गुमनामी के अंधेरों में खोया सितारा : इंद्र बहादुर खरे
डॉ.नूतन पाण्डेय*
इंद्र बहादुर खरे हिंदी जगत की वे महान विभूति हैं,जिन्होंने भौतिक रूप से इस संसार में कुछ ही दिनों के लिए अवतरण लिया, लेकिन अल्प समय में ही वे साहित्य को इतना कुछ दे गए, जिसके लिए हिंदी साहित्य सदैव उनका ऋणी रहेगा। आयु की दृष्टि से रोबर्ट बर्न्स, बायरन ,कीट्स ,पुश्किन और रांगेय राघव आदि महान साहित्यकारों की परंपरा का अनुसरण करने वाले इंद्र बहादुर खरे को मात्र बत्तीस वर्ष की आयु (16/12/1922-13/04/1953) का वरदान मिला, लेकिन वीणापाणि माँ सरस्वती ने उनकी कलम को अपने आशीर्वाद से यथासंभव अभिसिंचित किया। अपनी लेखनी की अद्भुत प्रभावोत्पादकता के बल पर उन्होंने जो लिखा,जितना लिखा उसकी गुणवत्ता को साहित्य जगत द्वारा कतई नजरंदाज नहीं किया जा सकता। जीवन की अल्पावधि में ही इंद्र बहादुर खरे ने साहित्य की अनेक विधाओं में अपनी कलम चलाकर गंभीर साहित्य का सृजन किया लेकिन उनकी अधिकांश रचनाएं उनके जाने के बाद प्रकाशित हुईं । यह हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उनके जीवनकाल में उनकी रचनाएं लोगों तक नहीं पहुँच सकीं लेकिन उनकी लेखनी में एक ऐसा जादू था, शिल्प का एक ऐसा चमत्कार था, भावों का एक ऐसा अपूर्व संयोजन था, पाठक जिसके वशीभूत हुए बिना नहीं रह सकते। इंद्र बहादुर खरे के साहित्यिक प्रदेय की बात करें तो मूलरूप से वे कवि के रूप में चर्चित रहे। भोर के गीत,सुरबाला,सिंदूरी किरण ,विजन के फूल,रजनी के पल (गद्य कविता), हेमू कालानी, नीड़ के तिनके और आंबेडकर एक नई किरण कविता संग्रहों में समय-समय पर लिखी गई उनकी कविताएँ प्रकाशित हुई हैं। उनके गीतों की संख्या लगभग पांच सौ के ऊपर पहुँचती है, जिनमें राष्ट्रपरक गीतों के साथ ही बालगीतों की भी बहुलता है। अपने देशभक्तिपरक गीतों के माध्यम से इंद्र बहादुर खरे ने अपने प्रशंसकों के मध्य एक विशिष्ट स्थान बनाया। कविताओं के अतिरिक्त उन्होंने गद्य की अनेक विधाओं ,जैसे –कहानी,उपन्यास और अनेक विषयों पर आलेख भी लिखे । आरती के दीप,सपनों की नगरी,आजादी के पहले आजादी के बाद और जीवन पथ के राही उनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं जिनमें समाज के गंभीर विषयों को वर्ण्य विषय बनाया है । कश्मीर,जीवन पथ के राही, मेरे जीवन नहीं और लख होली आदि उपन्यासों ने इंद्र बहादुर खरे को एक पुख्ता आधार-स्तंभ प्रदान किया जिससे उनको बहुमुखी साहित्यकार के रूप में स्थान बनाने में सहायता मिली। साहित्य सृजन के अतिरिक्त अन्य विविध साहित्यिक गतिविधियों से भी उनकी आजीवन सक्रिय रूप से संलग्नता बनी रही। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी विशिष्ट रुचि थी। अपनी इसी रुचि के कारण उन्होंने समय-समय पर अनेक पत्रिकाओं का संपादन कार्य किया,जिनमें ख्यातिलब्ध साहित्यकार रामकुमार वर्मा के साथ “प्रकाश” पत्रिका, हरिशंकर परसाईं के साथ “हरिंद्र” पत्रिका और पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के साथ “युगारंभ” पत्रिका का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है ।
