक न्यूनतम शिक्षाशास्त्रीय चेतना’ के अभाव एवं दक्षिणपंथी राजनीति के सांस्कृति वर्चस्व की वजह से ही शिक्षा में क्रांतिक निवेश की मांग नहीं हो रही है। शिक्षा में विषमता दक्षिणपंथी रूढ़िवादी राजनीतिक एजेंडें के सांस्कृतिक वर्चस्व को कायम रखने की नीति का ही हिस्सा है। सार्वजनिक एवं निजी विद्यालयों का विविध स्तर पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या, पाठ्यपुस्तकों एवं शिक्षण का विविध स्तर इसी सांस्कृतिक वर्चस्व को बनाए रखने का उपकरण है। अतः शिक्षा में क्रांतिक निवेश हो इसके लिए लोगों के शिक्षाशास्त्रीय चेतना को जगाने की जरूरत है।
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