इंद्र बहादुर खरे को मूलतः उनके गीतों के लिए स्मरण किया जाता है । गीत लिखना शायद उनके ह्रदय के सर्वाधिक नजदीक और सबसे प्रिय कर्म था । वे कविता लिखना अपने जीवन का आधार मानते थे जिसके बिना उनका जीवन अपूर्ण था, तभी वह कविता लिखने के क्षण को अपने जीवन की सबसे सुखद अनुभूति मानकर कहा करते थे -“जिस दिन मेरे मन के अंतस में गीत की कली खिलती है,उस दिन ऐसा लगता है मानो जिन्दगी के दिगंत व्यापी रेगिस्तान में बाढ़ आ गई हो । जन्म- जन्म की प्यासी आँखों में जैसे कोई शीतल मीठा स्वप्न विहंस गया हो । कविता मेरे जीवन के समस्त अभावों की पूर्ति है। कविता में ही मुझे आनंद की चिरशांति के दर्शन होते हैं ।”
“भोर का गीत” इंद्र बहादुर खरे की प्रसिद्ध और सर्वाधिक लोकप्रिय कृति कही जा सकती है,जिसमें संकलित गीतों को उन्होंने सन 1939-42 के मध्य अर्थात सत्रह से बीस वर्ष की आयु में लिखा था । गीत लिखना उनकी सहजात और स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है जो स्थाई भाव होकर उनके ह्रदय के अंतस्थल में विराजती थी, और स्वतः ही गीतों के रूप में फूट पड़ती थी । गीत लिखने का यह उद्वेग कब और कैसे प्रवाहित हो जाता था इससे वे बिलकुल अनजान होकर कहते हैं कि-“ कह नहीं सकता कि मैंने कब से गीत लिखना प्रारंभ किया ।प्रेरणा की एक निश्चित तिथि नहीं।डाली पर खिलने वाला फूल जैसे अपनी मधु , अपनी आभा,अपनी खुशबू की परिभाषा नहीं कर सकता, अपनी नाभि में बसी कस्तूरी की खुशबू को मस्त मृग जैसे अपने को मालिक नहीं मान सकता वैसे ही मैं भी नहीं जानता कि मेरे गीतों के फूलों ने कब खिलना सीख लिया ।”
इंद्र बहादुर खरे प्रकृति सौंदर्य के अनुपम पुजारी थे । उनके गीतों में प्रकृति के कण-कण की सुखद अनुभूति व्याप्त है और ये अनुभूति मात्र भौतिक और बाह्य नहीं है बल्कि उसका एक आभ्यंतरिक दृष्टिकोण भी है जो उन्हें छायावादी कवियों के समकक्ष ला खडा करता है । प्रकृति का मौन निमंत्रण उन्हें न केवल परमात्मा के और निकट ले जाता है बल्कि उसके निस्सीम सौंदर्य के साक्षात् दर्शन भी कराता है जो अन्यत्र दुर्लभ है । सृष्टि के सौंदर्य की रहस्यमय अभिव्यक्ति इंद्रबहादुर खरे के गीतों का वह ख़ूबसूरत पक्ष है जो दैहिक होने के बावजूद देहातीत है,लौकिक होने पर भी परलौकिक है और भौतिक होने पर भी अध्यात्म की ओर प्रवृत्त है । तभी तो कवि यह स्वीकार करता है कि-“ मेरे गीतों की भूमि बिलकुल पार्थिव है ,आध्यात्मिक नहीं है। धरती पर नर-नारी ,फूल –पौधे,नदी-तालाब,पर्वत-घाटी के रूप में जो राशि-राशि सौंदर्य बिखरा पडा है मैं उसी का पुजारी हूँ । रूप की प्रस्तुति मुझे प्रिय है । यह सौंदर्य ही मेरी आत्मा का रस है – मेरे गीतों की पार्श्वभूमि है । उपर्युक्त स्वीकरण के बावजूद वह इस वास्तविकता को अस्वीकृत नहीं कर पाता कि-“ भावों के अभिव्यक्तिकरण में मैंने सदा बौद्धिक पीठिका का सहारा लिया है । इसमें यह भ्रम न हो कि मैं बुद्धि और हृदय को एक मानता हूँ । मेरा तात्पर्य यह है कि ह्रदय की बातें जब एक भोली गंभीरता के साथ,जब अज्ञान बनकर भी अपने समस्त ज्ञान के साथ व्यक्त की जाती हैं तब मुझे अभिव्यक्तिकरण में सुखद तृप्ति का अनुभव होता है । कवि जब तक जीवन के समस्त व्यापारों के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण को प्रश्रय नहीं देता ,उसकी सारे बातें बच्चों के सामान चंचल और सारहीन होती हैं,भले ही उनमें थोड़ी देर को श्रोता को लुभाने की शक्ति हो । दार्शनिक दृष्टिकोण को मैंने सदैव महत्त्व दिया है । ” अपने इसी अध्यात्मिक दृष्टिकोण के कारण कवि ह्रदय का प्रकृति के रहस्यमय स्वरूप की ओर आकर्षित होना अत्यंत स्वाभाविक है जिससे प्रभावित होकर वे सहसा गा उठते हैं :
तुमसे क्या पहचान बढाऊँ
तुम रहस्य हो, मैं जिज्ञासा
युग-युग डूबूं, थाह न पाऊँ
जीवन के विविध भावों को ग्रहण करने के लिए जिस प्रकार की सूक्ष्म निरीक्षण दृष्टि एक कवि में अपेक्षित होती है और उन भावों को गहनता से शब्दों में उतारने के लिए भाषा और छंद को अनूठे ढंग से संयोजित करने की जैसी क्षमता एक कुशल कवि में होनी चाहिए, उस सन्दर्भ में इंद्रबहादुर खरे की लेखनी निश्चित ही धनी मानी जाएगी । छंद्बधता और लयात्मकता की जुगलबंदी इनके गीतों को अपूर्व गेयता प्रदान करती है और इस जुगलबंदी के पीछे उनकी दीर्घ स्वर साधना और शिल्प पर उनका पूर्णाधिकार है । इंद्र बहादुर खरे ने अपने गीतों में अनेक प्रयोग किये जिनका प्रभाव उनके पूर्ववर्ती कवियों पर स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है । इंद्र बहादुर खरे के गीतों में आशा और उत्साह की खनक है,प्रेरणा की लहराती हिलोरें हैं ,संसार में बिखरे सौंदर्य के प्रति रागभाव है ,परमात्मा के प्रति समर्पण के लिए निष्ठा है, सांसारिक जगत के प्रति सहज मानवीय संवेदना है और इन सबके साथ ही इस जीवन पर अगाध विश्वास भी है । तभी तो जीवन के अंतिम समय में असाध्य बीमारी से जूझने के बावजूद उनमें जीवन-सौंदर्य की अदम्य अभिलाषा और जीने की भरपूर इच्छा है :
सच मानो संसार बहुत ही है प्यारा,
अब लाख बुलाये मृत्यु ,मैं न जाउंगा
गीतकार होने के साथ ही इंद्र बहादुर खरे ने गद्य विधा में भी अपनी कलम चलाई है।उनके कई कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं जिनकी कहानियाँ कलात्मकता सौदर्य और भावबोध की दृष्टि से बेहतरीन मानी जाती हैं, बावजूद इसके वे खुद को कहानीकार के रूप में नहीं देखते और बड़ी विनम्रता से स्वीकारते हैं कि वे न तो जन्मजात कहानी लेखक हैं और न ही उन्हें ऐसा वातावरण मिला कि कहानीकार के साँचें में खुद को ढाल सकते । लेकिन जिसने भी उनकी कहानियों को पढ़ा है ,वह इस बात से इत्तेफाक रखता है कि उनकी कहानियाँ जीवन के बहुत करीब हैं, जो अपने भावबोध द्वारा समाज को व्यापक रूप से चित्रित करती हैं, उसकी समस्याओं को उठाती हैं, उन्हें अभिव्यक्ति देती हैं और इसी कारण आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं,जितनी उस समय थीं जब वे लिखी गई थीं । इस सन्दर्भ में मैं यहाँ उनकी एक कहानी का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगी, जिसका शीर्षक है ‘जीवन पथ के राही’। अपनी इस कहानी के बारे में इंद्र बहादुर जी के महत्वपूर्ण विचार उल्लेख्य हैं,जहाँ वे कहते हैं कि-“ यह जीवन के पथ की कहानी है, ऐसी कहानियाँ जीवन का सत्य बन जाती हैं जो दुनिया के हर साधारण मनुष्य का हाथ पकड़ उसी की कहानी बन जाती हैं –और हर मनुष्य की कहानी आलेख्य नहीं-इसीलिए विश्वास नहीं होता ।”
इस कहानी में भारतीय समाज में स्त्री की शोचनीय स्थिति का चित्रण करते हुए स्त्री विमर्श के नए रास्ते खोले हैं । हमारे समाज में यह स्त्री की दुर्नियति ही कही जाएगी कि जीवन की प्रत्येक अवस्था में उसे समाज के ठेकेदारों द्वारा विविध प्रकार के शोषणों का सामना करना पड़ता है । प्रस्तुत कहानी भी फूलो नामक एक लडकी की कहानी है ,जब वो बहु बनकर सोना लोधी के घर जाती है तो उसे सर आँखों पर रखा जाता है ,लेकिन दुर्भाग्यवश उसके पति की असमय मृत्यु से उसके भाग्य पर ताले ला जाते हैं और उसे ससुराल में “एक जवान लड़के को चाट जाने” के अपराध में दिन – रात अपमान सहना पड़ता है । अकेले जीवन काटती फूलो के जीवन में अचानक उसी गाँव का नंदन नामक एक आधुनिक विचारों वाला युवक प्रवेश करता है । नन्दन के मन में उसके प्रति प्रेम का भाव उपजता है, गाँव वालों से यह सहन नहीं होता और उबके द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर वह गाँव छोड़कर चली जाती है । लेकी दुर्भाग्य उसका पीछा नहीं छोड़ता और वह वैश्यवृत्ति करने वाली एक महिला के फ़ंदे चढ़ जाती है,लेकिन फूलो की निश्छलता देखकर वह उसे अपनी बेटी मान लेती है । भाग्य उसे एक बार फिर नंदन के सामने लाकर खड़ा कर देता है और नन्दन उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखता है । नंदन के पिता जो गांव के ठाकुर हैं वे भी इस विवाह के लिए अपनी रजामंदी दे देते हैं । फूलो की कहानी सुखद मोड़ की ओर जाती लगती है,लेकिन नंदन जब फूलो ,अपने प्रथम प्यार के चिह्नों को देखने आम के पेड़ के नीचे जाकर देखता है तो पाटा है कि फूलो ने प्राण त्याग दिए थे,न जाने क्यों? लोगों का कहना था कि शाम को घर लौटे हुए किआनों,चरवाहों ने उसे देखा और जैसे-तैसे कटने वाले गाँव के कलंक को पुनः गाँव में घुसते जान उसका अंत कर दिया । कहानी के अंत में कहानीकार का कथन जहाँ ह्रदय विदारक और दिल को छूने वाला है वहीँ समाज पर एक तमाचा है, एक कडा प्रहार है, जिसे सहना तथाकथित सभ्य समाज के लिए आसान नहीं होगा– नन्दन अब रूपपुर का जमींदार है उसने फूलो की समाधि बनवा दी है । समाधि का ऊपरी हिस्सा सदा ही फटा रहता ही। लोगों का कहना है कि फूलो की आत्मा रोती है,इसलिए वह समाधि फट जाती है । नंदन रोज सुबह शाम उसकी पूजा करता है और गाँव वाले जमींदार की बात नहीं टालते : वे भी उसे “प्रेम की देवी” मानकर उस पर फूल चढाते हैं । वे ‘पुन्य’ लूटने से भला क्यों बचें ? कितना क्रूर और कटु सत्य है यह हमारे दोहरे आवरण वाले समाज का जिसका इंद्र बहादुर इस कहानी में पर्दाफ़ाश करते हैं । वही समाज जो उसे चैन से जीने नहीं देता, उस पर तरह-तरह के लांछन लगाकर उसका अपमान करता है,वही उसकी जान लेने के पश्चात् उसे देवी का तमगा दे देता है । इंद्र बहादुर समाज की इस कठोर विसंगति पर अट्टहास करते हैं,व्यंग्य करते हैं साथ ही उस पर अपनी पीड़ा भी व्यक्त करते हैं । इन सबके साथ ही वे समाज की व्यवस्था और कुरीति पर अनेक प्रश्न भी खड़े करते हैं जिसमें स्त्री की समाज में असुरक्षा,विवाह के बाद के नारकीय जीवन ,अपने भविष्य के लिए स्वतंत्र निर्णय लेने की असमर्थता ,घर-बाहर हर जगह शारीरिक-मानसिक शोषण और समाज का उसके प्रति असमानता और दोयम दर्जे का अमानवीय व्यवहार आदि मुद्दों का समावेश हो जाता है । कहानी सोचने पर विवश करती है कि समय के परिवर्तन के साथ क्या स्त्री के प्रति समाज के रवैये में सकारात्मक परिवर्तन आया है या फिर स्थितियां अभी भी जस की तस बनी हुई हैं ।
जीवन-पथ के राही कहानी के समान ही इंद्र बहादुर खरे की अन्य सभी कहानियाँ जीवन के अनेक मूल्यवान अनुभवों से परिपूर्ण हैं जिनमें समाज की विसंगतियों,जीवन मूल्यों , प्रेमपरक आदर्शों और स्त्री उत्थान से संबंधित विभिन्न मुद्दों को उठाया गया है । इंद्र बहादुर खरे की कहानियाँ समाज के लिए महत्वपूर्ण सन्देश लेकर चलती हैं और एक स्वस्थ सोच युक्त समाज निर्माण की कामना रखती हैं । उनकी कहानियों में सत्यता के साथ कल्पना का,जग के साथ ह्रदय का मेल है और इनके लिए वे पाठकों से भी अपेक्षा रखते हैं कि -“न तो इनमें कोई दर्शन की खोज करे, न शाश्वत चिंतन की आशा और न विश्व को खुली आँखों से देखने की चेष्टा, केवल कहानी के ही निकटस्थ आकर इन्हें समझे और सोचे कि कहाँ तक बात ठीक है और कहाँ तक बालकों की बातों सी नादान है ।”
इस प्रकार कह सकते हैं कि इंद्र बहादुर खरे ने साहित्य जगत को जितना दिया, निश्चित ही उसका मूल्यांकन करना अभी शेष है । यह हमारे समाज का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इंद्र बहादुर खरे जैसे साहित्य को समर्पित अनेक निस्वार्थ साधक ऐसे हैं जिन्हें जीवित रहते वह मान- सम्मान नहीं मिल पाता, जिसके वे अधिकारी हैं । यहाँ तक कि उनकी साधना, उनकी कृतियों का भी परिस्थितिवश संतोषजनक और सम्यक मूल्यांकन नहीं हो पाता । यह संतोष की बात है कि खरे जी के परिवार के प्रयत्नों से पिछले कुछ समय से मध्यप्रदेश और विभिन्न राज्यों के विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में उनकी कृतियों को शामिल किया गया है और विद्यार्थियों द्वारा उनके साहित्य पर शोध कार्य भी किए जा रहे हैं । देश के प्रकाशन के क्षेत्र में अग्रणी वाणी प्रकाशन,दिल्ली द्वारा उनकी कई किताबों का प्रकाशन भी किया गया है ।
एक साहित्य साधक को क्या चाहिए, बस पाठकों तक उसके लेखन की पहुँच ,साहित्य जगत में उसकी एक निश्चित पहचान और उसकी रचनाओं को साहित्यिक जगत की स्वीकृति । लेकिन कई बार साहित्य जगत इन विभूतियों को जीते जी पहचान नहीं पाता जिस कारण वह इन विराट व्यक्तित्वों की छाँव से वंचित रह जाता है । लेकिन निश्चित ही यह सभी हिंदी प्रेमियों के लिए संतोषजनक है कि इंद्र बहादुर जी के परिवारीजनों के व्यक्तिगत प्रयत्नों से आज उनकी रचनाएं प्रकाशित होकर साहित्य प्रेमियों तक पहुँच रही हैं और डॉ.खरे अपनी रचनाओं के माध्यम से हमारे आसपास हैं, हमारे भीतर पुनर्जीवित हो रहे हैं ।लेखक की असली पूंजी,असली धरोहर उसकी रचनाएं ही होती हैं, जिनसे वह अपने पाठकों तक पहुँचता है । सरकार और संस्थाओं का यह कर्तव्य है कि वे इस दिशा में आगे आयें और इस तरह की योजनाएं अमल में लायें जिसके माध्यम से डॉ. खरे और उन जैसे साहित्य सेवकों का लेखन व्यर्थ न जाए और उनके साहित्य की सार्थकता अनंत काल तक बनी रहे।
*सहायक निदेशक,केंद्रीय हिंदी निदेशालय
शिक्षा मंत्रालय,भारत सरकार
ई-मेल-pandeynutan91 @gmail.com